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देवगढ़
वीर नि०सं० २४५६]
१०३ मनियाँ स्थापित करा कर बड़े बड़े मेले प्रतिष्ठाएँ रचा भी उसकी अभी तक देखनमें नहीं आई ।इमके सिवाय कर तथा गजरथ चला कर सिंघई, सवाई सिंघई अथवा गवर्नमेण्टस लिग्वा पढ़ी करके इस क्षेत्रको पर्ण रूपमे श्रीमन्त जैसी पदवियाँ प्राप्त करनेकी लालसा नसताती अपनं हस्तगत करने के लिये जो कुछ सजनोंको योजना ता देवगढ़के मंदिर-मूर्तियों को अभीतक इस दुर्दशाका हुई थी उनकी भी कोई रिपोर्ट श्राज तक प्रकाशित नहीं भोग करना न पड़ता-उनका कभीका उद्धार हो गया हुई और न यही मानम पड़ा कि उन्होंने इस विषयमें होता । जैनियों का प्रतिवर्ष नये नये मंदिर मूर्तियोके नि- कुछ किया भी है या कि नहीं। तीर्थक्षेत्र कमेटीन भी र्माण तथा मेले प्रतिष्ठादिकोंमें लाखों रुपया खर्च हाता इम विषयमें या महत्वका भाग लिया है वह भी कुछ है। वे चाहत तो इस रकममे एकहीवर्षमें पर्वत तकको मालूम नहीं हामका । हाँ, ब्रह्म वारा शीतलप्रमादजीकी खरीद मकत थे-जीर्णोद्धारकी तो बात ही क्या है ? कुछ टिप्पणियोंस इतना अाभास ज़रूर मिलना रहा है परंतु मैं देख रहा हूँ जैनियोका अपने इम कर्तव्यकी कि अभी तक इस दिशामें कोई खाम उल्लेखनीय कार्य
और बहुत ही कम ध्यान है । जिस क्षेत्र पर २०० के नहीं हुआ है ! अम्तु; ऐमी मंदगति, लापर्वाही और करीव शिलालेख पाये गये हों, १५७ जिनमस एतिहा- अव्यवस्थित पसे कार्य होने की हालतमें इम क्षेत्रके मिक महत्व रखते हों और उनमें जैनियोंके इतिहासकी शीघ्र उद्धारकी क्या आशा की जा सकती है और उस प्रचुर मामग्री भरी हुई हो उस क्षेत्रके विषयमें जेनि- उद्धारकार्यमें महायता देनकी भी किसीको क्या विशेष यांका यह उपेक्षा भाव, निःमन्देह बहुत ही खेदजनक प्रेरणा हो सकती है। है। मान वर्पमे कुछ ऊपर हुए जब भाई विश्वम्भरदा- अतः ममाजका इम विपरमें यह खाम कर्तव्य है मजी गार्गीयन 'देवगढक जैनमंदिर' नामकी एक पस्तक कि वह अब पार अधिक समय तक इस मामले को प्रकाशित करके इस विपयके आन्दोलनको खास तौर खटाईमें न डाले रक्खे, उसे पूर्ण उद्योग माथ गहरा में जन्म दिया था। उस वक्तसं कभी कभी एकाध लेख आन्दोलन करके और अच्छे उत्साही तथा कार्यकुशल जैनमित्रादिकमें प्रकाशित होजाता है और उसमें प्रायः योग्य पुरुपोंकी योजना-द्वारा व्यवस्थित रूपसे काम वे ही वानें आगे पीछे अथवा मंक्षिप्र करके दी हई कर शीघ्र ही इस क्षेत्रकं उद्धार-कार्यका पुग करना होती हैं जो उक्त पुस्तकमें संग्रहीत हैं। सिंघई नाथूग- चाहिये । ऐमा न हो कही विलम्बमं दूसरं मंदिर भी मजी के इस लेखका भी वही हाल है। और इमम धराशायी हो जॉय और फिर खाली पछतावा ही यह जाना जाता है कि देवगढ़ तीर्थोद्धार-फंडनं पछतावा अवशिष्ट रह जाय । बन्दलखण्डके भाइयोंकी ग्राममें एक धर्मशाला बनवाने तथा मंदिगेंमें जाड़ियां इस विषयमें ग्वाम जिम्मेवारी है, और इस क्षेत्रका चढवानके अतिरिक्त अभी तक इम विषयमें और अभी तक उद्धार न होने का खास कलंक भी उन्हीके कोई वाम प्रगति नहीं की वह मंदिर मूर्तियोंके इनि- मिर है। व यदि कुछ समयकं लिये नये नये मंदिराके हासादि-मम्बन्धमें भी कोई विशेष खाज नहीं कर निर्माण और मल प्रतिष्ठाको बन्द रग्बकर इस ओर सका और न उन सब शिलालेखोंकी कापी प्राप्त करके अपनी शक्ति लगावें ता इस क्षेत्रका उद्धार हानेमें उनका पूरा परिचय ही समाजको करा सका है जो कुछभी देर न लगे । तीर्थक्षेत्र कमीको भीम विपयमें गवर्नमण्टको इम क्षेत्र पर में उपलब्ध हुए हैं और मविशेष रूपस ध्यान देना चाहिये और यह प्रकट जिनमेंमे १५७ का संक्षिप्त परिचय भी सरकारी रिपोर्ट में कर चाहिये कि अभी तक इस दिशामें क्या कुछ कारदिया हुआ बतलाया जाता है । कोई खाम रिपोर्ट वाई हुई है। उद्धारकार्यके वर्तमान संचालक यदि शिला
- यह रिपोर्ट अभी तक मेरे देखने में नही पाई और न भेजने लेखांकी पुरी कापी, रिपाट और कुछ महत्वके चित्रोंको की प्रेरणा करने पर भी शिलालग्यांकी कापीही उद्धारकार्यक भिजवानेका कष्ट उठाएँगे तो 'अनेकान्त' द्वारा उन पर मचालकोंकी भोरम प्राश्रमको प्राप्त हो सकी है।
विशेष प्रकाश डालनेकाभरमक यत्न किया जायगा।