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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण २ * वीरवाणी*
[ ले-श्री भगवन्त गणपति गोयलीय ] । तीर्थकर की मुना दुलारी,
उपा-काल के ग्विले सुमन पर, जगजीवों की माता प्याग,
जल-तरंग पर किशलयगण पर, वसुधा की सन्नत हितकारी,
वृहत गगन पर तारागण पर, ' उपकृत है तुझ में जग भारी,
तम पर युति पर त्रिविधि पवन पर बिहरी और मदा बिहरे त है माँ ! देश विदेश। दर्शन ज्ञान चरित्र लिम्वे हो माँ ! सम्यक् संयुक्त । जननी न है विश्व-तारिणी,
सरिता में, सरवर-सागर में, कर्म-कोप अघदल-मॅहारिणी,
गिरि-गह्वर में नगर नगर में। जन्म-मरण-सन्ताप-हारिणी,
डगर डगर में, वसुधा भर में, भव्य जीव-मुनिमन-विहारिणी,
जल-थल में, अनन्त अम्बर में, करदे नष्ट जगज्जीवों के करुणामयि ! मब क्लेश । एक बार हो उठे पुनः माँ ! तेरा री जयघोष । धन-वैभव की हृदय-हीनता,
स्वार्थों पर ममता जय पावे, भोगों की आत्मिक मलीनता,
मिथ्या की माँ मारी जावे, आशा की दयनीय दीनता,
सुख की घटा घिरे घहगवे, सुख-दुख की स्थिरता-विहीनता
ताप-कषाय पीठ दिखलावे, समझाकर करदे त्रिलोकको, माता मोह विमुक्त। दोष दलिनि ! प्राणी समूह को करदे अब निर्दोष ।
अनुरोध (ले०-श्री० भगवन्त गणपति गोयलीय) जब प्रभात में रवि किरणें पाकर मुझको विकसाढ़ें, मेरी क्षुद्र आँख पर जलकण मायावरण गिरादें, पवन-प्रवाह थिरकना हटना बढ़ना मुझे सिखादें, भ्रमरावलियाँ गुण गा गा कर मानिनि मुझे बनावें।
तब होगा प्रारंभ पतन का मेरे यह निश्चय है ; उस यौवन में आत्मविस्मरण हो जानेका भय है; सब हाँ तब, बनपाल! शीघ्र ही मुझको चुन लेजाना; बढ़ा पार्श्व-अनुचर-चरणों में जीवन मफल बनाना ।