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सत्यामृत
(मानव-धर्म-झारख}
[ दृष्टि कांड ]
(परिवर्द्धित मंस्करण
: प्रणेता : स्वामी सत्यभक्त
प्रत्यसमाज-संस्थापक
चिंगा ११३५१ इतिहास संवत्
नवम्बर १६५१ ई
प्रकाशक - सत्याश्रम वर्धा (म. प्र.)
दूसरी बार
मुल्य-पांच रुपये
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चुन्नीलाल कोदेचा
मन्त्री-सत्याश्रम मण्डल
बोरगांव बधो (म.प्र.)
मल्य-५)
मुद्रक
सदाशिव गोमाशे मैनेजर-सत्येश्वर पि.प्रेस
त्याश्रम वर्धा (म.प्र.)
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प्रास्ताविक
.सत्यामृत का दूसरा नाम मानवधर्म शास्त्र है। ये दोनों नाम, सार्थकता रखते हैं। सब शास्त्रों का सम्मान रखते हुए भी इसमें किसी शास्त्र को माधार न बनाकर युगसत्य को ही श्रावार बनाया गया है, और सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से भी सत्य का जितना दर्शन सम्भव है उतना किया गया है। फिर भी सत्यामृत का यह सन्देश है कि मनुष्य में शास्त्र मूदता न होना चाहिये । सब से बड़ा शास्त्र यह खुला हुमा संसार है या सब से बड़ा शास्त्र विधक है। कोई भी शास्त्र, जिममें सत्यामृत भी शामिल है, इस खुले हुए महाशास्त्र संसार को पढ़ने में 3 विवेक रूपी शास्त्र के पन्ने खोलने में मददगार है। जब सत्य में और शास्त्र में विरोध मालूम हो नम सत्य की वेदी पर शास्त्र का बलिदान करना चाहिये, शास्त्र की वेदी पर सत्य का बलिदान नहीं । बहुत से लोग अपने प्राचीर शास्त्रों के लेखन के विरुद्ध जब वैज्ञानिक सोनों को पाते हैं तब वे विज्ञान को ही अधूरा कहकर मजाक उड़ाते हैं, विज्ञान की विकास-शीलता को संशय भनिय मादि कहकर उपेक्षा करते है, अथवा मडी खीचतान करके उस बात को शास्त्रों में से ही निकालने की कुचेष्टा करते हैं, या शास्त्र की वेदी पर सस्य का बलिदान है । सत्यामृत इस शास्त्रमूढ़ता का विरोधी है । वहा से बड़ा शास्त्र मी सत्येश्वर की पदधूलिका एक कणमात्र है, मस्यामृत इस बात को मुकाए से स्वीकार करता है और स्वीकार करता इस बात को भी कि, सत्य के अनुकूल न रहने पर शास्त्र का कायाकल्प कर देना चाहिये या विसर्जन कर देना चाहिये।
मानवधर्म शास्त्र यह इसलिये है कि इसमें पृथ्वी नर के मनुष्यों को दृष्टि में रखकर विचार किया गया है अमुक राष्ट्र या अमुक नस्ल या अमुक वर्ग को प्रधानता नहीं दीगई है। उस सदारता की दृष्टि से यह मानवधर्म शास्त्र है।
कुछ व्यक्ति शायद यह भी कहेंगे कि । जैसे यह उदारता की दृष्टि से मानवधर्म शास्त्र है उसी प्रकार कदाचित् अनुदारता की दृष्टि से भी मानव में शास्त्र है क्योंकि उसमें मानव के हितको जिवनी प्रधानता दीगई है उतनी अन्य प्राणियों के हित को नहीं।"
इस कथन में तथ्य होनेपर भी उसकी कारणमीमासा ठीक नहीं है । मनुष्य को प्रधानता किसी पक्षपात के कारण नहीं दीगई है किन्तु प्रकृति ने 'जीवो जीवस्य जीवनम् , (जीब जीव का जीवन मा माहार है), इस नियम को अनिवार्य- पनादिया है। हिंसा के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता, जीवन का यह बड़ा से वडा किन्तु अनिवार्य दुर्भाग्य है । ऐमी हारत में शास्त्र या सत्यामृत यही विधान कर सकता था कि हिंसा कम से कम हो और जो हो वह किसी उचित सिद्धान्त के माधार पर हो । सस्यामृत का सन्देश विश्व में अधिकतम सुखधर्धन का है, मोर सुखदुस्न की मात्रा प्राणी के अधिक वन्य पर निर्भर है, इसलिये शनिवार्य हिंसा की परिस्थिति में अधिक चतन्यवाले प्राणी की रक्षा प्रथम कर्तव्य है।
और ज्ञात प्राणियों में मनुष्य ही अधिक चैतन्यवाजा प्राणी है इसलिये इसकी रक्षा का प्रयत्न मुख्य बनाया गया है। सत्यामृत ने इस बात को साफ स्वीकार किया है और एक सिद्धांत का उसे रूप दिया है। इसमें व्यावहारिकता है।
___ जो लोग इस व्यावहारिकता को भुलाकर दूसरे प्राणियों की तुलना में मनुष्य को बराबर ही मानकर चलते हैं और कभी या कहीं इसी तरह के प्रदर्शन करते हैं, उनके जीवन में एक तरह की मदरदर्शिता और मारमवञ्चना पाई जाती है। उनके सिद्धान्त मानवधर्म शास्त्र के अाधार नहीं बन सकतेने
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प्रास्ताविक
मुट्ठीभर शोषक वर्ग के जीवन में सिर्फ प्रदर्शित ही किये जासकते हैं । सत्यामृत या इस मानवधर्म शास्त्र की दृष्टि में ऐसी व्यावहारिकता है जो पृथ्वी के दर एक भूखद में तथा हर एक वर्ग के मनुष्य के जीवन मे सफलता के साथ दिखाई दे सके। इसप्रकार वास्तव में इस मानवधर्म शास्त्र की यह व्यावहारिक उदारता है । उदारता के वे सन्देश सिर्फ एक तरह की स्वपरवञ्चना ही है जो मुट्ठीभर शोषक या मुफ्तखोर माद मियों को छोड़कर सब के जीवन में न दिखाई दे सकें, या मनुष्य मात्र के जीवन में दिखाई दे सके तो मनुष्य जाति की इतिश्री करदें। इसप्रकार यह मानवधर्म शास्त्र व्यावहारिक उदारता की चरम सीमावर कहा जा सकता है | इसप्रकार इनके दोनों नाम उचित और सार्थक हैं ।
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इसके तीन का है। दृष्टिकांड आधारकार्ड ' व्यवहार कार्ड | इसमें यह दृष्टिकाढ मुख्य है । इसमें जीवन के समाजके राष्ट्र के भिन्न भिन्न धर्मों और धर्मसंस्था के अंगों प्राय सभी मुख्य मुख्य रूपा पर एक सस्यमय दृष्टि डाली गई है। इसप्रकार माचार और व्यवहार के सूत्र भी इसमें शामिल होगये हैं । यद्यपि टिका के पढ़ने पर भी श्राचार का और व्यवहार काट के पदने की आवश्यकता बनी ही रहती है, क्योंकि नाचार काढ 'व्यवहार कांड में जो विशेष और मौलिक विवेचन किया गया है वह दृष्टिकाण्ड पढ़ने से ही समझ में नहीं आ जाता, फिर भी उनके विवेचन की दृष्टि मिश्र जाती है । इसप्रकार दृष्टिकांड को पूरे मध्यामृत का मूलाधार का जासकता है बल्कि यों भी कहा जासकता हूं कि व्यवहार कोड की किसी बात की परख आचार काढ की कसौटी पर कसको करना चाहिये और माधार कार्ड की किसी बात की परख दृष्टिकांड की कसौटी पर कसकर करना चाहिये ।
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दूसरी आवृति की विशेषता ( परिवर्धन)
ग्यारह साल में इष्टिका की दूसरी आवृत्ति होरही है । निसन्देह इस ग्रन्थ का इतना कम 'स्वार दुर्भाग्य की निशानी है । किसके दुर्भाग्य की निशानी है, इसका निर्णय पाठकों को या दुनिया को ही । पर इसमें आये कुछ नहीं है ऐसी खुराक बहुत धीरे धीरे ही गळे उत्तरती है ।
करना
1
इस दूसरी कावृति की दो विशेषताएँ हैं । पहिली और छोटीसी विशेषता यह है कि इस भावृत्ति मे हरिकेाद में भाये हुए समस्त पारिभाषिक शब्दों के पर्याय शब्द मानवभाषा में दे दिये गये हैं। जो सुन उन शब्दों के बाद कोक में हैं। इसरकार मानवभाषा के शब्द भण्डार की अच्छी सामग्री इस
वृत्ति
है।
1
दूसरी और महत्वपूर्ण विशेषता है इस प्रावृत्ति का परिवर्धन | पहिली आवृत्ति की अपेक्षा इस आवृत्ति में सवाये से भी अधिक मसाला है। पैका टाईप होने से इस आवृति के हर एक पृष्ट में अथमावृत्ति की अपेक्षा दत ग्यारह पक्तियाँ अधिक आई हैं, इसने पर भी चालीस पचास पृष्ठ अधिक हैं । जिनने पथमावृत्ति पढ़ी है उनको भी इस बावृत्ति में अनेक नई बातें जानने को मिडेंगीं । पाठक पदकर ही इको समझ सकते हैं। कुछ संकेत यहां भी किया जाता है [
1
पहिले अध्याय में, मंगलाचरण सत्येश्वर का रूपदर्शन, गुणदेव कुटुम्ब, कथा, आदि न्हकरण बढ़ाये गये हैं । परीक्षा के मेद नये ढंग से किये गये हैं, तथा प्रमाण आदि की मीमांसा और भी विकसित की गई है। मावृत्ति से इस भावृत्ति में यह अध्याय दूने से भी अधिक होगया है ।
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दूसरे अध्यायमें न्याय देवताकी कथा देकर तथा अन्य विवेचनमे प्रायः सभी बातें कुछ विकसित घाँके से कहीं गई है । यह अध्याय मी प्रथमावृति में दूना होगया हूँ 1
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प्रास्ताविक
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तीसरे अध्याय मॅ सुखदुःख आदि का विवेचन कुछ और विस्तार में हुआ है । भेदः प्रभेद बढ़ाकर बताये गये हैं। उन्हें समझने के लिये नक्शे दिये गये हैं। यह अध्याय भी प्रथमावृत्ति से करीब पौत्रे दोगुणा होगया है ।
चौथे अध्याय में भी कुछ विवेचन बढ़ा है, कुछ दोहे वगैरह दिये गये हैं। प्रथमावृति की करीब सवाया होगया है ।
पांचवां मध्याय भी करीब सवाया होगया है । इसमें धर्म समभाव का प्रकरण काफी विक हुआ है, इसमें ऐतिहासिक दृष्टि से धर्मसंस्थाओं का विकास आदि का अच्छा विवेचन हुआ है, अन्य भी कुछ संशोधित हुए हैं।
छठे अध्याय की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जीविका जीवन और यशोatar नाम के शे प्रकरण बिलकुल नये जोड़े गये हैं । बाकी इधर उधर कहीं छू दिया गया है, विशेष संशोधन नहीं हुआ |
इस विवेचन से इतना पता तो खरा ही सकता है कि दूसरी मावृत्ति काफी मौलिकता और सामग्री रखती है। वन की दृष्टि में कहीं कोई अन्तर नहीं हुआ है। न दोनों आवृत्तियों मैं कोई विरोध है । फिर पहिली धावृति की अपेक्षा इस मावृत्ति की प्रामाणिकता अधिक है। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि सत्यसमाज के अनुसार जैसे जन्य वस्तुएँ विकासशील हैं उसी तरह
मी विकासशील है।
जो नये पाठक इसे पढ़ेंगे के वो पढ़ेंगे ही, पर प्रथमावृत्ति पढ़नेवालों को भी यह आवृति
पद लेना चाहिये ।
२१ का १६११ ई. सं.
1
३००-१-५१
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सत्यभक्त सत्याश्रम वर्षा
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विषय सूची
विषय
॥ सर्वज्ञवाद
१५०
9]
७३ विशाल दृष्टि
१२
८६ रंगभेद
१६.
यामा
परीक्षता विचारकता
१७
wwooooo--- पहिला अध्याय तीसरा अध्याय
धर्मशास्त्र की मर्यादा सत्यदृष्टि
मार्ग दृष्टि
ईश्वरवाद पृष्ठ सुख दुख विचार
भारमवाद मगलाचरण
११ दुःख विचार भगवान सत्य १२ उ. शारीरिक दुःख
६९ मुक्तिवाद सत्येश्वर की साधना १३ छ: मानसिक दुब
द्वैताद्वैतवाद सत्येश्वर का दर्शन ॥ सुन विचार
नित्यानित्यवाद रूपदर्शन ११ माठ मानन्द
धर्म में उचित परिवर्तन गुणदेव
५ उपाय विशा दुर्गुगदेव
१५ दुख सुख श्रेणियाँ गुणदन
५६ एका माठ दुख ७५ अनुदारता के संस्कार निष्पक्षता " सुखोपाय
८३ सर्वज्ञता की उचित मान्यता स्वत्वमोह । यहत्तर सुख
" जातिसमभाव कालमोह
१६ दस महत्त्व
" चौथा अध्याय नवीनता मोक्ष
राष्ट्रभेद योग बोष्ट
वृत्तिभेद ॥ योग चतुएय
६२ उपजाति कल्पना २५ मंकियोग अदीनना
१३ व्यफिसममाव परीक्षा के पाच पेद " ज्ञानमकि
स्वोपमता स्वार्थमोक्त प्रमाण ज्ञान
चिकित्स्यता अन्धभक्ति शास्त्र का उपयोग
अवस्थासमभाव सन्यासयोग प्रत्यापम शास्त्र
नाट्यमापना २६ विद्यायोग प्रत्यक्ष का उपयोग ३० कर्मयोग
क्षणिकस्वभावना अनुभव की दुहाई
सधुत्वभावना तर्क प्रमाण
पांचवा अध्याय
महावभावना समन्वयशीलता
लक्षण दृष्टि
अनृणस्वभावना
११५ कर्तव्यमावना दुसरा अध्याय
गुरुमूदता ध्येयष्टि
॥ भदेवभाषना अतिम ध्येय
गुरु की बीन श्रेणियों
१३ योगी की जन्धियों ध्येय और उपध्येय २ कुशुरु गुरु
1. विपत विजय
" शास्त्र मूढ़ता : स्वतन्त्रता उपध्येय
११७ विरोध विजय ॥ देवमूढता शान्ति उपध्येय
२. उपेक्षा विजय ४३ लोसूदता मोक्ष उपध्येय
१२३ भलोमन विजय ॥ धर्मसमभाव श्वर प्राक्षि उपध्येय १५ धर्म समभाव के ८ लाम
१२५ निर्मयता सुख और पाप
६ मतिभय १. दस तरह के सम्प्रदाय निजसुख और सर्पसुस्त्र
१० विनिमय १ धर्म सस्पा क्यों शायदेयता की ज्या
१३९ अपायमय २४ तरवमता और इन्द
१३८ दस तरह के मम गुरमता
१६ सम्मान सूचनाएँ 10 अपायता
1
१६
१८१
विवेक
१८९
१८०
101
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विषय सूचा
२१२
२४०
२४२
छहा अध्याय
जीवन दृष्टि चावार्थ जीवन
" गह भेद मक जीवन ( ११ मेद) बमोजीवन (माठ मेद कर्दम्यजीवन ( छ: मंद) अर्थजीवन (छ. भेद)
चार तरह का विनोद २१६ नारीदोष मीमांसा प्रेरणा जीवन (पांच भेद) २१९ उभयलिंगी जीवन जीविका जीवन ( १२ मेद ) २२६ यत्न जीवन (वीन भेद)
यशोजविन (९ मेद) २२६ देव और यत्न २००
लिंगजीवन (चीन भेद) २५२ शुद्धि जीवन (चार मेद) २१२ २०३ नपुंसक
२३३ जीवन जीवन (दो भेद) २५० 11 नरनारी
पांच भेद २५० रा एकसिंगी जीवन २३६ दृष्टि कांड का उपसंहार २०
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సిరి సరసన చుసిన వాచ్ సిని పిల్లే
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समर्पण
भगवान सत्य के चरणों में
परम पिता !
तेरी वस्तु तुझी को नर्पण
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जो कुछ कहलाता है मेरा है तेरी ही करुणा का कण || तेरी वस्तु तुझी को अर्पण ॥ १ ।
तीर्थकर है तीर्थ बनाते । पैगम्बर पैगाम सुनाते ॥ तेरी ही at freeier कोई है अवतार कहाते || तेरा तुझको करें समर्पणः । तेरी वस्तु तुझी को अर्पण ॥ २ ॥ मै भी क्या चरणों में लाऊं । मेरा क्या ? जो भेंट चढाऊ ||
दिल निचोड़कर ले आया यह चरणोंपर रसधार बहाऊ ।
पोकर अमर ने मानवगण | तेरी वस्तु को अर्पण ॥ ३ ॥
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तेरा दास
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सत्य भक्त
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सत्यामृत ( सत्याभ)
मानव-धर्मशास्त्र (मानधर्मीन) दृष्टिकांड (लंकोकंडो)
पहिला अध्याय सत्यदृष्टि ( सत्यलंको)
मङ्गलाचरण (नम्मो)
पैगाम मिला बन्धन टूटे। गीत १
मदमोह भरे रिश्ते छूटे॥ मेरी भापा तेरे विचार।
इस जीवन में ही पुनर्जन्म देकरमैं तो हूँ वेरा दूतमात्र तू ही देता है धर्मसार।
तूने निजधाम दिया। मेरी भाषा तेरे विचार ॥१॥
तूने मुमको पैगाम दिया ॥२॥ जब सत्यमति पाई मैंने।
तूने अनुपम कारणा करके।
मेरी निर्वलताएँ हरके ॥ तेरी महिमा गाई मैंने । मेरे छोटे से जीवन के मकार उठे तब तार तार।
। यह जीवन सफल बनानेको
जीवनभरका यह काम दिया। ___मेरी भापा तेरे विचार ॥२॥
तूने मुझको पैगाम दिया ॥३॥ झंकार गगन में घूमगई।
तेरे चरणो को चूमगई ॥ तवशद ब्रह्मासी हो पवित्र फिरकर आई मेरे अगार। कौन तू वेरा कौन निशान ।
मेरी भाषा तेरे विचार ॥३॥ तुझे समझने में हारे सब वैज्ञानिक विद्वान। झंकार न थी सत्यामृत था।
कौन तू तेरा कौन निशान ॥ १ ॥ जगको तेरा चरणामृत था। ईश्वरवादी का ईश्वर तू ब्रह्मा विष्णु महेश । सत्यामृत कहकर वाटरहातेरावह चरणामृत अपार सर्वश्वर अल्लाह खुदा प्रभु बहुमन अखिलेश ।। मेरी भाषा तेरे विचार ॥४॥ गाड यहोवा जगत्पिता तू रख रहीम रहमान ।
कौन तू तेरा कौन निशान ॥२॥ गीत २
परम निरीश्वरवादी का तू महाकाल गुणधाम । सूने मुझको पैगाम दिया। नेचर प्रकृति पगत्पर अक्षर परब्रह्म निष्काम ।। अपनी भाषामें गूथ उसे मैंने सत्यामृत नाम दिया। परंज्योति त महाबोधि त चिन्मय अन्तर्बान ।
तूने मुझको पैगाम दिया॥१॥ कौन तू तेरा कौन निशान ॥३॥
गीत३
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[१२]
सत्यात
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सत्यभक्त का सत्धेश्वर तू परम सच्चिदानन्द । भगवान सत्य ( सत्येशा) परम विवेकाधार धर्ममय परमपिता सुखकन्त ॥
भगवान अगम अगोचर कहा जाना है। सब गुणदेवों का स्वामी न गुणाधीश भगवाना लागे वर्ष से बडे बडे विद्वान उसे जानने की
कोन तू तेरा कोन निशान 11४1 कोशिश करते भारहे हैं फिर भी अच्छी तरह सत्यभक्त की भावुकता का प्यारा ईश्वरवाद। जान नहीं पाये इसलिये अगम है, और आरसों से सत्यभक्त की सजग बुद्धिका परम अनीश्वरवाद ॥ देख नहीं पाये इसलिये अगोचर है। इतने पर ईशानीश समन्वयमय तू सद्विवेक को खान। भी उसे जानने देखने का प्रयत्न होता ही रहता
कौन तू वेग कौन निशान ॥५॥ है, होना भी चाहिये। तेरा कण पाकर कहलाते अन सर्वज्ञ महान। इस प्रयत्न में किसी ने यह निश्चय किया पर न कभी हो सकता तेरी सीमाओं का ज्ञान ॥ कि भगवान है, वह सृष्टि का मूल है, विधाता है, कण कण में डूबे तीर्थंकर ऋपिमुनि महिमावान॥ रक्षक है, न्यायी है, दएइदाता है। किसी ने यह
कौन तू तेरा कौन निशान ॥६॥ निश्चय किया कि ऐसा कोई भगवान हो नहीं अगम अगोचर महिमा तेरी तेराश्रय परात। सकता । वह असिद्ध है, युक्ति-विरुद्ध है। सृष्टि के दुद्धि भावना के संगम से होता तेरा भात ॥
___ सारे काम प्रकृति के अनुसार होते हैं। सत्यभक्त ने पाये तुझमें धर्म और विज्ञान । दोनो पक्षों के पास कहने के लिये काफी कौन तू तेरा कौन निशान ॥ ७ ॥ है, फिर भी इस विवाद का अन्त नहीं है इसलिये
" दुखना यह चाहिये कि इस विवाद से लाभ क्या ईश अनीशवाट के झगड़े छोड़ें सय विद्वान ! अपनी मति गति लेकर करदे जगको स्वर्गसमान ।
है ? इसका लक्ष्य क्या है ? सत्यभक्त, कर चिदानन्दमय सत्येश्वर का ध्यान ।
दोनों पक्ष कहेंगे कि हम सत्य की खोज कोन तू तेरा कौन निशान 11 करना चाहते हैं। क्योंकि सत्य के बिना हम
कल्याण अकल्याण, भलाई-बुराई, पथ-कुाभ का गीत-४
पता नही पासस्ते ! न खुद सुग्नी हो सकते है न मैं क्या तेग धाम बताऊं। जगत को सुखी कर सकत हैं। सत्यदृष्टि से देखू तुझको तो कण कण में पाऊ॥ इस प्रकार ईश्वरवादी अनीश्वरवाटी बोना
मैं क्या तेरा धाम बताऊं ॥ १॥ ही सत्यपर, मलाईपर सुखपर इकट्ठे होताते हैं। वीजरूप में भरा है कण कण में कल्याण। इसलिये ईश्वर के स्थान पर सत्य की प्रतिष्ठा सत्यभक्त पढ़ते कण कण में तेरा अकथ पुराण || करना अधिक उपयोगी है । उसे ईश्वरवादी श्री अब 'तू कहा नहीं है। इसका उत्तर क्या बतलाऊं, वरवादी दोनों ही मानते हैं। बुद्धि और भावना
मैं क्या तेरा शाम बताऊं ॥ २॥ दोनों को सन्तोप होता है । ईश्वरवादी सत्य में काशी गया प्रयाग अयोध्या शन'जय ओंकार। ईश्वर देखते हैं, अनीश्वरवादी सत्य में नियम
रुसलम सम्मेद मदीना मका गिरिगिरिजार व्यवस्था प्रकृानि आदि देखते हैं। दोनों ही उससे समी तीर्थ है तेरे श्राधम सभी जगह मैं ध्या। श्रा, मैं क्या देश धाम बता
ईश्वर को सच्चिदानन्द भी कहा जाता है। मन्दिर मसजिद चर्च जिनालय सब धर्मालय यह नाम बहुत सार्थक है। मूल में सत् है इसे सभी जगह कल्याण लिखा है वेरे पाठ अनेक ईश्वरवादी भी मानते हैं और अनीश्वरवादी भी अहा पढू' कल्याण वहीं मैं तेरा तीर्थ वना मानते हैं । वैज्ञानिक कहते हैं कि सत् में से चित्
मैं क्या तेरा धाम बताऊं ॥४॥ (चैतन्य ) की सृष्टि हुई है और चित् में से
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सत्यामृत
[ १३
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प्रानन्द की: इस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टि से सचि- का तृप्त करने के असख्य साधन उसने जुटाये है दानन्द से जगत का मल और उसके विकास की जिससे प्राणी ने आनन्द पाया है, नरसय अवस्था आजाती हैं। इसप्रकार वैज्ञानिक नारी में उसने एसा आकर्षण पैदा किया है लोग सायमन के साधक हैं। जिससे दोनों को श्रानन्द होता है। यह सब
धार्मिक दृष्टि से विचार करना सहल, प्राकृतिक या अयलसाध्य (नाममात्र का कहते हैं कि सन में से चित की सृष्टि हो या न
यलसाध्य ) आनन्द है। पर मनुष्य को प्रकृति हो, पर उसमें सन्दह नहीं कि सत् का सार
के द्वारा दीगई सामग्री को कई गुणा बढ़ाना है
और सुख के साथ दुःख का जो श्रोत प्रकृति ने [ उत्तम अंश] चिन् है और चित्का सार श्रानन्द है। इस प्रकार धार्मिक दृष्टि से विचार करनेवाले
बहाया है उसे क्षीण करना है। सत्येश्वर की इस लोग भी सन्धिानन्द के साधक है।
विशेष साधना की जिम्मेदारी मनुष्य पर है।। उस सच्चिदानन्द को मैं भगवान सत्य या
जितने धर्म हैं वे सत्येश्वर की इसी साधना सत्येश्वर कहता हूँ। इसप्रकार में ईश्वरवानी भी . हूँ और अनीश्वरवादी भी हूँ। मेरी मावना मे
काल और अनन्त पणियों की दृष्टि से सत्येश्वर
की साधना के कार्यक्रम भी अनन्त हैं। प्रत्येक ईश्वरवाट है और बुद्धि में अनीश्वरवाद । मेरे
कार्यक्रम अमुक देशकाल और अमुक पात्रों के जीवन में भागना और बुद्धि का समान स्थान है लिये पूर्ण होसकता है पर वह सत्येश्वर के आगे इसलिये मैं ईश्वग्वाद अनीश्वरवाद दोनो मा।
अनन्तका हिस्सा ही है। हां। हमारा देशकाल समान रूप में उपयोग करता हूँ। जो भावना
और हमारा या हमारे समाज का जीवन भी प्रधान हों व ईश्वरवादी बनकर भगवान सत्य
सत्येश्वर के सामने अनन्ताश ही है इसलिये की अर्थात् सच्चिदानन्द की साधना और धारा
अनन्ताश जगत् के लिये अन्साश साधना पूर्ण धना करे, जो बुद्धिप्रधान हो वे अनीश्वरवादी
साधना वनजाती है या धनसकती है। बनकर सत्य की अर्थात् सनिचदानन्द की साधना और श्राधिना करें।
सत्येश्वर का दर्शन (सत्येशापे दीरो) सत्येश्वर की साधना ( सन्येशाप साघो)
पा सत्येश्वर की साधना के पहिले सत्येश्वर
1 का दर्शन करना जरूरी है। क्योंकि देखने के सत्य की साधना है चिन्मय जगत को बिना चलना व्यर्थ है। सत्येश्वर के दर्शन से इस श्रानन्दमय बनाना । सर को चिन् बनाने का या बात का पता लगजाता है कि कर्तव्य का निर्णय सत में से चित्र निकालनका मनुष्य को यत्न नहीं कैसे किया जाय १ जगत कल्याण में वृद्धि कैसे करता है, वह सब प्राकृतिक प्रणाली के अनुसार की जाय १ भ्रमा और कुसंस्कारों पर विजय कैसे होरहा है, पर चित् को श्रानन्द रूप बनाने के प्राप्त की जाय ? किस गुण को या धर्म के किस लिवे मनुष्य को काफी प्रयत्न करता है। प्राकृ- अग को कितना महत्व दिया जाय १ परस्पर तिक प्रणाली से चित में से सुख और दुख दोनो विरोध होने पर किसको गौण या मुख्य बनाया निकल रहे हैं और अमुक अंश में निकलते रहेगे, आय विरोधों का समन्वय कैसे किया जाय ! प्राणी का, ग्वासकर मनुष्य का काम है कि दुःख इत्यादि। कम करे और सुख बढावे । दु.ख की अपेक्षा सुच
सत्येश्वर का दर्शन दो तरह का होता है का परिमाए अधिक से अधिक करते जाना ही
। एक रूपदर्शन, ( या श्राकारदर्शन ) दूसरा गुणसच्चिदानन्द की, भगवान सत्य की साधना है। ।
धना है। दर्शन । रूपदर्शन में रूपक अलंकार के द्वारा सत्येयो तो सत्येश्वर की थोड़ी बहुत साधना हर श्वर को और उनके सारे कुटुम्ब को अर्थत एक कररहा है, प्रकृति भी कर रही है । इन्द्रियों जीवन के सारे गुणों को व्यक्तित्व देकर समझा
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सत्यामृत
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जाता है। सत्य अहिंसा विवेक सरस्वती श्रादि गुणदेव [ रमलीम] को दिव्य व्यक्ति मानलिया जाता है। इस दर्शन सत्येश्वर [ सत्येशा ] इस कुदम्य के परमपिता । से जहा अपने गुणो या मनोवृत्तियों की उपयो- सारा कुट्रम्ब जिनकी सेवा करता है। गिता अनुपयोगिता लधुता महत्ता आदि का परि- अहिंसा माता [ मम्मेशी] सत्येश्वर की पत्नी चय मिलता है वहा मन को बहुत अच्छा आश्वा
और बाकी कुटुम्ब की माता सन भी मिलता है। ईश्वरवादी मनोवृत्ति को तो या मानामहो । विश्वप्रेम ही इनका असीम सन्तोप होता है। संकट में धैर्य, अस- रूप है। अहिंसा शह निषेधात्मक फलता में भी आशा उत्साह, धमा में समभाव, नहीं किंतु विन्यात्मक है अहिंसा का विश्ववन्धुत्व, कर्मयोग आदि के लिये यह रूप. या प्रसज्य नहीं पयुदास है. जिससे दर्शन बहुत उपयोगी है। साधारण जन से लेकर
भावान्तर का बोध होता है, जिसका बड़े से बड़े महात्मा तक को इससे लाभ होता है
अर्थ होता है विश्वप्रेम । मानवभाषा और बहुत कुछ सरलता से यह दर्शन होजाता है।
का मम्मेशी शद इनके लिये उपयुक्त
है । मम्म का अर्थ है विश्वप्रेमी दूसरा गुणदर्शन भी ऐसा ही उपयोगी है बनना । सम्मेशी विश्वमकी अधिपर इससे ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी दोनों
ष्ठात्री भगवती है। ही समान रूप में लाभ उठा सकते हैं। और रूप- मुक्तिदेवी [ जिन्नोजीमी ] सत्यलोककी संचालिका, दर्शन की अपेक्षा गुणदर्शन का रास्ता सीधा, भगवानकी सबसे बड़ी सन्तान। इसलिये निकट का है। रूपदर्शन का रास्ता घूमता विवेकदेव [कोजीमा ] भगवान सत्य और हुआ जाता है इसलिये दूर का है। पर गुणदर्शन - भगवती अहिंसाके बड़े पुत्र का रास्ता सीधा और निकट का होने पर भी संयमदव [धामोजीमा ], " दूसरे पुन ।
विज्ञानदेव [इगोजीमा], तीसरे पुत्र । जरा कठिन है जब कि रूपदर्शन का रास्ता दूर
उद्योगदेव [मुकोजीमा } का होने पर भी सरल है। दोनों का जीवन में
, चौथे पुत्र ।
कामदेव विगोजीमा ] पाचवे पुत्र । उपयोग है । रूपदर्शन से मन को तसल्ली होती
सरस्वतीदेवी [बुधोजीमी ] विवेकदेव की पत्नी। है, गुणदर्शन से बुद्धि को तसल्ली होती है। यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि रूपदर्शन के पथ शतिदेवी
तपस्यादेवी [तुपोजीमी ] संयम देव की पत्नी। को अंच में गण दर्शन के पथ में मिलना पड़ता
गोजीमी विज्ञानदेवकी पत्नी।
मीदेवी धनोजीमी ] उद्योग देवकी पत्नी। है । अन्त में गुण दर्शन तो होना ही चाहिये।।
कलादेवी चिनोजीमी ] कामदेव की पत्नी।
भक्तिदेवी [भक्तोजीमी ] भगवान सत्यकी पुत्री रूपदर्शन (अंचोदोगे)
विवेक देव से छोटी। सत्येश्वर के रूपदर्शन में हमें सत्येश्वर मैत्रीदेवी मिस्सोजीमो भगवान की पुत्री, परगपिता के रूप में दिखाई देते हैं। जिनके
सयम देव से छोटी। कुटुम्ब मे पत्नी, पुत्र, पुत्रियाँ, पुत्रपुत्रवधुएँ, वत्सलतादेवी [मिनोजीमी] भगवान की पुत्री, उनके मित्र सेवक दास दासियों आदि हैं और ये
मैत्री देवी से छोटो। सब गुणरूप हैं। प्रत्येक गुण एक व्यक्ति है। दया देवी योजीमी ] भगवान की पुत्री । इस सत्येश्वर कुटुम्ब का वर्णन करने से सत्येश्वर क्षमादेवी माफोजीमी] भगवान की पुत्री ।
का रूप दर्शन होजायगा । और गुणों की उपयो- शान्तिदेवी शिमोजीमी | भगवान की सातवीं ' गिता तथा उनका स्थान समझ मे आजायगा।
पुत्री।
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दृष्टिकांड
१.१५
न्यायदेव [उकोजीमा ] विवेक देव के मुनीम। ध्यानदेव (मुन्नोजीमा ) सत्यलोक का सारथि कृतज्ञतादेवी ( मन्त्रजेवीजीमी ] न्यायदेव की पत्नी गुणदेव कुटुम्ब काफी विशाल है समन्वय देव शत्तोजीमा ] विवेक देव के पुत्र ।। चिन्तन देव [ईंकोजीमा ] विवेक देव और सर
अधातव्रत देव (मोडिंडोजीमा ) सत्यवचन देव स्वती देवी के पुत्र।
(सतिकोजीमा) ईमानदेव [शुकोजीमा ] ये तीन सन्तोष देव [सुशो जीमा ] संयम का मित्र।
संयमदेवके पुत्र हैं। सदोष देव ( सुशोजीमा ) विरक्ति देवी [सुमिचोजीमी ] संयमदेवकी सेविका
सर्जनदेव (सुअोजीमा) निरतिग्रहदेव (नेगुप्रयोगदेव निजोजीमा ] विज्ञान देवका सेवक
शोजीमा , निरतिभोग देव (नेमेजुशोजीमा) ये श्रमदेव शिहोशीमा ] उद्योग देवका मित्र ।
चा संयम देवके नाती है। दानदेव दानोजीमा] शृङ्गार देव शिंजोजीमा ] कामदेव और कला
निरतिग्रह देव का मित्र और भक्ति आदि देवियों देवी का सेवक।
का सेवक है। इस प्रकार और भी सैकड़ो देव इस
गुणदेव कुटम्ब में है। ऊपर इनके मुख्य मुख्य अनुभव देव [इकिनोजीमा ] सरस्वती बाजार के
रिश्वे वताहिये गये हैं पर इसके सिवाय भी इनमे बड़े मुनीम।
अनेक रिश्ते हैं। जैसे विवेकदेव, भगवान भगवती विद्यादेवी जानोजीमी ] अनुभवदेवकी पली और मुक्ति के बाद सबके शासक हैं। और बहुतो हसीदेवी [ हिसोजीमी ] कामदेव और कणदेवी के मामी हैं। जब कोई देव विवेक के अंकुश की सखी।
मे नहीं रहता तब वह एक तरह से कुठेव हो रतिदेवी (कमोजीमी ] कामदेव की सेविका ! जाता है। यत्नदेव [घटोजीमा ] संयम विज्ञान उद्योगदेव ।। का मित्र।
दुर्गुणदेव या कुदेव (रुजीम) देवदेव [यूडोजीमा ] यत्नदेव का मुनीम दुगुणदव गुणदेवों के विरोधी प्रतिस्पर्धी जिज्ञासादेवी जानिशोजीमी ] सरस्वती देवी की श्रादि हैं। ये आनन्द के मार्ग में बाधा डालते हैं।
द्वारपालिका। इनकी संख्या भी विशाल है। पर कभी कभी ये वाणीदेवी [इकोजीमी ] सरस्वती देवीकी दासी। विवेक की कक्षा में प्रावैठते हैं तब इनके द्वारा लिपिदेवी | लिस्चोजीमी ] ,
कुछ काम आनन्दवर्धक होजाता है। जैसे अभिसहिष्णुता देवी [ फोशोतीमी तपस्या और क्षमा मान यदि विवेक की कक्षा मे आबैठे तो वह
देखी की सखी असंयम का विरोध करने लगता है। "मैं ऐस सफलता देवी फलोजीमी 7 तपस्या देवीकी पत्री उच्च कुज्ञ का व्यक्ति एसा नीच काम क्या धैर्यदेव [घिरोजीमा ] नपस्या देवी का भाई।
करू" इत्यादि स्थानो मे अभिमान पाप का आशादेवी आशोजीमी ] धैर्यदेव की पत्नी।
प्रतिस्पी होजाता है। रूढ़ि और मोह के वश साहसदेव [मोजीमा ] शक्तिदेवी का भाई।
मे होकर भी कभी कभी आदमी अच्छा काम कर वैभव देव [धूनोजीमा ] लक्ष्मी देवी का भाई। जाता है। इसप्रकार द्वगुण देवो को भी सत्येचतुरता देवी (चन्तोजीमी ) कलादेवीकी सखी। श्वर के दवार में स्थान मिलजाता है। सेवादेवी (सिवोजीमी) भारदेवी आदि की पर साधारणत: दुगुण देव आनन्द के पथ सखी।
मे रोड़े ही टकाते हैं इनसे बचने के लिये विनयदेव (नायोजीमा ) भक्ति और तपस्या- संक्षेप में इनके नामादि का परिचय दिया जाता
देवी के छोटे भाई के समान मित्र। है यो अधिकांश दुगुण देवो का परिचय गणदेवों आदर देव ( मोनोजीमा) मक्तिठेवी के छोटे के विरोध का विचार करने से सहज ही सम
भाई के समान सेवक। मे आसकता है।
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[१६]
सत्यामृत
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मोह कुदेव ( मुही रुजीमा) विवेक का विरोधी। या पूग उपयोग है। पर गुणदर्शन के बिना मूढता कुद्देवी ( अतो नजीमी ) सरस्वतीको विरो- रूपदर्शन का बहुत कम उपयोग है।
_धिनी, मोह की पत्नी। गुणदर्शन (ग्मोदीगे) हप कोच ( दशो रुजीमा मक्ति मैत्री वत्सलता भगवान सत्य के गुणदर्शन के मागे में
दया क्षमा का विरोधी। अनेक बाधाएं हैं। बड़ी बाधा नीन है । १-कुर्सक्रोध कुहेव [सशो नजीमा ] न्याय का विगेयी। स्कार मोह आदि के कारण पाई हुई पनान्यता,
प का सैनिक। मीनता, आलस्य अज्ञान आदि के कारण पैदा मान कुदेच ( मठो सजीमा ) भक्ति और आदर हुआ अन्ध विश्वास, ३-सत्य के भिन्न भिन्न रूपी
का विरोधी। की ठीक ठीक परिचान न होने के कारण पैदर माया कुहेवी [ कूटो रुजीमी ! प की- हुआ एकान्न पापा 1 इन सत्र टोपण को दूर
चतुर सेविका। करने के लिय तीन बानो की आवश्यकता हैलोम कुदेव (लूमो रुजीमा } सयम, न्याय, मैत्री निष्पक्षता.२-परीनकता.३-समन्वयशीलता।
का विरोधी। निष्पक्षता ( नेटिपो) भर कुरेव [ डिडो सजीरा ] साहस का विरोधी। जिस प्रकार एक चित्र के ऊपर दुसरा चित्र कायरता कुदेवो । दिरों कजोगी ] भय की पत्नी। नही बनाया जाधकता, अधवा तब तक नहा प्रलोभन कुदेव (नौमो कजीमा) माया का भाई! बनाया जासकता जब तक नीचे का चित्र किसी
सबलता का विरोधी शोक कुदेव (शाको रुजीमा ) धैर्य का विरोधी,
दूसरे रंग से न दवा दिया जाय, उसीप्रकार जवतक मोह का पुत्र ।
हृदय पहिले से किसी कुसंस्कार या पक्षपात से घृणा कुदेवी [ ढस्सो रुजीमी ] द्वेष की पुत्री,
रंगा है तब तक उसपर सत्यश्वर का चित्र नही भक्ति मैत्री आदि की वनसकता। इसलिये मनुष्य को अपना हाय
निष्पन्न बनाना चाहिये । अगर वह अपना पक्ष उपेक्षा कुदेवी ( खटो रुजीमी) घणा की छोटी बहिन, मंत्री दिकी विशेधिना। समय के लिये तो उसे अपना वृदय नि पत्र बना
पूरी तरह न छोड सक तो कम से कम उतने कृष्णा कुश्वी [ ललमो रुजीमी ] लोभ की पत्नी ही लेना चाहिये जितने समय वह किसी नई बात
सन्तोष की विरोधिनी । पर या दूसरे की वासपर विचार कर रहा है. या ईया कुदेवी [डाहो स्नीमी ] मैत्री की विरोधिनी। उह शुद्ध सत्य को समझने की इच्छा रखता है।
इन दर्गण देवों की संख्या भी विशाल है। सत्यदर्शन के लिये निष्पक्षता जलरी है, इन गुणदेवों और दुर्गुणदेवा क रूपदर्शन से और निष्पक्षता के लिये दो तरह के मोहों का जीवन के विकास का मार्ग सिललाता है। देव त्याग करना जरूरी है। १-स्वत्व मोह २-कालकप में इन देवा' का दर्शन क ने से भावना मी सोह । तृप्त होती है और अनाथता असहायता के संकट . स्वत्वमोह ह एमा मोहो] मे आशा धनी है तसली ग्लिनी है । जहा तक स्वत्वमोह का अर्थ है अपनी चीज का भावना का सवाल है इस गुणों का इस तरह मोह । अधिकाश लोगों को सत्य असत्य की रूपरशंन करना चाहये।
पर्वाह नहीं होती। ये सच्चाई का निर्णय अपनेहापिसे उपदर्शन की तरफ मचि न हो, पन से करते हैं। हमारे विचार अच्छे, हमारी सिर्फ गुणदर्शन ही करना चाहना हो वह वैसा भापा अच्छी, हमारी लिपि मच्छी, हमारा देश करे, रूपदर्शन के बिना भी गुणदर्शन का काशी श्रच्छा, हमारी पोषाक अच्छी, हमारे सब तरीके
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दृष्टिकांड
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अच्छे, हमारा धर्म अच्छा, हमारे पुरखे अच्छे हमें मुफीद होगया है वह हमें ग्यारा होसकता है, श्रादि । सल्यदर्शन में यह बड़ी भारी बाधा है। वे पर सब से अच्छा नहीं। इसके लिये हमें ऐसी समाई को अपनाना नहीं चाहते किन्तु अपनी कसौटी बनाना चाहिये जो बहुजन हित की दृष्टि चीजपर सच्चाई की छाप मारना चाहते हैं। से ठीक हो! जैसे धर्म के बारे में यह देखना
पर इस अपनेपन का सच्चाई से चोई चाहिये कि क्या उसका रांचा आज की समसम्बन्ध नहीं है। अपनापन जिन कारो से स्याओं को सब से पच्छी तरह से हल करसकता पैदा होता है उसका सच्चाई से कोई सम्बन्ध है ? भाषा की दृष्टि से यह देखना चाहिये कि क्या नहीं होता। अधिकांश अपनापन जन्म के कारण नये आदमी को भी वह सीखने में सरल है। होता है। जिन लोगो में हम पैदा होते हैं उनकी इसी द्वैग से सब बातों का विचार करना चाहिये। सब बातें हमे अच्छी लगने लगती है, चाल्या. किसी चीज को या व्यक्ति को हम अपने लिये वस्था के संस्कारों के कारण कुछ आदत भी वैसी सब सं अधिक प्यारा कहकर भी सब से अच्छा पड़जाती है। पर इस बातपर हम जरा गहराई या पूर्ण सत्य कहने की भूल न करे, इसकलिगे से विचार करें तो अच्छेपन की यह कसौटी हमे हमे ठीक परीक्षा करके ही निर्णय करना चाहिये। गलत मालूम होने लगेगी।
साथ ही यह बात न भूलना चाहिये कि जैसे हमारा जन्म हमारे चुनाव से नहीं हुआ। संस्कारवश हमे अपनी चीज प्यारी लगती है जन्म के पहिले हमने किसी जगह बैठकर यह उस
उसी तरह दूसरे को भी अपनी चीज 'यारी लग निर्णय नहीं किया था कि " इस संसार में सबसे सकती है। इसलिये जो चीज हमे प्यारी है वह अच्छे मा-बाप कौन हैं जिनके यहा हम जन्म ले, दूसरे को प्यारी क्यों नहीं, इस विचार से दुखी सब से अच्छी भाषा कौन है जिसे बोलनेवालो या द्वेपी न होना चाहिये। इस बारे में उदार में हम जन्म ले, सब से अच्चा जलवायु कहा का रहना
रहना चाहिये। और सत्य के मामने विनीत है जहां हम जन्म लें, सबसे अच्छे रीतिरिवाल रहना चाहिय। कहा के है जहां हम जन्म लें, सब से अच्छा धर्म
___ सार यह कि हम अपनी चीज को अपनेपन कौनसा है जिसमे हम जन्मले शादिमी हालत के कारण सच्ची समझने की कोशिश न करें, में अपनेपन के कारण किसी चीज को सत्य सम
किंतु जो बात सच्ची सिद्ध हो उसे सच्ची मानने झाने का क्या अर्थ है ? जहा हम पैदा हए वहीं की तथा अपनाने की कोशिश करे। की चीज को हम अमला या सत्य कहने लगे, जहा जो अपना सच्चा वही यह है दुगै कुटेक। कोई दूसग पैदा हुअा वहा की चीओ को वह सो सच्चा अपना बही रक्खो यही विवेक !! अच्छा या सत्य कहने लगे, इस कहने का क्या स्वत्वनोह के कारण मनुष्य से अनेक बुरामूल्य होसकता है?
इयाँ आती है जो स्वपर कल्याण में विघातक . हा जन्म या संगति के कारण हमे कुछ और सत्यदर्शन में बाधक है। कुछ ये हैंबातो की आदत होजाती है, सम्पर्क आदि के १. सत्य की उपेक्ष हसल्या ये खटो ] कारण कुछ म्नेह भी पैदा होजाता है ऐसी हालत २ सत्य का विरोध [ सत्योपे फूलुरो ] में उनसे कुछ विशेष प्यार होजाय यह स्वाभाविक ३. झूठ की बकावत [मियो पे वारो] है, तब हम उन्हें पारा कहें यह किसी तरह ठीक ४ पेक्षक श्रेयोपहरण [ खटीर लेफेमो-छन । है पर अपनेपन के कारण उसे सब से अच्छा ५ धातक श्रेयोपहरण [हिंडर लेफेमो छेनो] कहने की मूल न करें। जो खानपान हमारी ६ सत्य का अस्वीकार [ सत्योपे नोअम्मो ]
आदत में शुमार होगया है, जिस भाषा की हमें --जिस राज्यपर अपनेपन की छाप नही वाल्यावस्था से आदत पड़गई है, जो जलवायु लगी रहती उसपर स्वत्वमोही पूरी तरह उपेना
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करता है। उसपर वह थोडाबहुत भी ध्यान नहीं वक्तव्य में वह यह भूल जाता है कि भाफ की देता। इससे वह सत्य से वञ्चित रहता है। ताकत का साधारण ज्ञान शताब्दियो तक लाखो
म आदमियों को रहने पर भी गजिन न बनसका, २-जब स्वत्वमोही देखता है कि उपेक्षा श्राद
तब जिसने जिन बनादिया उनकी महत्ता इस करने से काम नहीं चलेगा तब वह किसी न
दृष्टि से हमारे पानमयों से कई गुणी है। किसी तरह विरोध करने लगता है। इससे वह तो सत्य से पश्चित रहता ही है पर दूसरो को भी
इसीप्रकार एक ही आदमी पिता की अपेक्षा पुत्र
और पुत्र की अपेक्षा पिता है इसका पता होने से सत्य से वंचित रखने की कोशिश करता है।
ही अनेकान्त सिद्धान्त के आविष्कार का श्रेय ३-इस स्वत्वमोह के कारण मनुष्य ज्ञान अपहरण नही किया जासकता। या अनेकान्त विज्ञान की चुरी तरह अवहेलना करता है। इस का ज्ञान होने से ही सपिजवाद ( Rclaurity) से ज्ञान विज्ञान की हानि नही होती किन्तु की महत्ता का श्रेय अपहाण नहीं किया जासमनुष्य की हानि होती है और मनुण्य अपनी कता । इनके श्रेय का अपहरण करना हास्यासद मूढता का परिचय देता है। बहुत तो ऐसा ही है जैसे किसी महाकवि की रचना से लोग कहने लगते हैं कि विज्ञान की प्रतिम पर यह कह दिया जाय कि "इस कविता में से अंतिम स्रोतें हमारी मान्यताओं का समर्थन जितने स्वर व्यंजन पाये हैं वे तो हमारे घर के करती हैं, ऐसे लोग विज्ञान की वर्णमाला भी बच्चे बच्चे को मालूम हैं। इसमें महाकवि की न समझकर उसके नाम पर मनचाही कल्पनाएँ क्या महत्ता है ? " जैसे स्वर व्यञ्जन का साधा. किया करते हैं और उनसे अपनी रूढ़ियो या रण जान होने और उनकी अमुक क्रम से रचना मान्यताओं का समर्थन कराया करते हैं। चोटी करके एक काव्य बनाने में जमीन आसमान का के द्वारा शरीर में बिजली आती है उससे शक्ति अन्तर है उसी प्रकार साधारण ज्ञान से वैज्ञानिक बढ़ती है यह वैज्ञानिक वात है इसलिये चोटी श्राचिष्कारों में अन्तर हैं। रखना अच्छा ।' इस तरह का इनका वैज्ञानिक
-कुछ लोग ग्रंथ सम्प्रदाय मत दि के समर्थन रहता है। वे यह नहीं सोचते कि तब तो
स्वत्वमोहके कारण शोकी हास्यास्पद धीचातानी पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को ज्यादा बिजली
करते हैं। वे दूसरों का श्रय लूटने के लिये उनकी मिलना चाहिये, उनकी चोटी बडी होती है। वात पहिले लिखलेते हैं और फिर कोप व्याकरण अथवा चोटीवालो पर खास तौर पर बिजली
का कचूमर बना बनाकर शादा से इच्छित अर्थ गिरना चाहिये। पर उन्हें अपनी तारीफ से मतलब, गहरे विचार से नहीं । इसप्रकार प्रायः हर
खींचवे रहते हैं। कोई भी वास हो वे किसी न एक धर्मवाला अपनी रूढ़ियो पर विज्ञान की झूठी
किसी तरह से उसे अपनी बात सिद्ध कर डालते छाप लगाया करता है। यह स्वत्व मोह का परि
हैं। इसके लिये अवसर के बिना ही अलंकार णाम है। इस से मनुष्य आवश्यक सुधार नहीं
एकाक्षरी कोष आदि का उपयोग करते हैं,
सीधे तथा प्रकरण संगत अर्थ को छोड़कर कुटिल कर पाता।
यर्थ निकाल करते हैं। इसके बाद या कभी कोई कोई लोग इसप्रकार की हास्यास्पद कमी इसके पहिले ही वे यहा तक कहने का बातें तो नहीं करते किन्तु सामान्य की ओट में दुःसाहस का बालते हैं कि ये सब तो हमारी ही विशेष का मूल्य छिपाकर झूठी आत्मश्लाघा बातें हैं, इन्हें दूसो ने हमारे प्रयों से चुरा लिया को श्रेय का अपहरण करते है। है। वे यह नहीं सोचते कि श सन्टियों से जिन
का मंजिन बनानेवाले ने क्या प्रथा को तुम्हारे संकड़ो विद्वान पढ़ते रहे और घडी वात की भाफ में बड़ी ताकत है यह तो उन्हें जिन आविष्कारों को गंध भी न मिली. एक हमारे देशवालो को सदा से मालूम था" इस कदम चनने लायक रास्ता भी न सझा वे दसरो
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को कहां से मिलगये ? सचमुच स्वत्वमोह से कालमोह (ललोमुहो) मनुष्य इतना विचारशून्य होजाता है कि उसमें किसी बात को अमुक काल का होने के साधारण समझदारी के दर्शन भी दुर्लभ होजाते कारण ही सत्य या ठीक सममाना कालमोह है। हैं। यह धानकतासे श्रेयोपहरण करने लगता है। सत्य को उसकी उपयोगिता अर्थात् कल्याण
बहत से लोगो का स्वल्लमोह इतना प्रबल कारकता की दृष्टि से ही परखना चाहिये । प्राची. रहता है कि वे तब तक किसी युगसत्य को अप. नता या नवीनता की दृष्टि से नही। दोनो तरह नाने को तैयार नहीं होते अव तक उसपर उनके का-प्राचीनता का और नवीनता का मोह सत्य देश जाति धर्म आदि के नाम की छाप न लग दशेत में बाधक है। जाय। वे यह भूल जाते हैं कि जो सत्य मनुष्य- माचीनता मोह (लूवो मुहो) मात्र के लिये है उसपर किसी खास जाति धर्म प्राचीनता मोही उचित-अनुचित का विचार था देश की छाप लगाने से वह सब के काम का नहीं करता। वह प्राचीनता के नाम से किसी न रहेगा । यद्यपि उसे नाम तो देना ही पड़ता है बात को ठीक समझ लिया करता है। इसलिये पर उसपर अमुक देश जाति धर्म का नाम देना सत्य जब युग के अनुसार किसी नये रूप में उस युगसत्य को संकुचित कर लेना है। इसलिये आता है तब प्राचीनता मोही उसका अपमान : उसे ऐसा नया नाम देना चाहिये जो किसी को करता है । और पुराना रूप अब विकृत। दूसरे का न मालूम हो।
होकर असत्य बनजाता है तब मी उससे चिपटा । इस स्वत्वमोह का ही परिणाम है कि रहता है । इस प्रकार वह सत्य का भोजन नहीं मनुष्य अपनी मृत वस्तुत्रो, मृत रूढ़ियों, मृत- .
कर पाता और असत्य रूप मल (जोकि किसी सम्प्रदायों के नामपर लाखो की सम्पत्ति खर्च
समय भोजन था) का त्याग नहीं कर पाता।
इसप्रकार प्राचीनता मोह उसके जीवन को बर्याद . करता है, पर जीवित धर्म पर नपेक्षा करता है। इससे उसका जीवन और धन व्यर्थ जाता है और
करता है। इस विषय में एक वैधजी की कथा है। जगत मी कल्याण से वञ्चित रहता है। प्राचीनतासोही वैध (लूकोमुहिर थिचर)
इसप्रकार स्वत्वमोह के कारण मनुष्य एक बार एक वैद्यजी के मित्र श्राये । वेदजी अपनी उपेक्षकता से घर आये हुए या सामने प्राचीनतामोही थे और उनके मित्र थे सुधारक ।। आये हुए सत्य के दर्शन से वञ्चित रहता है, मित्रजी का कहना था कि युग के अनुसार सुधार, सत्य का विरोध करके अपने पैरोपर आप करना जरूरी है। भले ही कोई बात किसी युग कुल्हाड़ी मारता है, भूट की वकालत करके जीवन में अच्छी रही हो परन्तु आज अगर उसका उप. की बीमारियों से चिपटा रहता है, सत्यसेवका योग नहीं है तो उसका त्याग ही कर देना चाहिये। की सेवा पर उपेक्षा करके एक तरह की कृतघ्नता अपने समय पर वह अपना काम कर चुकी ५ का परिचय देकर प्रगति के विषय में अज्ञानी नि:सार होनेपर उसका रखना व्यर्थ है। धनता है. कभी सत्यसेवकों या उपकारियों के उप- वैद्य जीका काना था--जो अच्छा है । कार पर जबर्दस्ती अपनेपन की छाप मारकर अच्छा ही है । वह बुरा क्या होगा? बुरा है एक तरह की उौती करता है, सन्त में यहा तक तो हमारे पुरखे. जो हमसे होश्यार थे, क्योह" होता है कि सत्य की महत्ता का पूरी तरह पता दे जाते ? लगडाने पर भी वह सत्य को अस्वीकार कर मित्रजी ने बद्धत समझाया कि सोय. जीवन असफल बनाता है। इन सब बातो से पुरखों के जमाने में अच्छी थी वह अपना कार कहना पड़ता है कि स्वत्वमोह सत्येश्वर के दर्शन कर चुक्नेपर परिस्थिति बदलने पर नि.सी में बडी भारी बाधा है।
वेचार हो सकती है।
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पर वैद्यजी इस बात को किसी भी तरह
स्वत्यमोही मे जिप्रकार सत्यपर उपेक्षा मानने को तैयार नहीं थे।
श्रादि छ टोप पाये जाते जाते हैं उसीप्रकार इतने में एक बाई अपने बालककी चिकित्सा प्राचीनतामोही मे भी पाये जाते हैं । म्वत्वमोही
में अपनेपन के पक्षपात के कारण दूसरे के द्वारा कराने आई। उसका कहना था कि यह बालक परसों से ही नहीं जारहा है।
प्रगट किये गये सत्य के बारे में उपयुक्त दोप वैद्यजी ने बालक की नाडी देखी पर कोई
दिग्याई दते हैं जब कि प्राचीनता मोही में प्राची
नता क पनपात के कारण नवीनसत्य या युगखास बीमारी समझ में न आई । तब उनने घालक से पूछा-क्यो भाई, तुम्हें टट्टी नही
सत्य के बारेमे उपयुक दोष दिखाई देते हैं। एक
ही सत्य को स्वत्वमोही पराया समझकर और लगती ?
प्राचीनतामोही नवीन समझकर अम्बीफार बालक ने कहा- लगती तो है।
करता है। वैद्यजी-तब तुम टट्टी क्यो नहीं जाते।। बालक ने कुछ सहमते हुए कहा-मैं उसे
स्वत्यमोही की तरह प्राचीनता मोही भी
जब किसी सत्य का विरोध उपेना आदि नहीं रोक रखता हूँ।
कर पाता तब श्रेयोपहरण करने लगता हैं । वैद्यजी ने आश्चर्य से पूछा-रोक रखते हो।
अगर किसी ने वायुयान बनाया तो प्राचीनता रोकने का कारण ?
मोही को यह सब अपने शास्त्रों में दिखाई देने बालक ने नीची नजर रखकर कुछ लनाते लगता है। प्राचीनता मोही भी सामान्य विशेष ए कहा-मैंने परसों मिठाई खाई थी।
के मूल्य, महत्व और उपयोगिता का अतर भुला र अरे, तो मिठाई से क्या हुआ ? क्या देता है । वह यह भूलजाता है कि ससार में से मठाई खाने के बाद टट्टी नहीं जाना पड़ता
बहुत से सिद्धात है जिनके सामान्य रूपो का पता बालक-मिठाई हर दिन तो मिलती नहीं, मनुष्य ने तभी गालिय
मनुष्य ने तभी लगालिया था जब वह पशु से सलिये सोचता हूँ मिठाई क्या निकालू
मनुष्य बना था, परन्तु इस तुद्र सामान्य ज्ञान वैद्य-धारे मूर्ख, क्या अभी तक मिठाई क बाद मनुष्य न जो कोही विशेषता का
बनी ही रही। उसका जो हिस्सा शरीर मे ज्ञान किया है उनको महत्ता उस शुद सामान्य मलने का था वह शरीर में मिलगया, बाकी तो ज्ञान म नही समाजाती। सारं विश्व को सतप वष्टा होगया, अब वह मिठाई कहा रही ?
जान लेना एक बात है और उसको अगणित वालक-परसों तो मिठाई थी।
चाअरे, तो परसा परसी है, श्राज ज्ञाना का उपयोगिता सामान्य ज्ञान से पर्ण नहीं पाल क्या कोई चीज सहा एकसी बनी रहती हासकता । परन्तु प्राचीनता मोही अपन प्राची. है १ जा यह दवा लेजा।
यह कहकर वैद्य जी ने हलका सा जुलाब यनुचित और हास्यास्पद देदिया।
दोनों के चले जानेपर मित्र ने वैद्य जीसे कहा-भाइजी, आप टट्टी रोकने पर दूसरों को बो इसप्रकार के भी ही जुलाब देते हैं खुद नहीं लेते।
वाली ने मुसकराते हुए कहा -भाई कथाओं को और इतिहास मानता है तुम्हारी वात । जो नियग शरीर की लोगों के मन चिकित्सा का है वही समाज की चिकित्सा का
वही समाज का चिकित्सा का तरह की लालसाएँ और का मोहनाब आज से में भी सुधारक बनता हूँ। और कल्पित एपनाए उठा करती है
विशेषताओं को जान लेना दुसरी इन विशेष
नता मोह के कारण सामान्य ज्ञानो को इतना
वह जानौ या अनजान में श्रेयोपहरण कर जाता है।
प्राचीनतामोही जान में या अनजान में को ो इसप्रकार के भ्रमां का शिकार होजाता है
उसका एक कारण यह भी है कि वह कल्पनाबाभाई कथाओं को और इतिहास को एक मानलेता है।
लोगो के मनमें सुखसाधन के रूपमें नाना
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मनको तसल्ली देते रहते हैं। उनमें से कोई कोई आसकती। यह जगत धीरे धीरे पतित होरहा है. कल्पनाएँ ऐसी भी होती हैं जो कि शताजियों अब इसका कोई क्या सुधार करेगा ? आदि। की साधना से प्रत्यन होजाती हैं। जैसे मनुष्य इसप्रकार वह मानवजाति की उन्नति में विश्वास ने पक्षियों को उड़ता देखकर मनुष्य के उड़ने की नहीं करता, पतन को स्वाभाविक समझता है। कल्पना की । वह स्वयं तो उड़ नहीं सकता था इन्हीं सब विचागे के कारण वह नवीन रूप में इसलिये उसने कल्पना सृष्टि में परियो की, गरुड़ आये हुए विचारसत्य का विरोध करता है। आदि पतिवाहनो की, दिव्य और यांत्रिक विमानो और जब कोई विचारक समाज के विकारो को की कल्पना की । अवतारी कहलाने वाले व्यक्तियो दूर करने के लिये, अर्थात या समाज के कल्याण मे उनका आरोप कर उनके पुराण बनाये । शता- के लिये समाज के सामने नये विचार रखता है दियो बाद मनुष्य की साधना से सचमुच के तब प्राचीनतामोही इस विचार सत्य का विरोध वायुयान बनगये। तब इस साधना के महत्व को करने के लिये कमर कसता है । वह नये विचारक भूल कर पुरानी कल्पनाकथाओ को महत्त्व देना से कहता हैअन्याय है।
'हमारे पूरखे क्या मूर्ख थे? क्या तुम्हारे वास्तव में हर एक आविष्कार का यह बिना उनका उद्धार नहीं हुमा क्या तुम उनसे नियम है कि वह पहिले कल्पना में आता है। बढ़कर हो १ उन्हीं की जूठन खाकर तुम पले हो,
और किसी महान आविष्कार की कल्पना तो अब उनसे बड़ा बनना चाहते हो । उनकी भूलें पीडियो और शतातियो तक बनी रहती है। निकालते हो? तब तक वह कहानियाकी कथावस्तु बनजानी है।
वह प्राचीनता मोही या अवसर्पणवादी, पर यह भूलना न चाहिये कि वह कल्पना है। यह नही सोचना कि हमारे पुरखो के पास इसे वह इतिहास न समझले । पर प्रबल प्राचा- सतनी पूंजी थी वह तो हमे मिली ही है साथ नता मोह इस भ्रम को दूर नहीं करने देता।
ही इतने समय में जगत ने जो ज्ञान कमाया है। प्राचीनतामोड़ी इस अमसे तथा उपयुक्त वह भी पूंजी के रूप में हमें मिला हैं, ऐसी दोपो से अपनी और जगत की बड़ी हानि करता हालत में हम व्यक्तित्व की दृष्टि से न सही, पर है। एक तरह से उसके लिये उन्नति का द्वार ज्ञान भडार की दृष्टि से बढ़गये हों तो इसमे, बन्द होजाता है वह था उसका समाज मौत आश्चर्य क्या है ? वरिक यह स्वाभाविक या की राह में जाने लगता है। सुधारकता, या युग छावश्यक है। के अनुरूप परिवर्तन करने की क्षमता नष्ट होजाती दुसरी बात यह है कि पूर्वपुरुप ० र
अपेक्षा कितने ही ज्ञानी क्यो न हो, पर देश १ । भोजन और शौच ( मलत्याग) जीवन के के अनुसार परिवर्तन या सुधार करने से - लिये आवश्यक है। पर प्राचीनतामोही समाज अबहेलना नहीं होती । अगर आज चे होते त न युग के अनुरूप नई खुराक ले सकता है, न वे भी देश काल के अनुसार सुधार करते। युग के प्रतिकूल पुगनी पीहुइ खुराक को दूर जब हम बालक ये तब मा बाप ने उ करसकता है । यह मौत की या पतन की राह है। परिस्थिति के अनुसार छोटा कोट यसपालि
प्राचीनता मोही साधारणत अवसर्पणवादी था, गरमी के दिनों में पतला कुर्ता बन लि. (नशोवादिर--अवनातेवादी) होता है। वह था, अब उनके मरने के बाद जीवनभर हम सोचता है-जितना कुछ सत्य था वह भूतकाल कोट ही पहिने या शीत ऋतु आजाने पर में आधुका, हमारे पुरतों को प्राप्त होचुका, अब पतला कुता ही पहिनें क्या यह दचित होगा उसमें कोई सुधार संशोधन या नवीनता नहीं अगर हमें कोई सलाह दे कि समशन
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सत्यामृत
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पोशाक बदल लेना चाहिये और हम कहे कि नतामोह न होता तो धर्मशास्त्रों में प्राचीनता की हमारे बाप क्या मर्ख थे जिनने यह पोशाक बन. कल्पित कहानियाँ न भरी गईं होती और न वादी तो यह कथन हसाग पागलपन होगा। उनके अनुयायी प्राचीनता को सत्य की कसौटी प्राचीनता मोह से ऐसा ही पागलपन पाता है। मानकर स्वपरवञ्चना करते । पराचीनतामोही
व्यक्ति अपने सम्प्रदाय को पुराने से पुराना तीसरी बात यह है कि देशकाल के अनु
सारित करने के लिये पड़ी से चोटी तक पसीना सार सुधार करने वाला जनसेवक भले ही पुगने
बहाता है। जब कि निमोह या विषकी व्यक्ति लोगो के टुकडे पाकर पला हो, मनुष्य अन्य हाता को पर्वाह नहीं करता । बल्कि उसकी पर जिस प्रकार छोटा सा बीज आसपास के कूडेकचरे को पाकर एक महान वृक्ष धनधाता है,
धमसंस्था को कोई सब से प्राचीन कहे तो वह
मुसकराकर कहेगा कि मेरी धर्मसंस्था इतनी और उसका मूल्य बीज से तथा कूड़े-कचरे से कई गुणा होजाता है, उसीप्रकार पुराने टुकडों
खराब नहीं है कि मैं उसे सब से पराचीन कहूँ। को पाकर भी एक सुधारक ननसेवक महात्मा
इस विवेचन से पता लगता है कि जिसे बन सकता है।
सत्य का दर्शन करना है उसे प्राचीनता का मोह
नष्ट कर देना चाहिये। पर राचीनता के मोह को ___प्राचीनतामोहियो की प्रबलता के कारण
नष्ट करने का मतलब यह नहीं है कि हर एक ही बहतसी धर्मसंस्थाओंको अपने अपर प्राचीनता चीनबस्त की अवहेलना को जाय। स्वपरकी छाप लगाना पड़ी है। धर्मसंस्था वो सत्य का कल्याणकारी तत्व चाहे नवीन हो चाहे पाचीन, या धर्म का अमुक देशकाल के लिये बनाया गया में ग्रहण करना चाहिये। फिर भी इतना कहा कार्यक्रम है । सत्य अनादि अनत कहा जासकता। । है पर उसके लिये जो कार्यक्रम बनाया जाता है
जासकता है कि प्राचीन की अपेक्षा नवीन को | वह तो अनादि अनर नहीं कहा जासकता । पर ती विशेषताएँ रहती है--
अमला होने का अवसर अधिक है। नवीन में जब जनता प्राचीनता की छाप के बिना किसी (सत्य को ग्रहण करने को तैयार नहीं होती तब ।
१-नवीन हमारी वर्तमान परिस्थिति के धर्मसंस्थाओं के संस्थापकों अर्थात तीर्थंकरो को ।
निकट होने से पारीन की अपेक्षा हमारी परिश्या पीछे से उसके शिष्य प्रतिष्यरूप सञ्चालकों को
स्थिति के अधिक अनुकूल होता है। उस नवीन या सायिक सत्य पर अनादिता की
२यह स्वभाव है कि पैदा होने या बनने या प्राचीनता की छाप लगाना पडनी है। इस. के बाद हर एक वस्तु परिवर्तित या विकृत होती लिय अधिकाश धर्मसंस्थाओं के सस्थापका तीर्थ- जाती है, कदाचित कोई वस्तु कुछ समय तक कर और सञ्चालक किसी न किसी रूप में अपनी विकसित होने के बाद विक्षत होती है पर विकृत धर्मसंस्था का इतिहास सृष्टि के काल्पत प्रारम्भ होने लगती है जरूर, इसलिये जो वस्तु बहुत से शुरु करते हैं, इस प्रकार धार्मिक सत्य देने के पुरानी हो उसे विकृत होने का अधिक अवसर पलये उन्हें ऐतिहासिक तथ्य का बोझ सिर पर मिला है. जब कि नवीन को विकृत होने का इतना नाहना पड़ता है। शलान्तर में यह अतथ्य इतना अवसर नहीं मिला है। नवल क्षेजाता है कि उसके आगे धार्मिक सल्य प्राचीन के कर्ता को जितना अनुभव कार मूल्य कम माना जाने लगता है। इस बुराई और साधनसामग्री मिल सकती है, नवीन के की जिम्मेदारी धर्मसंस्था के संचालको पर नहीं को को उससे कुछ अधिक मिलती है इसलिये स्ट्राली जासकती या बहुत कम हाली ला सकता नवीन कुछ अधिक सत्य या पूर्ण रहता है। * सारी या अधिकाश लिम्मेदारी प्राचीनता- इन तीन कारणों से सत्यासत्य के निर्णय चोही समाज की होती है। अगर उसमें प्राची- में नवीनता से कुछ अधिक सहारा मिले यह
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स्वाभाविक है । फिर भी इससे यह निष्कर्ष नहीं freear to raat aata है सब अच्छा है। तात्पर्य इतना ही है कि प्राचीन को अपेक्षा नवीन होने का अधिक अवसर है । होसकता है कि किसी नवीन अधिक असर का ठीक ठीक या पूरा उपयोग न हुआ हो और किसी प्राचीन में कम अवसर का भी उचित और अधिक उपयोग हुआ हो तो ऐसी हालत में नवीन हुप्र की अपेar aata at होगा । इसलिये प्राचीन और नवीन के विषय में निःपक्ष रहना हो सबसे अच्छा है ।
नवीनता मोह (नूयो मुहो) प्राचीनता का मोह जितना सत्यदर्शन में बाधक है उतना तो नहीं, फिर भी काफी परिमाण मे, नवीनता का मोह भी सत्यदर्शन मे बाधक है। नवीन होने से ही कोई वस्तु प्राचीन से अच्छी नही होती। कभी कभी orata विकृत होकर नवीन धारण कर लेता है। ऐसी अवस्था में विकृतिको मूलवस्तु से अच्छी नहीं मान सकते। धर्मों के इतिहास में ऐसी बहुतसी वाले मिलेगी कि जो धर्म मून मे अच्छे थे, वे पीछे विकृत होगये। यहां विकृत रूप नवीन कहलाया, पर नवीन होने से वह अच्छा नहीं कहा जासकता । ऐसी अवस्था में विकृति को हटाकर फिर मूल की ओर या प्राचीन की ओर जाना पड़े तो प्राचीन होने के कारण ही इस प्रयत्न को बुरा नहीं कहेंगे।
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जैसे - वैदिक धर्म की आश्रम व्यवस्था पुरानी चीज है आज नष्ट हो चुकी है, अब फिर आवश्यकता देखकर कोई उसकी स्थापना करना चाहे तो प्राचीन होने के कारण वह असत्य न हो जायगी।
इसलाम में व्याज लेने की मनाई है पर यह विधान पुराना पड़गया है आज कोई व्याज को बन्द करना चाहे तो यह प्राचीनता के कारण अनुचित न होजायेगा !
जैन और बौद्धों ने मूर्तिपूजा को व्यवस्थित रूप दिया, पीछे परिस्थिति बदल जाने से उसका विरोध हुआ। कोई उसको फिर व्यवस्थित
और व्यापक रूप देना चाहे तो प्राचीन होने के कारण यह असत्य न होजायगा ।
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कभी एकतन्त्र से प्रजातन्त्र, कभी प्रजातंत्र एकतन्त्र पर आना पडता है। पुरानी चीज का पुनरुद्धार होते देखकर नवीनता मोही को घबराना चाहिये। प्राचीन अगर उपयोगी है तो वह नवीन ही है । सर्वथा नवीन असम्भव है ।
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सत्यदर्शन मे हर तरह का मोह बाधक है। चाहे वह स्वत्वमोह हो चाहे कालमोह, चाहे नवीaar at मोह हो चाहे प्राचीनता का, सब तरह के मोड़ों का या are froपक्षता पैदा करना चाहिये। सत्येश्वर के दर्शन के लिये निष्पक्षता आवश्यक गुण है ।
२ परीक्षकता (देजको )
निष्पक्षता पालेनेवाला व्यक्ति ठीक ठीक परीक्षा कर सकता है। परीक्षा का मतलब, सत्यअसत्य भलाई-बुराई की जाप करना कोई सत्य परम्परा से मिला हो तो भी उसकी और व्यक्ति का विचार करते हुए कल्याणकारी है || इतनी जाच तो करना ही चाहिये कि वह देशकाल कि नहीं ? जो आदमी इतनी भी परीक्षा नही कर सकता वह सत्येश्वर का दर्शन नही कर सकना । वह किसी बात को माने या न माने उसके मत का कोई मूल्य नहीं है। तुम यह बात क्यों मानते हो ? क्योंकि हमारे पुरखे मानते. आये है, यह उत्तर सत्यदर्शक का उत्तर नहीं है । " परम्परा की मान्यता से ही किसी बात को मानने में मनुष्य होने का कोई लाभ न हुआ। याप हिन्दू था सो हिन्दू होना सत्य, बाप मुसलमान था सो मुसलमान होना सत्य, त्राप जैन वौद्ध या ईसाई था सो जैन बौद्ध या ईसाई होना सत्य, बाप मनुष्य था सो मनुष्य होना सत्य और पशु होता तो पशु होना सत्य, यह की विचारधारा नहीं है। सत्यदर्शक होने के लि इन सब बातो के भले बुरे अंशा की जाच होना चाहिये। आदमीको परीक्षक बनना चाहिये
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परीक्षक बनने के लिये तीन बातों की जरू रत जरूरत है। क-विचारकना, खनता ग-प्रमाणज्ञान |
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सत्वामृत
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क-विचारकता (इंकको, ईको) कार की कर करता हो। पर विनय के लिये दीनना
किसी बात पर श्रद्धा करने के लिये उसपर जरूरी नहीं है। सा होसकता है और होना विचार करना जरूरी है। यद्यपि विचारक कह- चाहिये कि एक मनुष्य दीन बिलकुल न हो और लाने लायक विख्यात था चे दर्जे का विचारक विनीत पूरा हो । दीनता और विनय के सम्बन्ध बनने के लिये काफी विद्वत्ता और वृद्धिमता की से मनुष्य चार तरह के होते है। जरूरत होती है, और ये चीजें जितने अचे दर्षे -अदीन विनीत (नोनह नाय)-जो की होगी, विचारकता भी उतने ऊचे दर्जे की हो अपनी योग्यता आदि से अच्छी तरह परिचित सकेगी, पर काम चलाने के लिये साधारण धुद्धि- है, आत्मगौरव भी रखता है, झूठ-मूठ किसी से भत्ता और विद्वत्ता भी काफी होसकती है। साधा- प्रभावित नहीं होता. पर साथ ही दूसरे के गुणो रए आदमी के पास जितनी विद्याधुद्धि होती है की पूरी कद्र करता है, उपकार के प्रति पूरा कृतज्ञ उससे अगर वह पूरा काम ले तो सत्यदर्शन के रहता है, या अटीन विनीत है। योग्य विचारकता उसमें आसकती है।
-दीन विनीत ( नद नाय )-को प्रादर्मा यह होसकता है कि वह कठिन भापान अपनी योग्यता प्राति से जैसा चाहिये वैमा परि समझे, शास्त्रीय भाषा का उसे ज्ञान न हो, फिर चित नहीं है पर दसरे के शणों की पूरी कह भी हित-अहित कल्याण-कल्याण की वात वह करता है, उससे प्रभावित होता है वह दीन बिनान समझ सकता है, उसपर विचार भी कर सकता है। इसमें साधारणतः एक खराबी पाई जाती है है। विचारकता में सबसे बडी बावा उसके कुस- कि उसकी नम्रता श्रीक आधार पर नहीं सड़ी स्कार हैं। कुसंस्कार दूर होजाय तो वह थोड़े ही होती, एक तरह से अज्ञान या निर्वलता पर खड़ी श्रम से अपनी विचारता को पनपा सकता है होती है। इसलिये अगर कभी उसके हाथ में और परीक्षक बनकर सत्यदर्शन कर सकता है। अधिकार वैभव आदि श्राजाय तो उसमे विनय
ख-अदीनता ( नोनूहो) को प्रतिक्रिया होने लगती है। उसका विनय वहत से लोगों में विचारकता रहने पर भी गुणानुराग कृतज्ञता आदि पर खडा होता नहीं खास खास स्थानो पर दीनता के कारण परीक्ष- है इसलिये दीनता इटन पर, अनीन मनुष्य के कता नहीं आने पाती। वे धर्म की, शास्त्र की, वरावर मी विनीत वह नहीं रहता। दीन विनीत, गरुकी, रुढियों की परीक्षा करने मे घबराते हैं, परिस्थिति बदलते ही अत्यन्त अविनीत तक हो अपनी दीनता के कारण भले-बुरे की जांच भी सकता है। अदीन विनीत में सी प्रतिक्रिया नहीं कर पाते। इससे वे रूड़ियों के दास धनकर होन का अवसर नहीं आता, योग्यता आदि बढ़ने रहजाते हैं।
पर भी वह परिस्थिति के अनुसार उचित विनय शंका-इसे दीनता क्यों कहना चाहिये यह का प्राय. सदा खयाल रखता है। और कृतज्ञता एक प्रकार का विनय है। विनय तो गुण है में तो किसी भी हालत में भी अन्तर आने का वह सत्यदर्शन में बाधक क्या होगा
अवसर नहीं है। विनय गुण है और दीनता दोप। ३-अदीन अविनीत (नोनूह नोनाम)--यह विनय गुणानुराग और कृतज्ञता का फल है और मनुष्य घसंही होता
की मानसिक निर्षलता और पर दूसरी के गुणों का उपकारों का योग्य मुल्य निता
PM है। यह होसकता है कि एक भी नहीं होता । आत्मगौरव की मर्यादा का सदा यदीन भी हो विनीत भी हो । दीनता के उल्लंघन करता रहता है।
से अपरिचित हो और ४-दीन अविनीत (नूह नोनाय)-इसे न वनय के कारण दूसरे की शक्ति की गुण की उप-
की उप- अपनी योग्यता का मान होता है न दूसरों की
अपनी योग्यता
कारण वह अपनी शक्ति से अपरिचित हो और
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एप्रिकॉट
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गोग्यता का 1 न इसमें प्रात्मगौरव होता है न -दीन चाटकार ( नह रंनाय । जिसमे विनय । इस ष्टि से ना पशुता का शिकार है। घमंड नहीं है योग्य गौरव भी नहीं है और चाप
न चार मन से पता लगाना है कि लूसी कर रहा है। भीनमा और विनय अलग अलग गा है। दीन इन चार भेदो से दीनता और चापलूसी का मजार नविनीत भी होसकता है पोर अदीन अन्तर अच्छी तरह समझा जासकता है। चापगनुप्य विनीत भी होसकता है। अनीनता गण है लूसी छोड़देने से दीनता छूट जायगी ऐसा नियम विनर के साथ उसका विरोध नहीं है । सत्यदर्शन नहीं है। दोनों को छोड़ने का अलग अलग प्रयत्न के लिये उमकी समान है।
करना पडेगा। अटीन हो, चापलूस न हो, पर समानता क्या चापलूसी है ? यदि नही विनयी हो, यही उचित अवस्था है। तो नीनना और चापलसी में क्या अन्तर है ? शंका-श्रदीनता का विनय से विरोध न
उत्तर-हीनता ज्ञान का परिणाम है होनेपर भी परीक्षा का काम अशक्य ही है। बडे. और चापलूमी पश्चना का परिणाम है । दीनता बडे शास्त्रकारों की या महामानवो की परीक्षा गन की वृत्ति है जो चास्तवम मनमे होती है और कैसे की जासकती है। अगर यह मान भी लिया उमर अनुमार व्यवहार होना है। चापलूसी जाय कि आजकल पुराने विद्वानो से बड़े विद्वान
पाटण व्यवहार है। इस व्यवहार के होसकते हैं, तो भी हर आदमी या ढेर के देर 'पनुसार मनोवृत्ति प्रायः नहीं होती। दीनता परी- श्रादमी तो उतने बड़े विद्वान नहीं होसकते। जक बनने में बाधा डालती है । चापलसी परी- फिर ऐसे अवसरों पर 'पीकता का उपयोग नक बनने में वाया नहीं बालली, सिर्फ उसके केस किया जासकता है। दूसरी बात यह है कि प्रगट याने में बाधा डालती है। फिर भीसा परीक्षकता मे महामानवों का थोड़ा बहुत अधिहामाना है कि एक भागमी दीन भी हो और नय तो है ही, उनकी अपेक्षा अपने व्यक्तित्व को चापलूस भी हो। इस दृष्टिसे भी मनुष्य चार अधिक महत्व देदेना भी एक प्रकार का अविनय भागें में विभा होते हैं।
है। क्या इन सब बातों के कारण परीक्षकत्ता को १-प्रदीन अचाटुकार (गोन नोरनाय) उचित कहा जासकता है ? जिसमें नीनता भी नहीं चापलूसी भी नहीं । सा समाधान-परीक्षा अनेक तरह की होती बातमी आत्मगौरवशाली मी सकता है, घमंडी है। किसी किसी परीक्षा में परीक्षक बड़ा माना भी होसकता है : समान भी सकता है, दुर्ज- जाता है और वह बडा होता भी है पर किसी न मी होसकता है।
किसी परीक्षा में परीक्षक वरायरी का, छोटा या २-टोन अचाटुकार (नह नोरंनाय ) अनिश्चित होता है। इसलिये परीक्षक बनने से जिनमे दीनता हो, पर किसी को छलने धोखा देने ही किसी का अपमान न समझना चाहिये ।
आदिकी दुर्वासना न हो इसलिये चापलूसी न परीक्षा के मुख्य मुख्य प्रकार बतादेने से यह बात करता हो । भले ही उचित विनय करता हो। स्पष्ट होजायगी। परीक्ष्य परीक्षक के सम्बन्ध की
३-प्रदोन चाटुकार ( नेह नाय) दृष्टि से परीक्षा पांच तरह की होती है । १-पास जिसमें दीगता नहीं है कदाचित घमंड ही है। पर
। परीक्षा, २-द्वन्दपरीक्षा, ३-आलोचनपरीक्षा, लेकिन मोचता है कि इससमय तो काम निकालना ४-उपपरामा, ५-वनयपराज्ञा । है इसलिये मीठी मीठी बातोंसे और नम्र व्यवहार . १-गुरु परीक्षा (बीग दिजो ) जिस परीक्षा स. मती माची तारीफ से काम निकाल लेना में परीक्षक गुरु या गुरु के समान व्यक्ति होता है चाहिये । इस प्रकार घमंडी होकर भी जो चाप- वह गुरुपरीक्षा है। साधारणत विद्यार्थियों की सी करना है वह अदीन चाटुकार है। ऐसी ही परीक्षा ली जाती है।
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सत्यामृत
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.-'द्र परीक्षा (राफ दिजों) ओ प्रति साहित्यिक जगत में जो बड़े बड़े पारितोम्पा भाव से किसी की शक्ति योग्यता आदि की पक रक्खे जाते है उनमें भी जो साहित्यिक जाच की जानी है वह हर परीक्षा है। दो पहिल. कृतियों की परीक्षा की जाती है वह भी इसी वान जर युती करते है, दो पडिन जब कमरे कोटि की परीक्षा है। विख्यात और कभी कमी को जीनने की इच्छा से वादविवाद करते हैं तब सर्वश्रेष्ठ साहित्यिको की रचनाओं की जाच करने द्व परीक्षा होती हैं।
के लिये जो परीक्षक मण्डल बनाया जाता है इस परीक्षा भी दो कप है। उसके सदस्य पारितोपक पानेवाले से प्राय बड़े प्रगट दुसरा प्रसन्न । प्रगट दुद परीक्षा में प्रति- नही होते, या अपवाद रूप में ही बड़े होते है, सहा का भाव घोपित या नगद रहता है पर इसलिये बालोचन-परीक्षक होने से कोई परीक्षा प्रन्दन्न परीक्षा में यह भाव दया हाया से महान होजाता है ऐसा नियम न समझना अमट रहना है । एक विद्वान के सामने कोई चाहिये । इस दृष्टि से पुराने शास्त्रा की बालोचन जिलामु की तरह प्रश्न करता है पर मनम प्रति परीक्षा करने से परीक्षक वा होजाना है और
पहा का भाव रखता है, चर्चा में प्रतिस्पर्दा को इससे पुराने शास्त्रकारों का अपमान होता है यह तरह हठ विनय श्रादि का गोडा बहुत परिचय
समझता भूल है। भी दजाना है, या बाहर से अपना भाव प्रगट
व्यवहार में और भी आलोचन परीक्षाएँ नहीं होने देता पर भीतर प्रतिसद्ध का मात्र
होती हैं। जो जिस विषय में स्वयं कुछ नहीं कर रगता है तो उसे प्रन्दन दूल परीक्षा कहते हैं।
सकता, पर उसकी जाच अच्छी तरह कर सकता प्रापि अन्य परीक्षाएँ भी प्रच्छन्न परीनामकती हैं पर अधिकतर द्वन्द परीक्षा में
गान न जाने या करें गधैव स्वर में गान। र प्रसन्न रप का उपयोग होता है।
वे भी ता है जाचते तानसेन की तान !! 3-आलोचनपरीक्षा (हृदिउज वितो ) समा
अगर रसोई में मिडे कररे सत्र बर्वाद । लोचक की हैमियत से अब किसी की कृति की
परन जाच मे चूकते लेकर नाना स्वाद ।। बारपस्य की जाती है तब वह पालोचन परीक्षा
सीधी रेवा खीचना जिन्हें नहीं है यान्ट । फाहलाती है। ममालोचक का स्थान समालाच्य
चित्रकला के पार की बनन में उमा शनि के कर्ता से न चा कहा जासकता है न
इसीप्रकारगीचा, न गवगे का। सभी तरह के श्रादमी
धर्मशास्त्र निर्माण की भले नहीं हो शक्ति । समालोचक होते है। हां ! साधारणत यह कहा
तो भी जाच न है कठिन रख विवेकमे भक्ति । आमना है कि प्रत्यायन की अपेक्षा उसकी तुम क्यो चिन्ता कर रहे क्यों बनते हो दीन । समालोगना का काम नीची श्रेणी का है। समा.
