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अनकान्त
[वर्ष १, किरण २ २ कल्याणकीर्ति (ई०स० १४३६)
४ विजयगण ( ई० स०१८५५ ) इम कविकं दीक्षागुरु ललितकीर्तिथे, जो मूलसंघ इसने 'द्वादशानुप्रेक्षे' नामक ग्रंथ कुन्तल देशान्तर्गत के देशी गणके श्राचार्य थे । इसने ज्ञानचन्द्राभ्युदय, बेलुवल प्रदेशकं वेम्मनभावी नामक ग्रामके शान्तिनाथ कामनकथे, अनुप्रेक्षे, जिनम्तुनि, तत्त्वभेदाष्टक, सिद्ध- चैत्यालयमें, उस गाँवके स्वामी होन्नबंदि देवराज की गशि नामक ग्रन्थ लिग्वे हैं X । ज्ञानचन्द्राभ्युदयकी आज्ञानुसार, ई० सन् १४४८ में समाप्त किया है। रचना ई०सन १४३९ में समाप्त हुई है। कामनकथं को देवचन्द्रकी 'राजाबलिकथे' में जो यह लिखा है कि इसने तुलुव देशकै राजा भैरवसुत पाण्डवरायकी प्रेरणा विजयण्ण रत्नाकर वर्णीका समकालीन था, सो भ्रममें लिखा है।
मूलक जान पड़ता है। ___ 'ज्ञानचन्द्राभ्युदय मे सन्धि विभाग नहीं है, ५८८ द्वादशानुप्रेक्षेमें १२ परिच्छेद और १४४८ पद्य हैं। पद्य हैं। यह पटपदी छन्दमें है, इसलिए इसे ज्ञानचन्द्र- ग्रंथारम्भमें वृपजिनेन्द्र, सिद्ध,सरस्वती, वृषभसेनादि षटपदी भी कहते हैं। ज्ञानचन्द्र नामक राजाने तप- गणधर, विजयकीर्ति और उनके शिष्य पार्श्वकीर्तिकी श्चर्या करके मुक्ति प्राप्ति की, इसीकी इममें कथा है। स्तुति की गई है । पार्श्वकीर्ति ग्रंथकर्ताके गुरु जान
'कामनकथे' सांगत छन्दमें है। इसमें जैनमतकं पड़त हैं। अनुसार कामकथा लिखी गई है। इसमें ४ सन्धियाँ ५ विद्यानन्द ( ई०स०१४५५ )
और ३३१ पदा हैं । ग्रंथारंभमें गुरु ललितकीर्तिका ___इन्होंने 'प्रायश्चित' नामक स्वरचित संस्कृत ग्रन्थकी म्मरण किया गया है।
कनड़ी टीका लिखी है । यह ग्रन्थ युवसंवत्सरमें लिखा 'अनुप्रेक्षेमें७४ पद्य हैं और वे कोंडकुंदकी गाथाओं गया, अर्थान संभवतः यह ई०स० १४५५में लिखा गया ( बारह अणुपेक्खा ? ) के अनुवाद हैं। होगा । इसकी व्याख्यान-शैली प्रौढ है और पुरानी 'जिनस्तुति'में १७ और 'तत्त्वभंदाटक में ९ पा हैं। कनड़ीमें यह लिखा गया है। बीच बीचमें श्लोक उद्धृत ३ जिनदेवगण (ई.स.१४४४ )
किये गये हैं, और वे स्वकृत जान पड़ते हैं। इनके पिता
का नाम ब्रह्मसूरि अथवा बोम्मरसोपाध्याय था। इसका बनाया हुआ श्रेणिकचरित्र' नामका ग्रंथ है।
अकलंक, चन्द्रप्रभ और विद्यानन्द ये इनके व्रतगुरु मि०राइसके मतानुसार यह ईस्वी सन १४४४ में लिखा गया है।
विद्यागुरुत्रय (?)थे, ऐसा प्रकट किया है। इनके सिवाय
विजयकीर्तिके विपयमें कहा है कि उन्होंने मुझे 'उपदेश ____४ यशोधरचरित नामका भी एक प्रथ इस कक्किा लिखा हुआ दकर पोषण किया । ग्रन्थारंभमें विजयजिनकी स्तुति है, जो संस्कृत भाषामें १८५० श्लोक परिमाण है, यह ग्रन्थ की है, जो कनकगिरि उर्फ़ मलयरु ग्रामके जिनदेवका गधर्व कविक प्राकृत ग्रंथको देखकर बनाया गया है और पागड्यनगर के गोम्मटस्वामीके चैत्यालयमें शक सं० १३५३ में बना कर समाप्त
६ तेरकणांवि वोम्मरस ( ई०स०१४८५ ) किया गया है । इसमें सिद्धसेनादि अनेक प्राचार्योंका स्मरण किया गया है । कनड़ी ग्रंथोंमें 'फणिकुमारचरित्र' भी आपकी रचना है जो ये तेरकणांवि नामक प्रामके रहने वाले थे। ये वोम्मशक सं० १३६४ में बनकर परी हुई है। -सम्पादक रसोपाध्यायके पुत्र और नेमिचन्द्र के प्रपौत्र थे । नेमिचंद्र