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पौष, वीर नि०म०२४५६ स्वामी पात्रकेसरी ओर विद्यानद न्यपदर्शयितकामः भगवत्सीमंधरस्वामितीर्थकर नासति त्र्यंशकम्यापितरमात्जीवस्खिलक्षणः॥१३६४ देव समवसरणाद गणधग्देवप्रसादापादितंदेव्या अन्यथानुपपनन्वं यस्यासो हेतुरिष्यते । पद्मावत्या यढानीय पात्रकसरिस्वामिने समर्पित एकलक्षणकः सोऽर्थश्चतुर्लक्षणको नवा ॥ १३६५ मन्यथानपपत्तिवार्तिकं तदाह-" यथा लोक त्रिपुत्रः सत्रैकपत्रक उच्यते । ___ और इसके द्वारा इतना विशेष और मचित किया तम्यैकस्य सपत्रत्वात्तथेहापि च दृश्यताम् ।। १३६६ है कि उक्त नाक पद्मावती देवीन सीमंधरस्वामी तीर्थ- अविनाभावसम्बन्धस्त्रिरूपप न जानुचित् । करकं ममवसरणमे जाकर गणधरदेवके प्रमादसे प्राप्त अन्यथाऽमभवैका हेतुप्वकोपलभ्यते ॥ १३६७ किया था और वह 'अन्यथानुपपत्ति' नामक हेतुलक्षण अन्यथानपपन्नत्वं यस्य तम्यैव हेतुता । का वानिक है । अन्तु; यह नोक पात्रकमरीको पद्मा- दृष्टान्तोद्वावपिस्तां वा मावा तोहिन कारणम्१३६८ वतीदेवान बुद दिया हो या गगगधग्देवके पाममलाकर अन्यथानपपन्नन्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । दिया हो अथवा अपने इष्ट देवताका ध्यान करन पर नान्यथानपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। १३६६ पावकमरीजी को स्वतः ही मझ पड़ा हो, किन्तु इस सश्यामम्तस्य पत्रवाद दृष्टाश्यामा यथेतरे । प्रकारके उल्लायोमे यह निःसन्देह जान पड़ता है कि
* इति विलक्षणों हेतुर्न निश्चित्य प्रवर्तते ।। १३७० लोकमे इस नाक आदा प्रकाशक पात्रकेसरी म्यामा बना देतीप्रान्तदगवर्जितः । हा है । और इम निये यह पद्य उन्हीं क नाम में
'कथंचिदुपलभ्यत्वाद भावाभावी सदात्मको।।१३७१ प्रसिद्ध है।
विद्यानंद स्वामीनं प्रमाणपरीक्षा और शोकवानिक चन्द्रत्वेनापदिष्टत्वानाचन्द्रः शशलांछनः । नामक अपने दो ग्रंथामें 'नथोक' , 'नथाह च' शब्दोके इति द्विलक्षणों हेतुग्यं चापर उच्यते ॥१३७२॥ माथ पात्रकेमरीके उक्त नाकको उद्धन किया है। पतत्कीटकृतयं में वेदनेत्यवसीयते ।
और इसमें यह जाना जाता है कि पात्रमरी म्वामी तन्कीटकसंस्पर्शपतिलब्धोदयत्वतः ॥ १३७३ ।। विद्यानंदम भिन्न ही नहीं किन्तु उनमें पहले हुए हैं। चक्ष रूपग्रह कार्य सदाऽतिशयशक्तिमन ।
(६) 'तत्त्वमंग्रह' नामका एक प्राचीन बौद्धग्रंथ, नस्मिन्यापार्यपानित्वाद्यदि वा नम्यदर्शनात १३७४ पंजिका महिन, बड़ौदाकी ‘गायकवाडोरियंटन मि- कथंचिदसदात्मानो यदि वाऽऽन्मघटादयः । गैज्ञ' में प्रकाशित हुआ है । यह मूल ग्रंथ आचाय कथंचिदपलभ्यत्वात्खरसम्बंधि,गवत ॥१३७५॥ 'शान्तक्षित'का बनाया हुआ है और इसकी पंजिका
कथंचन सदात्मानः शशशृंगादयोऽपि च । कना उनके शिष्य 'कमलशील' श्राचार्य हैं। इस ग्रंथमें ।
" कथंचिदुपलभ्यत्वायथैवात्मघटादयः ।। १३७६ ।। पात्रकेमरी स्वामीक मतका उल्लेम्ब उन्हींके वाक्यों द्वाग निम्न प्रकारमे किया गया है :
त्वदीयो वापि तत्रास्ति वेश्मनीत्यवगम्यते । "अन्ययंत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशइते
भावत्कपितृशन्दम्य श्रवणादिह मपनि ॥ १३७७ अन्यथानुपपन्नव नन दृष्टा सुहेनना ।
यह पात्रकमीका की प्रगिट लांब