___ को परीक्षा धर्म की बनो त्रिवयीन ॥ मोरमका यान और योग्यता किमी गास प्रसंग आलोचन परीना के इस विवेचन से पता पर ची में भी होसानी है. क्योंकि साधारण लगजाता है कि इस तरह की परीक्षा में परीक्ष्य थागी कमां की कृतियों को समालोचना का अपमान नहीं होता, न उसपर लघुना की कमी गमी नेगक मे पार चेक विद्याना छाप मारी जाती है इसलिये शास्त्री की पों
भी सना पनी तिमी किमी प्रन्थ- आदि की सी परीक्षा की जासकती है। foriT में जितनी योयना अनिवार्य है -उपपरीना ( फदिजो )जिस परीक्षा मे गनी गोपना पालोगना के शाम पनिार्य प्रत्यक्ष परीक्षक धास्तव में परीक्षक नही तोना
मगि मा ममानोपामियन मि. उसका दुत या प्रतिनिधि मात्र होता है यह माना जामरना यकि वि. उपना है। इस परीक्षा में भी परीक्षक का Miniमाना है। पर सपना अधिक योग्य होने का नियम
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दृष्टिकांड
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नहीं है । उपपरीक्षा में अधिकतर प्रत्यक्ष परीक्षक की योग्यता परीक्ष्य से अल्प ही होती है।
एक आदमी किसी ग्रंथ की परीक्षा करते समय सिर्फ इस बात का विचार करता है कि वह अमुक शास्त्र से मिलता है कि नहीं ? इस परीक्षा में परीक्षक की विशेष योग्यता का विशेष मूल्य नही है। उसे तो अमुक शास्त्र से मिलानभर करना है । वहुतसी गणित की पुस्तको में विद्यार्थियों के लिये अभ्यासार्थ कुछ प्रश्न दिये जाते है और पुस्तक के अंत में उनके उत्तर लिख दिये जाते हैं । विद्यार्थी उस उत्तर से मिलाकर अपने सवाल की जाच करता है। । पुस्तक के अन्त मे लिखे उत्तर से उसका उत्तर मिलजाता है तो अपने उत्तर को ठीक समझता है नही तो गलत समझता है। ऐसी विद्यार्थी अपने sara ar arrier है । इसी प्रकार जिस परीक्षा में परीक्षक की योग्यता प्रमाण नहीं होती उसे उपपरीक्षा कहते है। एसी उपपरीक्षा मे छोटा आदमी भी बड़े आदमी की परीक्षा ले सकता है । उपपरीक्षक बनने से कोई परीक्ष्य से बड़ा नहीं कहला सकता है | है ! यह होस कता है कि वह अपनी योग्यता आदि से बड़ा भी हो। पर उसका वड़ापन उपपरीक्षकता पर निर्भर नहीं हैं ।
५- विनयपरीक्षा ( नायं दिजो ) परीक्ष्य को काफी महत्व देते हुए विनयपूर्ण सन विनयपूर्ण वचन और शिष्टाचार के साथ जो परीक्षा कोजाती है उसे विनयपरीक्षा कहते हैं । इस परीक्षा में परीक्ष्य की सफलता में परीक्षक कहता Tir aantara aaगई, असफलता में कहता है श्रापकी बात नहीं जची । परीक्ष्य-परी तक के सम्बन्ध के अनुसार भाषा में काफी विनय छलकता है । जैसे- परीक्ष्य की बात न जचने पर वह कहता है
अभी तक आपकी बात जच नहीं पाई। अभी तक में समझ नहीं सका । आपने तो see ठीक ही निर्णय किया होगा पर मेरी मन्द बुद्धि मे यह बात अभी तक
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भाई नहीं है ।
मतलब यह कि विनयपरीक्षा मे परीक्षक अपने को स्पष्ट रूप मे छोटा मानलेता है, फिर भी परीक्षा करता है। पर जब उसकी दृष्टिसे बात ठीक नहीं होती तब वह परीक्ष्य की अयो ग्यता या असत्यता का उल्लेख नही करता किंतु अपनी अयोग्यता के शब्दों में उल्लेख करता है । वह यह नहीं कहता कि 'मैं यह बात उचित नहीं सममता' वह अनुचित समझने पर भी यही कहेगा कि 'मेरी समझ में यह बात आई नहीं' ।
कोई बात किसी युग अच्छी थी पर अच्छी नहीं है, ऐसी हालत मे यह कहना कि यद्यपि जमाना बदलजाने से आज इस बात का उपयोग नहीं है पर पुराने जमाने में यह उनकी व्यवस्थापकता को यह भी विनय परीक्षा व्यवस्था बहुत अच्छी थी, ठीक थी, धन्य है। है। इसमे नम्रता प्रशंसा के साथ किसी बात की जाचकर उसे अस्वीकार किया जाता है।
इसप्रकार यह विनयपरीक्षा महान से महान, व्यक्ति की भी की जा सकती है, करना भी चाहिये। ऐसी परीक्षा से किसी का अविनय नहीं होता । हूा । जिस व्यक्ति के साथ हमारा सम्बन्ध गुरुशिष्य आदि का हो उसकी बात न अचने पर विनयपरीक्षा के शब्द न कहकर आलोचन परीक्षा सरीखे शब्द कहना उसका अपमान कहा. जासकता है। ऐसा अपमान न करना चाहिये, पर उचित अवसर पर उपयोगिता का ध्यान रख कर विनयपरीक्षा अवश्य करना चाहिये ।
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परीक्षा के इन प्रकारो पर व्यान देने साफ मालूम होता है कि परीक्षा करने से Je कारों का या महान से महान व्यक्ति का अनुभ नहीं होता । हा ! उसे अपने व्यक्तित्व येव परिस्थिति श्रादि का विचार करके आलो परीक्षा उपपरीक्षा या विनयपरीक्षा क चाहिये।
रहगई बात यह कि ऐसे महान व्यक्ति के सामने अपने व्यक्तित्व को महत्ता कैसे जासकती है ? और यपने को महत्ता दिये
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परीक्षा कैसे की जा सकती है ?
यहां यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि अवसर की महत्ता से किसी के व्यक्तित्व को धक्का नहीं लगता। महत्ता दो तरह की होती है। व्यक्तित्व महत्ता और अवसर - महत्ता ।
व्यक्तित्व महत्ता ( सूमोवीगो ) - गुण योग्यता आदि से जो महत्ता प्राप्त होती है, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व बनता है और अपेक्षाकृत जो स्थायी होती है, वह व्यक्तित्व महत्ता है।
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अवसर - महत्ता ( चंसोबीगो )- किसी खास अवसर के लिये जो महत्तो मिलजाती है, जो स्थायी नहीं होती, वह अवसर महत्ता है जैसे विवाह के अवसर पर दूल्हे को जो महन्त मिलजाती है, स्वयंवर में कन्या को जो महत्ता मिलजाती है, किसी सभा में एक आदमी को प्रमुख बनने से बैठक भर को जो महत्ता मिलजाती है ये सब अवसर महत्ताएँ हैं । सत्यपरीक्षक को ओ थोडी बहुत मद्दता मिलती है वह स्वयम्वर की कन्या के समान मिली हुई अवसर महत्ता है। इस अवसरमहत्ता से महान व्यक्तियों के व्यक्तित्व का अपमान नहीं होता। दुनिया में ऐसी महत्ताएँ छोटों बड़ों सभी को मिलती हैं। इसके बिना काम नहीं चल सकता। इन सत्र बातों का विचार कर सत्यदर्शन के लिये मनुष्य को परीक्षक चनना चाहिये, भले ही वह विनय परीक्षक ही बने। विनय परीक्षा के लिये भी छाती नता की आवश्यकता है । उसका विनय से विरोध नहीं है ।
मृत
कोई कोई अनुभव के नाम से अपनी कल्पनाओं को पेश कर दिया करते हैं। ऐसे लोग विचारकता और अदीनता रखने पर भी ठीक ठीक परीक्षा नहीं कर सकते । इसलिये प्रमाण रूप से पेश की जाने वाली बातो का कहां कितना मूल्य है, यह जानना जरूरी है।
शास्त्र का उपयोग ( ईनोडशो ) शास्त्र एक उपयोगी और आवश्यक प्रमाण है फिर भी पूर्ण विश्वसनीय नहीं, क्योकि एक ही विषय पर भिन्न भिन्न शास्त्र भिन्न भिन्न कथन किया करते हैं । इसलिये शास्त्र के नाम से किसकी बात मानी जाय ? साधारणत लोग अपनी परम्परा या अपने विशेष सम्पर्क के शास्त्रों को प्रमाण मानते हैं । पर यह तो अकस्मात् की बात है कि हम अमुक परम्परा में पैदा हुए या अमुक ग्रंथ हमारे विशेष सम्पर्क में आये । दूसरा आदमी दूसरे सम्प्रदाय से पैदा हुआ, या दूसरे ग्रंथ उसक विशेष सम्पर्क में आय इसलिय उसे दूसरे प्रथ प्रमाण होगे। यह प्रमाण न कह लाया मोह कहलाया । इस तरह से सत्य के दर्शन नहीं हो सकते।
प्रमाणज्ञान (नीपोजानो)
परीक्षकता के लिये तीसरी बात है प्रमाणज्ञान की । वहुतसे लोग परीक्षक बनने की कोशिश | करते हैं परन्तु प्रमाण को कितना महत्व | देना चाहिये इसका ठीक ठीक ज्ञान न होने से वे सत्यपरीक्षक नहीं पाते। कोई कोई लोग शास्त्र हैं उसके आगे त्यात ते, कोई तर्क और तर्कामास का अन्तर ही नहीं समझते,
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पर अगर शास्त्र का बिलकुल उपयोग न किया जाय तो भी सत्य के दर्शन कठिन होजाते हैं। शास्त्र चिरकाल से प्राप्त हुए अनुभवों तक आदि के संग्रह के समान हैं । यह हो सकता है कि कोई अनुभव आदि भ्रमपूर्ण या विकृत रहे हो परन्तु उनके पीछे सत्र अनुभवो तर्कों आदि का उपयोग बन्द कर दिया जाय तो मनुष्य का विकास ही रुक जाय |
पुरानी पीढियों के अनुभवों को शास्त्र द्वारा प्राप्त कर मनुष्य आगे बढता है। अगर वह पुराने अनुभवों को शास्त्र आदि के द्वा प्राप्त करे और शुरू से ही स्वय सत्र अनुभव करे तो हजारों वर्ष के अनुभव दुहराने मे ही उसकी सारी शक्ि और जिन्दगी पूरी होड़ाय, का बढ़ने का मौका ही न मिले। विकास के लिये पुराने तथा दूसरे लोगों के अनुभवों से लाभ उठाना जरूरी है इसी से मनुष्य शीघ्र आगे बढ़ सकेगा।
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दृष्टिकांड
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इसप्रकार शास्त्र पूर्ण विश्वसनीय प्रमाण न प्रगट कर रहा है। हां। अगर किसी बात के होनेपर भी उसका पूरा उपयोग है। जैसे न्याया- कोई दूसरे जबर्दस्त प्रमाण मिलें और पता लगे लय में गवाहों का स्थान होता है उसी प्रकार कि अमुक कारण से अमुक आविष्कार लुप्त सत्य के न्यायालय में शास्त्रो का स्थान है। होगया था तो उसको प्रमाण माना जाय। यह अगर गवाहो से काम न लिया जाय तो न्याय भी देखना चाहिये कि किसप्रकार उस युग की करना कठिन है, अगर गवाहो की बात को पूर्ण वैज्ञानिकता विकसित हुई थी । विकास की अन्य प्रमाण मानलिया जाय तो परस्पर विरोधी गवाही अवस्था के विचार से भी इसमें सहायता मिल के वक्तव्य के कारण न्याय निश्चित करना और
सकती है । इसप्रकार सम्भवता का विचार करना भी कठिन है। इसलिये बीच का निरतिवादी मार्ग
चाहिये। यह है कि गवाहो की बात सुनी जाय और अपने विवेक से उनके सत्यासत्य की जाच की जाय,
३-अहितकर न हो। फिर न्याय दिया जाय।
जो बाते प्रत्यक्ष अनुमान से सिद्ध है, उनकी शास्त्र का मतलब यह है कि अमुक व्यक्ति बात दूसरी है, वे तो मान्य हैं ही, परन्तु जिन्हें अमुक बात कहता है। पर दूसरे व्यक्ति दूसरी बात जो प्रत्यक्ष अनुमान से सिद्ध नहीं कर सकता भी तो कहते हैं, ऐसी हालत में शास्त्रकार कितने ।
उसके लिये शास्त्र का उपयोग है। पर ये तीन भी पुराने या नये या महान क्यों न हों उनके बात दखलाना चाहता कहने से ही कोई बात प्रमाण न मानी जायगी। प्रत्यक्षोपम शास्त्र (इन्दूर ईनो) इससे शास्त्र का या शास्त्रकार का अविनय न व्यवहार में बहुतसी चीजें ऐसी होती हैं समझना चाहिये। यथायोग्य आलोचन परीक्षा जिन्हे हमने देखा नही होता पर उनकी प्रामाणिउपपरीक्षा विनयपरीक्षा करने में अविनय नहीं कता प्रत्यक्ष के समान होती है । जैसे बहुत से होता।
आदमी ऐसे हैं जितने इंग्लेण्ड अमेरिका रुस शास्त्र की किसी बात को प्रमाण मानते चीन जापान आफ्रिका आदि नहीं देखे, भारतमें समय हमें निम्नलिखित बातें देख लेना चाहिये। रहने पर भी बहुतों ने बम्बई कलकत्ता मद्रास
-वह किसी दसरे प्रबल प्रमाण ( प्रत्यक्ष आदि भी नहीं देखे, सिर्फ भूगोल की पुस्तकों में या तर्क) से खरिइत न होती हो।
या समाचार पत्रों में पढ़े हैं, लोगों के मुंह से २-देशकाल परिस्थिति के अनुसार सम्भव सुने हैं, पर इनकी प्रामाणिकना इतनी अधिक मालूम हो । बहुतसी बाणे आज सम्भव है पर है कि इन्हें शास्त्र सरीखा विवादापन्न नहीं कह पुराने जमाने में सम्भव नहीं थी। उस समय समयपि इनका ज्ञान बहुतों को है तो शास्त्रसिर्फ कल्पना आकांक्षा अतिशयों आदि के ज्ञान ही, फिर भी इनकी प्रामाणिकता इतनी कारण शास्त्र में लिख दी गई थी। वे श्राज के प्रवल और निर्विवाद है कि इन्हें प्रत्यन यातर्क की युग की से सम्भव होने पर भी पुराने ग्रग में कोटिमे रक्खा जासकता है । जिस हमने प्रत्यक्ष सम्भव नही मानी जासकी। जैसे-रेलनार नहीं किया किन्तु सेकड़ों ने प्रत्यक्ष किया मोटर, हवाई जहाज, कपड़े आदिको मिलें, सिनेमा,
और जिसमें अप्रामाणिकता की कोई सम्भावना वेतार का तार, ध्वनि प्रसारण, प्रामा मोन आदि नहीं है उस शास्त्र या पुस्तकीय ज्ञान कोरपन या हना सकिगारमा जानता में दिखाई तकरार
तर्क के समानहीरवल मानना चाहिये. उसे पत्यनादेते हैं, ये सब पात्र सम्भव है पर हशा दोहजार पम शास्त्र कहना चाहिये। वर्ष पहिले कोई उनका चित्रण करे तो कहना । जिन बातों में यह पता लगे कि गे चाहिये कि वह कल्पना था उस युग की श्राकाला किसी पनके कारण या अन्धविश्वास के १२५
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ही या लिखी जारही हैं ऐसी बातो को समझ शेचकर मारा मानना चाहिये। जैसे ठंडे या म युद्ध के समय में एक राष्ट्र के समाचार पत्र विरोधी राष्ट्र के बारे में खूब झूठी झूठी वाले झापा करते हैं, विज्ञापनदाता लोगों को ठगने के लिये झूठी या अतिशयोक्तिपूर्ण बातें छपवाया करते हैं ये सब बातें साधारणतः तवतक प्रमाण न मानना चाहिये जब तक किसी दूसरे परवल रमाण से समर्थित न होजायें। इसी कार बहुत में लोग भूत-पिशाच की, परलोक की स्मृति की, और भी चमत्कारो की कहानियाँ पत्रों में छपवाया करते हैं ये सब अन्धश्रद्धा, साम्प्रदायिक पक्षपात आदि के कारण असत्य होती है। इन्हें प्रत्यक्षोपम शास्त्र तो किसी भी तरह नहीं कह सकते किन्तु साधारण शास्त्र कोटि मे भी मुश्किल से डाल सकते हैं।
साधारण शास्त्रों की अपेक्षा प्रत्यक्षोपम शास्त्रों की प्रामाणिकता अत्यधिक या कई गुणी
है।
सत्यामुत
रु
प्रत्यक्ष का उपयोग ( इन्दो उशो ) सबसे अधिक बल ना पत्यक्ष है बाकी दूसरे प्रमाण रत्यक्ष के सहारे ही खड़े होते | वस्तु के साथ निकटतम सम्पर्क इसी का होता कान नाक जीभ और स्पर्शन इन्द्रिय से जो ज्ञान होता है उसमे विवाद की कम से कम गुश रहती है। दूसरे पमाखी की 'रामागिता की न्ति जाय भी प्रत्यक्ष से की जाती है।
|
फिर भी इसका ठीक ठीक उपयोग करने के लिये सागर का ध्यान श्रवश्य रखना चाहिये । nir के निना प्रत्यक्ष को ठीक समगा भी
मना । सूर्यचन्द्र ने करीब करीब दिवाई देते हैं जबकि चन्द्र से सूर्य है। चन्द्रम सिर्फ ाई राम
और
1
इस दुर्ग के
←
1
नील, दोनों लिई
रामू में भी जाना
पर दूर होने से सूर्य से बहुत छोटे और निष्प्रभ दिखाई देते है। इस दूरी के कारण भूतकाल की भी घटना वर्तमान रूप होती है। सूर्य से यहा तक प्रकाश आने में करीब सात आठ मिनिट लगते हैं इसका मतलब यह हुआ कि सूर्य उदय होने के सात काठ मिनिट बाद हमे ऊगता हु दिखाई देता है, इसी प्रकार अस्त होजाने के सात आठ मिनिट बाद अस्त होता दिखाई देता है । इसप्रकार सात आठ मिनिट का भूत हमारे लिये वर्तमात होता है। श्रासमान मे जो तारे हमे जिस रूप में दिखाई दे रहे है वह उनकी वर्तमान अवस्था नही है किन्तु सैकड़ों हजारो वर्ष पुरानी अवस्था हमें इस समय दिखाई दे रही है । वे इतने दूर हैं कि एक लाख छयासी हजार मील प्रतिसे किएड के हिसाब से चलनेवाला प्रकाश यहा तक सैकड़ो वर्षों में आपाता है, इसलिये सैकड़ो वर्ष बाद हमे उनकी अवस्था दिखाई देती है ।
सिर्फ आख के प्रत्यक्ष मे ऐसा अन्तर पडता है सो बात नहीं है, हर एक इन्द्रिय के प्रत्यक्ष में यह बात होती है। श का अन्तर तो हमें तुरंत मालूम होता है। कई मील दूर किसी पहाड़ की चोटो से तोप दागी जाय तो प्रकाश की गति तीव्र होने से उसका धुआँ तो तोप चागते ही दिखजायगा किन्तु उसका शब्द कई सेकिण्ड बाट सुनाई देगा क्योंकि शब्द की गति हवा में प्रतिसकिएड सिर्फ १०९० फुट ही है । भिन्न भिन् माध्यमो से श के आने मे काफी अन्तर पड़ता है इसलिये उनके सुनने से सी अन्तर पडता है। १६६२० फुट का शुद्ध अगर लोहेकी पटरी के मान्यम से सुना जाय तो एक संकिण्ड बाद ही करीब साढ़े पन्द्रह सेकिएड लेगा। जबकि बिजली सुन लिया जायगा किन्तु वही शब्द हवा के जरिये के माध्यम से किसी शक का प्रसारण किया जाता तब हजारो मील दूर से आने पर भी एक सकिएड भी नहीं लेता । इसप्रकार शब्द भी अपनी दूरी के कारण भूत वर्तमान में गडबडी पैक 1
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घटिकांड
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इसके सिवाय इन्द्रियों की अपनी अपनी अपर्याप्त कारणों से या किसी बाधा वे विशेष अवस्था का भी संवेदन पर प्रभाव पडता कारण जहा भ्रम या संशय होता है वहां में है। एक श्रादमी को साधारण अवस्था में सौ प्रत्यक्ष की जाच अन्य प्रत्यक्षों से या तर्क आदि डिगरी की चीज कुछ गरम मालूम होगी , परन्तु से होजाती है। जब उसे १०३ डिग्री बुखार होगा तो सौ डिग्री अनुभव की दुहाई (इदो पे खूहो) की चीज ठंडी मालूम होगी । साधारण अवस्था में
प्रत्यक्ष एक अनुभव है और परीक्षकता में नीम कडवी मालूम होती है , किन्तु सांप का विष
अनुभव सब से बड़ी और अन्तिम कसौटी है । बढ़ने पर कड़वी नहीं मालूम होती, और पित्तज्वर में दूध भी कडया मालूम होता है। किसी
परन्तु कल्पना के स्वप्नो को अनुभव नही कह जानवर को साधारण अवस्था में भी नीम कडवी सकत । बहुत से लोग भूत-पिशाचो को, अलौनहीं मालूम होती । यह सब इन्द्रियो की विशेष
किक चमत्कारो का, अनुभव होने की दुहाई देकर अवस्था के कारण होता है। सापेक्षवाद का ध्यान
अविश्वसनीय बातो का समर्थन करने लगते हैं। रखने से इनकी गड़बड़ियों से बचा जाता है।
जब कि ये सब एक तरह के स्वप्न होते है। जिस
तरह के विचार हमारे मन में या वासनाओ में प्रत्यक्ष में सापेक्षवाद का विचार सिर्फ गति ,
भरे रहते है वे साधारणत: स्वप्न में इस तरह या इन्द्रिय की अवस्था के कारण ही नहीं करना
करता दिखाई देने लगते हैं जैसे प्रत्यक्ष दिखाई देते हो।
, पड़ता किन्तु मस्तिष्क के कारण भी करना पड़ता है, क्योंकि संवेदन का मुख्य भावार तो मस्तिष्क ,
. ये स्वप्न सोते समय आते हैं। पर भावना की है। इन्द्रिय के द्वार से मस्तिष्क तक जैसी लहरे .
तोत्रता होनेपर जागते समय भी दिखाई देने जाती हैं वैसा संवेदन होता है । पनार्थ के न होने
लगते हैं। प्रेमोन्माद की अवस्था में श्रादमी अपने पर भी अगर वैसी लहरें मस्तिष्क तक पहुँचें तो
। प्रिय को शून्य में ही प्रत्यक्ष के समान देखता है, मस्तिष्क उस पदार्थ का संवेदन करने लगेगा।
और उसकी तरफ दौड़कर दीवार से या खम्में पदार्थ के बिना भी कृत्रिम रूपमें वैसी लहरे
आदि से टकराजाता है। यही वृत्ति कभी कभी मस्तिष्क में पहुँचायी जासकती है इसलिये तीव्र उपासकों में देखी जाती है। वे ऐसी ही तीव्र मस्तिष्क उसका संवेदन कर सकता है। चित्रपट कल्पना से अपने भगवान को अपने इच्छित रूप में इसका अनुभव सदा होता है। सिनेमा के पर्दे में देखते है । यही कारण है कि भिन्न-भिन्न सम्न' पर भाग पानी मकान आदि कुछ नहीं होता, दाय के तीनभावुक उपासकों को भगवान या इष्ट' सिर्फ उस तरह की किरणें पर्देपर से आंखोंपर देव भिन्न-भिन्न रूप मे दिखाई देते हैं। इसी
आती है इसलिये उन पदार्थों के न होनेपर भी यह लोकोक्ति प्रचलित हैउन पदार्थों का मान वहा होता है । कृत्रिमता से
जाकी रही भावना जैसी। अन्य इन्द्रियों के विषय में भी ऐसा किया जास
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥
भावनाओ के इस प्रयुद्ध रूप को । इसप्रकार प्रत्यक्ष सब से अधिक स्पष्ट, सब से अधिक साधार, इसलिये सबसे अधिक प्रमाण
श्रा प्रत्यक्ष न कहना चाहिये। ये कल्पना हैं
इन कल्पित भावनाओं से एक तरह का श्रा होनेपर भी उसकी जाच करना पड़ती है, उसके
लिया जासकता है पर ये परीक्षकता की बारे में सतर्क (तर्कसहित) रहना पड़ता है। पर ऊपर जो गड़बड़ियों वतलाई गई हैं उनमें
नहीं बन सकीं। यदि सापेक्षवाद का ध्यान रखा जाय तो प्राय. हा। जीवन व्यवहारमें या मानव प्रकृति सभी उलझनें दूर होजाती हैं। .
अभ्यास मे जो अनेक प्रकार के अनुभव मिलते
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नत्यामुन
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IIT अनेक नफारमनुष्यासे माग पदनसे मान रनि भित्र में
गाया काको विशेष ज्ञान होता है। इससे मनुष्य जिस मनाया गया प्रकार अनुभवी बनता है, उसको प्रत्या गार पाशा HINDI वरावर प्रमाण न माननेपर भी प्रामाणिकता पर Pistart दृष्टि से उसका काफी मूल्य में प्रानुभार सहन
irr Tim अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार गुरमित मित्र मृग
-RH होते है और सब मनुष्य की प्राति भी एक मो ही प्रग ट Trrat नहीं होती इसलि। उसमें प्राय ग मिल पा PATR a बात कही जासकती है पर निति रस मी Mir c hi फिर भी इस 'प्राय.' का मापी उपयोग सोगा। नमी र म मे in ima इसे उपमान प्रमाण माना चागि । उपगान ARREARRITATE प्रमाण कार्यकारण गा स्वभाव का निमिन सम्र in atta तो नहीं होना पर अनेक स्थाना से सगागना मे मनिय यो गम में शामिन | नये स्थानपर मम्भावना की जानी जी मालगानि पर्याप्त उपयोगी होती है। कार माार पर पाना भी अनुभव कीया हैं, पर कान्पना मेरा स्वप्ना को यनु- यया | भव के नाम से न चलाना चादिका
___ RAHTERTAL तर्कप्रमाण । जिम्मा नीपर)
लिया गया AnirRAINS अनेक पदार्थों के निश्रित सम्बन्ध का दीया जिस मन का शोना। पीक ज्ञान तर्फ है। इसका नत्र विशाल है ! 3. सयाम ATTRAPAREn) योगिता भी सब से अधिक है। यापि इसका तक काना वादिनना मूलाधार प्रत्यक्ष है। पर तर्क न हो तो अमला योग in hinा मिले। प्रत्यक्ष कुछ नहीं कर सकता है बहुत सं जानो को मप 4 में
मार्ग हुम प्रत्यक्ष समझते हैं पर वास्तव में वे सर्फ हात सर से जय श्री मा. जमा सामे हूँ । निकट और दूर को ज्ञान हम प्रत्यन समझत मानेयाला विचार है। है पर वास्तव में वह तरूप है । शिशु अपनी पत्यक यम का नोकिया . आखा से अनेक रश्य देवता है पर निकट दूर तक पानपा अपने विचार मामन का झान उसे नहीं होता। पीछे आने-जाने या रस्वता है ! शालों को यह गाय गादसा. बोलने से उसे निकट दर का ज्ञान होने लगता क्याफि मात्र किसी पुराने जमाने के योग होते
तय वह समझता है कि अमुक परिमाण का है इसलिये बदले हुए युग के निंय सोपोली दार्थ होनेपर इतना छोटा-छोटा दिखता है। बहुन बात युगरास होजाती है, तब असली विधीर भाख में पहनेवाले प्रतिबिम्न के छोटे सहायक लक रहा है। शाप भो न डेपन के अनुसार वह निकट दूरी का ज्ञान छन्न सबानका कार में लिया जाता ने लगता है। सर तक उसे यह सम्बन्ध ज्ञान सी है। हराएका अपने अपने शास्त्र तनही होदा तब तक उसे निकाटे दूर का शास्त्र को दूसरा माण नहीं मानना, तम सत्यानहीं होता। पित्रा में था सिनेमा के पर्दे पर सत्य का निर्णय वर्ष से ही किया
सलमानसावक सही किया जासकता है। निकट दूरी के दृश्य दिखाई देते है | इसा अन्त में शास्त्रों की दुहाई देवा वार पर निकट दूर सममे जाते हैं ! अन्यथा शास्त्र के बारे में भी
अन्यथा शास्त्र के बारे में भी नर्कसंगतता को दुहाई देना
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हपिकांड
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पड़ती है। इसलिये कहना चाहिये कि तर्क ही अनन्त सिद्ध कर सकना है। क्योकि ऐसी कोई परवल और व्यापक प्रमाण है।
जगह नहीं है जिसके बाद जगह न हो, ऐसा कोई __परन्तु बहुत से लोग तर्क को तब तक समय नहीं है जिसके बाद समय न हो, इसमानते हैं जब तक वह उनकी मान्यताओ का परकार तर्क उन्हे अनन्त सिद्ध करदेता है। इस समर्थक होता है। जब तक उनकी मान्यताओ कार तर्क जहा निश्चित रूप से खंडन कर का खण्डन करने लगता है तब वे तर्क की निन्दा सकता है वहां खंडन कर देता है, जहा मंडन कर करने लगते हैं और भावना की दुहाई देते हुए सकता है वहां मण्डन कर देता है, जहां उसकी फहने लगते हैं. यह ! तक से क्या होता है, गति नही होती अर्थात जहां किसी बात का. वह तो धुद्धि का खेल है जैसा बनाओ बनजाता साधक हेतु नहीं मिलता वहां चुप रहजाता है। है, मानवी बुद्धि परिपूर्ण नहीं है। बाज एक तर्क जिस चाहे को सिद्ध कर देना, और जिस चाहे से एक बात सिद्ध होती है कल दूसरे तर्क से वह को आरमाणित कहदेना या कैसा भी धकवाद खण्डित होजाती है, असली और हद वस्तु को करने लगना यह सब तर्क नहीं है। हां! कभी भावना और श्रद्धा है। तर्क तो भावना का दास कभी कोई विशेष बुद्धिमान आदमी तकाभासों है, भावना स्वामिनी है, क्योकि जीवन के सारे का प्रयोग कर सत्य को असत्य या असत्य को काम भावना के अनुसार होते है। तर्कशास्त्री सत्य सिद्ध कर सकता है पर यह धात कभी कही महीनो में जो बात ढूढ़ नहीं पाते वह भावुक ही सम्भव है, वह टिकाऊ नहीं होती। सब आद
और श्रद्धाल दिनो में ढढजाते हैं। तर्क का क्षेत्र मियों को सब जगह चिरकाल तक धोखा नही सीमित है और उसके निर्णय अस्थिर हैं । भावना दिया जासकता। सच्चा तर्क हो तो क्रम प्रतिमाका क्षेत्र असीम है. सीधा है और उसमें स्थिरता शाली भी अपने से अधिक प्रतिभाशाली को
परास्त कर सकता है। हा! कभी कमी सत्य के इसरकार तर्क का विरोध करनेवालों को।
को एक एक अश को लेकर दो पक्ष लड़ने लगते हैं, : निम्नलिखित बातो पर विचार करना चाहिये।
तर्क दोनों सत्याशा का समर्थन करता है, इस१-श्रन्दाज बोधना या अपनी बात के लम
जिये तर्क विरोधी लोग तर्क को अस्थिर कहदेते र्थन में कोई उपमा देदेना तर्क नहीं है। तर्क
है पर इसमे तर्क का अपराध नहीं होता। वह ! कार्यकारण या वस्तुस्वभाव के नियत सम्बन्ध पर
तो दोनों सत्याशो को सावित करता है। ऐसे । अवलम्बित रहता है । तर्क के स्टान्त में भी
अवसर पर तर्क को गाली न देकर दोनों का सम. साध्यसाधन का नियत्त सम्बन्ध स्पष्ट होता है,
न्वय कर सत्य प्राप्त करना चाहिये। तब तक में इसलिये तर्क के निर्णय उच्छृखल या अस्थिर
उच्छृखलता अस्थिरता न मालूम होगी। नहीं कहे जासकते । तर्क किसी एमाण का
२-कभी कभी एक तर्क से निश्चित की हुई
बात दूसरे तर्क से कट जाती है पर उसका मुख्य विरोध नहीं करता । जहा उसकी गति नहीं होती। वह अपने आप अटक जाता है। जैसे-विश्व
कारण यह है कि पहिले मनुष्य तर्क के साथ कितना बड़ा है इस प्रश्न का उत्तर तर्क अभी
कुछ कल्पना का मिश्रण कर जाता है इसरकार नही देसकता क्योकि अों खर्बो' मीलो से जो
तर्क और कल्पना को मिलाकर एक निर्णय प्रकाश आता है उससे सिर्फ इतना ही मालूम
करता है और उसे तर्क का निश्चय समझ लेता होता है कि श्रनों खबरों मीलो तक विश्व है परन्तु है। बाद में जब वह कल्पना का अंश कटता ऐसा कोई चिन्ह नहीं मिलता जिससे उसके वाट है वो लोग कहने लगते हैं कि तर्क कट गया। अनन्त क्षेत्र तक शून्यता का पत्ता लगे इसलिये पर यह अपराध तर्क का नहीं है किन्तु तर्क के तर्क विश्व की सीमा बताने में अज्ञम कहा जास- साथ कल्पना के मिश्रण का है । जैसे-जय लोगों कता है। परन्तु क्षेत्र (जगह ) काल को वह ने देखा कि पदार्थ पृथ्वीतल के ऊपर गिरना है
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लन्यामृत
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तब उस जमाने के लोगों ने निर्णय किया कि जो fairयामा ६ भी गिर पदार्थ मे गुरुत्व नामका एक धर्म है जिसमे नीज A r t पिने तीन नीचे गिरती है । इस निर्णय में तर्क के साथ फराना की गभी गरम । कल्पना का मिश्रण था। पतार्य उपर से नारे नागा गया मनमानी यथोत् पृथ्वी की पोर याता है इसका एक कारगण को मानविगामा पा मम्मा. यह कहा जासकता था कि पदार्थ में गुरुत्य धर्म चना बाचा परमो नालन हो, दूसरा यह कहा जासकता था कि पृथ्वीगे को मन को गोनही काम। आकर्षणशक्ति हो। यहा तर्क का काम इतना ही
समय भारतका था कि दोनों में या दोनोंमें से किसी एक में किसी
नहीं जाना गौरभावमा पाता शकिया धर्मका सद्भाव सिद्ध कादे । परन्तु पुगने
मकी का सम्माना नही। मगर नार्फिको ने इस सामान्य निर्णय के साथ विशेष प्रधिका पना या लगाना । कल्पना को मिलाकर गिरनेवाली वस्तुमे ही सीवथा मगर नामाथि पुगन गुरुत्व धर्म मानलिया जब कि इसकेलिये उनके ज्ञान में पद गला पान एमालय उमम पास विशेष तर्क नहीं था । बाद में जब विशेष शोश बढ़त परिवर्तन करना पक गहना मन्य खोज हुई तब यही मालूम हुआ कि गुरुत्व नामका को मिस काम मा माग ।। इसे कोई धर्म नहीं है, प्रत्येक भौतिक पदार्थ ( मेटर- वर्क या विधानप दी मरत. Matter) में आकर्षण शक्ति है जिससे वे एक बतिक प्रगुरु भनि भ ए
। दूसरे को खींचते हैं । प्रची विशाल पिंडहोने किसी पुराने EAR T जमारा से वह छोटे पिडा को अपनी ओर खीच लेती से स्थिरता तो पानी पामराम नही हैं। इसीका नाम गिरना हैं । इस नये सिद्धान्त शोता। नतम गरिब नई गाने ने पुरानी बात का खंडन कर दिया परन्त पुरानी बढा है और कुर बना दी AT " यही बातमे जितना तर्फ का अंश था उसका खडन कि कन का तर सर में शेमभर दूर था, नहीं किया । तर्क के साथ जो कल्पना के द्वास तो आज का नर्क मीलम या पगमादा है विशेप निर्णय किया गया था उसीका बंडन किंतु पुगना रूप तो गाना दूर था । मिता किया गया।
के नामपर सत्य मार्ग म पागे बढ़ने से इग्न इसीप्रकार दिनरात का भेद देखकर मनमय और पुराने पसे चिनदे रहना तो पहिरना ने सूर्य के गमनको कल्पना की, परन्तु यह भी कै नाममा जीवन से डरना और मौनसे विस्टे तर्क में कल्पना मिली । तर्क ने तो सिर्फ इतना रहता है। कोई बालक जवानी की ओर ब्रटंगा ही निर्णय किया कि दोनों में कुछ नन्तर पडता तो उसकी आज की बदनसी चीज कार होती है। वह चन्तर सूर्य की गति से भी होसकता है. आयी, अगर स्थिरता के नामपर ममी की पृथ्वी की गति से भी होसकता है, दोनो की गति नरह उने ममाल में पोतकर पत्र दिया जाय तो से भी होसकता है। तर्क ने तो सिर्फ सामान्य
सेकडा वर्ष स्थिर रहेगा, क्या इमीलिय वालक गति और अन्तर को सिद्ध किया । यह अन्तर का जपान अनने का अपहा मम
का जपान अनने की अपेक्षा ममी चनजाना किसकी गति से पैदा होता है इसलिये विशेष न्या कहा जासकता है ? हेतु की श्रावश्यकता थी जोकि उस समय मिला
एक दिन मनुष्यने पूछी की अचला कहा, नहीं, इसलिये विद्वानों ने कल्पना से सूर्यको चल और सूर्य को उसक चारो ओर घूमता माना, मानलिया। पीछे इस बात का खंडन होगया परन्तु कालान्तर में मनुष्य को विशेष ज्ञान हुआ. उस इसे तर्फ का खंडन न समझना चाहिये। तर्फ ने मत बटला तत्र उसने गुरुत्वाकर्षण मानकर
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हाएकाड
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पृथ्वी को सूर्यके चारों ओर घूमती हुई माना, इस- वर्णन आदि खण्डित किये जाते हैं, ईसाई-धर्म एकार मनुष्य सत्य के मार्ग में आगे बढा । अब के नामपर ईसामसीह मनुष्य पिता के बिना कैसे होसकता है कि कल गुरुत्वाकर्षण के बदले किसी पैदा हुए आदि वातो का खण्डन किया जाता है, दूसरे सिद्धान्त का पता लगे, इससे वे उलझनें इसलाम के नामपर जन्नत बहिश्त हूरे गिलमे भी सुलझजायें जो गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त से आदि का खण्डन किया जाता है। इन सब नहीं सुलझ पाती तो यह सत्यके और निकट खण्डनों से वास्तविक धर्म का खण्डन नहीं होता। पहुंचना कहलायगा। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त ये तो धर्म के उपकरणमात्र है। जिस जमाने में कदाचित् आगामी कल के सिद्धान्त टि से जहां जिन लोगों मे तर्क इतना प्रवल नहीं था असत्य कहाजासके पर भूतकाल के अचला और वहा इनका उपयोग कर लिया गया, आज तर्क चपटी पृथ्वी के सिद्धान्त से तो हजार गुणा सत्य बढ़गया तो इन्हे हटा देना चाहिये, दूसरे उपहै । इसलिये सत्य की खोज मे स्थिर होने के करण दूसरे ढंग से लाना चाहिये इससे धर्म के कारण भावना का कल्पना का या श्रद्धा का मूल्य प्राण न निकलेंगे। बढ़ नहीं जाता. और अस्थिरता के कारण तर्क
दूसरी बात यह भी है कि धर्म देशकाल के का मूल्य घट नहीं जाता । स्थिरता-अस्थिरता का
अनुसार मानव जीवन की चिकित्सा करता है। विचार छोडकर देखना यही चाहिये कि सत्य के अधिक निकट कौन है और किसके जरिये पहुंचा
देशकाल वस्ल जानेपर चिकित्सा की औपध' जासकता है। कल्पना या भावना के जरिये सत्य
बेकार होसकती है, अब अगर तर्क उसे बेकार की तरफ गति नहीं होती या नाममात्र की होती
सिद्ध करता है तो उससे क्यों घबराना चाहिये ? है, किन्तु तर्क के जरिये उससे हजारो गुणी
धर्म ने अपने देशकाल के अनुसार काफी काम होती है।
किया, उसके दृष्टिकोण के अनुसार अगर आजका
देशकाल देखकर कुछ अदलबदलकर काम करना -कुछ लोग तर्क के विरोधी इसलिये हो
पड़े तो इससे धर्म का स्या नुकसान है ? तर्क तो जाते हैं कि उससे उनके धर्म का खण्डन होने लगता है। धर्मपर तो उनका अटल विश्वास होता पास लेजाता है, इस कारण तर्क से वेश क्यो.'
इस काम मे उसे सहायता देता है, युगसत्य के है और उसे कल्याणकर समझते हैं इसलिये जव
करना चाहिये ? तर्क उसका भी खण्डन कर देता है तब वे तर्क के निन्दक बनजाते हैं। पर इस विषय में उनकी ५-थोड़ा बहुत धोखा खाने की सम्भावना, भूल यह होती है कि वे धर्म और धर्म के बाहरी हरएक प्रमाण में है। सब से जबर्दस्त प्रमाण जो उपकरणों के भेद को भूल जाते हैं। समान के प्रत्यक्ष कहा जाता है उसमें भी मनुष्य धोखा ख जीवन को सुखमय बनाने की स्वेच्छा-प्रधान जाता है । साप को रस्सी या रस्सी को साप सम व्यवस्था का नाम धर्म है। धर्म के खंडन के नाम- झता है। सौर जगत् की दृष्टि से स्थिर सूर्यपर इसका खण्डन प्रायः नहीं किया जाता। बलवा हुआ देखता है। सूखी बालू में पानी किन्तु इस व्यवस्था को टिकाने के नामपर जो का ज्ञान कर जाता है, इत्यादि । इसीप्रकार कमी मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालनेवाली कल्पनाएँ की कभी मनुष्य में तके भी धोखा खाजाता है। पर जाती हैं उनका खण्डन किया जाता है। जैसे- प्रत्यक्षमें धोखा खानेसे जिसप्रकार हर प्रत्यक्ष हिन्दूधर्म के खण्डन के नामपर उसके पितृलोक अप्रमाण नहीं मानता प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षामास )
आदि की व्यवस्थाएँ, पौराणिक कथाएँ आदि भेद करता है उसी प्रकार अगर तर्क में धोखा खण्डित की जाती है, जैनधर्म के नामपर उसके खानाय तो उसे भी अप्रमाण नहीं न लाख योजन के ऐरावत हाथी, जम्बूद्वीप आदि चाहिये । तर्क और तकौमास का भेद करन की विचित्र कल्पनाएँ, समवशरण आदि के चाहिये । तर्क को प्रमाण और तक मास को श्रम
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1. २६ /
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भाग मानना चाहिये ।
६- यद्यपि कहीं कही तर्क की जांच प्रत्यक्ष से करना पड़ती है परन्तु उससे भी अधिक तथा महत्वपूर्ण स्थानो मे प्रत्यक्ष की भी जाच तर्क से करना पड़ती है। क्योंकि प्रत्यक्ष तो किसी एक जगह और एक काल में होता है इसलिये उसमे धोखा खाने की सम्भावना अधिक है परन्तु तर्क तो सैकडो प्रत्यक्ष के आधार पर खड़ा होता है, त्यसैक(स्थानो के और सैकडो समयो के होने से काफी जमाये हुए होते हैं इसलिये उनके प्राधार से जो निर्णय होता है वह काफी विश्वसनीय, किसी एक समय के प्रत्यक्ष से भी विश्वसनीय होता है।
कल्पना के दारा मनुष्य लोक परलोक
1
भवि, यह वहा चाहे निर्णय का मस्ता भोगापरक जगाने के लिए अनुभव दिव्यज्ञान, योगअज्ञान, अन्तरिक प्रत्यन, केवलज्ञान आदि नाम है, पर सत्य के भागे में इनका मूल्य कुछ नहीं के बराबर है। सत्य as नहीं real | पर ये बी कि कल्पना है। कुछ लोगो ने यह करना की कि एक मनुष्य aria aya को a Ranara Harana arन लेता है। नर्कने कहा कि भूतकाल की राजना तभी कहा जाता है अ स्वाकों में से सबसे पहिली जाय, परन्तु प
७- भावना और श्रद्धा का स्थान काफी ऊँचा है, पर भावना और कल्पना को एक न समझना चाहिये। भावना और श्रद्धा कल्पना का भी सहारा ले सकती है और तर्क यादि का भी सहारा ले सकती है। भावना और श्रद्धा को सम्राज्ञी के समान समझना ठीक है क्योंकि
से पहिली वस्त्र मानी नहीं जामकती तत्र जानो कैसे आयी इनकी प्रतिग पर्याय कोई मानी नहीं जासकती. तब उसे भी कोई नहीं जान सकता त भूमय की
मानव जीवन की गति भावना और श्रद्धा के अनुसे कोई पूरे पदार्थ को कैसे जान सकता है
सार होती है, पर तर्क को उस दास न समना चाहिये किन्तु मन्त्री समझना चाहिये । दास का काम मालिक की इच्छा के अनुसार नाचना होना है, जब कि मन्त्री का काम मालिक के हित के अनुसार सलाह देना होता है । सान्ता माना मालिक के हाथ में है । परन्तु मालिक का अधिकार विशेष होने से मन्त्री की विशेष योग्यता उसे नहीं मिलजाती । इसलिये निर्णय करने में तर्क को प्रधानता देना चाहिये ।
इस कार ऐसी सर्वक्षता सिया है। ऐसी झूठी वातो को अन्धश्रद्धादि के कारण टिका भजे ही लिया जाय पर वस्तव में मी बातें दुनिया की बडी से घटी झूठ है।
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- यद्यपि कल्पना का स्थान तर्क से विशाल हे परन्तु उसमे प्रामाणिकता न होने से उसका हल्के के सामने न के समान है । कल्पना में तथ्य का विवेक नहीं रहता, सर्फ अपनी आशा को पूर्ण करने की इच्छा ही है। जैसे सपने में अमृत पीने की अपेक्षा विकता का सावार भोजन अधिक मूल्य मन है उसी तरह कल्पना के स्वप्नों की अपेक्षा र्क की वास्तविकता अधिक मूल्यवान है ।
setore faareera की बहुतसी चानें है, जिन्हें लोगो ने दिव्यज्ञान आदि के नाम
से
मानलिया है पर तर्क ने उनका अनेक तरह से खंडन कर दिया है। तकसे खंडित होनेपर भी किसी बात को अनुभव या प्रत्यक्ष कहना गलत है, ये सिर्फ कल्पनाएँ हैं ।
बहुत से लोग इन कल्पनायो को अनुभव श्रादि का विषय बहुकर कहा करते हैं कि ये बाने तर्कका विषय नहीं हैं। पर यदि ये तर्क के विषय न होती तो तर्फ स ति कैसे होजाती
तो
यह है कि जो वात अनुभव के क्षेत्र के बाहर है उसे तो अनुभव का विषय कह दिया जाता है और जिसका तर्क से खडन होजाता है उसे तर्क
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के बाहर कह दिया जाता है । एक आदमी मनमे कुछ विचार रहा है, हम उसकी विचारधारा को उसके अनुrear for कहने, सम्भवत: कोई बाह्यचिन्ह न मिने से तर्क का अविप कहते तो यह ठीक हैं परन्तु भूत भविष्य तथा अत्यन्त दूर के कारण परोच वस्तुओं को, जिनके प्रत्यक्ष करने का कोई माध्यम ही न हो, और fara faran fear frन्न लोगो या मतो की भिन्न-भिन्न मान्यता के कारण कल्पना के सिवाय faast कोई कारण समझ न श्राता हो, उन्हें अनुभव के नामपर कैसे माना जासकता है। और तर्क से ग्डत होजानेपर भी तर्क क्षेत्र के बाहर कैसे कहा जा सकता है । मतलब यह कि ये सनकनाएँ है । तर्क के आगे इनका कोई मूल्य नही । इनके आधार पर कोई भावना या श्रद्धा खड़ी होगी तो उसका भी मूल्य तर्क के श्रधापर खड़े होने की अपेना नहीं के बराचर होगा |
सत्य की दृष्टि से जिसका मूल्य न हो. उसका क्षेत्र यदि विशाल हो, निर्णय शीघ्र से शीघ्र हो तो भी किस कामका १ क्योकि वास्तव मे तो वह शून्य के बरावर ही हुआ ।
६ – कल्पनाएँ तो अप्रामाणिक है उनकी बात छोड़ दो जाय, इसके बाद बाकी सत्र प्रभा गोमे तर्क का क्षेत्र विशाल है । यद्यपि सभी ज्ञानो का मूल प्रत्यक्ष है इसलिये तर्क का मूल भी प्रत्यक्ष है परन्तु प्रत्यक्ष भूत-भविष्य के तथा देशान्तरित पदार्थों को नहीं जान सकता, जब तर्क उन्हें जा सकता है इसलिये पियकी दृष्टिसे तर्क से भी विशाल है । यों कहना चाहिये fear प्रत्यक्ष का फैला हुआ प्रकाश है।
1
१० - - तर्क की महत्ता बतलाने का मतलब यह नहीं है कि श्रद्धा की महत्ता कम की जाय । तर्क और श्रद्धा दोनों ही जीवन के लिये श्रत्यु पयोगी है। इतना ही नहीं अगर सत्येश्वर के भार्ग में चलना चाहे तो दोनों का परस्पर सहा - चक होना आवश्यक है । अन्यथा तर्कहीन श्रद्धा श्रद्धा होने के कारण कुत्र काम न कर
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सकेगी बल्कि कुपथ मे लेजायगी, और श्रद्धाहीन तर्क कोरी कसरत होगी। इसलिये जरूरत इस बात की है कि कल्पना, या रूढ़ि आदि के आधारपर श्रद्धा को खड़ा न किया जाय उसे तर्क के याधारपर खड़ा किया जाय। हा । यथाशक्य तर्क का उपयोग करने के घाट मनुष्य को श्रद्धा का सहारा अवश्य लेना चाहिये । क्योंकि श्रद्धा की स्थिरता के बिना ज्ञान का उपयोग नही होता ।
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११ - - कल्पना भावना सम्भावना अनुभव तर्क श्रद्धा इन शब्दो का ठीक ठीक अर्थ उनका उपयोग आदि जान लेने से इस प्रकरण को समझने में बहुत खुसीता होगा।
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कल्पना [ फुडो ] इसका वस्तुस्थिति से सम्बन्ध नहीं होता, संस्कार में जमे हुए चित्रों को रुचि अनुसार जोड़ तोडकर या गुणाकार कर इसका निर्माण किया जाता है । सत्य के मार्ग में इसका कोई उपयोग नहीं ।
1
भावना [भावो ] यह एक विचार है जो कल्पना सरीखा निराधार नहीं है, पर प्रमाण के आधारपर भी नहीं खड़ा है। इच्छा या रुचि की प्रगट करता है।
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सम्भावना ( माची) यह तर्क का हल्का रूप है। इसमें किसी न किसी हेतु से किसी I वात के होने की आशा की जाती है। तर्क के समान निश्चित सम्बन्ध न होने से इसपर पूरा विश्वास तो नही किया जासकता पर कांधे से ज्यादा किया जासकता है । कभी कभी इसका नियत सम्बन्ध ऐसा व्यक्त होता है कि शब्दों नहीं कहा जासकता ।
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1
"अनुभव [इhिai ] इसका अर्थ है वा वार की घटना से कुछ विचारपूर्ण शिक्षा लेना | सावारण प्रनुभव करने से यहां मतलब नहीं है । जिससे मनुष्य अनुभवी कहलाता है उसीसे यह मतलब है । यह सम्भावना से भी अधिक प्रामाणिक है। तर्क के पहिले नाना प्रयोगांसे जो अनुभव होता है उसीसे तर्क को जीवन मिलता है।
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तर्क (डम्मो) अनुभवों के आधार से इसप्रकार विचारकता, 'प्रहीनता और पदार्थों के परस्पर सम्बन्धों का जब पूर्ण निश्चय प्रमाणालान के सहयोग से मनुष्य को परीनक होजाता है तब तर्क होता है । इसकी प्रमाणता धनकर सत्येश्वर का दर्शन करना चाहिये । अपर की सब बातो से अधिक है।
३-समन्वयशीलता (शा) श्रद्धा (गाशो) यह विचार की सीनिपता और परीकता के बाग मनुष्य स्थिरता है जिसके सहारे मनुष्य विचार को कोसत्यदर्शन की सामग्री मिल जाती है। परन्तु कार्यपरिणत करने के लिये नि:शंक बढता है। उस सामग्रीका तब तक टीकरीक उपयोग नहीं हो इसका अधिकार सब से अधिक है। यह कल्पना सकता जब तक उसमे समन्वयशीलता न हो। भावना सम्भावना अनुभव तर्क प्रत्यक्ष आदि मकान बनाने की सब सामग्री किसी के पानी, किसी का सहारा लेसकती है । यह जिसका पर किस सामान का कहा कसा उपयोग है. इस सहारा लेगी उसीके अनुसार कार्य किया बात का पता न हो, तो सम सामग्री रहन हा भी जायगा । इसलिये इसका अधिक से अधिक मकान न वनगा । यह बात मानसामग्री के बारे महत्व है। श्रद्धा न हो तो तर्क भी बेकार होगा. में भी है। प्रमाण के द्वारा ठीक ठीजानकी श्रद्धा हो तो कल्पना के भी अनुसार प्रवृत्ति होने होजाने पर भी किस मामग्री का कत्र कहा कैसा लगेगी भले ही उसका फल कुछ भी न हो, इस- उपयोग है यह पता न हो तो मानसामग्री भी लिये आवश्यकता इस बात की है कि श्रद्धा को सफल न होगी । समन्वयहीन जानकारी म
अधिक से अधिक परामाणिक आधारपर खडा तश्य होसकता है पर सत्य नहीं। समन्वय के किया जाय।
द्वारा तथ्य सत्य वनजाता है, अर्थात् कल्याणइन ग्यारह वकन्यो से तर्क के ऊपर काफी
कारी बनजाता है। समन्वय सत्याशी को ठीक प्रकाश पड़ता है। कल्पना से उसका भेद, उसकी
रूप में मिलाकर कल्याणोपयोगी चीज सैयार कर स्थिरता, श्रद्धा से अनुकूलता प्रादि बातों का पता देने का नाम समन्वय नहीं है यह तो समन्वयाः
देता है । भूठी सच्ची बातो को किसी तरह मिला लग जाता है । इस विश्वको समस्याओं को सुल- मास (निशत्तो) है। सत्याश को ठीक तरस माने के मार्ग में बढ़ानेवाला तर्क ही है । प्रत्यक्ष यथास्थान बैठाकर, सत्य का अंग बनाकर, पाल्यातो रास्ते में गड़े हुए मील के पत्थरों की तरह खोपयोगी बनादेशा ही समन्वय हे । हमें सूचना ही देता है। वाकी सब काम तर्क का है । इसलिये तर्क का स्थान विशाल है । वह
समन्वय करते समय समन्बयाहजारों प्रत्यदों का निचोड़ होने से अधिक उप
भास (निशत्तो) से बचते रहना चाहिये । योगी है। अन्धश्रद्धा के कारण या प्राचीनता
इसीलिये साधारण सा का और परिस्थिति के कारण अपनी पुरानी मान्यता प्रो को सुरक्षित
विशेष का विचार करना आवश्यक है। कोई रखने के लिये तर्क का विरोध न करना चाहिये।
चीज ऐसी होती है जो सामान्यरूप में फल्याण
काली है और जिस अवसरपर उसका उपयोग इस प्रकार प्रमाण ज्ञान से मनुष्य को किरा जारहा है उस अवसरपर भो कल्याणकारी परीक्षकता की कसौटी हाथ लगती है । परमाण है इसे उभय-कल्याणकारी, उमर-सत्य, कहना ज्ञान न हो तो प्रमाणो के बलावल का पता न चाहिये। जैसे उसका समन्वय उभय-समन्वय लगे थौर उसके रिना मनुष्य निर्णय न कर सके, (टुम शत्तो) कहलाया पेली में है। साधाइसलिये प्रमाणो के वास्तविक स्वरूप, उनका रणत. मैत्री धर्म है और जिस प्रादमी से हमें बलायल, 'अवसरपर उनकी उपयोगिता आदि मैत्री करना है वह भी मैत्री का पात्र होने से को समझार परीक्षक बनना चाहिये। उसकी मैत्री से स्वपर-कल्याण होनेवाला है इस
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दृष्टि से यह अवसर पर भी सत्य है, इसलिये वत्सलता मैत्री व्या आदि की भी बात है। मात्रा इसे उभय-सत्य (टुमसत्य ) कहेगे। से अधिक होनेपर जीवन में इनका समन्वय नहीं
पर भी प्रसर आते हैं कोर्ट होपाता है। सामान्यसत्य किसी विशेष परिस्थिति में असत्य पर जो वस्तुओं का समन्वय बताया गया (प्रकल्माणकारी ) होजाता है। जैसे मैत्री करना है उसमे परिस्थिति का विचार मुख्य है इसलिये सामान्य सत्य है पर किसी से दुर्जन से मैत्री यह समन्वय पारिस्थितिक समन्वय (लंजिलकोजाग जिसकी संगति से चरित्रपनन को सम्मा- शतो) कहलाया। समन्वय का गही तरीका श्रेष्ठ वना हो तो - सी मैत्री असत्य होजायगी । ऐसी है। इस समन्वय को भुलाकर हम ऐतिहासिक अवस्था में मैत्री का सामान्यप में ही समन्वय घटनाओं को ठीक ठीक नहीं समझ सकते । जिन (पासवतो )शिया आमकता है उम विशेष अव- दिनो अन्न पैदा न होता हो, जगलो को मिटाकर सर पर नहीं।
काफी मात्रा में खेती के लिये जमीन न निकाली कभी कभी से वसा भी धाते जान गई हो, जंगली जानवरो के कारण खेती की रक्षा सासन्य रूप में अकल्याणकारी बात विशेष छाशक्य ाय हो, उन दिनों लोग जंगली जानवगे अवसरपर कल्याणकारी होसकती है। जैसे को मारते हो यह स्वाभाविक है। पर जब परिअभिमान करता अकल्याणकारी है पर जो व्यक्ति
स्थिति वदलजाय जमीन काफी हो, अन्न काफी अत्यन्त घमण्डी और नम्रता का दुरुपयोग करने
हो, जंगली जानवरो का उपद्रव न हो तब जानवाला हो, उसके सामने अावश्यक घराण्ड बनाना
वरी को मारना अनुचित है। इन परिस्थितियों मत्य है इसलिये इसे सामान्य सत्य न कहकर
को भुलाकर हम एक परिस्थिति में रहकर अपनी अवसर-सत्य कहना चाहिये। इसका समन्वय
परिस्थिति को कसौटी बनाकर दूसरी परिस्थिति अबसर-समन्वय (चसशत्तो ) कहा जायगा।।
के कार्यों की निन्दा करें तो यह अज्ञान कहा
जायगा। पारिस्थितिक समन्वय से सत्य का जो जिस रूप में सत्य है उसका उसी रूपमें दर्शन होता है। इसके कारण हम दूसरे युग के समन्वय करना चाहिये। अन्य रूप में समन्वय सत्य की न निन्दा करते हैं, न उसका अन्धानुकरना निशत्तो ( मिथ्या समन्वय ) है। करण (मोलुक लुचो) करते हैं न अपने युग के
जो बात सामान्य रूप में भी असत्य हो सत्य को भुलाते हैं। और जिस अवसरपर उसका उपयोग होरहा है
कुछ लोग वस्तु या अर्थ को भुलाकाश-दो । उस रूप में भी असत्य हो उसका समन्वय करना को पकड़कर समन्वय का डौल करते हैं । वे अनुचित है। जैसे जातिपाति मानना सामान्य शब्दो का अर्थ बदलकर प्रकरण-संगत सम्भव रूप में असत्य है और अाजकल भी अकल्याण- अर्थ को छोडकर आवश्यकता के अनुसार अर्थ कारी है इसलिये यात्र उसका समन्वय नहीं करके समन्वय करते हैं । यद्यपि इस समन्वय में किया जासकता।
भी बात कल्याणकर ही कही जाती है फिर भी कभी कभी किसी चीज का समन्वय मात्रा वह विश्वसनीय नहीं होनी । अर्थ बदल देने से के आधार से होता है। अतुक माना मे किसी एक तरह से वह शब्द का ही समन्वय होता है। बात से लाभ होता है अधिक मात्रा से नुकसान जैसे कि कोई गोवध को श्रावश्यक बतलाये तो होना है। लाभप्रद मात्रा को समन्वय माना गो का अर्थ गाय न करके इन्द्रिय करना सिर्फ (शतो उंटो) कहते हैं। जैसे भोजन करना शद-समन्वय हुआ, वास्तविक अर्थको छोड देने अच्छा है पर पचने की शक्ति से अधिक कर से अर्थ समन्वय न हुआ । लिया जाय तो हानिप्रट होजायगा। इसी तरह इसकी अपेक्षा यह कहना कि गोवध (नाय
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का वध ) है तो अनुचित, परन्तु जिसदेश में १-सयुक्तिक [इम्मिर ] जिसमे शट के रेगिस्तान होनेसे ऊंट की अपेक्षा गाय की उपयो अर्था बदलने मे ऐसी कोई युक्ति तर्क हो जिससे गिता कम है, और भरपूर वनस्पति न होने से शव का अर्थ बदलना उचित और अनिवार्य मासमक्षण किया जाता है वहा गोवध तन्तव्य हो, वह सयुक्तिक शट-समन्वय है । जैसे 'अमुक है, आज इसकी यहां कोई जरूरत नहीं तो यह व्यक्ति ने नई दुनिया बनाई इस वाक्य मे अर्थ-समन्वय या पारिस्थितिक-समन्वय कहला- दुनिया का अर्थ समाज-रचना करना आदि यगा । इसमे विश्वसनीयता अधिक है, विद्वानोको अनिवार्य है, क्योकि आदमी पृथ्वी ग्रह नक्षत्र भी इससे सन्तोप होता है।
आदि नहीं बना सकता । इसलिये यह सयुक्तिक शन-समन्वय में तरह तरह से, लक्षणा शब्द-समन्वय कहलाया। लेप रुपक आदि से अर्थ बदला जाता है इस- र-अयुक्तिक (नोडम्मिर) जिसमें शद लिये वास्तविकता को चाहनेवाले लोग सन्तष्ट की अर्थ बदलना सयुक्तिक न हो, सिर्फ किसी नहीं होते, बल्कि मजाक उडाते है।
कारण से वह अर्थ हमे पसन्द नहीं है इसलिये ___ हा । जहा अमिधा अर्थ सम्भव न हो वहा ।
किसी दूसरे ढंग से श्लेष उपमा रूपक आदि से
___ अर्थ बदला जारहा है । जैसे गोवध का अर्थ कता । जैसे-हमें नई दुनिया बनाना चाहिये, यो विचार करने से गोवध अशक्य, या असगत
लेप के द्वाग इन्द्रियवध करना। इतिहास पर अमुक व्यचिने नई सृष्टि की। यहा दुनिया नदी माला होता. ऐसी हालत में उसका अर्थ बनाने का अर्थ सूर्य ग्रह नक्षत्र आदि बनाना ,
बदलना सयुक्तिक नहीं कहा जासकता। सम्भव नहीं है, इसलिये लक्षणा से यही अर्थ लेना पड़ेगा कि नई समाजव्यवस्था करना कुछ ऐसे अयुक्तिक शट-समन्वय होते हैं चाहिये। यह समन्वय ठीक है। यद्यपि इसमे जिन्हें सिर्फ अयुक्तिक न कहकर प्रत्ययुक्तिक शम का अर्थ बदला गया है अभिधेय अर्थ से (मेनोडन्मिर ) कहना चाहिये । इनमे अर्थ लक्ष्य अर्थ लिया गया है फिर भी इसे अनुचित
बदलने के लिये लक्षणा का तो विचार किया नहीं कह सकते क्योंकि लक्ष्य अर्थ ही यहां
ही नहीं जाता किंतु लेप के लिये कोष का भी वास्तविक अर्थ है।
ध्यान नहीं रखा जाता, उपमा श्रादि से अर्थ
बदला जाता है अथवा एकाक्षरी कोष का सहारा इसप्रकार समन्वय दो तरह का होगया।
लेकर अर्थ वदला जाता है। जैसे-'पुराने समयमें १-पारिस्थितिक-समन्वय (लंजिजशतो) आर्य लोग अग्नि की उपासना करते थे। इति
२-शत-समन्वय (ईक शत्तो ) इसमे हाम की इस सिद्ध बात को बदलकर यह अर्थ वर्ष बदलने के लिये कान्य के अलंकारों (लेप करना कि "वे अग्नि की उपासना नहीं करते उपमा रूपक श्रादि) का उपयोग किया जाता है, थे किंतु ध्यान लगाते थे। ध्यान का अर्थ अग्नि इसलिये इसे पालंकारिक-समन्वय ( भायहरं है। अग्नि जैसे कचरे को था मैल को जलाती है शत्तो) भी कहते हैं। परन्तु शत-समन्वय नाम उसी प्रकार ध्यान भी आत्मा के मैल को या पाप सरल और अधिक ठीक है क्योंकि इसमें शब्द का जलाता है इसी ध्यान को अग्नि कहा गया पी प्रधानना है।
है। इसलिये अग्नि की उपासना अर्थात् ध्यान ऊपर इन दोनों समन्वया का विस्तात विवे की उपासना अर्थात् ध्यान करना चन किया गया है।
.इसप्रकार की स्वींचतार करने से शाद शत ममन्वय भी दो तरह का होता है। निरर्थक होजाते है क्योकि इस तरह जिस चाहे १-मगुमिका र अफ्रिका
धाक्य का जैसा चाहे अर्थ किया जासकेगा।
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उपमा रूपक आदि की कोई सीमा नहीं है, और उपयोग करना चाहिये । उनका वस्तुस्थिति से इतना सम्बन्ध नहीं होता, २ सयुक्तिक शढ-समन्वय (डम्मिर ईक जितना हमारी इच्छा या कल्पनाओं सं । इस शतो) भी उपयोग में लाया जासकता है। पर लिये से अथों का तब तक कोई उपयोग न उसकी सयुक्तिकता काफी स्पष्ट हो। करना चाहिये जर तक सीधा अर्थ लगाने मे
३-अयुक्तिक शब्द-समन्वय (नोडम्मिर कोई प्रामाणिक बाधा न हो।
इक शत्तो) का उपयोग न करना चाहिये । इनका एकाक्षरी कोय का उपयोग करके अर्थ बद- उपयोग काव्य चमत्कार दिखाने में है वस्तुस्थिति लना भी इसी तरह व्यर्थ है। अगर कहा जाय के निर्णय में नहीं। एकाधवार कदाचित् इससे कि पुराने जमाने में लोगों को प्राकृतिक शक्तियों सत्प्रेरणा दी जासके पर तरीका गलत होने से के बारे में बहुत अज्ञान था" इसका सीधा अर्थ लाभ से अधिक हानि है। समझदारो के सामने यही है कि उन्हें जानकारी नहीं थी। पर अज्ञान विश्वासयोग्यता न होने से एक बात के कारण का ईश्वरीय ज्ञान अर्थ करना, और कहना कि दस बातें अविश्वसनीय होजाती हैं। इसलिये उन्हें प्राकृतिक शक्तियों का ईश्वरीय ज्ञान था, वस्तुस्थिति के निरूपण में इसका उपयोग कभी तो यह अन्धेर है। निःसन्देह एकाक्षरी कोपमें न करना चाहिये। 'अ' का अर्थ 'विष्णुः किया गया है (अकाये -प्रत्ययुक्तिक शब्द-समन्वय (मे-नोडवासुदेवःस्यात् ) इसलिये अ-ज्ञान अर्थात् 'अ'मिर ईक शत्तो) वो और भी बुरा है। विद्वानों का विष्णु' का ज्ञान कहा जासकता है । पर के सामने ही नहीं, किन्तु साधारण जनता के काव्य शास्त्र के चमत्कार के लिये जो बाते काम सामने भी इसकी अविश्वसनीयता प्रगद होजाती। मे लाने की है उन्हें इतिहास की कसौटीन है। बनाना चाहिये।
समन्वय दृष्टि आजाने से हरएक बात का _ समन्वय के इन भेदो को ध्यान में रखकर सदुपयोग होने लगता है। हमें समन्वय कार्य में निम्नलिखित भयोदात्रा का इसप्रकार निष्पक्षता परीक्षकता समन्वयपालन करना चाहिये।
शीलता से सत्येश्वर के दर्शन के मार्ग की बाधाएँ 1-पारिस्थितिक समन्वय (ललिजशत्तो) हटजाती हैं और सत्येश्वर का गुणदर्शन होजाता ही सर्वश्रेष्ठ है। समन्वय में मुख्यता से इसी का है। उससे सत्येश्वर की साधना होसकती है।
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दूसरा अध्याय ध्येय दृष्टि
अंतिम ध्येय (लुल नीमो ) निष्पक्ष परीक्षक और समन्वयशील बनने मनुष्य सत्यदर्शन की पात्रता आजाती है, BF से पहिले ना है वह है जीवन का ध्येय । जीवन का येय निश्चित होजानेपर मार्ग ढूढ़ने और समनेमे सुविधा होती है।
ध्येय और उपध्येय (नोमो श्रं फूनीमो ) जीवन का ध्येय यनेक शो में कहा जाता है। जैसे - वतंत्रता, मुक्ति, ईश्वरप्राप्ति, दु. सनाथ, यश, वैभव, सुख हि। अगर व्यापक और गहराई से farer foया जाय तो किसी भी ध्येय से मानव जीवन सफल होसकता है, फिर भी जब तक ध्येय और उपध्येयो को ठीक तौर से न समम्मलिया जाय मनुष्य के गुम राह होने की काफी आशंका रहती है। इसलिये 'तिम ध्येय और उसे पाने के लिये जिस जिस को पहिले प्राप्त करना हो वह उपध्येय तर से सम लेना चाहिये। ध्येय और रुपये में जहा विरोध हो वहा उपध्येय को areer air at rearraाहिये। इस दृष्टि से रहना चाहिये कि
問
गानप होषंगो
(नीमो लंको )
नही होती। एक आदमी नौकरी करता है तो हम पूछ सकते हैं - नौकरी किसलिये १ उत्तर मिलेगापैसे के लिये । पैसा किसलिये ? रोटी के लिये । रोटी किसलिये १ जीवन के लिये । जीवन किसलिये ? सुख के लिये । इसके वाद प्रश्न समाप्त 1 मुख किसलिये यह नहीं पूछा जाता इसलिये सुख अन्तिम ये कहलाया ।
गं
१ विश्ववर्धन हमारा ध्येय है।
ला
२- स्वतन्त्रता, मुक्ति, ईश्वरप्राप्ति, स्वर्ग, यदि उपध्येय हैं। ध्येय के लिये उपध्येय है इसलिये उपध्येय भोग से कमर कसते रहना चाहिये । उपायंग के लिये एम पृ सकते हैं कि वह किसयह पूने की जरूरत
पर
1
स्वतन्त्रता उपध्येय (सुच्चो फूनीमो ) प्रश्न -- ध्येय और उपध्येय के निर्णय की एक कसौटी यह है कि परस्पर विरोध होनेपर ध्येय के लिये उपध्येय का बलिदान कर दिया जाता है। देखा जाता है कि कभी कभी स्वतन्त्रता के लिये सुख का बलिदान कर दिया जाता है । अनेक जनसेवक या देशसेवक स्वतन्त्रता के लिये अपना सुख छोड देते हैं वे जेल और मृत्युदण्ड को स्वीकार कर लेते हैं पर स्वतन्त्रता को नहीं छोड़ना चाहते ।
उत्तर- इसमे ध्येय और उपध्येय का प्रश्न नहीं है किन्तु किसी एक ही बात की मात्रा कान है। यहा देश के सुख के लिये अपने सुख का
बलिदान है, देश की स्वतन्त्रता के लिये अपनी स्वतन्त्रता का बलिदान है। जो आदमी जेल जाता है उसकी स्वतन्त्रता चाहर रहने की अपेक्षा बिन ही जाती है, इसलिये देश के सुख के लिये यह स्वतन्त्रता का बलिदान कहलाया । खैर । इसे चाई स्वतन्त्र का बलान कहो, चाहे सुख का चलिगन कहो मुख्य बात में समाज के सुब के लिये व्यक्ति के सुख का दान है।
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जीवन में इसप्रकार के अनुभव चारचार है जिससे मालूम होता है कि स्वतन्त्रता के
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हाएका
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लिये सुख नहीं है, किन्तु सुख के लिये स्वतन्त्रता स्वतन्त्रता के नामपर लोग राष्ट्र के टुकड़े है। समाज के संगठन में व्यक्तियों की स्वतन्त्रता टुकड़े करने को उतारू होजावे हैं। भले ही उससे को थोड़ा-बहुत धका लगता है पा सहयोग के दोनों दुकडों के शासन-खर्च का बोझ असह्य सुख के लिये उतनी स्वतन्त्रता का बलिदान सभी होजाय, दोनो कमजोर होजायें, निर्वलता और लेग करते हैं। विवाह के द्वारा भी स्त्री और गरीबी से विकास रुकजाय इससे मनुष्य दुख की पुरुष को स्वतन्त्रता पर कुछ न कुछ अंकुश लगता ओर ही जाता है। इसी स्वतन्त्रता के नामपर वह है फिर भी परस्पर के सहयोग से मिलनेवाले मानवराष्ट्र बनाने में हिचकिचाता है। इससे सुम्ब के लिये लोग उतनी अस्वतन्त्रता को स्वीकार राष्ट्र-राष्ट्र के बीच में आर्थिक और राजनैतिक करते हैं। जो स्वतन्त्रता सामाजिक सख में बाधा द्वन्द होते हैं युद्ध और महायुद्ध होते हैं इससे पहुँचाती है उस स्वतन्त्रता की उच्छखलता कह- जगत नरक बनता है। इसलिये स्वतन्त्रता को कर निन्दा की जाने लगती है। इन सब बातों से विश्वसुम्ब के कुश में रखना चाहिये उसे अन्तिम मालूम होता है कि स्वतन्त्रता उपध्येय है सुख श्रेय नही, उपध्येय बनाना चाहिये। अर्थात् विश्वसुख ध्येय है 1 हो ! कभी कभी ऐसा शान्ति उपध्येय (शमो फूनीमो) " होता है कि गुलामी का दुश्व अत्यधिक होने से लोग जीवन तक देदेते हैं। इसका कारण प्राणियो
प्रश्न-शान्ति को जीवनका ध्येय माने तो ? का विकसित हृदय है। जो लोग खाने-पीने आदि
उत्तर-जो शान्ति, सुख के लिये उपयोगी के सुखा की अपेक्षा, मानसिक सपको अधिक है वही शान्ति उपयोगी कही जासकती है। पर्ण महत्त्व देते है, और गुलामी में मानसिक कष्ट शान्ति जीवन का ध्येय नहीं है। प्रलय में पूर्ण अधिक मालूम होता है वे भविष्य की निराशा
शान्ति है पर इसीलिये प्रलय की इच्छा नहीं जनक परिस्थिनि मे जीना पसन्द नहीं करते। होती। एक आदमी को ऐसे द्वीप में छोडदिया पर इसमे भी सुख-दुख का मापतौल ही मुख्य नाय जहा उस
जाय जहा उसे खाने-पीने की सब सुविधा हो, और अशान्ति पैदा करने के लिये दूसरा कोई
प्राणी न हो, तो आदमी ऐसे स्थान को पसन्द __ स्वतन्त्रता अगर सबके सुख के लिये उप- न करेगा। हाँ । जब मनुष्य ऐसे कोलाहल था योगी हो तभी उसका पादर किया जासकता है,
संघर्ष में पडजाता है जो उसे दुःखी कर देते हैं। सबके सख की उपेक्षा करके स्वतन्त्रता पर अधिक जोर दिया जाय तो जगत नरक की ओर बढ़ने
तब वह उनसे बचना चाहता है। इससे वह मर्या, लगे । व्यक्ति यह सोचने लगे कि कुटुम्ब बनाने में
दित या अमुक प्रकार की शान्ति चाहता है। पर
अब मनुष्य को खेल, कूद, क्रीडा, विनोद आदि में पराधीनता है इसलिये कुटुम्ब न वनाना चाहिये,
आनन्द आता है तब वह इन्हें पसन्द करता है, कुटुम्ब यह सोचें कि गाव का अंग बनने में परा- और उछल-कूट की इस अशान्ति को आवश्यक धीनता है इसलिये गाव न बनाना चाहिये, गांव समझता है। इससे मालूम होता है कि पर यह सोचें कि देश का अंग बनने में परावीनता शान्ति नहीं है, ध्येय सुख है । जब जहा जिसे है इसलिये देश न बनें, तो दुनिया में हैवानियत जितनी शान्ति सुख के अनुकूल मालूम होती है
और शैतानियत का ना नाव होने लगे। स्वत- तब वहा वह उतनी शान्ति को स्वीकार करता है, न्त्रता एक तरह की जुदाई पैदा करती है और सुख विरोधी शान्ति को अस्वीकार करता है। जुलाई से सहयोग टूटता है और सहयोग के मोक्ष उपध्येय (जिन्नो फूनीमो) अभाव में सब तरह के विकास रुकते हैं । इस- प्रश्न-मोक्ष तो अनन्त शान्ति है और लिये स्वतन्त्रता को सबके सुख से अधिक उसकेलिये मनुष्य अपने सर्वस्त्र का, जीवन महत्त्व न देना चाहिये।
सब सुखों का त्यागकर जीवनभर कठिन, स्या
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एक बार एक राजा ने अपने बड़े बगीचे के दो हिस्से करके दो मालियों को सौंप दिये। एक माली ने खूब श्रम करके बगीचे को अच्छा भरा पूरा बनाया, दूसरे ने वर्गीचे को तो उजाड़ दिया पर हर दिन तीन-तीन बार महल में जाकर राजा के सामने झुक-झुककर सलाम श्रवश्य की और कहता रहा 'हुजुर की गादी सलामत रहे ।' एक दिन राजा ने जब बगीचा देखा तो सलाम को पर्वाह न करनेवाले माली का बगीचा देखकर बहुत खुश हुआ पर सलाम करनेवाले माली का बगीचा देखकर बहुत नाखुश हुआ और कहा - 'कमवख्त, हर दिन तूने तीन-तीन बार कहा कि हुजुर की गादी सलामत रहे पर मेरा बगीचा बेसला मत कर दिया, अब हुजूर की गाडी क्या खाक सलामत रहेगी ? निकल यहा से इस प्रकार सलाम करनेवाले माली को उसने निकाल दिया ।
राजाने जितने विवेक का परिचय दिया, ईश्वर से उससे अधिक विवेक की आशा करना चाहिये ।
ईश्वर मानने का वास्तविक उपयोग यह है कि यह दुनिया ईश्वर का बगीचा है, उसे सलामत रखना ही ईश्वर की भक्ति है। और ईश्वर अन्धेरे में भी देखता है सदा देखता है, सर्वशक्तिमान है इसलिये उससे बचकर कोई निकल नहीं सकता, ऐसी हालत में कोई कितना भी ताकतवर हो, कितने भी छिपकर काम करे ईश्वर की नजर से बचेगा नहीं । इसप्रकार अन्याय आदि से बचे रहना और दुनिया का हित करना ही सच्ची ईश्वर भक्ति है। उसका नामस्मरण वगैरह कर्तव्य प्राप्त करने के लिये हैं । इसका विश्वको मुख्य ध्येय घनाना, और उसके साधन के रूप में उपध्येय मानकर ईश्वर भक्ति करना, ही ठीक मार्ग है। दुस्साभाव यश ध्येय (दुक्खनोलसो अशनीमो )
में
बहुत से लोगों का यह कहना है कि "संसार सुख कम हो या ज्यादा, इसकी चिन्ता नहीं है, चिन्ता इस बात की कि दु.स न हो। पर P संसार में दुग्न और सुख मिश्रित है। चिना
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दुःख के सुख नहीं मिलता ! भूख प्यास के कष्ट के बिना खाने पीने का आनन्द नहीं आता यो भी संसार में एक न एक दुःख प्राणी के पीछे लगा रहता है, उस दुख से अगर हम छूटना चाहें तो हमें सुख का भी त्याग कराना पड़ेगा। इसलिये हमारा ध्येय एक ऐसी अवस्था प्राप्त करना होना चाहिये जिसमें न सुख हो न दुःख । इसीलिये कुछ दार्शनिको ने मोक्षमे दु.ख और सुख दोनों का अभाव माना है । वही हमारा ध्येय रहे ।
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ग्रह मत ठीक नहीं है, क्योंकि यह एक तरह की जडता होगी। प्रणी को जो संवेदना होती है वह या तो दु.ग्वात्मक होती है या सुखात्मक, अथवा किसी में सुखदुख दोनो के अंश मिले रहते हैं अनुकूल संवेदना को सुख्ख कहते हैं, प्रतिकूल संवेदना को दुःख कहते हैं । ऐसी कोई संवेदना नही होसकती जिसमें नाममात्रका भी सुख या दुख न हो । संवेदना का अभाव होजाना एक तरह की बेहोशी है। अर्थात् चेतना का सुप्त हो जाना है। चेन होकर भी अन बनना जीवन का ध्येय नहीं है। सृष्टि और प्रलय में से सृष्टि का ही चुनाव करना चाहिये ।
हा । यह अवश्य है कि मनुष्य दुःख कम से कम करना चाहता है क्योंकि इससे उसका सुख बढ़ता है। इसलिये दुखाभाव को ऋश ध्येय कह सकते हैं। सिर्फ इतने से ही मनुष्य को सन्तोप नहीं हो सकता। हर एक क्षेत्रमे वह दुःखाभाव के साथ सुख चाहता है। वह यह चाहता है कि कोई अप्रिय आदमी उसके सम्पर्क में न श्राये, पर इस दुःखाभाव से वह सन्तुष्ट न होगा, चह यह भी चाहेगा कि प्रिय आदमी सम्पर्क में रहे. प्रिय 1दमी नहीं तो कोई प्रिय वस्तु यात्रिय विषय प्रपने सम्पर्क मे चाहेगा
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प्रश्न -सुसार मे दुःख ही धिक है, बहुत अधिक है, और सुख बहुत कम है, सी अवस्था में कितनी भी कोशिश की जाय दुज तो सुख से अधिक ही रहेगा । अगर दुःखाभाव को ध्येय बनाया जाय तो सम्भव है दु.ल के साथ सुख भी
