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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ४ अंशको मैं नोटकर सका और न टीकाकर्ताके अन्तिम भावार्थदीपिका टीका उल्लेख को । पूर्वोक्त प्रशस्तिसे तो इम टीकाके लिखन यह टीका भी पूने के भाण्डारकर प्राच्यविद्या लिखाने वालों का ही पता लगता है । यह एक विचित्र संशोधक मन्दिर में है। इसका प्रारंभ का और बात है कि इसमें तीन बार के लिपिकारों का उल्लेख
ক্ষকা হা ফুল মক্কাसुरक्षित है। इसकी एक प्रति श्रीदेवकीनि पण्डित के
श्रीमन्तं जिनदेवं वीरं नत्वामराचितं भक्तया विद्यार्थी काहत्याक ने लिखी थी और सहवासीवंशके
वृत्ति भगवत्याराधनामुग्रन्थस्य कुर्वेऽहम ॥॥ यशोधवल नामक धुरंधरयापण्डितने बुद्धिमानोंके प्यारे
धनघटित कर्मनाशं गुरुं च वंशाधिपं च कुन्दा श्रीदेवकीर्ति पण्डित को भेट दी थी । इस प्रतिके लिखे
वंदे शिरसा तरसा अन्यसमाप्ति समीप्सुरहम् ।। जान का समय नहीं दिया है। इस प्रतिपरसे जो दूसरी
वाग्देवीं श्रीजैनी नत्वा संपार्थ्य ग्रन्थसंसिदि । प्रति लिखी गई, वह रत्नकीर्ति भट्टारक के पट्टशिष्य
सरला मुग्धा विरचेवृत्तिभावार्थदीपिकासंज्ञां ॥३॥ श्रीपभाचन्द्र देवके शिष्य ब्रह्मचारीनाथराम ने संवन १४१६ की चैत सुदी ५ सोमवार को अपने पढ़ने के
अथातो भगवान् शिवकोटिमुनिः समन्तभद्रलिये दिल्लीमें लिखाई, जिस समय कि बादशाह फीरोज
चरणाराधनात्माप्तसम्यग्दर्शनः पूर्वानुभूतराज्यशाह तुरालक का राज्य था।
मुखोऽपि स्वयं चानुरक्ततपोवन मु खः सत्रात्मइस दुसरी प्रतिपर से तीसरी प्रति अप्रोतक या संबोधनं कुर्वन् भव्यसम्बोधनार्थ ग्रन्थं रचनादी भरवालवंशके नयपाल साहू के पत्र कला और विघ्न वि०गोहिलगोगी सा-खतल साहू-राजा के पुत्र
अथ प्रशस्तिः वीरपाल ने लिखाई । विस समय में लिखाई गई, यह
कृतेऽयंसदवृत्तिः शिवजिदरुणाख्येन विदुषा नहीं लिखा है।
गुणाना सत् व्यातिय॑पहनसपम्तापनिकग। यह पद्धति बहुत ही अच्छी है। इस प्रकार यदि प्रन्थ
प्रवक्तः श्रोतुर्या वितरति दिवं मुक्तिमपर्ग लेखक (लिपिकर्ता) अपने पहले की मातका प्रतियोंकी चिर जायादा पुषजनमना
चिरं जीयादेषा बुधमनपनोरंजनकरी ।। लेखकप्रशस्तियाँ भी लिख दिया करें, तो बहुत लाभ हो। महासंघे गच्छे गिरिगणवलात्कारपदके
दूसरे लिपिकर्ता ने अपना संवत १४१६ दिया है गरी नन्याम्नायेन्वयवरगुरौन्दमुनिपे। और उसने वह प्रति अपने से पहले की प्रति पर से की है। इससे टीका के निर्माणकाल के समय में इतनी
सुजातो वै सरिर्जयपुरपदस्थो मुनिवरः ।।।। बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि यह टीका मा.
महेन्द्रस्तत्पट्टे गुरु गुणनिधिः क्षेमसुनुषा विक्रम की चौदहवीं शतानि के बाद की नहीं है। इस तदीयः सच्छिष्यो पुषवर निहालेतिपदभाक् । टीका के सम्बंध में विशेष जानने का प्रयत्न किया जा
तदीयः सच्छिष्यो गुणनिषिदयाचन्द्रविबुधाः रहा है मालूम होने पर पाठकों के सम्मुख उपस्थित
तदीयः सत्तेजा दिलसुखबुधो शाननिरतः ॥३॥ किया जायगा।
* नं. ३ मा १८५११५।