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(१)
महावीर के अनुयायी प्रियपुत्र हमारेश्वेताम्बर, ढूँढिया, दिगम्बर-पंथी सारे ।
स्वदेश- सन्देश
[ ले० - श्रीयुक्त भगवन्त गणपति गोयलीय ]
उठो सबेरा होगया, दो निद्रा को त्याग; कुक्कुट बॉंग लगा चुका, लगा बोलने काग । अँधेरा गत हुआ ।
(२)
उदयाचल पर बाल सूर्य की लाली छाई; उषासुन्दरी हो, जगाने तुमको आई ।
मन्द मन्द बहने लगा, प्रातः मलय-समीर; सभी जातियाँ हैं खड़ी, उन्नति नदके तीर । लगाने डुबकियाँ ।।
(३)
उठो उठो, इस तरह कहाँ तक पड़े रहोगे; कुटिल कालकी कड़ी धमकियाँ अरे ! सहोगे ।
मेरे प्यारो ! सिंहसे, बनो न कायर स्यार; तन्द्रामय जीवन बिता, बनो न भारत-भार । शीघ्र शय्या तजो ॥
अनेकान्त
(४)
मात इसकी परवाह करो क्या कौन कहेगा; तथा सहायक कौन, हमारे संग रहेगा ।
क्या चिन्ता तुम हो वही, जिसकी शक्ति अनंत; जिसका आदि मिला नहीं, और न होगा अन्त । अटल सिद्धान्त है ।
[ वर्ष १, किरण ४
यद्यपि कुछ कुछ लोग, मार्ग रोकेंगे आकर; किन्तु शीघ्र ही भाग जायँगे धक्के खाकर ।
यदपि मिलेंगे मार्गमें, तुमको कितने शूल; पग रखते बन जायँगे वे सबके सब फूल यही धर्य है ।
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(६)
युद्ध स्वार्थ अथवा असत्यसे करना होगा; जीने ही के लिये, तुम्हें अब मरना होगा ।
तब न मरे अब ही मरे, मरना निस्सन्देह; अब न मरे सब कुछ रहे, रहे न केवल देह । देह-ममता तजी ॥
(M)
सुनो सुनो ! जो आज, कहीं साहस तुम हारे; बोगे यों नहीं लगोगे कभी किनारे ।
तन-मन-धन से देश-हित, करो प्रमाद विसार; सबके सँग मिलकर सहो, भूख प्यास या मार। पुनः आनन्द भी ।। (<) पिछड़ गये हो बहुत लड़ रहे हो आपस में; पकड़ पकड़ रूढियाँ, घोलते हो विष रस में ।
ऐसा ही करते रहे, तो विनाश है पास; बस भविष्य में देगा, तब-परिचय इतिहास । एक मृत-जाति कह ।।