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चला जाय । सो चला जाय । अगर सेर भर . २-जीवन की स्थिति और वृद्धि के लिये दुःख दूर होने से तोलाभर सुख भी दूर होता है जो जो कार्य प्राणी करता है उनमें भी अधिकांश तो क्या हानि है ? टोटल में तो लाभ ही है। मे आनन्द आता है। खाना-पीना शरीरस्थितिके उत्तर-संसार को अधिकदुःसमय मानना रखत, चबानेकी और पेट मे बोमजादनेको तकलीफ
लिये जरूरी है पर उनमे आनन्द आता है । साधा. भ्रम है । ससार में दुःख और सुख दोनो है और
हमे नहीं मालूम होती पर स्वाद का और तृप्ति दु.असे अधिक सुग्व है । किसी व्यक्ति विशेष की
का आनन्द मालूम होता है । वंशवृद्धि के लिये वात जुदी है सम्भव है उसके जीवन मे सुखसे
नरनारी सहवास की जो क्रिया जरूरी है वह भी अधिक दुःख हो पर साधारण प्राणी के जीवनमें और टोटल मिलाकर सारी प्राणिसृष्टि में दु.ख जीवन तो आनन्दमय है ही, पर जीवनस्थिति की
प्रकृति ने आनन्दमय बनादी है। इस प्रकार से अधिक सुख है। इसलिये दु.खसुख दोनों का जो क्रियाये हैं वे भी आनन्दमय हैं। अभाव कर देने से जगत् या प्राणिसृष्टि घाटे में ही रहेगी ! दुःखसुख की मात्रा जानने के लिये
३-सामाजिकता का आनन्द भी एक सुलभ निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य है- आनन्द है। कुछ लेन-देन का व्यवहार न भी
किया जाय पर एक दूसरे के सान्निध्य से ही १-जीवन ज्ञानमय है और ज्ञान सुग्वमय प्राणी को श्रानन्द आता है। इससे जो आशा है। जिन बातो के जानने से प्राणी को कोई निर्मयता आदि पैदा होती है वह प्रानन्द तो शारीरिक सुख नहीं होता उनसे भी उसे मान- विशेष है ही, पर भय का कारण न होने पर भी, सिक सुख होता है। एक बना किसी भी नवीन कोई आशा न होनेपर भी प्राणी अकेलेपन की चीज को देखकर किलकता है। नई चीज को अपेक्षा साथियों के साथ रहने में आनन्द का जानने का आनन्द ही एक निरपेक्ष आनन्द है अनुभव काते हैं। यह बात मनुष्यो में ही नहीं जो संसार मे भरा पड़ा है। देशाटन करने में देखी जावी पशुपक्षियों में भी देखी जाती है।। घर के बराबर आराम नहीं होता फिर भी नये यहा तक कि सजातीय प्राणी न मिलनेपर , नये अनुभवो और जानकारियों का आनन्द लेने विजातीय प्राणी तक से यह सामाजिकता पैदा । के लिये मनुष्य पैसे के खर्च की और शारीरिक होती है और उसमें आनन्द आता है । मनुष्य कष्टों की पर्वाह नहीं करता । नाटक सिनेमा कुत्तों से हरिणो से तोतों से तथा भिन्न-भिन्न देखने, खगोल भूगोल को कितावे पड़ने, कहानी तरह के पशुपक्षियों से निस्वार्थ प्रेम से सामाजिश्रादि सुनने में मनुष्य को शारीरिक आनन्द कुछ कता स्थापित करता है और आनन्द पाता है। नहीं मिलता फिर भी इनकी जानकारी से इसे दूसरे शब्दों में प्रेमानन्द कह सकते हैं। मन श्रानन्द रस से भर जाता है इसकेलिये वह यह भी ससार में भरपूर है। पैसे भी खर्च काता है, एक जगह बैठने का कष्ट ४-प्रकृतिने चौथा आनन्द रसानन्द भी भी उठाता है, निद्रा वगैरह न लेपाने का कष्ट भी रक्खा है। उसने पांच इन्द्रियों दी उनका उपसहता है फिर भी जानकारी के कारण अपने को योग जीवन टिकाये रखने में तो हुआ ही, साथ लाभ में समझता है । इस जानकारी के अन्य ही उनके विशेष विषयों से आनन्द का श्रोत भी परिणाम हो चाहे न हो इसकी पर्वाह किये बिना बहा। पाखो ने तरह तरह के सौदर्य का, जो ही प्राणी आनन्दानुमाव करता है । इससे मालूम प्रकृति ने मर रक्खा है, रस लूटा, खाद्य पदार्थों होता है कि ज्ञान आनन्दमय है, और जीवन मे नाना तरह के स्वादिष्ट रस भरे हुए हैं, फूलोंमे ज्ञानमय है इससे यह सिद्ध होता है कि जीवन सुगन्ध है, कोयल आदि का संगीन है, शीतल आनन्दमय है।
पवन है आदि समी इन्द्रियो के लिये असाधारण
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रसानन्द की सामग्री भरी पडी है इससे भी जगत श्रानन्दमय है ।
यह ठीक है कि इस रसानन्द के साथ कहीं कही विरता की सामग्री भी है पर चुनाव के साधन हमें प्राप्त हैं उससे हम रस सामग्री काफी सरलता से चुन सकते हैं, चुनते भी हैं। अगर कोई नही चुनता तो यह उसकी सुर्खता है प्रकृति का अपराध नहीं । रसोई घर में सुन्दर स्वादिष्ट सुपाच्य भोजन-सामग्री तैयार हो और कोई उसे न लेकर चूल्हे में से कोयला लकडी या राख निकालकर चबाने लगे और फिर कहे कि इस रसोई घर में बेस्वाद चीजें बहुत हैं तो यह उसका पागलपन होगा, रसोईघर का अपराध नहीं । इसी प्रकार प्रकृति के रसभण्डार मे से रस चुनना चाहिये। वस । फिर जीवन में आनन्द ही है।
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ये चार प्रचार के आनन्द ऐसे हैं जिनसे प्राणियो का जीवन ओतप्रोत है। अधिकाश प्राणियों का अधिकाश का इन्हीं आनन्दों में atter है । और यह आनन्द इतना अधिक है कि जिन्हें हम दुखी कहते हैं वे भी इन्हीं आनयों के कारण मरने को तैयार नहीं होते ।
५-इसके सिवाय यश, महत्व आदि के और भी आनन्द दुनिया में हैं। यद्यपि ये विरल हैं पर है। इन सब आनन्दो से यह बात साफ मालूम होती है कि संसार आनन्दमय है ।
७- दूसरा बड़ा कष्ट है वीमारी का । साधारातः यह कष्ट ऐसा ही है जैसा कि दिवाली के समय घर की सफाई आदि करने से होता है । बीमारी भी शरीर की सफाई है। जो सफाई प्रतिदिन होने से रहजाती है वह सत्र जुड़कर सालडोसाल से इकट्ठी करना पडती है। इसके बाद शरीर अच्छा होजाता है।
६-हा। इस घातको सुलाया नहीं जासकता कि ससार मे दुख भी हैं। उनमें से सब से वडा दुश्व मृत्यु का है जो कुछ क्षणों के लिये होता है। साधारणतः जीवन की अपेक्षा मृत्यु हुत कम होते हैं और
के
णी को न हो इसलिये प्रकृति 1 मरते समय प्राणी को बेहोश कर देती है। इतना
अधिक
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बेदना के समय प्रकृति प्राण को चेहोश कर देती है। इस म लिये साधारणतः मृत्यु का कष्ट चिन्तनीय नहीं अन्य जीवन के निर्माण रत्तण स्थानदान शादि की मे उपयोगी भी है।
BT | कोई कोई असाधारण बीमारियाँ होती हैं जोकि अधिकतर मनुष्य के अज्ञान लापर्वाही या असंयम का परिणाम होती हैं। पर ऐसी बीमारियों सौ में एकाध को होती हैं और इसमे मनुष्य को गलती या समाज की गलती अधिक तर होती है, प्रकृति का अपराध बहुत कम। इसलिये इसकेलिये भी हम संसार को दुःखमय नही कह सकते।
-कुछ प्राकृतिक कष्ट जरूर ऐसे हैं जिनकी जिम्मेदारी मनुष्यपर नहीं है जैसे बिजली गिरना, बाढ़ थाना, भूकम्प होना आदि । पर इनसे मनुष्य जाति इतना भी संहार नहीं होता जितना वीमारी आदि से होजाता है। लाखों में से एकाध आदमी पर कभी बिजली गिरती है, करो आदमियों में से दसपाच वर्ष में कुछ आदमी भूकम्प आदि से मरते । अन्य कारणों से जो दुख या मौते होती हैं उनके कुछ के समान है।
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६-मानव के सिरपर जो असली दुःख और अन्य कर्मों का भी जोर जिससे बढ़जाता वह है मनुष्यकृत गरीबी, बेकारी, अपमान, लूट, मारकाट, युद्ध, दूवेप ईर्ष्या, कृतघ्नता, असहयोग, आदि कष्ट ही जीवन के वास्तविक कष्ट हैं और इन कष्टों के जो वी कारण अन्य कष्ट बहुत बढ़जाते हैं या चढे मालूम होते हैं। पर इन सब कष्टों की जिम्मेदारी मनुष्य पर है, प्रकृतिपर नहीं। ये अनिवार्य इनपर विजय पाई जा सकती है और ये बिलकुल कम किये जासकते हैं।
नहीं है
पर प्राणिकृत और भी थोडे बहुत कष्ट मिलजायेंगे पर उनपर मनुष्य सरलता से विजय
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दृष्टिकांड
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पासकता है. यहत कुछ पा भी चुका है। जो लोग संसार को दुःखमय मानते हैं वे
१०-पर इन सब क का जोड लगाकर संसार के साथ अन्याय तो करते ही है, अगर भी इतना नहीं होता कि पहिले जो चार प्रकार कोई ईश्वर है तो उसे भी नासमझ या क्रूर क सुम्य बनाये गये है उनकी बराबरी कर सके कहते हैं (क्योंकि उसने ऐसा दुःखमय संसार या पासंग में भी उतर सके। ये सत्र दुःख होने बनाकर प्राणियोंके साथ अन्याय क्यों किया ) पर भी संसार में सुम्य इतना अधिक है कि और सत्य की भी अवहेलना करते हैं, पर सब संसार को दुःयमय नहीं कह सकते। से बुरी बात यह है कि वे एक ऐसे निराशावाद
बुध गृहस्पति आदि ग्रहो पर या का प्रचार करते है जिससे मनुष्य दुःख घटाने श्रादि उपग्रही पर निर्जीवता है । बुध और चन्द्र
और सुख बढ़ाने के काम में हताश शिथिल और पर तो हवा भी नहीं है इसलिये प्राणिसृष्टि भो
किंकर्तव्यविमूह होजाता है । जब दुःख को नहीं है । इसी कारण वहा कोई दुम्ब भी नहीं
संसार का स्वभाव ही मान लिया जाता है तब है। दुःयवादियों से कहाजाय कि क्या तुम पृथ्वी
आदमी यह सोचकर रहजाता है कि स्वभाव की को भी बुध या चन्द्र के समान या अग्निपिंड के
दवा क्या, संसार तो सुधारा नही जासकता,
इसलिये संसार से भागो। पर भागना तो इन समान जीव शून्य बनाना पसंद करते हो ? तो भगोडों के वश की बात नहीं है, भागकर जायंगे दुखवानी भी इसकेलिये तैयार नहीं होंगे साधा
कहा १ क्योकि बिना मरे भाग नहीं सकते और रण लोग भी इसी कारण मरने को तैयार नहीं
मरने से भी वह दुनिया उन्हें मिल नही सक्ती होते। इन सब बातों का कारण यही है कि
जो उनने कल्पना से गढ रक्खी है या किसी संसार में दुख की अपेक्षा सुग्व अधिक है। की कल्पना से मान रक्खी है, इसलिये भागने कभी किसी को थोड़ी देर को दुख की वेदना का डोलकर वे अपनी जिम्मेदारियो को छोडकर मलं ही अधिक हो परन्तु उसके बाद ही सुख सरों के बोझ बनते हैं, और जो शक्ति संसार की मात्रा काफी रहती है इसलिये उस दुःख को को सुख बढ़ाने और दुख घटाने मे लगाई जास. • वदोश्त करके भी लोग सुख की आशा में जीना कती थी उसे बेकार बर्बाद करते हैं। चाहते हैं। इसलिये संसार को हम दुखमय नहीं कह सकते।
प्रश्न-संसार को दुखमय मानने से दुःख
में एक प्रकार का सन्तोष होता है कि ससार तो ११-पर इसका मतलब यह नहीं है कि है इसलिये क्या किया जाय, दुखमय संसार मे जितना दुःख है उसे घटाने की और संसार में सख की आशा ही क्यों की जाय ! जितना सुग्घ है उसे वढाने की कोशिश न की यह सन्तोप भी एक नाम है जो संसार को दुःखजाय । प्रकृति ने जितने साधन तिथे है और मथ मानने से मिलता है। तव संसार को दुःखमनुष्य के पास जितनी विदा चद्धि है उनका भय मानना बुरा क्यो । पूग सदुपयोग किया जाय तो दु.ख नाममात्र उत्तर-सन्तोष तीन तरह का होता है। का रहजायगा और सुख कई गुणा होजायगा। -सुम्बसन्मोप, २-दु खसन्तोप, ३-भ्रमसन्तोष इसकालये इस दुनिया से भागने की जरूरत नही था वृथासन्तोप । पहिला उत्तम है, दूसरा मध्यम, है किन्तु आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक, तीसरा जघन्य ।। राजनैतिक, काति करके इस संसार को नया सुखसन्तोप-सुख या सुखसाधन प्राप्त होने संसार स्वर्गापम संसार बनाने की जरूरत है। से, सफलता प्राप्त होने से, या सफलता का मान ५सा धोनेपर अधिक से अधिक दु साभाव और होने से, सूख या सफलता की आशा से जो सुखवृद्धि होगी।
सन्धोष होता है वह सुखसन्तोष है। यही सन्तोष
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वास्तविक सन्तोष है और उत्तम है। कोयले चबाना और फिर यह सन्तोप करना कि
'कोयला तो संसार के सभी रसोईघरों में रहेगा दुःख सन्तोप-दुःख को स्वाभाविक, या ,
हो, वह हमारे ही क्या सभी के भाग्य में बढ़ा अनुपाय मानने से, या अपने समान दूसरों को
है इसलिये कोयला चत्राने की हमे चिन्ता क्यो भी दुखी देखने से जो सन्तोप होता है वह दुख
करना चाहिये तो यह मूर्खता होगी। जो संसार सन्तोप है । इसमें सन्तोष का कारण यह होता
सुखमय है और उससे भी अधिक सुखमय बनाया है कि मनुष्य सोचंता है कि दु.ख के कारण मैं
जासकता है, उसके थोड़े से दुख को और भी दूसरो से कमजोर अभागा था गयाबीता नहीं हूँ,
कम किया जासकता है, उसे दुखमय मानकर यह स्वाभाविक या अनिवार्य है इसलिये कोई कुछ नहीं कर सकता इसलिये मैं भी कुछ नहीं
निराश होजाना, भागने का बेकार डौल करना, करसकता, ऐसा दुःख सभी के पीछे पड़ा है सुखसन्तोप की जगह टु खसन्तोष करना, मुहर अाखिर में अकेला ही तो दुखी नहीं है। इस जुटाकर काड़ी का सन्तोप करना है। ।
कार दुख स्वाभाविक और सर्वसाधारण में . घाटे का यह व्यापार बन्द करना चाहिये व्यापक मानने से अपने गौरव की रक्षा होती है और संसार का जो वास्तविक रूप है उसका
और इस बात से एक प्रकार का सन्तोष होता विचारकर सुख बढ़ाने की और दुःख घटाने की है। जहां सुख-सन्तोष का अवसर न हो वहां कोशिश करना चाहिये। यह दुख-सन्तोप उचित है। सुख-सन्तोप की इन ग्यारह बातो से पता लगता है कि वगधरी तो यह नहीं कर सकता, फिर भी न कुछ संसार में दुःख सेरभर और सुख तोलाभर नहीं से कुछ अच्छा' इस दृष्टि से सुखसन्तोष के है कि दु.खाभाव के लिये सुख को भी छोड़ा अभाव में यह अच्छा है।
जासके। यह अगर सम्भव होता तो प्राणी घाटे भ्रमसन्तोप-जहां सन्तोप का कोई कारण म रहता। नहीं होता किन्तु मोह या अहकार से सन्तोष- . इसके सिवाय इस ध्येय में यह आपत्ति तो सामग्री के विषय में भ्रम होजाता है वह मूठा है ही कि मरने के बाद सुखदुम्बरहित ऐसी मुकाऔर व्यर्थ सन्तोष भम-सन्तोष या वृथा-सन्तोष वस्था सम्भव नहीं है जैसी कि कुछ दार्शनिकाने है। जैसे वो तो अपने प्राकृतिक कारणो से मानी है। । होती है कदाचित् उचित कारण न मिलने से कभी। . रुकजाती है तो टसपाच दिन बाद अनुकूल कारण
इसप्रकार दुखाभाव रूप ध्येय असम्भव मिलनेपर फिर होजाती है। ऐसे अवसरपर कोई
है और सम्भव हो तो इससे प्राणिजगत् घाटे में
र दिसपाच दिन भजन-पूजन मत्र या, अनुष्ठान करे
रहेगा। इसलिये ग्रह धेय स्वीकार नहीं किया
जासकता। और जब प्राकृतिक कारण से वर्षा होजाय तो कहने लगे कि मेरे भजन-पूजन मंत्र अनुष्ठान से
हा। जितना दुम्ब है उसे हमे घटाना है + वर्षा हुई है तो यह भ्रम-सन्तोप या पृथा-सन्तोप
और जितना सुम्व है उसे हमें बढ़ाना है, इस
प्रकार ध्येय के एक अंश रूप मे दुखामाव को भी कहलायगा । यह सन्तोप झूठा है। . इ
स्वीकार किया जासकता है, पर वह पूर्ण ध्येय ससार को दुःखमय मानने से दुख-सन्तोप नहीं कहा जासकता । पूर्ण ध्येय विश्वसुखवृद्धि अर्थात मध्यम श्रेणी का सन्तोप होसकता है। है. दुखाभाव उसका एक अंश है। पर सहापर उत्तम श्रेणी का सन्तोप अर्थात् सुख'सन्तोप होना चाहिये था वहां मध्यम श्रेणी का
सुख और पाप ( शिम्मो अंपापो) . । सन्तोष होना जीवन का घाटा है। जिस रसोई प्रश्न-जीवन के ध्येय में सुखपर अगर घर में म्यादिष्ट भोजन मिलसकता हो वहां इतना जोर दिया जायगा तो पाप और अत्याचार
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की मनुष्य को पर्वाह न रहेगी। हिसा झूठ चोरी आदि से भी मनुष्य सुखी होने की कोशिश करेगा ।
उत्तर --- पाप से सुख की वृद्धि नहीं होती, बल्कि सुख की वृद्धि मे घातक होने से ही कोई कार्य या विचार पाप कहलाता है। पाप से भी सुखी होने की जो बात कही गई है उसमे सुखपर पूरा विचार नहीं किया गया हैं। थोड़ी देर को किसी व्यक्ति को पाप भले ही सुखवर्धक मालूम हो परन्तु विश्वसुख की दृष्टि से पाप सुखघातक ही होता है। अगर कोई कार्य पापसरीखा दिखनेपर भी विश्वसुख घातक नही है तो समझना चाहिये कि उस अवसर पर वह पाप ही नहीं है। लो पाप है वह विश्वसुखघातक है, दुखवर्धक है। निम्नलिखित सूचनाद्योंपर ध्यान दूने से पता लगेगा कि पाप विश्ववर्धक नहीं है।
१- पाप थोडी देर के लिये ही सुखवर्धक मालूम होता है, बाद में उसका परिणाम बुरा होता है। इसप्रकार आगे-पीछे का टोटल मिलाने पर सुख की अपेक्षा दु.ख की मात्रा अधिक हो जाती है ।
२- पाप एकाध व्यक्ति को सुख देसकता है पर पाप का वह सुख दूसरों के कई गुणे दुःखपर अवलम्बित रहता हैं, इसलिये एक व्यक्ति का थोड़ा-सा सुख अनेक व्यक्तियों के कई गुणे दु को बढ़ाता है, इस प्रकार सब व्यक्तियों के सुखदु.ख का टोटल मिलानेपर उसमें दुःख का पलड़ा ही भारी होता है।
३ - हो सकता है कि किसी अवसर पर पापका दुष्परिणाम दिखाई न दे, या वह इतना थोडा हो कि किसी पर उसका असर ही न हो, पर उससे जो पापी की बिगड़ती है उसका दुष्फल एक दिन बहुत बड़ा होता है । इस प्रकार भविष्य की इस सम्भावना, अविश्वास दूषित मनोवृत्ति प्राटि के कारण विश्वसुख का घात ही होता है ।
४- पाप करते समय भी मनुष्य को दु.ख का काफी सवेदन करना पड़ता है। इसलिये
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पाप करना स्वयं एक दुःखप्रद कार्य है क्रोध के समय मनुष्य का संवेदन सुखात्मक नही दुःखात्मक होता है, चोरी करते समय जो भय होता है वह भी दुःख की ही अवस्था है। अज्ञान या असंयम के नशे के कारण इन दुःख -संवेदनों की तरफ मनुष्य ध्यान न दे यह बात दूसरी है, पर भी पाप से दुःख बढ़ता है। उसे ये सब भोगना पड़ते हैं जरूर । इस दृष्टि से
इन बातो से पता लगता है कि पाप विश्वसुखवर्धक नहीं है। विश्वसुखवर्धन का अर्थ हैसार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से अधिकतम प्राणियों का अधिकतम सुख । यही जीवन का ध्येय है । यह ध्येय पाप से पूरा नहीं हो सकता। पाप एक जगह सुख देसकता है पर जब जगह उससे अधिक दुख ही होगा, एक समय सुख ) देसकता है पर सब समय उससे अधिक दुःख उससे कई गुणे प्रखिया को उससे दुःख ही होगा, ही होगा, एक प्राणी को सुख देसकता है पर वह थोडासा सुख देसकता है पर परिणाम में अधिक से अधिक दुख ही देगा, इसलिये कहना चाहिये कि विश्वसवर्णन की नीति का पालन करने और उसे ध्येय बनाने से मनुष्य पाप के पथपर नही चल सकता | विश्वसुखवर्धन पर जितना जोर दिया जायगा, उससे पाप घटेगा | ही । उससे पाप को उत्तेजन नहीं मिल सकता ।
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निजसुख और सर्वसुख (एमशिम्मो अंपुंशिम्भो )
प्रश्न - प्रत्येक प्राणी खुद्द सुखी होना चाहता है दुनिया के सुख से उसे क्या लेना देना १ इसलिये आत्मसुख या आत्मोद्धार ही उसके जीवन का ध्येय होना चाहिये, विश्वसुख की परेशानी के चक्कर मे वह क्यों पड़े ?
उत्तर- विश्वसुख की नीति को अपनाये बिना प्राणी न आत्मोद्धार कर सकता है न सुखी हो सकता है। आत्मसुख या आत्मोद्धार प ध्येय बनाने से मनुष्य गुमराह होजाता है । वह आत्मसुख के नामपर ऐसे स्वार्थ के चकर से पड़जाता है कि स्वार्थ और परार्थ दोनों ही
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सत्यामृत
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चौपट कर जाता है। विश्वसुख को ४३य बनाने दोनो को सुख अधिक मिलजाता है। से आत्मोद्धार भी होता है और सर्वोद्वार भी एक आदमी गढ्ढे में गिरपड़ा हो और होता है, आत्मोद्धार पर जोर देने से आत्मोद्धार उसके निकालने का हम प्रयल करें तो हम कुछ भी नहीं होपाता और सर्वोद्धार भी नहीं होपाता। को होगा. पर जितना हमें कष्ट होगा उससे निम्नलिखित विवेचन से यह बात ध्यान में कईगुणा आनन्द उस आदमी को मिलजायगा । बाजायगी।
इस प्रकार सामूहिक रूप में संसार में सुख क यदि तम अपने सम्बको ही जीवनका ध्येय सम. द्धि होती है। माग ता दूसरमा अपन सुखका अपन बावन का जिस प्रकार एक वीज को मिट्टी में गिलाने ध्येय सममेंगे। तुम अपने स्वार्थके कारण दूसरेको से कई गणा बीज और फल मिलता है उसा. पर्वाह न करोगे,दूसग भी इसी प्रकार तुम्हारी पवोह प्रकार परोपकार रूपी वृक्ष के लिये हम अपन न करेगा। इस पारस्परिक असहयोग और लाप- सका जितना बलिदान करते है उससे कई वाही का परिणाम यह होगा कि संसारमें जितना सब दसरेको मिलता है। इसी प्रकार कभी सुम है उसका शतांश मात्र रह जायगा, और दुःख हमारा भी अवसर आता है जब हम दूसरे के मोगुणा बढजायगा। तब तुम्हारे हिस्से में भी
त्याग का फल पाते हैं इसप्रकार परस्पर के उपसख कम और दुःख अधिक पड़ेगा। जब संसार कार से सब सुखी होते हैं । में अधिक से अधिक सुन्य होगा तथ व्यक्ति को भी अधिक से अधिक सुख मिल सकेगा । सह. :
___कमी कमी तो हमारी थोड़ी सी भी सेवा योग से सुख चढता है और स्वार्थपरता से दुख . वढना है। यह कदापि न भूलना चाहिये कि ,
एक आदमी कुए में गिर पड़ा, उसके बचाने में दूसरी का सुम्ब बढ़ाने से अपने सुख बढ़ाने में
हमें जो कष्ट सहना पड़ेगा उससे हजारों गुणा
सुख उसके प्राण बचनेपर उसे मिलेगा। इस मदद मिलती है इसलिये कहना चाहिये कि
प्रकार अपने थोड़े से प्रयत्न से दूसरे को कई सुप या सर्वसुख में निजसुख है।
. गुणा सुख मिला और दूसरे के थोड़े से प्रयत्न से अगर मा-माप सोचते कि बालबच्चों के पालन-पोषण की तकलीफ क्यों उटाई जाय तो के हिस्से अधिक सुख पाया। इसलिये वहा
अपने को कई गुणा सुख मिला, इस प्रकार दोनों इसका परिणाम यह होगा कि मनुष्यजाति जाना चाहिये कि परसुख मे निजसुख है। वर होजायगी, और मा-बाप को भी बुढ़ापे में सवा करने को कोई न रहेगा। इससे मा-बाप
___मनुष्य जितने अंश में स्वार्थान्ध होचा है फाटलानेवाले भी परेशान होंगे और सन्तान कर उतने अंश में सुख कम पाता है। परस्पर के उपलानेवाले भी, इस प्रकार सारी मानवजाति का कार से, सहयोग से सब सुखी होते हैं। मानतो 'पता होजायगा, और उससे सभी दुखी होंगे। दो व्यक्ति ऐसे हैं जो बिलकुल जुद-जुदे रहते हैं, 'सुपमएटार को ष्टि से मनुष्यजाति कगाल हो- एक दूसरे को जग भी सहायता नहीं करते दोन
आयगी और दुग्म सैरहो गुणा बढजायगा। ही साल ग्यारह माह नीरोग रहते हैं और एक उसमय व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनेमाह शेमार । बीगारी में कोई किसी को सहायता पराप पा भगौणकर संसार में सुग्न बढ़ाने की नहीं करता : अब कल्पना कीजिये बिना परिचर्या पोशिश करे । दृमरे का उपकार करने में जितना के एक महीने तक बीमार रहनेवाला व्यक्ति उग में साना पड़ता है उससे शई गुणा सुख कितना दुना होगा । ग्यारह महीने की नीरोगता
गरे को मिलता है, इमीप्रसार हमारे लिये दूसरा का सुख भी उसके आगे फीका पड़ जायगा। बार नष्ट टाना है तो उसके दुःय में कई अगर वे धीमारी में एक दूसरे की सेवा करें तो गुप मुराग मिलना । इमामगार यानधागे से सेवा करने मे जितना कष्ट बढ़ेगा उससे दस गुणा
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सुष्टिकांड
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कष्ट दूसरे से परिचर्या पाने में घटनायगा। सेवा यदि यह मानलिया जाय कि जो कुछ होता करने के कष्ट की अगर दस मात्राएँ हो तो सेवा है वह मनुष्य के पुण्य पाप कर्म के उदय से ही पाने के श्रानन्द की सौ मात्राएँ होगी। इस प्रकार होता है, तो अपने कार्यों की जिम्मेदारी से हरदोनो ही दस-दस देकर सौ-सौ पाने से नम्वेनले एक आदमी बचजायगा। यदि चोर चोरी करता के लाभ में रहेंगे। मतलब यह कि प्रणी में स्वार्था- है तो कहना होगा कि उसने कोई बुराई नहीं न्धता जितनी कम होगी, परस्पर उपकार का की, क्योंकि जिसकी चोरी हुई उसके पाप-कमें प्रयत्न जितना अधिक होगा, सु.ख की वृद्धि के उदय से चोरी हुई, चोर बेचारे को तो निमित्त उतनी ही अधिक होगी। स्वार्थान्धता के कारण बनना पड़ा, जिसका खून हुआ उसका पाप-कर्म जो संघर्ष होता है उसकी छीनाझपटी में सुख उदय में आया, खूनी तो बेचारा निमिचमात्र पैदा ही नहीं होपाता, अथवा जो पैदा होता है बना। इस प्रकार जगत में लितने पापी है सब उसका बहुभाग मिट्टी में मिल जाता है अर्थात् वास्तव में पापी न कहलायेंगे, निमितमात्र कहनष्ट होजाता है। इसलिये स्वार्थान्धता जितनी लायेंगे। जैसे चोर को जेल जाने का दण्ड दिया कम हो, परोपकार और सहयोग जितना अधिक जाय तो चोर को जेल में बन्द रखनेवाला जेलर हो उतना ही अच्छा है। इससे समाज में सुख पापी नहीं कहलाता उसी प्रकार पाप-कर्म के अधिक बढ़ता है और हरएक व्यक्ति के हिस्से में उदय को भोगने के लिये चोर खूनी आदि बनकर अधिक पाता है। इसलिये मनुष्य का प्रयत्न जो पापोदय के निमित्त बनते है वे पापी सार्वदेशिक और सार्वकालिक दृष्टि चे यथासम्भव न कहलायेंगे। इस सिद्धान्त का परिणाम यह अधिक से अधिक सुख होना चाहिये । इसी को होगा कि संसार में कोई पापी न कहा जासकेगा। कसौटी बनाकर हम नीति-नीति का निर्णय तव दूसरी समस्या यह खड़ी होगी कि जब ससार कर सकते हैं।
में कोई पापी बनता ही नहीं, तब जिस श्रादमी ___ -परोपकार की कोशिश कितनी भी की चोरी हुई वह पहिले जन्म मे पापी कैसे बना की जाय, पर है व्यर्थ ही। क्योंकि हरएक प्राणी होगा ? जो भी उसने पाप किया होगा वह किसी जो सुख-दुःख भोगता है वह पूर्व पुण्यपाप के दूसरे को सताकर किया होगा, पर उसके सताने उदय से ! सो वह तो भोगना ही पड़ेगा, तब में तो पूर्वजन्म में भी वह उस दूसरे के कर्मोदय किसी के उपकार से क्या होने जानेवाला है' में निमित्तमात्र बना होगा इसलिये वह पापी ऐसी हालत में उपकार के मंझट मे क्यों पडना नहीं कहा जासकता। जब वह पापी नहीं तो चाहिये।
इस जन्म मे जो उसकी चोरी करता है वह किस
में बात में निमित्त बनता है १ पाप कर्म के उदय में उत्तर-राणी के पास पुण्य-पाप आता है
तो निमित्त बन नहीं सकता, क्योंकि वह पापी तो कहां से १ अमराणी किसी का उपकार करता है तत्र पुण्य होता है और जब किसी का अपकार
है ही नहीं। करता है तब पाप होता है। अगर उपकार अप. मतलब यह कि हर कार्य की जिम्मेदारी कार का कुछ अर्थ न हो तो पुण्यपाप भी न हो, यदि पूर्वजन्मके पाप-पुण्य पर डाली जाय तो तब भोगने के तिये पुण्यपाप कहां से आयगा। जगत् में पुण्य-पाप को व्यवस्था हीन बने। यदि उपकार करने से पहिले जन्म मे हमें पुण्य- इसलिये जो लोग पुण्य पाप की व्यवस्था मानते बन्ध हुआ था तो इस जन्म में भी उपकार करने है उन्हें भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि सारी से पुण्यवन्ध होगा इसलिये अपनी भलाई के जिम्मेदारी उस पूर्व पुण्यपाप की नहीं है, मनुष्य लिये, अपने पुण्यवन्ध के लिये, अधिक से अधिक के कर्तव्य की भी है। ऐसी हालत में मनुष्य को परोपकार करना चाहिये।
अपना कर्तव्य करना ही चाहिये । नहीं तो पुण्य
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rehLM
शप की व्यवस्था ही न मनेगी। था इसलिये नीरहेर निर्दोष था. और निर्दोष का
इस बात को ठीक समझने के लिये न्याय- धन हरण करने विकक सदोपहुयाऔर सदोषकी देखना की एक पक कथा का काफी उपयोग चोरी करने से. शपोदय में निमित्तमात्र होने से,
- मैं निर्दोष हुआ। गा, इससे धान और साफ होजायगी
विधक ने कहा-परम्परा कुछ मी रही हो. न्यारंवना की कथा (कोजीमापे कीहो)
पर यह तो निश्चित है कि नीरहेर से लुटगेर को न्यदेवता धार में एक बार विकक (साह. लसा था इसलिये मैं नीरटेर का धन हरण होने पार नाम के सामान शिकायत का एक बुरक में निमित्तमात्र था, इसलिये मैं निर्दोष हूँ। (चोर ) नाम यादमीने मेरी चोरी की है इस "
चुरक ने भी कहा परम्परा कुछ भी रही लिये उसे दंड मिलना चाहिये । दर्वार में चुरक
हो, पर यह तो निश्चित है कि विकक ने नीरडेर भुलाया गया।
का धन हरण किया था.इसलिये चिंकक की चोरी धुक ने कहा- हुजा, मैंने विकक की चोरी
होने में मैं तो निमित्तमान था इसलिये मै निर्दोष हूँ। जो जाय की है पर इसमें मेरा अपराध नहीं है। मुझे को विवश होकर चोर का कार्य करना पड़ा। न्यायदेवता ने कुछ और से कहा-जव सिकने पहिले जन्म में नौरहेर (जिसके पास तुम और तुम्हारे पहिले के सब चोर लुटेरे निदोप समोई चीन धरली जाती हो) नामक आदमी है तत्र यह दण्ड परम्परा क्यों चल रही है। हे पामगे धारण किया था, उस पाप का चरक ने कहा-मैं क्या समझू हुजूर ।
इस जन्ममें विका के प्राया। पाप के उद- विफक ने कहा मैं क्या जान हुजर! अस उसरी चोरी होना ही चाहिये थी, और
न्यायदेवता ने कहा- अच्छा ! यह मुक. frमीन किमी को यह सजा देना ही पड़ती हमर पिता (विवेकदेव-इकोजीमा) के दबार समय मग किस की चोरी करके उसे सजा में पेश किया जायगा। दना पती इसलिंग में निष।
. अब विवेकवके रिमे यह मुकद्दमा पहुंचा माया ने विकर की साफ देगा। और उनने जब सब मिसल पढी तब वे मुलकराम FANART- नर, मैने पहिने जन्ममें नौरडेर और उनने फैसला लियाmar किया था, पर मैं तो निमित्त इस मुकदमे में बुरक अपराधी और गाय मा. क्यानि उसो भी पहिले जन्ममे नीरटेर ददनीय है। विकक भीरहेर और लुटगेर भी ने नगर (जो लटा जाता हो) मा धन लूटा अपने अपने समय में अपराधी रहे हैं पर प्रकृति भा. स am I बदला मिलना ही में उन्हें अपन तरीके स दण्इ मन्यिा होगा, इसTiriyा समालय में उम पारोदय में लिये चिंक्रक को एड देने का काम शुरक का, SEAR नगया, और नीर का धन नीर को दण्ड देने का काम विंकक झा, और refमाग में निर्माण पर जथ में लुटो कोदएरने का काम नपडे का नहीं MER की चोरी परले सोजाना किसी भी सामनप्रणाली में यह पायहम था। सलिग वा दोषी है। या है कि कोई कानुन अपने हाथ में न ले।
किमी तरफ रेया। लुटगेर, नोरडे और विकर के पगेन अपराधी T-FAT अगर नीदेग पापण्यम से दरद देने सम प्रकृति का श न्यायदेवता RTAIAIR नेम निरपर निररी बोरे शाह न कि नौरा किया और पाक का।
मोगा नो रिमी साप है। इसलिये इनमें से किसी को भी निरसराध नहीं
रिमा क्रिया कहा जासरना । चोगे करते समय चुरानो in पारादर में FIRST व्यायाधीश की गवत्ति रास्ता धा, न उसके
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हाणकांड
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पास इस बात के प्रमाण थे कि किसने क्या पाप नहीं कह सकते, क्योंकि वह उपयुक्त तीन प्रकार किया है जिन्हे मैं दण्डन उसके हाथ में की शैलियों में से किसी में शामिल नहीं न्याय का कोई अधिकार था जिससे दूसरे के होती। जिस तीसरी शैली में प्राणी के हाथमें अपराध का बदला लेने के लिये वह दण्डदाता देवानुग्रह की सत्ता आती है वह चुरक पर लागू वनज्ञाय । इसलिये कहना चाहिये कि चुरक ने नहीं होती, क्योंकि उसने जो चोरी की, वह न्याय अन्याय का विचार न करके अपने स्वार्थ- विकक के किसी अपराध के कारण नहीं, न्यायो. वश नीतिको मर्यादा को तोड़ा और संसार का चित आत्मरक्षा के कारण भी नहीं, समाज के दुःख बढ़ाया है। प्रकृति या न्याय देवता अपने किसी नियम कानून के श्राधार पर भी नही. ढंग से अपना काम करेंगे पर प्राणी को चाहिये इसलिये चुरक अपराधी है। कि वह यथाशक्य अधिक से अधिक सब का यहां एक बात और ध्यान में रखना चाहिये उपचार करे, अपकार किसीका न करे। कि प्राणी के ऊपर जितने दुःख पाते हैं वे सब
पहिले के पुण्य पाप के अनुसार नहीं आते । सत्येश्वर की चा प्रकृत्तिको ऐसी व्यवस्था ।
जो सुख दुःख कर्मानुसार आते हैं वे उपर की नहीं है कि किसीको अपने पार का दंड दिया तीन शैलियों में आगये हैं बाकी बहुतसे सुखदुःख जाय तो उसके लिये किसी अन्य प्राणी को पार प्रारम्भिक या बीजरूप होते हैं, जिनका बदला करना पड़े। पुण्य पाप के फुल देने का काम पीछे मिलता है। जैसे रावण ने सीता को दुख किसी अन्य प्राणी को नहीं सौपागया। सत्यावर दिया, तो इसका यह मतलब नहीं है कि वह ने फल देने की तीन प्रणालियों ही ठीक मानी है। सीता के किसी पूर्व पाप का फल था। ऐसा
२-परध पाप के अनुसार प्राणी को जन्म होता तो रावण इसका जिम्मेवार न होता । जय देना, जहा उसे मन तन तथा परिस्थिति कर्म के कि रावण इस पाप का पूरा जिम्मेदार था और अनुसार अच्छी बुरी मिले।
मरने के बाद तसे उसका फल भोगना पड़ा।
... और सीता ने जितना निरपराध कष्ट उठाया २-आचार विचार का शरीर के उपर .
उसका फल उसे मरने के बाद मिलसकता है। प्रभाव पड़ना । क्रोध श्राने से शरीर का खून निरपराव कपका ही फल पीछे मिल सकता है, जलता है. ईर्ष्या आदि से अशान्ति पैदा होती है सापराध कष्ट का नहीं। अपनी लापर्वाही असंवस खानपान के असंयम से बीमारी आती है, प्रेम
अज्ञान वशोलिप्सा आदिसे जो कष्ट उठाये जाते हैं से मन प्रसन्न रहता है इससे शरीर भी स्वस्थ
वे व्यर्थ जाते हैं। एक आदमी यशोलिसाके चक्करमें रहता है, इत्यादि दण्डानुग्रह सन्चेबर को
पड़कर उपवासों का प्रदर्शन करे. कांटो पर सोने व्यवस्था है।
का प्रदर्शन करे और भी तपस्या आदि के नाम ___३-प्रगट रूप में अच्छे बुरे जो काम प्राणी पर निरर्थक कष्ट सहन करें तो उन को का करता है उसके दंडानबह की योग्य व्यवस्था कोई सफल न होगा। करने का अधिकार प्राणियों को सौंपा गया है। प्राणी उपकार का प्रारम्भ भी कर सकता इसी अधिकार के अनुसार राज्य व्यवस्था, पंचा- है और अपकार का परम्भ भी कर सकता है। अव आदि की व्यवस्था का निर्माण किया जास- इस प्रकार वह जगत को स्वर्ग भी बना सकता कता है, न्यायोचित आत्मरक्षा के लिये व्यक्ति है और नरक भी बना सकता है। इसलिये चरक को भी दंड का अधिकार है । पर इसमें विश्वसुख ने जो चोरी की वह अपकार का प्रारम्भ है, वर्धन की कसौटी पर कसकर जिर्णय करना किसीके पूर्वपाए का दंड नहीं, इसलिये चुरक चाहिये।
दंडनीय है । ., चरक ने सो चोरी की उसे दंड व्यवस्था विवेक देव के इस फैसले से इस प्रश्न का
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त्तर अच्छी तरह होजाता है। इसलिये यह का हरण किया जाता तो उनके सुख की वृद्धि नोचना ठीक नहीं कि मनुष्य मला बुरा नहीं कर नहीं होसकती थी । मतलब यह कि एक सीता पकता । वह मना भी कर सकता है बुरा भी के हरण मे रावण के सैनिक किसी स्वार्थवश या कर सकता है। अपनी इस जिम्मेदारी का ध्यान मोहवश अपना सुख दख रहे हो पर एक सीता रखते हुए मनुष्य को सर्वदेशिक और सार्वकालिक को छोडकर अपने अपने घर की सीताओं के दृष्टि से यथासम्भव अधिक से अधिक सख की हरण मे वे सुख नहीं देख रहे थे । इसका मतलब
यह कि सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टिसे परकोशिश करना चाहिये। , प्रश्न माना कि सब के सुखमें निजसुख
म्बीहरण में बहुजन सुख नहीं है।
बाहरण म बालन सुख है इसलिये कर्वव्याकर्तव्य के निर्णय में सब के जब हम कहते हैं कि बहुजन अन्याय के सख का ही विचार करना पड़ेगा, पर सब का पक्ष में है तब उनका यही मतलब है कि अमुक सुख कैसे होसकता है । संसार में तो एक का जगह का या अमुक समय का बहुजन अपन म सुख दूसरे का दुख दतेगा। राम का सख बड़े सार्बनिक और सार्वकालिक बहुजनहित के रावण का दुःख है और रावण का सम्व राम का विरोध में हैं। निम्नलिखित दोहों मे यही बात दुःख है । ऐसी हालतमें कोई न कोई दुखी और साफ शठो मे कही गई है। रहेगा ही, इसलिये यही कहाजासकता है कि एक जगह ही देख मत चागे ओर निहार। जिसमें ज्यादा से ज्यादा या अधिक आदमियो अपरिमेय संसार है अपनी दृष्टि पसार ।। १ का सुख हो उसीमें अपना सुख है । पर इसमे वर्तमान ही देख मत लो क्षण है दो चार। एक बडी अडचन यह है कि कभीकभी अधिक कर तू निर्णय के लिये भूत भविष्य विचार ॥२ श्रादमी अन्याय के तरफ होते हैं इसलिये अधिक सार्वत्रिक पर डाल तू सार्वकालिकी दृष्टि । थानमी के हित को महत्व देना हो तो अन्याय सत्य तुझे मिल जायगा होगी निर्णय सृष्टि ॥३ का समर्थन करना पड़ेगा । उदाहरणार्थ-राम रावण की अदि जीत हो रामचन्द्र की हार । रावण के युद्ध में अधिक आदमो रावण की तो घर-घर रावण बने डूय लाय ससार ॥४ तरफ थे, इसलिये अधिक आदमी का हित होती रावण की विजय तो घर घर व्यभिचारकरना हो तो राषण की रक्षा काना चाहिये करता तांडव रातदिन मिट जाते घरवार ॥५ अर्थात अन्याय का समर्थन करना चाहिये । पर परिमित रावण दल मरा हुआ पार का अन्त । जिस कसौटी से अन्याय का समर्थन होता हो अगणिन सीनाएँ वची फूला पुण्य वसन्त ॥ ६ उसे काव्य की कसौटी कैसे कह सकते हैं। सखख निर्णय की तुला आत्मौपम्यविचार। "और उसके आधार से ध्येय का निर्णय कैसे कर परको समझा आत्मसम मिला आत्म का सार ॥७ सकते हैं।
अपने में ही भूल मत रख सब जग पर दृष्टि । उत्तर--किसी एक समय के और किसी फिर पति सुववन हुआ हुई धर्म को सृष्टि। पक उगह के ही बहुजनहित का विचार करने से वर्तमान ही देख मत भूत-भविष्य विचार। गह गड़बडी होती है पर अगर सार्वत्रिक और किस यपना कर्तव्य कर कर सुखमय ससार ॥६ साकालिक दृष्टि से बहुजन के बहुसख का परम निकप कर्तव्य की सुखवधन है एक । विचार किया जाय तो यह गडगडी नहीं रहती। सुख वर्धन कर विश्व का रखकर पूर्ण विवेक ॥१० गवण ने परस्त्री हरण किया पर इसलिये यह शुद्वात्मता (शुधिम्की) नही हा जासकता कि परस्त्री हरण से अधिक प्रम-जब सुखवर्धन जीवन का अन्तिम प्राणियों का हित होता है । रावण की सना श्रेय होजायगा तब आत्मशुद्धिपर उपेक्षा होगी। विकधी पर बार उन मैनिको की नियों धर्म का सम्बन्ध सिर्फ वचन और तन से रह
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जायगा । मन मे दुष्ट भावना रहनेपर भी वचन हार कर रहा है कि यह मौका ही ऐसा है कि
और तन से सुम्यवर्धन का कार्य कर देने से धर्म सद्व्यवहार करना चाहिये । दूसरा अवसर की समामि होजायगी। ईमानदार और मायाचारी आनेपर सारी कसर निकाल ली जायगी । में कोई फर्क न रहायगा।
६-बटा इसलिये सद्व्यवहार कर रहा है कि ____ उत्तर--सुखवर्धन के कार्य को स्थिर और सद्व्यवहार से ही विश्वास में लेकर धोखा दिया निश्चित बनाने के लिये, सुखवर्धन के कार्य मे पर. जासकता है ठगा जासकता है, उधार श्रादि के स्पर विश्वास और सहयोग की जो आवश्यकता बहाने रुपये लेकर हजम किये जासकते हैं या है उसे पूरा करने के लिये, सुखवर्धन के कार्य में किसी जाल मे फसाया जासकता है। अपने को जो सुख-सन्नोप और शान्ति मिलती इसप्रकार एक सरीखे व्यवहार के कारण, है इसे प्राप्त करने के लिये आत्मशुद्धि या शुद्धा. ऊपरी सुखवर्भकता समान होनेपर भी छह आदत्मता आवश्यक है। अधिक से अधिक सुखवणेन मियों की छह तरह की मनोवृत्ति है। पर बागेजब हमारा ध्येय है तब उसके साथ अधिक से प
पीछे का हिसाब लगाकर देखा जाय तो पता अधिक आत्मशुद्धि उपध्येय के रूप में होती ही लगेगा कि जिसकी आत्मशुद्धि कम है उसकी है। आत्मशुद्धि के विना जो सुखयन का कार्य सखवर्धकता भी कम है, जिसकी आत्मशुद्धि किया जायगा वह क्षणिक, अनिश्चित, और अपूर्ण अधिक है उसकी सुखवक्रिता भी अधिक है। होगा, इसलिये उनने सुखवान से धर्म की निम्नलिखित विवेचन से यह वात स्पष्ट होगी। समाप्ति नहीं होसकती।
१-शुद्धात्मा (शुधिम्प) जिसके मन में इस बात को समझने के लिये एक सरीखा प्रेमभक्ति है उसका सद्वयवहार स्थायी है, भविष्य व्यवहार करनेवाले किन्तु भिन्न-भिन्न मनोवृत्ति में भी उसकी आशा की जासकती है इस विश्वास रखनेवाले मनुष्यों को लें। फिर देखे कि सुख- से एक तरह की श्रात्मीयता पैदा होती है और वर्धन की दृष्टि से किसका क्या स्थान है ! और इससे सहयोग बढ़ता है। साथ ही सद्वपबहार ईमानदार और मायाचारी के सुखवर्जन में कितना करनेवाले को भी प्रसन्नता होती है, इस कार्य में 'अन्तर है ?
कोई श्रम आदि खर्च करना पड़े तो उसका दर्द --क मनुष्य मन में प्रेम भात आदि होने नहीं मालूम होता, इसरकार यह शुद्धात्मता से सद्व्यवहार कर रहा है । २-दूसग व्यक्ति स्वपर सुखवन को दृष्टि से सर्वोत्तम है। मन में प्रेम न होनेपर भी सवहार कर रहा २-जो अपनी आत्मा को शुद्ध करने की है पर सोचना यह है कि किसी से द्वेष क्यों तैयारी है। शुधेलरिम्प-) वह शुधिम्प के वरावर रखना चाहिये १ कैप किसी स्वार्थपरता का परि- तो नही. फिर भी काफी सुखवर्धन करता है। णाम है. मुझे वह स्वार्थपरता दबाना चाहिये। शुधिम्य की बुद्धि और मन दोनों ही सद्व्यवहार -जीसा व्यक्ति इसलिये सद्व्यवहार कर रहा में लगे हैं पर शुधेलरिम्प की बुद्धि तो सद्यवहार है कि सद्व्यवहार प्रगट न किया जायगा तो मे लगी है पर मन हिचकिचारहा है। इसलिये प्रशान्ति बढेगी इससे आगे और दुख उठाना शुधिम्प की अपेक्षा वह, कुछ दुःखी है। मन की पड़ेगा इसलिये पूरी तरह शिष्टाचार निभाना ही
कुछ हिचकिचाहट ( हिच्चो ) उसके दुश्य के योग अच्छा। ४-चौथा इसलिये सद्व्यवहार कररहा को बढ़ा रही है, सद्व्यवहार पर भी इसका असर है कि मैं निर्बल हूँ गरीब हूँ, सद्व्यवहार र पड़ता ही है, हालांकि वह इसना सूक्ष्म है " करूंगा तो इसका परतिफल अच्छा न होगा, जिसके साथ सद्वयवहार किया जारहा है ( सुहा बहुत से लाभी से वञ्चित रहताऊँगा था परे- जगेर) उसे मुश्किल से ही पता लगसकता है शानी उठाऊंगा। ५-पाचवा इसलिये सद्व्यच. फिर मो शुधिम्प और शुधेलरिम्प के ' .
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के स्वाद में फर्क पैदा हो ही जाता है। इतना है ] को भी इसका पता लगजाता है, इसलिये अन्तर होनेपर भी शुषेलरिम्प बहुत कुछ सुख- उसको उतना सुख-सन्तोष भी नहीं मिलता वर्णन करता है।
जितना भूहिम्प { दीनाल्मा] आदि से मिलजाता ३-तीसरी श्रेणी का मनुष्य चतुरात्मा है। इस प्रकार इसका सुखवन और भी कम (चन्तिम्प) है, वह चतुरता से काम लेता है, है बल्कि अवसर निकलनेपर जल्दी ही दुख.
और सहिष्णुता ( फीशो) का परिचय देता है। वर्धन की सम्भावना है। घाहर से सद्वयवहार इसका भी ठीक है। परन्तु ६-ट्रा वश्चकात्मा [ चीटिम्म ] है। वह परिस्थिति से पैदा होनेवाली विवशता का इसका सुखवर्धन तो नाममात्र है और दुःखअनुभव कर रहा है। इससिये शुधेलरिम्म की अधन असीम है । स्वयं तो यह अशान्त चिन्ताअपेक्षा भी भीतर ही मौतर बहुत दुःखी है। तुर भीत है ही, पर इसके चकर में पड़नेपर उसकी इस मनोवृत्ति का असर उसके व्यवहार सुहाजगेर मी काफी दुखी होजाता है। पर पड़ने ही वाला है, जो शुधेलरिम्प के व्यव- इन व्यक्तियों के विवेचन से मालूम हार से भी अधिक स्पष्ट होगा। परिस्थिति बदल होता है कि जिसमें जितनी अात्मशुद्धि होती लते ही वह सद्वयवहार छोड देगा अशान्ति का है सखवर्षकता भी इतनी अधिक होती है और डर न हो तो सद्वयवहार न करेगा, इसलिये
जितनी आन्मशुद्धि कम होती है उतनी सुखउसको अपूर्णता के साथ उसकी अनिश्चितता भी वर्षकता भी कम होती है । इसलिये सुखवध • बढ़जाती है । इसलिये सुखनन घटजाता है। कता के लिये आत्मशुद्धि आवश्यक है । अगर
-चौथा दीनता के कारण सद्वयवहार सखवर्धन ध्येय को पूरा करना हो तो उसके करता है इसलिये यह दीनामा (नहिम्प ) है। पहिले प्रात्मशुद्धि उपध्येय को पूरा करना ही इसके मनमें भय और दीनता की वेदना है पड़ेगा। इस प्रकार सुखवनध्येय में आत्मशुद्धि अथवा आशा की व्याकुलता है इसलिये चन्तिम्प उपध्येय आ जाता है। (चतुरात्मा) की अपेक्षा यह अधिक दुखी है।
प्रश्न- देखा जाता है कि अगर किसी उसकी इस मनोवृत्ति का असर व्यवहार पर भी पसता है इसलिये दूसरे को भी इसका रस पूरा
आदमी से कोई काम विगडवाना है-उससे दुःख
बदजाता है परन्तु यदि उसका मन शुद्ध हो तो । नहीं मिलपाता । जीनता की परिस्थिति इटजाने
हम उसे दोपी नहीं ठहराते, परन्तु यदि किसी पर वह सद्वयबहार भी हट जायगा इसलिये उसमें का मन शुद्ध हो, उसमें द्वपादि भरा हो किंतु । अस्थिरता और अनिश्चितता भी है। इन सब बातों उसने हमें कोई दुख न पहुंचाया हो तोभी हम 1 से इसका सुखवर्धन और भी कम है। उसे दोषी मानते हैं उसके प्रति मनमें विरोध
५-पाचवों अवसरवादी (चत्तिम्प-अब- लाते हैं, इससे मालूम होता है कि हमें सुखव{सरात्मा) अथवा चालाक ( चुन्त ) है । इसे धकता की अपेक्षा आत्मशुद्धि की अधिक सदपबहार में कोई आनन्द नहीं आरहा है, चिंता है इसलिये आत्मशुद्धि को ही मुख्य ध्येय काफी बोझ अनुभव कर रहा है, इसकी दृष्टि क्या न माना नाय ? परिस्थिति बदलते ही सारी कसर निकालनेपर उत्तर-उपयुक्त अवसरपर भी आत्महै, इसलिये चिन्ता से भी काफी परेशान है, शुद्धि की जो बाद मनुष्य को होती है वह भी उसको अस्थिरता तथा अनिश्चितता नहिम्म टोटल मिलानेपर सुखवध कता अधिक होने (दीनात्मा ) से भी अधिक है, इन सब बातों के कारण । जिस मनुष्य से किसी अवसर पर का सर सद्व्यवहार पर भी इतना पडता है कि काम बिगड़गया है किन्तु हृदय शुद्ध है उसपर सारजगेर जिसके साथ सहयवहार किया जाय हमें द्वेप नहीं होता इसका कारण यह है कि हम
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stonis
जानते हैं कि “काम बिगड़ने में इसका कोई अपराध नही है, दूसरा अज्ञात या जबर्दस्त कारण आजाने से यह काम बिगड़ा है, ऐसा कारण सदा नहीं आया, इसलिये शुद्ध हृदय व्यक्ति पर विश्वास रक्खा जा सकता है । वह जानबूझकर श्रहित नहीं करेगा ।" इस विचारधारा से हमे शुद्ध हृदय व्यक्ति के बारे में निश्चिन्तता बनी रहती है, विश्वास बना रहता है। और यह काफी सुख-सन्तोष की बात है । किन्तु जिसके मनमे द्वेष है. किन्तु किसी कारण या अवसर आदि न मिलने से वह प्रगट या सफल नहीं हो पाया है उसके विषय में चिन्ता बनी रहती है। न जाने कत्र मौका मिलजाय और वह हमें सत्ता डाले । इस प्रकार सदा की 'बेचैनी से काफी दुःख होता है । सहयोग की आशा न रहने से भी सुख हानि होती है । इसलिये लोग आत्मशुद्धि को देखते हैं। किन्तु उसका ध्यं सुखवर्धन ही होता है।
प्रश्न -- जब कोई मनुष्य हमे गाली देता है उसकी गालियों से हमें कोई चोट नहीं लगती. अच्छे शवों की तरह बुरे भी हवा में उड़जाते हैं फिर भी तो हमें दुख होता है वह इसी बात का कि इसका मन शुद्ध है। मतलव यह कि दुखवर्धन न होनेपर भी मन की शुद्धिसे हम किसी बात को अकर्तव्य मानलेते हैं। इससे तो यही मालूम होता है कि आन्मा की शुद्धि ही असली पेय है ।
उत्तर -- श्रात्मा या मन की अशुद्धि तो तब भी कही जासकती हैं जब कोई हमें गाली न देकर हमारे दुश्मन को गाली है, पर उस समय हसे दुःख नहीं होता या बहुत कम होता है । इसका मतलब यह हुआ कि गाली को हमने इसलिये बुरा नही माना कि इससे उसका आत्मा अशुद्ध हुआ, किंतु इसलिये बुरा माना कि उससे हमारा अपमान हुआ । और जितना अपमान हुआ उतना दुःख हुया ! एक आदमी हमारे परोक्ष मे हमे गाली दे तो इसपर हम उपेक्षा कर जायेंगे। क्योंकि परोक्ष मे गाली देने से हमपर कोई यह न लगागा कि तुम गाली
ένας
खागये इसलिये कमजोर हो । पर जनता के बीच हमारे सामने कोई इसे गाली दे तो हम न सहेंगे क्योंकि उसमें हमारा काफी अपमान होता है । अपमान एक बड़ाभारी मानसिक दुःख है जो गाली से मिलता है इसलिये हम इसके विरोधी होते हैं । यहा हमारी दृष्टि सुखवर्धन करने और दु.ख घटाने की रहती है। आत्मशुद्धि इस कार्य मैं जितनी सहायता पहुँचाती है, उतने अंश में उसे भी उपध्येय के रूपसे स्वीकार किया जाता है
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प्रश्न - जैसे यह कहा जासकता है कि सुखवर्धन के साथ श्रात्मशुद्धि होती है उसी प्रकार यह भी कहा जासकता है कि आत्मशुद्धि के साथ सुखवर्धन होता है। सुखवर्धन को ध्येय मानने
आपत्ति नहीं है पर आत्मशुद्धि को ध्येय मानने में भी क्या आपत्ति है ?
उत्तर - चार आपत्तियाँ हैं १ - अनिश्चितार्थता २- अनिष्टार्थता ३ - विपक्षाश्रयता, ४ - अशात निज्ञासा ।
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१- निश्चितार्थता (नोनिसागो ) आत्मशुद्धि शब्द का अर्थ ही निश्चित नहीं है। आत्मा
से बनी कोई श्रनित्य बस्तु है, वह परमाणु बुराहै ? वह नित्य द्रव्य है या द्रव्यों के मिश्रण वर है या शरीर परिमाण है या विश्वव्यापक है ? उसके साथ अशुद्धि क्या है ? वह कोई भौतिक पिंड है, या उसका गुण है ? या माया है ? भौतिक अभौतिक का वन्ध कैसे और कब होसका है ? उसकी शुध्दि का क्या मतलब है ? वह होती कैसे है ? इन प्रश्नों के साथ मोक्ष-श्रमोक्ष ब्रह्म माया आदि के ऐसे प्रश्न खड़े होजाते हैं कि आत्मशुदि का ठीक रूप ही स्पष्टता से ध्यान में नहीं आता फिर उसको ध्येय कैसे मानानाथ ।
२ -- अनिष्टार्थता ( नोइश्शागो ) चात्म शुद्धि का साधारणत यह मतलब समझा ज हैं कि चित्त स्थिर हो, निर्विकल्प हो, राग द्वेष आदि किसी तरह की भावना उसमें पैदा न हो, श्रात्मा समाधिमें लीन हो, या आत्मा से तीन हो, मन वचन शरीर की क्रियाएँ बन्
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सत्यामृत
प्रादि । सी अवस्था असम्भव तो है ही, किंतु अशुद्ध है । इसलिये यह समझन गलत है कि जो इससे भी बुरी बात यह है कि यह सब बेकार है। आदमी एक जगह पैठनायगा, मन वचन काय श्रात्मा ज्ञानम्वरूप आनन्द रूप है और ज्ञान और को स्थिर करलेगा सो शुद्ध होजाएगा और श्रामन्न स्वयं एक विकल्प है, क्योकि उसमें नाना सत्कार्यों में लगा रहेगा तो अशुद्ध होजायगा । नरहकी अनुभूतियाँ हैं ऐसी अवस्था में आत्मा को पूर्ण एकापता से मछलीपर ध्यान लगानेवाला निर्विकल्प बना देने का अर्थ है उर्स ज्ञानशून्य बराला अशुद्ध है और विश्वहितैपिता से दुनिया श्रानन्दशून्य बनाकर जड बना देना। भर पर नजर डालनेवाला साधु शुद्ध है।
मात्मा में थगर भलाई ले न हो. यही कारण है कि तीर्थकर पैगम्बर अबबुराई से हूँप न हो, गुरजनों में गुणीजनो में
तार कहलानेवाले व्यक्ति जीवनभर समाजसेवा उपकारियों में आदर भक्ति कृतज्ञता न हो,
में लगे रहते हैं फिर भी शुद्धात्मा बने रहते हैं। जीवित रहने के लिये खानपान आदि की चेष्टा जगत की व्यवस्था में लगा रहता है फिर भी वह
जो लोग ईश्वरवादी हैं उनके अनुसार ईश्वर नारे खानपान सामग्री के लिये अर्जन का
शुद्धात्मा है। इसलिये निश्चलता को शुद्धि और कोई अन्न न हो, तो ऐमा जीवन एक तो टिकेगा नही, अगर दिक भी गया तो ममी (मिश्रके
अस्थिरना को अशुद्धि मानना असत्य है । पर मिमिडा में निकली हुई हागं वर्ष पुरानी
बहुत से लोग या सम्प्रदाय आत्मशुद्धि के ला) को तरह वह बेकार होगा। जगत को नामपर इसी तरह के अनेक अनिष्ट अर्थ मानते तो इससे कोई लाम हैन पर जड़ता में है इसलिये आत्मशुद्धि को प्रेय मानना ठीक समाजाने से, या एक तरह के नशे में लीन होजाने से उसमय भी कोई लाभ नहीं । व्यवहार में ....
हा। जो प्रात्मशुदधि या ध्यान श्रादि को जो इससे असीम हानि होगी वह यह कि निर्विफन्प समाधि यादि की साधना के नामपर
जारी है उसे सुसंवर्धन ध्येय के साधन रूप में प्रभाविया (मुस्तयोरा ) की एक पल्टन गडी
अपनाया जासकता है पर सी हालत में उसे ताजायगी।
उपध्येय कहेगे, ध्येय नहीं।
प्रश्न-निर्विकल्प समाधि श्रादि हम छोड म लोग स्थिरता को शुद्धि और चंचलता देते हैं पर कोच मान माया लोभ आदि कपाया को अदि मानने लगते हैं, जबकि शुद्धि का त्याग करना अात्मशद्धि है यही अकषा
पुलिश इममेरो नियत सम्बन्ध नहीं, यता रूप श्रात्मशुद्धि को ध्यय माने तो क्या गगटे में पानी मजाय नो वह शुद्धन हानि है इसमें अनिष्टार्थता क्या है ? पहागा, पर श्राममान में बादान के रूप में उत्तर-श्रात्मशुद्धिक नामपर जैसी प्रकपाIf पलना सहर का उधर नोडता रहे तो यता का रूप माना जाता है वह सुग्ध की तरह अशुद्ध नही जागा नचल पानी भी शुद्ध निर्विवाद नहीं है, और अनिवार्थ भी है। क्रोध PHPIR, श्री अशुहोसकता है और धिर श्रादि गृत्तियों का पूर्णनाश हो सकता है या नही. पा भी शुद्ध होमनार प्रशुद्ध होस अथवा उनके पूर्णनाश से चैतन्य को जामत THRIRIT में पानी चल रोनेपर भी अवस्था रहेगी कि नहीं ये याने त्रिवानप्रस्त या गुगा, गटर में माता या पानी चंचल होने अविश्वसनीय है । मोर विचार से वही मालूम पा भी गुमा पानी जमीन में ना कि कोष मान माया लोभ का वर्णनाश पक्ष पनि मा, योगन में भ य ना किया आमझना, न दिया जाना चाहिये, for pr गनेस भी शुर और इनश पुरएशेष गेश रस्ता , सबिट म
पानी far बनेपर भी हर को अमानाना प्रारमयां
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हष्टिकांड
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दित किया जासकता है यह करना चाहिये, यही सका। ऐसी हालत में आत्मशुद्धि को ध्येय मानने इष्ट है, इनका पूर्णनाश अनिष्ट है। अन्यायपर का कोई अर्थ नहीं। ध्येय तो सुखवर्धन ही रहा आवश्यक क्रोध आना धर्म है, अन्यायपर और आत्मशुद्धि उपध्येय हुआ। उपेक्षा या लापर्वाही करना निर्वलता या कायरता ४-प्रशान्त जिज्ञासा-(नोशम जानिशो) है अधर्म है। अभिमान से दूसरों का अपमान चौथी बात यह है कि आत्मशुद्धि से जिज्ञासा करना पाप है, अहंकारियों या अत्याचारियों के शान्त नहीं होती । आत्मशुद्धि किसलिये, यह सामने आत्मगौरख या लोकगौरव या न्याय- जिज्ञासा बनी ही रहती हैं। प्राणीको सुख चाहिये। गौरव की रक्षा करना धर्म है। स्वार्थवश दूसरो आत्मशुद्धि से सुख मिलता हो तो आत्मशुद्धि को छलना पाप है किन्तु उसके कल्याण क लिये ठीक है, नहीं मिलता हो तो आत्मशुद्धि बेकार अतथ्य भाषण पाप नहीं है। लोभ पाप है पर है। स्वतन्त्रता, मोक्ष, ईश्वर, आत्मशुधि, आदि प्रेम सितव्ययिता आदि उसीके अच्छे रूप पाप सब के बाद भी यह प्रश्न खडा होसकता है कि नहीं हैं। मतलब यह कि स्वपरकल्याण के लिये यह सब किसलिये ? किन्तु सुख के बाद यह इनकी जहा जितने जैसे रूपमें आवश्यकता है जिज्ञासा शान्त हो जाती है इसलिये विश्वसुखयवहां उनको रखना चाहिये। पूर्ण रूप मे अक- र्धन को अंतिम ध्येय और कर्तव्य निर्णय की। पाय होनेपर मनुष्य बेकार या जड़तुल्य होजायगा। कसौटी मानना चाहिये। अकषायता के प्रेय को अपनाने के भ्रम मे पड- प्रश्न-सुखवर्धन ध्येय ठीक होनेपर भी कर बहुत से जैन प्रथा मे म महावीर के जीवन उसमे एक बड़ी भारी आपत्ति यह है कि उसका की विडम्बना होगई है । वे भोजन नहीं कर दुरुपयोग काफी होसकता है। सुखवर्षन के नामसकते. किसी से बात नहीं कर सकते, खेच्छा से पर सभी स्वार्थियो और पापियो को अपना कही आ जा नहीं सकते, आदि अस्वाभाविक स्वार्थ या पाप छिपाने की पोट मिलजाती है। चित्रण पूर्ण अकषायता के दुष्परिणाम है। किसी पाप को सुखवीक सिद्ध करना जितना इसलिये अकपायता का ध्येय भी अनित है। सरल है उतना सरल उसे आत्मशुद्धि रूप सिद्ध जितने अंश मे वह स्वपरकल्याणाकरी अर्थात् करना नहीं है।
करना नहीं है। . विश्व मुग्ववर्धक है उतने अंश मे उपध्येय के रूप
, उत्तर--विश्वसुखवर्धन की कसौटीपर कसमें उसे माना जासकता है।
कर कोई कार्य किया जाय तो उसमें पाप और.
दुस्वार्थ नहीं छिपसकता । भूठी दुहाई देकर कोई ३-विपक्षानयना (राफशुजा) आत्मशुद्धि पाप छिपाने को दुरुपयोग नहीं कहते। इसे दुसका अर्थ अनिश्चित या अनिष्ट होने से अन्त मे पयोग कहा जाय वो ऐसा दुरुपयोग तो किसी उसका यही अर्थ ठीक माना जाता है कि जिसके भी सच्ची बात का होसकता है। श्रात्मशुद्धि का द्वारा मनवचन तन की प्रवृत्ति स्वपरकल्याण भी होसकता है। श्रात्मशुद्धि की ओट में मनुष्य कारी अर्थात् विश्वसुखवधक हो, वह आत्म- अकर्मण्य बनजाता है नम्मी धमएहो और लाप. शुदधि है और जिसके द्वारा मन वचन तनकी वोह बनजाता है। उसमें एक तरह की ठन्डी प्रवृत्ति अकल्याणकारी या दुखवर्भक हो वह करता आजाती है। अन्याय अत्याचार को अशुद्धि है । ऐसी हालत में आत्मशधि सुखब- 'रोकने की शक्ति होनेपर भी और कर्तव्य का अंग धन के आश्रित होजाती है। सुखवधन को हटा- होनेपर भी उसे न रोकना ठंडी क्रूरता है। कर हम आत्मशुद्धि को ध्येय बनाना चाहते थे, आत्मशुद्धि के नामपर वो उदासीनता लापर्वाही इसलिये इस प्रकरण में सुखवर्धन आत्मशुदधि आदि का नाटक किया जाता है वह दुरुपयोग का प्रतिस्पर्धा या विपक्ष था और उसी प्रतीस्पर्धी तो स्पष्ट ही है। का श्राश्रय लेनेपर आत्मशुद्धि का अर्थ ठीक बैठ कहा जासकता है कि जहा प्रात्मशुधि
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सत्या
उहा अहंकार आदि कैसे रहसकते हैं। सचमुच मरते हैं उन्हें बचाने के लिये हमे पानी पीना नही रह सकते, ठीक उसी तरह जिस तरह विश्व- और स्वाद लेना चन्द करना पड़ेगा इस तरह सुखवर्यन के होनेपर दुःस्वार्थ और पाप नी मानवसमाजका था प्राणिसमाज का सर्वनाश रहसकते । यह तो झूठी दुहाई देकर पाप छिपाने ही होजायगा । इस प्रकार वत्र जीवन ही नहीं की बात है सो मुठी दुहाई को कहां कहा रोक रहेगा तब जीवन का ध्येय या धर्म क्या रहेगा ? सकते है ? इसलिये मूठी दुहाई को पर्वाह न कर प्रश्न-अपने जीने के लिये भले ही सूक्ष्म हम ठीक अर्थ लेकर चलना चाहिये 1 ठीक अर्थ हिंसा होती रहे पर दूसरों के लिये हम हिंसा मानकर भी अगर दुरुपयोग हो तो दुरुपयोग क्यों करें। मानना चाहिये । विश्वसुखवधन का ठीक अर्थ
उत्तर-यदि सूक्ष्म हिंसा भी न होने देना लेनेपर उसकी ओट में पाप या दुःस्वार्थ नहीं
हमारे जीवन का ध्येत्र है तब उस ध्येय को सत्र छिपसकते जिससे उसे ध्येय न माना जाय।
से पहिले अपने ही ऊपर अजमाना चाहिये। प्रश्न-माना कि विश्वसुखवर्धन की ओट अगर सक्ष्म हिंसा पाप है तो सभी के लिये पाए मे पाप नहीं छिपसकते। फिर भी यह बात तो है। एक पाप अपने लिये किया जाय तो पाप साफ है कि सुत्रवर्धन की कोशिश करनेपर भी नहीं है चा क्षन्तव्य है और परोपकार की दृष्टि से दुःखघर्षत होता है । किसी भूखे को मांस दूसरों के लिये किया जाय तो पाप है, इस स्वार्थखिलाने में जैसे एक को थोड़ा सुखवधन और परता और पक्षपात को धर्म कैसे कह सकते हैं ? दूसरे को काफी दु.खवधन होता है उसीप्रकार और तब यह अहिंसा का शुद्ध विचार भी नहीं पानी पिलाने आदि हर एक कार्यमे है । हम रहता। परोपकार के नामपर असंख्य शुद्र जीवो का
दूसरी बात यह है कि हमें अपने लिये भी जीवन नष्ट कर देते हैं इसप्रकार एक प्राणी के
परोपकार की जरूरत है । अगर हम किसी ससवन के लिये असंख्य प्राणियों का दुःख- बीमार आदमी को पानी न पिलायें तो हमारी वर्धन करते है। इसलिये अच्छा तो यही है कि नौनिक अनसार हमारी धीमारीमें दूसरा हमें पानी मनुष्य परोपकारी बनने की अपेक्षा अहिंसक नहीं पिलायगा। हमारी सेवा के बिना दूसरे मर बने । सुखवढाने की अपेक्षा दुःख न वढाने का आयेंगे और दूसरों की सेवा के बिना हम मर कार्य करें, यही हमारा व्यग्र होना चाहिये । सीधे जायेंगे । इसलिये यह हन द* की मूत्ता और शों में अहिंसा हमारे जीवन का ध्येय होना
कृतलता है कि हमें अपनी भाई के लिय तो चाहिये।
सूक्ष्महिंसा करना चाहिये पर दूसरे की भलाई से उत्तर--अहिंसा दुःख को रोकना है। और क्या लेना-दसा ? दूसरे की भलाई के बिना हमारी दुखको रोकना भी एक तरह का सुत्रवधन है। मलाई भी टिक नहीं सकती। इसलिये पूर्ण स्वार्थ इसलिये अहिसा म भी सुखवध न को हराष्ट काम के लिये पूर्ण पार्य श्रन्यावश्यक है ? सच पूछा करती है। फिर भी सुवर्व नपर उपेक्षा करके जाय तो परोपकार भी एक तरह का ऋण चुकाना चंचल अहिंसा को जीवन का ध्येय नहीं बना है। व्यक्तिगत ऋण चुकाना इसे भले ही न
सकते । क्याकि वह अव्यावहारिक है और व्याव- कहानाय किन्तु सामाजिक ऋण चुकाना इसे 'हारिक भी होती तो अनिष्टता के कारण उसे कहना चाहिये। हम देशाटन करते हैं जगह जगह 'स्वीकार नहीं किया जासकता था। दूसरों के वनवाये हुए कुत्रों का पानी पीते हैं ____ अगर हम मूक्ष्म हिंसा रोकने की कोशिश दूसरे के द्वारा बनवाई हुई वर्मशाला में ठहरते हैं करें तो एक तरह से सामाजिक प्रलय जाय। और दूसरों की अनेक वस्तुओं का उपयोग करते पानी पीने में और वाम लेने से जो सुक्ष्म जीव हैं इस ऋण को चुकाने के लिये यदि हम भी
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दृष्टिकांड
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इसरो के लिये कुआ खुदवादे धर्मशाला बनवा प्रदान उचित कहा जासकता है। तो यह पाप न होगा, ऋण चुकाना रूप धर्म प्रश्न- इसप्रकार तो थोड़े प्राणियों के लिये होग, इसे एक तरह की ईमानदारी का कर्तव्य अधिक प्राणियों का नाश होता ही रहेगा। इससे कहना चाहिये।
दुःखवर्धन ही होगा। तब सुखवर्धन ध्येय कैसे प्रश्न--जो अपने कुटुम्बी है या जो संयमी पूरा होगा ? आप गाय की जान बचाने के लिये हैं उनका उनकार करना ठीक है, पर हरएक का असंख्य वनस्पतिजीवो का नाश करेंगे, यह उपकार करके हिंसा क्यो बढ़ाना चाहिये ? अनि स्पष्ट ही एक के सुख के लिये असंख्य प्राणियों वाय और संयमवर्धक उपकार ही करना का दुःख है, अब सुखवर्धन ध्येय कहां रहा? चाहिये।
उत्तर-इतना विवेक तो हमें रखना ही
चाहिये कि जहां टोटल मिलानेपर सुखवन से ___उत्तर-कुटुम्बियों के साथ हमारा घनिष्ट
अधिक दुखवर्धन होता हो वहां सुखवर्धन छोड़ सम्बन्ध होता है इसलिये उपकार का आदान
देना चाहिये। अगर दुःखदर्धन की अपेक्षा मुखप्रदान भी उनसे विशेष मात्रा में है पर हमारा
वर्णन अधिक मालूम हो तो वह करना चाहिये ।। साग जीवन इनेगिने कुटुम्बियों में ही समाप्त
इतना विवेक न हो तो ध्येयदर्शन या कर्तव्यानहीं होजाता। घर में आग लगनेपर अकेले
कर्तव्य निर्णय नहीं हो सकता। कुटुम्बी ही उसे नहीं घुझाते, दूसरो से भी मदद
__हां! सुखदुःख का विचार करते समय लेना पड़ती है, प्रवास मे था घर के बाहर कुटुम्बी
सिर्फ प्राणियों की गणना का विचार न करना ही काम नहीं आते किसी से भी मदद लेना पड़ती चाहिये, किन्तु सुखदुःख की मात्रा का विचार' है, इसलिये एक तरह की विश्वकुटुम्बिता को अप
करना चाहिये । निम्न श्रेणी के असंख्य प्राणियो नाये बिना गुना नहीं है। इसप्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सखदाख की अपेक्षा, उच्च श्रेणी के एक प्राणि विश्व का ऋणी है और यथाशक्य उसे विश्व का में सुखदुःख अधिक होता है। वनस्पतियों के" ऋण चुकाना चाहिये, वह विश्व का कुटुन्मी है
सुग्वदुःख की अपेक्षा कीट-पतंगो का सुखदुःख और यथाशक्य विश्व से कौम्धिकता निभाना
असंख्य गुणा है, उनसे असंख्य गुणा पशुचाहिये । इस विषय में जितना सकुाचत हाटस पक्षियों का है उनसे असंख्य गुणा मनुष्य की काम लिया जायगा, वह उतनी ही स्वार्थपरता है। ज्ञान का, चैतन्यशक्ति का, अर्थात् संवेदन और नाठानी होगी।
शक्ति का जितना जितना विकास होता जाता है। ____ मंयमियों के उपकार करने का अर्थ है कि उतना उतना सुखदुःख बढ़ता आता है। दुखसुख उनका विशेष उपकार करना चाहिये, क्योंकि वे के मापतौल में हमें चैतन्य की मात्रा का विचार अपने सयमपूर्ण जीवन से जगत का विशेष उप- न छोड़ देना चाहिये । इसलिये साधारणत: कार करते हैं। पर संयम का अर्थ अमुक सम्भ- अनेक पशुओ की अपेक्षा एक मनुष्य का बचाना दाय की साधुसंस्था के सदस्य, या अमुक वेपधारी अधिक कर्तव्य है। हा। इतनेपर भी उसकी मनुण्य नहीं है किन्तु जहा जो संयम का परिचय मर्यादा है। मनुष्यपर प्राणसंकट आया हो तो देवहा वही संयमी है। इस प्रकार संयमों का उसके बचाने के लिये पशु का जीवन लगाया
क्षेत्र भी विशाल है, इसलिये परोपकार का क्षेत्र जासकता है, पर मनुष्य के सिर्फ विलास के • भी विशाल होजाना है।
जिये पशु का जीवन नहीं लगाया जासकता। जब बात-अज्ञात समी मनुष्यो से हमे उप- खाने के लिये परिपूर्ण अन्नादि सामग्री रहनेपर कार का आदान-प्रदान करना पड़ता है, सभी भी स्वाद के लिये मास-भक्षण करना और उसके जगह ज्ञात-अज्ञात मनुष्यों में संयमी है, तब हर- लिये पशुवध करना कराना अनुचित है। एक का उपकार करने से ही उपकार का आदान- चलने-फिरने, साफ-सफाई करने आदि
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सत्यामृत
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नो सूक्ष्म 'राणिवध होता है, उसका विचार नहीं आदि संयम शेरको अपेक्षा गाय में अधिक है। किया जासकता । बहुत से लोग सूक्ष्म प्राणियों इसलिये गाय शेर की अपेक्षा अधिक चैतन्य की इतनी अधिक पर्वाह करते हैं कि उनकी रक्षा वाली है संयम चैतन्यके विकास का बहुत बड़ा के नामपर मनुष्य की भी पर्वाह नहीं करते, या चिन्ह है। शारीरिक शक्ति से चैतन्य विकास मनुष्य के रति मनुष्योचित कर्तव्य भी नहीं का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये गाय बचाने काते, वे हिंसा-अहिंसा विचार में या सुखद स्त्र के लिय सिंह वय किया जासकता है। विचार में अविवेकी हैं।
प्रश्न-तब तो मासमवण आदि का पूरी इस कार सुखवीन के कार्य में दख- तरह समर्थन किया जायगा। शिकार की कार वर्षन कुछ होता भी हो तो चैतन्य की मात्रा का प्रधा भी ठीक समझी जायगी।। विचारकर टोटल मिलाना चाहिये । टोटल मिलाने उत्तर-मासमानण की अनुमति सिर्फ पर सुखवर्धन अगर अधिक मालूम हो तो सुख- वही दीजासकती है जहां अन्न आदि अन्य वर्णन करना चाहिये। इस बात का पूरा ध्यान सामग्री इतनी न होती हो जिससे मनुष्य जिन्दा रखना चाहिये कि टोटल मिलाने में सिर्फ रह सके स्वाद लोलुपता आदि के कारण मांसपाणियों की संख्या का विचार नहीं करना है भक्षण को अनुमति न दीजासकेगी । शिकार के उनकी चैतन्य मात्रा का विचार करना है। विषय में भी यही नीति रहेगी। जहा अन्न नहीं
प्रश्न--कोई जीव छोटा हो या वडा. उसका होता वहा शिकार करना अनिवार्य होगा ही, सुख उसको उतना ही प्यारा है जितसा चडे पाणी साथ ही अगर जानवरों के आक्रमण के कारण को अपना बड़ा सुख पारा है। पीने का जन्म
खेती बगीचा, आदि का नाश होता है और अन्यसिद्ध अधिकार भी जितना हमे है उतना सेमी उपायों से रोका नहीं जासकता वहा भी शिकार है फिर हम असंख्य प्राणियों का वध करक
की अनुमति देना होगी। फिर भी यह उचित स्वयं जिन्दे रहे या सुखी बने यह कहा तक
है कि हमें ऐसी व्यवस्था बनाना चाहिये जिससे उचित कहा जासकता है ?
