________________
१००
धानी मोहबा थी। इस वंशके वंशज ललितपुरके निकट खजराहा ग्राम में अभी तक पाए जाते हैं। सन् १८११ में जब महाराजा सिंधिया की ओर से जो कर्नल वैपटिम्टी फिलोज देवगढ़ के ऊपर चढ़कर आए थे उन्होंने तीन दिन बराबर लड़ कर बाद को देवगढ़ पर कब्जा कर लिया था | चंदेरी के बदले में महाराज सिंधियाने देवगढ़ सरकार हिंदको दिया था तभी से सरकार हिंदु का क़ब्ज़ा इस ग्राम पर है ।
अनकान्त
किले की दीवार चाहे चंदेल राजाओंने निर्मापित कराई हो या पूर्वकी बनी हों, हम यह ठीक नहीं कह सकते; परन्तु इसकी मोटाई १५ फुट है जो बिना सिमिंट और गारेके केवल पापाणकी बनी हुई है । इसमें गोला चलाने के लिए सुराख तथा गोलाबुर्ज हैं। हदबंदी की दीवाल नदी की ओर याता बनाई ही नहीं गई हैं या गिर गई हैं । परन्तु उसकी ऊँचाई २० फुट से कहीं भी अधिक नहीं है । सबसे बड़े अचम्भकी यह है कि किले के उत्तरी पश्चिमी कोनेमे एक पत्थर की दीवार २१ फुट मोटी है जो ६०० फुट दूर तक पहाड़ीके किनारे चली गई है। शायद यह दीवार दूसरे किले की हो जो नष्टप्रायः हो चुका है।
वात
वर्ष १, किरण २
आठसौ वर्षके पुराने हैं किन्तु इनके सही सलामत रहने का कारण यही है कि वे मात्र पत्थर के हैं इनमें चूने गारेका लेशमात्र भी अंश नहीं ।
देवगढ़के बड़े मंदिर सब खड़े हुए हैं जिनमें मरम्मत की सख्त जरूरत है । पहले इनमें किवाड़ोंकी जोड़ीनहीं थी जिसमे हिंसक जन्तु न कर देवालयों में निवास करते थे । परन्तु अब धर्मप्रेमी उदार हृदय श्रीमान् मेठ पदमचंदजी श्रागरा निवासी की कृपा से देवालयोंमें लोहे की जोड़ियाँ लग गई हैं, इससे हिंसक जन्तु श्रोंका डर बिलकुल ही मिट गया है। दो मंदिर दुमंजले भी हैं जिनमें पुरातन कारीगरीके विचित्र नमूने देखने को मिलते हैं। मंदिरोंके छज्जे नालीदार चद्दरके समान पापाणके बने हुए हैं। सब मंदिर क़रीब
गिरे हुए मंदिरों में छोटोंका नम्बर अधिक है । इनके गिरनेका कारण या तो भूकम्प रहा हो या किसी धर्मद्रोही नरेशने इन पर अपनी शक्ति आजमाई हो । इनके गिर पड़ने से गणित मनोज्ञ मूर्तियोंकी दुरदशा हो रही है । वर्सातमें काई लगनेसे, घाससे आच्छादित हो जाने मूर्तियों के रंग रूपमें भी बहुत बड़ा अन्तर पड़ता जा रहा है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि यह स्थान एक समय बड़ा ही अतिशय क्षेत्र रहा है। अनुमान होता है कि किसी विधर्मी राजाके धर्मद्वेष के कारण ही इसकी यह दुर्दशा हुई है । इस क्षेत्रके इतिहास की पूरा खोज करनी और उसका तथा क्षेत्रका उद्धार करना भारी धर्म तथा पुण्यका काम है ।
अंतमें समाज के श्रीमानों तथा उदार हृदय लक्ष्मी पुत्रोंसे मविनय निवेदन है कि आप लोग इस पुरातन अतिशय क्षेत्र देवगढ़की ओर ध्यान दीजिये । यह स्थान कोई साधारण स्थान नहीं किन्तु इसमें लाखों
पकी सम्पति लगी हुई है। इन जैनमंदिरोंके निर्मापित कराने वाले देवपत और खेवपत नामके दो धर्मात्मा भाई हो गए हैं जिनके पास सुना जाता है कि एक फटी कौड़ी भी नहीं थी, किन्तु धर्मके अद्वितीय प्रभाव के कारण उन्हें एक पारस पथरी प्राप्त होगई थी जिसके बल पर उन्होंने पर्वतराज देवगढ़ पर जैनमंदिर बनवाए। कालके आतंक से आज कल उनकी दशा खराब हो रही है। उसके सुधारनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है। इसके लिए धर्मप्रेमी सज्जनोंको लक्ष्य देना चाहिए और एक बार इस क्षेत्रके दर्शन भी करलेना चाहिए, ऐसी मेरी सबसे अन्तिम विनय है ।