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अनकान्त
[वर्ष १, किरण ५ तथा न्यायकुमुरचंद्र के अन्तिम पचोंके साथ ठीक जैनसमाजमें सर्वत्र प्रचलित है और वह इस प्रकार हैतुलना किया जा सकता है। शेष दोनों पद्य दूसरे स्वार्थपत्रकार गपिच्छोपलक्षितं । विद्वान-द्वारा इस ग्रन्थ पर लिखी हुई टीका-टिप्पणी के पद्य जान पड़ते हैं। और वे संभवतः उसी विद्वानके वन्द गणेन्द्रिमंजातमुमास्वातिमुनीश्वरं ।। पद्य हैं जिसने प्रमेयकमलमार्तण्ड पर टीका लिखी है परंतु पाठकोंको यह जान कर आश्चर्य होगा कि
और जिसके अन्तिम दो पद्यों पर गत किरण में पृष्ठ जैनसमाज में ऐसे भी कुछ विद्वान होगये हैं जो इस १३०के फटनोटद्वारा विचार प्रस्तुत किया जा चुका है। तत्त्वार्थसूत्र का कुन्दकुन्दाचार्यका बनाया हुआ मानन दूसरा पद्य तो यहाँ और वहाँ दोनों ही ग्रन्थों की थे। कुछ वर्षे हुए, तत्त्वार्थसूत्रकी एक श्वेताम्बर-टिप्पप्रशस्तियों में प्रायः समानरूप से पाया जाता है-सिर्फ णी को देखते हुए, सबसे पहले मुझे इसका आभास चौथे चरण में 'रत्ननन्दि' की जगह यहाँ 'पादपज्य' मिला था और तब टिप्पणीकार के उस लिखने पर कापरिवर्तन है। और यह परिवर्तन इस बात को साफ बड़ा ही आश्चर्य हुआ था। टिप्पणीके अन्तमें तत्वाबतला रहा है कि जब प्रभाचंद्र की टीका माणिक्य- र्थसूत्र के कर्तृत्वविषय में 'दुवोदापहार' नाम से कुछ नंदीके प्रन्थ पर थी तब तो प्रशस्ति लेखकन उन्हें रत्न पद्य देते हुए लिखा थाः(माणिक्य)नन्दिपदे रतः लिख दिया और जब टीका "परमेसावञ्चतुरैः कर्तव्यं शृणत वच्मिसविवेकः। पूज्यपाद के गन्थ पर देखी तब उन्हें पादपूज्यपदे रतः' शब्दो योऽस्य विधाता सदरणियो न केनापि॥४ विशेषण दे दिया है । साथ ही, इस विषय में भी कोई सन्देह नहीं रहता कि 'रत्ननन्दी' परिक्षामुख के ।
२ यः कुंदकुंदनामा नामांतरितो निरुज्यते कैश्चित । कुर्ता 'माणिक्यनन्दी से भिन्न कोई दूसरे विद्वान नहीं झंयोऽन्यएव सोऽस्मात्स्पष्टामास्वातिरितिविदिनान हैं-दोनों ही एक दूसरेके पर्याय नाम है । और प्रभा. टिप्पणी-“एवंचाकर्ण्य वाचको ह्यमा चंद्र नतो पृज्यपादके साक्षात् शिष्य थे और न माणि- स्वातिदिगंबरों निन्नव इति केचिन्मावदनदः क्यनन्दीके, किन्तु पयनन्दी के ही शिष्य थे। यह गन्थ बहुत छोटा है । छोटे साइजक कुल ९९
शिक्षार्थ परमेतावश्चतुरितिपयं ब्रूमहे शुद्धः पत्रों में यह समाप्तहुआ है । एक प्रौढ विद्वानकी प्राचीन सत्यः प्रथम इति यावयः कोप्यस्य अन्धम्य कति होने से अच्छा महत्व रखता है। अतः जो भाई निर्माता स तु केनापि प्रकारेण न निंदनीय एता. सर्वार्थसिद्धि को पुनः प्रकाशित कराएँ उन्हें इस ग्रंथको वचनुविधेयमिति । तर्हि कंदकुंद एवैतत्मथम भी उसके साथ में लगादेना चाहिए भषवा विद्यार्थियों. कति संशयापाहाय स्पष्ट ज्ञापयामः यः कुंदमादिके उपयोगार्य अलग ही छपाकर प्रकाशित कर देना चाहिए।
कुंदनामेत्यादि भयं च परतीर्थिक कुंदकुंद इडा
चार्यः पमनंदी उमास्वातिरित्यादिनामांतराणि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता कुन्दकुन्द! कम्पयित्वा पव्यते सोऽम्मात्पकरणकर्तुरुमाम्वा
सब लोग यह जानते हैं कि प्रचलित 'तरवार्थसत्र तिरित्येर प्रसिद्ध नाम्नः सकाशादन्य एव अंयः नामक मोक्षशासकर्ता 'उमास्वाति' भाचार्य है, किं पुनः पुनर्वेदयामः।" जिन्हेंब समय से दिगम्बरपरम्परा में 'उमास्वामी' इसमें अपने सम्प्रदाय वालोंको दो बातोंकी शिक्षा माम भी दिया जाता है और जिनका दूसरा नाम गात्र- -- - -- -- विच्छाचार्य है। इस भावका पोषक एक लोकभी टिप्पणी विशेष परिक्स फिर किसी समय दिया गया।