पशुवध न करना पड़े। निम्नलिखित सूचनाओं
का पालन होसके तो अच्छा। ____उत्तर-इसमे कोई सन्देह नहीं कि जीने का जन्मसिद्ध अधिकार हरएक को है, पर दो
--अधिक से अधिक अन्न पैदा किया प्राणियों के जन्मसिद्ध अधिकारों में अब संघर्ष
जाय और जितना अन्न पैदा होसकता हो उसी हो तब किसका जन्मसिद्ध अधिकार सुरक्षित
के अनुसार जनसंख्या को नियन्त्रित रक्खा रखना चाहिये इसके लिये कोई न कोई निश्चित
जाय। इसकेलिये सन्तति-नियमन की प्रथा अपनीति बनाना पडती है। और वह नीति है विश्व
नाई जाय। सुख वन की। इस तरह के प्राकृतिक या अनि
२- पिघातक जो प्राणी पकड़े जासका वार्थ संघर्ष में अधिक चैनन्यवाले पणी की हा उन्हें पकड़ कर ऐसी जगह छोड़ा जाय जहा रक्षा करना चाहिये । इसलिये मनुष्य को जीवित साकर वे फिर कृपिघात न करसके। रखने के लिये अन्य प्राणियों का वध किया ३-कृषियासक नर माछा पशुओं को जामकता है, पशुपक्षी श्रादि को जीवित रखने पकड़कर अलग-अलग अहातों में बन्द किया के लिये वनस्पति आदि का वध किया जासकता जाय। वे वहा, समयपर आयु पूरी कर मर है। पर शेर को जीवित रखने के लिये गाय जायेंगे और शारे सन्तान पैदा न होने से निशा हरिण आदि प्राणियों का वध नहीं किया जास- होजायेंगे। कता। क्योंकि शेर का चैतन्य गाय था.दे से ४-कृषियातक नरपशुओ को पकड़कर 'अधिक नहीं है । चन्कि सामाजिकता वान्मल्य या तो उन्हें बधिया करदिया जाय या ऐसा
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अपरेशन किया जाय जिससे सन्तान पैदा न हम तो पंडितजी बनकर पढ़ाने का धंधा करते होसके । इसप्रकार उन्हें नियंश किया जाय। है, या व्याज का या सट्टे आदि का धंधा करते
५- कटीले तार आदि लगाकर कृपिघातक है, किसी का खेत जानवर खाते हैं इससे हमारे पशुओ का आना रोका जाय।
धंधे को क्या नुकसान ? तब हम पशुओपर दया यथाशक्य ये उपाय किये जायें, अगर ये बताने से क्यो चूके १" यह सब दयानता नहीं उपाय पूरी मात्रा में न किये जासके और कृषिCHIN E
है घोर स्वार्थपरता है इसलिये अधर्म है ! धर्स रक्षण के लिये कृषिघातक या धनजन नाशक
का विचार तो वही होगा जिसमें मनुष्यमात्र के जानवरो का शिकार आवश्यक हो तो करने की हिन का ध्यान रक्खा जायगा और प्राणिमात्र अनुमति दी जासकती है।
के हित का विचार करते समय, अधिक चैतन्य
और हीन चौतन्यवाले पाणियों में विवेक रक्खा ___प्रश्न अनुमति क्यों दीजाय १ उपयुक्त
जायगा, तथा आत्मौपम्यमाव से काम लिया पांच सूचनाओं का पालन किया जाय । न होसके
जायगा। तो सब अपने भाग्य भरोसे रहे। किसी का
यहां आत्मौपम्यमाव का खुलासा यह है शिफार क्या किया जाय ?
कि जो मनुष्य यह कहता है कि अन्नामाव से । उत्तर-पहिला उपाय तो पाच सूचनाओ मनुष्यो की मौत भले ही हो, पर पशुपक्षियों की का पालन ही है पर जब उनसे इतनी सफलता अन्ननाशक पशुपक्षियो की भी, रक्षा होना । न मिल सके कि सत्र मनुष्यों को खाने लायक चाहिये, उनका कर्तव्य है कि चे एक ऐसा खेत अन्न मिलजाय, तब भाग्य भगेसे बैठने से कैसे लेलें जिसमें उनके कुटुम्ब के लायक ही अन्न । काम चलेगा? पशुपक्षियों और मनुष्यो में से पैदा होता हो, और जिसे जंगली जानवर था, किसी एक वर्ग को प्राण देने के लिये चुनना बन्दर आदि घर जावे हो, जिन्हें रोकना अशक्य होगा। पशुपक्षियों को बचाकर मनुष्यों को मरने होपडा हो. फिर यदि अन्न कम पैदा होनेपर भी। देना विश्वसुखवर्धन की दृष्टि से अनुचित तो है
के भूखे रहकर, वालवच्चों को भूखे रहकर, मरने ही, साथ ही कोई आणी इस तरह जानबूझकर
को तैयार हों तो समझा जायगा कि वे पशु-। भूखा मरना पसन्द नहीं करता फिर मनुष्य कैसे पसन्द करेगा इसलिये अस्वाभाविक भी है।
पक्षियों की रक्षा करने के पक्ष में हैं। पंडिताई इसके बाद सवाल होगा कि भूखों मरने के लिये का धंधा करते हुए, या नगर में ऐसा काम करते । कौनसे मनुष्य चुने आँप और किस कार चने हुए जिसका अन्नधातक जानवरो से सम्बन्ध जायें ? जो लोग पशुओ को बचाने के लिये नहीं आता, उस परिस्थिति का अनुभव नहीं हो. मनुष्यों के भी मरजाने की पर्वाह न करनेवाले सकता जो पशुपक्षियों और चूहों आदि से खेती है क्या वे पशुओं पर दया से प्रेरित होकर खुद का नाश होने से पैदा होती है। भूख से पण छोडने को राजी होजायगे ? वे
हम शो से अनुमति दें या न दे, पर खुद मरने को राजी नहीं हैं तो पशुओं के ऊपर हमारेलिये जो हिंसा दूसरों को करना पड़ती है, यातनी मया दिखाकर मनष्य की अवहेलना का और जिसका हम लाभ उठाते है उसकी जिम्मेक्या अर्थ है।
दारी हमारे ऊपर आती है और इसमें हमारी यह सोच लेना कि ' हमारे पास तो पैसा मौन अनुमति मानीलाती है। इसलिये यदि हम है हम तो महंगे से महँगा अन्न खरीदकर खालेंगे अन्नाभाव से स्वयं मरने को तैयार नहीं हैं तो इसलिये हमें तो मरना ही न पड़ेगा, मरनेवाले अन्नामाव घटाने के लिये दूसरे जो कार्य करत तो गरीब होगे, सो मरें । उनका भाग्य, हम पशु. हैं उसमे हमारी मौन या अमौन अनुमति है। पत्नियापर नया दिखाने से क्यो चूकं १ अथवा इसी ष्टि से अनुमति देने की बात कहीगई है।
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सत्यामृत
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परश्न-अन्नादि की रक्षा के लिये जो अनि- कर सकते कि स्पर्श करने वाले का इरादा क्या ये वध करना पड़ता है वह ठीक है, पर सुख- है, या अनजान में जो इससे कुछ भूल हुई है न के नामपर और भी हिंसा कार्य होते हैं। वह दंडनीय है या नहीं, और है तो कितनी है। मि मच्छर आदि के नाश की औषणे, चूहे पक- बस, ये तो सारी शक्ति लगाकर अक्रमण करहेंगे ने या मारने के पिंजड़े आदि बनाये जाते हैं, फिर भले ही वह वेचारा रातभर चिल्लाता रहे या प विच्छू आदि मारने के कार्य होते हैं। विन्छु मरजाय । इसप्रकार हजारो निरपराध आदमी नबूझकर किसीपर आक्रमय नहीं करता, सर्पदंश से मरते है और बिच्छू के डंक से नडरोप भी विना छेड़े आक्रमण नहीं करता फिर पते हैं ऐसी हालतमे अगर इनको हिसा की जाती की उन्हें मार दिया जाता है, सिर्फ स्वार्थ के नाम है तो वह आत्मरक्षा और सुखवन का ही र नहीं किन्तु जन हित के नामपर भी । सुख प्रयत्न है। जो व्यावहारिकता की दृष्टि से न्यायोधन का ध्येय आखिर इस प्रकार हिंसा बढ़ाकर चित है। काफी दु.ख बढ़ाता है। अहिंसा के ध्येय से इन इनकी हिंसा रोकने का सर्वोत्तम उपाय यह नव की रक्षा होसकती है।
है कि साफ सफाई रक्खी जाय और इन्हें पैदा उत्तर-कुछ अनावश्यक हिंसाएँ होती हैं न होने दिया जाय । इतने पर भी अगर ये पैदा पसर, अहिंसा के नामपर उनसे थोडा बहुत होजाय वो आत्मरना या आत्मीयरक्षा की दृष्टि बचा भी जासकता है, और कुछ बचना भी से इनकी हिंसा करना पडेगी। टोटल मिलाने पर वाहिये, पर सामूहिक रूप में यह अव्यवहार्य यह विश्वसुख वर्धन के अनुकूल कार्य होगा। है और अनिष्ट भी है। प्लेग के कीड़े मरेगे इस- हिंसा अहिंसा का विचार करते समय हम लिये प्लेग की हवा को शुद्ध न करना चाहिये, इसबात का विवेक तो रस्यना ही होगा कि हिंसा यह एक तरह का पागलपन होगा। मनुष्य और को बिल्कुल हटाया नहीं जासकता इसलिये प्लेग के कीड़ो को एक तराजू पर नहीं रक्खा दोनों का टोटल मिलाना उचित होगा। टोटल जासकता । आक्रमणकारी मनुष्यसे जिसप्रकार में हिंसा अधिक हो तो उस कार्य को हिसा माना हम अपनी रक्षा करते हैं उससे अधिक रक्षा जाय अहिंसा अधिक हो तो अहिंसा मानाजाय । आक्रमणकारी कृमि आदि से करना पड़ेगी। ऐसा कोई बहीखाता नहीं होता जिसमे सारी मच्छरों का हमने कुछ नहीं बिगाड़ा पर वे जब- रकम जमा मे ही लिखीजाय । जमा और नामा दस्ती आकर हमारा खून चूस जाते हैं यह आक- दोनों तरफ ही रकमें लिखी जाती है सिर्फ इस मण है। यह सम्भव नहीं है कि उनके साथ सम- बात का ध्यान रखा जाता है कि नामा में रकम मौसा कर लिया जाय कि एक बार तुमने खून ज्यादा न होजाय | जीवन के बहीखाते में भी चूसलिया सो चूसलिया, पर अब कोई मच्छर हमें यही बात देखना पड़ती है । अहिंसा हिंसा खटमल आदि हमारा खून न चूसने पाय । ऐसी दोनों तरफ रकम चढ़ती है, देखना यही चाहिये हालतमें उनका संहार करना ही पड़ेगा। चूहा कि अहिंसा से हिंसा बढ़ न जाय । वही खाते की
आदि तो हमारा अनाज खाताते हैं दीवारे फोड़ तरह इस बात का भी विचार करना पड़ता है • देते हैं न खाने का भी सामान काट काट कर कि गिनती से ही जमा नामें का हिसाव नहीं बेकार कर देते है इनसे भी कोई सुलहसन्धि लगता । जमा में एक रुपया हो और नामें में सम्भव नहीं है । साप बिच्छू इस तरह जबर्दस्ती पचास पाईयाँ हो तो यह नहीं कहा जाता कि
आक्रमण नहीं करते पर किसी कारण अनजान रुपया तो एक ही है और पाइयाँ तो पचास है, व में भी अगर पर्श होजाय, उस स्पर्शसे इनका इसलिये नाम की रकम बढ़गई । रुपया एक होकर नुकसान हुआ हो या न हुआ हो ये डक मारते भी पचास पाइयों से कई गुणा है इस बात को है या काटम्बावे हैं। ये इसबात का विचार नहीं भुलाया नहीं जाता । इसी तरह जीवन के वही
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पटिकांड
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खाते में हिंसा-अहिंसा का विचार करते समय लब नहीं है कि उन्हे दुःख कम होता है। योगी भी सिर्फ प्राणियों की गिनती नहीं देखी जाती। सयमी आदि की चेतना इतनी विकसित और उनकी चैतन्यमात्रा के अनुसार मूल्य भी देखा निर्मल होजाती है कि जिस सुखदुःख का जाता है, तभी हानि-लाम या हिंसा-अहिंसा का अयोगी और असंयमी को पता भी नहीं लगता निर्णय होता है। पर इस निर्णय की कसौटी भी उसका प्रचंड संवेदन योगी और सयमी को होता विश्वसुखवर्धन ही है। जिसमे सुखवर्धन अधिक है। जैसी गालियाँ साधारण लोग देते लेते रहते
और दुखवर्धन कम, वह अहिंसा, और जिसमें हैं योगी उन्हें नहीं सुनसकता, जैसी अशान्ति में सुखवर्धन कम और दुखवधन अधिक वह हिंसा, साधारण लोग हँसते हैं योगी उससे कोसो दूर इस तरह निर्णय करना पडता है । इसप्रकार भागता है, योगी का दुख अयोगी से बहुत अहिंसा को ध्येय बनानेपर जो बात अनिर्णीत अधिक होता है। वह अपनी सहनशक्ति के द्वारा रहजाती है वह विश्वसुखवर्धन को ध्यय बनाने मे अनुन्ध रहता है, विप्रेमी होने से वैर नही स्पष्ट रीतिसे निति होजाती है।
बसाता, यह दूसरी बात है पर उसे दुग्ध अधिक प्रश्न-सुखवर्धन को ध्येय बनाने से एक होता है चोट अधिक लगती है । बड़ा अन्धेर यह होगा कि संयमी योगी लोगोपर . इसप्रकार विश्वसुग्ववर्धन की नीमि संयमी आफत आजायगी। क्योकि योगी लोग के साथ किसी तरह का अन्धेर नहीं करती। दुःखको सहने की ताकत अधिक रखते हैं इसलिये सार्वकालिक और सार्वदेशिक दृष्टि से विश्वसुखउन्हें सनाना उतना बुरा न समझा जायगा वर्णन की नीति को कसौटी बनानेपर काव्यजितना असंयमी को सताना । क्योकि असंयमी अकर्तव्य का निर्णय होजाता है और इसीसें.हमे । अपनी मानसिक कमजोरी से दुःख का अनुभव अपने ध्येय का पता लगजाता है। । । अधिक करना है। इस नीति से बढ़कर अन्धेर । हमे इस संसार को अधिक से अधिक ' क्या होगा ? संयमी को कुछ पारितोषक मिलना सखी बनाना है। ससार में जो दु.ख है, उन्हें । तो दूर उसपर दुःश्व ढा दिया, और असंयमी को जितना अनसके कम करना है। दुःख से डरकर दंड मिलना तो दूर उसे संयमीसे कम दुख दिया गया दुनिया से भागना, महाप्रलय की आकांक्षा करना, ऐसी अवस्था में सयम सदाचार का मागे ही बन्द शून्यरूप होने की कल्पना करना, या आत्महत्या होजायगा और इससे दुनिया नरक बनजायगी। करना निरर्थक और दुरर्धक है। यह विवेकहीन
उत्तर--'इससे दुनिया नरक बनजायगी भावुकता का परिणाम है। सत् असत होकर। इसीसे सिद्ध होता है कि संयमी को अधिक दुख शून्य नही होसकता, महाप्रलय हमारे हाथ में देने की और अशयमी को कम दुग्य देने की नीति नहीं है, आत्महत्या करके हम पुनर्जन्म के कारण विश्वसखवर्धन की दृष्टि से ठीक नहीं है । संयम दु.ख से छूट नही सकते, परलोक मे सुख की सदाचार से विश्वसुखवधन होता है, और इस- आशा हो तो वह तभी सम्भव है जब हम इस लिये जिससे संग्रम सदाचार बढे ऐसी कोशिश ससार को सुखमय बनाने की कोशिश करें। करना चाहिय । इसका एक उपाय यह है कि मरने के बाद कोई ताकन लगाकर स्वर्ग-मोक्ष में सयमी सदाचारी की इन्नत अधिक की जाय उसे हम उछल नही सकते, जो कुछ करना है इसी सविधा अधिक दीजाय । इसप्रकार सुखवणेन जीवन में करना है। इसी जीवन में विश्वसुखके नामपर थमी को अधिक दुख देने की नीति वर्धन किया तो परलोक हो तो भी हमारा जीवन नहीं अपनाई आसकती।
सफल है, न हो तो भी हमारा जीवन सामान है। दूसरी बात यह है कि योगी संयमो आदि इसलिये हर कार्य मे हर समय विश्वसुखवीन हास अधिक सहन करते है पर इसका यह मत- के ध्येय को सामने रखना चाहिये।
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तीसरा अध्याय चिनक होपंगो
मार्गदृष्टि [ राहो लंको]
सुख दुःख विचार (शिम्मो दुक्खो लंको) मानसिक दुखों मे पहिले मनपर असर पड़ता _ विश्वसुखवर्णन जीवन का ध्येय नित्रित है, पीछे शरीरपर पड़ता है। शारीरिक दुग्यों में होजानेपर उसकी राह का विचार करना पडता पहिले 'शरीरपर असर पड़ता है फिर मनपर । है। और इस विचार में कई बातें आती है। जैसे किसीने तमाचा मारा तो तमाचे का दुखद जैसे दुख क्या है, दनिया में कितने तरह के प्रभाव पहिले शरीर पर होगा पीछे मनपर. और दुःख हैं, किचने दुःख दूर किये जासकते हैं. कितने किसीने गाली दी नो गाली का इ.सद प्रभाव दुःख किसी सुखके लिये अनिवार्य है इसी प्रकार शरीरपर नहीं है मनपर है, पर मनपर प्रभाव सुल कितने वरह के हैं, कितने सुख उपादेय है होने से चिंता आदि के कारण शरीरपर भी कितने सुख त्याग करने योग्य है, किस सुख उसका प्रभाव पड़ता है। इसलिये किस दुःख को
और किस दुःख के बारेमें हमें किस नीतिसे काम शारीरिक कहना और किस दुःखको मानसिक लेना चाहिये। किसे कैसे छोड़ें और किसे कैसे कहना इसका निर्णय करने के लिये यह देखना प्राप्त करे, आदि । इस प्रकार हसे तीन तरह के चाहिये कि किस दुःख का प्रथम और मुख्य विचार करना है, १-दुःख विचार.रमुख विचार, प्रभा शरीरपर पड़ता है और किसका प्रथम ३-उपाय विचार।
और मुख्य प्रभाव मापर पड़ता है। १-दुख विचार (टुक्रो इको) जो शारीरिक दुःख व्यक्ति विशेषमें शरीर
दु.व एक प्रकार की बेदना है. जो अपने की अपेक्षा मनपर ज्यादा प्रभाव डालते हैं वे भो को अच्छी नहीं मालूम होती । दीर्घ विचार शारीरिक दुःख है। जैसे किसी मनुष्य को कानेपर भले ही उसकी अच्छी उपयोगिता हो तमाचा के हुस्न की अपेना अपमान का मान. पर भोगते समय एसा मालूम होता है कि यह सिक दुव अधिक मालूम होसकता है. फिर भी न होती तो अच्छा होता, इसके बिना भी अगर तमाचा मारना शारीरिक दुम्व ही गिना जायगा। काम चल जाता तो अच्छा होता अथवा जितनी पर जहापर अपमान का दृष्टिकोण ही मुख्य जल्दी यह बेदना जाय उतना ही अच्छा सेसी होगा वहा वह मानसिक दुःख ही गिना जायगा। वेदना को दु स्त्र कहते हैं। संक्षेपमे प्रतिकूल किसीको इस बैग से जूता-मारा जाय कि उसकी वेदना को दुख कहते हैं।
चोर नाममात्रकी हो. मुख्य ध्येय अपमान ___ यद्यपि सभी दुःख मन के द्वारा होते हैं फिर करना ही हो तो इसे मानसिक दुःखमें गिना • भी कुछ दुख ऐसे है जो सीधे मनपर असर जागा । जहा शारीरिक दुख मानसिक । पड़ने से होते हैं, और कुछ ऐसे हैं जो शारीरिक दुव के लिए दिया गया हो वहा उसे मिन दुख । विकार से सम्बन्ध रखते हैं । यदापि सभी दुखो कह सकत है क्योंकि इसमें दोनो दुखो का * का असर सन और शरीरपर पड़ता है, फिर भी मिश्रण हुन्मा है। फिर भी दुःख के मुख्यमेद दो किसीम मन की प्रधानता है किसी में शरीर की। ही हैं एक शारीरिक, दूसरा मानसिक निमित्त
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Mum
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के मेद से शारीरिक और मानसिक दुःव अनक रोग या गेध है और बिछुड़ने श्रादि की जो तरह के है।
वेदना होती है वह मानसिक दुःश्य है। बुढ़ापा शारीरिक दस ( ममपेर दाखो)-शारी- आदि का दुस्व भी रोग, अतिश्रम आदि का रिक दुख छ:'तरह के हैं। १ आघात-२-प्रतिवि- दु.ख है। बुढ़ापे में निर्बलता पाजाने सं अतिनम पय ३-अविषय, ४-योग, ५-रोध, ६-अतिश्रम। शाम होने लगता है । इसप्रकार अन्यदरखों का __ .१ आघात [ चोटो ] अस्त्र-शस्त्र या हाथ भा
भी विश्लेषण (शेवाको) कर लेना चाहिये। आदि से अथवा किसी और सूक्ष्म स्थूल वस्तु से
मानसिक दु:य (मनपेर तु.यो ) मीर: शरीर को ऐसी चोट पहुँचाई जाय जिससे न तरहक है-१-इष्टाप्राप्ति, २-इष्टवियोग, ३-अनिलीफ हो उसे प्राघात दुःख कहते हैं ।
प्टयोग, १ लाघव, -व्यप्रता, ६-सहवेदन। २-प्रतिविषय ( रोजूशो ) इन्द्रियों के .
१-इष्टाप्राप्ति ( इशनोसीनो) जो चीज
हम चाहते हैं और जब वह नहीं मिलनी तर प्रतिकूल विषय से जो चोट पहुँचती है वह प्रति
एक तरह का मनमे दुःख होता है, इस प्रामामि विषय है। जैसे-दुर्गध, कर्कश शब्द, भयंकर यादव कहते हैं। ऐसी हालत में लोभ लालच बीभत्स दृश्य, बहुन ठंडा या बहुत गरम स्पर्श,
तुप्या या चार की प्रेरणा से मनम चिन्ता होती बुरा स्वाद आदि।
है जो काफी दाममय होती है। शोक निराशा ३-अविवय (नोजशो) शरीर के या आदि दुःखमय अवस्था भी होती है। प्रधानता इन्द्रियों के योग्य विषय न मिलने से जो वेदना चिन्ता की है। होती है वह अविषय दुःख है। जैसे भूख प्यासका २ प्रवियोग शमयुगो अब दुःख, किसी चीज के स्वाने का व्यसन हो और प्रिय वस्तु अपने पासम दूर हो जाती है, विदुरवह चीज न मिले तो उसका दु.ख प्रादि । आती है, या नट होजाती है तब उसस
४---रोग ( रुगो ) वात पित्त कफ की विप- जो दव होता है व उपवियोग दुग्म है। मना, आदि कारणांसे शरीर में जो विकृति होती प्रिय भरण. या उसका परदेशगमन आदि है उससे पैदा होनेवाला शारीरिक टुब गंग वियोग दुाय है। धनसम्पत्ति का नष्ट होजाना दु.ग्व है!
भी इमीप्रकार का दुख है । यह होमाना है कि yोध ( मन्धो शरीर के किसी अंग चीज सहा की तमा पजी रहे पियो के. गा किसी आवश्यक क्रिया के कान मे यश हजार 1 एक अमीन जिसे हम अपनी ममम्न उधजाने जो द.न्य होता है वह रो दुव्य है। धे पर दमर ने लेनी को जान tare जैसे बहुन समय तक एक ही जगह बैठना पड़े पर्व रहनेपा भी उमर में मार्ग मानिये या किमी कमर या मकान में इस तरह करताना नजाने में टरिगोग रोगगा : गगन पडे कि शरीर के लिये आवश्यक हिलना दाना उमा था जोर का लिवाला नि कठिन होजाय, तो उसमें होनेवाली नसली पिया मिलने से मागा गरप वहायगा।
विनोगटवियोग में सुगम प्रतिभम ( मेशिहा । Fir होता. पोलिना मार करने से जो कावा यानि ना नक्लीप सोनी
मान है वह प्रतिषम दान है।
प्रभाnिih. ___ मौन पादि सपना बोगिराज fre है। मौन में हो जातिय वंदना रानी है Timir
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प्रमा
निर्गल या मरण होजाता है. बाल सफेड होजाते हैं वस्तु के सम्पर्क या कल्पना से जो मानसिक दुख इसलिये उन्हें शारीरिक दुख क्यो न कहा जाय' होता है वह अनिष्ठयोग दुःख है। जैसे शत्रु का
उत्तर-इप्दा माप्ति और इष्टवियोग का दर्शन आदि । यद्यपि शारीरिक अनिष्टयोग भी पहिला प्रभाव मनपर पड़ता है, फिर दःखी मन होता है परन्तु वह प्रतिविषय, आघात आदि में
शामिल है । यहा तो ऐसे अनिष्ट योग से मतलब का प्रभाव तनपर पडना है इसलिये इसे मान
है जो प्रत्यक्ष रूप मे शरीर को चोट नहीं पहुँसिक सुत्र कहा जाता है। अगर इनका मनपर
चाता सिर्फ मनपर चोट पहुंचाता है। पीछे भले
ही मन की विकृति के कारण तनपर विकृति पडता. उमलिये ये मानसिक दुध ही है। होजाय । अरिय जन को देखकर हमारे शरीरपर
नाराप्ति और इष्टवियोग एक कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, पखर किरणों की तरह के विषय हैं और अविषय को शारीरिक तरह वह पाखा को चुभता भी नहीं है, न अन्य दुम्न है, इसलिये उन्हें भी शारीरिक दुख व्यो इन्द्रियों का रतिविषय होता है फिर भी जो हमे न कहा जाय?
दुःख होता है उसका कारण मन की कल्पना है. उत्तर---अविषय का जो परिमापिक अर्थ इसलिये वह मानसिक दुख कहलाया। इसस यहा किया गया है उसका मतलब है शरीर और क्रोध शोक भय वृणा ईष्यो चिन्ता आदि भनीइन्द्रियों के विपयों का न मिलना। मानसिक वृत्तिया पाहाता है, खद आर पश्चाताप मा अविषय इप्टाचानि और इटवियोग, जिसे सम्म. एक तरह के शोक है. उपेक्षा मी राय. हल्की लित रूप में प्रयोग (श नोगो) कहना घृणा का रूप लेती है। ये सब मनोवृत्तियाँ दुखाचाहिये, शो से कहा गया है। इस मानसिक त्मक हैं । इसलिये अनिष्टयोग दुःख हैं। अविषय से वह शारीरिक अविषय भिन्न है जो -जाधव (रिको) अपयश निन्दा तिर अविपय शद्ध से कहा गया है। विषय का स्कार उपेक्षा अपमान आदि से या छोटा कहलाने सीधा रमाव शरीरपर पड़ता है, उससे शरीर से जो दुख होता है उसे लाघव कहते है। अपनी नीण होने लगता है. अशक भी होजाता है, अन्त महत्वाकांक्षा पूर्ण न होनेपर भी यह दुःख होता में पाणी मर भी जाता है । इप्याराप्ति और इप- है। इससे अहंकार चिन्ता शोक भय दीनता वियोग इस तरह शरीरपर कोई भाव नहीं पूणा इयां आदि मनोवृत्तियों पैदा होता है। भालते। भोजन न मिलने से पानी न मिलने से अपयश आदि से शरीर को चोट नहीं पहुँचती, शरीर की जो हालत होना अनिवार्य है उस तरह अभिमान या श्रात्मगैरव को चोट पहुँचती है । सन्तान के मरने से या न होने से अनिवार्य नही इसलिये यह मानसिक दुख है। अनिष्टयोग तो
मन को अगर पश में कर लिया जाय तो किसी घटना से सम्बन्ध रखता है और उसमे शरीरपर प्रत्यक्ष कप में भी कुछ प्रभाव नहीं किसी से तुलना नहीं होती। लाघव दुख अतिष्ट्र पडेगा। पर मन को वश मे कर लेनेपर भी भूख योग न होनेपर भी सिर्फ इम कल्पना से कि में प्यास से शरीरपर प्रसर होगा ही। मन को वश छोटा हूँ या छोटा समभागया हूँ, होने लगता है। मन फोर्ड विना प्रापिय जिन्दा नहीं रह जीवन की प्राय सारी श्रावश्यकता पूर्ण होनेपर मरना गागरिक बेदना से होती है, भली भी अनुचित्त महत्त्वकाना से, या दुसरो के दुर्थयामा पहन करें। इसनिय विषय को वहार में यह दुग्ब होजाता है। शातिर और नानि इनियोग को
ज्यमता (हिजो) व्यग्रता का अर्थ मानामर माया गया।
वडाना। चिन्ताओं के प्रोम से मनुष्य हँड. :-विवाग ( युगौ अनिष्ट बडाना व्याकुल होता है वही व्यग्रता है। जैन
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दृष्टिकांड
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किसी के यहां शादी आदि का महोत्सव हो, सुख विचार (शिस्मो ईको) काम करनेवाले काफी हों, कोई विशेप शारीरिक जो संवेदन अपने को अच्छा लगे वह सुख कष्ट न हो फिर भी कैसे क्या कराया जाय, है अर्थात् अनुकूल या इष्ट संवेदन का नाम सुख क्या होगा' आदि चिन्ताओं के बोझ से वह परे- है। सुख और दुख किसी क्रिया का नाम नही शानी का अनुभव करने लगता है । यह चिन्ताओं है। जो क्रिया आज सुख देती है वही कल दु:ख का वोम शारीरिक कष्ट नहीं है इससे शारीरिक
देसकती है। गरमी की रात्रिमे वस्त्रहीनता सुखद
र दु.खमं शामिल नहीं कर सकते, शादी का प्रसंग
होसकती है और ठंड की रात्रि में दुःखद । कमी और आदमी अनिष्ट भी नहीं हैं कि उन्हे अनिष्ट
हाथ दबाना सुखद होसकता है और कभी योग कहा जाय, न इश्वस्तु के छिननका कष्ट है कि दुःखद । इसलिये सुखदुःख-संवेदनपर ही इष्टवियोग कहाजाय और न अपमान या दीनता
निर्भर है किसी क्रियापर नहीं। का दुख है जिससे लाधव कहाजाय, इसलिये
सुख आठ तरह के हैं-१-ज्ञानानन्द, व्यग्रता एक अलग ही दुःख है। यह एक तरह
२-प्रेमानन्द, ३-जीवनानन्द, ४-विनोदानन्द, की मानसिक निर्बलता का परिणाम है । मान
५-स्वतन्त्रतानन्द, ६-विषयानन्द, ७-महत्त्वानन्द, सिक शक्ति जितनी कम होगी व्यग्रता उतनी अधिक समझी जायगी । व्यग्रता से क्रोध मुझला
-रौद्रानन्द । हट चिन्ता श्रादि भाव पैदा होते हैं। अभ्यास न १-ज्ञानानन्द--( जानोशिम्मो ) जीव ' होने से या मन निर्बल होने से व्यग्रता का कष्ट ज्ञानमय ह, आर यह ज्ञान जावनका प्रमुख
आनन्द है। जहा कोई स्वार्थ नहीं होता वहां
सिर्फ जानकारी से प्राणी इतना आनन्दित होता ६-सहवेदन ( सेतु दो ) प्रेम-भक्ति मैत्री है जिसका कुछ ठिकाना नहीं है । आकाश के वात्सल्य करुणा के वश होकर दूसरे के दु.ख मे ताये का या ब्रह्माड की रचना का रहस्य जव। दुःखी होना सहवेतन दुःख है । कभी कभी सहवे. मनुष्य को मालूम होता है तब उससे किसी लाम दन दु.ख अपने किसी स्वार्थ के कारण अन्य की आकांक्षा न होनेपर भी मनुष्य एक उच्च दुखों में भी परिणत होजाता है। जैसे अपने श्रेणी के आनन्द का अनुभव करता है । इना नौकर को चोट लगगई और इससे अपने को ही नहीं, रास्ता चलते जब कोई नई सी घटना दुःख हुआ। यह दु.ख सहवेदन भी होसकता है, होते वह देखता है तब वह उसे जानने के कुतूहल
और नौकर दोचार दिन काम न कर सकेगा को शमन नही कर पाता । जानकारी के लिये वह इस भाव से अभिष्ट योग भी होसकता है । जहाँ काफी धन और समय खर्च कर देता है । ऐसा लितने अश में शुद्ध प्रेम के वश में होकर मालम होता है कि जानकारी प्राणी की सब से दूसरो के दुःख में हम दुखी होते है वहा उतने अच्छी और आवश्यक खुराक है। यही कारण अंश मे सहवेदन दुख होता है। लोकसेवी है कि जीवनमें अनेक कष्ट होनेपर भी मनुष्य महात्माओं को, सब दंग्य छूटजानेपर भी, यह जानकारी के आनन्द के लिये जीवित रहना चाहता दुख बना रहता है । यह दुन्य जगत के दुःख दूर है। इसलिये कहना चाहिये कि यह सब से मा. करने में सहायक होने से आवश्यक दन्य है। त्वपूर्ण आनन्द ।। यह दुःख रौद्रानन्द का विरोधी और में मानन्द
र-प्रेमानन्द ( लवोशिम्मो ) प्रेम का का सहयोगी है।
.. आनन्द भी एक स्वाभाविक आनन्द है। हृदयमे इस प्रकार छः प्रकार के शारीरिक और छ, हुनय मिलने को व्याकुल होता है। दो प्रेमी तय प्रकार के मानसिक कुन बारह तरहके दुःख हुए। आपसमें मिलते हैं तब वे आपसमें कुछ दे यान दें
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सत्यात
फिर मी पूर्ण आनन्द पाते हैं। गाय बछड़े से या ६-विषयानन्द [ शो शिम्सो । इन्द्रियों मां बेटे से कुछ पाने की इच्छा से सुखी नहीं के विपय मिलने से जो आनन्द होता है वह होती किन्तु प्रेम से सुखी होती है। प्रेम जितना विषयानन्द है। स्वादिष्ट भोजन, संगीत, सौन्दर्य,
लता जाता है सुख उतना ही निर्दोष और स्थायी सुगंध, अच्छा स्पर्श आदि के श्रानन्द को विपरेता जाता है । जो विश्वप्रेमी है वह प्रेमानन्द की यानन्द कहते हैं।
राकाष्टापर पहुंचा हुया है। वह पूर्ण वीतराग पत्र जीवनानन्द भी खाने-पीने का आनन्न वर्ण अकषाय, पूर्ण योगी और पूर्ण सुखी है। है और विषयानन्द भी खाने-पीने का आनन्द है. माल अधिक से अधिक निर्दोष, और अधिक तब दोनोमे अन्तर क्या है ? ने अधिक स्थायी, तथा दूसरों के लिये भी सुख
उत्तर-जीवनानन्द में इन्द्रियों के मनोज्ञ वर्धक है । संयम आदि समृत्तियों भी इसी के ।
* विषयों के सेवन की मुख्यता नहीं है। पेट भरना कारण पैदा होती हैं।
एक बात है और स्वाद लेना दसगे। अगर आव३-जीवनानन्द [जिवो शिम्मो-जीवन श्यक तत्वों से पूर्ण भरपेट भोजन मिलजाय तो के लिये उपयोगी पदार्थों के मिल जाने से वो रूखे-सखे भोजन से भी जीवनानन्द मिल सकेगा, आनन्न होता है वह जीवनानन्द है । जैसे, रोटी
पर विषयानन्द न मिलेगा । अगर स्वादिष्ट भोजन मिलने, पानी मिलने, हवा मिलने आदि का मिलजाय तो खालीपेट रहनेपर भी विषयानन्द प्रानन्द ।
मिलजायगा पर जीवनानन्द न मिलेगा। शरावी -विनोदानन्द (हशोशिम्मा) खेल कद जीवनानन्द नही पाता, पर विययानन्द पाजाता हँसी श्रादि का आनन्द विनोदानन्द हैं। यद्यपि है। विषयानन्द अन्त में प्राय दु:न्द बढ़ाता है विनोदानन्द्र कभी प्रेमानन्द, कभी विपयानन्द पर जीवनानन्द प्राय: ऐसा नहीं होता। यद्यपि कमी महत्वानन्द पनजाता है परन्तु कभी कभी किसी एक क्रिया से जीवनानन्द और विषयानन्द मनुष्य अकेलेमें भी खेलता है, कोई स्वार्थ न होने दोनों ही मिल सकते हैं फिर भी कमी कमी विष. पर भी, महत्व का विचार न होनेपर भी प्राणी यानन्द के चकर में पड़कर उसकी प्रतिमात्रा था को खेलने में आनन्द पाता है। इसलिये समता दुमात्रा से मनुष्य सीधनानन्द खो बैठता है इस. के लिये इसे एक अलग आनन्द ही समझना लिये कभी कभी दोनों आनन्दों में विरोध पैदा चाहिये । छोटे बच्चामे लेकर बूढो तक को इस होजाता है। आनन्द की चाह रहती है । यह ठीक है कि उम्र -महत्वानन्द (धीशो शिम्मो ) मानके अनुसार इममें न्यूनाधिकता होती है, और प्रतिष्ठा यश आदि का आनन्द महत्त्वानन्द है। विनोट केम्प भी बदलते हैं।
दुसगे से तुलना करनेपर जो अपने महत्व का -स्वतंत्रतानन्द | मुच्चो शिम्मो 1- अनुभव होता है वा भी महत्वानन्द है। दुम सवेदनमय बन्धन से घटना स्वनंत्रतानन्द महत्वाकाक्षा एक प्रबल आकाना है जो थोड़ेहत ।।म्वतंत्रता से मग सुख मिले तो वह सुग्व रूप में सत्र में पाई जाती है। निराशा या मीनता • अलग होगा, परन्तु वह मिले या न मिले, या के कारण कभी सोजाती है, गम्भीरता के कारण
टुव मिल, पर मनुष्य अपने को स्वतंत्र अनु- कभी कभी बाहर प्रगट नहीं होती, मात्रा से । भव करे, इममें भी एक तरह का प्रानन्द है। अधिक महत्व मिलजाने से या मिलते रहने से । यथाशक्य अपनी इच्छा के अनुसार काम करने उसपर उपेना अर्थात् लापर्वाही पैदा होजाती है, मेक विगेरानन्द पाना है । कैदी जब जेल अथवा संयम के कारण मर्यादित रहती है, यां में परते है, नम इसी प्रानन्द का अनुभव चतुरता के कारण मर्यादित रूप में प्रगट होनी है.
यह मय है. पर यह किसी न किसी मनमें सत्र में
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अधिकांड
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रहती है निजि नहीं होती। उसकी पूर्ति से प्रकरण में नहीं आसकता, इसलिये यहा तो एक अनिर्वचनीय आनन्द मिलता है। बहुत से उपाय विचार की कुछ दृष्टि हो जाती है। यह लोग इस श्रानन्द के लिये सारी धनसम्पचि विवेचन भूमिका का काम करेगा। अधिकार तथा सर्वस्व देवालते है, तथा मरने के यद्यपि दुःख बुरी चीज है और मुख मली. बाद नाम के साथ महत्व लगारहे इसलिये जावन परन्तु इसका विचार आगे-पीछे का, निजपर का तक देडालते है। इसलिये कहना चाहिये कि सबस टोटल मिलानेपर ही किया जासकता है । इस अधिक कीमती सुख यह महत्त्वानन्द है। दृष्टि से न तो सब दुःख चुरे कहे जासकते हैं न
रौद्रानन्द (डिटो शिम्मो)-सौहानन्द में सब सुख अच्छे । जो दुःख अधिक सुन्य एक तरह की क्रूरता है इसलिये इसे करानन्द पैदा करें वे अच्छे कहे जायेंगे | जो सुम्ब अधिक या पापानन्द कहना चाहिये। दूसरो को निरपराध दुःख पैदा करे वे बुरे कहे जायेंगे । इमप्रकार दुःखी होते देखकर सुखी होना रोदानन्द है। दुम्ब-सुख की तीन-तीन श्रेणियाँ हाँगी । जानवरों को लड़ाना और एक के या दोनों के घायल होने या मर जानेपर सुखी होना मी रौद्रा
१-सुखबीज दुख सुखबीज सम्य
२-अवीज दुःख अबीज सुत्र ____प्रश्न-समाज को सतानेवाले किसी आत
३-दुःख बीजदु र दुःखबीज सुग्य तायी मनुष्य या पशु को दण्ड दिया जाय और
जो दु.ख सुख पैदा करता है और दु.खसे दण्ड देसकने से एक तरह का सन्तोष हो, जैसे
अधिक सुख पैदा करता है वह सुग्वबीज दुःश्य पापी रावण के मारे जानेपर जनता को हुआ,
है, और अच्छा है। अच्छा होने के कारण इसे तो क्या इसे पापानन्द कहा जायगा ? बुरा कहा
सदुख (सुदुक्सो) कहना चाहिये। जैसे सहजायगा ? पर इसके बिना अन्याय-अत्याचार का
वेदन दु.स्य जगत्कल्याए को पैदा करनेवाला नाश कैसे होगा।
है इसलिये सद्दुःख है । संयम सुतप आदि के उम्तर-निरपराधों को दुःखी देखकर जो
दुश्व भी इसी श्रेणी के हैं। आनन्द होता है वह रौद्रानन्द है, सापगधी को।
- जो दुव भविष्य मे न सुम्य बढ़ाने वाला दुखी देखकर होनेवाला आनन्द रोद्रानन्द नहीं होन दु.ख बढ़ानेवाला । भोगने के बाद जिसकी है। सापराधो को दुखी देखने में सामाजिक समाप्ति होजायगी, ऐसे दुश्व को अचीज दुस व्यवस्था तथा न्यायरक्षण का सन्तोष है, सब क या फलदाय ( फावक्यो ) कहना चाहिये । हित की भावना है इसलिये इसे प्रेमानन्द कह
सहवेदन दु.ख्य को छोडकर साधारणत: ममी सकते हैं। फिर भी इसका विचार मन की
दुःख फन्दु.ख कहे जामत है या बनाये जामभावनापर निर्भर है। एक आदमी को अपराध के प्रतीकार. या न्यायरमण का विचार नहीं हैं सिर्फ
दुःखबीज दुस उसे कहते हैं, जो वनगान अपराधी की तड़पन देखने का ही आनन्द है,
मतो दुखरूप है ही और भविष्य भी कर उसकी निरपराधता सापराधना से भी उसे कोई
इ बढानेवाला है. या दूसरे को दुःख देनेवाला है। मतलब नहीं है, तो वह अपगधी के दुख में सुखी
साधारणत सहवेदन को छोड़कर अन्य रोई भी होनेपर रौद्रानन्दी कहलायगा।
दे. इस श्रेणीका बनाया जाता है। यह मय में उपाय विचार ( रहो ईको) बुराव है इसलिये इमे दर (स्यागे. दुःखों को दूर करने और सुग्यों को पाने का कहना चाहिये। उपाय सोचता उपाय विचार है । इस प्रकार जो सस भाचप्य में भी मग देनेवाला . सारा सत्यामृन उपाय विचार ही है जो कि हम वह नुन वीजमन्त्र है। प्रेमानन्द मी प्रकार
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सत्यामृत
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मुख है। सैद्रानन्द को छोडकर और सुखों को है फिर भी इसमें कुछ कमी भी है। इसमें कुछ मी इस तरह का बनाया जासकता है। यह सब तो अनिवार्य है और कुछ मनुष्य के द्वारा दूर से अच्छा सरन है इसलिये इसे सत्सुख या करने के लिये छूटी हुई है। प्रकृति तो नियमोसुसुख ( सुशिम्मो ) कहना चाहिये। नुसार काम करती है, इच्छानुसार नहीं । प्रकृति ___ जो सुख भविष्य मे न सुख पैदा करनेवाला में इच्छा है ही नहीं कि वह इच्छानुसार कार्य हे न दुख पैदा करनेवाला है. वर्तमान मोग के कर सके। इसलिये कुछ न कुछ प्राकृतिक दुख पाद वह निर्बीज होकर समाप्त होजायगा उसे मनुष्य के पीछे पड़े ही रहते हैं। मरण आदि के अवीज सुन या फलसुख (फायसुखो) कहना
दुख तो अनिवार्य हैं और जन्म विकास आदि चाहिये । ज्ञानानन्द विपयानन्द आदि अधिकतर
की दृष्टि से श्रावश्यक भी है, अधिक गर्मी भी
वर्षा के लिये जरूरी होती है इसलिये उसकी भी इस श्रेणी के सुख कहेजाते हैं। कभी कभी अन्य
उपयोगिता है फिर भी प्रकृति के द्वारा किये गये सुख भी इस श्रेणी के सुख बनजाते हैं।
कुछ कष्ट ऐसे हैं जिनकी जरूरत नहीं है । भूकम्प, जो सुख अधिक दुख पैन करनेवाला है अतिवर्षा, अतिशीत अत्युष्णता आदि अनेक कष्ट वह दु.खबीज मुख है। यह बुरा है इसलिये इसे इसी तरह के हैं। दु सुख (वशिम्भो) कहना चाहिये । विवेक और २-परात्मकृत या परकृत (बुभजेर)-दूसरे मर्यादा का ज्ञान न होनेपर कोई भी सुरव दुःसुख प्राणियों से भी बहत से दुःख मिलते हैं। हीन बनाया जासकता है । रौद्रानन्द इसी श्रेणी का ।
और निर्बल जाति के प्रभारियों के आधारपर सुख है। इससे सदा बचना चाहिये। __उपाच विचार में दुःखसुख की इन श्रेणियो हुआ है इसलिये कुछ परकृत दुख तो अनिवार्य
उच्च और सबल जातिकं प्राणियों का जीवन टिका को ध्यान में रखना चाहिये। तभी विश्वसुख- पर बहुत से परकत दुख पराणियो की खासवर्धन की दृष्टि से इनका ठीक विचार किया कर मनुष्य की स्वार्थपरता के कारण है। चोरी जासकेगा।
व्यभिचार परिग्रह विश्वासघात का , आदि हमें दुःखबीज दुःख और अबीज दुःख दूर के पर कृत दुःख ऐसे हैं जिन्हे अनिवार्य नहीं करना है और और सुखबीज सुख और अबीज कहा जासकता । मनुष्य सरीखे एक जातिके पाणी सुख पाना है इसलिये इन्हीं दोनों बातो का यहा में जो परस्पर दु खदान होता है वह अक्षन्तव्य है। विचार किया जाता है।
३-स्वात्मकृत या स्वकृत ( एमजेर) दुःख तीन द्वार-जो दुल हमे दूर करना है उन है अपने मनोविकारों या मूर्खता आदि से पैदा दुःखों के आने के तीन द्वार हैं-१-प्रकृतिद्वार, होनेवाले दु.ख । प्रकृति के द्वारा या दूसरो के २-परात्मद्वार, ३-स्वात्मद्वार । प्रकृतिद्वार से आने द्वारा दु ख का उचित और पर्याप्त कारण न होने वाले दुख को प्राकृतिक दु.ख कहना चाहिये। पर भी प्राणी अपनी लालसर तृपया ईण्या मंड 'परामद्वार से आनेवाले दुःख को परात्मकृत क्रोध छल घृणा आदि वृत्तियों के कारण काफी 'कहना चाहिये, और अपने भीतर से पैदा होने. दुखी होता है । इन दुखों की जिम्मेदारी न वाले दुःख को स्वात्मकृत कहना चाहिये । प्रकृतिपर है न किसी दूसरेपर, किन्तु अपने पर
१-प्राकृतिक ( शोउम्पजेर ) यद्यपि संसार है। ये स्वस्त दुःख जीवन के कलक हैं। कोई में प्रकृति ने दुख की अपेक्षा सुख अधिक भर आदमी सेवा आदि से महान होगया और उसकी रक्खा है, फिर भी दुख का पूरी तरह थमाव महत्ता से अगर हमारा दिल जलता है, तो इसमें । वह कर नहीं सकी है। ज्ञानानन्द जीवनानन्द हमारा ही अपराध है । सीता के सौन्दर्य से
विपयानन्द की सामग्री उमने काफी मर रक्खी रावण की लालसा ती हुई नो इममें दसरा
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१८५७
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कोई अपराधी नही था रावण ही अपराधी था। और ये छत्तीस दुःख सदुःख भी होते हैं अबीज सीतापर इस दुःख की जिम्मेदारी नहीं थी किन्तु दुःख भी होते हैं और दुख भी होते हैं इस रावणपर थी।
प्रकार कुल एकसौ आठ तरह के दुःख हुए।
दुखो के इन भेदो को ठीक तौर से ध्यानमें रखने इस प्रकार वारह प्रकार के दुःख प्राकृतिक, के लिये निम्नलिखित नक्शा (फूचित्तु) उपपरकृत, स्वकृत के भेद से छत्तीस तरह के हुए। योगी होगा ।
भाधात प्रति अविषय रोग
विषय
रोध | अति- इसा- | इट- अनिष्ट-| लाधव | व्यग्रता सहवेदन
श्रम | प्राप्ति | वियोग योग |
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प्राकृतिक
परकत
स्वकृत
सद्दुःख
भवीजदुःख
दुर्दुम्स
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एक सौ आठ भेद इसप्रकार वनेगे ११ सद्ः- ५० हुए, इसलिये पचासवां भेद कहलाया 'अबी दुःखमय प्राकृतिक आघात, २-सद समय प्राकृ. जखमय परकृत प्रतिविषय' । इस प्रकार कोई तिकप्रनिविषय ३-सदुःखमय प्राकृतिक विपयो भी भेद निकाला जासकता है और भेद के तीनो इसप्रकार बारहवा सददःखमय प्राकृतिक सह. अंका को जोड़ने से दुःखो का नम्बर जाना सकता वेदन । १३-सदुःखमय परकृत आघात, १४-सद है। जैसे 'तुदुःखमय स्वकृत आघात' नाम का दुःखमय परकृत प्रतिविपय आदि २४ का सद:
भेढ ६७ वा भेट कहलाया । दुख के ७० ग्यमय परकृत सहवेदन।३६ वा सद् खमय स्वकृत
स्वकृत के २४, आघात का १, तीनों अंकों को सहवेदन। इसीप्रकार छत्तीस अबीज दुखमय
जोडने से हा हुए। के,छत्तीस दुईखमयके,नक्शेपरसे समझनेमे बहुत इन १०८ तरह के दु.खो मे प्रारम्भके २६ सुभोता है। जिस नम्बर का भेद हमे निकालना तरह के सदु.ख छोडने योग्य नहीं हैं वे विश्वहो वह नम्बर नीनो पंक्तियों की एक एक संख्या सुखवर्धन की दृष्टि से आवश्यक होने के कारण जोड़कर निकालना चाहिये। जिन संख्याओं के स्वागत योग्य है। हो । विश्ववधान में बाधा न पड़े जोड से वह नम्बर निकले उन संख्याओंवाले और ये दुःख भी बुध मात्रा मे कम होजायें ऐसा दुःखो को मिलाने से इच्छित हुम्वभेद निकल उपाय अवश्य करना चाहिये । वाकी अवील श्रायेगा। जैसे हमें चा दुखभेद निकालना दुःखमन्त्र के छत्तीस भेद और इसमय के है, तो अबीजःखके खाने में लिखा गया ३६, छत्तीस मंद इस प्रकार ये ७२ तरह के दल दर परकत के खाने में लिया गया १२, और प्रति- करने योग्य है इनका उपाय करना चाहिये। विषय के खाने में लिखा गया २. कुल मिलाकर दुख दूर करने के उपाय छ. तरह के हैं
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१ प्रतिगंध, २ दूरीकरण [ हटना ] ३. चिकित्सा १ सहिगुता, प्रेम, दंड ।
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१- प्रतिरोध [गेको ] आघात आदि को रोकलेना, उसे होने न देना या होनेपर भी उसका असर अपने उपर न होने देना [रतिरोध है। जैसे छत्ते से वर्षा की चू के रोकते हैं, हाल तलवार की चोट रोकते हैं, मकान के द्वारा वर्षा नृप टेड रोकते हैं, किवाड़ के द्वारा चोर आदि को रोकते है व नव रोध है ।
२- दूरीका डटना [हुड ] जहा रोव करने की शक्ति न हो वहा उससे वचने के लिये Feart किनारा काटना, आदि दूरीकरण है । जैसे भूकम्प को रोक नहीं सकते तो वहा से
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जाना पड़ता है, बाढ पीड़ित स्थान से भी इटाना पड़ता है, जहा प्लेग आदि को रोक नही पाते, वहां भी पड़ता है। पर यह तो एक तरह की कायरता कहलाई । क्या वायरता भी कल्याण का उपाय सकती है
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पर चोरी का मात्र ढूढ़ना आदि चिकित्सा है।
४ - सहिष्णुता (फीशी ) जब दुःख रोका न नासके, उससे बचा न जा सके उसे हटाया न जासके तब उसे धीरज से सहन करना सहिता है। सहिष्णुना से दुःख का संवेदन कम होता है, चिकित्सा में भी सुविधा होती है, इसका पराका विजय मिलजाती है ।
उत्तर- गर्लमे अगर पहाड़ श्रजाय तो उमेवाड़ फेंकने के लिये सिर फोड़ते रहने का नाम दुरी नही है, बहादुरी है उसके उपर से या दायें से freeter | आग लगगई हो तो उसे बुझा डालना चाहिये, पर जमाना सम्भव न होग से बच निकलने को कोशिश न करना, उसी में जल मग्ना बहादुरी नहीं है । यहादुरी विश्ववर्धन में है. मुदता
में नहीं | हा विश्वखवर्णन के लिये कभी हो. कराना आवश्यक
ऐसा करनेमें बहादुरी क्लीपर नरर्थक न होजाने में बहादुरी नहीं है। विश्व कक मार्ग से भागने का नाम कामार्ग में आये वाद से नाम वायरता नहीं है।
ता है, पर
- चिकित्सा (थियो ) दुख को जब रोता उससे बच न सके वह याही जाय उनके लिये कोशिश करना चिकित्सा । माना योग होजाने
प्रश्न- जब दुःख सिरपर व्यापता है तब हर एक प्राणी सहता ही है. इस प्रकार सहिष्णुना जब अनिवार्य रूप से होती है उसको उपाय में बतलाने का क्या अर्थ |
उत्तर - किसी न किसी तरह भोग लेने का नाम सहिष्णुता नहीं है, किन्तु चाणक्य विचलित हुए बिना सहलेने का नाम सहिष्णुता है। दीन बनकर रोरोकर जो सहजाता है वह तो भोगलेना ( घीशो) है महना ( फीशो) नहीं। भोगना रोरोकर होदा है. सहना हँस हँसकर होता । दुःख में जो जितना चीर विचलित और अधिकृत है वह उतना ही सहिष्णु है।
ये चार प्रकार के उपाय हो स तरह के दुखों के लिये उपयोगी हैं पर प्रेम और दण्ड प्राकृतिक दुःखो से उपयोगी नहीं हैं । प्राकृतिक दुन्न किसी व्यक्ति की इच्छा से नहीं आते जिसमे प्रेम वाद का उसपर प्रभाव पड़े और वह अपनी इच्छा से इन दुखों से हमे मुक्त करने जो लोग प्राकृतिक कष्टो से बचने के लिये भक्ति पूजा करते हैं प्रकृति को भेंट चढ़ाते हैं, पानी माने के लिये भजनपूजा होम यदि करते हैं व सेलेपन का परिचय देते हैं जिना कहा जाना चाहिये । प्रेम ( भक्ति मैत्री बस ) न का प्रभाव समझदार है. प्रकृतिपर नहीं
ही पड़ता
अप्रेल)-दूसरे पतियों के द्वारा हमे जो दुख सहना पड़ते हैं उनमें उन परियों का स्वार्थ और अहंकार कारण होता है। रेम के द्वारा इन दोनो पत्तियां काफी अ लगाना है और वे ही है।
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प्रहंकार को बोसकता है, स्वार्थ की वासना को 'ट्रीय शोपण, साम्राज्यवाद आदि होता है, कम कर सकता है। प्रेम फ बिना बात बात मे सब कार्य इतने भयंकर हैं कि एक दिन सारी संशय, खेड, अपमान, आदि मालूम होने लगते मनुष्यजाति को नष्ट कर सकते हैं और इनने है, और रेम होनेपर चुराई भी उपेक्षाशीय होजाती भयंकर संहार किया भी है। जिस सामग्री से हैं. यहा तक कि यात वात में भलाई दिखाई देने स्वर्ग बनाया जासकता था उससे नरक बनाने में लगती है। मनुष्यों की तो बान ही क्या है हमारी इस राष्ट्रीयता का भी काफी हाथ है। रममुद्रा या पन्य व्यवहार से जब पशुआ का राष्ट्र से भी रुद्र सामाजिकता और रेम का पता लगजाता है तब वे भी मित्र बन जातीयता तो किसी भी देश की जनता को हैवान जाते हैं। गणिसमाज के कल्याण के लिये यह बनादेनी है, इससे वह राष्ट्र न संगठित होपाला सर्वश्रेष्ठ प्रोमध है। हमें दूसरों के दिल को 'रेम है, न सहयोग से काम लेसकता है, निर्वल होकर मे ( भक्ति मैत्री वात्सल्य कणा आदि सब म दूसरो का गुलाम बनता है इससे एक तरफ हैं और मेवा उपकार दान नमा सहानुभूति हैवानियत बढती है दूसरी तरफ शैतानियत बढ़ती प्राति उनक कार्य है ) जीतना चाहिये । इससे है। इसप्रकार दरयो की काफी वृद्धि होती है। पाप्राणिकृत दुःख राय निमूल होजायेंगे। जा विभारंमी है उसके मात्र प्रनाकृत कम होते है
३-कब किस मौकेपर मनुष्य को किससे और एक तरह से वह तो किसी का पात्र होता मतलब निकल आता है इसका कुछ ठिकाना
नहीं, इसलिये पहिले से मतलय की बात करना नहीं, ये मत्र याने दुख दूर करने. उमे रोकने.
ठीक नहीं। मनुष्यमान से नो हमाग मतलब या निमूल करने में सहायक होनी है।
हो हो सकता है पर कभी कभी दूसरे प्राणी से पन्न-विनरेम की क्या जारत है. हम भी मतलब निकल सकता है। इसलिये मतलब गरेमी या समाजप्रेमी बने तो काफी है और नामपर मन को संकुचित नहीं बनाया बही सम्भय है। कीट-पतंगों तथा अन्य दुइ जासकना! गणियों में हम रेम कहा तक कर सकते हैं और कोनो से जिन्दा रह सकते है। इसलिये ४ मनुष्यमात्र में प्रेम को सीमित रखना रेम नो उन्हीं से करना चाहिय जिनसं मनलय
भी ठीक नहीं क्योकि मनुष्य से भिन्न प्राणियो मे भी, मनुष्य के बरावर न सही किन्तु काफी
मात्रा में चैतन्य रहना है। बल्कि बहुत से . उत्तर-शाप इस प्रकरण में काट-पतंगा प्राणियों में समझदारी जानपहिचान, बफादारी, से सम्बन्ध नहीं है क्योंकि दुःपनिरोधोपाय के
कृतज्ञता, प्रेम आदि गुण पाये जाते है, इन मरेम का उपयोग नहीं होसकता है जहा गणों के कारण उन पराणियो से एक तरह की सीमारे रेमभावों को समझ सकं । कीट- सामाजिकता पैदा होजाती है। ऐसी हालत में पतंग मनुष्य के रेमभावी को समझकर तदन- उनसे प्रेम न करना; उन पशुओं से भी न ने सार व्यवहार नहीं कर सकते । बिच्छू से तुम को नीचा बनालेना है रेम कृतज्ञता । रेम करो इसलिये डंक नहीं मारेगा एमी वात आदि मनुष्योचित गुणा को नष्ट कर देना है , नही होती फिर भी रेम को सकुचित बनाना हो। यह अलग बात है कि कोई पशु मनुष्य
नही। विश्वसुरवात की दृष्टि से रेम क जीवन में बाधा डाले, या जीवन के लिये नु. क्षेत्रको विस्तृत से विस्तृत बनाना चाहिये। यहा और पशु भो में से किसी एक को हो जिन्दा .. निन्त सूचना उपयोगी है।
सकने की परिस्थिति पैदा होजाय, तो हमें . १-राष्ट्रप्रेम तक विश्वप्रेम को सीमित को बचाना पड़ेगा क्योकि विश्वसुखवर्थन रखने का परिणाम विश्वव्यापी महायुद्ध, अन्तर्गः सम्भव है। फिर भी जिसमे जिननी मात्रामे ।
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है उसका हिसाव भुलाया नहीं जासकता। छोटे इमपकार प्रेम भी दय दर करने का एक राणी का कम विचार करो, पर विचार अवश्य बड़ा उपाय है। करो, उसे भुलायो नही । इसप्रकार की नीलि से
५-देड (उचो) कल्याण-विरोधी कार्या , विश्वप्रेम की सीमा में सब प्राणी आलाते हैं
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और प्रशाशक्य उनकी मनोवृत्तियों को बलपूर्वक और अधिक सुखवर्धन की नीति में वावा भी हटाना दण्ड है। जिन पाश्यिापर रेम का नहीं पड़ती, मनुष्य को प्रात्मरक्षा के आवश्यक उचित भाव नहीं पड़ता उन्हें दएड देकर व्ययहै और उचित मार्ग भी खुले मिलते हैं। स्थित करना पडता है । नि.सन्दह मेयम और प्रेम ___ ५-यह वान ध्यान में रखना चाहिये कि से जो सुन्वयन होता है और दुश्य दूर होते हैं
प्रेम, शरीर या वचन की चीज नहीं है, वह वह सब नएड से नहीं होना फिर भी जय काट मनकी चीज है, इसलिय अवसरपर मोटा बोल- उपाय नहीं रहता है तब दण्ड द्वारा जिननं दुःखा लिया जाय या कुछ शारीरिक शिष्टाचार का को जितनी मात्रा में गेका बासकना है उतना पालन करलिया जाय इससे काम नहीं रोकना चाहिये।
चलसकता । वह मनमें भी हो तभी मफल समाजव्यवस्था के मूल में दो बान है... वाहोसकती है। ऊपर की चीज तो बाज नहीं कल एक संग्रम, दसरा भय ! मपम प्रेम का अनुहुउड़जायगी, और ठीक मौकेपर काम न आयगी, शासन मानता है और मन दह का । प्राय, प्रत्येक मावह हमारे अनजान में अफ्नो निसारता की समझटार प्राणी में न्यूनाधिक रूप में ये दोना बाघोषणा करती रहेगी, और उससे परतिक्रिया भी बतियों रहती है। ओ उत्तम श्रेणी के गणों है मुहोगी । इसलिये 'रेम को स्वाभाविक बना देना ही उनमे सयम इनना रहता है कि उसके आगे भत्र
ठीक है । और अब रेस स्वाभाविक वनजाता है न जाता है। जो अधम श्रेणी के प्राणी है । कोतब वह एक तरह से असीम होजाता है। वह भय की छी पर्वाह करते हैं। भय के धागे सयम व सूर्य के प्रकाश को तरह चारों ओर फैलता है। जाना है। मध्यम श्रेणी में दोनो पर्याप्त मात्रा जायह बात दूसरी है कि जिसमें जितनी योग्यता में रहते हैं। उत्तम श्रेणी के लिये दण्ड की श्राव.
होती है वह पदार्थ अस प्रकाश से उतना ही चम- मकना नहीं होती । म यम श्रेणी के लिय दण्डकरता है। पर वह प्रकाश किसी पदार्थपर अपनी शक्ति को सता या उसका प्रदर्शन ही काफी है मारफसे उपेक्षा नहीं करता। स्वाभाविक प्रेम भी पर अधम श्रेणी के लिये जमका प्रयोग श्रावइसी तरह सत्र के सुखबर्धन का खयाल रखता है। श्यक है। पर यह कह सकना कठिन हैं कि कौन
स्वाभाविक प्रेम या विश्वारेम में एक प्राणी कर किस श्रेणी में रहेगा ? माधारणतः दुखड़ा लाभ यह है कि हम अपने को सा सर्वत्र उत्तम श्रेणी के मालूम होनेवाले मनुष्य किसी
सुरक्षित और सहाययुक्त समझते हैं, अर्थात इस अवसरपर या ठीक अवसरपर अधम श्रेणी के बाहेरकार की परिस्थिति निर्माण होने की सम्भावना निकल पड़ता है, वपा से जिन्हें इमानदार समझा पसादनाती है। हरएक पाणी को इसो जीवन में व बेइमानी करने का अवसर पाजानेपर वेईमान कहाा नाना जीवनी में अनेक अच्ची-बुरी परि. निकल पड़ते हैं। इसप्रकार का धोखा शिक्षित वालेथतियों में से गुजरना पड़ता है। अगर पारिणया कहलानेवालो, त्यागी या विरक्त कहलानेवाला. । स्वाभाविक विश्वप्रेम हो तो हरएक परिस्थिति और अच्छे श्रीमानो से भी होजाता है। इसलिये वह दूसरी का प्रेम पासकेगा। इसप्रकार यह उचित ढङ्ग-व्यवस्था होना जबरी है। जो वास्तव
श्वप्रेम का प्रत पाणिसमाज के कल्याण के में उत्तम श्रेणी के होगे उनकेलिये वह व्यवस्था वह नये--विश्वसुग्ववर्धन के लिये सर्वोत्तम औषध काम में न आयगी पर वाकी सब के लिये तो होगा।
आयगी। इसप्रकार जिस पाप को संयम या प्रेम
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के बाग नही रोका जासका है उसके असर से होता है इसमे भी वेबारे बिच्छू सांपों का को समाज को बचाने का कार्य दंड द्वाग करना वश नही, अपराध भी नही, फिर भी रक्षा के चाहिये।
दृष्टि से उन्हें दंड देना पड़ता है। पागल कुत्त प्रम-देनोनिता पशुता का चिन्ह है, भी बीमार ही होता है पर जब वह काटने दौडत
है तब उस मारना ही पड़ता है। वश हो या क्या इसका समर्थन करना पशुता का समर्थन
हो पर जब किसी के जरिये दु:श्ववर्धन होता। सना नहीं है।
तत्र उसका निरोध करना जरूरी है। उत्तर-नि.सन्देह दण्डनीनि पशुता का
दूसरी बात यह है कि जगत मे जितनी चिन्ह है पर उहा पशुता हो वहा कंवल उसका
चुराइयाँ है वे किसी न किसी कारण परम्परा का चिन्ह मिटाने से पशुना नहीं मिट सकती। बैल
फल हैं, एक आदमी और बदमाश खूनी विश्वास. का सांग निकाल देने से बैल आदमी नहीं बन
घाती कृतघ्न आदि है तो उसकी इस मनोवृत्ति जाता । इसलिये जब तक मनुष्यों में पशुना है
का निर्माण एमके मातापिता के, या आसपास तब तक उसे नियन्त्रित रखने के लिये, उसके
की घटनाओ के कारण हुआ है, और उसके दुःख से दुसग को बचाये रखने के लिये उचित
त मातापिता का और आसपास की घटनात्री का देडनीति का होना आवश्यक है | हा। उसका निर्माण भी उससे भी पुराने मातापिता और प्रयोग सम्हलकर करना चाहिये और न्याय की उससे भी पुरानी घटनाओं के द्वारा हुया है इस हत्या न होने देना चाहिये, इसका भी ध्यान प्रकार प्रत्येक बुराई की कारण परम्परा अनादि रखना चाहिये कि कानून के शब्दों का उपयोग में विलीन की जासकती है और उस बुराई को न्याय के विरुद्ध न जाने पाये। हां। अगर प्रेम- कारण दिखान से निरपराध कहा जासकता है, मोनि से काम चल सकता हो, और दूसरोपर ऐसी हालत में उसे दंड देने की जरूरत नही उसके बुरे प्रभाव पड़ने की सम्भावना न हो तो रहती : परन्तु यदि इस विचार से समाज ने प्रेमनीति से काम लेना चाहिये, या दण्ड को प्राय- आज तक दंड-व्यवस्था को न अपनाया होता तो वित्त का पदेने की कोशिश काना चहिये। समाज के दुःख आज हजारो गुणा होते । पर फिर भी दंड-व्यवस्था नो रहना ही चाहिये। जब दड-व्यवस्था के भय ने पुरानी कारण परम्परा पशता चली जायगी तब दडनीति विधान स्पों को नष्ट करक पाप की परम्परा तोडी है। मनुष्य रहनेपर भी उपयोग में न आयगी। आवश्यकता अगर अपने मन के सारे विचारो को डायरी में नरहने से वह उपयोग में भले ही न आये, पर लिन डाले और फिर उन्हें पढ़े तो उस ही नजाने कत्र कैसी जगत पजाय इसलिये मालूम होगा कि वह किसी शैतान की डायरी अमका रहना आवश्यक है।
है, पर उसके जीवन में जो वह शैतानियत
दिवाई नहीं देती, तो उसका कारण समाज का अपराव भी एक तरह की मानसिक भय है, अपने स्वार्थों को धक्का लगने का भय है। योमरी है और बीमार आदर्मा दया का पात्र इसप्रकार हम देखते है कि परम्परा से कोई बुराई होता है दंड का नहीं, क्योंकि बीमारी में उनका श्रा भी जाती है तो समाज के रंड भय के कारण क्या चश!
वह दवी रहती है। इसलिये जब तक मन की ___ उत्तर-खेत में अनाज के पौधा के साथ शैतानियत मरी नहीं है नब तक दंडनीति सभी जो घास-फूस पैदा होता है उसमे घासफूस का 1 के लिये हितकारी है। कोई अपराध नहीं होता, फिर भी अनाज के अपराधी को बीमार समझकर व्या . पौधो की रक्षा के लिये उसका उखाडना जरूरी समय हमें समंष्टि की दया न भूलजाना चाहिये। है। बिच्छू के डंक में और माप के मुंह में विप रावण को बीमार कहकर दया दिखाते . .
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सत्यामृत
सीतापर दया करना न भूलजाना चाहिये। कारण साधुपुरुषो का या प्रतिस्पद्धियो का खून सीताओ की दया भूलने का परिणाम होगा घर- करनेवाले, अपनी ऐयाशी के लिये दूसरे का घर घर में गणों का पैसा होना। इसप्रकार की या देश लूटनेवाले, लूटने में बाधक बननेवालों के टोल में न अपगबगे, न अपराधी का मला प्राण लेनेवाले, मृत्युदंड के पात्र है, चाहे चे अकू गान जगत का भाग। कहलाते हो, गुडर कहलाते हा राजा कहलाते हो।
माना कि शैतान के भीतर भी इदय होता पर किसी भी तरह का दह क्यो न हो है और वह बदल भी सकता है, यथायोग्य उसके हमारे नतमे न्यायरक्षा या समाजरक्षा का ही हदय परिवर्तन की कोशिश भी करना चाहिये, धान रहना चाहिये । अपनी से स्वार्थवश पा उस दृदय परिवर्तन की भाशा में जीवनमर प न हो, सिर्फ अपराध को ६ करने, उसके था वो उसका भानताथीपन साल नही किया श्रसर से सम्मा की रक्षा करने अपराध क जासकता । इसके असर को रोकने के लिय उचित फैलाव को रोकने या निर्मूल करने का विधार बना भी पड़ेगा।
हो और इसके लिये अपराधी को कोर से कठोर दयश्चम्या में इतना विचार तो
के दंई या मृत्युदंड देना आवश्यक मालूम हो तो करना ही चाहिये कि किल परिस्थिति में उसने
इस विवशता समझकर करना चाहिये । अधिक
दुख गेकन क लिने कम दुख का विधान अनु. अपराव किया, क्या वह दूर की जासकती है, उसका वास्तविक मनोभाव क्या होना चाहिये।
। चित्त नहीं है। दुख दूर करने का यह भी एक
उपाय है। उसके उपर प्रेम मा का प्रभाव पड़ सकता है. इमेनमा किया जाय तो उसकी नजीर बनाकर
संयम-सयम भी दु.न्य दूर करने का दूसरे लगेग उमका ठरुपयोग तो नहीं कांगे आदि उगय है, इसका उपयोग हुन खो मे है। अधिमत्र शना का विचार करके जितन कोमलता से कांश दुर्दम्य पापको 18 में जाने से होते हैं काम लिया जामके लेना चाहिये।
और सयम से ही पाप की राह रोकी त्रासानी
है और दुख से बचा जासकता है, इसलिये वह मानना ही पडना है कि व्यवस्था जरूरी है उसमे गमि का सुधार होता है और मष्टि का
___ मनकार दुख दूर करने के सात पाय । भी मौर इससे दुध घटता है।
हैं और उनसे पहिले बताये गये सी पाइ प्रश्न-अब किसी व्यक्ति की मृत्युन दिश
नरह के टुम्ब अधाशय दूर करना चाहिये। जाना तर उममें इस क्ति के सुधार को क्या
किस किस दुख को दूर करने में किस किस गुजान जाती है।
उपाय का उपयोग है इसका मजित विवेचन यही
किया जाता है। Tr-मृत्यु का भर आज तक
सदु न्या को साधारणत. दूर करने की मनन यं पराध में मंक रहा और दूसरे मैकडो
समका जमरत नहीं है सिर्फ उतने अंशमे कम करने की आगे जगियों की रोक हो यही समाज- है जिसमें उसकी कन्यागकारकना का सुधार को गिना है। कभी कभी में वना ती जयगर माग-मयाद
वा न लगे। बाद-जी या निकालकर देना १- सदु समय माहतिक श्राधात-प्रोले पाना मी समाज में भी बड़-रात- बरस रहे हैं, एक धचा उनकी मार से गिर ना को पं.ना पाना है। वियों के उपर पड़ा है, जमने दौडका उमे उठाया और मसनम RITI पास ननवाने, भनभ लभाये । इस प्रयान में चार ओले इमं भर
यात्रा
न म बातो का विचार करक इतना
भी दम्योपाय है।
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घाटको
लगगये. इससे टच भी हुआ पर बच्चे के प्राण (व्यग्रता ११) वहा के प्राकृतिक कष्टो के सहने बचाये 1 ओला का आशत राकृतिक श्राशत से, इसप्रकार के दुखी भाइयों के दुख से सहानुपापोर दु.न से अधिक सुख पैदा करनेवाला भूत पेना होता हो (सहवेदन १२) ये सब हुआ इसलिग मदद न था। इसका सहन करना सदुःखमय प्राकृतिक कष्ट है, इन्हे सहना ही उचित है। पीछे चिकित्सा की जासकती है, चाहिय, और कर्तव्य में हानि न हो इसप्रकार हायम छनरी हो तो उसका उपयोग करके थोडा उनका प्रतिरोध आदि करना चाहिये, पीछे बहुत प्रतिरोध भी किया जासकता है। इस प्रकार
चिकित्सा भी करना चाहिये। यथाशक्य दु.खसे बचना चाहिये पर दु.खसे . सद्दु ख आवश्यक हैं पर जिन सदु.ग्यो वचन के नामपर बच्चे की रक्षा रुकना न को हम घटा सकते हैं फिर भी उससे पूरा काम चाहिये. न हानिकर डील होना चाहिये। होता रहेगा उन्हे घटाना चाहिये । अधिक से
अधिक कष्ट सहने से पुण्यबन्ध होगा, नाम होगा २-सद्गुःखमय प्राकृतिक प्रतिविषय भी
इसलिये कम जरूरत होनेपर भी अधिक दुःख
भोगना, अचान है और नाम आदि की इच्छा के लिये किसी दुर्ग:यन अत्गुण. या अतिशीत
से कष्टो की मात्रा व्यर्थ बढाई जाती हो या स्थान में जाना पड़े नो प्रनिधिक्य होगा । उसे
बढ़ने दी जाती हो दम्भ है, छल है । इसे मोघ सहन करना चाहिये । नाक पर कपडा आदि . लगाकर प्रतिरोध भी किया जासकता है।पर तपनक तुपो] या मोघमात्रिकतप [ नकन्ट जिस कारण से दर्गन्ध पैदा हुई उस कारण को तुपा कहते हैं। इससे बचना चाहिये। हटाने का प्रतिरोध और भी अकला है। सहि.
