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प्रतमें पचे।
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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ३ प्रवृत्ति उन्हें शयनागार में जाने की जल्दी कराने में कुमार ने कहासफल नहीं होती।
"तुमलोग इतना डरती हो!-मुझसे डरती हो?x x
डरनेका अब मौका कहाँ है? तुम अपना वक्त खो दोगी,
___ तो मेरा दोष न होगा। और वक्त ज्यादे नहीं है।" कुमारके आने की आहट उन्हें मिली, पर जैसे सब चुप रहीं । कुछ देर कुमार भी चुप रहे। नहीं मिली। वे निश्चेष्ट वैसी ही रहीं।
फिर पद्मश्री ने आकर कुमारके चरण पकड़ेउनका कमरे में प्रवेश करना था कि पद्मश्री हर- "नाथ !" बड़ा कर उठ बैठी। विनय जैसे असंमजस में पड़ गई विनय और कनक ने भी ऐसा ही किया, पैरों से
और कनक, लेटे-लेटे तनिक उठ कर मुँह नीचे करके माथा रगड़ कर करुणार्त-स्वर में कहा-"नाथ !" बैठ रही । रूपश्री उठी, भागी और सपसे दूर के कोन किंतु रूप तो अब भी हिल न सकी । वह इन में, परली तरफ मुँह फेर कर, नखोंसे कालीन की ऊन परिचित तीन स्वरों के 'नाथ' सम्बोधनको सुन कर भी को कुरेदती हुई खड़ी होगई।
पीछे मुड़ कर देखने और कुछ करने का साहस न कुमार क्या करें?
कमा सकी। कमरे में, जैसे आजकल की कोंचें होती हैं लग- कुमार ने एक-एक को उठाकर कहाभग उसी प्रकार की सेजें, और पर्यक मानों अव्यव- "हे-हें, यह क्या ग़जब करती हो । छि-छिः, पैर स्थित, फिर भी एक विशिष्ट व्यवस्था, बिछे हैं। नहीं छा करते । तुम मेरे पैर छू कर यों देखोगी, या बीचों-बीच पाँव-फैलाए-हुए मोरकी शक्लका एकसिंहासन बात करोगी ?: 'और, वह तुम्हारी सखी,-उसे क्या रक्खा है। पंख-ही रल-मिल कर उस सिंहासनके चंदोवे हुआ है ?" का काम देते हैं-उनमें बहुमूल्य हीरे और मोती इस कुमार गये, धीमे-से उसे कंधे पर छुआअंदाज से टॅके हैं कि वे मारके सच्चे पंख से ही जान "सुनोपड़ते हैं । मारकी चोंच नीचेको झकी हुई है, मानों वह पर वह तो एक झमकसे मुरड़ गई, हाथ छूते ही कुछ चुगना चाहता है । पर उस चोंच से, वास्तव में, छिटकसे दूर भाग गईमोर संगमरमर के एक छोटे से जीन को संभाले है। कुमारने कहा-"सुनो सुनो तो ।" इन पैड़ियों पर चढ़ने के बाद, उसमयूरकी कलगी पाती पन आदि ने देखा यह रूप ने खूब विजय पाई। है। सिंहासनासीन व्यक्तिको पैर टेकने के लिये यही पद्म बोली "अजी, उसे छोड़ो। वह आप पायगी।जगह है । सिंहासन के बैठने का भाग काफी प्रशस्त, सुनो तो।" किंतु कुमार के साथ ही रूपने भी पद की बहुमूल्य वसोंसे सजा, बहुत ही मुलायम है । आदि। यह बात सुन ली, और अबके कुमारके छूने पर वह
कुमार उसी स्थान पर पहुँचे, और बैठ गये।बोले- उस तरह छिटक कर दूर न जा सकी। 'तुम लोग इतना डरती क्यों हो ?'
कुमार ने कहापनी ने सुना । स्वरने उसका गात मिहरा दिया, "तुम यों अलग क्यों रहती हो। आओ,-बारों शब्दोंने गुदगुदी सी उठा दी।
मेरी बात सुनो।" विनयने सुना । भाशा बैंगी।
तब वह कुमार के साथ ही पाकर उन तीनों से . कनक तो सुन कर, मुखर हो रहना चाहती है। सट कर और इस तरह अपना मुँह दुबका कर, बैठ उसका जी होता है ममी कुमारसे उलझ उठे। गई। कुमार भी अब, सिंहासन से पर्वक पर भागये ।
और यह रूपनी उसी कोनेमें गड़ी-गड़ी पूंगट-से के भीतर ही हलकी हँसीसे मुस्करा दी।
जो क्व बातें हुई, फिर बताया