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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण३ इसी तरह क्षेत्र, काल और स्वामी आदिका ज्ञान भी आपसके खण्डन मण्डन की बात, सो हर एक दार्शआसान होजाता है।
निकको उसमें पूरी स्वतन्त्रता रही है । जब वेदान्त एक हजार भारका लोहेका गोला इन्द्र लोक से ब्रह्मसूत्रसे अपनी बराबरके योगके सिद्धान्तोंके लिये भी नीचे गिर कर ६ मासमें जितनी दूर पहुँचे उस संपूर्ण कह दिया है कि "एतेन योगः प्रत्युक्तः" इससे योग लंबाईको एक राजू कहते हैं । नृत्य करते हुए भोपाके प्रत्युक्त कर दिया गया । तब हम वेदके विचारको छोड़ समान आकार वाला यह ब्रह्माण्ड सातराज चौड़ा और कर दार्शनिक खण्डन मण्डन पर ध्यान नहीं देते । सात राजू लंबा है । और दर्शनोंके समान जैनमें भी उसमें तत्व ही ढूंढते हैं। स्वर्ग नरक तथा इन्द्रादि देवताओंके जुदेजुदे लोक हैं। अहिंसाको मुख्य मानने वाला यह दर्शन महावीर __ यह दर्शन जीवात्माको सब शरीरव्यापी मानता स्वामीके निर्वाणके बाद अहिंसाके मुख्य सिद्धान्तोंका है, बड़े छोटे शरीरोंमें दीपककी तरह जीवात्माके भी संग्राहक होनेके कारण अग्रोहाधिप महाराज अग्रसेनजी संकोच-विकाश होते रहते हैं परन्तु मुक्त जीव अन्तिम कीसन्तानोने भी इस धर्म में अपनेको दीक्षित कियाथा। शरीरसे तीन हिस्से कम होता है।
प्रायः जब जिस दर्शनका अनुयायी अधिक जनपथिवी जल वाय तेज और वनस्पति शरीर वाले समुदाय हो जायगा तब ही उसके जदे जदे मण्डल जीव स्थावर कहलाते हैं इनको स्पर्शका ही विशेष रूप खड़े होने लग जायँगे। एक दुर्भिक्षके बाद जैनोंमें भी से भान होता है। बाकी स्पर्शादि द्वि इन्द्रियों से लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर नामकी दो संप्रदायें बन गयीं। पाँच इन्द्रिय वाले मनुष्य आदि त्रस कहलाते हैं। महाराज अग्रसेनकी जैन सन्तानों ने दिगम्बर पथ कारण ? इनमें अपनी रक्षा करनेकी चेष्टा होती है। का अनुसरण किया, जो अब भी जैनसमुदायमें सरा___ संवर और निर्जरा के प्रभावसे आस्रवका बन्धन वगी कह कर प्रकाशे जाते हैं जो प्रायः वैदिक संस्कार छूट कर आत्मप्रदेशसे कर्मों के संयोगको मिटा कर तथा अहिंसावत दोनों ही का पालन करते हैं । जिनमें नाश कर दिया जाता है तब जीव अपने आप ऊर्ध्व और अप्रवालोकी सी पूरी रस्मारिवाज मौजद हैं। सराविचरता हुआ मुक्तहोजाता है। फिर उसका जन्म मरण वगी लोग वैदिक विधिसे ही उपवीत धारण करते हैं। नहीं होता।
दिगम्बरमंप्रदायमें से पहिले एक मूर्तिपूजाको न इस दर्शनके अनुयायियोंमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, मानने वाला हजार आदमियोंके करीबका समुदाय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सार्वभौम महाव्रतोंकी निकला था पर उसकी अधिक वृद्धि न हुई। उपासना प्रधान रूपसे होती है । सब धर्मों के मूल काल पाकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी संवेगी और अहिंसा ब्रतकी उपासना करनेके कारण इन्हे "अहिंसा बाईस टोला इन दो भागोंमें बट गया। परमो धर्मः" का पाबन्द कर दिया है।
संवेगी लोग अधिक सूत्र ग्रंथ माना करते हैं पर इधर उधरके आचार्यों के ईर्षा द्वेषके अक्षरोंको इनमेंसे बाईस टोलाने थोड़े से सूत्रग्रंथोंका ही प्रमाण अलग हटाकर दर्शनके मूल सिद्धान्त पर विचार किया माना है। जाय तो वे सिद्धान्त वेदसे परिवद्धित सनातन ही आजसे करीब दो सौ वर्षों के पहिले बाईस टोला प्रतीत होते हैं। कारण भगवान् वेदव्यासके व्यासभा- से निकल कर श्रीभीखमदासजी मुनिने तेरह पंथ नाम ज्यसे मूल जैनदर्शन बिलकुल मिलता जुलता है। रही का एक पन्थ चलाया।
*मालूम नहीं लेखक महाशयने यह बात कौनसे प्रन्यके माधार पर इसमें सूत्रोंकी मान्यता तो बाईस टोलाके बराबर लिखी है। ब्रम्पसंग्रह मादि ग्रन्थोंमें तो 'किंवृणा करमदेहदो सिधा' है परन्तु स्वामी दयानन्दके सत्यार्थप्रकाशकी तरह जैसे वाक्यों द्वारा मुफ जीवका प्राकार मन्तिम शरीरसे किंक्तिजन * सब सराबगी अग्रवाल जैनी ऐसा करते हैं, यह नहीं पाया बतलाया है।
-सम्पादक जाता।