१३-२४---सद्दु खमय प्राकृतिक दुद प्णुता की आवश्यकता तो है ही।
जिमप्रकार बारह तरह के हैं उसी प्रकार परफ़न
भी बारह तरह के है । इसमे आघात प्रादि दूसरे 3-१२-सदादःलमयः प्राकृतिक प्रविषय मनुष्य के किये हुए होते है। जैसे कोई प्रादमी आदि भी इसी तरह से समझ लेना चाहिये। देश की स्वतन्त्रता के लिये जेल गया तो लेल का जहा प्राकृतिक दृष्टि से पानी आदि की कमी हो दुध परकृत सदु ख कहलायगा। सम्भव है अन्न की कमी हो, वहा सेवा के लिये जाकर कष्ट विरोधी सरकार के कर्मचारी उसके साथ मारपीट उठाना पडे ( अविषय ३ ) या वहा मन्छर करे ( आघान १३ ) खराब खानापीना दे (प्रनि
आदि के होने से, जलवायु खराब होने से रोग विषय २४) खाना न दें (अविपय ४) भोजन 'होजाय ( रोग४) जगह ऐसी हो कि घूमने में खराब चीजें या मन्दविप मिलाकर बीमार फिरने की भी गुसाइश न हो (रोध ५) जमीन कदे (रोग १९) आने-जाने की पराधीनता तो ऐसी ऊंची-तीची पहाड़ी हो कि आने जाने में भी रहती हो है अमुक क्षेत्र में सककर रहना पड़ता अतिश्रम पड़े, (अतिश्रम ६) इच्छानुसार चीज है (रोध १७) सख्न सजा होने से अतिश्रम न मिलती हो (इशाप्राप्ति ७ ) या जलवायु आदि करना पड़े (अतिश्रम १८) पढ़ने-लिग्वने को की प्रनिकलता से कुटुम्बियों को न रक्खा जास- किताने था जरूरी चीजे न मिले (इष्टाप्राप्ति :) कता हो । इष्टवियोगद) पहा ऐसे जंगली जान• रियजनों का वियोग तो होता ही है (इष्ट वियोग वरी की बहुलता हो कि दिनगत अनिष्ट की चिन्ता २०) बहुत ही खराब आदमियो की संगति में रहती हो ( अनिष्टयोग.६) वह जगह एसी रहना पड़े इससे खूब परेशानी हो (अनिष्ट योग साधनहीन हो कि वह। रहने से ही आदमी २१) अपमान हो (लाधव २२) इतना काम तुच्छ दृष्टि से देखा जाने लगता हो, (लाघव १०) करना पड़े और सम्हलकर रहना पड़े कि वात उस जगह प्रकृति ने इतनी परेशानियों पैदा करती बात मे व्यसत्ता हो (व्यग्रता २३ ) समान का हा कि ज्यग्रता से काम लेना पड़ता हो होने से दूसरों से सहानुभूति पैदा हो (सह
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सत्यामृत
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वेदन २४ ) इसरकार ये परकृत सदु ख कह- तरह के परकृत फलदुप हैं उनमें काफी विचार लाये। यहा सहिष्णुता अत्यधिक आवश्यक है से काम लेना चाहिये। जहा प्रतिरोध से काम प्रेम का भी काफी उपयोग है। बाकी उपाय गौण चलसकता है वहां कायरता से दरगमन न करना है। हा, ऐसे भी परकृत सदुःख होसकते है जहा चाहिये। हा। वीतरागभाव से दूरगमन किया टंड आदि दूसरे उपाय भी काफी मुख्यना से जासकता है। कोई दुर्जन अन्याय करेगा इसकाम दे सके।
लिये उससे डरकर भागने की उम्रन नहीं है।
हा. साधुता वीतरागता प्रादि के कारण उससे .. २५-३६-विश्वसुखवर्धन की दृष्टि से अपने
। बचकर रहा जासकता है। सहिष्णुता की भी हाथों श्राघात आदि बारह तरह के कष्ट सहना
सीमा का ध्यान रखना चाहिये। अगर हमार्ग स्वकृत सदुःस्व है। वास्तव में इन कठो से
सहिष्णुना दूसरों में दुरभिमान पैदा करं अन्याय मनुष्य ऊँचे दर्जे का तपस्वी होता है । ध्यान
को उत्तेजन दे तो परतिरोध या दण्ड में काम इतना रखना चाहिये कि नामादि के लोभ से
कलाम स लेना चाहिय । कुछ न हो तो असहयोग तो किया व्यर्थ कष्ट न बढाये जायें नहीं तो ये तप मोघतप ही जासकता है यह भी एक तरह का दरड है। या मोघमात्रिक तप होजायेंगे। किमी महान सीमकार जापान लाव. विनय या शियाव्यक्ति को जीवन दान देने के लिये अपना खून चार कारन धारण कर सके उससे भी बचाना देना पडे, [आधात २५ ] सेवा में वेस्वाद भोजन चाहिये । यही बात सहवेदन के बारे में हैं । जिस करना पड़े [रतिविषय ६ ] भूखों रहना पड़, सहवेदन से न्याय का, सत्य फा. विश्वहित का, अविषय ३७] सेवा से उसका रोग लगने की कोई सम्बन्ध नहीं वह व्यर्थ है। इसी तरह बारह पूरी सम्भावना हो [ रोग २८] कफकर एक जगह तरह के स्वकृत फलदाय है। से निरर्थक कष्ट रहना पडे [गंध २६ ] काफी मिहनत करना पड़े. से बचना चाहिये। जिम तपस्या से जगत का [अतिश्नम ३०] संवा में लगे रहने से इष्ट वस्तुएँ कोई हित नहीं बल्कि मुन्न ही अधिक है ऐसे न मिले [ इष्टायप्ति ३ ] कुटुम्पियों को छोडना तपप फरदो से भी बचना चाहिये, अन्यथा पड़े [ इष्टवियोग ३२ ] दुर्जनों में या कष्टकर परि. यक तरह के प्रात्मयान कहलायेंगे ! स्थिति में रहना पडे [ अनिष्प्रयोग ३३ ] दूसर
- इसीप्रकार इत्तीस तरह के लोग तो कम योग्यता खनेपर भी अंचे पदापर , पहुँच जाय किन्तु यह तपस्वी पदो की पोट दुद गय है। हर तरह बुरे है। ये दस के पान किये बिना छोटा कहलाता हुआ भी संवा करता रहे ही नहीं है किन्तु च के बीज भी हैं। आगे [लाघव ३४] सेवा का कार्य इतना विविध और और भी दुःख पैदा करते है। जब हम कोई बुरा विशाल करले कि उसे पूरा करने क लिय व्यत्र काम करना चाहे जिसका फल काफी दुन्य हो, होजाना पड़े [व्यग्रता ३५] सेवा कार्यों के उस बुरे कार्य के करने में भी जो कष्ट उठाना पड़ अपने हाथ से बुलाये गये कष्टा से दूसरे के कष्टा वे कर दुदुख कहे जागे । जैसे कोई म सहानुभूति जाग्रत होना [ सहवेदन ३६] इस श्रादमी वयो की अधेरी रात मे चांग करने प्रकार ये बारह स्वकृन सददुख हैं। इन्हे सहना जाय, और बीच में वर्षा के कारण या जमीन चाहिये । इसमे सहिष्णुता ही नात्यावश्यक है। ऊबड़-खाबड होने के कारण अंधेरे में काफी कष्ट
३७-s-मरकार छत्तीस तरह के सद- उठाय तो यह प्राकृतिक आघात नाम का दुदु म्य टुभव है उसी तरह छत्तीस तरह के अवीजदुग्च कहा जायगा । इसी तरह पाप की राह में गहया फलदु व है। इनमें जो बारह तरह के प्राक- तिक रीति से भून्नों मरने की, दुर्गन्ध आदि सहने निक दुम है उनका उपाय तो परतिरोध दूरगमन की, बीमार होने की, साथियों के मरने की, नौवन चिकित्सा और सहिष्णुना ही है। पर सौ बारह सकती है, ये सब दुव है । परतिरोध आदि
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दपिकांड
M
ammu
Downmen
इसके वास्तविक उपाय नहीं है, इसका एक मात्र दूसरो को दुःची देखकर जो मानन्द मिलता है
पाय है संयम, जो पाप से निवृत्त करदे और वह रौद्रानन्द है। निरपराध को दुःखी देखकर पाए की राह में आनेवाले दुःखो से भी बचाद। जो सुख होगा वह रौद्रानन्द पापानन्द कहा इसीप्रकार परकृत और स्वचत्त दुदु:खों का भी जायगा पर रावण सरीखे पापी को दु:खी देखकर एकमान्न उपाय संयम है। दूसरे उपाय थोड़ी-बहुत जो सन्तोष या श्रानन्द होगा वह सत् सैद्रानन्द मात्रा में सफल भी हो और वर्तमान दु:ख कुछ कहा जायगा । इसप्रकार रौद्रानन्द यहां व्यापक घद भी जायें, तो भी उसकी बुराई जो जीवन में अर्थ में लेना चाहिये । हा, बोलचाल मे जहां घुसगई है वह दूर न होगी। इसलिये संयम का रौद्रानन्द के साथ सत् आदि कोई अच्छा विशेउपयोग अवश्य करना चाहिये। इसके साथ पण न लगाया जाय वहा रौद्रानन्द का पापानन्द चिकित्सा का उपयोग किया जासकता है। अर्थ करना चाहिये। पहिले रौद्रानन्द का अर्थ
सुखोपाय (शिम्मोरही) इसी व्यावहारिकता को लेकर किया गया है। दुःख करने के साथ सुख पाने की भी -सत्सुखमय प्राकृतिक ज्ञानानन्त-प्रकृति कोशिश करना जरूरी है। पहिले जो आठ तरह एक खुली हुई किताब है। उसे थोड़ी बहुत मात्रा के सुख वत्ताये गये हैं उनके भी तीन तीन रूप में हरएक पढ़ता है और उसके ज्ञान से आनन्द किये गये थे, सत्सुख, अबीजसुख और दुःसुख । उठा सकता है। अगर वह ज्ञान मविष्य में सुखये प्राकृतिक भी होते हैं. परकृत भी होते है वर्धन के काम आता है तो वह सत्सुख है। इसके
और स्वकृत भी होते हैं । इसप्रकार सुख लिये जिज्ञासा वृत्ति चाहिये, भविष्य में ज्ञान काम । के बहत्तर भेद होजाते हैं । जैसे एक नक्शे आसके इसकेलिये धारणा शक्ति विवेक और प्रेम के द्वारा दु:ख के एक सौ आठ भेट ध्यान मे रक्खे चाहिये, आनन्दी मनोवृत्ति चाहिये। यह आनन्द गये थे उसी प्रकार सुख के यहत्तर भेट भी ध्यान बहुत सुलभ और सस्ता है। प्रकृति बहुत खुले ., में रखना चाहिये।
हाथो यह ज्ञानानन्द विखेरती रहती है।
ज्ञाननन्द | प्रेमानन्द जीवनानन्द विनोदानन्दस्वतंत्रतानंद विषयानन्द महत्वानन्द सैद्रानन्द |
प्राकृतिक
परकृत
स्वात
सरसुव
दुःसुव
मोनो पंक्तियों की एक एक संख्या जोडकर २-ससुखमय प्राकृतिक प्रेमानन्द-प्रमा सल का इच्छित भेद निकाल लेना चाहिये। इतनी शिव और सुन्दर है कि हमारे भीतर ___ यहा एक बात ध्यान में रखना चाहिये कि एक तरह का प्रेम और आत्मीयता का भावना गद्वानन्द का अर्थ व्यापक है। गैद्रानन्द का अर्थ कर देती है। इस प्रकृति प्रेम का उपयोग अपार यहा पापानन्द ही नहीं है किन्तु सामान्य रूप में जगत् को और सुन्दर बनाने में सायमय बनाने
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मस्यामृत
किया जासके तो यह सत्सुखमय प्राकृतिक प्रेमा- जन्म से ही मिल । जन्म से ही शरीर मुन्नर नन्द कहलायगा।
स्वस्य शक्तिशाली रतिभा तो सा महत्व . ३-दुनिया में जीवित रहने के लिये वर का मानन्द मिलता है। पर इस महत्वका दूसराये और पानी को अपने आप मिलते है पर अन्य सुरी करने में या विभवन में उपयोग होना खाय-सामग्री भी अपने आप पैदा होती है चाहिये । तो मत्सम्य कहलाया। कई लोग मे सत्र को प्राप्तकर स्वयं श्रानन्द माना और जगत को प्रसन्नोपी स्वभाव के होत है कि उन्हें गिनना सुखी करना सत्सनमय प्राकतिकता भी महत्व मिला, मन्तुष्ट नहीं होते। ४-मनोविनोद की, दिल बहलाने की अटूट
के कारण दुखो बने रहते है। यह भूत है।
अधिक से अधिक महन्व शान वारने के लिये सामग्री दुनिया में भरी पड़ी है। दुनिया की एक उचिन प्रयत्न भले ही माने रहो पर से कुछ एक रचना कुनालवर्धक है और इसी अद्भुत महल पा है उसका अानन्द नए मत करो। है कि ध्यान देनेपर मनुष्य हँसते-हँसते लोटपोट अगर जगन मे सेकड़ों हमसे महान हैं तो कुत्र होजायें। हाथी घोड़ा ऊंट प्राठि भिन्न-भिन्न ऐसे भी हैं जिनसे हम महान है। इस महत्त्वा. प्रकार के पशु-पक्षियों की, पर्वत शिखरी वनस्प- नन्द का अनुभव करो। उसमे अभिमानी नहीं तिया की रचनापर हम गौर करें तो अदनुत रस आत्मगौरवशाली बनो, जिससे मनाये में में सराबोर होजायेंगे और इच्छानुसार मन घह- प्रेरणा मिल । लाव भी कर सकेंगे। इस मन-बहलाव से स्वयं यद्यपि पतिक कार्य सरह न्यायसुखी होना दूसरा को सुखी करना भी एक अन्याय का विचार नहीं करते पिर भी अनंक सत्सुख है।
स्थानांपर न्यायव्यवस्था दिवाई देती है। पाप -प्रकृति ने हरएक प्राणी को काफी अंशा का पय अनेक तरह से दुःखद और आत्मपानक में स्वतन्त्र पैदा किया है। यह दुबन्धना में इसने होता है। अनेक असंयमी लोग बीमार होकर लायक काम न करे तो काफी स्वतन्त्रतानन माम मरत दख गय ६. दुनिया क पर कहर.
, मरते देख गये हैं. दुनिया के उपर कहर बरसाने कर सकता है।
वाले प्राकृतिक घटनामा से नष्ट होते देखे गये
है। ऐसी हालत में उन्हें उसे यह अपने आप ६-दुनिया में जो जीवनसामग्री उपलब्ध हैं
पाप का एड मिला है उससे सन्तोप हो तो यह उसमे एक तरह का अन्धा स्वाद सुगन्ध आदि भी होती है इसके सिवाय भी जगह जगह
रौदानन्द सत्सुख ही कहलायगा। हां! अगर इन्द्रियों को तृप्त करनेवाली सामग्री भरी पड़ी है।
यह गैद्रानन्द सिर्फ इमलिये हुआ कि कष्ट में
पड़नेवाला हमाग विरोधी है, फिर भले ही वह यह बिना दिया हुआ विषयानन्द है भणी को
निरपराश हो, बल्कि शायद हम ही अपराधी इसका उपयोग करना चाहिये । हा। वह दुच- होपर विरोध के कारण हमे आनन्द पाया है सन न बन लाये, मर्यादा का उल्लघन कर अपने तो यह रौद्रानन्द घोर दुःसख या महापाप होज्ञाको या दूसरों को दुःखदायक न वनजाय, विश्व गा| सत्सव यह भी कहा जासकता है अय सग्यवर्धन की मर्यादा के भीतर रहे, इसमा ध्यान इममें पापरतीकार की भावना हो। रखना श्रावश्यक है। इतना ही नहीं यह सत्सुन्न
E-१६-जिसरकार ये पाठ रचार के वभी कहलायगा जब यह विश्वसुग्यवर्धन के काम गतिक सत्सव बताये गये हैं उसीप्रकार आठ में पायगा।
परकृत भी सत्सुख होते हैं। इसमें अन्तर इतना -महत्व कई तरह के होते हैं। पर कुछ ही है कि ये सुन दूसरों के सहयोग से मिलते हैं
है जो किसी ने हमे प्रयत्न करके दिये इसलिये इनमें कृतज्ञता आदि आवश्यक है। नहीन हमने उन्हें प्रयत्न से पैदा किया है वे मे नानानन्द गुरुओं से या शास्त्रों से मिलेगा
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গন্ধিা
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इसलिये उनकी प्रादर-भक्ति होना चाहिये । प्रेमा. यह ठीक है कि कभी कही सुख के लिये नन्द में प्रेम का वदला प्रेम से देना चाहिये, दुःख की भी जरूरत है इसलिये किसी किसी जीवनानन्द मे सेवा आदि से प्रत्युपकार करना दुःख को सदुःख कहा गया है पर विवेकहीन चाहिये । इसप्रकार अन्य आनन्द की बात भी दुःख सुख का मार्ग नहीं है, और न हरएक सुस्त है। महत्वानन्द का बदला भी नम्रता सेवा तथा दुःख का मार्ग है। चाहे विषयानन्द हो बाई अन्य किसी प्रतिदान से देना उचित है । सत्सुख- रेमानन्द हो अगर वह सत्सुख रूप है या फलमय रौद्रानन्द में भी वीर-पूजा श्रादि आवश्यक सुखरूप है तो उससे न तो जीवन अपवित्र है। दुष्ट निग्रह के आनन्द्र के बदले में दुष्टनिग्रही होता है न उससे दुःख बढ़ता है। इसलिये इसी का गुणगान, पूजा श्रादि जरूरी है। जीवन में हर तरह का सुख प्राप्त करना चाहिये।
१७-२४-- सत्सुखमय ज्ञानानन्द प्रादि तर हा ! दुःसुख से जरूर बचना चाहिये। स्वकृत रहते हैं तब उनमे कृतज्ञता आदि का ४६-७२-दुःसुत्र भी चौबीस तरह के हैं। विचार तो नहीं करना पड़ता पर उन्हें प्राप्त करने ये बुरे हैं। इनका त्याग करना चाहिये । ये किस के लिये साधना पूरी करना पड़ती है। और प्रकार विश्वसुखवर्षन में वाधक है इसका पूरा उनका दुरूपयोग न हो इसलिये संयम का पालन विचार कर इनकी दुःसूखता को दूर हटाना करना पड़ता है, अहंकार पचन होजाय चाहिये। इसका भी ध्यान रखना पड़ता है।
ज्ञानानन्द चाहे वह प्राकृतिक हो चाहे ये चीशीस रकार के सत्सख जितने अधिक परकृत या स्वकृत, जब इससे अहंकार आनाय, हो उतना ही अच्छा। संसार में अधिक से पूसरो को ठगने का विचार आजाय तो ज्ञानाअधिक साख बढानेकी कोशिश करना चाहिये। नन्द दुःसु धनजाता है।
प्रेमानन्द जब विवेकहीन होकर पक्षपात. २१.४ जिस प्रकार सत्सुख चावास के स्वार्थ के रंग में रंग जाता है तब वह मोह। नरह के हैं उसी प्रकार फलसुख [अबीज सुख ] होजाता है। मोह भविष्य में सब को दुःखी भी चौबीस तरह के हैं। दोनों का अन्तर इतना
करता है। है कि फलसुख भोगने के बाष्ट समाप्त होजाता है जप कि सत्सुख भोगने के बाद अन्य सुख के
जीवनानन्द अगर, अन्याय श्रादि से प्राप्त लिये बीज बनजाता है। फिर भी यह असम्भव
किया जाय तो वह भी विश्वसुखमें बाधक होने है कि सारा सुख सत्सुख ही रहे, सत्सुखों की सासुख हाजाता है। परस्पग के अन्त में ऐसा सुम्ब आही जायगा जो
विनोदानन्द मी तु:सुख होजाता है अगर भोगने के बाद समाप्त होजाय । इमलिये सत्सख मयोदा का अतिक्रमण करके किया जाय, या
ठीक अवसर पर न किया जाय, या ठीक व्यक्ति के समान फलसुख भी संसार में आवश्यक हैं।
' के साथ न किया जाय, या किसी निरपराध का इसलिये फलसुख भी अधिक से अधिक बढाना
दिल दुखाने को किया जाय । विनोद हँसी चाहिये।
मजाक आदि का ठीक उपयोग करना । बहुत से लोग भ्रमवश सुख की निन्दा कठिन कार्य है। यह काफी ऊंचे दर्जेका 4 करते हैं । चाहते तो वे भी सुख ही हैं पर मानते है पर इसमें प्रतिभा संयम प्रेम आदि है कि दुःखसे सुख पैदा होता है सुखसे सुख नहीं बड़ी जरूरत है, नहीं तो यह काफी दु.. . होता । विषयानन्द श्रादि को तो गाली ही दिया होजाता है। इसकी चोट काफी गहरी होती है करते हैं। पर ऐसे लोग सत्य के मार्ग से दूर हैं। विनोदोका रत्तीकार करना कठिन होने से .
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। ८६ }
सत्यामृत
वेदना भीतर ही भीतर काफी गहरी होती जाती तब तक बदलना पड़ते है राजतन्त्र. अधिनायक है और एक अमिट शत्रुता की छाप लग जाती है। तन्त्र, प्रतिनिधितन्त्र रजातन्त्र वर्गतन्त्र आदि
अनेक तरह के तन्त्र बनाना पड़ते है। फिर भी . स्वतन्त्रतानन्द मे यदि संयम विवेक ना
अधिकार के दुरुपयोग का रोकना बडा कठिन हो तो यह उमसलता कहलाने लगता है। उच्छृखलता अनेक तरह से स्वपर सुखनाशक
होता है। और जब तक यह नहीं रुकना तब तक
मनुष्य जाति स्वर्ग की सामग्री मेनरक बनाती होती है इसलिये दु सुख बनजाती है।
रहेगी। इसत्ये अधिकार के महत्वानन्द्र को विषयानन्द में विषयलालसा सब तीन
दुःसुम्ब न बनने देना चाहिये। होजाती है वह दुर्भसन बनजाती है तब अन्याय
२-विभव [धूनो]-जीवन के निये उपकी पर्वाह नहीं करती, अपने अस्वाध्य की ही
योगी अपने अधिकार की सामग्री का नाम विमत्र पर्वाह नहीं करती, चोरी करना, या उवार चोर
है। इसका आनन्द भी महत्त्वानन्द है। उस वनना [ उधार के नाम पर धन मागना और न देना
सामग्री के उपमोग से जो आनन्द मिलता है. यह आदि अनीतियों से जीवन काफत अलग है पर विमव के होने से जो लोक में होजाता है ऐसी हालत में विपयानन्द दु.सुत्र हैं। ,
महत्वानन्द की लालसा हरएक को होती महत्वानन्द बहुत जल्दी दु साव बनजाना है। है। और वह असीम होती है । सब ताह के क्योंकि साधारण जन से अधिक और काफी आनन्दी से तृप्ति होजाने पर भी महत्वानन्द अधिक विभव होनेपर ही महत्वानन्द का अनुभव अतृप्त वना रहना है । पर इसके द सुख पनन होता है, और जनसाशरण से काफी अधिक
की बहुत सम्भावना है । इसलियं हर तरह के विभव होने का मतलब है समाज के भीतर एक । महत्व से खास तौरपर सम्हलने की जरूरन तरह की आर्थिक विषमता का होना । पर यह
है। महत्वो की गिनती बताना तो मुश्किल है बुरी बात है । इसलिये महत्वानन्द प्रायः दुःसुख | फिर भी खास खास महत्व यहा बतानिय ही बनता है। हाएक ही तरह से यह दु सुख जाते हैं
होने से बचमकता है। वह यह कि जो हमारे १-अधिकार. २ विमव, ३-संघ, ४ कुल,
पास विभव हो वह समाज के लिये उपयोग में -अश, ६-तप, ७-फला, ८-शक, -ज्ञान,
लाया जाता हो। जिनना अधिक जनहित उस १०-सौन्दर्य, ११-असाधारणता, १२-दान,
विमव स किया जायगा उतनी ही अधिक निष्पा१३-त्याग, ०४-सेवा।
पता बढ़ेगी 1 सी हालत में हम विभव के
मालिक न रहकर सिर्फ सञ्चालक बनना चाहिये। १- अधिकार [ रोजो ] समाज के द्वारा दीगई या स्वीकृत की हुई निग्रह अनुग्रह शक्ति
३-संघ [कूनो]-अपने समर्थक सहायक को अधिकार कहते है यह इसलियं दी जाती
या सहयोगी समूह का नाम संघ है। मेरे इतने है या स्वीकृत की जाती है कि जिससे अधिकारी
अनुयायी है, इतने मित्र या साथी है, हमारी ठीक तरह से व्यवस्था कर सके । इसलिये उसका
संस्था इनला विशाल चा महान है, अमुक गजा उपयोग सुव्यवस्था के लिये करना चाहिये अपना
नंता पदाधिकारी श्रीमान या विद्वान से मंग
सम्बन्ध है या परिचय है, मेरे इतने नौकर है, था अपने लोगों का स्वार्थ सिद्ध करने के लिये
श्रादि का आनन्द संघ का महत्वानन्द है। साधाया अधिकारी होने का घमण्ड बताने के लिये रणत इसका आनन्न मन में ही लेना चाहिये। नहीं। अधिकार की समस्या सत्र से अधिक बाहर इसका घमण्ड नहीं बताना चाहिये । निरजटिल समस्या है। यह समस्या न सुनमने के पराओं को साधुजनो को दबाने या उनका अपकारण शासक बदलना पडते है ओर शासन- मान करने में इसका उपयोग न करना चाहिये,
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रिकांड
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नही तो वह दुःसगा होजायगा, पाप होजायगा। मे ही अनुभव कर सकता है जो उसके मरने के
१-कुज [जो]-जन्मसे सम्बन्ध रखनेवाले बाद या मरने के सैकड़ो वर्षों बाद मिलनेवाला जनसमुदाय का नाम कुल है। मैं अमुक कुटुम्ब में है। इसलिये यश का महत्वानन्द वर्तमान के पैदा हुआ है. मेरे बाप मा चाचा मामा आदि लोगा से ही सम्बन्ध नहीं रखता किन्तु असीम इतने महान है, मेरी जाति गोत्र भाटि उच्च हैं भविष्य और असीम क्षेत्र से भी सम्बन्ध श्रादि कुनका महत्व है। जातिशत काफी व्यापक रखता है। बल्कि सच्चे यश की कसौटी यही है। देश श्रादि के अनुसार भी जानिभेद वनजाता भविष्यकाल या महाकाल है। सच्चा यश तीन हैं और इसके महत्व का भी आनन्द श्राना है। बानापर निर्भर है। १-अपने द्वारा किया गया मैं अमुक प्रान्त का हूँ या अमुक देश का हूँ पर लोकहित, २-लोकहित के लिये किया गया त्याग, अमुक रंग की जाति का हूँ आदि का महत्व भी -अशोलाभ की गौणता। असाधारण योग्यता कुल का महत्व है। यह महत्त्व अच्छा महत्व नहीं
भी आवश्यक है पर इसके द्वारा यश की मात्रा है, इसका उपयोग न करना चाहिये । जिस मनुष्य
ही बढ़ती है, क्योंकि असाधारण योग्यता से में गुण है योग्यता है वह एस महत्वो की पर्वाह
लोकहित विशेष रूप में होता है। अगर अपनी नहीं करता। गुणहीन अयोग्य व्यक्ति ही से
माधारण शक्ति का उपयोग उपयुक्त तीन बातो
के अनुसार किया जाय नो असाधारण योग्यता निकम्मे महत्वों का सहारा लिया करते हैं। इस
बना भी सच्चा यश मिन्नसकता है। हा। लिये साधारणत यह ह मुग्ध है। हा 1 मल्सम्ब के रूपमै भी यह महत्त्व कमी कभी काम पास
उसकी मात्रा कम रहेगी क्योकि योग्यता कम
होने से लोकहिन कम होपायगा । और । यश की कता है जब कि इसका उपयोग बुगई को दूर
मात्रा बढ़ाने के लिय असाधारण योग्यता मले करने के लिये किया जाय। जैसे कोई यह सोचे
ही आवश्यक हो, पर उसकी सच्चाई के लिये कि “ मैं अमुक का बेटा हूँ अमुक प्रान्न या राष्ट्र का हूँ फिरमा पनित काम क्यो काम । इस
उपयुक तीन बात जरूरी है । लोकहित के आधार प्रकार महत्वानन्द यदि पाप से, युग में बचने
पर तो यश खड़ा ही होता है पर जब उसके में सहायक होजाय तो यह सल्मुग्ध कहलायगा,
लिय त्याग और जुडजाना है तब उसमें चमक अन्यथा दु सुम्य तो है ही।
आजाती है। पर त्याग से भी अधिक जारी है
यशोलाभ की गौरगना । यश मार की तरह है जो - किसोलोगा के हग में अपने गले में सी बाचकर बन्दर की तरह मचाया विषय में जो आदरभाव है यह यश है। यश का नहीं जासकता. वह प्राकृतिक कारण मिलनेपर आनन्द बुग नहीं है पर यश प्रानि की कला सारही नाचना है। अगर यह मालूम होजाना और उसके लियं यानश्यक मयम कठिन है। है कि तुमने यह काम यश के लिये किया है तो साथ ही यश की पहिचान भी कठिन है। चार यश का पांचा इससे सलग जाता है। लोग इसनिन की वाहवाही का मलिन और क्षणिक यश लिये यश देना चाहते हैं कि हमने जो लोगों की का महत्व बहुत कम है पर लोग इसी में भूल संवा की. उसका बदला लोग धन-सम्पत्ति आदि जाते है । ईसा यादि महामाओं का यश आज किसी भौतिक प्रतिदान के द्वारा नहीं चुका मक हजाग वर्ष चीनजाने पर भी मंसारख्यापी है जब या पूरी तरह नहीं चुका सके। इसलिए उनके कि उनके जीवन में शायद माधारण शासक का मन में एक तरह का कृतज्ञता का भाव पैदा होना यश भी उनसे अधिक रहा हो। पर इसलिये हैं। यही अश है। पर अगर यह मालूम होगय साधारण शासक इमा आदि महात्माओ से कि सेवा काना तुम्हाग लक्ष्य ना सिर्फ यश अधिक यशस्वी न कहे जायेंगे। जो मनुष्य दूर- मुलगा था, तब लोगों के दिल में मेवा के प्रति दी है वह उस यश के अानन्द को अपने जीवन कृतज्ञता कम होजाती है। वे यह भी सोचते है
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सत्यामृत
क अगर हम इसे पूग यश न दे पायंगे तो यह का बलिदान न करेगे तो सच्चा यश पाजायेंगे, सेवा भी न देगा, तब यह तो एक व्यापारी कह- अगर जीवन मे वह दिखाई न देगा तो भविष्य नाया परोपकारी नहीं, लोगों के मन में यह भाव में मिलेगा और उसका दिव्यदर्शन हम आज ही पाया कि कृतज्ञता कम हुई. और यही तो यश कर सकेगे और उसका महत्वानन्द लेसकेगे। को कमी है। इसलिये यश की पर्वाह के बिना हो । जब यह महत्वानन्द घमण्ड पैदा करदे, लोकहित के काम में डटे रहने से सच्चा हित कृतघ्नता पैदा करदे, सेवा में बाधा डालने लगमिलता है। इसके निर्णय की कसौटी यह है कि जाय तो दुःसुख होजाता है, इससे वचना चाहिये। लोकहित और वर्तमान यश में अगर विरोध हो -तप [ तुपो स्वपरकल्याण के लिये नो, मनुष्य लोकहित की तरफ चलाजाये। तब विशेष साधना को तप कहते हैं। तप से भी समझा जायगा कि यश इसलिये गौण था। महत्व बढ़ता है और उससे अानन्द मिलता है। नर महाकाल के यहा उसके यश का हिसाब पर कभी कभी नप का बाहरी प्रदर्शन तो होजावा लिया जाने लगेगा। इसलिय यश को गौण है पर उसके अनुरूप स्वपरकल्याण की साधना ग्वना बावश्यक है।
नही होपाती, बल्कि उस साधना का लक्ष्य भी अपने मुंह से अपने गीत गाने से यश नहीं नही हाता, किसी तरह महत्व प्राप्त करना था मिलता था कम होता है, इसलिये आत्मविज्ञापन मुफ्त में खानेपीने के साधन जुटाना ही उसका अन्या नहीं समझा जाना । । । सेवा की भावना लक्ष्य रहता है। यह एक तरह का ठगपन हे इसमें की यह आवश्यक होपडे. संवा का क्षेत्र लियं दु सुग्व है । इससे दूर रहना चाहिये । नयार करने के लिय उपयोगिता मालूम हो
नोक ला चना 7 विषयों को इस तरह र अनिवार्य समझकर मर्यादित रूप में किया बनाना किमन और इन्द्रियों का विशप आकजासकता है। जैसे कार्ड चीमा चिकित्सा कगना पण होसके, इस कला कहते हैं। थोडे खर्च मे चाहता हो, नाग मम जननिय अपरिचिन ही, ना अभिक आकर्षकता लाना इसकी सफलता की उनना आत्मपरिचय से देना पड़ता है जिसस कमोटी है। काला के द्वारा अच्छी अन्झी कल्याण. (उमम निकित्सा न नि लायक और चिकित्सा का चीज लोगों के पास पहुँचाई जानकती है,
के लिए उपयोगी प्रनुशासन मानने लायक इसरकार यह जनसेवा में बहुत उपयोगी होसविश्वास पहा होजाय। नाही कारण है कि कभी की है। पर विषयानन्द को मात्रा से अधिक सभी लोकाना न्याया का भी माली या अप. कान में इसका काफी उपयोग होता है इससे 'रिचित के गागन एक पार कर ग्राम-- बचना और बचाना चाहिय। अपनी कला का विमान का परना है जिसमें जनता उन्हें उपयोग विषयान्यता बढाने के लिय कभीज
मोमो यचनी सही मृत्व र करना चाहिय। जो लोग कहते है कि कला कलाके मोम नुमा चतकार श्रान्म-कल्याण नियं है नापी अधूरी बात कहते है। वास्तव में
ममम यी बाबी जामस्नी हैं कि मला मग फलिय अधात न्यपकल्याण के लिए नागविताना या या जनहित के पिया है। कई कि कना फाशर का मानना
माना मार मम मिमी प्रभारी ई. पर उसका अमली प्रयोग यह है कि TAIT माती पानी थी। मन- गला दीवानन्दनायकता के अग्यिं मन और Trir tin Kालय नगाजगंवा न्द्रियों को चिका स्वपकन्याम के पत्र में inta: । मनासमेग याने द्रा लागा जाय। तमी या सम्सव कानागी ।
नामक न यन मन्ले मम पाना ही लीलया जाय और उसीम • REMO
पारित मानी ममामि मानी जानना या सत्रीज मन
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धामिकांड
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होगा। यदि कला से विपयान्धता पैदा होजाय, होसकती है। ज्ञान की साधना करके महत्व जगत का कल्याण होने लगे तो वह दुःसुख प्राप्त करना चाहिये। परन्तु यदि इससे श्रात्मकहलायगी, ऐसी कला का और उसके महत्व का गौरव नहीं अहंकार आया, बदमाशी करने की स्याग ही करना चाहिये।
योग्यता बढ़ी और उससे पाप बढा, कृतघ्नता शक्तिदिगो इमानुसार परिवर्तन आइ तो यह दुःसुख होजायगा। करने में या परिवर्तन को रोकने में जो साक्षात १०-सौंदर्य (हरो) शरीर की आकर्षक
और मुख्य कारण है ऐसी योग्यता को शक्ति रचना का नाम सौदर्य है। यद्यपि सौदर्य शब्द कहते हैं। शक्ति शरीर की भी होती है वचन की
का अर्थ आकार और रंग की अच्छाई है अर्थात
सिर्फ भाग्य का विषय ही सुन्दर समझा जाता है भी होती है मन की भी होती है। इसकी विशे
पर यहा किसी भी इन्द्रिय था सब इन्द्रियों के पता यह है कि इसके महत्व को सरलता से
अच्छे विषय से मतलब है इसलिय सौंदर्य अस्वीकार नहीं किया जासकता, क्योकि इसका
व्यापक अर्थ लहरो ] में है। इसका अधिकांश परिचय प्रत्यक्ष निलसकता है। इसके महत्व का।
महत्व जन्मजात है फिर भी शरीर को स्वच्छता अनुभव करना और उसका आनन्द लेना साधा. स्वास्थ्य सुव्यवस्था से सौंदर्य की वास्तविक रणत: तो बुरा नहीं है किन्तु यह अन्याय का, साधना की जासकती हैं। ,गार मो बहुत मर्याअविनय का कारण न होजाय इसका ध्यान
दिन होना चाहिये। अधिक श्रृंगार सौंदर्य का रखना चाहिये । नहीं तो यह दु.सरख होजायगी,
प्रदर्शन नहीं करता सिर्फ विभय का प्रदर्शन पाप होजायगी।
करता है या किसी गमारू मनोवृत्ति का प्रदर्शन साथ ही यह भी न भूलना चाहिये कि तन करना है। ऐस श्रृंगार से बचना चाहिये। की शक्ति से वरन की शक्ति का और वचन की किन्तु सुव्यवस्था सफाई आदि से सम्बन्ध रखने शक्ति से मन की शक्ति का महत्त्व अधिक है। वाले और अपव्यय रूप न बनने वाले अंगार तन की शकि. तो पशुओं में भी पाई जाती है पर मे कोई बुराई नहीं है। सौंदर्य चाहे कृत्रिम वचन शक्ति, चित मात्रा में मनुष्य मी गेमेक ] हो चाहे अकृत्रिम (गेमिक, अममिक) और वचन शक्ति को प्राय: हराएक मनुष्य म उसका महत्वानन्द तब तक बुग नहीं है जब तक होती है पर मन शक्ति के लिय प्रतिमा विद्वत्ता वह समय शक्ति और अर्थ का अपव्यय न करे चिन्तन धारणा संयम आदि अनेक गुणो की और जिसके कारण छैलापन का परिचय न साधना करना पड़ती है । यो अपने अपने आत्रा मिले। मर पर सभी शसियाँ महान है फिर भी असाधा
___कुछ लोग अपने को साधु तपस्वी त्यागी गना, अधिक उपयोगिता और जीवन के
__ आदि बताने के लिये इस व्यापक सौन्द्रय विकास की दृष्टिस तनस बचन और वचन से
लहरों की तरफ उपना बताते हैं । गंदे रहना, ' मन की शक्ति अधिक महान है।
अस्तव्यस्त रहना इसको चे वैराग्य आदि की ह-ज्ञान | इगो-शास्त्र विचार या अनु- निशानी समझते है पर यह या तो दंभ है या भत्र से पाय हा नानको विद्या[बुधो कहते है
मूढता । अस्तव्यस्तता, गंदापन आदि योग्य और समझने या विचार करने की शक्ति का कारण से क्षन्तव्य कहे जासकते है पर ये प्रशंसनाम बुद्धि बानो ] हैं। ये दोनो ही ज्ञान है नीय नहीं कहे जासकते, न त्याग वैराग्य लाधुता
और नाना से ही महत्व मिलता है। हा । यह के निशान माने जासकते है। सौन्दर्य का महत्वाकहा जासयाना है कि बुद्धि जन्मजान होती है नन्द वहीं चुरा कहा जासकता है जहा उसका
और विद्या प्रयत्न से, साधना से, प्राप्त की जाती उपयोग दुराचार आदि के बढ़ाने में किया हो। है। विद्या के द्वारा बुद्धि भी काफी मुसंस्कृत वा वह दु सुग्ध है इसलिये त्यागने योग्य है।
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सत्यामृत
1-असाधारणता- नोपोमो] आवश्य- है. ३-दानी संग्रह शील नी होसकता है कता अनावश्यकता उचित अनुचिन का विचार अतिसंग्रह भी कर सकता है, त्यागी निरतिग्रही न कति हुए, बहुतों का ध्यान बचने लायक होता है। इस कारणों से नानीसे त्यागी श्रेष्ठ है। प्रद्मुतता या विशेषता को यहा असाधारणता नानी और त्यागी बतनसे महत्व भी मिलता कहा गया है। विद्या बुद्धि सौन्दर्य आदि की है और उसका भानन्द उठाने में कोई बुराई असाधारणता का महत्व उनकी उपयोगिता के नहीं है। हो । प्रदर्शन सा न होजाय नि महत्व पीछे है। पर इसमें कोई उपयोगिता का विचार के लिये ही गान या त्याग किया है । महत्व नहीं है सिर्फ कुतूहल के कारण उसके देवनेवाला के लक्ष्यमे दान और त्याग न करना चाहिये। रा जमघट लगता है और इससे वह एक तरह नहीं तो वह निप्पल होजायगा । की महत्ता पाजाता है। जैसे किसी नं खूब लम्बे १४ सेवा ( मियो ) परोपकार के लिये नाद बढ़ालिये तो इसमें कोई उपयोगिता का अपनी शक्ति योग्यता समय आदि का उपयोग विचार नहीं है फिर भी दर्शनार्थी आजायेंगे काता सेवा है। इससे भी महत्व सिलना है।
और महत्व बजायगा। कोई सत्र से 3'चा है इस आनन्द लेना चाहिये । हा ! अहंकार न काइ सब न नीचा है, किसी मनुष्य के छ भने पाये ईयां न आने पाय दुसरे सेवकों का निकल आई है, किसी बेल के नीन माग भागय अपमान न होने पाये । नहीं तो वर मुःसुन्न है यनर श्रमायाराना एक तरह का महत्व होजायगा। पंग का देती है पर ये मब व्या है । इसप्रकार सरकार महत्त्वानन्नों को करना के मात्य का यानन्द लेना मूर्खता है। सी
चाहिये और वे द.मुन्न न बानाग इसका ध्यान प्रभाधाराना नो को पैदा करने की कोशिश न
रखना चाहिये। गाना चाहियदि त्ययं पटा होगई हो ना उनम महत्वानन्द का अनुभव न करना चाहिये ।
__ 'पाठयां आनन्द गैदानन्द है । वह उब
. दुसुन्ध रूप होता है तब पापानन्ट कहलाता है। १२-गान ( दानो ) परोपकार के लिये
यह बहन धुरा आनन्द है । इसलिये पापानन्द -पनी सम्पत्ति मागणे काना दान ।
मे बचते रहना चाहिये । यह एक नगह मे गैना१३-राग (मिंचो)-स्वपरकल्याण के नियत की निशानी है। निय प्राप्त या ग्राम सम्पत्ति. मुवि वाया था
इस प्रमा आठ या बत्तर तरह के अन्य मुनकर वन्तु नी का छोडना त्याग है! नान को अपना त्याग व्यापक और श्रेष्ठ
प्रभ-इन बाट प्रकार के सुखाम न दो सान भी नह का त्याग है फिर भी काम सम्प का उल्लेव है न मोज मुख का । अगर मोनी में कार्य अलर ई-१-गान में अपनी प्राठा सव काममुख है नो मोजसुख का "प्रायम्य सुविधाएँ बहुन अंगो मे मुरजिन अनग उल्लेख क्या नहीं किया गया ? मनी और त्याग में आवश्यक सुविधाएं उत्तर--काम और मोजसम्म के अलग "धिक पगी में नोड़ना पड़ती है। दानी इलरको जारन नहीं है क्योकि धार कार
गगनगा यष्टि अपना प्रमाणन करता सम्म कामसर भी होमरत है और मोन होना है और बापान के नगे की साब भी होसकते ई 1 कामसम्म पनिस्तिक माना अशुद्रनारी मी पवाह नहीं करना ५ होत है इमलिचे पगचीन है मोनसप अपनी 17 या यानानेवाले व्यक्तिले प्रयोगार्जन भावनाली से पंदा होते हैं इसलिये स्वाधीन है। मग मी दोपदेना या मनिम करना पडता राममय बाहरी परिस्थिति के अनुमार होने
रमाला भी गाना पड़ना है. नोनमुन्य बाहरी परिस्थिति के प्रतिटन रानं
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पर भी होजाते है। दूसरा कोई ज्ञान हे या ज्ञान कृन मिलनेपर भी उसमे रस का अनुभव करना, की कोई बाहरी सामग्री मिले उससे जो ज्ञाना- जो मिला उसमे सन्तोप मानना था न मिला तो मन्न होगा वह कामज्ञानानन्द [चिंग जानोशिम्मो] भी प्रसन्न रहना मोक्षमय विपयानन्द है। महत्व कहलायगा. पर अपने आप आप में लीन होकर मिलतेपर उसका आनन्द होना काममय महत्वाजो दिव्यदर्शन किया जायगा. सरसुखमय ज्ञान सन्द है पर महत्त्व न मिलनेपर भी अपनी अन्तमाप्त किरा आयगा वह मोक्षमयज्ञानानन्द [ जिन्नजानोगिन्मो] होगा। प्रेम के आदान-प्रदान से
रंग योग्यता के अनुसार भीतर ही भीतर महत्व जो आनन्द होगा वह काममय चिगं] प्रेमा
का अनुभव करना, ईश्वर परलोक आदि की नन्त होगा, किन्तु अपने आप लीन रहकर विश्व
आशा से अपने अन्तरंग महत्व की सफलता से रेम का जो अनुभव किया जायगा वह मोक्षमय प्रसन्न रहना, या जीवन की वास्तविक महत्ता को [जिन्न ] रेमानल होगा। जीवन की सामग्री समझकर बाहर से प्राप्त महत्ताओ की पर्वाह न पाकर जो भानन्द होगा वह काम जीवनानन्द करना आदि मोक्षमय महत्वानन्द है। गैद्रानन्द कहलायगा. किन्तु जी की अनुकूल सामग्री न जो पापानन्दमय है उसका तो त्याग ही करना मिलनेपर भी जीवनभरण मे समभाव के द्वारा है पर पापियों को दंडित होते देखकर जो सन्तोष जो एक तरह की निराकुलता या सन्तोप होगा होता है वह बुरा नहीं है वह काममय रौद्रानन्द वह मोक्षमा जीवनानन्द होगा । विनोद का है, पर जब पापयों को दडित न होते देखा जाय आदान-प्रदान से काममय विनोदानन्द होगा और इस आशा मे सन्तोष माना जाय कि आज किन्त किसी के विनोद न करनेपर भी या गाली नहीं तो कल और यहां नहीं तो वहां, प्रकृति या देनेपर भी जो भावजगत में एक तरह का विनोद परमात्मा दे देंगे तो मोक्षमय रौद्रानन्द होगा। या मुमकरहट पैदा होगी जिससे बाहर का दुःख प्रकार आठ तरह के सख काममय और मोन. असर न करेगा, वह मोक्षमय विनोदानन्द होगा। महोस । जेल आदि के बन्धन से छूटतेपर जो स्वतन्त्रता
जीवन का अन्तिम ध्येय सुख बताया गया का सुब होगा यह काममय स्वतन्त्रतानन्न कहलायगा पर बन्धन में रहते हुए भी बच्चों की है। पर उस ध्येय को पाने के मार्ग में दुःख-मुख पवाह न करते हुए, मन में दीनता या दुश्य का का जमघट लगा रहता है। बहुत से दुःख ऐसे भाव न लाते हुए, आत्मा या मन को कौन बौध होते हैं जो विश्वमुखवर्धन मे बहुत उपयोगी है। सकता है इसप्रकार स्वतन्त्रदा का अनुभव करना और बहुत से सुख ऐसे होते है कि उनसे विश्वमोक्षमय स्वतन्त्रतानन्द है। विषयों के मिलने से सुखवन में बाधा पड़ती है इसलिये विवेकपूर्वक जो विययानन्द मिलेगा वह काममय विषयानन्द उनका विश्लेषण कर ध्येय मार्ग को निरापद और ऋहलायगा, विपयों के न मिलनेपर भी या प्रति- सष्ट बनाना चाहिये।
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चौथा अध्यायः जीवक होपंगो]
योग दृष्टि (जिम्मो लंको)
जीवन के ध्येय के साथ मिलने का नाम रहते हैं। रोग है। ध्येय के मार्ग में जो व्यक्ति काफी आगे इन चारो मे परस्पर कोई विरोध नहीं है । ढिजाता है और पर्याप्त मात्रा मे भोक्ष सुख भी एक ही मनुष्य मे चारों बातें पाई जासकती हैं जाता है वह योगी है। योगी के मुख्य चिन्ह परन्तु जिसमें जिस बात की मुख्यता है उसका
है जीवन की पवित्रता और मोक्ष । विवेक तो योग उसी नाम से कहा जाता है। भक्त ग्नुष्य प्रारम्भ में ही आजाता है क्योकि उसके बिना दुनिया के झगड़ों से निवृत्त होकर संन्यासी भी आगे की प्रगति रुक जाती है। अन्य अनेक गुण होसकता है विद्याव्यसनी मी होसकता है और भी पहिले प्राप्त होजाते हैं पर पवित्रता और अपने जीवन के आर्थिक तथा अन्य नायित्व को मोन दोनों अतिम विशेषताएँ हैं और सत्र से पूरी करनेवाला भी होसकता है, परन्तु यदि रडी विशेषता मोक्ष है। क्योंकि अन्य गुण वे उसके जीवन में प्रधानता भक्ति की हो तो वह लोग भी पाजाते हैं जो योगी नहीं होते है । पर भक्तियोगी कहलायगा। इसीप्रकार अन्य योगी मोक्ष पाने पर मनुष्य योगी होजाता है। यों भी दूसरे योग का सहारा लेते हुए भी अपने योग थोडा बहुन मोक्ष हर एक के जीवन में दिग्बाई की मुख्यता से उसी नाम के योगी कहे जायेंगे। देसकता है, पर इतने से कोई योगी नहीं कह. यहा यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि लाता है। योगी का जीवन मोक्षप्रधान होता है। भक्ति में अधिक से अधिक समय लगा देने से काम के सिवार बाकी सुम्ब की अधिकांश पूर्ति कोई भक्तियोगी नहीं होजाता या कर्म में अधिक . वह मोक्ष के द्वारा करता है। मार्ग की दृष्टि का समय लगा देने से कोई कर्मयोगी नहीं होजाता। सफलता योगी बनने में है।
अधिकाश आदमियों का अधिकाश समय भक्ति योग चतुष्टय [ जिम्मो जीने ]
में कर्म में पठन-पाठन में धोता ही है पर इस.
लिये वे भक्तियोगी या कर्मयोगी नही होजाने । योगी के जीवन की सत्र से बडी विरोपता
विरापता मुख्य बात योगी होने की है। पहिले यह देखना मोन है। उस मोज्ञ के अवलम्बन के मेड से योगी चाहिये कि वह योगी है या नहीं। योगी हो तो दो तरह के होते हैं। १-व्यानयोगी (मुन्नौजिन्म) फिर विचार किया जायगा कि वह भक्तियोगी है २-कर्मयोगी ( कमोजिम्म), 1 ध्यान योगी तीन या क्रमयोगी है या अन्य योगी है। योगी के तरह होते हैं । भरि योगी, सन्यासयोगी जीवन में पर्याप्त मात्रा में विवेक निष्पापता तथा ३-विद्यायोगः । इसप्रकार योगी के जीवन क य अवस्थासमभाव होता है। उसके होने के बाद ही चार सहारे । दलित्रं चार तरह के योगी है। यह देखा जाना चाहिये कि उसके जीवन में इसग वह मनलय नहीं है कि योगी के किसकी मुन्यना है, जिसकी मुख्यना हो उसे जीवन में कही महाग रहता है, इसका मन- इसी नाम का योगी समझना चाहिये। योगी न
न कि मुरुष म क हो रहमा मनपा स्त्रल किया विधा प्रादि होने से कोई मारने या मार के पूरक भनियोगी विधायोगी आदि नहीं कहाजासकता।
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डाकांड
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भक्ति योग [ भजो जिम्मो] २-आदर्श दर्शन-जिसकी हम भक्ति करते किसी आदर्श की, ईश्वर की, या व्यक्ति की हैं वह हमारा आदर्श होता है इसलिये उसका मक्ति आराधना उपासना आदि के सहारे से जो अनुकरण करने की, उसकी तरफ चलने की, योगी जीवन बिताया जाता है, निष्पाप जीवन कुर्नव्याकर्तव्य का निर्णय करने की हमें सुविधा बिताते हुए दुश्खों पर विजय पाई जाती है वह और प्रेरणा मिलती है। भक्तियोग है। इस तरह की शरणागति से प्राणी यह प्रेरणा व्यक्तिदेवों से अर्थात देवोपस को अनेक लाभ होते हैं । उनमे तीन लाभ उल्लेख- महामानवो से विशेष रूप में मिलती है । ईश्वर, नीय हैं।
या ईश्वर के समान माने गये गुणदेवों से विशे. सनाथतानुभव ( सरवो इदो) षतः सनाथतानुभव मिलता है और महामानवो
२-श्रादर्श दर्शन ( चाम दीये) से विशेष रूप में आदर्शदर्शन मिलता है। यो ३-मर्यादा पालन [ रामो रंबो]
ईश्वर सब आदर्शों का आदर्श होने से उससे १-सनाथतानुभव-जिसको हम भक्ति करते
श्रादर्शदर्शन भी मिल सकता है, पर वह बहुत हैं वह हमारा रक्षक है, सहारा देने वाला है, कद्र
उच्च होने से उसका अनुकरण करने में मनुष्य करनेवाला है इसप्रकार अनुभव से प्राणों को
द्वीला पडजाता है। फिर भी महामानवता में परमसन्तोष होना है। निराशा पर वह विजय
उसीका अंश माना जाता है इसलिये एक तरह पाता है । अगर इस दुनिया में उसकी कोई कद्र
से उसके द्वारा आदर्शदर्शन भी होता है। नहीं करता, अपमान करता है तब भी वह अपने
इस आदर्शदर्शन से मनध्य का जीवन इष्ट के सहारे उसे सहन कर जाता है और पवित्र और सत्पथगामी बनता है। सत्पथ का त्याग नहीं करता । इसप्रकार का ३-मर्यादा पालन-भक्ति से मनुष्य मर्यादा अनुभव ईश्वर की भक्ति से अथवा ईश्वर के का पालन भी करने लगता है। ईश्वर या देवपर स्यानपर माने गये गुणदेवों की भक्ति से श्रद्धा होने से वह पाप से डरता है। कर्मफल का मिलता है।
विश्वास होता है इसलिये अंधेरे में भी पाप नहीं । मानय ने पकड़ा नही यदि मानव का हाथ ।
करता। पाप की भावना पैदा होनेपर उससे फिर भी कौन अनाथ अब इंश त्रिलोकीनाथ ।।
अन्तर्दश होता है इसलिये पाप से घबराता है। सत्यभक की जगत ने अगर न की पनाह ।
इसप्रकार वह कर्तव्य की मर्यादा के बाहर जाने | ईश्वर के दरबार में रही उसी की चाह ।।
से रुकता है। सत्यभक असहाय बन दर दर पीके धूल। प्रलोभनो का जाल ले जब आया शैतान । पर ईश्वर के द्वार पर उस पर वासे फूल । तब ईश्वर ने भक्त के खीचे दोनो कान ।। जद कि निराशा घेरले ब? जगत का ताप।।
सारा लालच उडगया हुआ भक्त का मान । देता आश्वासन मी ईश्वर माईबाप ॥ - वह चौकन्ना होग्या हार गया शैतान ! सत्यभक को जगत ने दी गालियाँ हजार। पापा का अवसर मिला खून मिला प्रकात पर ईश्वर ने प्रेप से लिया उसे पुचकार ।
पर ईश्वर था दखता पाप रहे सब शान्त ॥ भक अरेला पडापपा रहा न कोह साथ।
इसत्रकार किस ये तीन लाम होते हैं। तब ईश्वर ने प्यार से पकड़ा उसका हाथ ॥
परन्तु ये लाभ होते हैं तभी, जब मा हातमाते विपदाएँ करने लगी सभी ओर से चोट। हो। स्वार्थमकि या अन्धमक्ति न हो। सत्यभक्त ने ली तभी सत्येन्धर को श्रोट या तो भक्ति निमित्तभेद से अनेक तरह सत्येश्वर की साधना कभी न मारी जाय। की होती है परन्तु उसके मुख्य मेह तीन है। यह हुडी सी नहीं जो न सिकारी डाय ... र ज्ञानभक्ति २-स्वार्थमक्ति. ३-अन्धमक्ति ।
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सन्यामृत
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-ज्ञानभाक्त (भनो) ज्ञान का उत्तर-नौकर आदि प्रायः स्वार्थभस्त होते अर्थ यहा विवेक है इसलिये मानवभाषा मे इस है. पर ऐसे भी समझदार नौकर सकते हैं जो विवेकमक्ति [अंक भजो ] कहा गया है। जो गुण आदि के पारसी हो ऐसे नौकर ज्ञानमत भक्ति. गुणानुराग, या विश्वकल्याण को होसम्वे हैं। वे नौकरी छूटजाने पर भी मक्तिन भावना से सच्ची समझदारी के साथ से जाती छोड़ेंगे, कृतन न बनेंगे. अगर अपना कोई पापहै वह ज्ञानभक्ति है। इसमें अविवेक नहीं होना दोपहुआ हो और इस कारण नाहिक ने दुव. दुःस्वार्थ भी नहीं होता। जो विश्वकल्याण का हार किया हो अज्ञा को हो तो भी भक्ति न मूल है या अंग है. विश्वकल्याण में सहायक है, छोड़ेंगे। भी प्रेरक है, मल्याणपथ मे अपने से आगे बढ़ा प्रश्न-विद्यार्थीक द्वारा अध्यापनकी भक्ति, है, उसकी गुणानुराग और ऋवज्ञता से जो कि ,
या शिष्य द्वारा गुरु की भक्ति ज्ञानभाक्त है ज की जाती है वह ज्ञानभक्ति है।
वार्थभक्ति? ज्ञानमन्त्रि में भी स्वार्थ रहता है या होसकता है पर वह विश्वकल्याण का अंग बनकर ।
उत्तर-होना तो चाहे जान भक्ति, परन्तु रहता है। विश्वकल्याण के विरुद्ध लाकर या होसकता है स्वाभक्ति भी। जहां कृतलता हो, उसकी उपेक्षा करके नहीं होता। जैसे-एक शिष्य अन्याय का समर्थन कालेने की लाल ला हो, किसी सद्गुरु की भक्ति करता है क्योकि सद्गुरु
- अपने ऊपर रचित अंकुश रखने के कारण द्वेष से उसे ज्ञान मिला, सदाचार आदिक संस्कार हो वहा सनझना चाहिये कि स्वार्थ भक्ति है। मिले, मनुष्यता का पाठ पहागया नो इल भक्ति यदि गुणानुराग, और गुराज्ञता हो. अनुशासन में स्वार्थ होनेपर मो ज्ञानमति है न्योकि गुरु से द्वेष न हो तो समन्ना चाहिये ज्ञानभाक्त का यह उपकार विश्वकल्याण के अनुकत है, है। धोखा देकर झूठ बोनका अपना काम इसमें गुरुको. सर्वोपकारी या परोपकारी माना
निशललेने की वृत्ति हो वह किसी प्रकार की जाता है। परन्त एक व्यक्ति ने चोरी करने में भक्ति नहीं हैं वहां सिर्फ छल है मायाचार है मदद की. इसलिय चोर उसका भक्त शेगया तो ठरापन है। यह स्वार्थभक्ति होगी. क्योंकि इसमें विश्व- प्रश्न-भक्निमात्र स्वार्थमूलक है । कल्याण के विरुद्ध दुःस्वार्थपरता है। ज्ञानभक्ति मनुष्य को ही किसी की भक्ति नहीं करता. कुछ में ऐसी दवापरता नही होती 1 वह जगल. मतलत्र से ही करता है । ईश्वर की भी भक्ति , ल्याण के अनुकूल होती है।
हम इसलिनं करते हैं कि उसकी दया से हमाग
कोई न कोई स्वार्थ सिद्ध होता है। ऐसे हो स्वार्थ । स्वार्थमन्ति [ तुम भजो ]-विश्वकल्याण से दानी. परोपकारी, समाज सेवा साधुओ की को पर्वाह न करके अपनी स्वार्थपरता के कारण भी भस्ति की जाती है। संकट से सोई हमारा जो भक्ति की जाती है वह स्वाभक्ति है। इस उद्धार करे और हम उसको भक्ति करें तो ऐसे भक्ति में भक्तिपान के गुण दोषों का, पुण्य उद्धारक की मन्ति मे स्वार्थमनि क्यों कहना २ पाप का विचार नहीं होता सिर्फ अपने सार्वका चाहिये । यह तो ज्ञानभक्ति है। विचार होता है। स्वार्थ की मुखरता के कारण यह स्वाधभक्ति कहलाती है।
उत्तर-स्वार्थ रहने पर भी मानक्ति होस
कती है, यह इस बातपर निर्भर है कि भक्ति - सद्गुरु के यहा कोई नौकर हो करने वाले का मन कैसा है। स्वार्थ अगर विश्वकपार या मका मन हो तो उसे स्वार्थमक्त स्माण का अंग है तो ज्ञानन्ति है अन्यथा योनिमा
स्वाभन्नि है। संन्ट में से स्मिी ने हमान
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Eाकाड
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५]
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उद्धार किया, इससे हमारे मन मे यह विचार वाने के लिये भक्ति की जाय तो स्वार्थभक्ति है अाया, कि यह आदमी बहुत परोपकारी है, इसने बिना समझे दिवश भक्ति की जाय तो अन्धः बिना किसी स्वार्थ था जान हिचान के मेरा भक्ति है। उद्वार किया यह पूजा है। इसरखार परोपकारी
प्रश्न-जैसे स्वार्थ से भक्ति होती है उसी मानकर अगर हम भक्ति करेंगे तो वह भक्ति स्थिर रहेगी और वह कोई अनर्थ पैदा न करेगी।
प्रकार भर से भी होनी है । साधारण जनता बड़े
बड़े अफसगे से जो भक्ति करती है यह इसलिये अव कल्पना करो वह उद्धारक आर मी हमारा
न.II अफसरा से वह किसी भलाई की आशा निरीक्षक या न्यायाधीश वना और उसने अपराध का उचित : दिया, तो उससे दंह पाकर भी।
___ करती है, किन्तु इसलिये कि नाराज होकर कुछ
चुराई न करले। इसरकार धर्म के नामपर भी हम उसको भक्ति रखेंगे, और उसकी उद्धार-.
शनैशर शादि की पूजा की जाती है यह सब कसा या उपकार की गात्रा को न से भूनेंगे न कम करेंगे। तब हम ज्ञानभक्त कहलायेंगे,
भयभक्ति है। भयभक्ति को ग्वार्थभक्ति के समान अन्यथा जितने अशा में भक्ति कम होगा उतने अलग मद क्या नहीं बताया? अंशों में वह स्वामका साबित होगी। स्वार्थ.
उत्तर-भ केयों का सूक्षा विश्लेषण क्त्यिा भक्ति थोड़े से ही अप्रिय प्रसंग से था आगे लाय तो मपक्ति के अनेक भेद बताये जायेंगे। स्वार्थ की आशा न रहनेपा नष्ट होजाती है या जैसे कि आगे मानीवन प्रकरण मे बताये गये कम होजाती है, वह न्याय-अन्याय की पर्वाह है। पर यहा तो मलाई धुराई के सपतौल की नहीं करती, सिर्फ स्वार्थ की पर्वाह करती है। दृष्टि से सब भक्तियों को तीन भागों में या तीन किसी ने आज स्वार्थसिद्ध कर दिया, भले ही वह जातियों में बाट दिया गया है। यहा मयमक्ति अन्याय से कर दिया हो, तो भक्ति होगई, कल
स्वार्थमान में शामिल है। सार्थवासना दो तरह स्व
भी होती । एक आशा पूक (आशोवेर ) दूसरी स्वार्थ सिद्ध न हुआ, मले ही न्याय था औचित्य ।
हानिरोधक (मुग्गो) श्राशापूरक में कुछ के कारण उसने स्वार्थ सद्ध करने से इनकार किया हो तो भक्ति नष्ट होगई। मी भक्ति स्वार्थ
पाने की इच्छा रहती है और हानिरोधक में हानि भक्ति है । ज्ञानमति ऐसी चंचल नहीं होती न
स वच । की। दोना ही स्वार्थ है । भयभक्ति में उससे अन्याय को उतेजन मिलना है। ज्ञानर्मात .
- यही हानिरोधक स्वार्थवासना रहती है इसलिये उस व्यक्ति की भी होगी जिसने हमाग भले ही इस स्वार्थभक्ति के प्रकरण मे डालना चाहिये। उपकार न किया हो पर जगत का उपकार किया एन- भयभक्ति या स्वार्थभक्ति को कि हो । स्वार्थभक्ति से व्यक्ति की उपेक्षा करेगी। यो कदना चाहिये यह तो एक तरह का छल ईश्वर की भक्ति भी ज्ञानमकि स्वार्थक्ति
___ कपट या मायाचार है। अन् शनी में इस
शिष्टाचार भी कह सकते हैं पर यह कि तो या अन्धभक्ति होसकती है। ईश्वर को आदर्श
नहीं है। मानकर उस आदर्श की ओर बढ़ने के लिये भक्ति की जाय, उसे नियन्ता मानकर पाप से बचने के उत्तर-स्वार्थमक्ति [ लुम्म भा)] शिष्टालिये भक्ति की जाय, उसे हितोपदेष्टा मानकर चार [नुमो] ओर चापलूसी [ रंजूषो के बहुत उसकी आज्ञा का पालन करके पवित्र जीवन पास है, फिर भी उनमें अन्नर है। जहा भक्ति धनाने के लिये भक्ति की जाय, अपने को पाप है वह: विनय अनुराग का वेश मन में है, शिधा. और प्रलोभनो से हटाने के लिये आत्मसमर्पण के चार और चालूती में मन के विनयका विचार नहीं उद्देश से भक्ति की जाय तो यह ज्ञानभक्ति है। किया जाता। बल्कि इस में वश्चना भी होसकनी है दिनरात पाप करके उसपर मामी की मुहर लग- स्वार्थभक्ति था भयम,क्त से यह बात नहीं है।
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सत्यामृत
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है। उनमें मन रंग जाना है। एक ईसानदार न-भक्ति योगी जानमक भले ही रहे नौकर अपने गुणहीन मालिक का भी भावनपान्तु भक्ति से किसी को शेगी मानना क्या जना है, त्याब से उसके मनपर मालिक को उचित है । भक्ति तो एक तरह का मोह है महत्ता की धार वैटजाती है, और उसमें अनुराग मोही को योगी कहना कहां तक ठीक है १ भक्ति भोनर से जाना है। जहा मनपर महत्ता की और योग का एक तरह से विरोध है ? घारी और प्रेम हो यहा भक्ति सममना उत्तर-मका में कोई योगी नहीं कहचाहिये । बहा ये दानां या दो में से कोई एक न लाना, योगी नो निष्पाप जीवन और जीवनमें होकासि शिष्टाचार रह सकेगा, भक्ति नहीं। भोर मात करतेने से कहलाता है पर इस जीवन
यति ( याशो) बिना समझे, के लिये जो योगी भक्ति का सहारा लेता है यह हिताहिन का विचार किये विजा कुसंधार श्रादि भक्ति योगी कहाशाता है । भम्ति उसके लिये को कारण जो भास होती है वह अन्धाक है। व्यसम्बन मात्र है । भक्ति के द्वारा उसने आत्मइसम विवेक नहीं होता और हरता जरूरत से समपण किया है इसलिये उसका अहंकार नष्ट अधिक होती है। दुद्धि को कोई नई बात जच होगया है, दुर्वासनाएँ दय गई हैं. इभक्ति में जाय पार पुरानी बात वीक न मालूम हो तो भी लीन होने से दुनिया की चोट उसके मनपररमा घर पुगनी की कि करता रहेगा। मतलब यह पान नहीं करपानी जिससे वह निराश संज्ञाय दि अन्धमा मिसी सुमितका अनुभव की पर्वाह इष्ट नाप्ति का अाशा से वह अपने को इतना नहीं करना
असफल नहीं मानता कि सफलता के लिए यह -ज्ञानमत भी अपने विचार पर पाप में प्रवृत्त होजाय, इसप्रकार उम्मी भक्ति सतना बद्ध रहता है कि वह रिसीसी पर्वाह नहीं भीतरी बाट म सफल और शुद्ध होनेपर योग को काना नब क्या उस भी अन्धभक्त कोगे। सहारा देती है। कंवल भजन करने में कोई मत
अन्धभक र जानकी लाप.. योगी नही होजाना । पानी में कला है अन्धमा विना विचारला. भक्त को मोह कहना अनुचित है । स्वार्थवापरमा पर कानमत निपज हदथम भारत और अन्यभक्ति मोह कहलाती है ज्ञान. मानमारमी मत्य पर सदा का अमर- मति नही । शानभर में स्थिर रहता है। पर RAIPS TIME कानमन्त जब यह हा विक है यहा नाही ?
अनुभमननना पृथक भार विचार का प्रश्न-योगी किमी का भन्न नहीं हांसनाराम जय रट्टा काय मानी तो नंगा मकर नाणी है म सलना कर दि हाई सनी दुराम इनले मनन कोन है ? बिना वह भा' करेगा।
रमानुभवमान बारे का उमा, सामनाना चाहता है. नत्र ज्ञानभरन ।
चाकी गर ईश्वरवाती है तो यह । मरी पानीमा
पारवा की भक्ति करेगगाईगानीश समयBामा स्नुि या विचार गतीमान माश्यबाट नो यह मन्य श्री.
मारनं जिन्म बार बार परी नया अनेक गुपदयो री मति करेगा 1 प्राणियों भी मारा दिमाईनाना वा नाप में वर मोट होनस्ता’ सिन्नु न्याया म
सा माना यह लघु और अपनी " PETE Timi मा यो नाभी धुना। इसका भी है।
TAIT मा म पनीरवाः मेय. मस्त या सिद्धानभन + Harir-1 में
भावना को सन्तुष्ट की
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साकार
का गुण को या सिद्धात को ईयर का रूपन अन्धभक्ति न बनजाय इसका ध्यान रखना देगा, फिर भी उसकी दूद मक् ते करेगा। चाहिये । व्यक्ति का अवलम्बन लेकर अगर
प्रश्न का व्यानि की भाति नही की कोई मनुष्य जीवन की पवित्रता और मोक्ष को जासकती अथवा क्या व्यक्त की भक्ति करने से
सकता है और सुरक्षित रख सकता है, तो योगी नहीं बनानासकता?
उसे भारत योगी कहेंगे। सच तो यह है कि ऐसा
भक्ति योगी व्यक्ति की ओट में ईश्वर को या उत्तर--रक्त की भक्त दो कारणों से की जासकती है एक तो कृतज्ञता के कारण,
गुणो की मात करता है। दूसरे गुणाधिकता के कारण। योगी मनुष्य स्वयं
सन्यास-योग [ मेमिंचो जिम्मो ] बुद्ध भी हो सकता है और दूसरा के दिये हुए वृद्धता आदि शारीरिक अशकति अथवा ज्ञान को सफर भी योगी होसका है। स्वयंवद्ध मानसिक थकावट या समाज-सेग के कार्य में तो सैकड़ों में एकाध होते है याकी दस द्वारा अपनी विशेष उपयोगिता न रहने के कारण दिये हुए जान से होते हैं वे ओगी होगाने पर समाज संघर्ष का क्षेत्र छोड़ कर एहिक दुखों की भी ज्ञानात या पक गुरु की भाति सेवा पर्वाह किये बिना निष्पाप जीवन व्यतीत करना श्रादर आदि करते हैं। दूसरा कारण यह है सन्यास-योग है। संक्षेप में निवृत्ति-प्रधान निष्पाप कि योगी होजाने पर भी गुणों की दृष्टि से तरत- जीवन संन्यास-योग है। मता होती है। जनसेवा के लिये उपयोगी वाहरी यह योग युवावस्था के व्यतीत हो जाने पर गुणा में नथा व्यवहारकुशलता मे एक योगी ही धारण करना चाहिये । इसमें भी योगकी दूसरे योगी से न्यूनाधिक हो हो सकता है किन्तु दानी विशेषता पाई जाती हैं, निष्पाप जीवन जीवन की निष्पापग और मोच में मोश्रोड़ा और दुःखविजय । इनसे दु.ख-माश और सम्वबहुत अन्तर होसकता है। मायावेगा की तरतमता पायवासनाको की नरतमता आदि नेक
प्राप्ति होती है। तरह की पारसरिक समता योगियों में होती ।
भक्तियोग की तरह यह भी आपवादिक है।हा। वे सब के सर जनसाधारण की अपेक्षा .
माग है जीवन में कभी कभी इसकी भी आवश्यभी जानता या पधदशक गुरु की मात सेवा ।
. कता पड़ जाती है । चिन अवसर पर यह पावर आदि करते है , दूसरा कारण यह है कि,
. अच्छा है। पर जो लोग सिर्फ भिक्षा मागने के योगी होजाने पर भी गुणो की दृष्टि से सरतमता
लिय, आलसी जीवन बिताने के लिये या अपनी हानी है । जनसेवा के लिये उपयोगी बाहरी
पूजा कराने के लिये संन्यास का दाम करते है गेणी में तथा व्यवहार कुशलतामें एक योगी दूसरे
अपने आवश्यक कर्तव्य से मुंह मोड कर नाज योगी से न्यूनाधिक होही सकता है, किन्तु जांधन
के बोझ बन जाते हैं वे अवश्य ही निध हैं. २ चन योगी नहीं है. संन्यासयोगी अपने आपमे +,
त रहता है वह दुनिया को नहीं सताता अ. अन्तर होसकता है । भावावेगो की तरतमता,
दुनिया उसे सताये तो पर्वाह नहीं करता कमाययातनाओ की नरतमता श्रादि अनेक तरह
रह शिष्टानुग्रह ( भलो की भलाई ) दुष्टः .. की पारसरिक तरतमता योगिया में होती है।
धुरा की बाई ! उसके जीवन में गौण है हा। ये सबके सब जनसाधारण की अपेक्षा
पता सदाचारी होन के साथ वह स्वावलंबी, ५१ । कासी पवित्र और विकसित होते है। उन्हें पर्याप्त मात्रा में मोत भी प्राप्त रहता है इसलिये उन सब प्रिय, तपस्वी और सहिष्णु होता है। को योगी तो कहना चाहिये फिर भी उनमे तर- प्रश्न-भक्ति-योग और संन्यास-योग तमता होमकती है इसलिये गुणाधिक की भति व्या अन्तर है ?
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सत्यामृत
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उत्तर-गेनो ध्यान योग हैं इसके ये दोनों लिये निकले थे, जगरसेवा करना या तीची रचना में बहुत कुछ समानता है। अन्तर इतना ही है करा उस समय इनका प्रय नहीं था । यह बात कि भक्ति योगी का मन, वचन. शरीर किसी तो उन्हें तपस्या करते करते सूझ पड़ी। कल्पित या अकल्पित देव की उपासना गुणगान उत्तर-7 लोग किस ध्येय से निकले थे
आदि में लगा रहता है और संन्यास योगी के इस बात की ऐतिहासिक मीमासा करने की यहां जीवन में ऐसी भक्ति या तो होनी नहीं है या बरत नहीं है। अगर ये जनसेवा के लक्ष्य से नाममात्र को होती है, इसकी मुख्यता नहीं होती। नहीं निकले थे तो तीर्थ रचना के प्रयत्न के पहिले सभव है उस देव को पाना या उस में लीन तक संन्यासी थे। अगर जन सेवा के ध्येय से होजाना उस संन्यास-धोगी का ध्येय हो, पन्तु इसने गृहत्याग किया था तो गृह-त्याग के बाद से यह ध्येय अमुक दिशा का सकेत-मात्र करता है की ये कर्मयोगके पथिक थे। जैसे युद्ध करना और वह दिनचर्या में भर नहीं जाता जब कि भक्त पद्धती सामग्री एकत्रित करना एकही कायधारा है योगी की दिनचर्या में भक्ति भरी रहती है। उसी प्रकार कर्म क ना और कर्म-साधना करना ___ प्रश्न-सन्गस अगर युवावला में लिया दोनों को एक धारा है। आप नो क्या बुराई है १ म महावीर म. बुद्ध अन्न-म महावीर और म. युद्ध ने तो
आदि ने युवावस्था में ही संन्यास किया था तीर्थ रचना को इसलिये उन्हें कर्मयोगी कहा ... उत्तर ये लोग संन्याम-योगी नहीं थे कर्म- जाय तो ठीक है। पर उनके सैकड़ा शिष्य, जो गृहयोगी थे । ये तीर्थकर थे, नीर्थ की चना कर्म त्याग क.ते थे, उन्हें संन्यास-योगी कहा जाय या शीलवा के बिना कैसे हो सकती है। इनका कर्मयोगी। जीवन समाज सेवा का जीवन था. समाज के उत्तर-उन में योगी कितने ये यह कहना साध संनप इन्हें फरना पड़ा, सामाजिक और कठिन है पर उन में जितने योगी थे उन योगियों धार्मिर क्रानि इसने की। प्रचारक बनकर गाव में अधिकाश कर्मयोगी थे। म. महावीर के शिष्य गाव सत्या प्रचार किया । ये तो कर्मशीलता की एक सत्य नोक प्रचार के लिय स्वयंसेवक बने मूनि धे इन्हे संन्यास-योगी न समझना चाहिये। थे। शाति ओर कांत या संगठन करने के लिये
प्रश्न--गृह-रयाग के बाद इन लोगों का वे दीनित हुए थे, दुनिया से हटा पात सेवन जीवन सन्यासी जीवन धीमा। ये सुख दम्य की के लिये नहीं, इसलियं वे सन्यासयोग न कहे पवाह नहीं क ते थे, समाज को पर्याह नहीं करते जा सकवे. कर्मयोगी ही कहे जा सकते हैं। हा. थे, नपस्या में लीन रहत थे, कान-प्रिय थे इस उन में मे व्यक्ति भी हो सकते हैं तो सिर्फ मकार सन्यास के सारे चिद इनमें मौजट प्रान्सशांति के लिये म. महावीर के संघ में आये फिर ये कर्म रोगी कैसे
ये. जनसेवा जिनके लिये गौण बान थी वे संन्यात उत्तर-~साधकावस्था में अवश्य थे लोग
योगी कहे जा सकते हैं। सन्यासी थे.पर उनका संन्यास कर्मयोगी बनने प्रश्न-जिस व्यक्ति ने कुज्ञ कुटुम्ब या धन की साधना मात्र या जिस तरह की समाज पैसे का त्याग कर दिया पिसा त्यागी वास्तव में मवा ये करना चाहते थे उसके लिये कुछ वर्षों संन्यासी ही है वह जनसंवा करे तो भी उसे क वैसा संन्याली जीवन विताना सही था। कर्मयोगी कसे कह सकते है. कर्मयोगी तो गृहस्थ इसलिंग बनग संन्यास कर्म को भूमिका होने से ही हो सकता है। नमशेन में ही शामिन समझना चाहिये। उत्तर-कर्मयोग सा संकुचिन नहीं है
पान-घर से तो ये लोग आत्मशाति के कियह किसी पाश्रम की सीमा में रुक जाय ।
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धाष्टिकांड
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जहां जीवन की जिम्मेदारियों को पूरा किया सेवाएँ इकरंगी होती है अत्र कि गृहस्थ की जाता हो और समाज के प्रति अपने दायित्व पर सवाएँ नाना तरह की होती हैं इसलिये कर्मयोग उपेक्षा नहीं की जाती हो वहां कर्मयोग ही है। का व्यापक और उच्च म्प गृहस्थ में दिखाई फिर वह व्यक्ति चाहे गृहस्थ हो या सन्यासी। देता है, संन्यास में नहीं। जो गृह-कुटुम्ब का त्याग विश्व-सेवा के लिये करते
___आदर्श कर्मयोगी गृहस्थ होगा संन्यासी है वे गृहस्थ कहलाये या न कहलायें वे कर्मयोगी
नहीं । इन सब कारणों से कर्मयोगियों की नामहैं । गृह-कुटुम्ब के त्याग से तो उनने सिर्फ इतना
माला में गृहस्थ योगी ही मुख्य-रूप मे बताये ही सायिन किया है कि उनके कौटुम्बिक स्वार्थ
जाते है। खैर, प्रसिद्धि, व्यापकता, आदि की अब संकुचित नहीं है। उनकी कुटुम्ब सेवा की
दृष्टि से किसी का भी नाम लिया जाय परन्तु शक्ति भी अब विश्वसेवा मे लगेगी। इस प्रकार
इसका मतलब यह नहीं कि सन्यासी, कर्मयोगी कर्म करने के रंग ढंग बदल लेने से किसी की
नहीं होते हैं। कभी कमी असाधारण जनसेवा कर्मयोगिता घट नही जाती।
के लिये संन्यास लेना अनिवार्य हो जाना है उस प्रश्न-कर्मयोगियो की नामावलि में महात्मा समय संन्यासी-कर्मयोगी बनना ही उचित है। कृष्ण राजर्षि जनक आदि गृहस्थों के नाम ही जैसे म महावीर, म. बुद्ध, म. ईसा आदि बने क्या पाते हैं?
___उत्तर- इसलिये कि कर्मयोग की कठिन प्रश्न-गृहस्थ से साधु उन्य है और साधु परीक्षा यही होनी है और उसका व्यापक रूप से योगी उच्च । गृहस्थ जब साधु ही नहीं है नब भी यहीं दिखाई देता है। कर्मयोगी बनने में वह योगी क्या होगा ? अनि होगा तो गृहस्थ सन्यासी को जिननी सुविधा है उतनी गृहस्थ को और साधु मे अन्तर क्या रहेगा ? नहीं । संन्यासी का स्थान साधारण समाज की
उत्तर- साधु की उच्चता और योगी की दृष्टि में स्वभाव से ऊँचा रहता है इसलिये मान
उच्चता अलग अलग तरह की है । साधु इसलिय अपमान और लामालाभ ने उसका गौरव नष्ट उच्च है कि वह कम से कम लेकर समाज के नहीं होना। कुछ शारीरिक असुविधाएँ हो उसे लिये अधिक से अधिक या सर्वस्त्र तक देता है उठाना पड़ती है पर समाज की दृष्टि में ये भी जब कि गृहस्थ लेन देन का हिसाव रखता है, इसउसके लिये भूपण होती है। लेकिन गृहस्थ को लिये गृहस्थ से साधु उच्च है। पर ऐमा भी साधु यह सुविधा नहीं होनी। गृहस्थ-योगी को योगी होसकता है जो योगी न हो। योगी जीवन्मुक्त की सारी जिम्मेदारियों तो उठाना ही पड़ती है
होता है, उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया होता है, साथ ही समाज के द्वारा इस योगी को मिलने
उसका जीवन पवित्र अर्थात् निर्दोष होता है. फिर वाली जितनी वित्तियों है वे मत्र भी सहना भो होसकता है कि साधु न हो कम लेकर अधिक पडती है इसलिये संन्यासी की अपेक्षा गृहस्थ को देने को नौनि के अनुसार उसका जीवन न बना योगी बनने में अधिक कठिनाई है। फिर संन्यासी होनी हालत में यह योगी कहा जासस्ता है समाज के लिये कुछ न कुछ बोभाल होता है इस• साधु नहीं ! बहुत से ध्यानयोगी योगी होनेपर लिये भी सत्र के अनुकरणीय नहीं है। अगर भी साधु नहीं होते। इमवार मावु और योगी गृहस्थ-रूप में सारा जगत कर्मयोगी होजाब तो दोनो महान होनेपर भी और एक ष्टि में योगी जगत स्वर्ग की कल्पना से भी अच्छा बन जाय साधु से महान होनेपर भीसा होसकता है कि परन्तु अगर सत्र सन्यासी हो जाय तो जगत एक आदमी योगी हो पर साधु न हो. या माध नीन दिन भी न चले इसलिये संन्यासी समाज हो पर योगी न हो। इस दिस चार श्रेणियों के लिने अनुकरणीय भी नहीं हैं। संन्यामी की बनती है।
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सत्यामृत
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१ योगी साधु
सदाचार के साथ जगत्सेवा भी है। विरक्त यदि २ योगी गृहस्थ
योगी ( मोक्षप्राप्त ) है तो वह योगी की दृष्टि से ३ अयोगी साधु
उच्च है, पर विरक्त को प्रष्टि से साधु से उच्च ४ अयोगी गृहस्थ
नहीं है। सच पूछा जाय तो विरक्त या निवृत्त इसप्रकार अयोगी गृहस्थ से अयोगी साधु साधु की भूमिकामात्र है ! विरक्तयोगी से साधु : उच्च है, किन्तु अयोगी साधु से योगी गृहस्थ उच्च योगी उच्च है। विरक्तता आपवाटिक है। क्योहै। सब से उन योगीसाधु है।
वृद्ध हुए विना विरलता उचित्त भी नहीं है। हा। यहा यह बात भी ध्यान में रखना साधु ता सब समय उचिन है । सन्यासी में चाहिये कि साधु हाना एक बात है, साधसस्था साधु ता उचित मात्रा में नही पाई जाती, इसका सदस्य होना दुसरी वाव और साधवेष लेना लिये उसे अपवाट कहागया अगर संन्यासी का तीसरी बात। समाज से कम लेकर उसे अधिक वेप हो और साधु ता भरपूर हो तब इसे कमसेवा देना और पवित्र जीवन विताना साधुता है। योगी कहेंगे। जैसा कि म. महावीर, म बुद्ध यह साधुता गृहस्थ मे भी होसकती है और साधु आदि के विषय में कहा जाचुका है। संस्था के सदस्य में और साधुवेपी में भी नही विद्यायोग ( बुधो जिम्मो) होसकती है। साधुता रखचेपर गृहस्थ साधु ही विद्या या सरस्वती की उपासना म लीन है। साधुता न रखने पर साधुसस्था का सदस्य होकर, आत्मसन्तोप की मुख्यता से निष्पाप या साघुवेषी भी प्रसाधु है, या गृहस्थ है या जीवन बनाना विद्यायोग या सारस्वतयोग है। गृहस्थ से भो गयाचीता है।
यह भी व्यक्ति की तरह ध्यानयोग है क्योंकि प्रभ-यानयोगी या संन्यास योगीको इसमें कर्म की प्रधानता नहीं है। जो लोग पुस्तक साधु काहा जाय या नहीं?
पढने मे, तथा अनेक तरह के अनुभव एकत्रित
करने में जो सेवाहीन निष्पाप जीवन बिताते हैं उत्तर ध्यानयोगी या संन्यास योगी में वे विद्यायोगी हैं। यह मांग भी वृद्धावस्था में ही साधु ता की मुख्यता तो नहीं रहती, फिर भी वे होना चाहिये। जवानी में सरस्वती की उपासना साधु होसकते हैं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यन रूप में
लोकहिन का अंग बनाकर ही की जानी चाहिये । कुछ न कुछ जनसबा उनसे होजाती है। अगर । वे साधु सस्था के सदस्य हैं या सार वेपी हैं साथ
प्रश्न-सरस्वती की उपासना तो एक प्रकार ही योगी हैं तब उनकी गिनती साधु आ मे करना न कहाजाय।।
बुवा है साथ
ही
की भक्ति कहलाई इसलिये इसे भक्तियोग ही क्यों 'चाहिये। क्योंकि मुक्ति प्राप्त कर लेने से उनमें इतनी विशेषना आही जाती है कि वे वचनान
उत्ता-सरस्वती की मूर्ति चित्र या पुस्तक
आदि कोई स्मारक रखकर, अथवा बिना किसी कर, मुफ्तखोरी उनका ध्येय न हो। फिर भी। अकला तो यह है कि संन्यासयोगियों को न
___ स्मारक के सरस्वती का गुणगान किया जाय तो
यह भक्ति कही जासकंगो, परन्तु सारस्वतयोगी गृहस्थ कहा जाय न साधु, किन्तु उन्हे चिरक्त यो
इस प्रकार की भक्ति में जीवन नहीं बिताता, चहा निवृत्त कहा जाय । इसप्रकार मानव जीवन को
सरस्वती की उपासना का मतलब है ज्ञान का गृहस्थ और साधु, इसप्रकार दो भागों में नही, उपान करना और ज्ञान तृप्ति मे ही आनन्दित किन्तु गृहस्य, विरक्त और साधु इससकार तीन रहना। इसप्रकार पवित्र जीवन विताने वाला भागा में विभक्त किया जाय । विरक्त से साधु जीवन्मुक्त व्यक्ति विद्यायोगी या सारस्वतयोगी है। का स्थान उच्च है, क्याक विरक्त में सिर्फ संयम प्रश्न- विद्योपार्जन करना, अन्य निर्माण और सदावा ही है जब कि साधु मे संयम करना कविता वगैरह बनाना भी एक बड़ी
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दृष्टिकांड
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समाजसेवा है इसलिये विद्यायोगी को कर्मयोगी अंग बननाय तो जीवन इतना पवित्र न रह जायगा क्या न कहा जाय ?
