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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण२
के प्रदेशके मुनिसंघको अपना शिप्य बना कर उसे है। यह भाग १७ पद्योंमें है। ऊपर जो अनुवाद दिया विभूपित किया । जैनशामन का तथा महावीर, गौतम, है उसमें 'जैनशामन' से प्रारंभ होने वाले अन्तिम पाँच भद्रबाहु, विशाग्याचार्य, उमाम्वामी, समन्तभद्र अक- वाक्योंको छोड़ कर शप भाग इमी कनडी भागमे लंकका विजय हो । अक नंकने समन्तभद्रके देवागम सम्बंध रखता है और उममें पहले तीन पद्यों तथा पर भाष्य लिग्वा । अाप्रमीमांसा ग्रन्थको समझा कर पाँचवें, आठवें और दसवें पाका कोई अनुवाद नहीं बतलाने वाले विद्यानन्दिको नमोस्तु । श्लोकवार्तिका- है, जिसमे अन्य वृत्तान्तके अतिरिक्त श्रीरंगनगरकी लंकारके कर्ता, कवि चूड़ामणि तार्किकर्मिह, विद्वान् गजमभा, गुरु नेपालकी गजमभा औग्नगर्ग गज्यकी यति विद्यानन्द जयवन्त हो। ...... गिरी निकट गजसभाका भी हाल रह गया है । और शेप पयोंका निवारण करने वाले मोक्षेच्छ ध्यानी मुनि पात्रकेमरी जा अनुवाद या आशय दिया गया है वह बहुत कुछ ही हो गय...."
__ अधग ही नहीं किन्तु कहीं कहीं पर ग़लत भी है. [शिलालेग्य नं. ४६] जिमका एक उदाहरण गेग्माप्प सम्बन्धी पद्यका अनअनुवाद रूपमें प्रस्तुन इम शिलालेग्वके अन्तिम वाद है । इम पद्यमें कहा गया है कि हे विद्यानन्द. वाक्यसे भी, यद्यपि, यह नहीं पाया जाता कि विद्यानन्द प्रापन गरमाप्पेमें योगागम-विषयक बादमें प्रवृत्त मुनि
और पात्रकेसरी दोनों एक ही व्यक्ति थे; क्योंकि न तो गणकी पालना-अथवा सहायता के कार्यको प्रेमके इसमें ऐसा लिग्या है और न और मब कथन अकेले माथ,बनौर एक गुरुके अपने हाथमें लिया है और (इम विद्यानन्दम ही सम्बन्ध रम्यता है बल्कि गौतम, नरह) अपने को प्रतिष्ठिा किया है । दम परम पाठक भद्रयाहु, ममन्नभद्र और अकलंकादिक आचार्योका यह सहज ही में अनुभव कर सकते हैं कि उपरका भी इसमें उल्लेख है और तदनुसार पात्रकेसरीका भी गैरसप्पामे प्रारंभ होने वाला अनुवाद कितना ग़लत एक उल्लेख है । गौतम, भद्रबाह और ममन्तभद्रादिक और भ्रामक है । अम्तु; शिनालग्बके इम कनडीभागमें यदि विद्यानन्दके नामान्तर नहीं हैं तो पात्रकेमरीको जिन राजाओंका उल्लेग्य है और संस्कृत भागमें भी ही उनका नामान्तर क्यों ममझा जाय ? फिर भी मैं सांगिराज, पद्मानन्दन कृष्णदेव, मालुव कृष्णदेव. इस लेग्य विषयको कुछ और भी स्पष्ट कर देना चाहता विरूपाक्षराय, माल्बमल्लिराय, अच्युतगय, विद्यानगरी
के विजय श्रीकृष्णराय आदि जिन राजाओंका विद्या___ यह शिलालेख कनडी और संस्कृत भाषाका एक नंद तथा उनके शिष्योंके सम्बन्धी उल्लेख है व मत्र बहुत बड़ा शिलालेग्व है-उक्त अनवाद रूपमें पाठक शककी १५वीं अथवा विक्रम और ईमाकी प्रायः १६वीं जितना देख रहे हैं उतना ही नहीं है । इसका पूर्वभाग शताब्दीमें हुए हैं और इम लिये उनकी मभाओंमें कनडी और उत्तरभाग संस्कृत है, और यह संस्कृतभाग प्रमित होने वाले ये वादिविद्यानन्द महोदय वे विद्याही इसमें बड़ा है । पहले कनडी भागमें वादिविद्यानन्द नन्द स्वामी नहीं हैं जो कि श्लोकवार्तिकादि ग्रन्थोंके का उल्लेख है और उन राजसभाओं श्रादिका उल्लेख है. प्रसिद्ध रचयिता हैं । और यह बात इस शिलालेखके जहाँ पर उनके द्वारा कोई कोई महत्वका कार्य हुआ लेखक तथा विगानंद के प्रशिष्य और बन्युमुनि वर्द्धमान