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पौष, वीर नि०सं० २४५६]
सुभाषित मणियाँ
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हिन्दीप्रथमतो 'पठनं कठिनं'प्रभो,सुलभपाठक-पुस्तक जोनहो। हृदय चिन्तित देह सरोगहो,पठन क्योंकर होतुमही कहो?
x -'युगवीर' "नयनन देख जगत को, नयना देखे नाहिं। ताहि देख जो देखता नयन-झरोखे माहिं ।। "नीर बुझावै अगनिको, जलै टोकनी-माहिं । देह-माहिं चेतन दुखी, निज गुण पावै नाहिं ।। X X
X "गिरितें गिर परिवो भलो, भला पकरिवो नाग ।। अग्नि-माहिं जरवो भलो, बुरो शील को त्याग ॥"
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उर्दू
होगी न कद्र जान की कुर्बा' किए बगैर । दाम उठेंगे न जिन्सके अर्जान किए बगैर ।। x x
-हाली' तनपरस्ती पैजोहोसर्फ वह दौलत क्या है ? रौरको जिमसे न राहत हो वह राहतक्याहै ? x x
-'चकबस्त' आग़ोशेलहद में जब कि सोना होगा। जुज खाक न तकिया न बिछोना होगा ।। x x
-'सरशार' दो दिन सराप फ्रानी में अपना मुक्काम है। है सुबह गर यहाँ तो वहाँ अपनी शाम है।
x -'दास' होता नहीं है कोई बुरे वक्त का शरीक । पत्ते भी भागते हैं जिजों में शजर से दूर ।। जानल१० पुरसमर ११हैं उठात वा सर नहीं । मरकश हैं वोदरख्त कि जिनपैसमर नहीं ॥
X ग़ाफ़िल तुझे घड़ियाल यह देता है मुनादी । खालिक ने घड़ी उम्र में एक और घटादी ।।
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परनारी पैनी छुरी, मत कोइ लावो अंग। रावण के दस सिर गये परनारी के मंग।
x x -कवीर तु नित चाहत भोग नए नर पूरब पुन्य बिना किम है; कर्म सँजोग मिले कहुँ जोग गहै तब रोग न भांग सके है। जो दिन चारकोबौंत बनों कहुँ तो परि दुर्गतिमें पछतैहै; याही तैयार सलाह यही है गई कर जाहु निवाहन है है।। x x
-भूधरदास जीवनकी औं' धन की आशा जिनके सदा लगी रहती । विधि का विधान सारा उन ही के अर्थ होता है ।। विधिक्या कर सकता है ? उनका जिनकी निराशता आशा। भय-काम-वश न होकर, जगमें स्वाधीन रहते जो ॥
x x . -'युगवीर' "बड़ो भयो तो क्या भया, ज्यों बन बढी खजूर । दल थोड़ा गुठली घनी, छाँह तुच्छ फल दूर ॥"
xxx "तीन सतावें निबल को राजा पातिक रोग।"
सियाहबख्ती१३में कब कोई किसीका साथ देता है। किनारीकीमें ४ मायाभी जदा होता है उन्माँसे।।
कौन होता है बरं वक्त की हालत का शरीक । मरते दम ऑम्वको देखा है कि फिर जाती है ।।
१ बलि. २ सस्ती. शरीरकी उपासनामें-दैहिक भोगों पर. ४ खर्च. ५ मुख चैन. ६ कवकी गांद. ७ सिवाय. ८ पतझकी मौसम. ६ वृक्ष. १. वृन. ११ फोम परिप. १. विधिविधाता. १३ माश्यान्धकार-दर्भार. १८ अन्धे में.