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फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] समन्तभद्राममविज्ञप्ति नं०४
२५५ (२) तत्त्वार्थसत्र टीका ( तवार्थालंकार) शिव. (५) अथशम्दवाच्य--यह महावादिमुनि बकमीव.
कोटि प्राचार्यकृत-श्रवणबेलगोलके शिलालेख द्वारा छह महीनेमें रचा हुआ प्रन्थ है। इसमें नं० १०५ के निम्न पद्यसे इस टीका का पता विस्तारके साथ 'प्रथ' शब्द का अर्थ बतलाया है। चलता है और इसमें प्रयुक्त हुआ 'एतन' शब्द इसका भी उक्त शिलालम्बमें उल्लेम्व हैइस बात को सचित करता है कि यह टीका परमे। 'ग्रीवोऽस्मिन्नाथ-शब्द-वान्या : ही उद्धृत किया हुआ पन्ध है
मवदद् मासान्ममासेन पट ।। तस्यैव शिष्यः शिवकोटि
-पारि०, ५०) सारस्तपा लतालम्बनदेहयष्टिः। (६) चडामणि--यह श्रीवर्द्धदव-कृत एक मध्य काव्य संसारवाराकरपोतमेत
है, जिसका उल्लेख भी उक्त शिलालेखमें निम्न तत्त्वार्थसत्रं तदलंचकार ॥
प्रकारसे पाया जाता है । इसके रचयिता श्रीवर्द्ध
देव की दंडी कविने स्तुति की है और उन्हें जिल्ला
-पारि०, १००) (२) नवस्तोत्र-- यह वज्रनन्दी प्राचार्यका बनाया
प्र पर सरस्वती को धारण करने वाले लिखा है ।
इससे यह काव्य प्राचीन तथा महत्व का जान हुआ है जो संभवतः पूज्यपादस्वामीके शिष्य थे।
पड़ता है-. . श्रवण बेलगोलके मल्लिषेण प्रशस्ति नामक शिलालेख नं० ५४ (६७) में जो शक संवत १०५ चूडामणि कवीनां चुडामणि नामसेव्यकाव्यकविः। लिखा हुआ है, इसे सकलाईप्रवचनके भाव को श्रीवर्द्धदेव एव हि कृतपुण्यः कीर्तिमाहर्तुम् । लिए हुए बड़ा ही सुन्दर पंथ बतलाया है
-पारि०, ५०) नवस्तोत्रं येन व्यरचि सकलाईत्यवचन- (७) तत्त्वानशासन--यह ग्रंथ म्वामीसमन्तभद्र-कृत प्रपंचान्तर्भाव-प्रवण-वर-सन्दर्भ-समगम् ॥ है और इसलिये रामसेनकृत उस तत्त्वानुशासनसे
___ भिन्न है जोमाणिकचंद-ग्रंथमालामें प्रकट हुमा है। ४) सुमतिसप्तक -यह सुमतिदेवाचार्य का ग्रंथ है।
इसका उल्लेख 'दिगम्बर जैनपंथकर्ता और उनके
मंथ' नामकी सूचीके अतिरिक्त 'जैनप्रथावली' में उक्त शिलालेखके निम्न वाक्यमें इसका उल्लेख है
भी पाया जाता है, जिसमें वह सूरत के उन सेठ और इसे कुमार्ग को हटा कर सुमति-कोटि का
भगवानदास कल्याणदासजी की प्राइवेट रिपोर्टसे विकाशक तथा भवातिका हरने वाला लिखा है।
लिया गया है जो कि पिटर्सन साहब की नौकरी शांतरक्षित-रचित बौद्धों के 'तत्त्वसंग्रह' प्रन्थ में
में थे । 'नियमसार' की पद्मप्रभ-मलधारिदेव-कृत सुमनिदेवके बहुतसे वाक्यों का उल्लेख है। आश्चर्य
टीकामें 'तथा चोक्तं तत्वानुशासने इस वाक्यक नहीं जो वे इसी प्रथके वाक्य हों
साथ नीचे लिखापद्य उद्धृत कियागयाहै,जोराममुमतिदेवममुं स्तुत येन ब
सेनके उक्त तत्वानुशासनमें नहीं है और इस लिय स्सुमतिसप्तकमाप्ततया कृतम् । संभवतः इसी तत्वानुशासन का जान पड़ना हैपरिहतापय-तत्व-पयार्थिना उत्स4 कायकर्माणि भावं च भवकारणं । सुमति-कोटि-विवर्ति भवातिहत् ॥ स्वात्माषस्थानमन्वय कायोत्सर्गः स उच्यते ॥ -पारि०,५०).
-पारितो०, १००)
-पारि०, १००)