कि उसे योगी जीवन कहा जा सके। उत्तर-सरस्वती की उपासना अगर जगत प्रश्न काम भी तो एक जीवार्थ है अगर की सेवा के लिय है तब तो वह कर्मयोग ही है वह जीवन चर्या का मुख्य अंग बन जाय तो अगर वह निवृत्तिमय जीवन बिताने का एक पवित्रना क्यो नष्ट हो जायगी? तरीका ही है तो वह कर्मयोग नहीं है इसलिये
उत्तर--काम, मोक्ष की तरह अपने में उस अलग नाम देना उचित है।
पूर्ण नहीं है उसका असर दूसरों पर अधिक प्रश्न-विद्याव्यसन के समान और भी
पडता है। बल्कि अधिकाशत अपना काम दूसरो निय व्यसन है इसलिये उनका अवलम्बन लेकर
के काम में बाधक हो आता है ऐसी हालत में योग साधन करनेवाले रोगियों का भी अलग
काम प्रधान जीवन पर-विघातक हुए बिना नहीं उल्लेग्य होना चाहिये । एक आदमी प्राचीन स्थानो
रह सकता । काम को पवित्र जीवन में स्थान के दर्शना मे पवित्र जीवन बिताता है कोई पुरानी
है पर धर्म अर्थ और मोक्ष के साथ । अकेला खोज में लगा रहना है इनको किसमें शामिल काम हिंसक और पापमय हो जायगा । इसलिये किया जायगा?
कामयोग नाम का भेट नहीं बनाया जा सकता। उत्ता-देशाटन यदि जनसंवा के लिये है योगी के पास काम रहता है और पर्याप्त मात्रा तो कर्मयोग है, अगर सिर्फ नये नये अनुभवों का मे रहता है पर वह भक्ति तप विद्या श्रादि की अानन्द लेने को है तो सारस्वत योग है। प्राचीन तरह प्रधानता नही पाने पाता । जीवाओं के साथ चीजों की खोज जनहित के लिये है तो कर्मयोग रहता है एसी हालत में योगी कामयोगी नही है सिर्फ आत्म-सन्तुष्टि के लिय है तो सारस्थत. किन्तु कर्मयोगी बन जाता है। योग है। कविता आदि के विषय में भी यही प्रश्नचित्र संगीत आदि काम के किसी । बात समझना चाहिये।
से रूप को जो विधानक नहीं है अपनाकर । • प्रश्न-सारस्वत योग को संन्यास-योग पवित्र जीवन बितानेवाला योगी किस नाम से क्यों न कहा जाय ? दुनियादारी को भूलकर पुकारा जाय । अध्ययन आदि में लीन हो जाना एक तरह का
उत्तर-लाओं की शुद्ध उपासना मे संन्याम ही है।
ईश्वर के साथ, और ईश्वर न मानते हो तो उत्तर--एक तरह का संन्यास तो भक्तियोग प्रगति के साथ तन्मयता होनी है इसलिये साधाभी है। सभी ध्यानयोग एक तरह के संन्यास रणत कलोपासक योगी, भक्ति-योगी है। अगर हैं फिर भी ध्यानयोग के जो तीन भेर किये गये कलोपासना में नये नये विचार और अनुभवी
से निमित्ता के भेद से किये गये है जो का आनन्द मिलता है तो वह सरस्वती की उपाकि पवित्र और निल जीवन में सहायक है। सना हो जाती है जैसे अविना कला । ऐसा । भक्ति और तप के समान विद्या भी निदोष आदमी अगर योगी हो तो सारस्वत योगी होगा। जीवन में सहायक है इसलिन उसका अलग योग यदि उसका कलाप्रेम लोकहित के काम मे पाता बतलाया गया।
होगा तो वह कर्मयोगी बन जायगा । प्रक्ष-ल्यानयोग में काम-योग क्यो नहीं प्रत्त-यदि विद्या, कला आदि आराम के माना गया १
कामोसे मनुष्य कर्मयोगी कहला सकता है तो उत्तर-योग के साथ कोई नाम तभी समाजसेवा के लिये सर्वस्व देने वाले उसक लगाया जासकता है जब जीवन-चर्या का प्रधान कल्याण के तिथे दिनरात चोटें खाने वाले क्या अंग बन जाय । काम यदि जीवनचर्या का प्रधान कहलायेंगे ? और जो लोग समाजहित की पर्वाह
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[१२]
सत्यामृत
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नहीं करते उनको भी आप योगी कहे तो यह भी ध्यानयोगी अगर बहुत अधिक हो जाये तो अंधेर ही है।
समाज उनके बोझ से परेशान हो जाय पर सत्तर-योगी के जो चार भेट चलाये गये है कर्मयोगी सारा ससार हो जाय तो भी परेशानी चे रूप-मेट हैं. श्रेणी-भेद नहीं, प्रत्येक योग के नहा होगी। पालन में तरतमता होती है । कर्मयोगी हजागे प्रश्न-म महावीर म बुद्ध आदि गृहत्याहो सकते हैं पर वे सब बराबर होगे यह बात गिया और मिक्षाजीथियों को भी आप कर्मयोगी नहीं है। इसलिये विद्या, कला आदि के साथ कहते हैं अगर से कर्मयोगी अधिक हो जाये नो कर्मयोगी बननेवाले और सर्वस्व देकर क्रांति समाज के उपर उनका भी हो जायगा फिर करके कर्मयोगी बनानेवाले समान नहीं है। ध्यानयोग में ही बोझ होने की सम्भावना क्यो ? उनका मूल्य तो योग्यता त्याग और फलपर
उत्तर-गृह त्यागी कर्मयोगी अगर मर्यादा निर्भर है। इसलिये अधिक सेवा का महत्व नष्ट मे अर्थात आवश्यकता से नाक हो जायगे ना नहीं होता। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी कर्मयोगी तो उचित और आवश्यक कम करना न मूल जाना चाहिये कि भाक्त करने ही है। अब अगर किसी की समाज को वि. कोई मक्ति-योगी नहीं हो जाता, न विद्या कला
सकना नहीं है पथवा अावश्यकता जितनी है से सारस्वत-योगी, न गृहत्याग से सन्यास-योगी
उसकी पनि अधिक हो रही है उमलिय अधिक और न कर्म करने से कर्मयोगी। ये काम तोहर
पूर्ति करने वाले बोभा हो रहे हैं तो एसी अवस्था एक आदमी करता ही रहता है पर इन कामो के करते हुए योगी होना बात दूसरी है। योगी होने
में वे बोम बनने वाले कर्म करते हुए भी समीके लिये निष्पाप जीवन सत्वदीपन और सम
योगी न कहलायेंगे। इमलिय म महावीर म चुद्र भाव आवश्यक है। रही समाजहित की बात,
श्रादि के श्रमण संघ म उतने ही श्रमण कायोगी सो समाजहित अपनी भीनरी और बाहिरी परि
रह सकते है जितने समाज के लिये जारी हों। स्थिति पर निर्भर है। कभी कभी इच्छा रहत्ते
और उस यावश्यकता के कारण समाज पर बोझ
अन सके। हुए भी समाजहित नहीं हो पाता ऐसी हालत मे " समान का अहित न क्रिया आय यही काफी है। उस आवश्यकता का निर्णय कौन ध्यान-योगी कम से कम इतना तो करते ही हैं। करगा। अगर किसी कारण वे समाहित नहीं कर पाते उत्तर-आवश्यकता का निगम कर्मयोगी तो उनका स्थान समाजहितकारियो कर्मयोगियों की सामद्विवेक बुद्धि करेगी क्याकि भातिकारी से नीचा रहेगा पर वे अपनी यात्मशद्धि और कर्मयोगियों की सेवा का मूल्य समाज समझ जीवन्मुक्ति के कारण योगी अवश्य कहलॉयेंगे। नहीं पाता । उनके जीवन काल मे वह उन्हे इन तीनों प्रकार के योगों में कर्म की
। सताता ही रहता है और उनके जाने के बाद वह प्रधानता नहीं है क्रितु एकाम मनोवृत्ति की प्रथा
उनकी पूजा करना है। क्या धर्म क्या समाज नना है इसलिये ये तीनो ब्यान योग है।
क्या गजनीति सम में प्रार सत्र महापुरुषों के
जीवन ऐसी परिस्थिति में से गुजरे हैं । इसलिये कर्मयोग (झज्जोजिम्मो) बहुन सी आवश्यकताओं का निर्णय उस समाजसमाज के प्रति शक्त्यनुसार उचित कर्तव्य सेवी को ही करना पड़ता है। करते हुए मीतर से पूर्ण समभात्री रहकर निष्पाप न-ऐसी हालत में हरएक निकम्मा कर्मजीवन विताना कर्मयोग है। चारों योगों में कर्म. योगी बन जायगा । दुनिया माने या न माने, योग श्रेष्ठ और व्यापक है । ध्यानयोग तो एक आवश्यकता हो या न हो, पर वह अपनी सेवा तरह से अपवाद है पर कर्मयोग सब के लिये है। की उपयोगिता के गीत गाता ही रहेगा । व्यर्थ
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गाल बजाने को या कागज काला करने को सेवा उत्तर---अच्छे तो दोनो हैं प किसी कडेगा कदाचित अपना वेष दिखाने को भी वह से अधिक अच्छेपन का निर्णय देश काल की सेवा कहे । नाटक के पात्र अगर नाना वेप दिखा परिस्थिति पर निर्भर है थोड़ी बहत आवश्यकता कर समान का मनोरंजन आदि करते हैं तो वह तो हर समय दोनों तरह के कर्मयोगियों की साधु-वेप से कुछ न कुछ रंजन करेगा और रहती है पर जिस समय जिसकी अधिक आबउसको महान सेवा कहेगा । इस प्रकार कर्मयोग श्यकता हो उस समय वही अधिक अच्छा । इस की तो दुर्दशा हो जावेगी।
प्रकार दोनो प्रकार के कर्मयोगी अपनी अपनी उत्तर-सेवा की आवश्यकता का निर्णय जगह पर अच्छे होने पर भी गृहत्यागी की विवेक से होगा इसलिये हरएक निकम्मा कम- अपेक्षा गृही कर्मयोगी श्रेष्ठ है । इसके निम्न योगी न बन जायगा । हा, वह कह सकेगा। सो लिखित कारण हैं। कहा करे उसके कहने से हम उसे कर्मयोगी
१-गृहत्यागी का बोझ समाज पर पड़ता मानलें ऐसी विवशता तो है नहीं । किसी भी
है अथवा नही की अपेक्षा अधिक पड़ता है। तरह के योगी का बोझ उठान कलिय हम वय गृहत्यागी के बंधन अधिक होने से उसकी भावनहीं हैं फिर कर्मयोगी के लिये तो हम और भी
श्यकतापूर्ति की नैतिक जिम्मेदारी समाज पर अधिक निश्चित ह । कर्मयोगी तो अपना मार्ग
आ पड़ती है। आप बना लेता है। समाज उसका अपमान करे उपेक्षा करे तो मी वह भीतर मुसकराता ही रहता २-गृहत्यागी के वेप की ओट में जितने है वह अपनी पूजा कराने के लिये आतुर नही दंभ छिप सकते हैं उतने गही की ओट में नहीं होता । निकम्मे और दम्भी अपने को कर्मयोगी छिप सकते। भले ही कहें पर विपत्तियो के सामने भीतर की
हत्यागी की सेवा का क्षेत्र सीमित मुसकराहट उनमे न होगी और वे उस परमानन्द रहता है उसको बाहिरी नियम कुछ ऐसे बनाने से वचित ही रहेंगे। इस प्रकार चाहे वे कागज पड़ते हैं कि उस में बद्ध होने के कारण बहुत. काला करें, चाहे गाल बनायें चाहे रूप दिखावे सा सेवा-क्षेत्र उसकी गति के बाहर हो जाता अगर वे कर्मयोगी नहीं हैं तो उसका आनन्द है। गृही को यह अडचन नहीं है। उन्हे न मिलेगा । और दुनिया तो सच्चे कर्मयो
४-गृहत्यागी समाज को उतना अनुकगियों को भी नहीं मानती रही है फिर इन्हें
रणीय नहीं बन पाता जितना गृही बनपाता है। मानने के लिये उसे कौन विवश कर सकता है ? मतलब यह है कि अपनी समाज-सेवा की श्राव- गृहत्यागी को शान्ति क्षमा उदारता आहि देख
कर समाज सोचलेता है कि "इनको क्या ? इन श्यकता का निर्णय करने का अधिकार तो कर्म
' को क्या करना धरना पडता है कि इनका मन योगी को ही है, इससे वह कर्मयोगी बन जायगा
प्रशान्त बने, घर का बोझ इनके सिर पर होना उसका आनन्द उसे मिलेगा और समय पाने
तव जानते । आसमान में बैठ कर सफाई दिखाने पर उसका फल भी होगा कदाचित न हुआ तो से क्या १ जमीन में रहकर सफाई दिखाई इस की वह पर्वाह न करेगा, परन्तु उस कमयोगी जाय तम वाता । संकोचवश लोग ये शट मुह मानने न मानने, कहने न कहने का अधिकार से भले ही न निकालें पर उनके मन में ये भाव समाज को है। मोनों अपने अपने अधिकार का लहराते रहते है इसलिये गृहत्यागी उनक लिय उपयोग करें इसमे कोई बाधा नहीं है। अनुकरणीय नहीं बन पाना पर गृही के लिये
प्रश्न-कर्मयोगी गृह-त्यागी भी होसकता यह बात नहीं है । यह तो साधारण जनना ने है और गृही भी हो सकता है, पर दोनों में मिल जाता है उसके विषय में समाज मे भाव अछ बौन ?
नहीं ला सकता वा कमसे कम उनने को नहीला
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सायात
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सकता जितना गृहत्यागी के विषय में ला सकता उत्तर-मन:-शुदिन बगा हो सकती है। समाज जब उसे अपनी परिस्थिति में देश है पर उसकी ठीक रीक परीक्षा गा गधी सम्भव कर शान्त सदाचारी और सेवामय देखता है। झगटां के छूट जाने से जो स्थिरता बदना तब समाज पर उसके जीवन का अधिक प्रभाव पानि शियाई दनी वा यास्तविक नाम पडता है।
विकार के कारण मिलने पर भी जा विकार न -गृहत्यागी को जीवन की कमंट कम हो यही शुद्धि समझना चाहिये यो ना शेर भी हो जाती है इसलिये उसको अनुभव भी कम गुफा में योगी की तरह शान्त पा सता पर मिलने लगते हैं। इन्हीं अनुभवों के आधार पर इससे उसी असिकता सिद्ध हो सकनी । तो समाज को कुछ ठीक ठीक सीख दी जा अहिंसकना सिद्ध हो सकती है , जब भूय सकती है । शान्ति शान्ति चिल्लाने से समाज लगने पर और जानवग बीच में न्वतन्त्रता म संगीत का मजा ले सकती है पर प्रेरणा नही ले रहने पर भी यह शिकार न करे। चोगे करने का सकती। प्रेरणा उसे तभी मिलेगी जब उसकी अवसर न मिल्नं सं हम ईमानदार है इस बात परिस्थिति और योग्यता के अनुसार उसे प्राचार का कोई मूल्य नही । भामटी बीच में गाते का पाठ्यक्रम दिया जावेगा और परिस्थिति के हुग जो मनुष्य 'पने गनको चार श्राना भी अनुसार अपना उदाहरण पेश किया जावेगा। शान्न रमता है वह झमटा से बचे रस गृहत्यागी गृही की अपेक्षा इस विषय में साया- पाना शान्त मन से भ्रष्टा । न में पड़े होने रणत पीछे ही रहेगा । वैयक्तिक योग्यता की के कारण धूसरित होनेवाले हार की अपेक्षा यह धात दूसरी है और उसकी संभावना दोनों तरफ मिट्टी या पत्थर का टुकाधिक शुद्ध नहीं है
जो स्वर वान पर क्या हुआ है। शुक्षि की ६-गृह त्याग अस्वाभाविक है क्योकि सत्र परीक्षा के लिये दोनों को एक परिस्थिति में रसना गृहत्यागी होजाये तो समाज का नाश हो जाय। आवश्यक है। पर गृही के विषय में यह बात नहीं है । फिर नामयोगी-फिर यह गृही हो या गृहगृह-त्यागी को किसी न किसी रूप में गृहीं के त्यागी-झमटा में रहता है। समाज का व्यवहार
आश्रित तो रहना ही पड़ता है। इससे भी उस बिलकुन शाति से नहीं चल सकता, वहाँ निप्रह की अस्वाभाविकता मालूम होती है।
अनुग्रह करना ही पड़ता है और हम भी प्रगट इस का यह मतलब नहीं है कि गृह-त्यागी करना पड़ता है। दुनिया के वन से प्राणी से से गृही श्रेष्ठ है । साधारणत समाज-सेधा के है जो लोभ से ही किसी बात को समझते है। लिये घर द्वार छोडकर बो सन्चे साधु बन जाते जानवर से यह कहना पि जूल है फि 'साप वहाँ हैं वे गृहियों के द्वारा पूजनीय और वदनीय है। चले जाइये या यो कीजिये उसे तो लवडी या विश्वसेवा के अनुसार मूल्य भी उनका अधिक हाथ के द्वारा मारने का डौल करना पडेगा या है । परन्तु यहाँ तो इतनी बात कही जा रही है मारना पड़ेगा तब वह प्रापका भाव समझेगा । कि गहनत्यागी योगी को अपेक्षा गृही-योगी श्रेष्ठ ऐसी हालत में योगी का अहोभ म्हा रहेगा ? और अधिक आवश्यक है।
बहुन से मनुष्य भी ऐसे होते है जिन्हें सीधी ___ प्रम-गृह-वास में योग हो ही कैसे सकता तरह रोको तो वे रोकने का महन्व हो नहीं है १ घर की मामटो में किसी गृही का मन ऐसा समझते, क्रोध प्रगट करने पर ही वे श्राप का स्थिर नहीं हो सकता जैसा गृहत्यागी का रहता मतलब समझते हैं । गृहवास में जानवरो से वा है। इसलिये जो मन की दृढता, निर्लिप्तता, शुद्धि इस तरह का थोडा यहुत जानवरपन रखनेवाले गृहत्यागी की हो सकती है वह गृही की नहीं हो मनुध्यों से काम पडता ही है, समाज मे तो होम सकती।
भी भाषा का अंग बना हुआ है ऐसी हालत में
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योगी अनुय या शान्त कैसे रहे ? और शान्त न कि मेरा खेल अच्छा हो रहा है या नहीं। यही रहे तो वह गोगी कैसे ?
परामनोवृत्ति है। उत्तर--जहा क्षोभ भाषा का अग है वहां प्रश्न--इस प्रकार अपनी परावृत्ति और योगी क्षोम प्रगट करे तो इसमें बुराई नहीं है। अपरावृत्ति का भेद समझा जा सकता है पर पर लोभ के प्रवाह मे वह बह न जाय और परा दूसरे की परावृत्ति और अपरावृत्ति का भेद कैसे मनोवृत्ति नुन्ध न हो जाय । अपरा मनोवृत्ति के समझ में आवे ? यों तो हरएक आदमी कहने तुन्ध होने से योगीपन नष्ट नहीं होता। वह लगेगा कि मैं परमशात हू', योगी हूँ और जो निग्रह अनुग्रह करेगा, क्रोध प्रगट करेगा फिर भी अशांति या कपाय दिख रही है वह अपरावृत्ति परामनोवृत्ति निर्लिप्त रहेगी।
की है इस प्रकार योगी-अयोगी मे बडी गडबडी प्रश्न--यह परा और अपरामनोवृत्ति क्या हो जायगी। है और इसमें क्या अन्तर है ?
उत्तर-ऐग्नी गड़बड़ी होना सभव है पर इस उत्तर-इसे ठीक समझने लिये तो अनु. गडबडी की परेशानी से बचने के दो उपाय है भव ही साधन है। चिन्हों से या दृष्टान्ता से पहिली बात तो यह कि परामनोवृति के विपन में उसका कुछ अंदाज लगा सकते हैं। कालिक या स्थिर मनोवृत्ति को परा मनोवृत्ति कहते हैं।
शाब्दिक दुहाई का कोई मूल्य न किया जाय । और क्षणिक या सामयिक मनोवृत्ति को अपरा
HD समाज के प्रति मनुष्य अपनी अपरा मनोवृत्ति मनोवृत्ति कहते हैं । जब हम स्मशान में जाते हैं
के लिये जिम्मेदार है । परामनोवृत्ति का मजा तो एक तरह का वैराग्य हमारे मन पर छा
उसे लेना है तो लेता रहे, समाज को इससे कोई
" जाता है जो कि घर आने पर कुछ समय बाद मतलब नहीं । एक लम्बा समय बीन लाने दूर हो जाता है यह वैराग्य अपरामनोवृत्ति का पर अगर उसको परावृत्ति की निर्दोषता के सूचक है और जब वुढापे में किसी का जवान बेटा मर प्रमाण मिलेगे तब देखा जायगा। दूसरी बात जाता है जिसके शोक में वह दिनरात रोया यह कि परा-मनोवृत्ति के सूचक तीन चिन्ह है करता है तो यह शोक परा मनोवृत्ति का है। उनसे उसकी पहिचान की जा सकती है। हमारे मन मे क्रोध आया परन्तु थोड़ी देर बाढ १-न्याय-विनय, २-विस्मृत वत् व्यवहार-३ क्रोध की नि सारता का विचार भी आया, जिस पापी-पाप-भेद। पर क्रोध हुआ था उस पर द्रुप न रहा तो कहा जा सकता है कि यहा अपरामनोवृत्ति सुन्ध हुई
न्याय-विनय ( उंको नायो ) योगी तभी
३२ क्रोधादि प्रगट करेगा जब किसी अन्याय का परा नहीं। जैसे नाटक का खिलाडी रोते हँसते. हुए भी भोत्तर से न रोता है न हंसता है उसी
विरोध करना पड़े इसलिये उसमे नि विचाप्रकार योगी की परा मनोवृत्ति न रोती है न
रकता तो होना ही चाहिये । यह अपनी गलती सती है। नाटक के खिलाडी दो तरह के होते हैं
ME समझने और सुधारने को हर समय तैयार एक तो वे जो सिर्फ गाल बजाते हैं, हाथ मटकाते रह
रहेगा और पश्चाताप भी करेगा। अगर न्याय है पर जिनके मन पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता
के सामने वह मुक नहीं सकना तत्र समझना
चाहिये कि उसकी परा-मनोवृत्ति भी दूपित है। उनको अपरामनोवृत्ति भी नहीं भीगती, वे सफल खिलाडी नही है। सफल खिलाड़ी वही हो .२-विस्मृत-वत्-व्यवहार (भूसूर हाजो) घट सकता है जिसकी अपरामनोवृत्ति भीगती है। नाक हो जाने पर या उसक फलाफल का कार्य वह सचमुच गेता है, हॅसला है फिर भी इस रोने हो जाने पर इस तरह व्यवहार करना मानो वह
सने के भीतर भी एक स्थायीभाव है जो न रोता घटना हुई ही नहीं है, हम वह घटना बिलकुल है न मना है वह सिर्फ इतना विचार करता है भूल गये हैं। इस प्रकार का व्यवहार अपाय
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सत्यामृत
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वृत्तिका सूचक है। इससे भी परामनोवृत्ति का क्षतिपूर्ति (मानसिक आर्थिक आदि) न करें तो अक्षोम मालूम होता है।
समाज में बड़ी अव्यवस्था पैदा होगी । सताये
हुए लोग न्याय न मिलने के कारण कानून को उसको दुर्जनता कैसे भूल सकते हैं ? अगर भूल
अपने हाथ मे ले लेंगे। एक खूनी को आप प्राण जायें तो हमारी और दूसरों की परेशानी बढ़
दंड न देकर सुधार करने के लिये छोड़ दें तो खून जायगा। इसलिये कम से कम उसकी दुर्जनता
करने की भीषणता लोगों के दिल से निकल का स्मरण करके हमें उससे बचते रहने की
जायगी इसलिये अपराध बढ़ जायेंगे। दूसरे वे कोशिश तो करते ही रहना चाहिये और अगर लोग कानून को हाथ में लेकर खूनी का या उसके समाज व्यवस्था के लिये दह देना अनिवार्य हो सम्बन्धी का खून करेंगे जिनके आदमी का पहिले तो दंड भी देना चाहिये, विस्मृत-वत व्यवहार खून किया गया है । कानून से निराश होकर करने से कसे चलेगा।
जब मनुष्य खुद बदला लेने लगता है तब वह
बदले की मात्रा भूल जाता है! जितनी ताकत उत्तर-विस्मृत-वत् व्यवहार के लिये होती है उतना लेता है। इस प्रकार समाज में घटना का होजाना ही श्रावश्यक नहीं है किन्तु अंधाधन्धी मच जायगी। परन्तु अगर खूनी को उसका फलाफल-कार्य होजाना भी आवश्यक है। एक चोर ने चोरी की है तो जब तक उसका
प्राण दड दे दिया जाय तो उसका सुधार कव दड वह न भोगले तब तक हम उसकी बात नहीं .
और कैसे होगा, उस पर हमारी दया कैसे होगी। भूल सकते । दंड देने का कार्य हम करेंगे। फिर इस प्रकार पापी और पाप के मेद को जीवन में भी उस पर व्या रक्खेंगे, उसको सहज वैरीन उतारना योगी को भी असंभव है। बनायेंगे, तथा जत्र और जहाँ चोरी की बात नहीं उत्तर-पापी और पाप के भेन का मतलब है वहाँ उससे प्रेमल व्यवहार रक्खेंगे। मतलब यह है कि पापी से व्यक्तिगत दुवेप न रखना यह है कि सुव्यवस्था रखने के लिये जितना दंड और उससे बदला लेने की अपेक्षा निष्पाप बनाने अनिवार्य है मतना तो देंगे, लेकिन उस प्रकरण का प्रयत्न करना । मूल में तो सभी एक से है। के बाहर उस घटना को भूले हुए के समान व्यव. परिस्थितियों ने या भीतरी मलने अगर किसी हार करेंगे।
व्यक्ति का पतन कर दिया है तो हमें उसके पतन ३-पापी-पाद-भेद-जिसकी परावृत्ति अक्षु
पर दयापूर्ण दुख होना चाहिये न कि वेप । ब्ध है वह पाप से घृणा करता है पापी से नहीं ।
पर अधिक सुख की नीति के अनुसार जब व्यक्ति पापी पर वह दया करता है उसे एक तरह का
और समाज का प्रश्न आता है तब समाज रोगी समझता है। पाप को रोग समझ कर उसे
का अधिकार-रक्षण पहली बात है व्यक्ति को पाप से छुडाने की चेष्टा करता है। उसका ध्येय
इलाज अगर समाज का नाइलाज बन रहा हो
तो हमें व्यक्ति के इलाज पर उपेक्षा करना पड़ेगी। दंड नहीं होता सुधार होता है और दंड भी सुधार का अंग बन जाता है।
इसीलिये खूनी आदि को प्राणदंड की जरूरत
है क्योकि इससे उस व्यक्ति का इलाज भले प्रश्न-ऐसे पाप. या बुराई के लिये, हो न हो पर समाज का इलाज होता है। जैसे जिसका असर इसरो पर नहीं पडता अर्थात कभी कभी हमे रोगी को भी प्राणदंड देना पड़ता दूसरो के नैतिक अधिकार को बाधा नहीं पहुँ- है वैसे कभी कमी पापी को भी प्राण ड देना चती अगर 'अपगधी को ठंड ने दिया जाय, सिर्फ पड़ता है। पागल कुत्ता काटता है और उसके सुधार की दृष्टि से उसकी चिकित्साही की जाय काटने से यादमी मर जाता है, इसमें उस कुत्ते जो ठीक है परनुस र दया करने के लिये दृमरोंकी का क्या अपगव है। फिर भी समाज-रक्षण के
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लिये उसे प्राणदंड देना पडता है। संक्रामक और जीवन भर सीता के विषय में विश्वासी रोगियो से वेष न होने पर भी अमुक अश में रहे । परा और अपरा मनोवृत्ति का यह सुन्दर बच रहा जाता है। इस प्रकार व्यक्ति-वेपन घटात है। हां, प्रेम परामनोन्ति में भी पहुँच होने पर भी दडादि व्यवस्था चल सकती है। कर मनुष्य को योगी बना सकता है । इस का
इन तीन चिन्हों से परा-मनोवृत्ति की पहि- कारण यह है कि द्रुप के समान प्रेम अधर्म नहीं चान हो सकती है। जिसकी यह परा-सनोवत्ति है।प विभाव है प्रेम भाव है क्योकि यह दुध न हो उसे योगी समझना चाहिये।
विश्वसुख-वर्धक है। हा, प्रेम जहा पर प्रधान या प्रश्न--योगी का द्वप जैसे भीतर से नहीं
स्वार्थ के साथ मिल कर मोह बन जाता है-विश्व
सुख-वर्धन रूप कर्तव्य में बाधक बन आता है रहता उसी प्रकार राग भी भीतर से नहीं रहता। ऐसी हालत में योगी किसी से प्रेम भी सच्चान
घहा पाप है। भक्तियोगी की भक्ति परा मनोवृत्ति करेगा। इस प्रकार उसका प्रेस एक प्रकार की
तक जाती है फिर भी उसकी परामनोवृत्ति दूषित वंचना हो जायगा। भक्ति आदि भी इसी प्रकार
नहीं होती क्योंकि उसकी भक्ति ज्ञान-भक्ति है, वंचना बन जायगी तब भक्तियोग असम्भव हो
स्वार्थमक्ति या अन्वति नहीं। ज्ञान-भक्ति स्वपर जायगा । भक्ति से होनेवाला क्षोभ योगी के
कल्याण की बाधक नहीं है बल्कि साधक है भीतरी मन तक कैसे जायगी और जब भक्ति
इससे वह दोष नही है जिससे परामनोवृत्ति
दूषित हो जाय। परामनोवृत्ति में है ही नहीं तब उससे योग क्या होगा?
प्रश्न-बहुत से लोगों ने तो वीतरागता
को ध्येय माना है प्रेम भक्ति आदि को गग माना ___ उत्तर-परामनोवृत्ति अगर प्रेम से न भी
है। हा, इन्हे शुभराग माना है फिर भी योगी भीगी हो तो भी वंचना न होगी। वचना के लिये तीन बाते जरूरी है। एक तो यह कि अपरा
जीवन के लिय तो यह शुभगग मी बाधक है। मनोवृत्ति भी न भींगी हो दूसरी यह कि जो
उत्तर-प्रेम और भक्ति भी शुद्ध न्याय विचार प्रगट किये जायें उनके पालन करने का आदि में बाधक हो जाते है इसलिये वे भी अशुद्ध विचार न हो। तीसरी बात यह कि दसरे के रूप में हेय है । पर शुद्ध प्रेम और शुद्ध भक्ति हिताहित की पर्वाह न करके अपना स्वार्थ सिद्ध न्याय या कर्तव्य में बाधक नहीं होते इसलिये काने की इच्छा हो । योगी का प्रेम सा नहीं ये उपादेय है । वीतरागता सिर्फ कयायों का होता । म राम कर्मयोगी थे उनकी पग मनोवात अभाव नहीं है, क्योकि अगर वह अभावम्प ही शात थी, अपरा मनोवृत्ति सुब्ध होती थी। हो तो वस्तु ही क्या रहे, इस प्रकार की अभावा. उनका सीता-प्रेम और रावण-प ऐसा ही था। मकवीतागता या प्रगगता तो मिट्टी पत्थर फिर भी उनका सीता-प्रेम वचना नहीं था क्योंकि आदि में भी होती है। मनुष्य की वीतरागना इम सीता के लिये जान जोखम में डालकर वे रावण प्रकार जडता रूप नहीं है वह चैतन्य रूप है, प्रेम से लड़े। यधपि वह प्रेम प्रजासेवा मे बागान रूप है, विश्व रेम रूप है इसलिये यह भाव रूप डाल सका, प्रजा के लिये उनने सीता का त्याग है। प्रेम वहीं निंदनीय है जहाँ अपने साथ द्वेष भी किया, फिर भी उनका सीता प्रेम फीशन की छाया लगाये रहे। कहा जाता है कि देवों के पड़ा, रिवाज के अनुसार आवश्यक होने पर भी छाया नहीं होनी. यह कल्पना इस रूप में मत्य उनने दूसरी शादी नहीं की, विश्वासघात नहीं रही जा सका है कि योगी अर्थात हियात्मामा किया। इस प्रकार पग मनोवृत्ति शान्त थी इस. का प्रेम छाया-दीन होता है अर्थान् न प्रम में लिये वे सीता का त्याग कर सके पर उनका प्रेम. काली बाजू नहीं होनी: अगर बोगी लोग प्रेम. पंचना नहीं था इसीलिये वे गवण से लड सके होनही तो अकर्मण्य हो गयें । म महावीर
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म बुद्ध यदि प्रेम-हीन होते तो जगत् को सुचार अतिरेक बाधक है । भक्ति नहीं भक्ति की दृढ़ता ने का प्रयत्न ही क्यों करते वास्तव में ये भी नही. सिर्फ भक्ति का अतिरेक घाधक है, या महान प्रेमी या विश्व प्रेमी थे इसीलिये परम अवसरजता का अभाव बाधक है। अगर यह वीतराग थे। बीतगगता प्रेम के विरुद्ध नहीं है। अतिरेक या अविवेक न हो तो भक्ति यागा वह मोह, लोभ, लालच, तृष्णा आदि के विरुद्ध अहत आदि बनने में वाधक नहीं है, इतना ही है। भक्ति में भी स्वार्थ-भक्ति और अन्य भमि नहीं किन्तु श्रावश्यक है। अगर योगी में उपकावीतरागता क विरुद्ध है ज्ञान-भक्ति नहीं भक्ति- रक गुरुजन आदि के विषय में भक्ति विनय योगी तो ज्ञान भा होता है।
आदि न हो तो योगी कृतघ्न होजाय, ऋतरन भ-कहा आता है कि म महावीर मनुष्य एक तरह का चोर चाकू के समान मुख्य शिष्य इन्भूति गौतम म महाबीर के अM है यह योगी श्रहंत आदि क्या होगा ? इन्मभूति विक मत ये इसलिये पारम्भ में इस महि अब अहंत होगये तब भी वे म महावीर के भक्त उनका उत्थान तो हुआ परन्तु आगे इस भनि रहे, सिर्फ अतिरेक दूर हुआ विवेक बढा भक्ति उनका विकास रोक दिया। जब तक वे भक्त वते शुद्ध होगई। रहे तब तक उनने केवलज्ञान न पाया अर्थात् योगी मनलब यह है कि भक्ति हो, गुणानुराग न हुए। इससे मालूम होता है कि भक्ति भी एक हो, कृतज्ञना हो या प्रेम का काई दूसग रूप हो तरह का राग है जो वीतरागता में बाधक है। जो दसों के परिकार में बाधा नहीं सालता,
उत्तर-पौतम कर्म-योगी थे फिर भी जीवन और उचिन कर्तव्य का विरोधी बनाता है वह सर म महाहीर के भक्त रहे। केवलज्ञान हो जाने प्रात्मशुद्धि चा योग का नाशक नती है । अपन पर भी वह भक्ति नष्ट न हो गई, सिर्फ म महा- सम्पर्क में आये हुए लोगा से उचित मात्रा में वार के विषय में जो उनका मोह या आसक्ति कुछ विशेष प्रेम योगी को भी होता है। गुणानुया वह नष्ट हो गई । इस आसक्ति के कारण राम दीनवात्सल्य कृतज्ञता आदि गुण योगी के गौतम में आत्मनिर्भरता का अभाव था, म महा. लिये भी आवश्यक है। वीर के वियोग में वे दुखी और निर्वल हो जाते ये केवलज्ञान हो जाने पर यह बात न रही। म.
____ -योग के भेदो में हठयोग आदि का महावीर ने जो जगत का उपकार किया था,
योनही किया | इन्हे ध्यानयोग कहाउनका उपकार किया था, उसे इन्द्रभूति न भूले.
बाय या कर्मयोग ? ध्यानयोग कहा जाय तो जीवन भर उनका गुणगान करते रहे उनके विपथ ।
भक्ति सन्यास या सारस्वत में इन्द्रभूति का आचरण विनय-युक्त रहा इस
उत्तर---इस योगदृष्टि मे हठयोग आदि को प्रकार वे योगी होकर भी उनके भक्त बने रहे। कोई स्थान नहीं है । हठयोग तो एक तरह की । भक्ति में जब विवेक की काफी कमी होलानी कसरतें हैं जो अपनी शारीरिक अवस्थाश्रो पर ११ वह हानिकर होजाती है.
विशप प्रभाव डालना है। एसा योगा एक तरह में बाधक होजाती है । कृतज्ञता विनय विश्वास
का वैद्य है । जीवन शुद्धि संयम आदि से उसका चार वाचत हैं और आवश्यक भी है। परन्त सीवा सम्बन्ध नहीं है पर योगदष्टिमें जो योग है कमी कमी भक्ति का ऐसा अतिरेक होला वह तो संयम का एक विशाल उत्कर्ष है जिसे कि वह स्वपर कल्याए में बाधक होजाती है। पाकर मनुष्य अईत बुद्ध वीतराग या समयावी जिसकी भक्ति की जाती है उसके मार्ग में भी बनता है । हठयोग से सा उत्कर्ष नहीं बाधक बतजाती है। किस अवसर पर भक्ति होसकता। किस तरह प्रगट करना चाहिये इसका भी ध्यान प्रभ-यानयोगी जैसे नाना अवलम्बन नहीं रहता। योगी या अर्हत होने के लिये यह लेते हैं, जिनके तीनभेन किये गये हैं, भक्ति
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धारकार्ड
संन्यास और सारस्वत | उसी प्रकार हठयोग लेकर अगर कोई ध्यानयोगी बनेगा तो वह
आदि में भी मन एक तरफ लगाया जाता है संन्यासयोगों समझा जायगा। इसलिये ध्यानयोग के भेदों में इसका भी एक हां। यह भी होसकता है कि हठयोगी की स्थान होना चाहिये । जैसे सिर्फ भक्ति से कोई एकाप चित्तवृत्ति किसी देव की भक्ति के कारण भक्ति योगी नही होता उसी प्रकार सिर्फ हठ- हो। उसकी परामनोवृत्ति भक्तिमय हो, भले योग से उसे योगी न मानाज्ञाय पर संयम की ही बाहर से भक्ति की कोई क्रिया न दिखाई सीमा पर पहुंचा हुआ कोइ योगी भक्ति श्रादि देती हो, ऐसी हालत में वह भक्तियोगी कहलाकी तरह हठयोग आदि का अवलम्बन ले तो यगा । अगर उसकी एकाग्रता तत्वविचार अन्वेध्यानयोग में एक भेद और क्यों न होजाय? पण आदि के लिये है तो वह विद्यायोगी अथात्
_ सारस्वतयोगी है। इसप्रकार उसका अलग भेट उत्तर-योगी चार तरह के अवलम्बन
__बनाने की जरूरत नहीं है। लेता है इसलिये योगी जीवन के चार भेद हैं। कोई अवलम्बन मन प्रधान है कोई बुद्धिारधान,
यों तो दुनिया में सैकड़ी तरह के निमित्त
होसकते है जो योगी की दिनचर्या मे रमजायें, किसीमें दोनो शिथिल हैं किसी में दोनों पचत ।
पर वे सब मन और बुद्धि की वृत्ति की समानता १-भक्तियोग~मनारधान
से चार भागों में विभक्त होजाते हैं इसलिये विद्यायोग --- बुद्धिप्रधान
चार तरह के योग प्रताये गये हैं। ३- संन्यासयोग-बुद्धिमन शिथिल होकर- प्रत्येक प्राणी को योगी बनना चाहिये। समन्वित
वृद्धावस्था या अन्य किसी विशेष कारण से ४--कर्मयोग --- बुद्धमन प्रबल होकर
मनुष्य ध्यानयोगी बने, पर साधारणतः कर्मसमन्वित।
योगी बनना चाहिये । विश्व में जितने अधिक हठयोग मे बुद्धिमन शिथिल होकर सम- कर्मयोगी होंगे विश्व उतना ही अधिक विकसित न्वित होते हैं इसलिये हठयोग के कार्यक्रम को और सुग्यमय होगा।
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पांचवा अध्याय (छुनङ्ग होपयो)
लक्षण दृष्टि [ भिम्पो लंको]
जो योगी बनगया है वही पूर्ण सुखी है। समाज ऐसे हैं जिन में जाति-पॉति का विचार पूर्ण सुग्बी बनने के लिये हरएक व्यक्ति के लिये होता ही नहीं है, वे किसी भी जाति के हाथ का योगी बनने का प्रयत्न करना चाहिये जो चार खाते है, कही भी शादी करते है. पर विवेकी तरह के योगी बनाये गये हैं उनमें से किसी भी विलकुल नहीं होते। रिवाज के कारण या अच्छे तरह का योगी हो उसम ये पाच गण अवश्य पुरे की अक्ल न होने के कारण वे जाति-समहोना चाहिय । अथवा योगी के ये अवश्य होते मावी या धर्मसमभावी बन गये हैं । वंश-परम्परा है--१ विवेक ( अमूढ़ता ) २-धर्मसमभाव, से सत्यसमाजी बननेवाला विवेकहीन होकर भी ३-जाति समभाव,४-व्यक्ति समभाव ५-अवस्था धर्म जाति-समभावी होगा। ऐसे व्यक्तियो को समभाव।
अंश साधक कहा जाय या अर्ध-साधक ? साधारणत मनुष्य इदम योगी नही उत्तर विवेकहीन व्यक्ति न तो श साधक बनसकता। उसे साधना करना पड़ती है। पहिले होता है न अर्धसाधक । वह साधक ही नहीं है। वह अंश साधक होता है फिर अर्ध साधन होता वंशपरम्परा से कोई प्रमाणिन सत्यसमाजी नहीं है फिर यह साधक होता है।
बनसकता। माणित वह तभी होगा जब समयश साधक (अंगसाधक ) मे विवेक मदार होने पर समझपूर्वक सत्यसमाज के तत्वो होता है और विवेक होजाने से कुछ अंश में को स्वीकार करेगा। मदि-वश जो समभावी बनते समभाव भी श्राजाना है।।
है उनके सममाव का व्यावहारिक मूल्य तो है ____ प्रर्ध मायकशिक सायक] मे विवेक,
पर आध्यात्मिक मूल्य नहीं है, वे कोई भी धमममभाव तथा जातिसमभाव होता समाजी हो साधक की पहिली श्रेणी में भी नहीं श्रमुक प्रश मे व्यक्तिसमभाव भी होता है।
आ सकने । दूसरी बात यह है कि विवेकहीन
अवस्था में उनके भीतर जाति-समभाव या धर्मअमाधक (म साधक) वह है जो पाचों गग्गी की साधना करता है और अमुक अंश में कितना ही होगा कि विपमभाव को पागर
जापाचा समभाव आ भी नहीं सकता । अधिक से अयस्वाममभावी भी होता है। फिर भी उसमे कुछ यागी रहनी । उसके दूर होते हो वह योगी
कानवाले कुन कार्य न सत्र के साथ रोटी जाता।
रेटी व्यवहार करने पर भी विमभाव रह सकता
है विषममात्र के चिन्ह वृणा और अभिमान .. प्रत्येक मनुष्य को कम से कम अंश साधक गटी-ग्रेटो-व्यवहार का बन्धन न होने पर भी नाना चाहिनना भो न हो तो एक तरह से रात, रग आदि के नामपर जातिभर 'श्रा मी मनुष्यता निकन ममझना चाहिये। सत्ता धार्मिक सम्पदायों में समभाव रहने
श-विवेक के बिना भी वर्ग-सममाय पर भी सामाजिक सम्पदा में गैनि ग्विाज में "ौर पर मनमाने माना है। कोर्ट को विषमभाव आ सका है। इसलिये माविक
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नही है वहा वास्तविक समभाव नहीं आ सकता, म्यर के वचन उनके लिये गुर का काम देसकते हा ! समभाव के दर्शन की अति होसकती है। है। फिर भी सद्गुरु मिलजाय तो अन्या । धर्म-समभाव में धर्म के नाम पर चलते हुए बुरेसे योगी के भी गुरु होसकता है । शिष्टाचार और बुरे क्रियाकाड आदि भी वह मानने लगेगा कृतज्ञता के कारण वह पूर्णअवस्था के गुरु को मनुष्य और पशु के बीच जो उचित भेद है वह गुरु मानता है, हा, नये गुरु की उसे आवश्यकता भो नष्ट हो जायगा इस प्रकार के अतिवादी नहीं होती । यद्यपि योगियों में भी तरतमता ममभाव से कोई साधक योगी नहीं बन सकता। होती है, विवेक, धर्म, जाति, व्यक्ति, अवस्थासमयोगी होने के लिये निरतिवादी समभाव चाहिय भाव सत्र योगियों में पर्याप्त मात्रा में होने पर जो कि विवेक के बिना नहीं हो सकता। योगी भी उनसे अमुक अंश से न्यूनाविकता होती है. होने के लिये विवेक पहिली शर्त है। फिर भी कल्याण पथमें वे इतने बढगये होते है
कि उन्हें नया गुरू नहीं बनाना पड़ता। कदाचित विवेक (अंको)
जनसधा की दृष्टि से किये गये संगठन के लिये अच्छे बुरे का कल्याण अकल्याण का ठीक नेता की आवश्यकता होसकती है। जनसेवा की ठीफ निर्णय करना 'विवेक है । एक तरह से दृष्टि से पूर्व गुरुको वह गुरु भी मानता है । इस पहिले सत्यष्टि अध्याय में इसका विवेचन हो विषयको स्पष्ट रूप से समझने के तिये निम्न. गया है। विवेकी में तीन बातें होना चाहिये लिखित सूचनाएँ ध्यान में रखना चाहिये। नि.पक्षता, परीक्षकना, और समन्वय-शीलता । १-योगी को गुरु की आवश्यकता नही
भगवान सत्य के दर्शन करने के लिये इन है। नीन गुणों की आवश्यकता है । भगवान सत्य के
-पूर्व गुरु को वह कृतज्ञता की दृष्टि से दर्शन हो जाने का अर्थ है विवेकी हो जाना। गत मानता है, अनुभव और विशेप प्रतिमा की इसलिये उक तान गुण विवेकी होने के लिये प्रिसे मी ग मानता है, जनसेवा में विशेष जरूरी है।
उपयोगी या प्रभावशाली होने से भी गुरु मानता उक्त तीन गणों के प्राप्त हो जाने पर है। मनुष्य अश-साधक योगी हो जाता है और योगी अन्य लोगो को जनसेवा में किसी भी तरह की मूढता कर्तव्याकर्तव्य के उपयोगी होने से नेता मानलकता है । निर्णय मे बायक नहीं रहती। फिर भी चार
४-योगी न होने पर भी विवेकी मनुष्य तरह की मूढता मां का कुछ सष्ट विवेचन करना ग क विना कान चलासकता है। जरूरी है। क्योंकि योगी बनने के लिये इस प्रकार को मूढनाओं का त्याग आवश्यक है।
! साधारणत मनुष्य को गुरु मिलजाब
तो सौभाग्यकी बात है। चार मूडमाए निम्न निखित है-१ गुरु- ह-अगर योग्य गुरु न मिले तो गन्शून्य मूढमा २-शास्त्र मूढता, ३-देव-मूढ़ता जीवन ही अच्छा। गुरु या गुरु को गुरखनालन ४-लोक मूढता।
ठीक नहीं । गम रहित होना अपमान या बदगुरु मढता (तारूनो) नामी की बात नहीं है। ओ पूर्ण योगी वनगया है उसका काम तो इन बातो का विचार कर गुरु मानना गुरु के बिना चल ही सकता है तथा और भी चाहिये। बहुत लोगों का काम गुरु के बिना चल सकता गुरु (तार) कल्याण के मार्ग में जो है। विवेक ही उनका गुरु है, या युगानुरूप 'पैग- अपने से आगे हैं और अपने को आगे की
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का प्रयत्न करता है वह गुरु है । साधारणतः उन जो सम्प्रदाय भी बनाये वे मनुष्यमात्र की साधुता के बिना कोई सच्चा गुरु नहीं होसकता। सेवा करने के लिये स्वयंसेवकों के संगठन के क्योकि सन्चा गरु होने से एक तरह की नि.स्वा समान ये वे जगत्कल्याण की प्रत्येक चरत अहण र्थता जत्नी है. और वही साधुना है। नि. स्वार्य करने को तैयार थे इन्हें कोई पुरानी परम्परा का या परोपकार या स्वार्थ से अधिक परोपकार साधुता अमुक मानव-समूह का कोई पक्षपात न था। का लक्षण है।
विश्वहित के नियमो को जीवन मे उसारकर गुरु की तीन ओगया है। स्वगत सघगरु बताना इनका ध्येय था इसलिये व विश्वगुरु थे। और विश्वगुरु । दुनिया के लिये वह कैसा भी हो पर इनके बाद जो साम्प्रदायिक लोग परन्तु जो हमाग उद्धारक है वह स्वगुरु ( कीत इनके अनुयायी कहलाये उनके लिये विश्वहित तार) है। परोपकार आदि तो उसमें भी होना गौण था अमुक परम्परा था अमुक नाम मुख्य । चाहिये इतना ही है कि उसका उपकार एक था जिनको अपना मान लिया था उनके लिये वे. व्यक्ति तक ही सीमित रहता है।
दूसरो को पर्वाह नहीं करते थे इसलिये वे नेता जिसफर उपकार किसी एक वर्ग नल या अधिक से अधिक संघगुरु कहे जा सकते हैं, समाज पर हे वह सब-गरु ( जिपतार है। हिन्द. विश्वगुरु नहा। मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि सम्प्रदायों को प्रश्न--क्या कोई हिन्दू, मुसलमान. जैन, सेवा करनेवाले गा भी संघ गुरु हैं। इसी प्रकार बौद्ध या ईसाई आदि रहकर विश्वगुरु नहीं हो राष्ट्र, प्रान्त आदि की सेवा करने वाले भी संग. सकता।
उत्तर-हो सकता है पर वह हिन्दु या प्रश्न -मनुष्य कितना भी शक्तिशाली हो मुसलमान आदि अपने वर्ग के लिये दूसरों का पर यह सारे जगत के प्रत्येक व्यक्ति की सेवा नुकसान न करेगा। नास की छाप रहेगी पर नहीं कर सकता इसलिये वडा से बड़ा गुरु भी काम व्यापक होगा। इसलिये वह विश्वमात्र की संघ-गुरु कहलायगा फिर विश्वगरु भेढ किसलिये सेवा करने की नीति के कारण विश्वगुरु कहलाकिया।
यगा। ___उत्तर-विश्व-गुरू होने के लिये प्रत्येक
प्रश्न-इस प्रकार उदारता रखने से ही व्यक्ति की सेवा करने की जरत नहीं है किन्तु अगर कोई विश्वगत कहलाने लगे तब जिसको उस उदारता की जरूरत है जिस में प्रत्येक व्यक्ति पडोसी भी नहीं जानता वह भी अपने को विश्वसमा म जिसकी सेवा-नीति मनुष्यमात्र या गह कहेगा। विश्वगुरुत्व बडो सस्ती चीज हो प्राणिमात्र के कल्याण की हो। फैलने के विशाल जायगी। माधन न होने से वह थोड क्षेत्र में भले ही काम रे पर जिसका मन सकुचित न हो वह विश्व
उत्तर--विश्वगुरु को पहिले गुरु होना ही
चाहिये, वह सिर्फ उदार नीति रखता है पर उस मन--राम, कृष्ण, महायोग, बुद्ध, ईसा, तो वह गर ही नहीं है विश्वगुरु क्या होगा १
नीति पर दूसरा को चलाने की शक्ति नहीं रखता मुरम्मद आदि महात्माओं ने किसी एक जाति या मदाय के लिय काम कियाथा तो इन्हे सघ
उस प्रकार द्वार और शुरु होने के साथ उसका
प्रभाव इतना यापक होना चाहिये जो जमाने एक माना जाय या विश्राम
को देखते हुए विश्वव्यापी कहा जा सत्र । जन सर-विश्यगर (जीयसतार) क्याफि जाने आने के साधन थोड़े थे, छापाग्याना, समासही नीति मनुष्यमान की सेवा करने की थी। चार पत्र, नार श्रादि न होने से मनुष्य अपना
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प्रभाव बहुत नहीं फैला पाता था तब अरब या प्रश्न विश्वगर तो हर हालत में पात्रमगध में ही प्रभाव फैला सकना विश्वगुरुत्व प्रयक मालूम होता है पर संत्र-गुरु तो कुर होने के लिये पर्याप्त प्रभाव था । आज उतने से है क्योंकि वह अपने संघ की जितनी भलाडू काम नहीं चल सकता । आज विश्वगुरु होने के करता है उससे अधिक दूसरे संघो को चुराई लिये कई राष्ट्रो की जनता पर थोडा बहुत प्रभाव करता है। चाहिये । कल गृह मनन आदि में मनुष्य की गति हो जाय तो केवल पृथ्वीपर प्रभाव होने से ,
उत्तर-जैसे स्त्रगर का यह अर्थ नहीं है ही कोई विचार न कहलायगा । उसे उससे भी
KIRTA किपर की बुराई करे उसी प्रकार संघग र का अधिक प्रमात्रफैलाना पड़ेगा इसलिये विश्वास
भी यह अर्थ नहीं है कि वह सब की बुराई करे। होने के लिये उदारनीति, गुरत्व और गापक
भलाई का सेवा क्षेत्र परिमित है और बाकी क्षेत्र प्रभाव चाहिये।
पर काफी उपेक्षा है यही उसका संघ-गुरुत्व है, प्रश्न-ऐसा भी देखा गया है कि ग रत्व
पर अगर विश्वका अहिन करे तो वह एक और उदारता होने पर भी जीवन में किसी का
प्रकार का कुगर हो जायगा । एक आदमी धर्मप्रभाव नहीं फैला और मरने के बाद वह अपेक्षा ।
मद के वश में होकर जगत की निन्दा करता है कृत विश्वव्यापी हो गया। जैसे म ईसा को
या सत्र को मिथ्यात्वी या नास्तिक बताता है तो लीजिये, उनके जीवन में उनके अनुयायी इनेगिने
वह कुगर है। थे पर आज करोडो की संख्या में है तो उनका
प्रश्न-पर निन्दा से अगर ग र कुग र बन गुरुत्व उनके जीवन-कान की दृष्टि से लगाया जाय तो सत्य-असत्य की परीक्षा करना कठिन जाय या आज की दृष्टि से।
हो जायगा क्योकि असत्य की निन्दा करने से ___ उत्तर-ऐसे व्यक्ति मरने के बाद गुर नहीं
आप उसका गुरुत्व छीनते हैं ।। रहते, वे देव व्यक्तिदेव, बन जाते है। यह स्थान
उत्तर-असत्य की निन्द्रा करना बुरा नहीं विश्वार से भी ऊँया है। पर मानलो कोई देव है, निष्पक्ष आलोचना आवश्यक है और कल्यानहीं बन सका, वह मनुष्यमान का सेवक यो णकर को कल्याणकर ओर अकल्याणकर को गरथा पर अपने जीवन में नही फैला तो भी अकल्याणकर भी कहना ही पड़ता है पर यह वह विश्वगर कहा जायगा। क्योंकि विश्वग र कार्य निष्पक्ष भालोचक बन कर करना चाहिये होने का बीज उसके जीवन में था जो कि समय और धर्ममद आदि मद के कारण पर-निन्दा कमी पाकर फल गया। जीवन में फजे या जीवन में न करना चाहिये। बाद फले वह विश्वगुरु कहलाया । जो लोग रन-निष्पक्षता से क्या मतलब है ? हर. बीज से ही फल का अनुमान कर सकते हैं उस एक मनुष्य कुछ न कुछ अपने विचार म्यता की दृष्टि में वह पहिले ही विश्वगर था-बाकी ही है-आलोचना करते समय वह उन्हें कहाँ फेंक जगत की दृष्टि में फलने पर हो गया। टेगा?
प्रश्न-इस प्रकार स्वर्गीय लोगों को विश्व उत्तर-अपने विचार होना ही चाहिये पर गुरु ठहराने से उन्हें क्या लाभ ? और अपने को उनके अनुसार सिफ मन को ही बनाकर रवी स्या लाम १
जिससे उनके अनुसार काम का मशे। इन
निश्चय होना भो नन्दा है पर मन के समान बुद्धि _ 'उत्तर-उनको तो कोई लाभ नहीं परपीछेके को भी उनका गुलाम बनाकर मत रक्यो मालालोगोंको बहुत लाभ है। उनके पद-चिन्हां से उन्हे चना काते समय बुद्धिको विकास स्वतंत्र को कल्याणमार्ग पर चलने में सुभीना होता है । सनुभव और मर्कश निर्णय मानने नार रही।
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बुराई है।
प्रश्न-घटना विशेष पर कभी कभी सा (ईगो इका) है। तार प्रादि में जो न्या. अनुभव होता है कि वह पुगने अनुभवों को नष्ट व्यसन संकन होते हैं वह भी शन भाषा है पर सा कर देता है। जो जीवनभर हिनैषी होने से वेप से या किसी तरह क व्यवहार में अभिनय प्रिय रहा है वह अप्रिय सा मालूम होने लगना रगट करना मोन-भाया [चुन्मो को है। है, चिकित्सा क कष्ट से घबरा कर रोगी वैद्य को किसी भी तरह से जो गुरु होने का दावा भी बुरा समझने लगता है इसी प्रकार कोई करे किन्तु गुरु न हो वह कुगम है। कोई विद्वान अपने बुद्धि वैभव से सत्य को भी
प्रश्न-हीन रू नहीं है उसे अगर कहना असत्य सिद्ध कर बना है, अगर ऐसे समय में
चाहिये कुगुरु क्या घुद्धि को स्वतन्त्र छोड़ दिया जाय तो वैद्यको शत्र
उत्ता-प्रगुरु तो पाप सभी हैं । पाको मानना पडेगा और सत्य को असन्य मानना
गर न होने पर भी गुम होने का दावा कर वह पड़ेगा।
वचक है इसलिये कुगर हैं। उत्तर-यह बुद्धि का नहीं मनका दोप है।
पल-हा सहना है कि कोई गर न हो पर जिस समय मन सुध हो उस समय मनुष्य
अपने से अच्छा हो तर उम गरु मानने में क्या सत्यासत्य का निर्णय नहीं कर सकना, कम स . कम जिस विषय में सोम है उस विषय मे नहीं। कर सकता या कदाचित् ही कर सकता है। इस.
उत्तर- अपने से अच्छा है। माना ही लिये रोगी के चच्च मन के निर्णय का कुछ मूल्य
मानना चाहिये कि वह अपने से अन्दा है। नहीं, रही बद्धि के विमोहित होन की बात सो अगर वह अन्दापन हमें भी अच्शा बनाने के विचारणीय विषय जैसा गम्भीर हो उसके लिए काम आता हो त। स्वगह मानना भी ठीक है पर उनना समय देना चाहिये और निष्पक्ष विचारक अमुरु आदमी से अच्छा होने के कारण कोई के नाम पर इतना कहना चाहिये कि अभी तो गुरुत्व का दावा करे तब वह कुारू ही है । वह इस बात का उत्तर नही सुमा है पर कुछ समय अपने से जितना अच्छा है उतना उनका पाहा बाद भी अगर न समझेगा, दूसा से चर्चा करने आदि होना चाहिये पर गुरु मान कर नहीं। पर भी अगर न मिलेगा तो अवश्य विचार खोटा रुपया पैसे की अपेक्षा अधिक कीमती बदल दंगा। काफी समय लगाने पर भी अगर होने पर भी बाजार में नहीं चलता क्याकि वह अपने विचार परीक्षा मे न ठहरे तो मोहवश या करया बन कर चलना चहता है । इसी प्रकार मद-वश उनसे चिपके न रहना चाहिये । अगर अगर हमसे सिफ कुछ अच्छा हाने पाहीजब गर कोई गुरु ऐसा पक्षपाती है तो वह कुगर है । जो घन कर चलना चाहता है तब खोटे उपयं की स्वय सत्य को नही पा सकना वह दूसरो को कैसे तरह निन्दनीय है । सत्य प्राप्त करायगा और सत्पथ पा चलायगा परन्तु यह भी ग्ययाल चाहिये कि पन्छेपन
प्रश्न- कुगुरु किसे कहना चाहिये १ की निशानी २ वेर (जो) २ पढ़ (पम्मो]३ व्यर्थ
उत्तर--जो गुरु नहीं है किन्तु श इ-भाषा क्रिया. [ नकातो ] और ४ व्यर्थ विद्या (नकबुयो) था मौन मावा द्वारा गुरु होने का दावा करता है ना
का
नहीं है। बहुत से लोग इनको गुरुत्व का चिन्ह वह गुरु है।
समझते हैं पर यह गरु मूढता का परिणाम है। प्रराजभाषा और मौन-भाषा का क्या है
नग्नता, पीले वस्त्र, सफेट वस्त्र, भगौं
वस्त्र, जटा, मुंहपत्ति आदि अनेक तरह के जो मतलब
साधुवेप है उन्हे गुरुता का या साधुना का चिन्ह उत्तर-शों से बोलकर या किसी प्रकार न समझना चाहिये । वेष तो सिर्फ अमुक संस्था , लिम्व का विचार परगद करना शन्त-मापा के प्रमाणित सहस्त्र होने की निशानी है पर किसी
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संस्था के सदस्य हो जाने से गुरुत्व या साधुता सुविधा, जलवायु तथा आर्थिक स्थिति के अनुनहीं जाती।
सार होना चाहिये । वेष के द्वारा जनता मे भरम प्रश-दुनिया के बहुत से काम वेप से ही
पैदा न करना चाहिये और न अपने से भिन्न चलते है। खास कर अपरिचित जगह मे कौन वेप देखकर घृणा । वेष को लेकर साधुता में मनुष्य कितना आदरणीय है इसका निर्णय उसके काफी भ्रम पैदा किया जाता है क्योकि साधुत वेप से ही करना पड़ता है।
सब से अधिक पूज्य और वदनीय है और गुरुता उत्तर-वेप के ऊपर पूर्ण उपेक्षा करने की
तो उससे भी अधिक | गुरुना का तो हमारे
जीवन की उन्नति-अवनति से बहुतसा सम्बन्ध आवश्यकता नहीं है किन्तु उसकी उपयोगिता मामूली शिष्टाचार तक ही रहना चाहिये । विनय
है, इसलिये इस विषय में बहुत सतर्क रहने की
जरूरत है। सिर्फ वेप देग्व कर किसी को गुरु के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। शिष्टा. चार मे भी साधुता या अन्य गुणों की अवहे
या साधु न मानना चाहिये। लना न होना चाहिये । उदाहरणार्थ एक समाज
प्रश्न-जो साधु-संस्था जगत का कल्याण संबी विधान या श्रीमान
करती हो उसमें अगर धोखे से कोई निर्षल या वेपी जैनमुनि, बौद्ध श्रमण, हिन्दू संन्यासी, .
चालाक श्रान्मी घुस जाय और अपने दोप से पारी या फकीर पाया तो जबतक उसके विशेष
उस माधु-संस्था की बदनामी करे सो साधु-संस्था गुणों का परिचय नहीं मिला है तबतक वह एक
की बदनामी रोकने के लिये उस साधुवेषी के सभ्य गृहस्थ के समान आदर पानगा। बाद
दोप छिपाये रखना और साधु-संस्था के सन्मान में परिचय होने पर उस समाजसंची की अपेक्षा
करने के लिये उस साधु का सन्मान करना क्या साधुवेपी की सेवा आदि जैसी कम-ज्यादा होगी अगर उसके अनुसार श्रादर, पायगा।
उत्तर-अनुचित है। साधु-संस्था को बद
नामी से बचाने के लिये दोपी के दोष दूर करने प्रश्न-वेष की उपयोगिता कहाँ नक है। की या उसे अलग कर देने की जरूरत है न कि नियत वेप रखना चाहिये या नहीं? सब को छिपाने की । छिपाने की नीति से साधु-संस्था कैसा वेप रखना चाहिये ।
घटमाशों का अड्डा बन जानी है और सबसे | उत्तर-वेष भी एक तरह की मापा है इस पवित्र संस्था सबसे अधिक अपवित्र होकर लिये अपने व्यक्तित्व का परिचय इस मौन भाषा जनता का नाश करती है और साधु-संस्था की मे दिया जाता है। पर भापा तो यही पता बदनामी समा के लिये हो जाती है । दुगचारी सकती है कि यह आदमी यह बात प्रगट करना और बदमाश लोगों को उससे अलग कर दिया चाहता है। यह बात इसमें है ही, सा नियम जाय तो जनतापर इस का अच्छा प्रभाव पडता तो है नहीं, इसलिये जैस कहने मात्र से हम है। उनना समझने लगती है कि इस साधु-सस्था किसी को नाधु या महापुरुष नहीं मान लेते-- में बगव आदमीकी गुजर नहीं है, खराब आदमी उसके अन्य कार्यों का विचार करते हैं उसी यहा से निकाल दिया जाता है। वेप की इज्जत प्रकार वेष-मात्र से किसी को साधु न मान लेना रग्बत हो तो वेपका दुरुपयोग न करनेदेना चाहिने । चाहिये। किसो संस्था की सदस्यता बताने के सिर भी यह नो हर हालत में आवश्यक है कि लिये नियत-वेध भी उचित है फिर भी वेप ऐसा वेप की इज्जत साधुता आदि से अधिक न हो। रखना चाहिये जो बीमत्स या भयंकर न हो। वेप के ममान पर भी गुरुता की निशानी नान र लेकर नगर में घूमना, खोपड़िया पहि- नहीं है। पद का सम्बन्ध किसी संस्था की नना श्रादि अनुचित है। साथ ही क्षेष अपनी व्यवस्था से है-गुरुता से नहीं । आचार्य, पोप
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सत्याभूत
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वलीका अादि पद समय समय पर लोगों ने धर्म कोई कोई सार्थक क्रियाएँ भी होती है, जैसे रस्था की व्यवस्था के लिये बनाये थे। हरएक सेला, विनय आदि ये साधुता के चिन्ह हैं अपने वीज का दुरुपयोग होता है पढ का तो कुछ से अधिक मात्रा मे हा नो गुरुत्ता के चिन्ह वन वशेष मात्रा में फिर भी जो उस संस्था के अग अगते । सिन्हे पद का सन्मान रखना चाहिये। उसका विद्वत्ता भी गुरुता का चिन्ह नहीं है । अनेक दुरुपयोग हो रहा हो या अनावश्यक हो तो भले भापामा का ज्ञान, वक्तृत्व, लेखन, कवित्व, धर्म, ही वह नष्ट कर दिया जाब पर व्यवस्था के लिये दर्शन, इनिहास, पदार्थ, विज्ञान, गणित, ज्योतिप इड का सन्मान करना उचिन हैं। इतना होनेपर प्रादि का पाहित्य यश और सन्मान की चीज भी पद गुरुना की निशानी नहीं है और पद का है पर इसका गरुत्व से सम्बन्ध नहीं है। इससे दुरुपयोग होरहा हो तो उसको निभाते जाना भी मध्य शिक्षक हो सकंगा गुरु नहीं । गुरुता का सचिन नहीं है। साफ किसी पट के कारण किसी सम्बन्ध ज्ञान के साय सनागर और सेवा से को गुरु नहीं बनाता।
है। ज्ञान आवश्यक है, पर सिर्फ ज्ञान से कोई क्रियाकाण्ड भी गुरुता की निशानी नहीं गृह नहीं कहलाता। हां, हो सकता है कि उनका है। एक प्रादमी अनक नरह के आमन लगाता ज्ञान किताबें पढ़कर नहीं, किन्तु प्रकृति को पढकर है, अनेक बार स्नान करना है या बिल्कुन स्नान आया हो, नाममात्र की किताने पढ़कर चिन्तन नहीं करता. धूप में नाना है या अग्नि तपता है, मनन से आया हो। मिर के बाल हाथ से उसाड लेता है, घटो पूना अपना असली गर तो मनुष्य स्वयं है पर करता है, जाप जपता है, एकान्त में बैठता है, हरएक की कल्याण मार्ग का पूरा परिचय नहीं मौन रखता या दिनभर नाम 'पानि जपता रहता
होता कभी कमी जटिल समस्याएँ अाकर किंक. है, उपवास करता है या एक ही बार याता है,
तव्यविमूढ बना देती है, कभी कभी समझते हुए अनेक घरा स मांगकर खाता है या एक ही में जाना है इत्यादि बहुतसा क्रियाकाण्ड भी
भी खुद पर अकुश राशना कठिन होता है इसके
लिये अधिकांश मनुष्यों को गरु की आवश्यकता गन्ता की निशानी नहीं है। उनमे बहुतमा निर
होनी है पर ग रु थनाना ही चाहिये-ऐसा कोई बैंक है. बहुनसा सिर्फ व्यायाम क समान उपनियम नहीं है। जिनमें सदसद्विवेक काफी है योगी है वह भी किसी खास समय के लिये-पर और मनकी उधाम वृत्तियो पर भी गहना की निशानी कोड नहीं है।
अंकुश है उन्हे गुरु की कोई जरूरत नहीं। कियाकाण्ड वही उपयोगी है जिससे जगत गुरु मिल जाम नो अला, न मिले तो गमहीन की मया होनी हो, जगत का कुछ लाभ होता हो। जीवन अच्छा, पर कुगरु-सेवा अच्छी नहीं। सिमी रह स समाधारगना बनताकर लोगों को भूख स नादमी इतनी जल्दी नहीं भरता जितनी चमकाना. का "यान अपनी तरफ वीचना बल्ली विप ग्याकर मरना है। गुरुटीन से कुगरु.
और इस प्रकार अपनी पूजा काना प्रकार सेवक को हानि कई गणी है। का उम्भ है। इसका मरना से कोइ सम्बन्धन प्रश्न-गुरु का तो नाश ही करना चाहिये। मनिय नाना के लिये ये व्यर्थ नियापाए हैं। के होने स गुरुहर फैलता है धर्म के नाम
-मान भी पासवा में उपयोगी पर अत्याचार शुद्ध होने है, समाज का बोझ चाग्यि निग्क कट सहन क कोड मून। बढता है। यायि गुरु को जन्मन ही क्या है?
र कितना सा मरत है अपना उत्त: वैधानिक आवश्यकता रही हैं। गगा न मा मते मा मात्र निरर्थक अमुक आदमी को गुरु मानना ही चाहिय या मानांविषय में नहाना चागत गर का पट होना ही चाहिय या निगम भी नरी
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है । गुरुडम फैला है वेप और पद को अधिक महत्व देने से । सो देना चाहिये जब गुरु के योग्य गुर दिखे तभी गुरु मानना चाहिये । हमारे सम्पदाय का आचार्य है, मुनि है, अमुक वेष मे रहता है इसलिये हमारा गुरु है जब यह नियम टूट जायगा तब गुरुडम न फैन पायगा । गुरुडम शब्द ऐसे nate के लिये प्रचलित है जिस मे गुरु पrds fद के कारण भक्तोपर fer after रखता है या उस अधिकार का दुरुपयोग करता है, साधुताहीन जीवन बिनाता है. छलकर लोगों की सम्पत्ति लूटता है और उससे मौज करता है, उन्हें अंधश्रद्धालु बनाता है। ऐसे गुरु का नाश अवश्य करना चाहिये । पर जहाँ ज्ञान, त्याग, सेवा, विवेक है वहाँ गुरुत्व माना जाय तो कोई हानि नहीं है थल्कि लाभ है।
प्रश्न - लाभ क्या है ?
उत्तर---अज्ञान के कारण कोई अच्छी बात हमारी समझ मे नही आती तो यह समझाता है, कुमार्ग में जाने से रोकता है, प्रमाद दूर करता है, साहस देना है, धैर्य की रक्षा करता है वित्त ants होता है और भी जो उचित सेवाएँ हो सकती हैं-करता है ।
प्रश्न-- गुरु और शिष्य ने अंतिम निर्णय कौन करे ? अगर शिष्य की चलती है तो गुरु गुलाम बन जाता है फिर वह उद्धार क्या करेगा और गुरु की चलती है तो शुरुडम फैलता है।
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उत्तर - यह तो राजी राजी का सौदा है ? बोना अपनी अपनी जगह ranत्र हैं. शिष्य को गुरु की परीना करने का पूर्ण अधिकार है लिये गुरुडम फैलने की बहुत कम सम्भावना शिष्य को वह नहीं करता ह उसके हित को पनाह करता है। इसलिये गुरु के गुलाम होने की सम्भावना नहीं है ।
- गुरु की परीना कैसे होगी ? जो ढोपन में है उन्हें दूसरे मे निकालना कहाँ तक वचन है ?
उत्तर- ईर्षा द्वेषादि के वश होकर किसी के दोष न निकालना चाहिये पर किसी पर कोई जिम्मेदारी डालना है तो उसमे उस जिम्मे दारी को संभालने की योग्यता है या नहीं इसकी जाँच तो करना ही चाहिये। हो सकता है कि जो
उसमे है वह दो अपने मे उससे अधिक हो और अपने दोषो की संख्या भी अधिक हो फिर भी हम उसके ढोप निकालेंगे क्योकि इससे हमें अमुक्त योग्यताका काम लेना है, अध्यापक अर अध्यापक क योग्य नहीं है तो इतने से ही वह सन्तोष नही हो सकता कि विद्यार्थी तो और कम जानता है। गुरु को गुरु के योग्य बनना चाहिये। जो जिस पद पर है उसे उस पद के योग्य बनना जरूरी है | इस प्रकार गुरु की पूर्ण परीक्षा कर गुरुन्मूढता का हर प्रकार त्याग करना चाहिये । साधक गुर-मूढता से सा दूर रहता है।
शास्त्र मूढता ( ईनू तो ) सायक मे शास्त्रमूढता भी नहीं होनी परम गुरुओं या गुच्छां के वचन शास्त्र हैं। जब हम गुरुआ की परीक्षा करते हैं तो शास्त्र की भी परीक्षा करना छाव श्यक है।
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प्रश्न - रुखो की परीक्षा करने से काम चल जाता है फिर शास्त्रों की परीक्षा करने की क्या जरूरत है ? चासकर परम गुरु के वचनो कीपन करना तो और भी अनावश्यक है ।
उत्तर---इसके पांच कारण हैं। सुनुपरोक्षता (तार नोइन्डो ) २ परिस्थिति परिवर्तन (लजिज्जो मुरो) शब्द-परिवर्तन (इकोमुरो) ४ चर्थ परिवर्तन, ( आगोगे ) अविकाम ( नो लनीभो )
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शास्त्र के उपयोग के नया तो स्वर्गीय हो जाते हैं या बहुत हो जाते हैं। जब गुरु नहीं मिलते तब हम उनके बचना से आन चज्ञात है। "मी हालत में गरी का ठीक ठीक सत्यासत्य की जाँच कान के लिये उनके की
होमिन पानात
न करता आवश्यक
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सत्पात
मतलब है ऐसा महान विश्वगुरु जो देव कोटि को बाज तथ्यशून्य कही ना सकती है। इसमें म जा पहुंचा है अर्थात् व्यनिदेव । व्यक्तिदेव को शास्त्रकारों का अपराध नहीं होना क्योंकि उनने भी परीना करना जारी है क्योंकि ईसा भी हो तो अपने जमाने में जितना तथ्य मिल सकता सकता है कि अयोग्य व्यक्ति भी कारणवश था उतना तथ्य लिख दिया। अब आज अगर व्यक्किदेव मान लिया गया हो। इस प्रकार किसी ज्ञान का विकाम हो जाने से पुरानी मान्यनाए' के भो वचन हो उनकी यथासम्भव जाँच तो होना अतथ्य होगई हैं तो उन्हे घटल देना चाहिये । ही चाहिये । परोन होने के कारण ग र की ऑच शास्त्रकार जितना कर सकते थे किया, अब हमे नहीं हो सकती तो उसके वचन की जॉच कुछ आगे बढ़ना चाहिये और शास्त्रकारी ने आवश्यक है।
जितनी सामंत्री बी उसके लिये उनका ऋतज्ञ होना परिस्थिति बदलने से भी शास्त्र को बन चाहिये ओर कृतज्ञतापूर्वक उनके वचनो की सी बात अग्राह्य होजाती हैं। जो बान एक समय परीक्षा करना चाहिये। के लिये जनकल्याणकर होती है वही दूसरे समय जहाँ परीक्षकता है वा शास्त्र मूदता नहीं के लिये हानिकर या अनावश्यक हो जाती है। रहती परीकता का विषय में और शास्त्र के उपइसमे शास्त्र का दोष नहीं है यह प्रकृति का ही योग के विषय मे पहिले अध्याय में जो कुछ परिणाम है। उस परिस्थिति क विचार से भी लिखा गया है उसपर ध्यान देने से और उसे शाव की परीक्षा श्रावश्यक है।
जीवन में उतारने से शास्त्र-मूढता दूर होजाती है याद रग्बन में या कागज आदि पर नकल
फिर भी स्पष्टता के लिय कुछ कहना जरूरी है। काने वा छापन में शास्त्रा के शब्द बदल जाते .. शास्त्र मुहरा के कारण नाना तरह के मोह है इस प्रकार शास्त्र ज्या के त्यो नही रह पाते हैं। १ स्वत्वमोह, २ प्राचीनता-मोह. ३ भाषाइसलिये शास्त्र की परीना आवश्यक है। मोह, वेपमोह आदि।
कभी कभी शट तो नहीं बदलते पर अभी अपने सम्प्रदाय के, जाति के प्रान्त के और बदल जाता है। कुछ तो बहुत समय बीत जाने देश के बादमी की बनाई यह पुस्तक है इसलिये से शब्दों का वास्तविक अर्थी मानूम नहीं रहता सत्य है यह स्वत्व-मोह है। स्वर्गीय विद्वान की जैसा कि वेठा के विषय में है। और कुछ लक्षण बनाई यह पुस्तक है इसलिय सत्र है यह चीव्यखना नादि से अर्थ धमल दिया जाता है। नना-मोह है। यह पुस्तक संस्कृत नाइन अरबी यही कारण है कि एक ही पाठक नाना अर्थ ही पारसी ले.टन भाषा का है इसलिय सत्य है यह जात है और उन श्रथा के सम्प्रदाय भी चला भापा-मोह है । यह पुस्तक जिसने बनाई है वह है इसलिये भी शास्त्र की परीक्षा आवश्यक है। संन्यासी था मुनि था फकीर था इसलिये सस्त्र शास्त्रकार-फिर व गुरु या परम गुरु कोड
है यह वप माह है। ये सत्र मोह शास्त्र-मृढ़ता के भी कास सर्वच नही हो सकते जिनकं ज्ञान
चिन्ह है। बहुत से लोग किसी पुस्तक को इसी
लिये शास्त्र कह दो है कि यह पुस्तक सस्कृत को जान की सीमा कहा जा सके। मा सर्वज्ञ कोई भी नही हो सकता। वह अपन जमाने के
आदि किसी प्राचीन भाषा में बनी है, अपने
सम्प्रदाय की है और बनानेवाला मर गया है अनुम्प महान ज्ञानी हो सकता है। पर इसके
वह मान्यता शास्त्र-मृद्वत्ता का परिणाम है । इस पार जग में मान की वृद्धि स्वाभाविक है।
प्रकार शास्त्रमूढना के और भी रूप है उन सय मयम का विकास भले ही नही पर ज्ञान का
का त्याग करना चाहिये और शास्त्र यी यथा. काम मातही होता है पीर होरहा है। इस साध्य परीक्षा कर उसका उपयोग करना निय गात्रा में मी बहन नी याने या आनी है चाहिय ।
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प्रश्न-परीक्षा करके ही अगर शाख माने उत्तर-दुनिया दुरंगी है, भीतर कुछ और जाँय तो शास्त्र की उपयोगिता ही नष्ट हो जायगी बाहर कुछ, इसलिये परीक्षक बने बिना मनुष्य शास्त्र की परीक्षा का अर्थ है उसमे लिखे हुए की गुजर नहीं हो सकती ? पर मनुष्य जन्म से विषयों की परीक्षा । जिज्ञासु उनकी परीक्षा कैसे विश्वासी होता है, दूसरों से वञ्चित होने करे ? जाने तो परीक्षा करे, परीक्षा करे तो जाने,
पर वह परीक्षक बनना सीखता है ।
इस प्रकार के अनुभव ज्यो ज्यो बढ़ते फिर पहिले क्या हो ?
