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संशोधन और
फाल्गुन, बीरनि सं२४५६ ]
इसमें शक नहीं कि एक नामके अनेक ग्रन्थ अनेक विद्वानोंके द्वारा रचे जाते थे। कुछ बौद्ध साहित्य देवने से यह पुष्ट कल्पना होती है कि सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय आदि नाम बौद्ध-साहित्य में से ही जैन विद्वानों के द्वारा लिये गये हैं। आश्चर्य नहीं कि पहले सिद्धिविनिश्चय न्थ किसी श्वेताम्बर विद्वान् ने रचा होगा जो सिद्धसेनकृत सन्मतितर्क से कुछ पुराना अवश्य होगा । इसके बाद अकलंकदेवने भी सिद्धिविनिश्चय रचा हो । हाँ, सिद्धिविनिश्चयटीका की जो लिखितप्रति पुरातत्त्रमंदिर में मौजूद है उसका विशेष अंतरंग परीक्षण अब करना होगा और उससे यह मालूम करना होगा कि क्या वह सिद्धिविनिश्चय वस्तुतः चूरिए निर्दिष्ट है या अकलंकदेव-विरचित है ? अथवा चूर्रिर्दिष्ट एक ही सिद्धिविनिश्चय पर अकलंकदेव की कोई छोटी भाष्यवृत्ति है, जिस पर अनन्तवीर्यकी यह लंबी टीका है ।
* अनन्तवीर्य आचार्यकी टीका जिस सिद्धिविनिव्क्य' ग्रन्थ पर
है वह अकलंकदेव का मूल ग्रन्थहै, यह बात टीका के निम्न प्रारंभिक प से स्पष्ट जानी जाती है:
कलंक जिनं भक्त्या गुरुं देवीं सरस्वतीं । नवा टीका प्रवक्ष्यामि श्रद्धां सिद्धिवनिश्चये ॥ १ ॥ कलंकवचः काले कलौ न कलयापि यत । नुष लभ्यं कचिलध्वा तत्रैवास्तुमतिर्मम ॥ २ ॥ देवस्थाननावीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः । न जानीते ऽकलंकस्य चित्रमेतत्परं भुवि ॥ ३ ॥ कलंकवचोऽम्भोधेः सूक्तरत्नानि यद्यपि । गृह्यन्ते बहुभिः स्वैरं सद्रत्नाकर एव सः || ४ || सर्व धर्म [य] नैरात्म्यं कथयन्नपि सर्वथा । धर्मकीर्तिः पदं गच्छेदालंकं कथं ननु ॥ ५ ॥
यहां, टीकाकारने पहले पद्यमें अकलड़देव का खास तौर में नमस्कार किया है और जिस ग्रंथ को टीका लिखने की प्रतिज्ञा की है उसका नाम 'सिद्धिविनिधय' दिया है कि कोई भाष्यति । दूसरे पथमें काइदेवके वचनों का दुर्ल मपना प्रकट किया है और
सूचन
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पंडितजीके उक्तखोज-विषयक लेखमें कहा गया है. कि 'किसी सेठ ने सन्मतितर्कके उद्धार्थ २५ या ३० हजार जितनी बड़ी रकम गुजरात - पुरात्वमंदिर को दी थी, ऐसा सुना गया है' परन्तु ऐसी बात नहीं है । सन्मतितर्कका सब खर्च गुजरातविद्यापीठने किया है और कर रहा है। अलबत्ता इस कार्य में बाहर से अनेक प्रकार की मदद जरूर मिली है, अब भी मिलती है । अनेक विद्वान सहृदय मुनियोंने इस कार्यके लिए ग्रन्थोंकी, बुद्धिकी, शरीरकी और थोड़ी बहुत धनकी भी मदद की है. तथा कराई है । अनेक साहित्यप्रेमी गृहस्थोंने भी वैसी ही मदद बड़े भाव से की है, जिसका सूचन उस उस भाग के प्रारम्भमें छप चुका है।
दिगम्बर संप्रदाय में विद्वानोंकी संख्या बढ़ी है, वह काम भी चाहती है । पुरातन महत्वपूर्ण साहित्य दिगम्बर-परम्परामें कम नहीं है। पंडितगण निरर्थक विक्षेपको छोड़ विद्याका कार्य लेलं तां धन और शक्ति नाशमार्ग में न लगकर पवित्र काम में लगे । ना०४०-२-३० ]
सुखलाल तथा बेचरदास
उसके प्रति अपनी असाधारण वा व्यक्त की है। तीममें इस बात पर व प्रकट किया है कि अनन्तवीर्य होकर भी में एकलदेव शास्त्र को पूरी तौरसे व्यक्त करना नहीं जानता है। बौधे में कलदेव वचन समुद्रसे बहुतोने सुफ रम महगा किये हैं और मह वास्तवमें साकर है, ऐसा प्रकट किया है। और पांचवें पथमें यह बढ़ा गया है कि सर्वथा सर्वधर्म के नैरात्म्य का कथन करने वाला धर्मकीर्ति (बौ जो कि कवके समकालीन था ) भकलइदेवके पद का कैसे पहुँच सकता है ? उम्र सब कथन पर से इस विषय में कोई संदेह नहीं रहता कि मूल 'सिद्धिविनयय' ग्रंथ महदेव का बनाया हुआ है। हो सकता है कि निगीप-िवागत 'मिदिविनिय' कोई दूसरा भी हो, बशर्त कि चूर्णिके निर्माण का जो समय अनुमान किया गया है वह ठीकहो और चूर्णिमें वह उसा कोई क्षेपक न हो---' जीतकल्प' की टीका परसे ही किमीके द्वारा उन किया गया हो । -सम्पादक