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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ३
न्यायाचार्य पं० माणिकचंद्रजी का पत्र
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श्रीमान् धर्मप्रेमी पं० जुगलकिशोरजी महादय, योग्य सस्नेह जयजिनेन्द्र।
___ आपकी भेजी हुई समन्तभद्राश्रमकी विज्ञापनायें और 'अनेकान्त' पत्र (सम्मत्यर्थ) प्राप्त हुये । जैनधर्मका अभ्युदय प्रकट करने के लिये आपकी कार्यपद्धति कालानुसार प्रशस्त है । जैन समाजके तन्मय होकर कार्य करने वाले कर्मठों में आप विशेषतया इस कारण साधुवादाह हैं कि,अापने संकीर्णता-प्रयोजक पक्षपात को हटाते हुये भी जैनत्वके अभिनिवेश का अनेकान्तद्वारा अक्षुण्य परिपालन करना विचारा दीखता है । पदपद पर जैनत्वको पकड़े रहना यह एक आवश्यक गुण है। क्योंकि वर्तमान में अनेक कारणों के अनुकूल होने पर भी कुछ निमित्त ऐसे उपस्थित होते जा रहे हैं जिनसे कि अनेक विचारशालिगों को निकट भविष्यमें श्रीमहावीर स्वामि-प्रतिपादित जैनधर्म की उपाङ्ग परावृत्ति होजाने की सम्भावना दृष्टिकोणगत हो रही है।
__ आपकी निर्धारित प्रणाली के अनुसार कार्य होते रहने से उस परिवर्तन की शङ्काका बहुभागों में निरास हो जाता है। श्रीवर्धमान तीर्थक्कर महाराज के पश्चात् स्वामी समन्तभद्र भगवान ने पराभेद्य न्यायशास्त्रोंकी सृष्टि कर जैनधर्म को सुरक्षित रक्खा है । आश्रमके साथ सर्वतोमङ्गलमय उनका नाम संकीर्तन करना विश्वप्रिय है । समीचीन संस्थायें ही जैनधर्म प्रासाद के आधारभूत स्तम्भ हैं । ऐसे सामुदायिक शुभ कार्य की सिद्धिमें आपको जैनसमाजद्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक सहायता पुष्कल प्राप्त होती रहनी चाहिये । आज कल शुद्ध धार्मिक कार्यों में भी उक्त सहकारिओं की आवश्यकता का अविनाभाव सा हो रहा है । मैं आपके चिरकालीन अनुभवके पश्चात् प्रारब्ध किये गये कार्यों का हार्दिक अनुमोदन करता हूँ।
अनेकान्त पत्र को मैंने अक्षरशः पढ़ा है, मनोनुकूल है। पत्र की नीति निरवद्य है। मेरी शुभ भावना है कि इस प्रकारके ठोस कार्यों द्वारा जैनत्त्व की अभिवृद्धि होकर जैनधर्म का दुन्दुिभि निनाद दशों दिशाओं में फैल जावे । जम्बूविद्यालय, सहारनपुर ।
आपका मित्र ३०-११-२९
माणिकचन्द्र कौंदेय
जनरल