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- पौष, वीर नि०सं०२४५६ ]
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हमारी शिक्षा
हमारी शिक्षा
ज्ञा
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ले० - बाबु म ईदयाल जी, बी०ए० (नर्स)
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" विद्या सर्वार्थसाधिनी " - भगवन् जिनसेनाचार्य ।
Education alone can conduct us to that which is at once best in quality and infinite in quantity. Horace Monk.
"केवल शिक्षा ही हमें उस तक ले जासकती है जो उच्चकोटिका और अनंत है । "
शिक्षा का महत्व
के
महत्वसे प्रायः सब ही परिचित हैं । सब ही बहुत अंशों में यह जानते हैं कि शिक्षा से मनुष्य के हृदय में एक अद्भुत प्रकाश होता है । शिक्षा ही के द्वारा मनुष्य की मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तियोंका पूर्णरूप से विकाश होता है । सुशिक्षित सदस्यों का समाज ही संसार में सब गुणों को प्राप्त करके सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक उन्नति करने में समर्थ होता है । शिक्षित
समाज
अपने अस्तित्व को गौरव के साथ स्थिर रख सकता है और मूर्ख समाज — पढ़ समाज - समय और प्रकृतिके प्रबल वेगके सामने नष्ट हो जाता है। जिनके पास शिक्षाका चिंतामणि रत्न है, जिनके यहां विद्यारूपी कामधेनु है, वे महान् धनी हैं और संसार की सब वस्तुएँ उनके सामने तुच्छ हैं। विद्वान् ही बलवान
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है और अशिक्षित महान् शक्ति धारी होते हुए भी निर्बल है । कहनेका तात्पर्य यही है कि शिक्षा मानवी उन्नतिके वास्ते अत्यंत आवश्यक साधन है ।
जैन समाज और शिक्षा
इससे पहले कि पाठक महाशय जैन समाज में शिक्षा का प्रचार और उसका हिसाब जाननेका प्रयत्न करें वे पहिले नीचेके बड़े कोष्टक को देख लें । उनको बहुत हद तक उससे यह मालूम होजायगा कि हमारा समाज शिक्षा नामक भूषण से कितना अलंकृत है ?
सन् १९२१ में समस्त भारत में जैनियों की संख्या ११७८५९६थी, उनमें से केवल ३५६८७९ जैनी शिक्षित थे, अर्थात् २९.६३५ प्रतिशत । इनमें पुरुषों और स्त्रियांक पृथक पृथक अंक इस प्रकार थे । ६१०२७९ पुरुषों में ३१३४१६ पुरुष लिखे पढ़े थे, अर्थात ५१.६२ प्रतिशत । और ५६८३१७ स्त्रियों में से केवल ४०४६३ स्त्रियां लिक्खी पढ़ी थीं, अर्थात् ७.६४९ प्रतिशत । अंग्रेजी लिखे पढ़े पुरुष २२५५७ और स्त्रियां ८८३ थीं, जिनका प्रतिशतका हिसाब लिखना व्यर्थ सा ही है ।