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माष, वीर नि०सं०२४५६]
कर्णाटक जैनकवि
कर्णाटक-जैनकवि
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[अनुवादक-श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी १६ वर्द्धमान (लगभग ई०सन् १६००) होना चाहिए । बहुतों का खयाल है कि इस शतक का
नगर ताल्लुकेके ४६ वें शिलालेखसे मालूम होता कर्ता रत्नाकरवर्णी है ; परन्तु यह ठीक नहीं जान है कि उसका लेखक कवि वर्द्धमान (मुनि) है । शिला- पड़ता । क्योंकि रत्नाकरवीके गुरु चारुकीर्ति और लेख में कनड़ी और संस्कृत इन दोनों ही भाषाओंके हंसराज के गुरु देवेन्द्रकीर्तिने अग्गल, नेमिचंद्र, रन्न, पद्य हैं । प्रारंभमें अभिनव वादिविद्यानन्द की स्तुति कुमुदेन्दु, मधुर और जिनाचार्य का स्मरण किया है। करके कविने अपनी परम्परा इस प्रकार दी है-राजा २१ देवोत्तम (ल. १६०० ) कृष्णदेव (ई०स० १५०९-२९) की सभामें वादिजनों इसका बनाया हुआ 'नानार्थरत्नाकर' नामका ग्रंथ को पराजित करनेवाले अभिनव x वादिविद्यानन्द, है, जिसमें संस्कृत शब्दोंके नाना अर्थ बतलाये गये हैं। उनके पुत्र विशालकीर्ति, विशालकीर्तिके पुत्र देवेन्द्र- १६९ पद्योंमें यह समाप्त हुआ है। इसमें इस कविने कीर्ति, जिनकी पूजा भैरवेन्द्र वंशके पाण्ड्य राजाने की अपने पूर्ववर्ती निघण्टुकारोंके नाम नीचे लिखे पथमें
और देवेन्द्रकीर्तिका पुत्र कवि वर्द्धमान । इसका समय प्रकट किये हैं - १६०० के लगभग : होना चाहिए ।
निजगोपाल धनंजया मिनवयाचं भागुरीनागव. ५० श्रृङ्गारकवि राजहंस (ल. १६०.) मोजयंतामर शब्दमञ्जरी बलायुक्ताभिधानार्थमम्
इसने 'रत्नाकराधीश्वर-शतक' नामक ग्रंथकी इस पद्यमें जिस 'शब्दमरी' का उल्लेम्प है.. रचना की है, जिसमें १२५ वृत्त हैं और इसका प्रत्येक वह विरक्त ताटदार्य (१५६०) की कर्नाटक शब्दमसारी पद्य 'रत्नाकराधीश्वर' इस शब्द पर समाप्त होता है। ही होनी चाहिये। यह ग्रंथ मुद्रित ह चका है। इस कविन अपन पर्ववर्ती ग्रंथकान अपने लिये 'द्विजवंशार्णवपूर्णचन्द्रन कवि 'मधुर' (१३८५) का स्मरण किया है । इसके नेपी देवोत्तम' लिखा है। गुरुका नाम देवेन्द्रकीर्ति है और श्रवणबेलगोल की एक २२ पायएण व्रती ( ल. १६००) पाथीसे मालम होता है कि देवेन्द्रकीतिका समय १६१४ इसका बनाया हुआ 'सम्यक्त्वकौमुदी' नामका
----- ग्रंथ है, जिसमें १९ सन्धियाँ और १९८५ पथ हैं। xशिलालेख में 'अभिनव' शब्द का प्रयोग साथमें नहीं पाया
या यह पूरा पंथ सांगत्य नामक छंदमें लिखा गया है।
-सम्पादक उक गुरुपरम्परा वाले बर्द्धमान कविने शमत्याशिल को इसमें सम्यक्त्वसे मोक्ष प्राप्त करनेवालोंकी कथाएँ है। शक सं० १४६४ (ई.स. १५४२ ) में बनाकर समाप्त किया है। प्रथके आरंभमें सुपावं तीर्थंकर की और फिर सिद्ध मतः यह इसका सुनिश्चित समय है। -सम्पादक भुजबलि, गणधर, सरस्वती, शामनदेवीकी स्तुति की * मुक्ति प्रतिमें 'मधुर' का नाम न है।
गई है।
जाता।