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अनेकान्त
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[वर्ष १, किरण २ तो ऐसे विद्वानोंको उत्पन्न कर सकनेमें एक तरहसे इनसे हमें लाभ जरूर होरहा है, परन्तु धर्मप्रसारके असमर्थ हैं। क्योंकि उनमें जो शिक्षा मिलती है, वह कार्यके लिये जैसे विद्वान् चाहिएँ उनके उत्पन्न होनेकी एकदेशीय होती है और एकदेशीय ज्ञानसे इस समय इनमे बहुत ही कम आशा है। काम नहीं चल सकता। इस समय हमें अपना भी
नोटजानना चाहिए, और अपना अच्छा है यह बतलानेके
यह लेख मैंने अबसे लग भग १६ वर्ष पहले जैन
बोलने का लिए दूसरोंका भी जानना चाहिए । और अपना ज्ञान दिन
हितैपी (भाग९ अंक ६-७) में प्रकाशित किया था । इतने भी तो इनके द्वारा अच्छी तरहसे नहीं हो सकता। समयके बाद भी मैं देखता हूँ कि इसकी उपयोगिता क्योंकि किसी एक विषयको अच्छी तरहसे समझनके लिए उस विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले दूसरे विषयोंका
नष्ट नहीं हुई है-यह अमामयिक नहीं हुआ है और इस
लिए इसको पुनः प्रकाशित किया जाता है । इससे यह भी तो सामान्य ज्ञान होना चाहिए । कंवल न्याय,
भी अनुभव होता है कि जैनसमाजकी प्रगति कितनी व्याकरण, और साहित्य पढ़ लेनेसे ही क्या हम धर्म
मन्द है और जैनधर्मको सार्वभौम बनानेकी ओरसे वह शास्त्रोंके मर्मज्ञ हो जायँगे ? यहाँ तो प्रायः मामूली,
कितना उदासीन है। गणित, इतिहास, भूगोल, पदार्थविज्ञानादि विषयोंकी
अभी तक न तोवह गुरुकुल काँगड़ीया विश्वविद्याभी शिक्षा नहीं दी जाती जिनके बिना उनका धर्मशास्त्र
लय काशीके ममान कोई ऐसी आदर्श संस्था स्थापित का ज्ञान ही अधूरा, धुंधला और निरुपयोगी रहता है।
कर सका है जिसमें जैनविद्यार्थियोंको विशाल ज्ञान दूसरी ओर सरकारी स्कूलों और कालेजोंको देखिए तो
सम्पादन करनेके तमाम उपलब्ध साधन एकत्र किये उनसे भी हम सुयोग्य विद्वानाकी आशा नहीं कर गये हों और नस विद्वान ही उत्पन्न कर सका है जो सकते । क्योंकि एक तो उनमें जो शिक्षा दी जाती है जैनधर्म तलम्पर्शी मर्मज्ञ होने के साथ साथ आधुनिक वह एक बिलकुल अपरिचित और विदेशी भाषामें
ज्ञान-विज्ञानके पारगामी पण्डित हों, जिन्होंने प्राच्य दीजाती है जिसमे विद्यार्थियों के शरीर और ममयका
और पाश्चात्य दर्शनशास्त्रोंका गहरा अध्ययन किया हा नाश तो होता ही है, साथ ही उनका ज्ञान अपरिपक्व
और जो श्रापनिक संसारके सम्मुख रखने योग्य जैनऔर धुंधला रहता है । दूमर, विदशी जड़वाद और
धर्मकी अनन्य साधारण विशेषताओको हृदयंगम किये नास्तिकताका प्रभाव उम शिक्षामें इतना अधिक पड़ा हुआ है कि उसमें विद्यार्थियोंमें धर्मभावके बने रहने
हुए हों । अवश्य ही जैनविद्यालय और पाठशालाओं
की संख्या काफी बढ़ गई है। परन्तु उनकी वही रफ्तार की अाशा बहुत कम रहती है । ऐसी अवस्थामें सुयोग्य विद्वान उत्पन्न करनेके लिए-जैसा प्रोफेसर लट्टेने
बेगी जो पहले थी मो अब भी है। उनसे जैनधर्मके
_प्रसार और प्रचार की आशा करना व्यर्थ है । क्योंकि अपने लेखमें कहा है-हमें चाहिये कि अपने निजके एक दो कालेज या महाविद्यालय स्थापति करें जिनमें
उनमें जो कुछ और जिस ढंगकी शिक्षा दी जाती है हम अपने विद्यार्थियोंको प्राचीन तत्त्वशास्त्रोंकी शिक्षा
उमसे कट्टर असहिष्णु और जैनधर्मको अत्यन्त संकीर्ण सर्वोत्तम आधुनिक पद्धतिमे देसकें और साथ ही उन्हें
रूपमें देखने वाले ही उत्पन्न होते हैं। पदार्थविज्ञान आदि सब प्रकारके आधुनिक शास्त्रोंमें भी
मुझे आशा है कि जैनधर्म और जैनममाज की पारगत कर सकें। बिना इस प्रकारके प्रयलके जैनधर्मका ।
उन्नति चाहनेवाले अबकी बार जरूर इस लेख पर खास
तौरमे ध्यान देंगे और जैनधर्मको विश्वव्यापी बनाने प्रसार ही नहीं किन्तु उसकीरक्षा करना भी असंभव है।
की सद्भावनाको शीघ्रही कार्यरूपमें परिणत करनेकी ___ मैं यह नहीं कहता कि हमारी पाठशालाओंसे या ओर अग्रसर होंगे। सरकारी स्कूलों व कालेजोंसे कुछ लाभ ही नहीं है
विनीतअथवा इन संस्थाओंसे विद्वान निकलेंगे ही नहीं-नहीं,
नाथूराम प्रेमी