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माघ, वीर नि० सं०२४५६] भारतीय दर्शनशास्त्र
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। भारतीय दर्शनशास्त्र
[लेखक-श्रीयत पं० माधवाचार्य रिसर्च स्कालर],
terrerature । रतीय दर्शनशास्त्र इस प्रसार संसार "पहले मैं सदा ही दुःखों से अभिभूत होने के कारण के परम दुस्तर, आध्यात्मिक, आधि- विमना रहा करता था । अब जिस दिन से दर्शनशाखों दैविक, आधिभौतिक परितापोंसे पर- की शरणमें आया हूँ तबसे नित्यप्रति अपार प्रानन्नक मसन्तप्त करुणक्रन्दन करने वाले निरन्तर प्रवाहित स्रोतमें निमग्न रहा करता हूँ।"
व्यथित जीवोंको आनंदके अगाध यह दर्शनशास्त्र की उत्तमताका ही फल है जो इस पारावारमें निमग्न करा देने का
...................... शास्त्र सम्बन्धी छोटेसे छोटे की अपर्व शक्ति रखते हैं। यह लेख एक अजैन बन्धुका लिखा हुआ प्रन्थके अनवार
भारतके विज्ञानकी चरम: है और श्रीवेंकटेश्वर-समाचारके गत विशेषांक : भाषामें दिन रात होते चले सीमा के युग का स्मरण, में प्रकट हुआ है। इसमें भारतीय दर्शनशास्त्रों आरहे हैं। दर्शन शास्त्रकी याद आते ही, पर विचार करते हुए जेन दर्शन पर भी कुछ आज अपरेको हो जाता है। बिना उन्नतिकी । तुलनात्मक विचार किया गया है। विद्वान् समझने वाले देश जब बर्बर चरमसीमाको पारकिये दर्शन- लेखकने जैनग्रंथों के अध्ययनका कहाँ तक : जंगलियोंकी तरह इधर-उधर शास्त्रका विकास नहीं होता। : परिश्रम किया है, वे कहाँ तक उन पर से : मछलियाँ मारते फिरते थे,
भारतीय दर्शनोंपर टीका- वस्तुतत्व को प्रहण करने आदि में सफल हो तब भारतीय नररत और टिप्पणीकारों में सप्रसिद्ध सके है और जेनदशेनके विषयमें उनके क्या उनके दर्शनशाखअपनेप्रकाश पाश्चात्य विद्वान मोक्षमूलरने, : कुछ विचार हैं, इसका 'अनेकान्त' के पाठकों से सबको मार्ग दिखानका भारतीय दर्शनोंकी समीक्षा को परिचय करानके लिये ही यह लेख यहाँ : उपाय कर रहे थे। करते हुए लिखा है:- पर दिया जाता है।
इन शाखों के सम्बन्धमें "कोई भी देश विज्ञानकी लेखक महाशयका यह लिखना बिलकुल : पूर्ण रूपसे विचार किसी परिपूर्ण उन्नति किये बिना ठीक है कि, जैन दर्शनके सम्बंधमें बहुत एक लेखमें नहीं किया जा ऐसे दर्शनोंका आविष्कार नहीं सीमान्त कल्पनाएँ प्रचलित होगई हैं, इसका : सकता। उनकी तो प्रत्येक कर सकता । इन भारतीय कारण वास्तवमें जैनसाहित्यका अप्रचार है।: पंक्ति व्याख्याके लिए एक दर्शनशास्त्रोंको देखकर मुझे ज्यों ज्यों जैनसाहित्य प्रकाशमें आता जाता है। दफ्तर चाहती है। ऐसी दशा अत्यन्त हर्षके साथ कहना : और सर्वसाधारणको जैनप्रन्थोंकी प्राप्तिका : में दो चार पृष्ठके भीतर विपड़ता है कि भारतकी वैज्ञा- मार्ग सगम होता जाता है त्यों त्यों प्रान्त:शद व्याख्या की आशा नहीं निक उन्नति चरम सीमाको कल्पनाएँ तथा मिथ्या धारणाएँ भी दरहोती की जा सकती। इस लिए पार कर गयी थी।" जाती हैं और बहतसे उदार उदय निष्पक्ष :माज हम अपने इस लेखम,
दुखों से सन्तप्त होके विद्वान जैन दर्शनके विषयमें अपने ऊँचे इन दशेनोंमें से तीन ऐसे द. हिन्दू दर्शनशास्त्रोंकी शरणमें विचार प्रकट करने लगे हैं,यह निःसन्देह एक शेनोंको चुन लेते हैं जिन पर जानेवाले एक पश्चिमके धुर- आनंदका विषय है। -सम्पादक अभीतक बहुत कम विचार न्धर विद्वानने कहा है कि,
किया गया है और जिनके
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किया गया।