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बनेकान्त
[वर्ष १ किरण ४ "माह च गन्धहस्ती-निद्रादयः समधिगताया एव इससे इतनी बात निर्विवाद रूपसे सिद्ध होती है कि दर्शनलब्धरुपघाते वर्तन्ते दर्शनावरणचतुष्टयं तद्- 'गंधहस्ती'प्रचलित मान्यतानुसार सिद्धसेनदिवाकर नहीं मोच्छेदित्वात् समूलघातं हन्ति दर्शनलब्धिमिति" किंतु उपलब्धतत्त्वार्थभाष्यकीवृत्तिके रचयिता भास्वामि--प्रवचनसारोवारकी सिद्धसेनीय वृत्ति पृ०३५८ प्र०५०५
शिष्य सिद्धसेन ही हैं । नामकीसमानतासे और प्रकांडउपर्युक्त प्रक्वन्सारोद्धारकी वृत्तिों का पाठ तेरहवीं शताब्दीके देवेनारिके प्रथम कर्माप्रथकी १२वीं गाथाकी टीका भी धास्ती वादीतथा कुशल प्रन्थकारके तौर पर प्रसिद्धिप्राप्त सिद्धनामके साथ है।
सेनदिवाकर ही गंधहस्ती होसकते हैं, इस संभावनामेंसे (२) "या तुभवस्थकेवलिनोद्विविधस्यसयोगाऽयोगभेदस्य ९० यशोविजयजी की दिवाकरके लिये गंधहस्ती विशेषण
सिद्धस्य वा दर्शनमोहनीयसप्तकक्षयादपायसद्व्य- के प्रयोग की भ्रान्ति जन्मी हो, ऐसा संभव है। क्षयाचोदपादि सा सादिरपर्यवसाना" इति
उपरकी दलीलों परसे हम यह स्पष्ट देख सकते है -१, ७ की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति पृ० ६० ५० १ "यदाह गंधहस्ती-भवस्थकेवलिनो द्विविधस्य स
कि श्वेताम्बरपरम्परा में जो गंधहस्ती प्रसिद्ध हैं वे योगायोगभेदस्य सिद्धस्यवादर्शनमोहनीयसप्तक- तत्त्वार्थसूत्रके भाष्यकी उपलब्ध विस्तीर्ण वृत्तिके रचने याविभूता सम्यग्दृष्टिः सादिरपर्यवसाना इति । " वाले सिद्धसेन ही हैं । इस परसे हमें यह माननेका भी
-नवपदवृत्ति पृ०८८ द्वि. कारण मिलता है कि सन्मति टीकाकार १०वीं शताब्दीके (३) “तत्र याऽपायसद्व्यवर्तिनी श्रेणिकादीनों सद्- विद्वान अभयदेवने अपनीटीकामें दोस्थानों पर गंधहस्ती'
व्यापगमे च भवति अपायसहचारिणीसा सादिस- पद का प्रयोग करके जो उनकी रची हुई तत्त्वाव्यापर्यवसाना।"
-१, ७ की तत्वार्थभाष्यनि पृ०५४६०२७ ख्या को देख लेने की सूचना की है x वे गंधहस्ती "यदुक्तं गंधहस्तिना-तत्रयाऽपायसद्व्यवर्तिनी- दूसरे कोई नहीं किन्तु उपलब्ध भाष्यवृत्तिके रचयिता पायो-मतिज्ञानांशः सद्व्यानि-शुद्धसम्यक्त्व- उक्त सिद्धसेन ही हैं । अतः सन्मति-टीकामें अभयदेव दलिकानितद्वर्तिनीश्रेणिकादीनांचसद्व्यापगमे भ- ने तत्वार्थसूत्र पर की जिस गंधहस्ति-कृत व्याख्याको वत्यपायसहचारिणी सा सादिसपर्यवसाना इति” देख लेने की सलाह दी है उस व्याख्याके लिये अब
-नवपदवृत्ति पृ.८८ द्वि. (४) "प्राणापानावच्छ्वासनिःश्वास क्रियालक्षणो" x सन्मति' के द्वितीय कां की प्रथम गाथाकी व्यायामें टीका
---८, १२ की तन्वार्थ भाष्यप्रनि पृ० १६१६० १३ कार अभयंदेवने तत्वार्थके प्रथम अध्यायके, १०, ११ र १२ "यदाह गंधहस्ती-प्राणापानौ उच्छ्वासनिःश्वासौ इति" .
, एसे चार सूत्रोंको अधृत किया है और वहां इन सूत्रोंकी व्याख्या में
गन्धहस्तीका परामर्श देते हुए उन्होंने बतलाया है कि-~-धर्मसंग्रहणीत्ति (मलयगिरि) पृ० ४२, पं० २ ।
"अस्य च सूत्रसमूहस्य व्याख्या गन्धहस्तिप्रभृति(५) "अतएव च भेदः प्रदेशानामवयवानांच,येन जातु- भिर्विहितेति न प्रदर्श्यते"। चिद् वस्तुव्यतिरेकेणोपलभन्ते ते प्रदेशाः ये तु
-पृ०५६५५०१४ विशकलिताः परिकलितमूर्तयःप्रज्ञापथमवतरन्ति इसीके अनुसार तृतीय कांडकी ४४ वीं गाथामें प्रयुक्त हुए तेऽवयवा इति"
बाद पाकी व्याख्या करते हुए न्होंने सम्यग्दर्शनशान-५, ७-८ की तत्वार्थभाष्यति पृ. ३२८५० २१ पारिवानिमोहमार्ग:" (१,१) यह सूत्र देकर इसके लिबेभी "यवयवयव प्रदेशयोर्गन्धिहस्त्यादिषुभेदोऽस्ति" "तथा पम्पती प्रतिनिर्षिान्तमिति र प्रद.
-स्वाद्वारमजरी • ६३ श्लो. ते विस्तरमपात्"-पृ. ६५१ ६. २०