जाते हैं त्यो त्यो मनुष्य परीक्षक बनता , उत्तर--यहां एक तीसरी चीज भी है-मानना। जाता है और जहा परीक्षक नहीं बन पाता बहा पहिले जाने, फिर अपने अनुभव तथा अन्य ज्ञान । विश्वास से काम लेता है। मनुष्य का जीवनके आधार से परीक्षा करे, फिर माने । परीक्षा व्यवहार विश्वास और परीक्षा के समन्वय से का मारने की आने की नहीं चलता है । जहा अपनी गति हो वहां परीक्षा करना
चाहिये, बालक माँ बाप की बात की परीक्षा करत जानना तो पहिले भी हो सकता है।
हैं और मा बाप की भी परीक्षा करते हैं। जब प्रश्न-जो शास्त्र की परीक्षा कर सकता है बालक मा बाप की बात का भी विशस नहीं उसे शास्त्र की जरूरत क्या है ? जिस बुद्धि वैभव करता है तब समझना चाहिये कि उसमें परीक्षकत्ता से वह शास्त्र की परीक्षा कर सकता है इसी से है। हरएक श्रादमी को मा बाप नहीं कहता, वह शास्त्र में वर्णित विषय क्यों न जाने १ विशेष आकृति स्वर आदि से मा बाप को पहि
चानता है. यह मा बाप की परीक्षा है। जैसी उत्तर-यहा गुरु-परीक्षा नहीं अालोचनपरीक्षा है, इस परीक्षा में उतने बुद्धि-विभव की
उसकी योग्यता है वैसी परीक्षकत्ता है। प्रारम्भिक
शिक्षण में विश्वास से काम लेना ही पड़ता है जरूरत नहीं होती जितनी शास्त्र के निर्माण में ।
और परीक्षकता का उपयोग भी कुछ नियमों के निर्माता को अप्राप्त वस्तु प्राप्त करना पड़ती है, अनुसार करना पड़ता है। परीक्षा करने में तीन अलोचक को प्राप्त वस्तुकी सिर्फ जांच करनापड़ती बातों का विचार करना चाहिये:है। प्राप्त वस्तु को आचना सरल है पर उसका वस्तु का मूल्य २ परीक्षा की सुसम्भावना निर्माण या अर्जन कठिन है इसलिये हर एक की मात्रा, ३ परीक्षा न करने से लाभ हानि की।
आदमी शास्त्र-निर्माता नहीं हो सकता पर परी- मर्यादा। क्षक हो सकता है।
सोना चॉदी आदि की जितनी परीक्षा
की जाती है उतनी साधारण पत्थरों की नहीं । प्रश्न-परीक्षक घनने के लिये कुछ विशेष उसी प्रकार गरु शास्त्र देव आदि की जितनी ज्ञान की आवश्यकता है पर विना परीक्षा किये परीक्षा की जाती है उतनी अन्य सम्बंधियो.की किसी को कोई बात मानना ही न चाहिये ऐसा नहीं. क्योंकि गरु शास्त्र यानि पर लोक-परलोक हालत में विशेष मान कैसे मिलेगा १ बालक का का कल्याण निर्भर है। भी कर्तव्य होगा कि वह माँ बाप की बात परीक्षा
२ शान गुरु आदि की परीक्षा जितनी
की करके माने, इतना ही नहीं किन्तु माँ बाप की ससम्भव है उतनी माता पिता आदि की नहीं। भी परीक्षा करे। जब सरस्वती माता की परीक्षा सम्भव है. माता पिता कहलानेवाले माता पिता की जाती है, गुरु की परीक्षा की जाती है तब न हो कुछ संकरता हो, शेशव मे उनने अपना माँ बाप की परीक्षा क्या नहीं ? पर इस प्रकार लिया हो, तो हमारे पास ऐसे चिह्न नहीं हैं कि परीक्षकताके अद्वैत से क्या जगत का काम चल उनकी ठीक ठीक डाँच कर सकें। इसलिय माता सकता है।
पिना की असलियत की जाँच कम की जाती है।
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सत्यत
३ माता पिता अगर असली न हो तो भी दव-मूढ़ता पाँच तरह की है १ देव-भ्रम (लोम. उसमे कोई विशेष हानि नहीं है पर गुरु शास्त्र मूहो) देव को देव मानना, २ रूप-भ्रम (अम्मो
आदि के विषय में एसी उपेक्षा नहीं की जा भूहो) देव का स्वरूप विकृत या असत्य कल्पित सकती। उनके असत्य होने से जीवन नही करना ३ कुमचना (नियाचो) अनुचिन माग मरुना है।
पेश करना ४ दुरुपासना (रुपूजो) बुरी तरह
पूजा करना ५ परनिना (युमधुपो ) एक देव की शान्त्र की परीक्षा में मरस्वती माता का पताक लिये दूसरे देव की निन्दा करना। अपमान न समझना चाहिये । सरस्वती तो सत्य
-भय से, मोह से और अन्ध श्रद्धा से मयी है और शास्त्र के नाम पर तो सत्य-असत्य किसी को देव मानना देवनम है। जैसे भून सभी चलता है, उसी परीक्षा करकं सत्य को
पिशाच शीतला आदि को देव मानना उनकी खोज निकालना सरस्वती की खोज करना है
पूजा करना । पहिले तो भूत पिशाच आदि उसकी परीक्षा करके उसका अपमान नहीं ।
कल्पनारूप हैं। एक ताह के शारीरिक विकारों मत्य की खोज करना भगवान सत्य का अपमान
र माले हैं पार ये हो नहीं सन्मान है। परीना को अपमान नहीं सम- मो. तो भी इन्हें देव मानना देवभ्रम है । क्योकि झना चाहिये । इसलिये शास्त्र परीना अवश्य ये आततायी है.आदर्श नही अगर ये उपद्रव कर करना चाहिये। हा, जहा अपना बुद्धि वैभव तो इन्हें दंड देना चाहिये । दंड नहीं दे सकते तो काम न दे वहा विश्वास से काम ले फिर भी उसका यह मतलब नहीं है कि इन्हें देव माना जाय। इतना तो समझ ही लेना चाहिये कि वह प्रमाण- शनैश्चर प्रादि नही को दव मानना भी देवरम विरुद्ध तो नहीं है, देशकाल का देखते हुए सम्भव है। अनन्त आकाश में घूमनेवाले ये भोतिक पिड या नहीं जब विरोव समझ में श्राजाय नय
कोई प्राणी नहीं हैं कि उन्हें देव माना जाय। माहवा श्रमत्य को अपनाये न रहे।
उनकी गतिका जीवन पर ऐसा प्रभाव नहीं पड़ता
जैसा कि लोग समझते है । वायुमण्डल आदि इस प्रकार शास्त्रों को परीक्षा करके शास्त्र
पर कोई प्रभाव पडता भी हो, तो भी इन्हें देव मूढना का त्याग करना चाहिय।
मानने की जरूरत नहीं है 1 अगर इनका कोई बढ़ना-( जीमूना ) जीवन का आदर्श
दुष्प्रभाव होता हो तो उससे बचने के लिये हमे देव है। जीवन क श्रादरूप में अब हम किसी
कोई चिकित्सा करना चाहिये, इनकी पूजा करना
और इन्हें खुश करने की कल्पना से इनके दुष्प्रनन्य को अपनाने हैं नव वह गुणदर कहलाता भाव से बचन को श्रागा करना मृढता है । इस २. किमो व्यक्ति को अपनाते हैं तब उमे
याक का अपनाते है नर उमें मूढता से बड़ी भारी हानि यह है कि मनुष्य किस रात है। मध अहिंसा आदि गणदेव योग्य चिकित्सा से वहित हो जाता है और
गम, कृष्ण, महावीर. बुद्ध इमा मुहम्मद, अयोग्य चिकित्मा में अपव्यय करता है इस उरथुम्न मागम भाटि ब्यमिदेव हैं। गुणदेवों को प्रकार दुहगे हानि उठाता है। जीवन में उतारना ब्यामि देवा के जीवन में शिक्षा प्रश्न-ईश्वर भी एक कल्पना है तो क्या लेसर उनसचिन 'अनुकरण करना, उनके उस मानना भी देवरम समझा जाय ? विषय में अपनी भरि बनाने क लिये श्रादा. उत्तर-भय मे, मोह से और पन्ध श्रद्धा पूना, मगर मनुति करना या, सब दया की संवा मानना देवभ्रम है पर विचारपूर्वक मामा मामी देवोपासना नो पाता ईभर मानना और किमी तरह की अनुचित
भूनना का परिणय नहीं देता। प्रशानी रमना देवभम नहीं है। उगकी
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हष्टिकांड
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ईश्वर कल्पित भी हो तो भी यदि उसका दुरुप. की उपासना ही न हो सकेगी । मूर्ति को भुलाई योग न किया जाय तो देवमम नहीं है । जैसे देने पर देवत्व ही देवत्व रह जायगा, पर मूर्ति पाप करना और ईश्वर की पूजा करके पाप के को जगह देवत्व को आप भ्रम कहते हैं। फल से छुटकारा मानना यह ईश्वर का दुरुपयोग
उत्तर--मूर्ति द्वारा देव की उपासना करते है । पर उसे पूर्ण न्यायी मान कर पाप से बचते
समय मूर्ति को भुला देना ही ठीक उपासना है। रहना ईश्वर का सदुपयोग है। इससे मनुष्य का
मूर्ति को याद रखना उपासना की कमी है। देव कल्याण है । इसलिये अगर ईश्वर कल्पिन भी
की उपासना में देव ही याद रखना चाहिये हो तो भी उसकी मान्यता सिर्फ अतथ्य होगी,
उसका आधार नहीं। जितने अंश में अवलम्बन असत्य नहीं। दूसरी बात यह है कि गुणमय ईश्वर
(मूर्ति वगैरह ) याद आता है उतने अंश में
वह देवोपासना नहीं है। जिस प्रकार अक्षरों कल्पित भी नहीं है । सत्य अहिंसा आदि गुणा की आडी टेदी प्राकृतियों को देखते हुए और का पिंड ईश्वर विश्वव्यापी है, घट घट वासी है। उनका उपयोग करते हुए भी उन्हें भुलाकर अर्थ, अनुभव में आता है, बुाद्ध-सिद्ध भी है उसे पर विचार करना पड़ता है उसी प्रकार मूर्ति के मानना तथ्य भी है और सत्य भी है इसलिये सामने मूर्ति के रूप को भुलाकर देव का रूप ईश्वर की मान्यना देव-मूढता नहीं है। याद करना पड़ता है। इस मे अदेव को देव नहीं
प्रश्न-मूर्ति को देव मानना तो देवभम माना गया है जिससे देवभ्रम कहा जा सके। अवश्य है । क्याकि मूर्ति तो पत्थर श्रादि का २-देव के वास्तविक और मुख्य गुणों को पिंड है। वह देव कैसे हो सकता है। मुलाकर कल्पित निरुपयोगी गुणों को मुख्यता,
उत्तर--मति को देव मानना नेवरस है देना, उनका रूप बदल कर उसका वास्तविक पर मूर्ति मे देव की स्थापना करना देवरम उपयोग न होने देना आदि रूपभ्रम है। जैसे नहीं है। अपनी भावना को ध्यास करने के लिये अमुक महात्मा के शरीर मे दूध सरीखा खून था, कोई न कोई प्रतीक रखना उचित है। जैसे ब्रह्मा विष्णु महेश उसका धात्रीकर्म करने आये, कागज़ और स्याही को (पुस्तकों को) ज्ञान थे, वह बैठे बैठे अघर चला जाता था, वह समझ समझना भ्रम है पर उसमें ज्ञान की स्थापना को हुक्म देकर शान्त करता था, वह 'गलीपर करके उसके द्वारा ज्ञानोपार्जन करना भ्रम नहीं पहाड़ उठाता था, उसके चार मुंह दिखते थे, हैं। हॉ, जब हम कला आनि का विचार न एक प्रकार के सब रूप-भ्रम है। दूसरे प्रकार करके अन्ध-श्रद्धावश किसी निविशेष में अति- रूपभ्रम वे हैं जिनमे सम्भव किन्तु मानत शय मानते हैं, उसे देव को पढ़ने की पुस्तक न बातो को महत्व दिया जाता है। जैसे महात्मा समझ कर देव ही समझने लगते है तब यह की लोकोपकारता आदि को गौण करके इन देवभ्रम हो जाता है । कोई मूर्ति सुन्दर और असाधारण सौन्दर्य आदि को महत्व देना कलापूर्ण है तो उस दृष्टि से उसको महत्व समझो. हो सकता है कि वे सुन्दर हो पर वे मह : अगर उसका कोई अच्छा इतिहास है तो ति- होने के कारण सुन्टर थे यह बात नहीं है। .. हासिक दृष्टि से उसे महत्व हो, पर उसमें दिव्यता के प्रवेश में सी बातो को इतना महत्त्व न देन की कल्पना मत करो. उसे देव मत समझो. चाहिय कि उनक महात्मापन के चिन्ह मन्त्र जोग देवमूत्ति समझो।
तीसरे प्रकार का रूपभ्रम वह है जिस में महा प्रक्ष–मति द्वारा देव की उगसना करते त्माया की उनके जीवन सं बिनसन्त sre समय अगर हम मूर्ति का न भुला सके तो देव चित्रित किया जाता है जैसे किसी परित्र
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= [१२]
सत्यामृत
वडा
साधु की मूर्ति कोनो नग्न तक रहा हो गइन यम का पता लगता है । कुयाचना देव-मृद्ता का पहिनाना श्रादि। ये सब रूपभ्रम देव-मूढता के परिणाम है। हो एक रूप है।
प्रश्न-व्यक्तिदेवों की उपासना में उनके प्रश्न-आलंकारिक वर्णन में थोड़ी अति- जीवन का अनुकरण लक्ष्य हो सकता है पर ईश्वर शयोक्ति हो ही जाती है। अगर उन्हे देव-मदता की उपासना में क्या ध्येय होगा। ईश्वर का अनु कहा जायगा तब तो काव्य की इतिश्री ही हो करण तो किया नहीं जा सकता। उससे छोटी जायगी।
वडी सभी चीजो की याचना ही की जा सकती उत्तर-अलंकार अलंकाररूप में काम में है। राणी तो ईश्वर के प्रागे सदा मिखारी है। श्रा तो कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि उससे उससे याचना क्या और कुयाचना क्या ? अर्थ में कोई कमी नहीं होती वल्कि अर्थ स्पष्ट
उत्तर-जगदीश्वर एक ही हो सकता है होता है । मुख को चन्द्रमा कहने स सुन्तरवा ही इसलिये हरएक आदमी जगदीश्वर नहीं बन मालूम होती है उसे प्रकाश समझकर रात में सकता फिर भी उसका अनुकरण कर सकता है। दीपक नहीं बुझाय जाते। दुःख का पहाड़ उठा डावर सर्वगुण-मण्डार है इसलिये लिस गुण का लिया, विपत्ति के समुद्र को पी गया या पार कर जिसने अणों में अनुकरण हो उतना ही अच्छा गया आदि अलंकार वाक्य के अर्थ को सुन्दर है। उसके सामने सिर झुकाने में उसक शासन और साफ बनाते हैं इसलिये अलकार के उपयोग के विषय में श्रद्धा रगट होती है और इससे में मूढ़ता नहीं है। मूढता है अलकार को इतिहास उसकी व्यवस्था नीति धर्म को बनाये रखने की या विज्ञान समझने में। पुराणों में आये हुए मुच्छा पैदा और रगट होती है। उससे अपने बहुत से वर्णन इसी प्रकार के बालकारिक है उनका वास्तविक अर्थ पहिचान लेनेपर मदता
विकास की या आत्मवल की ही याचना करना नहीं रहती।
चाहिये-दया नमा की नहीं। प्रार्थना में अगर
भक्तिवश व्या क्षमा के शन्द आ भी आयें तो ३ तीसरी देव-मूढता है कुयाचना । देवो- इतना ही समझना चाहिये कि हम अपने पापों पासना का मतलब उनके गुणों को या श्राज्ञाओं को स्वीकार कर रहे हैं और पश्चात्ताप प्रकट कर को अपने जीवन में उतारता है जिससे हमारा रहे हैं। ईश्वरीय न्याय को बदलना नहीं चाहते। उद्धार हो। भकि-सय भाषा मे हम यह भी कह वास्तव में कोई मनुष्य ईश्वर का अपराध नहीं सकते है कि तुम हमारा उद्वार करो, जगत में करता, नहीं कर सकता, वह अपराध करता है शान्ति करो, हमारे पापा को दूर करो आदि। उसकी सन्तान का अर्थात हमारा तुम्हारा, उसका इसका मतलब यही कि हम आपका अनुसरण न्याय होना ही चाहिये । इसलिये न्याय से बचने फरें जिससे हमारा उद्वार हो आदि। यह कया- की याचना कुयाचना है। हाँ पाप काने से दूर चना नहीं है । पर सहा अपने कर्तव्य की भावना रहने की और संकट सहने की याचना सुयाचना नाह नहीं, मिर्फ देव को खश कर वन की है वह सागना चाहेय। ईश्वर के आगे इतना ही स्वास्थ्य की, सन्तान की विजय को. शत्र-जय मिखारीपन सार्थक है। की याचना है वह कुयाचना है। देव-पूजा अपने प्रश्न-धन सम्पत्ति आदि की याचना भी कर्तव्य का सम्मान और उसका पालन करने देवोपासना से सफल होती है। देवोपासना से
और उसपर रह रहने के लिये होना चाहिये पुण्य होता है और पुण्य से ऐहिक लाभ मिजत मुफ्तखोरी के लिये नहीं। कुयाचना करने से वह हैं फिर मनुष्य वह याचना क्यों न करे ? अथवा पूरी नहाती मिर्फ अपनी क्षुद्रता और अम- रमे कुयाचना क्यों कहा जाब ?
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चाहिये।
उत्तर-देवोपासना से पुण्य होगा तो उस नहीं है और देवरूप में माने जाते हैं वे फुदव है । का फल आगे मिलेगा इससे पुराने पाप का फल उनकी उपासना न करना चाहिये । कैसे नष्ट होजायगा ? दूसरी बात यह है कि देवो
५ पाचवीं देवमूढता है परनिन्दा । पासना से ही पुण्य नही हो जाता, पुण्य होता सम्प्रदाय आदि के मोहवश दूसरे सुदेवो की है देवोपासना के सत्प्रभाव-नीति सदाचार आदि
निन्दा करना पर-निन्दा है। अगर किसी देव के को जीवन में उतारने से, प्रतिक्रमण श्रादि तप
विषय मे तुम्हारा खास आकर्षण है तो उसकी करने से । ये न हो तो देव-पूजा क्षणिक आनन्द
खूब उपासना करो पर दूसरे देवों की निन्दा न देने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकती।
करना चाहिये और न ऐसी प्रार्थना पढ़ना चाहिये तीसरी बात यह है कि हरएक कारण से हराक
जिससे उनकी निन्दा होती हो। कार्य नही हो सकता इसलिये देव-पूजा शारीरिक चिकित्सा का काम नहीं कर सकती। बीमारी में
प्रश्न-इस तरह तो दो व्यक्ति-देवो में या संकट मे देव-पूजा से सहने की ताकत आ
तुलना करना कठिन हो जायगा क्योंकि तुलना में सकती है, मन को बल मिल सकना है पर वैद्य तरतमता सिद्ध होना स्वाभाविक है। जिसका
स्थान कुछ नीचा बताया जायगा उसी की निन्दा का काम पूरा नहीं हो जाता । देव पूजा से नि न.
हो जायगी और इसे श्राप देव मूढता कह डालेगे। न्तानता का कष्ट सहा जायगा, विश्व-बन्धुत्व गैदा होकर सन्तान-मोह दूर जायगा पर सन्तान गेदा
उत्तर-निष्पक्ष आलोचना में परनिन्दा न हो जायगी। इसलिये कुयाचना न करना
नहीं होती। परनिन्दा मोह का परिणाम है, .
आलोचना मोह का परिणाम नहीं है। तुलना ४-चौथी देव मूढ़ता दुरुपासना है । संयम
करना चाहिये पर वह मोह और अहंकार का
___ कारण या फल न होना चाहिये । साथ ही तुलना को नष्ट करनेवाली उपासना दुरुपासना है ।
करने की बीमारी भी न होना चाहिये । जब जैसे देवता के नाम पर पशुवध करना, मद्यपान
विशेष अविश्यकता हो तब ही तुलना करना करना, मांस-भोजन करना, व्यभिचार करना, चाहिये फिर परनिन्दा का नोप नहीं रहना । आत्मघात करना (पहाड़ से गिर पड़ना जल में डूब मरना आदि ) नरमेध यज्ञ श्रादि भी इसी लोक-मूढता (लुमो ऊतो ) बिना समझे था। मूढता मे शामिल हैं।
बिना पर्याप्त कारण के लोकाचार का पक्षपात प्रश्न-कोई कोई देव ऐसी तामस प्रकृति
होना लोकमूढता है। रीतिरिवाज क्रिसी अवसर के होते हैं जो ऐसे ही कार्यों से खुश होते हैं ।
पर किसी कारण से बन जाते हैं अगर कोई हानि उनकी उपासना के लिये थे कार्य करना ही पडत
न हो तो उनके पालन करने में बुगई नहीं है पर हैं, अन्यथा वे परेशान करते हैं।
उनका पक्षपात न होना चाहिये। हमारे यहा
ऐसे कपड़े पहिनते हैं, ऐसे बाल कटाते हैं ऐसा उत्तर-पहिले तोसे कोई देव है ही नहीं भोजन बनाते हैं, इस प्रकार सजाते हैं इस प्रकार जो मास आदि चाहते हों । यह सब हमारी अभिवादन करते है, विवाह विवि ऐसी होती है, लोलुपता का परिणाम है । अगर हों तो उन्हे जन्म मरण पर ऐसा करते हैं ऐसी बातो का पक्षपूजना न चाहिये । देव तो प्राणिमात्र के देव हैं वे पात प्रबल होना उसकी बुराई को न दम्य सकना पशुओं के भी देव है। जगदम्बा पशुओ की भी उससे भिन्न लोकाचार की भलाई न देख सकता अभ्या है वह अपने लिये अपने पुत्रों का बलिदान लोक-मूढना है। कैंस चाहेगी ? सच्चे देव पाप नही कराते । पाप वेपभूपा में स्वच्छना सुविधा आदि का करनेवाले देव कुदेव हैं। जो अपने लिये आदर्श विचार काना चाहिये ! जिसमे हमें सुविधा है
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उममें दूसरी को असुविधा हो तो चिढ़ना न प्रकार का आग्रह भी लोक-मूढ़ता है। क्योंकि चाहिये । इसी प्रकार खानपान मे रुचि, स्वास्थ्य, बाप दाद हमारे उपकारी हो सकते है पर हमसे स्वच्छता, निपिता आदि का विचार करना अधिक विद्वान थे ऐसा कोई नियम नहीं है। पर चाहियं इसी प्रकार हरएक लोकाचार को बुद्धि. इससे भी अधिक महत्व की बात तो यह है कि मंगत बनाकर पालन करना चाहिये। वाप दादे विद्वान भी हों पर उनका कार्य उनके
प्रश्न-लोकाचार को बुद्धि-सगत बनाया समय के लिये ही उपयोगी हो सकता है आज जाय तो बड़ी परेशानी जायगी। आज दिल के लिये आज का युग देखना चाहिये। आज के चाला योपीय पोषाक पहिन ली, कल लँगोटी रिवाज किसी न किसी दिन नये सुधार थे. उन तगाली, परसो मारवाडी बन गये, किसी दिन पुराने सुधारको ने जब अपने समय के अनुसार महागष्ट्री बन गये, किसी दिन पंचायो बन गये। रिवाज बनाते समय अपने पुरखो की पर्वाह नही इस नरह का बहुपियापन क्या अच्छा है ? की तो उनकी दहाई देकर हमे क्यो करना चाहिये। प्राधिर बादत भी कोई चीज है। उसके साथ
प्रश्न-बहुत से लोकाचार दिसे हैं जिनके बलात्कार करना कहां तक उचित है ?
लाम शीघ्र नहीं मालूम होते पर उनसे लाम है ___ उत्तर-लोक-मूढता के त्याग के लिय बहु- रक लोकाचार के विषय में छानबीन मपिया बनने की जरूरत नहीं है न वाढत के करने की एक आदमी को फुरसत भी नहीं साथ बलात्कार करने की जरूरत है। जरूरत रहती इसलिय बहत स लोकाचारो का बिना
FIक दिया का गुलामा छाडा जाय विचारे पालन करना पड़ता है। इसमें लाभ हो और मकारणक परिवर्तन के लिये तैयार रहा तो ठीक ही है, नही तो हानि तो कुछ है ही नहीं। आय । अाज हमारे पास ऐसा नहीं है, ठ३ भी एसी हालत में इसे लाकमढता कैसे कह सकते हैं। नहीं लगती तय झाट न पहिनता तो शछा ही है चार ही ओढ लिया तो क्या बुराई है ?
उत्त -लोकाचार का पालन करना लोक'अधिक भूपणां से शरीर मलिन रहता है अमु
मूढता नहीं है पर विवेक छोडकर हानिकर लोका.
चार का पालन करना लोकमूढ़ता है। जिस विषय विद्यााती तो ग्विाज होने पर भी आभूषण पाविचार नहीं किया है उसका पक्षपात न होना म पहिन या कम पहिनं तो अन्धा ही है। शरीर चाहिय और लोकाचार के टोपों पर जानबूझकर की जन सी हा वैसी पोशाक कर लेना उपना भी न करना चाहिये। श्रवसा न मिलने गारिये । एक जगाने मे ब्राम्हणवर्ण के निर्वाह स विशेष विचार न किया हो पर इतना विचार निय उन्म मृत्यु के अवसर पर दान दक्षिणा तो आवश्यक है कि इस लोकाचार से सत्य और भाजन 'पानि उचित था आज अावश्यकता नहीं अहिंसा में बाधा ता नहीं पडती । लौकिक हानि म उमरदि का किसी न किसी रूप मे पालन दसग की प्रसन्नता के लिये भले ही सहन करती ना माहिग यह गुलामी क्या? नही पाउन जान पर वह हानि मी न होना चाहिये जिससे
गान मां यादत धुरी (स्वपर-टु सकारक) समाज दसरं लांगा को भी हानि का शिकार मा गायि पिर 'पाढत के अनुमार कार्य होना पडे । जहा तक बने लोकाचार के संशोधन रम्न में वोट बुगः नही है। अगर जादन बुरी का प्रयत्न तो होते ही रहना चाहिये।
नापी र म त्याग रन सा प्रयत्न प्रश्न-मनुप्यता की उत्पत्ति का कारण "TITI शाय।
चुद्धि भले ही कोपा उमकी म्भिग्ना का कारण र गार या मर्यनने मम्मा । म मा नहिन बेटी को पवित्रता की HTTPin artT गाय'इम टिम देन है इसका कारण हमारे बौद्धिक
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हाटकात
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विचार नहीं संस्कार है और इन संस्कारा का और समस्त काल में उपयोगी होसके ऐसी कारण लोकाचार है। संस्कार समझने से नहीं योजना बनाई नहीं जासकती। ऐसी असीम या पड़ते किन्तु प्रासपास के लोगो के आचार से अनंत योजना मनुष्य की ज्ञानशक्ति और श पड़ते हैं। और गही लोकाचार है। इसलिये शक्ति के बाहर है। साधारणत: ऐसी योजनाएँ लावर को कम महत्व देना ठीक नहीं। अपने देशकाल के अनुरूप ही बनती हैं, हा ।
उत्तर-लोकाचार की उपयोगिता अस्वी- दूरदर्शिता की विशेषता के कारण अधिक से कार नहीं की जा सकती परन्तु उसका जितना अधिक देशकाल को ध्यान में रखा जासकता महत्व है उतना ही उसका संशोधन आवश्यक है। इस दृष्टि से इन योजनाओ मे दरतमता हो है जिस लोकाचार पर मनुष्यना-निर्माप मन्मार सकती है । जो योजना जिस देशकाल के अनुरूप तक वलम्बित हो उसमें विवेक को स्थान न है, कल्याणकर है, वह योजना उस देशकाल के होश मनप्यता को पशुता की तरफ ले जाना है। सत्य है। था जितना हिस्सा कल्याणकर है उतना अन्वे अर्थात कल्याणकारी लोकाचार को नष्ट हिस्सा सत्य है । इस सत्य को ग्रहण करना, करने की जमरत नहीं है, जरूरत है देशकाल कालमोह स्वत्वमोह छोड़कर इन पर नि:पक्ष विन्द्ध अकल्याण कर लोसाचार को बदलने की, विचार करना, इनके विषय मे योग्य शिष्टाचार जिससे संस्कार अच्छे पड़े।
का पालन करना धर्मसमभाव है। लोकमठता का त्यागी कढया का गुलाम यो अगर विशेप नामकरण न किया जाय नहोकर उचित रूड़ियो का पालन करेगा, देश- तो धर्म जगतमें एक है। भले ही उसे सत्य कहें, काल के अनुसार सुधार करने को तैयार रहेगा। अहिंसा कहें, प्रेम कहें, सदाचार कहें । पर उसके इस प्रकार चार तरह की मूढ़ताओ का त्यागी व्यावहारिक रूप देशकाल को देखते हुए असंख्य
और शिपज विचारक बनकर मनुष्य विवंकी - हैं। धर्म को पालन करने के लिये दंशकाल के वनता है जो कि योगी जीधन की पहिली शन है। असार जो आचार विचार
धर्म-समभाव (ोसम्मभावो) हैं उन्हे भी धर्म कहते है। उनकी जब परम्परा
योगी का दूसरा चिन्ह धर्म समभाव है चलती है तब उन्हे सम्प्रदाय कहते हैं । इस प्रकार जिसका अर्थ है--
धर्म, संरदाय, मत, मजहब रिलीजन, तीर्थ, वर्मपथ या सभ्यता फैल विविध विचार। आदि शब्द उस नित्यधर्म, सत्य और अहिंसा के । समभावी निपक्ष बन लो उन सब का सार॥
___ सामयिक दैशिक रूप के लिये प्रयुक्त होते हैं। पैम्बर तीर्थ कर प्रवतार मसीह ऋषि
हिन्दूधर्म, इसलाम मजहब, क्रिश्चियानिटी, जैन-' आदि कहलाने वाले महात्माओं ने, महान विचा. धम, योद्ध धर्म, अरथोस्ती धम, कास्यशियस रको ने, जगत को सुधारने और सुखी बनाने के धर्म, आदि जो अनेक धर्म जगत में फैले है। लिये अनेक तरह की योजना बनाई और उनसे में अधिकाश अपने अपने समय और चलाई हैं। उनमें से कुछ योजनाए धर्मपथ या अपने अपने देश के लिये हितकारी थे और आज सम्प्रदाय कहलाने लगी है, कुछ इस प्रकार की भी उनका बहुतसा भाग जगत के लिये हितकारी छाप लगाये बिना लोगा के प्राचार विचार में है, उनकी विविक्ता परस्पर विरोधी नहीं है. घल मिल गई हैं। इनमें से अधिकाश योजनाएं दंशकाल साक्षेप होने से विरोध का कारण अपने देशाकाल को देखते हुए लगत्कल्याण के रह जाता इन धर्मो को पूर्ण सन्य समझना, या होपयोगी होती हैं । पूर्ण सत्य तो कोई पूर्ण असत्य समझाना भूल है। हर एक योजना बन नहीं सकती, क्याकि समस्त विश्व सामयिक सत्य है, सत्यका अंश है। किसो
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का उपयोग करते समय युगवाह्य या असत्य ही प्रगट होगी । चदि विषमता को माया लागा अंश निकाल देना चाहिये और युगसत्य जोड़ तो विवेकपूर्ण समभाव कैसे रहेगा ? आखिर इस ना चाहिये। इस प्रकार विवेक और बाहर धर्म समभाव का उपयोग क्या है ? शंक उसका उपयोग करना चाहिये।
उत्तर-विश्लेषण से विषमता पैदा होती ___ यद्यपि धर्म के नाम पर चलने वाले ऐसे भी है पर उसीसे उसमें अपने जन्म के धर्म में पक्ष. सम्प्रदाय होसकते हैं जो किसी व्यक्ति ने सत्य पात मोह आदि नहीं रहते. दूसरे धर्मों से इस
जनहित के लिये नहीं किन्तु व्यक्तित्व के सोह- लिये द्वीप ( उपेक्षा वृणा) आदि नहीं होते कि वे श, ईर्ष्या अहंकार चा लोभवश खडे कर लिये हो, पराये हैं, अपने धर्म की दो एक अच्छी बातो की, 'नमें लोकहित की उपेक्षा या विरोध हुआ हो और दसरे के धर्मो की चुरी बुरी बातों के गीत फर मी किसी कारण चल पड़े हो । एसे धर्म गाने की बात नहीं रहती, इसप्रकार मनुष्य टेक नहीं पात या बहुत फेल नहीं पाते । समभाव निपान विचारक, सत्यान्वेपी और मानवताप्रेमी नाम पर उनके आगे श्रात्सससपेरण को जलरत बनता है।
धर्म समभाव के खास खास लाभ ये हैंमन-धर्म तो सत्य अहिंसा आदि हैं। । सत्यशोधकता, २ थामिक द्वन्द परिहार, उनम आदर मति आदि रखना जरूरी है। पर. ३. अनेकान्तष्टि लान्ध, ४ स्वत्वमोह विजय, उनके नामपर जो अनेक तीर्थ वन हैं उनके विष । इतिहास प्रकाश ६ कृतघ्नता परिहार, ७ धर्मधर्म समभाव रखने का क्या मतलब है ? क्या मर्मज्ञता, २. सामाजिकता वृद्धि । इससे विनय मिथ्यात्व या अविवेक पैदा नहीं
१-तत्यशोधकता ( सत्य हिरको) समहोता ? क्या यह सब की चापलूसी नहीं है।
भावी मनुष्य ही सत्य को ठीक ठीक स्रोल कर उत्तर-धर्मसमभाव के नामपर अविवा सकता है। जिन्हें किसी एक धर्म का पक्षपात चापलूसी या विनय मिथ्यात्व आसकते हैं पर यं नहीं है वे ही यह समझ सकते है कि कहाँ कहा धर्मसमभाव नहीं कहला सकते । इनसे धर्मसम- क्या क्या सत्य है । समसाव हीन व्यक्ति अपने भाव में जमीन आसमान का अन्तर है । विनय धर्म के गणों को अतिरक्षित कर उसके गीत मिथ्यात्व में अविवेक की सीमा है और धर्म स- गाता है और दूसरे धर्मों के गुणो पर अपेक्षा मभाव में विवेक की सीमा है। विनय मिथ्यात्वी करता है, या उन्हें विकृत रूप में चित्रण कर किसी धर्म के गुण नहीं समझता न उनका निन्दा करता है. अपने धर्म के दोषों और त्रुटियो विश्लेषण करता है, जब कि वर्मसमभावी सबके पर उपेक्षा करता है छिपाता है जब कि दुसरे गुणोप समझता है उनका विश्लेषण करता है। धर्म के दोपो को अतिरंजित कर बार बार उनका जावान अन्छी है यही ग्रहण करता है उसी की उल्लेख करता है हिंदोरा पीटना है। ऐसी हालत तारीफ करना है, उसी के कारण इस बम की या मे वह सत्य की खोज नहीं कर पाता उसमें वैज्ञासमतीर्थकर गिम्बर अत्रमार की पूजा करता है. निझता नहीं आसकती। इसमें विज्ञान के नामघुरी घात को जहण नहीं करता, उसकी तारीफ पर मुंह छिपाने की वृत्ति पैदा होजाती है। नहीं करना उसके कारण किसी भी पूजा नहीं -वार्मिक दट परिहार ( भन्तो लगे रग्ना सी हालत में वर्म समभाव, न बनना- लोपो ) धर्मसंस्थान में समभाव न होने से गर्ग धापनमी है, न मूढनापूर्ण बैनयिक मिथ्यान्व। जगत में इतने अन्याय अत्याचार हुग, देशो के
प्रश्न- जब सा विश्लेषण करना है तब टुकड़े हुए, मनुष्य में शैतानियत दिखाई दी, कि मभार देगा विश्लेषण में नो विधमना यन नीमको लोग अभिशाप तक नमकने लगे.
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जव कि धर्मसमभाव के जरिये भिन्न-भिन्न तरह उसे सौभाग्य सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। की जनता का भी सम्मिलन हुआ है, उनका और यह कहना तो घोर एकान्त है कि “पदार्थ एक समाज, एक राष्ट्र श्रादि घन सका है। हिन्द विज्ञान का सापेक्षवाद तो विवेकाश्रित है और के इतिहास में ये दोनो बातें साफ दिखाई देती धर्मविज्ञान का सापेक्षवाद विवेकहीन अविज्ञान है। हिन्दू मुसलमानों मे धर्म समभाव के अभाव है कोरी भावना है मन की लहर है।" पदार्थ के कारण देश के टुकड़े हुए, लाखो मरे, करोड़ो के क्षेत्रमे अनेकान्त चष्टि जितनी वैज्ञानिक है भारो और अरबो की सम्पत्ति नष्ट हुई। क्लरता जीवन के क्षेत्रमे धर्मसमभावष्टि मी उतनी ही केयो से शैतान भी शरमागया। और आये- बैज्ञानिक है। मतियों के नाम पर अरब देश के अनार्य के समन्वय के बाद शैव वैष्णव आदि में टुकड़े टुकड़े करनेवाले और एक दूसरे का खून जो समभाव पैदा हुआ उससे धार्मिक द्वन्द दूर बहाने वाले अरबों के लिये मूर्ति पूजा का विरोध होगये । अन्य देशो का इतिहास भी धर्मसमभाव जितमा उचित था, उतना ही उचित मूर्ति के ममें के लाभो की गवाही देसकंगा।
को और उसकी धर्म साधनता को जानने वाले ३ अनेकान्त दृष्टि लब्धि (लंलुको लंको- जैन बौद्धा के लिये मूर्ति का उपयोग था । इसीसीनो धर्म समभाव से मनुष्य की घोष्ट सर्वतो. प्रकार प्राचार शास्त्र के भिन्न भिन्न विधान कहा मुखी होजाती है । कौनसा आचार कौनसा विचार उचित हैं कहां अनुचित है यह सापेक्ष दृष्टि किसको कर कहा कितना उपयोगी या अनुप- जीवन की वास्तविकता से संबन्ध रखती है। योगी है इसका इससे पता लगता है। दर्शन के यह केवल मन की लहर नहीं है कोरी भावना क्षेत्र में म. महावीर ने यह अनेकान्त दृष्टि दी नहीं है किन्तु जीवन की वैज्ञानिक चिकित्सा थी, पर धर्म के क्षेत्र में उसका उपयोग यथेष्ट न है। द्रव्यो के या पदार्थों के विज्ञान से इसकी हो सका। अगर होता तो जैन धर्म एक धर्गसम. उपयोगिता आवश्यकता हजारो गुणी अधिक है । भावी तीर्थ बनजाता। फिर भी जितनी अनेकात पदाथ विज्ञान के विषयमे गलत जानकारी करके अति आसकी सत्य की उतनी ही अधिक उपलन्धि भी मनुष्य सम्यक्त्वी अहत केवली योगी आदि हुई, बहुत कुछ विरोध परिहार भी हुआ। होसकता है पर धर्म विज्ञान के विषयमें गलती
प्रश्न अनेकान्त दष्टि का धर्मसमभाव से होने से उसका सारा पदार्थ विज्ञनि जीवन को न्या सम्बन्ध ? अनेकान्त दृष्टि विज्ञान या विवेक नरक बनाने वाला बन सकता है। इसलिये तत्व पर आश्रित है वह वस्तुस्थितिविहीन समन्वय धर्म विज्ञान है पदार्थविज्ञान नहीं। और धर्मका भूतम प्रयास नहीं है, जब कि धर्मसमभाव समभाव उसी धर्म विज्ञान के सहारे खड़ा होता एक भावना है-मन की लहर है-यह कदाचित है कोरी भावना या मन की लहर के सहारे नहीं। कल्याणकारी होने से सत्य कही जासके पर कोरी भावना के सहारे जो खडा होता है वह वास्तविकता तो उसमें नहीं मानी जासकती। वैनयिक मिथ्यात्व है, चापलूसी है या कुछ विज्ञान तत्वज्ञान या ऐतिहासिक तथ्य के सामने अच्छे शब्द में शिष्टाचार है । धर्मसमभाव वह टिक नहीं सकती।
जीवन शुद्धि, समाजशुद्धि विकास आदि के उत्तर-भूतकाल मे अनेकान्त दृष्टि का अनन्तरूपो-अाधार विचार व्यवहारो के वियव्यवहार पदार्थ विज्ञान तक ही सीमित रहा, यमे नि पक्ष सापेक्ष दृष्टि से संबन्ध रखनेवाली वह धर्मविज्ञान के क्षेत्रमे ठीक ठीक या पर्याप्त विवेकपूर्ण व्यापक विचारधारा है। इस धामक काम न कर सका, यह दुर्भाग्य ही कहा जास- अनेकान्त दृष्टिकी लन्धि धर्म-समभाव से कता है, पर कम दुर्भाग्य को छिपाने के लिये होती है।
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सत्यामृत
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४-स्वत्वमोह विजय (एमो मुहो जयो) उत्तर पक्ष बनाकर विलकुल उल्टी बात की घोपणा धर्मसमभावी को अपने धर्म का मोह (मूढतापूर्ण करना आदि अनेक तरह से वह इतिहास की पक्षपात ) नहीं रहता । इसलिये वह नि:पक्ष इत्या करना है। इतिहास को ठीक रूप में समझाने विचार कर सकता है। धर्मतीर्थ का घमण्ड नहीं के लिये धर्मसमभावी होना आवश्यक है।
आता, झूठी वकालत करने की वृत्ति नहीं रहती, ६- कृतघ्नतापरिहार (भत्तनोसो लोपो) सत्र जगह से सत्य खींचने की वृत्ति पैदा होने से धर्मसमभाव की हीनता से मनुष्य कृतघ्नता का उसके पास सत्य का भण्डार अधिक से अधिक परिचय देता है। जिन पूर्वजों की सेवाओं का होसकता है। ये सब पर्याप्त लाभ हैं। स्वत्वमोही उसने या उसकी पीढ़ी ने काफी लाभ उठाया एक तरह का निकटान्ध होजाता है। वह अपनेपन होता है उनके उपकार को यह भूल जाता है । के कारण अपने पास के बडे बडे टोपों को नहीं हिन्द के मुसलमान इसाई आदि धर्मान्तर करने देखता और दूसरो क छोटे छोटे दोषी को बड़े पर अपने पूर्वता के प्रति कृतन होगये, सहावीर परिमाण में देखता है। साम्प्रदायिक दृष्टि से और बुद्ध ने इस देश का अनेक अंशो मे कायाचर्चा या वाद करने वाले, या इस दृष्टि से कल्प लिया पर जो उनकं धर्म के अनुयायी नहीं साहित्य लिखने वाले इस निकटान्धता का खूब बने वे उन्हे भूल गये या निन्दक होगये, यही परिचय देते हैं।
हाल श्रमणा का वैदिक ऋपिमहर्षियों के बारे में ५-इतिहास प्रकाश (लुलसो पिमो) धर्म- हुआ। हरएक धर्मवाले का यही हाल होता है। समभावी इतिहास को सत्य और निष्पक्ष दृष्टि धर्मसमभाव के बिना वह कृतज नहीं रहपाता। से समझ सकता है। कि अतीतकाल मे मानव. जो लोग हर धर्म के विरोधी होते हैं वे भी जीवन के भीतर धर्मों ने काफी परिवर्तन किये हैं इसी कृतघ्नता की राह चलते हैं। वे यह नही उनके निमित्त से अनेक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटी सोचते कि पुगने लोगों के बनाये वर्म या उनकी है, उन सब को ठीक ठीक समझने के लिये धर्म- सेवाएं भले ही आज मृत या युगबाह्य होने से सममावी होना जरूरी है। जो लोग धर्मों को निरुपयोगी हों पर मानव समाज के विकास में घृणा की दृष्टि से ही देखते हैं एक तरह की वेव- उनने सीढी का काम किया है। रेल के एजिन कूफी समझते हैं वे इतिहास में धर्मों के कर्तृत्व का आविष्कार करने वाला वैज्ञानिक यदि अाज का, और धर्मों ने जो मानव समाल को प्रगति के समान शक्तिशाली ओर द्र तगामी एजिन नहीं दी है उसका ठीक ठीक ज्ञान नहीं कर सकते । जो बना सका तो उसका उपकार भूलने लायक नहीं किसी एक धर्म के पक्ष से रंगे हैं उनको इतिहास होजाता, और न हमे उसके मजाक उडाने का का ठीक ठीक ज्ञान और भी दुर्लभ है। वे अपने अधिकार मिलता है। धर्म से सम्बन्ध रखनेवाली छोटी छोटी घटनाको धर्मतीर्थ एक समय की क्रान्ति है। निःसको इतना महत्व देंगे मानों ब्रह्माड उन्हीं से लटक, सन्देह किसी भी क्रान्ति का रूप उतना ही विकरहा है और दूसरे धर्मों के द्वारा किये गये बड़े सित होता है जितना उस जमाने के भादमी बडे परिवर्तनों पर उनका ध्यान ही नहीं जायगा। विकसित होते हैं, इसलिये होसकता है कि वह धर्मसमभाव हीन व्यक्ति जय इतिहासज्ञ बन बैठता श्राज के लिये एक मामूली बात हो और अपना है तब वह इतिहास की ऐसी विडम्बना करता है काम करके वह निर्जीव होगई हो और उसके कि इतिहास का मामूली विद्यार्थी भी हॅससकता वाद नये तीकरों ने फिर क्रान्ति की हो, पर 'है। घटनाओं को तोडना मरोडना, झूठी घटनाएँ इसी कारण मृतक्रान्ति के उपकार को भूलना या बनाना, उत्तर पन को पूर्व पक्ष या पूर्वपक्ष को उसकी निन्दा करना उचित नहीं। पिछले काति
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हाटेका
कारों की हम तारीफ करे पर उन्हे पुगने क्रान्ति.. इसत्रकार धर्मसमभाव के बहुत से लाभ है कारी का दुश्मन न समझे । भले हो उनने पुरानी और यह एक वैज्ञानिक विवेचना होने से तथ्य क्रान्ति को मिटाया हो । वास्तव में उनने पुरानी भी है और सत्य भी है। क्रान्ति के मुर्दा को जलाया था, उसके प्राण को प्रश्न-धर्मसमभाव के विवेचन से ऐसा नहीं। यह उपकार या विरोध वा दुश्मनी नहीं। मालूम होता है कि भूतकाल में धर्मतीर्थ या सम्म
हमारे माता पिता की लाश को जलाने के दाय के नाम पर कोई खराबी आई ही नहीं। लिये जो आदमी पाता है, और मोहवश यदि किसी ने भी धर्मगुरू बनकर चार चेले इकट कर हम लाश से लिपटते हैं तो हमें लाश से हटाने लिये कि धर्मसमभाव के नाम पर उसको भी की कोशिश करता है वह हमारे माता पिता स आपका प्रमाणपत्र मिल गया। पर क्या पुराने दुश्मन नहीं है। इसीप्रकार पुरानी क्रान्ति की जमाने में जितने सम्प्रदाय आये वे सब ठीक थे ? अन्तक्रिया करनेवाले भी उस क्रान्ति के दुश्मन पर क्या उतने ही ठीक थे जितने कि उस जमाने नहीं होते और न लाश जलाने से वे अपने पूर्वजो में होसकते थे १ क्या भिन्न-भिन्न तीर्थ के तीर्थकर पर विजय करने वाले कहे जासकते है। उनकी ज्ञान संयम आदि गुणों में समान थे, क्या उनमें अगर विजय है तो लाश से चिपटने वाले मोहियों किसी तरह के स्वार्थों का मिश्रण नही हश्रा था ? पर है उस शरीर में रह चुकने वाले आत्मा पर यदि यह सब अन्तर रहा है तो देशकाल का थेट नही।
वताकर भी समभाव कैसे व्यावहारिक वनसकना . इस कारण से धर्म-समभावी कृतज्ञ रहता है, सब को समान कैसे समझा जासकता है। है और समभाव विरोधी कृतघ्न होजाता है। उत्तर-विश्वप्रेम, सर्वभूतसमता, आदि
७ धर्ममर्मज्ञता (धर्मो शारिंगो) समभाव शब्दो के प्रयोग में जिस प्रकार गुणी दुर्गुण के विना धर्म का सार समझ में नहीं आता। आदि का संकर नहीं किया जाता उनका विवेक क्योंकि किसी एक ही सम्प्रदाय में मोह होजाने रक्खा जाता है उसी प्रकार धर्मसमभाव में भी से मनुष्य में वह विचारकता और विशालता - गुण दगुण और उनकी तरतमता का ध्यान पैदा नहीं होपाती है जिससे वह धर्म का ममे रक्खा जाता है। विश्वप्रेम का अर्थ यह है कि समझ सके। पद पद पर अन्धश्रद्धा विचारकत्ता विश्वप्रेमी ने साधारण रूप मे सब के साथ प्रेम मे बाधा डालती है। समभावी मे वह अन्धनद्धा करने का निश्चय किया है और अब वह किसी नहीं रहती इसलिये उसकी विचारकता खूब पन- मोह या स्वार्थ के कारण उनके साथ अन्याय न पती है।
करेगा, और स्वभावत. उनके साथ प्रेम करेगा।
धर्मसमभावी भी इसी तरह सत्र धर्मों के साथ सामाजिकता वृद्धि ('समाजपेरो विडो) समभाव के बिना धर्म संस्थाएँ सामाजिक दृष्टि
. स्वभावत: प्रेम करता है, उनके साथ किसी तरह
का अन्याय नही करता, स्वार्थ या मोह के कारण से एक कैदम्बाना बन जाती हैं। धर्मतीर्थ के भेद
उनकी निन्दा नहीं करता। विश्वप्रेमी सब को से सामाजिक जीवन के टुकड़े टुकड़े होजाते हैं
पहिले प्रेमपान बनाता है फिर अगर उसमें पाप एक दसरे के उत्सव त्यौहार जयन्तियों आदि में हो तो वह उपेक्षा करता या दूर हटता है उसी शिष्टाचार के नाते भी आना जाना बन्द होजाता प्रकार धर्म समभावी सब धर्मों से पहिले प्रेम है। सामाजिकता का यह अभाव एक राष्ट्रीयता करता है फिर यदि किसी में कोई खराबी दिखाई में भी वाधक होता है, अार्थिक और राजनैतिक दे तो वह उपेक्षा करता है दूर हटता है। समक्षेत्र में भी असहयोग आदि पैदा करता है । सम , भावी ग्रह मानकर चलता है कि साधारणतः भाव से थे बुगइयाँ दूर होजाती है। सभी धर्मनीर्थ जगत के कल्याण के लिये आये हैं,
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सन्यामृत
अगर कोई धर्मनीर्थ कल्याण विरोधी हो और हमारा तीर्थकर ही सर्वज्ञ है. दूसरे धर्म के तीर्थचल भी रहा हो तो उस अपवाद समझना कर मिथ्यात्ती इदमस्थ आदि है। इसप्रकार की चाहिय। जबकि समभाव विरोधी समझता है संकचितता का त्याग करने से मनुष्य समभावः कि मेरे बर्न को छोडकर चाफी धन मिथ्या हैं जाता है। फिर वह सब धर्मों की नि.पक्ष इनम अगर का सचान हा भातावह अपवादहा बालोचना, गुणदोषो की परीना करे इससे सम
चार चेले जोडकर धर्मतीर्थ बड़े नहीं होते, भाव को धक्का नहीं लगता। या थोडी देर को बड़े भी हो तो शीघ्र लुन हो
यहा यह वात भी ध्यान में रखना चहिये जात ह। अगर मानव कल्याण न करने वाला
कि धर्मसमभाव में धर्म का अर्थ है लोक कल्याण धर्ग खड़ा होकर टिका हुआ है तो समभावी
की सच्ची योजना । परम्परा से श्रानेवाली हरपने विवेक से उसकी नाच करेगा और उसे
एक विचारधारा धर्म नहीं कहलाती। विवेकपूर्स अन्वीकार कर देगा, पर कहेगा कि ऐमा तीर्थ धर्मसमभावी कैसे धर्मतीर्थों के साथ कैसा व्यवशपवाद है। साधारणत. धर्म कल्याणकर है। हार करता है चा विचार रखता है इसकी कुछ
तीकरी में ज्ञान संयम आदि की दृष्टि से सूचनाएं यहा दी जाती है। नम्तमता होती है पर इससे समभाव के व्यवहार धर्म या धर्मतीर्थ का मतलब उन व्यवस्थित में बाबा नहीं पड़ती। जैस माता पिता काका योजनाओं से है जो अपने युग की मुख्य मुख्य शाहिम तरतमता होती है पर वे सब गुरुजन याओ को इन करती हुई मानवजीवन को माने जात है और साधारणतः बन्दनीय होते हैं।
विकास के पथ में आगे बढ़ाती है, और संसार उमी प्रकार मध तीर्थकर वन्दनीय है, भले ही
को अधिक सुखमय बनाने का प्रयत्न करती है। उनम तरनमता रहे। मनलय वह कि समभावी अपने तीर्थ या
- इसप्रकार के कितने धर्म होगये इसका पूरा हिसाब तीनकर का अन्य प्रशंसक और दूसरे के तीर्थ :
तो नहीं बतलाया जासकता पर निम्नलिखित धर्म
1 इस श्रेणी में आते हैं। यानी सिरीका अन्धनिन्दक नहीं होता। निपजना ने निरीक्षण परीक्षण करता है। इसलिये हिन्दूधर्म, जरथोम्तीवर्म, जैनधी, बौद्धधर्म, चार चले जाडकर गुरु बनने वाले लोगों के सम्प्र. ईसाई धर्म, इसलामधर्म, कन्फ्यूसियस धर्म दायां की उम पवाह नहीं होती। वह विवेकहीन इत्यादि। होकर सब को सत्य नहीं मानता फिरता। नर्म- धर्मसमभावी इन धर्मो का श्रादर करता है मममात्र का जीवन पर सो सब से बडा और कृतज रहता है। पर इन्हे पूर्ण प्रमाण नहीं मानता महत्यपूस मार पड़ता है वह बही कि मनुष्य क्योंकि ये सैकडो बल्कि हजारों वर्ष से अधिक धर्ग को जान के विश्वविद्यालयों के ममान आचार पुगने होने के कारण आज के युग की समस्याओं
विश्वविद्यालय समझने लगता है जैसे कोई को पूरी तरह या पर्याप्त रूप में हल नहीं करपाते। विगार्थी यह नहीं मोचना कि "मेरे विश्वविद्या- हां, इनसे प्रेरणा काफी ली जासकती है, सो वह लय में पड़ने में ही मनुष्य शिचित होसकता है लेता है। इन्हें भूत तीर्थ (लूलमन्तो ) कहना यारो ममार भर के विश्वविद्यालय शिक्षण के चाहिये। नामपर मनुष्य से उतने ही है' इमी प्रकार २-याज की गय. सभी समन्यायी का रोह धगंवाना वा न सोचे कि 'मेरे धर्म को समाधान करने वाले लो युगधर्म ह. समभावी मागन ग्राला ही धर्मामा नन्यस्त्री आस्तिक नको का परीक्षा करता है और बिलकुल
मानगला मादि। और दूसरे धर्म को पिन नाष्ट से विचार करके तो उसे सर्वोत्तम माग मम्मी प्रादि नही अनमग्ने । मालूम होता है उसे स्वीकार करता है। मनमान
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के धर्मों की अपेक्षा वह वर्तमान युगधर्म की फिर भी वे युग के अनुरूप जीवन की अधिकारा परीक्षा अधिक करता है। क्योंकि भूतकाल के मुख्य मुख्य समस्याओ को नहीं सुलझा पाते । धर्मों से वह मुख्य रूप में प्रेरणा लेता है, उनकी एक तरह से वे अश धर्म (अंश भन्तो) कहने थोडी बहुत बातें आम तौरपर युगबाह्य समझली लायक होते है। धर्म समभावी उनकी प्रशंसा जाती है इसलिये उन्हें अस्वीकार करके भी उनके करता है पर अनुयायी नहीं बनता क्योकि वे विपय में आत्मीयता का भाव रक्वा जासकता है। पूर्ण नहीं है। किन्तु वर्तमान में जो धर्म बनरहे हैं उनके विषय -किसी एक धर्म के भीतर जो किसी मे देशकाल के अन्तर की दुहाई नहीं दी जा एकाध बात को लेकर कुछ सुधार किया जाता है सकती है इसलिये टोटल मिलाकर जो सर्वोत्तम और उस सुधार का भी एक सम्प्रदाय बनजाता होता है उसे वह स्वीकार कर लेता है। हां। है, समभावी उसकी प्रशंसा करता है पर उसे अन्ध अनुकरण वह किसी का नहीं करता, यथा- अलग तीर्थ नहीं मानता इसलिये उसकी प्रशंसा शक्ति समझबूझकर ही वह स्वीकार करता है, एक धर्म की प्रशंसा नहीं होती । मूलधर्म जिस
और जिसे वह स्वीकार नहीं करता उसमे अगर जिस श्रेणी का होता है करीब करीब उसी श्रेणी कोई यात विशेष अच्छी मालूम होती है तो उस में उसकी यह नई शाखा मानी जाती है। अधिकी प्रशंसा करने और अपनाने में नहीं हिच- कतर इस प्रकार के सुधारकों का यह दावा रहता कता है।
है और कोशिश रहती है कि मूलधर्म के ऊपर सत्यसमाज को आज युगधर्म (हूनोमन्तो) चढ़े हुए विकारो को वे दूर करते हैं, उसकी सफाई कहा जासकता है। युगधर्म को युवाधर्म (यंग- करते हैं उसको धूल झाड़ते हैं । इसप्रकार के सुधा. भन्तो) भी कहा जासकता है।
रकों का भी एक सम्प्रदाय मूलधर्म की शाखा ३-किसी पुराने धर्म का कोई बिलकुल रूप में बनाता है। जैसे ईसाइयों का प्रोटेस्टेंट कायाकल्प करदे, आज के युग के अनुकूल बनादे, सम्प्रदाय । फटे कपड़े में थेगरा लगाने के समान आधुनिक विज्ञान के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित । इनका कुछ उपयोग तो है फिर भी इससे युगधर्म करदे, खराबियाँ हटा दे त्रुटियों पूरी करदे, एक का निर्माण नहीं होता 1 इसे धर्म को धोने वाला तरह से युगधमे बनाते, पर नाम पुराना रहने द, सम्प्रदाय ( भन्तोधोव फसरो) कहना चाहिये। पारिभाषिक शब्द और व्यक्ति पुराने रहने दे, तो । धर्मसमभावी धर्म के इस रूप को पुराने रूप की
' ६-एक स्वतन्त्र विचारक व्यक्ति अपने अपेक्षा अधिक मान्यता देगा।
स्वतन्त्र विचारों से युग की मुख्य मुख्य समस्याओं
को सुलझाने की कोशिश करता है, जनहित की इसे कायाकल्पतीर्थ (फूलिज भन्तो ) कहना।
" भावना भी रखता है, पर मुख्य समस्याओं को चाहिये। सत्यसमाज की स्थापना के पहिले जैन
सुलझाने की राह नहीं बता पाता बल्कि उलझा धर्म मीमांसा लिखकर जैनधर्म का ऐसा ही काया
देता है। उसके विचारों पर खड़े सम्प्रदाय को कल्प किया गया था।
भ्रम सन्भेदाय (मूह फरूरो) कहते हैं। धर्मयह युगधर्म की बराबरी नही कर सकता समभावी उसे मानने से इनकार कर देता है। फिर भी काफी अंशों में उसका काम देसकता है। फिर भी एकाध बान जो उसमे अच्छी मालूम
४-कई ऐसे सम्प्रदाय चल पडते है जो होती है उसकी प्रशंसा करता है, प्रवर्तक व्यक्ति जीवन की एक दो समस्याओं पर कुछ ठीक . की भावना को भी उचित कद्र करता है।.. प्रकाश डालते हैं, कुछ संशोधन भी करते हैं, .. ७-जब मानवता के विकास का प्रारम्भ ही। उनके प्रवर्तको में स्वतन्त्र विचारकता होती है, हुआ था, धर्मतीर्थ उबड़-खाबड शक्ल धारण कर
रका का
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रहे थे, उस आदिम युग के अविकसित तीर्थों मुख्य नहीं होती, सिर्फ यही देखा जाता है कि को भणोपम तीर्थ कहते हैं। इनमें न्यूनाधिक शीघ्र प्रतिष्ठा कैसे मिलेगी। इनमें लोकरंजन रूप में नीचे लिखी त्रुटियों पाई जाती हैं। की या कुछ लोगों की स्वार्थपरता को सुरक्षित
क-अज्ञानमय की प्रमुखता रहती है। रखने की मुख्यता रहती है । ऐसे सम्प्रदाय धर्मप्रकृति के भयंकर रूपों की तथा भयंकर प्राणियों तीर्च नहीं कहे जासकते । धर्मसमभावी उन्हें की पूजा की जाती है।
आदर देना उचित नहीं समझना। अधिक से . ख-प्राकृतिक शक्तियों को आलंकारिक रूप अधिक उपेक्षा करता है। जब कभी लोकहित की में नहीं वास्तविक रूप में ( लक्षणा रूप में नहीं, दृष्टि से विरोध करने की आवश्यकता होती है अभिधी रूप में ) देव मानलिया जाता है। नव विरोध भी करता है। इन्हें अहंकारज .. ग-कर्तव्य करने की अपेक्षा, बलिदान निर. (मठोज ) सम्प्रदाय कहते हैं। र्थक कष्टसहन और दीनता दिखाने आदि से देव- १-कुछ से भी सम्प्रदाय होते हैं जिनका ताओं को खुश करने की वृत्ति तीन रहती है। भी प्रारम्भ लोक-कल्याण की भावना से नहीं, और इसे धर्म मानलिया जाता है। किन्तु अहंकार कृतघ्नता आदि से होना है।
घ-मन्त्र-तन्त्र जादू-टोना आदि धर्म के अमुक संस्था में मुझे अमुक पद नहीं मिला, या मुख्य रूप रहते है। अवैज्ञानिक चमत्कारों पर मुझे अमुक सहूलियत नहीं दीगई या मेरे साथ काफी विश्वास किया जाता है।
ठीक व्यवहार नहीं किया गया, इसलिवे उस संस्था ड-मानवता की भावना नहीं रहती । नीति
की सामग्री लेकर अलग सम्प्रदाय घनालेना,
नाम मात्र के मतभेद की छाप लगालेना, इसप्र. के कुछ तत्व अगर माने भी जाते हैं तो वे सिर्फ अपने गिरोह के मीतर ही। दूसरे गिरोह के
कार अहंकार चोरी और कृतघ्नता से जो सम्भलोगो के प्रति अत्याचार करना बुग नहीं समझा
दाय पैदा होते हैं वे निन्दनीय हैं। धर्मसमभावो जाता।
ऐसे सम्प्रदायों को धम-तीर्थ नहीं मानता । ये सब चिन्ह धर्मतीर्थ के अतिप्रारम्भिक
म महावीर के शिष्य जमालि ने ऐसा ही सम्प्रदाय रूप है बल्कि यो कहना चाहिये कि वास्तविक इसलिये इन्हें चौरज, चुरोज) सम्प्रदाय कहना
भक खड़ा किया था इनम चोरी की मुख्यता रहता है धर्मतीर्थ के उत्पन्न होने के पहिले के रूप है। चाहिये। गर्भावस्था में शिशु की तो हालत होती है धर्मसंस्था की गर्भावस्था का रूप भी ऐसा ही होता ..
१-कुछ सम्प्रदाय धर्म के नाम को दूकान. है। इसलिय ऐसे अतिप्राचीन धर्मतीर्थों को
"दारी ही होते हैं इनमें जीविका की मुख्यता भावोपम तीथे (गयेतूर भन्तो) कहना चाहिये। इनमें दुनिया को लुभाना ठगना अन्धविश्वास
" रहती है। प्रतिष्ठा आदि का लोभ भी रहता है। ___धर्मसमभावी न इनको निन्दा करता है न बढ़ाना, इसके लिये पड्यन्त्र करना आदि खराइन्हें स्वीकार करता है । मानव विकास की वियों रहती हैं । इनका मगरमदार ठगी धोखेबाजी स्वाभाविक अवस्था समझकर उन्हें सन्तव्य पर रहता है। इन्हें ठगी संप्रदाय (चीटोज) मानता है।
कहलाना चाहिये । धर्म समभावी इनका विरोध हा 1 मरणोपम तीर्थ की बातों को कोई करता है निन्दा करता है। आज चलाना चाहे वो वह विरोध करेगा। संप्रदाय के इन मेट्रो से और उनके विषय में
८-कुछ सम्प्रदाय अहकार से खड़े कर धर्म समभावी के व्यवहार से पत्ता लगता है कि लिये जाते हैं। लोक कल्याण की भावना उनमे धर्म समभाव का वास्तविक रूप क्या है।
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दृष्टिकाड
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प्रश्न-हिन्दू धर्म को आपने भूत तीर्थों में कचरा भी नीचे स्तरों पर पड़ा हुआ है। इस गिन लिया है परन्तु इसकी अति प्राचीनता देख- प्रकार यह ऐसी पुरानी विशाल दूकान के समान कर और उसके भीतर घुसे हुए अन्धविश्वास वनगया है जहा पुराने से पुराने सड़े-गले माल के श्रादि देखकर यह मरणोपम तीर्थ मालूम होता साथ, नये से नये अच्छे माल का भंडार मरा है। धर्म समभावी इसका आदर कैसे कर सकता पडा है, पर इसीलिये इसे कचरे की दुकान या है या इससे प्रेरणा कैसे लेसकता है ? सड़मालकी दूकान नहीं कह सकते । जब इसमें . उतर-हिन्दू धर्म की परंपरा बहुत पुरानी है, यह एक संग्रह तीर्थ है। इसमे भ्रूणोपम तीर्थ ।
मिलमकता है तब अच्छी दूकानों में ही इसकी की बातें भी शामिल है फिर भी इसे भोपम गिनती की जायसी।। तीर्थ नहीं कह सकते । क्योंकि यह युग के अनु- . यो तो भरूणोपम तीर्थ के कुछ दोप जैन रूप विकास करता गया है। कुछ बातों पर बौद्ध आदि विकसित धर्मो मे भी पाये जाते है, ध्यान देने से ही यह बात समझ में आजाती है। मंत्र तंत्र और ऋद्धियों ने वहा भी जगह घेर
१-अहिंसा सत्य आदि संयम के ऊचे से रकवी है पर उनकी अन्य बातों को देखकर ॐचे प्रकार इसमें शामिल होगये हैं। जैसे इन दोषो पर उपेक्षा करके उन्हें विकसित ____२-इसके सर्वभूतहित के सिद्धांत ने इसकी ।
। तीर्थ मानते हैं उसी तरह हिन्दूधर्म को भी मानना संकुचितता को दूर कर दिया है।
धर्म की विकसितता अधिकसितता का ३-इसके सहयोगी दर्शन-शाख इतने , विकसित हैं कि उस जमाने में ही नहीं, किन्तु
निर्णय करने में यद्यपि यह भी देखना पड़ता है अभी कल तक इससे अच्छा दर्शन शास्त्र दूसरा
कि उसका दार्शनिक या वैज्ञानिक आधार किस नहीं दे सका । साख्य-दर्शन का प्रकृतिवाद,
__ श्रेणी का है, परन्तु इसके निर्णय की इससे भी वेदान्त का अद्वैत, वैशेषिक का भौतिक विज्ञान महत्वपुणे बात यह है कि उसका जीवन-सन्देश न्याय दर्शन का तर्क आदि सक्ष्म विचार भयो- क्या है, उसमें सदाचार सहयोग विश्वास प्रेम पम तीर्थों में संभव नहीं हैं।
आदि पर कितना जोर है और उसका क्षेत्र ज्याव
हारिकता को सम्हालकर कितना व्यापक है। Y-आत्मा कर्म-फल आदिकी व्यवस्था भी HOT
इस दृष्टि से विकसित होनेपर अगर अन्य दृष्टियों भी तीर्थ से कम नहीं है।
से अविकसित हुआ तो उसे विकसित कहा
जायगा। एक ऐसा धर्म, जिसमे मानवमात्र के -इसका कर्मयोग, बहुत ऊचे दर्जे की
हित का विचार नहीं है अपने राष्ट्र था गिरोह के चीज है । बहुतसे भूत ताथों में इसक जाड़ का ही हित का विचार है, किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से चीज नहीं मिलती।
काफी समुन्नत है, वह उतना विकसित नहीं है -इसकी समन्वय नीति भी काफी ऊंचे जितना मनुष्यमात्र के कल्याण का विचार करने । दर्जे की है।
वाला किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से कुछ कम समुन्नत ' इस प्रकार बहुत-सी खूवियाँ वताई डा. धर्म विकसित है। इस दृष्टि से हिन्दू धर्म काफी सकती हैं जो कणोपम तीर्थो मे नही पाई जा. विकसित कहा जासकता है। सकती। हा, यह बात अवश्य है कि इस धर्म- पर-हिन्दू धर्म की विशेषताओमें आपने' ती मे मूलक्रान्ति नहीं हुई, सुधारों की परंपग । उसका समन्वय भी बताया है पर हिन्दु धर्म समसे ही इसका विकास हुआ इसलिये पुगना न्वय धर्म नहीं कहा जासकता। यह तो जमकी'
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कमजोरी है जो उसने दुनियाभर का कूड़ा-कचरा रन--हिन्दू लोग भी अपने किसी एक भी इकट्ठा कर लिया।
संदाय को ही मानते हैं, सब हिन्दुओं के . उत्तर-तब तो प्रत्येक समझौते के प्रयल अलग अलग संघरदाय है। सत्र को हिन्दू कह को, शान्ति के प्रयत्न को. सहिष्णुता को कम- देने से सब का समन्वय नहीं होडाता है। मनुष्यों जोरी कहाजायगा, और असहिष्णुता आदि को में फैले हुए भिन्न भिन्न धर्मो को एक मानवधर्म वहादुरी समझा जायगा। जिन दिनां यरुप पोदेकह देने से क्या यह कहा जासकता है कि सत्र स्टेन्ट और रोमन कैथोलिक के नामपर खून वहा- मनुप्या का समन्वयात्मक क मानवधर्म है। रहा था और एक दूसरे को मिटा रहा था उन यदि नहीं, तो हिन्दू धर्म को भी समन्वयात्मक दिनों वह बत्तवान था, और श्राक्ष इस बात को एक धर्म कैसे कहा जासकता है ? वह तो बहुत लेकर सहिष्णुता से काम लेनेवाला यूरुप कम- संत्रमयों का एक सामान्य नामकरण मात्र है। जोर है क्या यह कहना ठीक है । दो परजाएँ आपस में लड़ती रहें तो वहादुर, और सहिष्णुता ।
__उत्तर---हिन्द धर्म में शैव वैष्णव आदि था समभाव से काम लेकर इनसानियत का परि
| जितने सपनाया का समावेश किया जाता है चय दें तो कमजोर, यह मानव विकास या उनक विषय में साधारण हिन्दूओं का क्या रुख जगत्कल्याण का
है इसीसे इस बान का पता लगसकता है कि वे एक दल शत्रुदल को जीतकर खाजाता था, पीछे
संप्रदाय व्यक्ति में समन्वित भी हुए हैं या मुस
सप्रदाय उसमें समझदारी आगई और वह उनको वश में एमा
" लमान ईसाइयों की तरह अलग अलग रहकर करके काम लेने लगा, फिर उसमें सामाजिकवा ही किसी एक नामकरण के अन्तर्गत किये गये है। वढ़ी, इस आदान प्रदान में एक दूसरे का कूड़ा.. यद्यपि हिन्दुओं मे संरदाय अभी भी बने कचरा भी थोड़ी-बहुत मात्रा से आया, पर इसी- हए हैं पर साधारण हिन्दू राम नवमी कृष्णाष्टमी लिये विजित शत्रु जीतकर खाजाने की अपेक्षा शिवरात्री गणेश वतुर्थी नवदुर्गा आदि त्यौहारो यह कमजोरी का रास्ता था यह नहीं कहा जा- को अपना त्यौहार समझता है और भाग लेता सकता। अगर इसे कमजोरी ही कहाजाय तो है। और समयसमय पर इनके मन्दिरों में भी इसकी तारीफ ही करना पड़ेगी। हिन्दूधर्म की बात है जब कि मुसलमान न चर्च में जाकर यह कमजोरी है तो भी यह प्रशंसनीय है। ___ बात यह है कि हिन्दू धर्म की नीव डालने
ईसा जयन्ती मनाते हैं न ईसाई मसजिद में वालो ने यह समझलिया था कि ऐसी पाठशाला
जाकर मुहंमद जयन्ती मनाते हैं। एक तरफ हिंदू वनाना व्यर्थ है जिसमें सब को एक ही कक्षा में
शिवजी को जल चढ़ाता है दूसरी तरफ विष्णुजी पढ़ाया जाय। धीरे धीरे ही उन्हें उच्च कक्षा मे
को भोग लगाता है। यह बात हमार में एकाध पहुँचाया जासकता है । इसप्रकार एक तरफ हिन्द
हिन्दू को छोड़कर बाकी नव सौ निन्यानवे हिंदुओ
न धर्मने ऊँ ऊँचे सिद्धान्तों का कार्यक्रम त के बारे में कही जासकती है। इस तरह के हिंद दूसरी तरफ पिछडे हुए लोगों के साथ धार्मिक शास्त्र भी बनग हैं जिनमें कहा गया कि शिव बलात्कार नहीं किया। ज्ञान प्रचार पर भरोसा भक्ति के बिना विष्णुक्ति सफल नहीं होती किया। कक्षाएं अलग अलग रहीं पर पाशामा विष्णुभक्ति के बिना शिवभक्त सफल नहीं होती। एक वनी ! यह समन्वय एक दिन में किसी एक इसपकार शास्त्र में और व्यवहार में यह सम
आदमी के जरियं नहीं हुआ किन्तु कई हजार न्वय सिद्ध किया गया। इतना ही नही दार्शनिक वर्ष में अनेक व्यक्तियों ने मिलकर किया। यह . ढंग से भी यह समन्वय सिद्ध किया गया ब्रह्मा कमजोरी नहीं, उदारता और भाईचारे का परि- विष्णु महेश एक ही परमात्मा के जुदे-जुदे कामो रणाम था ! इसे चतुरता भी कह सकते हैं। के अनुमार जुटे जुड़े नाम है यह बात भी कही
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गई। इस तरह यह समन्वय सागपूर्ण बनाया उत्तर-मनुष्य के उस आचार-विचार को गया। सिर्फ सम्मिलित नामकरण ही नहीं रहा। धर्म कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य का वैयक्तिक
प्रश्न-भतधर्म, युगधर्म आदि भेदो से पता और सामाजिक कल्याण होता है सुग्ब बढ़ता है लगता है कि आप कालक्रम से धर्मों का विकास
एक व्यवस्था पैदा होती है। उस धर्म को पैदा मानते हैं पर ऐसी बात नहीं मालूम होती। जैन
करने या टिकाये रखने के लिये जो एक व्यव
स्थित मनोवैज्ञानिक प्रयत्न किया जाता है उसे. धर्म बौद्धधर्म काफी पुराने होनेपर भी काफी
धर्मसंस्था कहते हैं। इसके लिये बहुत-सी धर्मविकसित कहे जासकते हैं जब कि इसके पीछे के अनेक धर्म कम विकसित हैं।
संस्थाओ ने ईश्वर परलोक आत्मा आदि का
सहारा लिया है पर ये धर्मसंस्था के अनिवार्य उत्तर-समुद्र तट से हिमालय की तरफ अंग नहीं हैं, इनके बिना भी धर्मसंस्था खडी बढ़ने में हमे ऊंचे ऊचे जाना पड़ेगा पर चढ़ाई का होसकती है हुई है। प्रारम्भ में बौद्धधर्म संस्था क्रम एक सा न होगा। बीच बीच में उतार भी इसके बिना ही खडी हुई थी। धर्मसंस्था की जो नायगा। हर रास्ते का उतार चढाव का क्रम भी एकमात्र विशेषता है वह है किसी आचार-विचार एक-सा न होगा। इसी तरह मानव के धार्मिक के लिये मन मे निष्ठा पैदा करना, सस्कार के विकास में भी उतार चढ़ाव आते है। हर देश जरिये अमुक आचार-विचार को मन मे स्थिर की परिस्थिति के अनुसार विकास के क्रम में भी करना । यह भी उसकी एक विशेषता कही जाअन्तर है। कहीं दोहजार वर्ष पहिले जितना सकती है कि उसमे कल्पित या अकल्पित अमुक विकास होगया दूसरी जगह एक हजार वर्ष व्यक्ति या व्यक्तियों के प्रति एक तरह का विशेष पहिले भी उतना विकास नहीं था। पर सामूहिक विनय रहता है। धर्म और धर्मसंस्था का इस रूप में मनाय का विकास होता जारहा है और प्रकार ठीक रूप समझने के बाद इस प्रश्न के धर्मसंस्था का भी विकास होरहा है इसमें कोई उत्तर में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना सन्देह नहीं
चाहिये। प्रश्न-अाज तक मनुष्य ने धर्मसंस्थायी १-वास्तव में एक समय एसा पासकता का काफी उपयोग किया है क्योंकि उससमय है जब मनुष्यमात्र इतना विवेकी होजायगा कि विज्ञान प्रगति पर नहीं था पर अव वैज्ञानिक युग उसे किसी धर्मसंस्था (धर्मतीर्थ) की जरूरत न आगया है अब धर्मसंस्थाओं को मिटना पड़ेगा,
होगी और वह धर्मात्मा बननायगा। पर वह नई धार्मिक संस्थाएँ तो पैदा हो ही नहीं सकती,
समय अनिश्चिन भविष्य का है। और अच्छी क्योकि धर्म विज्ञान के साथ मेल नहीं बैठा
तरह इसलिये प्रयत्न किया जाय तो भी सौ वर्ष सकता। लोग धर्म और विज्ञान को मिलाने की
तक वह समय नहीं प्रामकता। अभी हमें उस
समय की आशा ही रखना चाहिये। उसके अनुकोशिश करते हैं जरूर, पर यह असम्भव है।
कूल मनुष्य की मनोवृत्ति तथा सामाजिक गजधर्मसंस्था अवास्तव कल्पना पर खडी होती है, नैतिक आर्थिक परिस्थिति का निर्माण करना गरीबी पिछडी हुई उत्पादन पद्धति श्रादि पर चाहिये। इनके बिना धर्मसस्याओ को उखाड टिकती है. आज यह सामग्री नहीं मिलसकती। फेंकने की यात वेकार है, और अत्यन्त हानिकर कुछ दिनो तक पुराने धर्म मृत्युशय्यापर पड़े पडे है। मनुष्य धर्मसंस्था की जरूरत अनुभव करे सिसकेगे फिर बिना नया धर्म पैदा किये मर और उसे धर्मसंस्थान दीजाय तो इसका अर्थ जायेंगे। इसलिय मानव विकास के साथ धर्म होगा किसी अविकसित और गन्दी धर्मसंस्था संस्था के विकास का नियम बनाना ठीक नहीं। को अपना लेना। अगर किसी को प्यास लगी
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सत्यामृत
हो और उसे साफ पानी न दिया जाय या वर्षा यह कहना ठीक नहीं कि वैज्ञानिक युग होनेपर आसमान से बरसते हुए साफ पानी पीने आजाने से धर्मसंस्था की बखरत नहीं है । धर्म: का आग्रह किया जाय तो तब तक मनुष्य प्यासा संस्था को विकसित करने में विज्ञान का हाथ है न बैठा रहेगा वह गटर का भी गन्दा पानी पी पर उसे रखना न रखना विज्ञान के वश के बाहर लेगा। इसलिये उचित यह है कि जब तक वर्षा है। विज्ञान की दृष्टि से पिछड़े हुए जगत में भी नहीं होती और श्रादमी प्यासा है तब तक परि- धर्मसंस्था न हो यह सम्भव है। और विज्ञान का स्थिति के अनुसार जितना स्वच्छ पानी दिया दृष्टि से बड़े हुए जगत में भी धर्म की आवश्यकता सासके दिया जाय।
होसकती है । जैसे गणित रसायन आदि के शिक्षण २-यह कहना कि धर्म विज्ञान के साथ जाने पर भी काव्य की आवश्यकता मिट नहीं मेल नहीं बैठा सकता विलकुल गलत है। जगत माती उसी प्रकार विज्ञान के प्रसार से भी धर्म में जो नई नई धर्मसंस्थाएँ पैदा होती हैं उनके की आवश्यकता मिट नही सकती। हा । कान्य दो मुख्य काम होते हैं १-परिस्थिति के अनुसार को शैली बदलने और विकसित होने के समान नये आचार-विचार देना, ३-विज्ञान के साथ मेल धर्म की मी शैली बदलती और विकसित होता बैठाना। अपने युग के विज्ञान के साथ मेल है। इसलिये विज्ञान के श्रानेपर धर्म विकसित वैठाये बिना कोई वर्मसंस्था टिक नहीं सकती। होगा, मिटेगा नहीं। धर्म और विज्ञान का मेल टूटता है तब जय धर्मसस्था पुरानी और युगवाध होकर अपना पुनजन्म या कायाकल्प नहीं करती, और विजन धार्मिक सस्थाएँ पैदा नहीं होसकतीं और धार्मिक अपना कायाकल्प कर जाता है। इसलिये नई संस्थाएं पैदा होने का समय चलागया।' जब धर्मसंस्था की जरूरत होती है।
धर्मतीर्थों की आवश्यकता लोगो को महसूस हो 3-विज्ञान और धर्म परस्पर पूरक है।
रही है तब यह कैसे होसकता है कि कोई युगानुविज्ञान का काम कमाने का है धर्म का काम
रूप धर्मसस्था पैदा न हो। बाजार में किसी माल व्यवस्था करने का । कमाया न जाय तो व्यवस्था
की विक्री होरही हो, तब यह नहीं कहा जासकता का आधार हट जाय, और व्यवस्था न की जाय कि बाजार
कि बाजार में पुराना माल ही विकेगा नया न तो कमाना मिट्टी में मिलजाय : यथापि राय आयगा या न अनेगा। जिस साल की आवश्यसंस्था भी व्यवस्था का काम करती है. कताका अनुभव लोग कर रहे हा और उसे ले भी संस्था का मुख्य आधार शक्ति है और धर्म रहे हो वह अच्छे से अच्छा बनसकता होगा तो का मुख्य आधार सरकार है। संसार ठीक जरूर बनेगा। इसी प्रकार जब तक धर्मसस्था हो तो शक्ति का काफी दुरूपयोग होता है। राज्य को लोग अपनाये हुए है तब तक धर्मती नयेसस्था का कार्यक्षेत्र बाहर हैं और धर्मसस्था का नये और विकसित बनते रहेंगे। ब्राह्मसमाज भीतर । तुम नम्र बनो, कृतज रहो, शान्त रहो आन समाज सरीखी धर्मसस्थाएँ भी जय खडी दयालु मनो, परोपकार कर आदि कार्य का हासको तब इनस भी अधिक वैज्ञानिक धर्मलमही कगये जासकत, धर्म से कगय बासस्ते सस्था क्यो न बड़ी होगी। जब तक धर्म ६ : चाप यह समय पायगा या त्रासकता सस्थाओं की प्यावश्यकता बिलकुल नष्ट नहीं अब म बार राज्य मिलकर एक होजायेंगे परन्त होजाती और जब तक ऐसी कोई धर्मसंस्था पैदा जप ना या समय नहीं आया है नब तक नहीं होजाती जो उस जगत को पंग करदे जिसमे व्ययभा के कार्य में धर्म की आवश्यकता है, इस धर्मतीथ की जन्मत न होगी, तब तक युगानुरूप प्रकार यानी धर्म परस्पर पूरक रहेंगे। संस्था पैदा होगी और पैदा होना चाहिये।
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दृष्टिका
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E-धर्म प्रयास्तव कल्पना पर खड़े होते प्रश्न-पाप के लिये जो ओट का काम दे है, इसलिये अब न रहेगे। यह बात करीब करीव वह क्यों न नष्ट कर दिया जाय ?
