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करनाम
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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ३ भगवती आराधना की रचना कब हुई थी, इसके पाँचवीं शताब्दीके बाद की नहीं जान पड़ती है। स्पष्ट जानने का अभी तक कोई साधन उपलब्ध नहीं - - हुआ है; परन्तु यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है समय मेरे सामने उपस्थित है। इस प्रतिमें टीकाका नाम 'विजया
____ * यह टीका देहलीके नये मन्दिरमें भी मौजूद है और इस कि यह बहुत प्राचीन ग्रन्थ है X । स्वामी समन्तभद्रसे दया' दिया है-'नियोदया' नहीं । और प्रति विक्रम सं०१८६३ तो पहले का अवश्य होगा। आर्य शिवने अपने जिन की लिखी हुई है। प्रस्तु; इस टीकाके पन्ने पलटने पर मुझे मालूम तीन गुरुओं का उल्लेख किया है, उनमेंसे 'सर्वगुप्त' हुभा है कि इसमें कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थ-वाक्यों तथा उमास्वातिके का नाम श्रवणबेल्गोलके १०५३ नम्बरके शिलालेखमें तत्त्वार्थसूत्रोंका जगह जगह पर उल्लेख है, सिद्धमेनचाई कृत सन्मतिमिलता है। इस शिलालेखमें अंगधारी मनियों का तर्कके वाक्य भी उद्धृत हैं, और कई स्थानों पर पूज्यपादकी सर्वर्थउस्लेख करके फिर कुंभ, विनीत, हलधर सदेव सिद्धिके वाक्य भी उद्धृत पाये जाते हैं, जिनके दो नमूने इस प्रकार हैं
"मिथ्यादर्शनज्ञानव रिभ्यः कथ इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिअचल, मेरुधीर, सर्वज्ञ, सर्वगुप्त, महिधर, धनपाल,
समन्वाहारोऽपायश्चियः॥" महावीर, वीर इन आचार्यों के 'इत्याद्यनेकसूरि' कह "तथा चोक्तं-एकदेशकर्मसक्षयलक्षणा निर्जति ॥"
चकि पूज्यपादका समय विक्रमकी छी शताब्दी सुनिश्चित है । परम्परा दी है। यदि इस शिलालेखमें वर्णित 'सर्वगुप्त' इससे यह टीका विक्रमकी छठी शताब्दी के प्रायः बादकी बनी हुई आर्य शिवके ही गुरु हों, तो उनकासमय कुन्दकुन्दाचा- जान पड़ती है। इस टीकाके कर्ता प्राचार्य अपनेको 'चन्द्रनन्दी का यके पहले तथा वीरनिर्वाण संवत् ६८३ के बाद (क्यों- प्रशिष्य और बलदेवसूरिका शिष्य लिखते हैं । चन्द्रनन्दीका सबसे कि अंगज्ञान वीर सं०६८३ तक रहामानामा पुगना उख जो अभी तक उपलब्ध हुमा है वह श्रीपुरुषका दानपत्र
है, जो 'गोवाय' को ई० सन् ७७६ में दिया गया था। इसमें गुरु और ऐसी दशामें वे अवश्य ही स्वामी समन्तभद्रमे .
रूपसे विमलचन्द्र, कीर्तिनन्दी, कुमारनन्दी और चन्द्रनन्दी नामके चार पहले ठहरेंगे। स्वामी समन्तभद्र का समय चौथी प्राचार्यों का उख है ( S.I.J Pt.]I, 88)।बत सम्भव पाँचवीं शताब्दिके लगभग बतलाया जाता है के परन्तु है कि टीकाकारने इन्हीं च-द्रनन्दीका मानेको प्रशिष्य लिखा हो । भगवती आराधना की रचनाशली इससे पूर्व की है। यदि ऐसा है तो इस टीकाके बननेका सपय ८वीं वीं शताब्दी तक मुझे तो इस प्रन्थ की 'विनयादयाटीका' भी चौथी पहुँच जाता है। चन्दन दीका नाम कर्म कृति भी दिया है और
" 'कप्रकृति' का वेलूरके १४वे शिलालेखमें भकशकदेव और कद___x इसमें प्रेथकर्ता शिवायन अपना जो विरोषणा 'पाणितलभोजी' कीतिके बाद होना बतलाया है, और अके बाद विमलचन्द्रका उख दिया है उससे इतना तो साफ़ ध्वनित होता है कि इस प्रेयकी रचना किया है। इससे भी इसी समयका समर्थन होता है। बलदेवमूरिका उस समय हुई है जब कि जनसमाजमें करतल भोजियोंके अतिरिक्त प्राचीन उ?ख वणवेल्गोलके दो शिलालेख नं. ७ मोर १५ में मुनियों का एक दूसरा सम्प्रदाय पात्रमें भोजन करने वाला भी उत्पन्न पाया जाता है, जिनका समय क्रमशः ६२२ और ५७२शक संवत्के हो गया था। उसी से अपनेको भिम दिखलानेके लिये इस विशेषण लगभग अनुमान किया गया है। बहुत सम्भव है कि इन्हीं से कोई के प्रयोगकी जरूरत पड़ी है। यह सम्प्रदाय भेद दिगम्बर और बलदेवसरि टीकाकारके गुरु रहे हों । इनके समयसे भी उक समयको श्वेताम्बरका भेद है, जिसका समय उभय सम्प्रदायों द्वारा क्रमशः वि. पुष्टि मिलती है। इसके सिवाय, नागमन्दीको भी टीकाकारने जो से.१३६ तथा बी०नि०स०६०६ (वि०सं०१३९) बतलाया जाता अपना गुरु बतलाया है वे ही जान पढ़ते हैं 'प्रसग' कविके गुरु ये है। इससे यह अन्य इस भेदारंभसमयके कुछ बादका अथवा इसके और उनका भी समय वीं वीं शताब्दी है। इस घटनासमुच्य पर कोषका रखा हुआ है ऐसा जान पड़ता है। -सम्पादक से यह टीका प्रायः वीं वीं शताब्दीकी बनी हुई जान पाती है।
*सरी शताबड़ी भी बतलाया जाता है -सम्पादक