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अनेकान्त
[वर्ष१, किरण ४ गृहस्थाश्रम में दो प्रकार की हिंसा हो सकती है के कारण पापी होता है और दूसरा अन्य जीवों का एक पारम्भजा और दूसरी अनारम्भजा । श्रारंभजा घात करते हुए भी हिंसा परिणाम की मुख्यता न होने हिंसा कूटना, पीसना, रसोई आदि गृहिकमों के अनु- से पापका भागी नहीं होता-अथवा हिंसक नहीं कहष्ठान तथा भाजीविका के उपार्जन आदिसे सम्बन्ध लाता; जैसे धीवर और किसान । धीवर जिस समय रखती है, और अनारम्भजा हिंसा गृहस्थों के योग्य जाल हाथ में लेकर मछलियाँ पकड़ने के लिये जाना प्रारम्भ को छोड़ कर शेष मन-वचन-कायके संकल्प- है उस समय बाह्यमें हिंसा न करते हुए भी हिंसापरिद्वारा होनेवाले त्रस-जीवोंके घातको अपना विषय करती णामकी मुख्यताके कारण वह हिंसक है और किसान है । और इम दूसरी हिंसाको संकल्पी हिंसा भी खेतको जोतने तथा खेती-संबंधी अन्य प्रारंभों के कहते हैं।
__ करने में प्रचुर जीव घात करते हुए भी उन जीवोके बारम्भजा हिंसा का त्यागना गृहस्थ-जीवन की घात का मुख्याभिप्राय न रखने से अहिंसक है ।' इसी दृष्टि से अशक्य है। इसी लिये, वैसा जीवन व्यतीत से गृहस्थों के लिये जीवनोपायके रूपमें कृष्यादि को करते हुए, गृहस्थाश्रममें उसके त्यागका आम तौर पर के अनुष्ठानका विधान है । युगकी आदि में खुद भगविधान नहीं है ।। बल्कि एक जगह तो गृहस्थधर्मका वान् ऋषभदेवने प्रजाजनों को उसकी शिक्षा दी है; वर्णन करते हुए यहाँ तक लिखा है कि- जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्य से भी
सा क्रिया कापि नास्तीह यस्याहिंसान विद्यते । प्रकट है :पिशिष्येते परंभावावत्र मुख्यानुषतिको । " प्रजापतियः प्रथमं जिजीविषः मनमपि भवेत्पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । शशास कृष्यादिषु कर्ममु प्रजाः । अभिध्यानविशेषेण यथा धीवरकर्षको ।
-स्वयंभस्तोत्र । -यशस्तिलक, उ० पृ० ३३५ गृहस्थों की आजीविका छह प्रकार की है, जिअर्थात्-'ऐसी कोई भी क्रिया नहीं है जिसमें हिंसा नमेंसे असिवृत्ति भी गृहस्थ की एक भाजीविका है. न होती हो; परन्तु यहाँ पर मुख्य और मानषंगिक और उसका प्रधान लक्ष्य है सेवा ।। इसी से उसके भावों की विशेषता से विशेष है ( उसी के आधार पर करते समय जो शख उठायेजाते हैं अथवा स्वाभिमान हिंसा-अहिंसाकी व्यवस्था की जाती है)। एक मनुष्य
की रक्षा के लिये प्रयत्न किये जाते हैं वे सब अपने दूसरे प्राणीका पात न करते हुए भी हिंसापरिणाम तथा अन्य दीन-दुर्बलोंके प्रति होने वाले अन्याय+ "हिंसा द्वेषा प्रोक्ताऽऽरंभानारंभजवतो दः। - असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । गृहवासतो निवृत्तोऽपि त्रायते सांय
कर्माणीमानि पोटा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ।। गहवाससेवनरतो मन्दकपायप्रतितारम्भः ।
-प्राषिपुरावे, जिनसेनः । प्रारम्भजा स हिंसांशक्नोतिनरषितुं नियमात्॥ + "तत्रासिकर्म सेवाओं -आमकाबारे, अमितगतिः।
-मारिसराडे, जिनसेनः।