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भनेकान्त
[वर्ष १, किरण ४५-५०पनालालमी काव्यतीर्थ,चौरासी (मथरा)- वे हमारे इस कथन को अतिशयोक्ति न सममेंगे। " भनेकान्त की १-२ किरणें पढ़ कर चित्त
आज जैन समाजके युवकोंमें जो धार्मिक विचारअतीव आल्हादित हुआ,चिरकाल से मुरझाई हुई
स्वातन्त्र्य दृष्टि पड़ रहा है उसमें बहुत कुछ आपका
हाथ है। हमें हर्ष है कि आप पुनः अनेकान्तद्वारा आशालता उसके दर्शन मात्र से पल्लवित हुई।""" खोज और ऐतिहासिक निबन्ध सर्वोत्कृष्ट हैं।"
कार्यक्षेत्र में पदार्पण कर रहे हैं । 'अनेकांत' का
प्रथमांक और द्वितियांक हमने पढे हैं। दोनों अंक ४६-७० पार्थसागरजी अधिष्ठाताश्री दे० कु.
सुन्दर सुपाठ्य और जैन एवम् अजैन सभी के अमचयोश्रम कुन्थलगिरि
संगहयोग्य हैं । लेख और कविताएँसभी उच्चादर्श "आपका प्रयल प्रशंसनीय है । जैनसमाज में को लिये हुये हैं । आशा है कि सहयोगी 'जैनऐसे पत्र की अतीव जरूरत थी। उसकी पूर्तिश्राप हितैषी' की कमी को समाज के लिये पूरी करेगा।" ने की है। इसलिये मैं सहर्ष धन्यवाद देता हूँ तथा ४ सम्पादक 'विज्ञान' प्रयागपाशा करता हूँ कि 'अनेकान्त' पत्र द्वारा जैन
"यह अनेकान्तवादकी प्रचारक जैनधर्मीय पत्रिसमाज का सुधार होगा। मैं यथाशक्ति तन, मन, धन से सेवा बजाने की कोशिश करूँगा।"
का है।...इसमें सम्पादकजीका 'पात्रकेसरी और
विद्यानन्द' सम्बन्धी लेख तथा नाथूराम प्रेमी का ४७ श्री सुलतानमलजी सकलेचा, विल्लुपुरम् 'कर्नाटक-जैन-कवि' निबन्ध मननशील हैं। क(मदरास)
विताओंका चुनाव भी साधारणतः अच्छा ही है। 'भनेकान्त' की प्रथम किरणको पढ़कर मैं बहुत
हमारी शिक्षा नामक लेख भी उपयोगी है। हमें हीप्रसन्न हुआ।पण्डित सुखलालजीका 'अनेकान्त
आशा है कि यह सुंदर पत्रिका जैनसमाज में जावाद की मर्यादा' और आपका भगवान महावीर
गति एवं स्फूर्ति उत्पन्न करनेमें सफल होगी। हम और उनका समय' शीर्षक लेख बहुत ही महत्त्व
इसकी हृदयसे उन्नति चाहते हैं।" पूर्ण हैं । बाकी लेख भी अच्छे हैं ।... अनेकान्त' ५० सम्पादक 'राजस्थान सन्देश', अजमेरसिद्धान्तका प्रकाशकरके संसारमें मिथ्यकान्तरूपी
___ "इस मासिक पत्रको जैन पत्रों में सर्वोत्तम अन्धकारको हटाने वाला है । निःसन्देह जैनसमा
कहा जा सकता है । इसका विषय-सम्पादन तो जमें यह एक सुन्दर उच्चकोटिका साहित्यिकतथा
अच्छा होता ही है, लेख भी मार्के के होते हैं। ऐतिहासिकपत्र है । इस सर्वागपूर्णपत्र का प्रत्येक
पुरानी बातें काफी खोज के साथ पाठकोंके सामने जैनको प्राहक बनना चाहिये । मेरी भावना है कि
रक्खी जाती हैं जैन भाइयों को इसे अवश्य अअनेकान्त को संसार अपनावे जिससे उस का
पनाना चाहिये।" कल्याण हो।
५ -सम्पादक 'वीर' मेरठ१८ सम्पादक 'सुदर्शन', एटो
'अनेकान्त' की दो संख्यायें हमारे सामने हैं "श्री जुगलकिशोरजी जैन समाज के उन गिने और दोनों ही कीछपाई औरभाव-भषा उत्तरोत्तर हुए नररत्नों में से हैं जिन्होंने समाज में धार्मिक बढ़ी चढ़ी है । जैनसमाजमें एक ऐसे ही मार्मिक विचार स्वातंत्र्य का प्रादुर्भाव कर अन्धभता साहित्यालोचन करने वाले मासिक पत्र की
और लोक-मूढ़ता को दूर भगा दिया है। जिन आवश्यकता थी। 'भनेकांत' उसकी पूर्वि मच्छी महानुभावोंने पापके लेख 'जनहितैषी' में पढे होंगे - तरह कर सकेगा, इसमें शक नहीं।" "