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फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] पुरानी बातों का खाज है क्योंकि उसमें उनके दीक्षागुरु का नाम सिद्धाः विद्भव्यः प्रसिध्येकनामा प्रत्यासम
नयोगी'दिया है-अभयचंद्र नहीं । और इसलिये यह कल्पना नहीं की जा सकती-कि वह निषिद्या निष्टः निष्ठाशन्देन निवाणं चारित्रं चोच्यते - इन्हीं श्रुतमुनि की लग भग १०० वर्षके बाद प्रतिष्ठित स्यासना निष्ठो यस्यासो प्रन्यासन्ननिष्ठः हुई होगी। अस्तु।
भवाग्विसर्ग....." - गन्थमें उक्त गाथाोंके बाद प्रशस्तिकी जो छह यहाँ जिन पदोंके नीचं लाइन दी गई है वे मवागाथाएँ दी हैं वे सब प्रायः वे ही हैं जो भावत्रिभंगी के सिद्धिक पद हैं और उनके आगे उनका व्यक्तीकरण अंतमें पाई जाती हैं और माणिकचंद-गन्थमाला के ग्रन्थ है। इसी तरह पर वृत्तिके खासखास पदों की व्याख्या न की भूमिकामें प्रकाशित होचकी हैं। हाँ,उनमेंसे पहले पदके व्यक्तीकरणमें जिस भव्य परुषके 'पाणिखिलन्थसत्या'नामकी गाथा यहाँ नहीं है।
प्रश्नपर तत्त्वार्थसूत्रकी रचना हुई है उसका नाम दिया ___यह गन्थ १पंचास्तिकाय,२ षड्द्रव्य, ३ सपतत्त्व,
स्व. गया है परंतु वह पाठकी अशुद्धि के कारण कुछ स्पष्ट ४ नवपदार्थ, ५बंध, ६ बंधकारण, ७ मोक्ष और ८ नहोसका। १३ वीं शताब्दीमें बालचंद्र मुनि-द्वारा मक्षिकारण, ऐसे आठ अधिकारों में विभक्त है और
र तत्त्वार्थस्त्र की जो कनडी टीका लिखी गई है उसमें मव मिलाकर कुल २३० गाथाओं में पूरा हुआ है।
उस प्रश्नकर्ता भव्यपुरुषका नाम 'सिद्धय्य' दिया है। गन्थ अच्छा है। इस भी माणिकचंद गन्थमाला को
बहुत संभव है कि वही नाम यहाँ पर सूचित किया गया प्रकाशित कर देना चाहिये।
हो और प्रतिलेखककी कृपासे वह प्रसिध्यंक'रूपसेरालत लिखा गया हो। यदि ऐसा है तो इस 'सिद्धय्य के प्रश्न
पर प्रन्योत्पत्नि की मान्यताका पता ५ वीं शताब्दी तक 'भाचंद्र' नाम के यद्यपि, बीसियों आचार्य जैन- चल जाता है । अतः मूडबिद्री की उम प्रति परसे इस समाज में हो गये हैं * परंतु यहाँ पर वे ही प्रभाचंद्र की जाँच होनी चाहिये जिस पर से कापी होकर विवक्षित हैं जो पद्मनंदि प्राचार्यके शिष्य तथा 'प्रमेय- बम्बई के ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनमें यह प्रथ कमलमातेड' और न्यायकुमुदचंद्र' नामक गन्धों के आया है । ग्रंथ के अंतमें 'इतिदशमोऽध्यायः समाः ' प्रसिद्ध रचयिता हैं । अभी तक इनके बनाये हुए उक्त के बाद प्रशास्तिके जो पा दिये हैं वे इस प्रकार है:दो ही गन्थों का निश्चित रूप में पता चला था किंतु डानस्वजलस्मरत्ननितरा(कर)बारिप्रवीचीचयः अब एक और प्रन्थका भी पता चला है और वह है। 'तत्वार्थवृत्तिपद' । इसमें पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि मिदान्तादिसमम्तशासनलपि:श्रीपयनन्दिनमः । नामक वृत्तिके अप्रकटित पदोंको व्यक्त किया गया है। मरिष्यानिखिलभयोधनननं नवार्यवतः पदं इस गून्यका प्रारंभ निम्नप्रकार से होता है:- सव्यक्तं परमागमार्थविषयं जानं प्रभाचन्दनः ।।(१)
"सिदं जिनेन्द्रमलमप्रतिममयोध श्रीपयनंदिमैदान्तशिष्योऽनेकगणालयः। प्रैलोक्यवंयमभिवंध गतप्रबन्ध ।
प्रभाचंद्रविरं जीयान पादपज्यपदे ग्नः ।। (५) दुर्वाग्दुर्मयतमःपविभेदना
मुनीन्दुनंदितादिदनिनमानंदमंदिरं । तत्त्व वृत्तिपदमप्रकटं प्रात्ये ॥ मुधापारोदगिरम्मतिः काममायोदयानन ॥५३) * परिचय पाने के लिये देखो, माणिकवाद-प्रन्थमाला में इनमें पहला पद्य तो प्रमाचन्द्राचार्य-बारा रचित प्राषित समारता-कावस्की लेखकद्वारा लिखी हुई प्रस्तावना। है और वह अपने साहिल्यादि पर से प्रमेयकमलमार्तण