सी ही है कि काव्य अवास्तव कल्पना पर खड़े उत्तर-मकान अगर चोरी के लिये ओट होते है इसलिये कान्य न रहेगे। धर्म तो इतनी का काम दे तो मकान गिराया नहीं जाता वोर अवास्तव कल्पनायो को लेते नहीं है जितनी ही ढढा जाता है। अगर कभी गिराने की आवअवास्तव कल्पनाओ को काव्य लेते हैं, तब जब श्यकता ही पड़ जाय तो फिर बनाना पड़ता है। कान्य नहीं मिटते तव धर्म कैसे मिटाजायगे। आवश्यकतानुसार पुनर्निर्माण करना उचित है हाँ! इतना ही होसकता है कि पुगने जमाने में पर सर्वथा ध्वंस नहीं। सच पूछा जाय तो अभी जिसमकार काव्यों में अतिशयोक्तियो की गुजा- युगो सक धर्म का ध्वस हो नहीं सकता। ध्वस इश थी सी आज नही है उसी प्रकार पराने चंस चिन्नाकर हम सिर्फ हानिकर क्षोभ पैदा जमाने में धमा में जिसप्रकार अन्धविश्वास को
करते हैं। हम धर्म के विषय में कितनी ही गुंजाइश थी वैसी आज नही है। श्राज के विक
नास्तिकता का परिचय दें अगर हमारी नास्तिसित विज्ञान के प्रविरुद्ध रहकर ही धार्मिक कल्प
कता सबल है तो उसी के नामपर विराट् आस्ति
कता पैदा हो जायगी। यहा तक कि अनीश्वरनाए अपना काम करेगी।
वाद भी प्रचार की दृष्टि से सफल होनेपर ईश्वरप्रश्न-धर्म, सम्प्रदाय तीर्थ आदि किसी वाट धनजाता है। महावीर और बुद्ध ने ईश्वरवाद भी श्रेणी के हो उनके नामपर जगत मे जो अत्या- के विषय में नास्तिकता का जो सफल प्रचार चार हुए है शायद ही किसी दूसरी चीज के नाम किया उसका फल यह हन्ना कि उनके सम्प्रदायो पर हुए हो इसलिये धर्म सं घणा पैदा होजाय में महावीर, बुद्ध, ईश्वर के आसन पर बिठला यह स्वाभाविक है। क्रान्ति के चक्र मे जब दुनिया दिये गये। जिन देशो में धर्म की नास्तिकता भर के पाप पिसेंगे तब इन धर्मतीथे नाम के सफल हुई है उन देशों में वे नास्तिकता के तीर्थपापो को भी पिसना चाहिये।
___ कर आज देवता की तरह पुज रहे है। उनकी ___ उत्तर-आज जो क्रान्ति कहलाती है कज्ञ कत्रों पर हजारों आदमी प्रतिदिन सिर झुकाते हैं वही धर्म सम्प्रदाय आदि कहला सकती है या और उनके गीत गाते हैं। मनुष्य के पास जब धर्म सम्प्रदाय के गुणदोषों से पूर्ण होसकती तक हृदय है तब तक उसके पास ऐसी आस्तिहै। श्राज जो धर्म कहलाते हैं वे भी एक जमाने कता अवश्य रहेगी। मन्दिर, मसजिद, चर्चा, की सफल क्रान्ति हैं। जैसे आज.की क्रान्ति पाप कन, शिला ध्वजा, चित्र, मूर्ति नमी, पहाड, वक्ष नहीं है इसी प्रकार एक समय की क्रान्ति, ये धर्म आदि प्रतीका में परिवर्तन भले ही होता रहे पर पाप नहीं कहे जासकते । रही दुरुपयोग की वात, इनमे से कोई न कोई किसी रूप मे रहकर सो दुरुपयोग किसका नहीं हुआ है। कलम से आस्तिकता को जगाये रहता है। श्रास्तिकता लिखने की बजाय कोई कीड़े मारा करे तो इसमें · इतनी प्रचण्ड है कि वह नास्तिकता को भी कलम बेचारी क्या करे ? अतिभोजन या विकृत अपना भोजन बना लेती है। जब तक हृदय है भोजन से कोई बीमार होजाय या मरजाय तो नव नक आस्तिकता है। हृदय को कोई नष्ट नहीं भोजन घृणाम्पट नहीं हो सकता सिर्फ उसकी कर सकता। सिर्फ अमुक समय के लिये सला 'अति' घणास्पट हो सकती है। सच पूछो तो सकता है। पर उसका जागरण हुए बिना नहीं धर्म के लिये लडाई नहीं होती धर्म के नामपर रहता। इसलिये उसकें नष्ट करने की चेष्टा व्यर्थ होती है। धर्म का नाम अपनी पाप-वासनाओ है। उसका दुरुपयोग न होने पावे सिर्फ इतनी के लिये आट बना लिया जाता है।
ही चेष्टा करना चाहिये और उसके म्प को सुधा.
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रंत रहना चाहिये। मनुष्य का हश्य जत्र नक बल आदि में भी यही बात है। पर ईश्वर और धर्मती से शून्य नहीं होसकता तब तक उसे धर्स में तो तुलना करने की जरूरत ही नहीं है अन्हा तीर्थ देने का प्रयत्न करना चाहिये, नहीं अन्धश्रद्धा के अन्धेरे के कारण दूसरा दिखता ही तो वह सराब से खराब संपदाय को अपना नहीं फिर तुलना न्या ? तुलना तो सिर्फ कल्पना लेगा। इसलिये कुपथ्य के समान दुरुपयोग ही से की जानी है कि हम अच्छे सब खराब, क्योंकि रोकना चाहिये।
हस हम हैं। इस प्रकार महत्वानन्द की अनुचित प्रश्न-दुरुपयोग हरएक चीज का होता है लालसा के कारण जो हमारे दिल मे शैतान घुसा यह ठीक है, पर धर्म का दुरुपयोग अधिक से है वह ईश्वर और धर्म की ओट मे ताण्डव कर अधिक होता है। यन, बल, सौन्दर्य, आदि के रहा है । वास्तव म यह शैतान (पाप) का उपअहकार को अपना धर्म का अहंकार प्रवल होता है । झगडे आदि भी धर्म के लिये बहुत होते है प्रश्न-माना कि धार्मिक द्वन्दी में मुख्य इन सब का असली कारण क्या है ? अपराध शैतान का है पर धर्म भी उसमें सहायक ___उत्तर-धर्म तो जगन मे शान्ति प्रेम, और है। धर्मों मे तरतमता है यह आप मानते हैं तत्र
आनन्द्र ही फैलाता रहा है । परन्तु मनुष्य एक जिसको अच्छा धर्म मिला है वह उसका गौरव जानवर है, बुद्धि अधिक होने से इसमें पाप क्यों न रक्खे ? क्या अच्छे को अच्छा समझना करने की
भी शैतानियत है ? यदि नहीं तो अच्छे चुरे का परयने की शक्ति अधिक आगई है। अहंकार इसमें
" द्वन्द होगा ही। इस प्रकार यदि धर्म है तो उनमें सब से अधिक है । महत्वानन्द के लिये यह सत्र
- तरतमना है और तरतमता है तो द्वन्द है, तब कुर छोड़ने को तैयार होजाता है। पर हरएक
इसका क्या उपाय श्रादमी को यह आनन्द पर्याप्त मात्रा में नहीं
उत्तर- दो उपाय है १-गौरव विवेक (पंजो मिल सकता जब कि लालसा दीव रहती है इस अंको) २-तरतमता विवेक (जीपो को) लिये मनुप्प अनुचित कल्पनाओ से इस लालसा गौरव विवेक मनुष्य इस बात का अमिका सन्तुष्ट करने की चेन करता है उसी का फल मान करता है कि हमारा धर्म बड़ा अच्छा। पर है यम-मद धन, जन और वल श्रादि का सह अगर धर्म अच्छा होनपर भी हम उसके द्वारा नमो अनुरण है न स्थिर । अाज धन है कल अच्छे नहीं बने. तो धर्म जितना अच्छा होगा नही है, आज बल है कल बीमारी बुढापा प्रादि हमारी उतनी ही अधिक हीनता साबित होगी। मं नहीं है इस प्रशर इनके मदी से मनुष्य को किसी आदमी में अगर ईमानदारी सेवकता परोमन्नोप नहीं होना । तब यह धर्म और ईधर पकार ज्ञान प्रादि हम से अधिक हो और हम नामपर मत करना है। हमारा धर्म सब से अन्ना. ऋहे कि उसका यमे खराब है और हमारा धर्म Pमाग देव मव से अन्या श्रादि । वम और देव अच्छा है तो इसका अर्थ यह होगा कि वह धीगर नहीं होते. बुढे नहीं होते और छिनते मान्मी हमसे अधिक लायक है कि खराव धर्म भी नहीं अयान इनका नाम नहीं छिनता (अर्थी का सहारा लेकर भी उसने हमसे अच्छा जीवन मेनोन ग्रहं मारियों के पाम ये पटकते भी बनाया और हम बड़े नालायक हैं कि बच्चा धर्म नही है फिर मिलगे क्या है इसलिये इनका पार भी घराब बर्नबाले से अच्छा जीवन न
भिमान मा बना रहता है और तुलना में बना पाये इमार गौरव-विवेक से पता पुल भी ना होना। धन में नो लम्बपति का लगेगा किमाग गौरव अपने मं अच्छे या HP पनि पागे सुराण मोजता है. बुरे होने में नहीं है किन्तु अपने जीवन को अन्दा
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घमिका
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या बुरा बनाने में है। हम अच्छे से अच्छे धर्म महान बनता यह पारिस्थितिक महत्ता है। इस 'को चुनें, जिससे हमारा जीवन अच्छा बने, पर विचार से धर्मों के द्वन्द दूर होते हैं, घमण्ड
अपने गौरव के लिये दुनिया के सामने अपने घटता है और युगबाह्य वस्तु मे अन्धश्रद्धा रखने धर्म के गीत न गायें, क्योंकि धर्म जितना अच्छा की भी जरूरत नहीं होती। होगा हमारे गौरव को उतना ही धक्का लगेगा। २-सामूहिक कृतज्ञता का मतलब यह है अधिक जी मे कम कमाई करने वाले की अपेक्षा कि हमारा जो आज विकास हुआ है उसके मूल कम पूंजी में अधिक कमाई करनेवाले का गौरव मे पूर्वजों की काफी पू'जी है इसलिये आज के अधिक है। इस प्रकार गौरव विवेक रक्खा जाय युग को पिछले युग का कृतज्ञ होना चाहिये आज तो धार्मिक द्वन्द दूर होजायें।
के महामानव को पहिले के महामानव का कृतज्ञ तरतमता विवेक-धर्मों की न्यूनाधिकता होना चाहिये। इस सामूहिक कृतज्ञता के कारण या अविकसितता का ठीक ठीक विचार करना भी हमे पहिले महामानवो का आदर करना तरतमता विवेक है। इसके पाजाने से धर्मों के चाहिये । द्वन्द्व शान्त होजाते हैं।
३- बन्धु-पूज्य-समादर का मतलब उस तरतमता का भाव दो तरह का होता है। व्यावहारिकत्ता से है जो हम पड़ोसियों के गुरुएक तो वैकासिक दूसरा भ्रमजन्य। विकास तर. जनो के विषय में रखते हैं। यदि हम किसी को तमता (लंतीम जीपो) का भाव बुरी बात नहीं मित्र कहते हैं तो हमारा कर्तव्य होजाता है कि ! है। मानव समाज-उठताबैठता-विकसित होता उसके मातापिता का यथोचित आदर करें। जो जारहा है, इसलिये मनुष्य की धार्मिक भावना भी हमारे बन्धु के लिये पूज्य है वह हमारे लिये काफी विकसित होती जारही है। देशकाल का असर आदरणीय है। यही बन्धु-पूज्य-समादर है। धर्म " उसपर पड़ता है इसलिये विकास में कुछ अन्तर के विषय मे भी हमें इसी नीति से काम लेना भी होता है। पर इससे द्वन्द्व नहीं होता, निन्दा चाहिये। मानलो हजरत मूसा का जीवन आज अपमान आदि का साव नहीं आता। प्राचीन हमारे लिये आदर्श नहीं है पर वे यहूदियों के काल का महात्मा या उसका सन्देश या सन्देश
गुरुजन हैं इसलिये यहूदियों के साथ बन्धुता | देने का रूप यदि श्राज के समान समुन्नत नहीं है
प्रदर्शन करने के लिये हमें हजरत मूसा का आदर , तो भी तीन कारणों से हमें उसका सन्मान करना
करना चाहिये । यदि हम किसी यहूदी मित्र के'। चाहिये । १. पारिस्थितिक महत्ता ( लजिज्ज बीगो) २ सार्वजनिक कृतज्ञता (पुमपे भत्त
बाप का गुणदोप,का विशेष विचार किये विना । जेवो ) ३ बन्धुपूज्यसभादर ( मगपुजमोनो)
आदर कर सकते हैं तो समस्त यहदियों के लिये
जो पिता के समान हैं उनका आदर क्यो नहीं कर, १-पारिस्थितिक महत्ता का मतलब यह है
सकते। कि जो व्यक्ति या वस्तु अपने देशकाल में महान है उसकी महत्ता को स्वीकार करना आदर करना, प्रभ-यदि बन्धुता के लिये दूसरा के देवों भले ही आज की अपेक्षा वह भहन्ता न मालूम या गुरुआ का आदर करना कर्तव्य है तब तो। हो। जो अपने जमाने में अपने जमाने के लोगो बड़ी परेशानी हो जायगी। हमें उनका भी आदर. से आगे बढ़ सका वह आज के साधन पाकर करना पडेगा जिनको हम पाप समझते हैं। किसी। पान के जमाने के लोगों से भी आगे बढ़ता, जो शात मनुष्य के साथ बन्धुता रखनी है तो बकरों धर्म उस जमाने में उतना अच्छा बनसका वह का बलिदान लेनेवाली काली का आदर करना. आज के साधन पाकर प्राज्ञ की दृष्टि से भी भी हमारा कर्तव्य हो जायगा । बहुत से चालाक
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सत्यामृत
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धून लोग भोले लोगो को वहकाकर गुरु बन जाते परिस्थिति बदल जाने पर उपयोगी वनजायें जो है अगर उन भोले लोगों का आदर करना हो तो आज उपयोगी है वे कमी उपोपयोगी बन साँय। उन धूर्त गुरुओ का भी आदर करना चाहिये। मानव-समाज के विकास के कारण जो आज के इस प्रकार हमें देव-सूढता गुरु-मूढता आदि मूढ़- लिये कस उपयोगी रहगये हैं वे ईषदुपयोगी हैं। ताओं का शिकार हो जाना पड़ेगा। जैसे हजरत मूसा आदि। इनमें से उपयोगी और
उत्तर-इस प्रकार के अपवाद धर्म में ही उपोपयोगी तो पूर्णरूप से पूजनीय हैं अर्थात् इंप्ट. नही साधारण लोक व्यवहार में भी उपस्थित देव की तरह बन्दनीय हैं। ईपदुपयोगी वन्धुहोते हैं। हम पड़ौसी के पिता को सम्मान की पूच्य-समादर आदि की दृष्टि से आदरणीय हैं। दृष्टि से देखते हैं इस साधारण नीति के रहते हुए ३-कुछ गुणदेव और व्यक्तिदेव अनुपयोगी भी यदि पड़ोसी का पिता बदमाश हो, क्रूर हो भी होते हैं उन्हें कुदेव कहना चाहिये । भूत-पिशाच
और अत्याचारी हो तो न्याय के संरक्षण के लिये श्रादि कल्पित देव, देव रूप में माने गये सर्प हम उसका निगदर भी करते हैं पाप का आदर , नहीं करते। धर्म के विषय में भी हमे इस नीति
र आदि क्रूर जन्तु, शनैश्चर यम आदि भयंकर से काम लेना चाहिये। फिर भी इसमें निम्नलिखित सूचनाओं का ध्यान रखना चाहिये। पूजा न करना चाहिये।
१-गुणदेवों का तिरस्कार न करना चाहिये शंका महादेव या शिव की उपासना सिफे उनके दुरुपयोग दुरुपासना आदि का तिर करना चाहिये या नहीं ? वह तो संहारक देव होने स्कार करना चाहिये। जैसे काली. जगदम्बा श्रादि स पर वह। नामों से प्रसिद्ध शक्ति देवी को शक्ति नामक गुण समाधान-मय से उपासना न करता की मूर्ति समझकर उसका सन्सान ही करना चाहिये। शिव पाप संहारक है इसलिये क्सर चाहिये। परन्तु शक्ति का जो विकराल रूप है नहीं है इसलिये गुणदेवों में शिव की गिनती है। पशु-वलि श्राहि जो उसकी उपासना का बुरा अथवा सत्य और अहिंसा में ही हम शिव-शिवा । तरीका है उसका विरोध करना चाहिये । का दर्शन कर सकते हैं। जगकल्याण के अग की हाँ, विरोध में भी दूसरों को समझाने की भावना से किसी की भी उपासना की जासकती है। हो उनका तिरस्कार करने की नहीं : समभावी को शंका गोमाता कहना उचित है या "गुण्टेवा का सन्मान करते हुए देव मूढता का कोई रूप न आने देना चाहिये।
अनुचित, गाय तो एक जानवर है। २ वर्तमान की दृष्टि से व्यक्तिदेवा की
समाधान-गाथ के उपकार काफी हैं कृत्तमीन श्रेणियाँ हैं क-उपयोगी ( उश) उपोपयोगी
जता की दृष्टि से गोमाता कहा जाय तो कोई बुरा १ (फश) ईपदुपयोगी (वेश) जो आज के लिये
नहीं है । गो माता शब्द मे गो जाति के विषय में
कृतज्ञता है जोकि उचित है । वास्तव में उसे कोई ६ पूर्ण उपयोगी है उन्हें उपयोगी कहना चाहिये, ) परन्तु जो अपने समय में पूर्ण उपयोगी थे किन्तु
देवी नहीं मानता। नहीं तो लोग उसे बाँध कर आज परिस्थिति बदल जाने से कुछ कम उपयोगी के साथ जानवर सरीखा व्यवहार करके उस
क्यों रखते और मारते पीटने भी क्यों ? जानवर हांगवे है, जिनके सन्देश में थोडे बहुत परिवर्तन जानि के उपचारों के विषय में कृतज्ञता प्रकाशित को प्रायश्यकता है वे उपोपयोगी हैं। वैसे गम, काने के लिये शब्दस्तुति करना अनुचित नहीं है। कृष्ण, महावीर, बुद्ध. ईसा मुहम्मद आदि। मा ४-3 के विषय में शिष्टाचार का उतना भी होसकता है कि जो भाल उपोपयोगी है वे पानन काना चाहिये जितना पड़ोसी के गुरु के
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विषय मे रखते है। विशेषता इतनी है कि वञ्चना के द्वारा भी गुरु बनजाने की सम्भावना है इस लिये गुरु मूढ़ता से बचने के लिये कुछ परीक्षा भी करना चाहिये। गुरु जीवित व्यक्ति है इसलिये उसके विषय में अच्छी तरह कुछ कहा नहीं जासकता, न जाने कल उसका क्या रूप दिखलाई दे। इसलिये देव के विषय मे आदरभाव की जितनी आवश्यकता है उतनी गुरु के विषय में नहीं । उसको तो परीक्षा करके ही मानना चाहिये । फिर भी स्वपर कल्याण की दृष्टि से जहाँ बिरोध करना आवश्यक हो वही विरोध करना चाहिये। वह विरोध अहंकारवश परनिन्दाका रूप धारण न करले । धूर्त गुरुओं का विरोध करना तो जन साधारण की सेवा है।
इन चार प्रकार की सूचनाओं पर ध्यान रक्खा जाय तो बन्धुपूज्यसमादर की नीति का ठीक तरह से पालन हो सकता है।
इसप्रकार पारिस्थितिक महत्ता, सार्वजनिक कृतज्ञता और बन्धुपूज्यसमादर से वैकासिक नरतमता रहनेपर भी धर्म समभाव के पालन में बाधा नहीं आती।
कुछ लोगो के मनमे धर्म-संस्थाओं के विषय यह भ्रम है कि वे अमुक वर्ग के षड्यन्त्र का परिणाम हैं। जैसे कुछ लोग कहते है कि, धर्म इसलिये खड़े किये गये जिससे सामन्त और पुजीपति लोग जनता को चूसते रहें और जनता परलोक की आशा मे विद्रोह न करे पिसती रहे और चुप रहे ।
[ ४ ]
पर यह बड़ा भारी भ्रम है । निःसन्देह धर्मसंस्थाओ का काफी दुरुपयोग सामन्तो ने पूँजीपत्तियो ने उच्च जाति कहलाने वालों ने तथा कुछ चालाक आदमियों ने किया है पर इल दुरुप योग को धर्मसंस्थाओं का ध्येय बताना ऐसा ही है जैसे सड़को का निर्माण चोगे के सुभीते के लिये बताना । निःसन्देह चोर सड़को का उपयोग कर
लेते है पर सड़कें चोरों के लिये बनाई नहीं जातीं। धर्मों ने हिंसाका, ईमान का, शील का त्याग का, तान का, अपरिग्रह का उपदेश दिया और इसी तरह के संस्कार डाते हैं। और इससे जनता ने काफी लाभ भी उठाया है पर इसके साथ किसी किसी पूँजीपति ने भी लाभ उठाया । सैकड़ो लोगों की चोरी रुकी तो दो-चार श्रीमानों की भी चोरी रुकी. इसलिये यह नहीं कहां जा सकता कि चोरी रोकने का काम श्रीमानो के स्वार्थ के लिये किया गया था श्रीमान तो अपने बड़े साधनो के बलपर यों ही चोरी से सुरक्षित रह सकते थे । विशेष लाभ तो साधारण लोगों को हुआ ।
सामन्तवाद आदि इसके परिणाम नहीं हैं। अगर जनता सामन्तो को मिटा देती तो भी पुण्यपाप का फल का सिद्धान्त लागू होता। कहा जा सकता था कि व सामन्तो का पुण्य क्षीरा
1
तरतमताका दूसरा भाव भ्रमजन्य (भूहोज) होगया इसलिये अब वे सामन्त नहीं रह सकते, है उसका त्याग करना चाहिये । पूजीपति नहीं रह सकते । युद्धो में सैकड़ों सामन्त जवानी में मारे जाते थे या पराजित होकर वनवाली होनाते थे इसमें यदि कर्म सिद्धान्त वाधक नहीं होता था तो जनता क्रान्ति करके यि सामन्तों को या श्रीमन्तो को मिटा देती तो कर्मसिद्धान्त - पुण्यपापफल सिद्धान्त क्या वाघा डालता ? बौद्ध धर्म के पैदा होने के पहिले हो मगध में गणतन्त्र चालू होगये थे इसमें कर्म सिद्धान्तने या ईश्वरवाद ने कोई बाधा न डाली थी।
परलोक फल के भय और श्राशा ने भी मनुष्य के हृदय मे पाप से डरने की और परोपकारादि पुण्य करने की भावना पैदा की। यह भी धर्म-सस्था का काम था ।
आज सारी दुनिया में समाजवाद (योग्यतानुसार कार्य और कार्य अनुसार लेना ) और साम्यवार अर्थात् कुटुम्वाs ( योग्यतानुसार कार्य और आवश्यकतानुसार लेना ) भी चालू होजाय तो भी कर्मवशद उसमें बाधा न डालेना । जब मुकम्प प्लेग आदि के द्वारा सामूहिक संहार
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के समय कर्मवाद अपनी उपपत्ति वैठा लेता है हुआ, फीस के लोभ से वैद्य डाक्टरो ने रोगियों तब समाजवाद साम्यवाद के सामूहिक विकास को लूटा ठगा और मार भी डाला, आज भी के समय भी बैठा लेता है और बैठालेगा। साधा. दवाईयो के झूले विज्ञापन लोगो का धन और रणतः धमों ने यत्नवाद का निषेध नहीं किया है। प्राण तक हर रहे हैं पर इस दुरुपयोग को रोकने हो । समाज के राजनैतिक आर्थिक ढाँचे के अन. की ही जरूरत है। इससे यह नहीं कहा जासार अपना निर्माण किया है। उनका काम तो सकता कि चिकित्सा शास्त्र लोगो को ठगने या मनुष्य में ईमानदारी त्याग सेवा सहयोग प्रादि लूटने के लिये बनाया गया था । भले ही चिकित्सा की भावना पैदा करना रहा है। जैसा भी राज- रक्खी जाय पर उसके नामपर ठगने वाले पैदा नैतिक और आर्थिक ढाँचा रहा उसी में उतने होजायेंगे पर इसीलिये प्राकृतिक चिकित्सा की यह काम किया।
उत्पत्ति ठगी के लिये कीगई है यह न कहा
जायगा। ___ आज राजनैतिक दृष्टि से मानव समान का काफी विकास होगया है फिर भी अभी मनुष्य . दुरुपयोग तो शिक्षा संस्थाओं का भी हुआ इतना विकसित नहीं होपाया है कि राज्य की है, होता है । साम्राज्यवादी शक्तियों अपने जरूरत न रहे। वह इतना ही कर सका है कि साम्राज्य यन्त्र के पुर्जे डालने के लिये शिक्षा सामन्ती शासन से प्रजातन्त्री शासन या समाज संस्थाश्री का दुरुपयोग करता है, पाहल भी किया वादी शासन लेनाया है। पर राज्यसंस्था के गया है, पर इसीलिये यह नहीं कहा जासकता कि दुरुपयोग पर दृष्टि डाली आय वो असंख्य हैं। शिक्षा संस्था की नींव इसलिये डाली गई थी कि राज्यसस्था जब से पैदा हुई तब से जितने मंद लोगों की बुद्धि और हृदय गुलाम बने। इस पृथ्वीतल पर हुए, और उनमे जितने जन धन मनुष्य ने मानवता के विकास के लिये का नाश हुआ, शासको द्वारा जनता पर जितने सैकड़ी तरह की संस्थाएँ बनाई है उनसे जहाँ अत्याचार हुए, लूटखसोट और रिश्वतखोरी हुई. असीम लाभ हुआ वा कुछ समय बाद उससे उतने ससार में और किसी संस्था के द्वारा नहीं नुकसान भी काफी हुआ पर मनुष्य इससे घव. हुए, इतने पर भी न हम बाज राज्यसंस्था उठाने राया नहीं, वह उन सब में सुधार करता गया, को तैयार है न यह कहना ही ठीक है कि राज्य- सुधार करता जारहा है। धर्मसंस्था के विषय में संस्था आदमियों को कत्ल करने लूटने रिश्वत भी यही बात है। इसलिये धर्मसंस्था को गाली खाने आदि के लिये पैदा हुई है। उसकी उत्पत्ति देने की, या उसका मजाक उड़ाने की जरूरत तो व्यवस्था और न्यायरक्षा के लिये हुई थी पर नहीं है। उनकी तुलना हो तो देशकाल के अनु. मनुष्यने सहसान्नियों तक इसका दुरुपयोग किया, सार मनुष्य के सहविकास को ध्यान में रखकर
आज भी कर रहा है फिर भी हम उसे मिटाने की करना चाहिये। नहीं सुधारने की कोशिश कर रहे हैं। उसकी धर्मसंस्था क विषय में बहुत से भ्रम हैं उत्पत्ति को मनुष्य के लिये अभिशाप नही सम- और अच्छे अच्छे बुद्धिवादियों में भी है। ये भ्रम झते हैं । इसीप्रकार धर्मसंस्था भी न्यायरक्षा निकल जाय तो धर्म संस्था की तरतमता का उन्हें ज्यवस्था सहयोग ईमानदारी आदि के लिये हुई ठीक भान होजाय और एक तरह का धर्म-सम. थी, उसका दुरुपयोग हुआ है फिर भी हम उसकी भाव पैदा होजाय । यहा इस विषय में ये सूत्र उत्पत्ति को अभिशाप नहीं समझते, उसे विकसित ध्यान में रखना चाहिये। करने की ही कोशिश करते हैं।
१ धर्म संस्थाएँ मानवता के विकास के चिकित्सा शास्त्रका भी काफी दुपयोग लिये बनी थीं।
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२-उनका, डांचा देशकाल परिस्थिति के श्यक था वे धर्म के विकाल होनेपर आवश्यक नहीं अनुसार बना है।
रहीं । जब श्रद्धेय वस्तुए उपयोगी नहीं रहती, ३-अन्य संस्थाओं के समान उनका भी
उनसे जनकल्याण की सम्भावना नहीं रहती तब दुरुपयोग हुआ पर जैसे अन्य संस्थाएँ हम नही
उनको बदलना पड़ता है। इसके लिये या तो
धर्मों का कायाकल्प होता है या नये धर्म आजाते मिटाते उनका सुधार ही करते हैं या नई बनाते
हैं। इसलिए धर्मों के कायाकल्प या पुनर्जन्म की हैं उसी प्रकार धर्मसंस्था का भी सुधार करना बात तो कही जासकती है पर उनका विलकुल चाहिये या नई बनाना चाहिये।
अभाव नहीं किया जासकता। यह बान विज्ञा४-धर्मसंस्था की अभी आवश्यकता है।
नादि हरएक शास्त्र के विषय में लागू है। इसलिए उसको मिटाने की कोशिश का अर्थ है उसका अगर हम इन शाखो को निमूल करना आवश्यक सुधार रोक देना, और लोगा को धर्म के अधिक- नहीं समझते तो धर्मशास्त्र को भी निर्मूल करने सित रूप में फसादेना।
की बात न कहना चाहिये। -धर्म को मीमांसा या तरतमता का विचार कुछ लोग धर्मसंस्थाओं पर इसलिए आक्र. करते समय धर्मसस्था के सहज विकास तथा भण करते है कि उनमे किसी एक व्यक्ति की परिस्थितियों के विषय में उपेक्षा या भ्रम न करना गुलामी करना पड़ती है। और बुद्धि का इस चाहिये।
तरह गुलाम होजाना तो मनुष्यता की हानि कुछ लोग धर्मसंस्था का इसलिए विरोध करना
करना है। इस विषय में भी लोग बड़े भ्रम में
है। वे दिन रात के अनुभवों को भूल जाते है। करते हैं कि वह श्रद्धामूलक है, पर यह भी एक भ्रम है, इस कारण से धर्म की अवहेलना नहीं
क्या वे यह सोचते हैं कि संसार का प्रत्येक की जासकती । धर्म ही नहीं, ससार की प्रत्येक
मनुष्य अपने जमाने की सब विद्या कलाओं का व्यवस्थित प्रवृत्ति के मूल में श्रद्धा रहती है। श्रद्धा
सर्वज्ञ होगा, यदि नदी तो उसे अपने विषय को न हो तो मनुष्य प्रवृत्ति ही न करे। हा, यह बात
छोड़कर वाकी हर विषय में किसी न किसी का
॥ विश्वास करना पड़ेगा। एक वैज्ञानिक अपने विचारणीय है कि श्रद्धा का आधार क्या हो ? विषय में खुव परीक्षाप्रधानी हो सकता है। पर
और वह विवेक के साथ कितना ताल्लुक रक्खे। बीमार होनेपर उसे अपनी बुद्धि डाक्ट के हवाले धर्म मे जो श्रद्धा होती है इसके लिए यह जरूरी कर देना पड़ती है। राज्यतन्त्र में भी यही वातनहीं है कि वह विवेक के विरुद्ध हो, बल्कि बहुत होती हैं। जब राजाओं के हाथ में सत्ता थी तब. से धर्म तो इस बात पर काफी जोर देते हैं कि की बात छोड दे, हम शुद्ध प्रजातन्त्र की बात श्रद्धा को विषेक के आधार पर खड़ा होना लने है जिसमे लाखो आदमी अपनी तरफ से चाहिये। हा, श्रद्धा की आवश्यकता सभी मह- एक प्रतिनिधि बनाकर विधानसभाओं में भेजदेते सुम करते है सो यह बात केवल धर्म में ही हैं। इसका मतलब यह हुआ कि लाखों बादहै, हरएक कार्य मे है। एक वैज्ञानिक भी अपने मियो ने अपनी बुद्धि एक आदमी के यहा गिरवी निश्चित सिद्धान्ता पर श्रद्धा रखता है, यही बात रखदी। इस तरह ससार में सारी व्यवस्था में अन्य शास्त्रा के बारे में भी कही आसानी है,
विश्वास से काम लेना पड़ता है इसे अगर बुद्धि
की गुलामी कहानाय तो सारा संसार, गुलाम है इसलिए इसे धर्मशास्त्र का दोष नहीं कह सकते। और इस गुलामी के विना संसार का काम नहीं
हा ! यह बान अवश्य है कि पुराने जमानं चल सकता, तब अकेने धर्मशास्त्र को कोसने में में धर्म के नि जिन बानो पर श्रद्धा करना आव. क्या होगा।
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धर्मसंस्था तो राज्यसंस्था की अपेक्षा काफी तब नये तीर्थकर और नये धर्माचार्य सामने । उदार होती है। गज्य का कानून चाहे आपको आजाते हैं। । समझ में आवे या न आवे आपको उसका पालन बात यह है कि सत्य की शोध प्रजातन्त्र के
करना ही पड़ेगा और नहीं करेंगे तो दण्ड भोगना आधार से नहीं होती, वह तो किसी एस क्रान्ति| पड़ेगा ! अगर इतनी कड़ाई न हो तो राज्यसंस्था कार के जरिये होती है जो जनमत की पर्वाह बिलकुल निरुपयोगी होडाय पर धर्मसंस्था ऐसी नहीं करता, जनहित की पदहि करता है । जनमत किसी कडाई का उपयोग नहीं करती। वह सम. तो शुरु शुरु मे उसके विरोध में ही खडा होता झाती है, संस्कार डालती है, और पालन करने है। अच्छे अच्छ वैज्ञानिकों के विषय में और से पहिले परीक्षा करने की छुट्टी देती है। इसमें तीर्थकरो के विषय में यहीं हुआ। और अपनी घुद्धि की गुलामी कहा है ? रही एक व्यक्ति की सूक्ष्म दृष्टि, सत्यसाधना और कठोर तपस्या क श्रद्धा की बात, सो उसमें भी कोई जबर्दस्ती नहीं पलपर उनने जनमत पर विजय पाई और उसे की जाती । बह तो बारबार की सफलता देखकर बदल दिया । ऐसी अवस्था में यदि काफी समय अपने आप होती है।
तक लोग ऐसे तीकरों और वैज्ञानिकों के मत जब हम किसी व्यक्ति को एक विषय पर काफी श्रद्धा रखें, तो इसमें प्राश्चर्य की क्या निष्णात देखते हैं और उसके द्वारा अनेक " दिशाओं में सफल पथप्रदर्शन देखते हैं तब उस धर्मसंस्था जीवन की चिकित्सा करने वाली विषय में श्रद्धा हो ही जाती है। नास्तिकता को एक संस्था है या यों कहना चाहिये कि जीवन पद पदपर दुहाई देनेवाले और धर्म का विरोध का शिक्षण देने वाली एक पाठशाला है , इन करनेवाले साम्यवादी, साम्यवाद को live स्थानों पर हास्टर वैद्य, था पाठक का मूल्य ही पदपर कालमार्स की दुहाई देते है, सोसाधा.
अधिक होता है, रोगियों या विद्यार्थियों का नहीं ।
रोगियों को यह अधिकार है कि वे याद रण भी विज्ञान के मामलों में अमुक वैज्ञानिक किसी डाक्टर को अच्छा नहीं समझते तो उसस था वैज्ञानिको की दुहाई देत हैं। इसी तरह हर चिकित्सा न कराये पर द चिकित्सा कराना है एक क्षेत्र में असाधारण कार्य करनेवाले लोगों को अन्तिम मत डाक्टर का ही होगा। की दुहाई दी जाती हैं। यह बुरा नहीं, क्योंकि डाक्टर के सामने वे अपना मत रख सकते है, हरएक आदमी हर विषय की तह तक तो पहुँच डॉक्टर उनपर विचार करेगा और अपना अन्तिम नहीं सकता इसलिए वह अपने को हर विषय का निर्णय देगा। धर्मसस्था के विषय में भी ठीक निष्णात भी नहीं मानता, इसलिए निष्णातो का यही बात है, तीर्थकर या धर्माचार्य जीवन की या अपने से अधिक निष्णानी का मन उसके चिकित्सा का डाक्टर है। आप उसे चुनने न लिए मूल्यवान होजाता है यह बात जैसे हरएक धुनने में, मानने न मानने में स्वतन्त्र हैं। लेकिन शाब और हरएक संस्था के विषय में है उसी चिकित्सा में अन्तिम मत उसीका है। जीवन के रह धर्मशास्त्र और धर्मसंस्था के विषय में भी हरेक क्षेत्र में अमुक व्यक्ति या व्यक्तियों को है। अब किसी वैज्ञानिक सिद्धान्त या विचार प्रधान मानकर चलना पड़ता है उसी प्रकार धर्मयुग के अनुरूप नहीं रहत तो उसके नाम की
- सस्था में भी चलना पड़े तो उसमें हुब्ध होने की हामी बन्द होजाती है, उसी तरह किसी धर्म सबकि किसी कानून के जरिये आप पर धमः
कोई बात नहीं है। खासकर उस अवसर पर र्थिकर या धर्माचार्य के विचार युग के अनुरूप संस्था जबरदस्ती लादीन गई हो, आप उसे ही रहते नव उसकी दुहाई बन्द होजाती है। स्वीकार अस्वीकार करने मे स्यनत्र हों।
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फिर धर्मसंस्था में किसी एक व्यक्ति की लोगो के मनमें होते हैं जिनने धर्मसंस्था के इतिप्रधानता का नियम भी नहीं है धर्मसंस्था मे एसे हास का और उसके वास्तविक स्वरूप का ठीक अनेक महामानव होजाते हैं, जिनके तर्कबल विचार नहीं किया होता है इसलिये उसके विरोधी
और अनुभवबल के कारण परम्परा की विचार- बनजाते हैं। पर कुछ लोग ऐसे हैं जो धर्म के धाराएं काफी बदल जाती है या सुधर जाती परम समर्थक होनेपर भी कुछ भ्रमों के कारण हैं। हरेक मनुष्य को इन सब की परीक्षा करके
धर्मसमभाव से दूर हट जाते है। उनकी धर्मधर्मसंस्था का उपयोग करना चाहिये। अगर
परीक्षा की कसौटी ही गलत होती है, कोई कोई कोई धर्मसंस्था न जचत्ती हो तो दूसरी ले लेना अपने धर्म को इसलिये महान कहने लगजाते हैं चाहिए, अगर ज्यादा बुद्धि वैभव हो तो सुधार कि उसमें त्याग का प्रदर्शन यहुत ऊंचे दर्ने का करना चाहिये । यदि इतने से भी काम न चले है, अनेक प्रकार के शारिरिक कष्टो का बबण्डर तो दूसरी संस्था खड़ी कर लेना चाहिये या कर- खड़ा कर दिया गया है, अहिंसा की बड़ी ची वाना चाहिये। इतनी स्वतन्त्रता के होते हुए व्याख्या की गयी है अथवा उसका क्रियाकाण्ड व्यक्ति प्रधानता के कारण धर्मसंस्था मात्र का विशाल है, इत्यादि। धर्मसंस्था की तरतमता नाश नहीं किया जासकता।
जानने के लिए ये सब विचार ठीक नहीं है। कुछ लोग धर्मसंस्था का विरोध बड़े विचिन्न केवल ऊची चातें लिखने या कहने से कोई तरीके से करते हैं। वे किसी युगबाह्य धर्मसंस्था धर्मसंस्था अंची नहीं होजाती जब तक कि उसकी से तो चिपटे रहते है पर युगानुकुल धर्मसंस्था वा व्यवहार में उतरने लायक न हो, मनोवैज्ञाका विरोध करते हैं । पर चूंकि वह समर्थ होती ! है इसलिये उसका विरोध कर नहीं पाते तब वे
" ज्यवहार में आनेपर जगत की स्थिति सोक ठीक धर्मसंस्था मात्र की बुराई करने लग जाते हैं।
रूप मे न बनी रहती हो। और सबको छोड़कर यगानरूप धर्म . इस प्रकार धर्मों के विषय में अनेक तरह विरोध पहिले करते हैं। डौल ऐसा करते हैं कि
के भ्रम है। इन भ्रमा को दूर करने के लिये इसे मानों उन्हें धर्मसंस्था मात्र से विरोध है और
पाच बातो का योग्य विचार करना चाहिये। इसीलिए वे युगानुरुप धर्मसंस्था का विरोध कर १-धर्मशास्त्र की मर्यादा (धर्मान रामो ) रहे हैं। उनमें इतनी हिम्मत नहीं होती कि वे यह २-उचित परिवर्तन (धिन्न भुगे) कहदे कि यह नई धर्मसंस्था असत्य है और ३-व्यापक दृष्टि ( कोलको ) पुरानी या हमारी धर्मसंस्था हो सत्य है । ये मम्मी ४-अनुदाग्ना के संस्कारों का त्याग । (नो. हैं, हो सकता है कि उनका दम्भ इतना गहरा हो भयो दम्पो मिचो) कि उन्हें भी उसका पता न लगता हो। ऐसे लोगों -मजता की उचित मान्यता ( पुमिंगो से जब कहा जाता है कि यदि तुम धर्मसंस्था भिन्न गयो) मान को खराब समझते हो तो कम से कम
१-धर्मशास्त्र की मर्यादा-सभी धर्म सन्य अपनी पुरानी युगवाह्य धर्मसस्था का तो पिण्ड
अहिंसा शील त्याग सवा आदि का उपदेश देते बोड़दा तब था नो वे चुप रहजाते हैं या " हे हे"
हैं और सभी धर्मों का अंय जन समाज को करने लगते है। ऐसे लोगो का धर्मसंस्था विरोध
समाचार में आगे बढ़ाना है। अगर साग जगत कोई मूल्य नहीं रखता।
सदाचारी प्रेमी सेवानिव हो जाय तो जगन में ' धर्मसंन्या के विषय में ये सब भ्रम उन दुग्व ही न रहे। शकृतिक दम्ब भी घट जाँच
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और जो रहे भी, वे परस्पर सेवा सहानुभूति से का ठीक ठीक ज्ञान हाजाय और धर्मशास्त्र के मालूम भी न पडें । बीमारी का कप्ट इतना नहीं सिरपर लदा हुआ वोम दूर होजाय तो धर्मों में बटकता जितना अकेले पड़े पड़े तड़पने का। इतना भेट ही न रहे । धर्मशास्त्र पर लदे हुए इस मनुध दुसरो पर जो अपना वोझ लादता है चोझ से बड़ी भारी हानि हुई है। धर्मों में अन्तर अत्याचार करता है सेवा नहीं देता यही कष्ट सब तो बढ़ ही गया है साथ ही इन विषयो का से अधिक है सभी वर्स इसको हटाने का प्रयल विकास भी रुक गया है। धर्मशास्त्र के ऊपर करते हैं इसलिये धर्मशास्त्र का काम सिनितिक श्रद्धा रखना तो जरूरी था और इससे लाभ भी नियम, उनकं पालन का उपाय, उनके न पालने, था पर उसमें आये हुए सभी विषयों पर श्रद्धा पालने से होनेवाले हानि लाम बताता है। अगर रखने से सभी विषयों में मनुष्य स्थिर हो गया । सभी धर्मशास्त्र इतना ही काम करते तो उनमे सदाचार आदि के नियम इतने परिवर्तनशील जो परस्पर अन्नर है वह रुपये में वाह आना या विकासशील नही होते जितने भौतिक विज्ञान घटनाता, पर आज धर्मशास्त्र में इतिहास भागेल आदि । समचार मे मनुष्य हजार वर्ष पहिले के ज्योतिप पदार्थविनान दर्शन आदि नाना शास्त्र
मनुष्य से बढ़ा या बहुत बड़ा नहीं है कदाचित मिल गये है इसलिये एक धर्म दूसरे धर्म से जुदा
घट गया है पर भौतिक विज्ञान आदि में कई
गुणी तरक्की हुई है। अब अगर धर्मशास्त्र के मोल्म होने लगा है।
साथ मौतिक विज्ञान आदि भी चलं तो जगत • अगर तुम से कोई पूछे-मे और दो कितने की बड़ी भारी हानि हो, और धामिक समाल होते हैं ? तुम कहोगे चार। पितर पूछे हिन्दू धर्म प्रगति के मार्ग में वड़ा भारी अड़ेगा वन जाय, के अनुसार कितने होते हैं इस्लाम के अनुसार जैसा कि वह वनता रहा है और बहुत जगह फितने होते है जैनधर्म के अनुसार कितने होते हैं आज भी बना है। इसलिये सब से पहिली बात ईसाई धर्म के अनुसार कितने होते हैं तो तुम यह है कि धर्मशास्त्र मे से दर्शन इतिहास भूगोल कहोगे-यह क्या मत्राल है १ धर्मो से इसका आदि विषय अलग कर दिय बाँच। धर्मशास्त्र क्या सन्बन्ध, ग्रह तो गणित का सवाल है? की मर्यात का ध्यान रक्खा जाय फिर धर्मों का इसी प्रकार तुमसे कोई पूछे कलकत्ता से धम्बई अन्तर बहुत मिट जायगा। कितनी दूर है शिया कितना बड़ा है और फिर प्रश्न-धर्मशास्त्र में ये विपर आये क्यों ? उनका सर हिन्दू मुसलमान आदि धर्मो की
उत्तर-पुगने समय में शिनण का इतना अपेक्षा चाहे तो उससे भी यही कहना होगा कि
हागाकबन्ध नहीं था। धर्मगुरु के पास ही हरएक "ह वर्मशास्त्र का सवाल नही हे भूगोल का विषय की शिक्षा लेना पहती थी। धर्मगुरुओं पर , मवाल हैं। इसी तरह सूत्री चन्द्र तारे पृथ्वी श्रादि अचल श्रद्धा होने से हरक विषय पर अचल
मवाल [भूगोल यगोल ] युग युनान्तर के अट्ठा होने लगी • गुरु लोग भी शिक्षण के सुभाते मचान ( उनिहास ) इन्या चा पदार्थों के और इलिये धर्मशास्त्र में ही हरएक विषय खींचतान भाम-समान्म. लोक-परलोक श्रादि के सवाल पर भरने लगे इस कार चनशान सर्व विद्या(विधान और दर्गन ) बर्मशास्त्र के विषय नहीं भण्डार बन गये । शिक्षण की घटस तो उस
पर उन्हीं गानों को ले धर्मशास्त्रों में इतना जमाने में अवश्य सुभीता हुआ पर इन विद्यामा "विवचन और कल्पनाओं के द्वागयरे विकास स्कने और धर्म-धर्म में मंद पड़ने का महानने मारा उनना मनमेंट रहा है कि नुकसान भी काफी हुआ। मा मानता है कि एक से दूसरे पर्न
सं घमशास्त्र में इन विषयों के आने का दुसग शनी मनस्ता। अगर धर्मशान्त्र स्थान का धर्म के जपा द्वा जमाने का और
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लोगों की अधिक से अधिक जिज्ञासाओ को इन प्रश्नों के उत्तरों में गुरु को इश्वर स्वर्ग नरव किसी तरह शान्त करने का प्रयत्न युग युगान्तर उनकं महापुरुष आदि का वर्णन
धर्मगर न नीति सदाचार का उपदेश दिया करना पड़ा, इसके लिये जो कुछ तर्कसिद्ध मिल लेकिन शिष्य तो कोई भी काम करने के लिये वह लिया वाकी कल्पना से मरागया। इस प्रकार तभी तैयार होता जब उसस सुख की आशा धर्मशास्त्र में बहुत से विषय आगये और उनमें होती । परन्तु दुनिया का अनुभव कुछ उल्टा था। कल्पना का भाग काफी होने से विभिन्नता भी उसने कहा-दुनिया में तो दुराचारी विश्वास- हुई, क्योकि हरएक धर्म प्रवर्तक की कल्पना घाती दम्मी लोग वैभवशाली तथा श्रानन्दी देखे एकसी नहीं हो सकती थी। जाते हैं और जो सच्चे त्यागी हैं परोपकारी हैं आज हमें इतना ही समझना चाहिये कि नीतिमान है सदाचारी हैं वे पद-पद ठोकर खाते धर्म के फल को समझाने के लिये ये उदाहरण है तब धर्म का पालन क्या किया जाय १ शिष्य मात्र हैं। भिन्न-भिन्न धर्मो के, जुदे-जुदे वर्णन भी का यह प्रश्न निर्मूल नहीं था। शिष्य को यह सिर्फ इस बात को बताते हैं कि अच्छे कर्म का समझना कठिन था कि सत्य भी सत्य की ओट फल अच्छा और बुरे चार्म का फल बुरा है। में चल पाता है इसलिये सत्य महान है ? धर्म के
___ अगर कोई कहानी आज तथ्यहीन मालूम पालन में जो असली आनन्द है वह अधमी नही हो तो हमे दसी कहानी बना लेना चाहिये या पासकना । ऐसे समाधानों से बुद्धि को थोड़ासा
खोज लेना चाहिये । धर्मशास्त्र में आये हुए विषयों, सन्तोप मिल सकता था पर हृदय को सन्तोष
को विज्ञान की दृष्टि से न देखना चाहिये, धर्म के नहीं मिल सकता था। हृदय तो धर्म के फल म स्पष्टीकरण की दृष्टि से देखना चाहिये। इश्वर भीतरी सुख ही नहीं, बाहरी फल भी चाहता था। जब गुरु ने कहा-हमारा जीवन पूरा नाटक
का दार्शनिक वर्णन धर्मशास्त्र के भीतर कर्मफल नहीं है नाटक का एक अंक है। नाटक का एक
प्रदान के रूप में ही रहे। इस दृष्टि से परस्पर अंक देखने से पूरे नाटक का परिणाम नही
विरोधी वर्णनों की भी संगति बैठ जायगी। । मालूम होता । राम के नाटक में कोई सीताहरण प्रश्न-इतिहास आदि को धर्मशास्त्र का तक खेल देखकर निर्णय करे कि पुण्य का फल
अंग न माना जाय तो भले ही न माना जाय। गृहनिर्वासन और पत्नीहरण है तो उसका यह
पर दर्शनशास्त्र को अगर अलग कर दिया जायगई निर्णय ठीक न होगा इसी प्रकार एक जीवन से
तो धर्म की जड़ ही उखड़ जायगी। धर्म का काम पुण्य-पाप के फन का निर्णय करना उचित है। समाचार दुराचार का प्रदर्शन कराना तो है ही धर्म का अमली फन्त नो परलोक में मिलता है। साथ ही यह बताना भी है कि वह फल कैरे बीज से फल आने तक जैसे महीनी और वो मिलता है। इसके उत्तर में दर्शनशास्त्र का घड लगजाते है उसी तरह पुण्यपार फल के बीज भी भाग या जाता है इसलिये दर्शन को धर्म । वर्षों युगों और जन्म जन्मान्तरों में अपना फन , अलग नहीं किया जा सकता।
उत्तर-दर्शन का धर्म से कुछ नि इस उत्तर से शिष्य के मन का बहुतसा सम्बन्ध अवश्य है क्योकि धार्मिक दृष्टि से वि समावान होगया पर जिज्ञासा ओर मी बढ़ाई। की व्याख्या करने वाले शास्त्र को दर्शनशा परलोक क्या है । वहा कौन जाता है ? शरीर तो कहते हैं। विज्ञान और दर्शन में यही अ यहीं पडा रह जाता है, परलोक कैसा है फाल कौन है कि विज्ञान धर्म निरपेन है और दर्शन । देता है १ पहिले कर किनको कैसा फल मिला है। मापेन । फिर भी दो कारणों से धर्म और
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अलग अलग शास्त्र है।
पाज का हिन्दू दर्शनशास्त्र में चाहे १-धर्म और दर्शन का कार्य और आधार कोई एक प्राचीन वैदिक दर्शन माने पर पुराने भिन्न है। धर्म का कार्य जीवन शतिनिधर्म से वह बहुत दूर होगया है। पुराने युग के या विधि विधान बनाना है। और दर्शनका कार्य पशुयज्ञ, मासभक्षण, मानव में देवत्व की अमान विश्व की व्याख्या करना है। धर्म दर्शन को प्रेरक न्यता (वैदिक युग में अाज गम ऋष्ण यादि है पर नियन्त्रक नहीं। धर्म के ध्येय की पति के क्रिया को परमात्मा कप में नहीं पूजा जाता लिये दर्शन शास्त्र है इसलिये धर्म को दर्शन का था) मूर्ति की "प्रपूजा (माज की मूर्तिपूजा भी प्रेरक कह सकते हैं पर दर्शनपर नियन्त्रण नर्क उस समय नहीं थी, अग्नि सू श्रादि की ही का रहता है धर्म का नहीं । दर्शन यह नही की उपासना की जाती थी) आदि बहुनसो वात सकता कि यह वात धर्माविरुद्ध है इसलिये न मानी छोड़ चुका हे धर्म का रूप बहुन मुब वहल गया जायगी, वह वैज्ञानिक की नरह नही कहेगा कि परमर्गत अभी भी यही है। यह बात तकविरुद्ध है इसलिये नहीं मानी इससे पना लगता है कि धर्मा पीर दर्शन जायगी। यही कारण है कि कई दर्शनाने प्रागम कदसरे के साथ बँधे हा नहीं है। एक है। को प्रमाण तक नही माग, और जिनने माना निशान से धर्म भी निकल सकता है और अधर्म उनने प्रत्यक्ष और तर्क को मुख्यता दी। धर्म में भी निकल सकता है । इसलिय दर्शन को धर्म का विवेक को स्थान होनेपर भी अन्त मे श्रद्धा को अंगन बनाना चाहिये उसके भंड से धम में भद्र
आधार बनाना पड़ता है। दर्शन अन्त तक तर्क न मानना चाहिये, दर्शन की असत्यता से धर्म में की दुहाई देना रहता है। इस प्रकार दर्शन और असत्यता न मानना चाहिये। इससे धर्मो में में में काफी अन्नर है।
भिन्नता का बडा कारण दूर हो जायगा। यहा २-कभी कभी सा होता है कि दर्शनशास्त्र के परस्पर विरोधी भिन्न भिन्न सिद्धानां ने पर भी दर्शन नहीलता, और कमी कमी का धारिटिस कैसा सदुपयोग दुख्योग सा होता है कि दर्शन के बदल जानेपर भी धर्म किया जासकता है इसका विवेचन किया ही बदलता TEEी बौद्धधर्म में सौत्रान्तिक जाना है। भाषिक योगाचार और माध्यमिक चार दर्शन ईश्वावाद--(पशवादो) जगत का सृष्टा गये। जिनने विश्व के पदार्थों की व्याख्या विल- या नियन्ता कोई एक आत्मा है जो पुण्य-पाप का कुल जुदे-जुदे ढंग से की। एक ने बाह्य पदार्थो फल देता है यह ईश्वर-बार है। कपिल दाताकी सत्ता मानी और एक ने नहीं मानी। कोशिश नियन्ता सृष्टा कोई एक श्रात्मा नहीं है यह अनीचारो की यह थी कि जीवन बौद्ध धर्म के अनुसार बाट है। दर्शन शास्त्र की दृष्टि से इन दा मस घने । बहुत से हिन्द एक ही तरह का धार्मिक काई एक सन्चा है। पर धर्मशास्त्र नोना को जीवन बिताते हैं, लेकिन भिन्न भिन्न दर्शनी सन्चा और दोनो को भूग कर सकता है। धर्मको मानते है। यही बात मुसलमानों के बारे में शास्त्र कोटि में श्व वाद की सचाई यह है कि है। धार्मिक जीवन में करीब करीब समानता हमारे पुरुष पार निरर्थक नहीं हैं। अगर हम होनेपर भी भिन्न भिन्न दर्शनों की उत्पत्ति उसमें जगत के कल्याण के लिये दिनरात परिश्रम करते हुई । उनमें अवैत दर्शन भी पाया और कैत है फिर भी जगत् हमारी अवहेलना करता है तो दर्शन मी बाया। इससे पता लगता है कि दर्शन माग यह गुप्त पुण्य व्यय न जायगा क्योकि के बदलजाने या भिन्न-भिन्न होनेपर भी धर्म एक जगत देखे या न देखे पर ईश्वर अवश्य देवता
है । इसलिये वह अवश्य किसी न किसी रूप में
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सकल देगा। इसी प्रकार अगर हम कोई पाप उससे भिन्न है क्योकि नाशनिक पद्धति से सिद्ध करते हैं पर दुनिया की पात्र में पूर झांककर किये हुए ईश्वरवाद अनीश्वरवाद की उसे पाह उसमें अपयश से बचे रहते है तो भी वह पाप नही है। उसकी दृष्टि स्वतन्त्र है। निरर्थक न जायगा क्योकि ईश्वर की प्राग्ला में धूल नही मोकी जामाती, वह पाप का पल .
परलोकवाद या आत्मवाद ( इम्यवादो)कमी न कभी व्यवश्य देगा। इस प्रकार गुप्न पाप
मात्मा तो हरएक मानता है पर आत्मा कोई से भी भा और गुम पुएर सभी सन्तोप पैदा भूलवस्तु नव ] है ना नहीं, इसी पर विवाद होना इन यार का फल है। साविवाद धर्म है। आत्मा को नित्य मानने से परलोक तो सिद्ध को दृष्टि में सत्य है, भले ही ईश्वर हो या न हो
हो ही जाना है क्याकि आत्मा जब नित्य है तब अथवा सिद्ध हाना हान होता हो। पर अगर मरन के बाद कही न कहा जायगा और कही न इवरवाट का यह अह कि ईश्वर दयालु है प्राथ. कहा से मरकर पापा भी होगा वही परलोक है। नामो से खुश होनार यह पार माफ कर देना है
HTS यद्यपि आत्मा को अनित्य या अतस्य मानकर इसलिये पाप को चिन्ता न करना चाहिय ईश्वर
भी परलोक बन सकता है पर धर्म की दृष्टि में को खुश करने की चिन्ता करना चाहिये तो यह इससे कोई अन्तर नहीं होता । जैसे पानी ईश्वरवाट धर्मशास्त्र को नाम मिया है भले ही पाक्सिजन आदि के संयोग स बना है फिर भी नमानशास्त्र इश्वरवाद को सिद्ध कर देना हो। उसका यह रासायनिक आकर्षण भाफ बनने पर
इसी प्रकार अनीश्वरवाद के विषय में भी भी नहीं टूटता, इस प्रकार संयोग होनेपर मी है । अगर अनीश्वरवाट का यह अर्थ है कि ईश्वर भाफ और पानी के रूप में अनेक बार पुनर्जन्म युक्ति तर्क से सिद्ध नहीं होता पुण्य पाप फल की।
फरता रहता है उसी प्रकार आत्मा संयोगज व्यवस्था प्राकृतिक नियम के अनुसार ही होती हार मा पुनजन्म कर सकता है। इस प्रकार है. मे पर भी विप खाया जाय और उससे आत्मवाद और परलोकवाद में अन्तर है। म. अपराध की क्षमा याचना की जाय तो विप के बाद आत्मा को नित्य सिद्ध करता है और पर
लोकवाद आत्मा को अनेक भवस्थायी सिद्ध ऊपर इसका कुछ प्रभाव न पड़ेगा, थिय खान का
करता है । पर इन दोनो का धर्मशास्त्र में एकसा निश्चित दण्ड प्राकृतिक नियम के अनुसार
उपयोग है क्योंकि धर्मशास्त्र आत्मा की नित्यता मिलगा , इसी प्रकार हम जो पाप करते हैं उस
और परलोक से एक ही बार सिद्ध करना चाहता का फल भी प्राकृतिक नियम के अनुसार अवश्य
है कि पुण्य पाए या फल इस जन्म में दिन मिलता है तो इस प्रकार का शनीश्वरवादकर्मवाद्
मिल सके तो परजन्म में अवश्य मिलेगा पुण्य सके सिद्ध हो या न हो धर्मशास्त्र की दृष्टि में सत्य
पाप व्यर्थ नही जायगा। यह बान आत्मवाद है। पर अगर अनीश्वरवाद का अर्थ पुण्य पाप के
और परतीकवाद में एक सरीखी है । दर्शनशास्त्र फन की अव्यवस्था है इसलिये किसी न किसी तरह अपना स्वार्थ सिद्ध करना जीवन का ध्येय
अगर अपनी युक्तियों से परलोक या आत्मा का ६ है, सामूहिक स्वार्थ की या नैतिक नियम की
खरान भी करदे तो भी पुण्यपाप फल की दृष्टि। पर्वाह करना व्यथा है तो इस प्रकार का अनीश्वर. से धर्मशास्त्र परलोक या श्रात्मवाद को सत्य - वाढ तर्क-सिद्ध भी हो तो भी धर्मशास्त्र की दृष्टि माना। समिथ्या है। इस प्रकार धर्मशास्त्र ईश्वरवाट दि आत्मवाद का यह अर्थ हो कि आत्मा सम्बन्धी दानिक चर्चा का उपयोग करकं भी तो अमर है किसी की हत्या कर देने पर भी
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सत्यामृत
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आमा मर नहीं सकता इसलिये हिंसा अहिंसा कहता है उसका पृथक अस्तित्व मिट जाता है, का विचार व्यर्थ है, ऐसी हालत में दर्शनशास्त्र कोई कहता है सदा के लिये ईश्वर के पास पहुँच की दृष्टि में आत्मवाद सत्य होने पर भी धर्मशास्त्र जाता है, कोई कहता है मुक्ति नित्य नहीं है जीप की दृष्टि में असत्य हो जायगा। आत्मवाद के यहा से लौट आता है, इस प्रकार नाना मत हैं। विषय में दर्शनशास्त्र बदलता रहे तो भी धर्म. धर्मशास्त्र इस विषय में बिल्कुल तटस्थ है। धर्म
शास्त्र न बदलेगा उसकी दृष्टि पुरवपाए को सार्थ- शास्त्र के लिये तो स्वर्ग नरक मोक्ष आदि का कता पर है। यही आत्मवाद के विषय में धर्म- इतना ही अर्थ है कि पुण्य-पाप अच्छे-बुरे कार्यों शास्त्र और दर्शनशास्त्र की जुदाई है। का फल अवश्य मिलता है। जिसने इस बात पर ___ सजिवाद ( पुमिंगवादो )-सन हो विश्वास कर लिया फिर मुक्ति पर विश्वास किया सकता है या नहीं, या हो सकता है तो कैसा हो या न किया, उसको धर्मशास्त्र मिथ्या नहीं कहता। सकता है दर्शनशास्त्र के इस विषय मे अनेक मत हो सकते हैं और हैं, पर धर्मशास्त्र को इससे धर्म क्या करेगा ? मुक्ति हो या न हो, पर मुक्त कोई मतलब नहीं । धर्मशास्त्र तो सिर्फ यही का आकर्षण तो नष्ट न होना चाहिये। चाहता है कि मनुष्य नैतिक नियमो पर पूर्ण उत्तर--मुक्ति पर विश्वास होना चित्त है विश्वास करे और तदनुसार पले । अब इसके
अब इसक्र उसमें कोई बुराई नहीं है, पर इसके लिये बुद्धि के लिये बहुदशी सर्वज्ञ माना आय या श्रेष्ठ विद्वारों में हथकड़ी नहीं डाली जासकती, बुद्धि ता सर्वज्ञ माना जाय, धर्मशास्त्र इसमे कुछ आपत्ति
अपना काम करेगी ही, इसलिये अगर किसी को न करेगा । सिर्फ सर्वहता के उस रूप पर आपत्ति शक्ति तर्कसंगत न मालूम हुई तो इसीलिये उसे करेगा जो धर्मसमभाव का विघातक है और न छोड देना चाहिये, न छोड़ने की जरूरत विकास का रोकनेवाला है। इस सर्ववाद के विषय में दर्शनशास्त्र परस्पर में जितना विरोधी
स्वाद के है। स्वर्ग की मान्यता से भी या परलोक की
ना से भी धर्म के लिये आकर्षण रह है उतना धर्मशास्त्र नहीं है। कोई सर्वज्ञ माने या सफता है। न माने यदि नैतिक नियमो की प्रामाणिक्ता में उसका विश्वास है तो धर्मशास्त्र की दृष्टि से उसने जीवनोत्सर्ग क्यों करेगा
प्रश्न-परिमित सुख की आशा में मनुष्य सर्वज्ञ विषयक सस्य पा लिया। पर दर्शनशास्त्र इस बात पर उपेक्षा करता है। वह तो सर्वज्ञता
उत्तर- मनुष्य सरीखा हिसाधी प्राणी दिनक रूप का वध्य जानना चाहना है। यही इन रात जितने लाम से सन्तुष्ट रहता है स्वर्ग में धोनों में अन्तर है।
उससे कहीं अधिक लाभ है। मनुष्य यह जानता मुक्तिवाद जिन्नोवादो ) मुक्तिवाटक विषय है कि अच्छी रोटी खाने पर भी शामको फिर म भी दर्शनशास्त्र में अनेक मन है। कोई माता भूरस लगेगी फिर भी रोटी खाता है और उस हे मुक्ति में आत्मा अनन्त ज्ञान अनन्त सख में रोटी के लिये दुनिया भर की विपदा मोल लेता लीन अनन्त काल तक रहता है. कोई कहना है है। मनुष्य दिनगन फोहू के चैन की तरह पर वहा ज्ञान भौर सुग्व नहीं रहता उसके विशेष और बाजार में चक्कर काटता है और सब तरह गुण नष्ट हो जाते हैं, कोई कहता है मुक्ति में की परेशानियाँ उठाना है तब वह स्वर्ग के लिये आत्मा का नाश हो जाता है, कोई कहता है वहा नह हठ करके क्यों बैठ जायगा कि मैं तो नमी विना इन्द्रियों के सत्र भोगों को भोगता है, कोई धर्म करूगा जब मुझे मोक्ष मिलेगा. स्वर्ग के
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लिये मैं कुछ नहीं करता। सच तो यह है कि जो हो या दो, सदाचार की आवश्यकता और रूप में तत्वदर्शी है उसको साचार का फल दूढने के इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। अगर जगत मूल लिये स्वर्ग-मोक्ष की भी जरूरत नहीं होती, वह मे एक है तो इसका यह अर्थ नहीं कि हम किसी तो समाचार का सुफल यही देख लेता है, जब को तमाचा मारें तो उसे न लगेगा अथवा हमें ही वाहर नहीं दिखाई देता तर भीतर देख लेता है। लगेगा। द्वौत हो या अद्वत, हिंसा-अहिंसा आदि
और जो तत्वदर्शी नहीं है वह मोक्ष के श्रानन्द विवेक उसी तरह रखना होगा जैसा आज रक्खा को समझ ही नहीं सकता। उसे स्वगे और मोक्ष जाता है। इसलिये द्वैत-अद्वत के दार्शनिक प्रश्न में से किसी एक चीज को चुनने को कहा जाय का धर्मशास्त्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। द्वैत या तो वह स्वर्ग ही चुनेगा। हा, मोक्ष के दर्शको अद्वैत मानने से मनुष्य धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि ठीक न समझकर साम्प्रदायिक कारक मार कुछ आत्तिक और ईमानदार नहीं बनता। भी कहे। मतलब यह है कि मुक्ति के न माननेसे
हो, द्वैत या अहत जो कुछ भी बुद्धि को भी सटाचार का पाकर्षण नष्ट नहीं होता इस- जच जाय उसका उपयोग धर्मशास्त्र अच्छी तरह लिये धर्मशास्त्र मुक्ति के विषय में तटस्थ है। कर सकता है । अद्वैत का उपयोग धर्मशास्त्र में
द्वैताद्वैत (अकोकनो)-द्वैत का अर्थ है विश्वप्रेम के रूप में हो सकता है। दरैत का जगत दो या दो से अधिक तत्वों से बना हुआ उपयोग आत्मा और शरीर को भिन्न मानकर है। जैसे पुरुष और प्रकृति, जीव पुद्गल धर्म शारीरिक सुखों को गौण बनाने में किया जा अधर्म काल आकाश, पृथ्वी जल अग्नि वायु समता है। आकाश काल दिशा आरमा मन आदि। ये सव
दर्शन के दो परस्पर विरोधी सिद्धान्त धर्म द्वैतवाद हैं। अद्वत का अर्थ है जगत का मूग
शास्त्र मे एक सरीखे उपयोगी हो सकते हैं और एक है जैसे ब्रह्म । दर्शनशास्त्र की यह गुस्थी अभी ।
सत्य अहिंसा की पूजा के काम में आ सकते हैं। तक नहीं सुलझी । भौतिक विज्ञान भी इस विषय यह धर्मशास्त्र से दर्शनशास्त्र की भिन्नता का मे काफी प्रयत्न कर रहा है। बहुन से वैज्ञानिक सचक है।। मोचने लगे हैं कि तत्व वानवे नहीं है एक है फिर
नित्यानित्यवाद ( पुलोहुलोषादो )-वस्तु भले ही वह इयर हो या और कुछ। अद्वैत की नित्य है या अनित्य, यह वाद भी धर्म के लिये मान्यता मे मूल तत्व चेतन है या अचेतन, यह
यह निरुपयोगी है। अगर नित्यवाद सत्य है तो भी प्रश्न ही व्यर्थ है। चेतन का अर्थ अगर ज्ञान- हत्या करना हिंसा है। अगर अनित्यवाद या जानना विचार करना आदि है तो उस मूल क्षणिकवाद सत्य है तो भी यह कहकर खून म अवस्था में यह सत्र असभव है इसलिये अद्वैत नहीं किया जा सकता कि वह तो हर समय न की मान्यता में मूलतत्व अचेतन ही रहेगा। हो रहा था मैंने उसका खून किया तो क्या " अथवा बीजरूप में चेतन और अचेतन दोनो ही गया, इसलिये नित्यवाद अनित्यवाद का आत्म उसमें मौजूद हैं इसलिये उसे चैतन्याचोतन्यातीत शुद्धि या सदाचार के साथ कोई सम्बन्ध नह कह सकते है । द्वैत अद्वैत को यह समस्या सर- वैठता । हां, भावना के रूप में दोनों का उपयो लता से नही सुलझ सकती, पर धर्मशास्त्र को किया जा सकता है। नित्यवाद से हम अम इसकी जरा भी चिन्ता नहीं है। यह समस्या के अमरत्व की भावना से मृत्यु से निर्भय ह सुलझ जायचो धर्मशास्त्र का कुछ लाभ नहीं और सकते हैं और अनित्यवाद से भोगो की या नसलम तो कुछ हानि नहीं।' जगन मूल में एक की नणमगुरता के कारण इससे निर्मोह हो ।
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हैं। इस प्रकार धर्मशास्त्र तो नित्यवाद का और हितकारी होते हैं। जो लोग परिवर्तन के इस अनित्यवान का समान रूप में उपयोग करता है। मां को समझाते हैं उन्हें घर में विरोध नहीं दर्शनशास्त्र भले ही नित्यवाद था अनिलबाद में मालूम होता वे परस्पर विरुद्ध मालूम होनेवाले से किसी एक को मिथ्या कहे परन्तु धर्मशास्त्र आचागे में समन्यय करके उनसे लाभ उठा सक्ते दोनों का सत्य के समान उपयोग करेगा. यह है। परन्तु जो परिवर्तन पर उपेक्षा करते हैं उन्हे धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र का भेद हैं। इस बात में विरोध ही नजर आता है, वे इस इस प्रकार धर्मशास्त्र और दर्शनशास्त्र आदि
विपय में विप्रमता और विगेय के अन्तर को ही को अलग कर देने से, अर्थात धर्मशास्त्र के सत्य
नहीं समझते । विषमता तो नर और नागे में भी
काफी है पर इससे उनमें विरोध सिद्ध नहीं होता। को दर्शनशास्त्र या अन्य किसी शास्त्र के सत्य पर ED की यह साधारण बात धर्म के विषय में अवलम्बित न करने से धर्मों का पारस्परिक भी अगर काम में लाई जाय तो सुधारक और विरोध बहुत शान्त हो जाता है। इसलिये धर्म
त हा जाता है । इसालय धम- उदार बनने के माग में कठिनाई न रहे। शास्त्र का स्थान समझलेना चाहिये । और इस विषय का भ्रम दूर कर देना चाहिये।
एक जमाने में समाज की आधिक व्यवस्था , प्रश्न-धर्मशास्त्र का स्थान
के लिये वर्ण-व्यवस्था की जरूरत पड़ी तो धर्म में धर्शनशास्त्र तया और दूसरे शास्त्री से सम्बन्ध
वर्ष-व्यवस्था को स्थान मिलगया उससे समाज
ने काफी लाभ उठाया, लोग आजीविका की रखनवाले झगड़े अवश्य शान्त हो जॉयगे, पर चिन्ता से मुक हो गये, परन्तु इसके बाद बस. धर्मों में इतना ही विरोध नहीं है। प्रयत्ति निवृत्ति, वस्था में जातीयता का रूप धारण करके स्थान हिंसा अहिंसा, चरण अवर्ण तथा और भी आधार पान विवाहादि सम्बन्धमे अनुचित बाधाएँ डालना शान्त्र सम्बन्धी भेद है। इन बातो में प्राय सभी शुरु कर दिया, जाति के कारण गुणहीना को परस्सर विरुद्ध हैं तव धर्मसमभाव कैसे रह पूजा होने लगी. उनके अधिकागे से गुणी और सकता है।
निरपराध पिसने लगे. सत्र वर्ण व्यवस्था को नष्ट उत्तर-इन बातोको लेकर जो धर्मो मे विरोध कर देने की आवश्यकता हुई। इस समयानुसार मालूम होता है उसक कारण हैं उचित परिवर्तन परिवर्तन में विरोध किस गत का १ वैदिक धर्म का प्रभाव और व्यापक दृष्टि को कमी। पहिले को वर-व्यवस्था और जैनधर्म का वर्ण-व्यवस्था. धर्म-विरोव-भ्रम इटान के पाच कारण वताय है विरोध, ये दोनों ही अपने अपने समय में समाज उनमे से दूसरे तीसरे के प्रभाव से आचार-विप- के लिये कल्याणकारी रहे है। इसलिये धम-समथक नम होते हैं।
भावो को उचित परिवर्तन के लिये सदा तैयार २-उचित परिवर्तन-ऋतु के नुसार जैसे रहना चाहे और परिवर्सन पर उपेश कभी न हमे अपने रहन-सहन भोजन आदि में कुछ परि- करना चाहिये । वर्तन करना पड़ता है उसी प्रकार देशकाल - विशाल दृष्टि-वष्टिमी विकलता या सकु. लने पर सामाजिक विशनों में परिवर्तन करना चितना से किसी चीज का पूरा रूप या पर्याप्त पड़ता है। इसलिये एक जमाने मे जो विधान नहीं दिखता. इसी से हिंसा अहिंसा और सत्य होता है दूसरे जमाने में वही विधान असन्य प्रत नियत्ति के विरोव पैदा होते हैं। सभी धर्म बन जाता है इसलिये एक जमाने का पने दूसरे अहिंसा का प्रचारमा हैं परन्तु अहिंसा का पूरारूप समाने के धर्म से अलग हो जाता है। परन्तु हरएक प्रादमी नही पालसकता और न हर अपने अपने समय में दोनों ही समाज के लिये समय अहिंसा का वायरूप एकसा होता है। इस.
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imati f im मा गोर्म को मानते है उनके कार्य का समPRE
से किया जा सकेगा। या उन्हे धर्म के MAR " विषय में सगान से माना जा सकेगा। Partitamin
को शाभिमान का विषय बनाना 2 : -: viral insti rन विष बनाने के समान है इसलिये
"गुरा का वर्ग छोटा और हमाग धर्स घडा यह ma
| गिगान न बचना चाहिये। 16 mi )
सामरिक धर्म में कोई in ..
मी कान महल पानी है जो दूसरे धर्मों में म . iiiii माया में नही पाई जाती इसलिये किसी NET .
सपन का विचार न करना चाहिये। -
म ष्टि से यदि जनधर्म महान है तो F ol Tarfari -संवा को दृष्टि से ईसाई धर्म महान है, भात. ' MA: Metri firi नाव नोर ब्याज न खान (अपरिग्रह ) की दृष्टि ।
TER पशु FI से उसलाम प्रधान है। बौद्धधर्म में इसलाम और ।' AAR
A T TIR मा सानी नानी विशेषताएँ काफी मात्रामे हैं st Hifi का हिन्दी समन्वयात्मक भिन्नता असाधारण है। misartan श मालये सब दियाँ से किसी को बड़ा नहीं कहा नरमामन ना
स ज नता पौर का एक ईष्ट से तो प्राय: सभी ६ २ .
HI. । Fift ना उमरी मायामा तीसरी बात यह कि अभिमान की चीज । पर PART पर (मन पर भा बर्म नही है सावरण है। यधपि धर्माचरण का बाद मिल पाया पाना . । इस निपट भी अभियान न करना चाहिये फिर भी महत्ता माननिय अभियान प्रमगा पर पशुस्त्या यांचरण की है। कोई बड़े शहर में भिखारी / ratefir कार्यसायी दिशा "प्रोग मूर्य हो सकते है और छोटे शहर में लख
मा इसलिय सभी पति और चतुर हो सकते हैं महत्ता अपनी योग्यता 'मि सिा । नन्दा दनवान है।
से है शहर से नहीं। इसी प्रकार महत्ता धर्मामन लीक है कि सभी धर्म प्रतिमा चरण [ नैतिक जीवन ] से है धर्म संन्या की भी नमनट त है उनमें आ हिंसा विश्वान सरस्यता से नहीं। यह तो जन्म की बात है पाये जान ई हम उन धर्मो का कोई अपगध किसी भी धर्मसंस्था में जन्म हो गया। माननिय सभी धर्म ग्राहरणीय है। यह चौथी बात यह है कि धर्म सस्था की महत्ता तकतर पर सभी धर्म समान में पाल- सं धर्म सस्थापक की महत्ता का माप नहीं लगाया नी न मवत। जो धर्म कम विकसिन जा सकता। जैसे एक ही योग्यता के चार पाठक लोगों में पंदा ना है उसका दा कुछ न कुछ छोटी वढी चार कक्षाओं को ऊँचा नीचा पाय नम सीहालत में सभी धमा म विषय पढायेंगे पर उनकी कक्षा की तरतमना समापं होगा। 'गोर जो लोग छोटी उनके ज्ञान की तरतमता की सबक नहीं है।
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पहिली कक्षा पढ़ाने वाला और चौथी कना पदाने- चाहये । मांस-मनण-निपेर को जोरदार बनाना वाला, ये दोना समान नोग्यता रखकर भो कक्षा चाहिये। महायान सम्प्रदाय के द्वारा आये हुए के छात्रो की योग्यता के अनुसार ऊँचा-नीचा अनेक कवित देव देवी दूर होना चाहिये । ईसाई कोर्स पढावेगे। इसी प्रकार दो धर्मा के संस्था- धर्म का पोपडम तो नष्ट हो ही चुका है। वाइपक समान योग्यता कर मी परिस्थिति के दिल में ऐसे अधिक विधिविधानता है जिनपर अनुमार ऊँचा-नीचा कोर्स पढ़ायेंगे । यह बहुत कुछ विशेप कहा जा सके। जो व्यवहार्य बात सम्भव है कि हजरत मुहम्मद अगर दाई हजार थी वे सब तोडी जा चुकी है बल्कि उनकी प्रतिवर्ष पहिले भारत में पैदा होते तो महात्मा क्रिया हो चुकी है । धनिया को स्वर्ग में प्रवेश न महावीर और महात्मा बुद्ध से बहुत कुछ मिलते मिलने की बाल को प्रतिक्रिया थान भरकर जुनते होते। और महात्मा महावीर या महात्मा सान्नाव्यवाद के रूप में हो रही है। इन सब से बुद्ध डेढ हजार वर्ष पहिले अरब में पैदा होते तो सुधार होने की जरूरत है । और जो बाइबल में हजरत मुहम्मद स मिलत जुलते होते। इसलिये नैतिक उपदेश ह य ठीक है। महात्मा ईसा के धर्म संस्थानो की तुलना स धर्म संस्थापको की
जीवन में जो अतिशया की कल्पना है वह जाना तुलना न करना चाहिये।
चाहिये। अन्य धर्मों में भी यह बीमारी है वह
वहा से भी जाना चाहिये। मास भक्षण आदि ___पाचवी बात यह है कि सभी धर्म अपूर्ण का जो कम प्रतिबन्ध है वह कुछ अधिक पाना हैं अथवा यह कहना चाहिये कि वे अमुक देश- चाहिये इसलाम में जो पशवलि सादिक विधान कान व्यकि के लिये पूर्ण है इसलिये किसी युग है जो उस समय अधिक हिंसा रोकने के लिये में सभी धर्म समान पालनीय नहीं हो सकते। बनाये गये ये वे आज अनुचित है . मूर्तिपूजा उनमें से अनावश्यक याने निकाल देना चाहये। का विरोध भी अब आवश्यक नहीं है य सुधार या गौण करना चाहिये। और आवश्यक बातें कर लेना चाहिये। जोड़ देना चाहिये।
ये तो नमूने हैं सुधार करने की सब जगह जैसे-हिन्दू धर्म की वर्ण-व्यवस्था श्राज माफी सलत है। इसालये धर्मों की पालनीयर्ता विछन होगई है, वह मुर्ग होकर सड़ रही है, उसे सब में समान नहीं है। पर सत्र में इतनी समा. या वो मून के रूप में जाना चाहिये या नष्ट कर ना जरूर है कि देशमाल के अनुमार उनम देना चाहिये । इस समय नष्ट करना ही सम्भव सधार कर लिया जाय और उनकी नीति व्यापक है इसलिये वही करना चाहिये । वर्ण व्यवस्था और उदार बनाई जाय। नष्ट हो जाने से शूद्राधिकार की समस्या हल हो इन पाँच बातो का विचार कर लेने पर बायगी । रही लिग की शत, सो हिन्दु शास्त्रो धमों को तरतमता पर दृष्टि न जायगी और तर. में नारी के अधिकार में जो कमी है वह पूरी तमता के नाम से पैदा होनवाला मह दूर होता. करना चाहिये । जैन धर्म की साधु संस्था आज यगा। सभी धर्मों में भगवती हिंसा की छत्र अचहा या निरुपयोगी हो गई है, बाजरेसी डाया दिख पडेगी। यह दृष्टि की विफलता का एकान्त निवृत्तिमय साधु सस्था गुमप्रवृत्तिग्य ही परिणाम है कि हमें सब धर्मों में विराजमान होकर पाय बन गई है उसे नष्ट करना चाहिये भगवती हिंसा के दर्शन नहीं होते।
और सापयोग के स्थान में कर्मयोग को मुख्यता हट की विफलता के कारण प्रवृत्ति निवृत्ति वेना चाहिये । बौद्ध धर्म में अहिंसा का रूप विन श्रादि का रहस्य समझ में नहीं श्रागना है। हो गया है समास-मन का विधान दूर करना अन्यथा सभी कर्मों में पाप से निचि और विश्व
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फल गण में प्रवृत्त का विधान है। साधु-संस्था धर्म में भी पाया जाता है वह उचित और अमुक
आदि के सर में कहीं निवृत्ति धानना या वृत्त- अंश में आवश्यक है। मूर्ति की पूजाका निषे प्रशनना राई जाती है वह देशकान के अनुसार और मूर्ति के द्वारा दूजा (मूर्ति अवलम्बन) क थी उसमें पान के देसकाल के अनुसार सुधार कर विधान इन दोहों में स्पष्ट हुआ हैलेना चाहिये। मूर्तिपूना प्रमूर्तिपूग आदि का नाम RETI विरोध भी दृष्टि की विफलता का परिणाम है।।
दोनो का उपयोग है रुचि अवसर अनुसार। साधारणतः मूर्तिपूना किसी न किसी रूप में रहनी ही है उनके किसी एक रूप का विरोध
'मूनि बिना पूजा नहीं यह कहते नादान । देशकाल को देखकर करना पड़ता है, जैसे इस
मृति में न भवान है मन में है भगवान ॥ लाम को करना पड़ा। देवदेविया की मूर्तियाँ समझ रहे जो भूल से पत्थर को भगवान । दलबन्दी का कारण थी इसालय वे हटादी गई।
उनकी पूजा व्यर्थ है वे भोले नादान ।। पर मया की पवित्रता, अमुक पल्लर का श्रादर अतिशय माना मूर्ति में किया मूर्ति गुणगान । (जो कि एक तरह का मूति गर) रहा, क्योंकि तो पत्थर पूना हुई दिख न सका भगवान ।। इससे नलबन्दी नहीं होनी थी यलेक एकता होती है न मूर्ति की प्रार्थना है प्रभु का गुणगान । थी। मुनिपूजा के अमुक रूप के विरोध को देख- भ को पढ़ने के लिये है यह ग्रन्थ समान ।। कर किसी धर्म को मूर्तिपूजा का विरोधी समझ जिसे अपढ भी पढ़ सकें सा है यह प्रम लेना व्यापक दृष्टि के अभाव का परिणाम है। बाल वृद्ध सब के लिये सरल मूर्ति का पंथ ।।
यो भणोपम धर्मों को छोड़कर किसी धर्म मनि की न पूजा हुई हु - देव गुणगान । में मूर्ति की पूजा नहीं की जाती, सय में मूर्ति के अवलम्बन ले मर्ति का पूजलिया भगवान ।। द्वारा किसी भगवान की या आदर्श की पूजा की इस प्रकार विशाल दृष्टि से काम लिया जानी है। जहा मूर्ति के द्वारा प्रभु का गुणगान जाय तो धर्मों में विरोध का नम दूर हो जाय । किया जाता है मूर्ति का गुणगान नहीं किया
४ अनुमाता के संस्कारोंका त्याग-समजाना, वहां मूर्ति को पता नहीं कही जासकती भाव में बाधा डालनेवाले कारगों में चौ । कारण मूर्ति का अवलम्बन ही कहा ज्ञासकता है अव हारता के संस्कार हमारा धर्म ही सच्चा लम्बन लेने में कोई बुराई नहीं है। मूर्ति पूजा का बाकी सत्र धर्म झूठे हैं मिथ्यात्व हैं नास्तिक है विरोध करने वाज्ञा मुसलमान मी मसजिद का इस प्रकार के संस्कार बाल्यावस्था से ही डाले अवलम्बन लेता है, उसके विषय में मन में आदर जाते हैं इसका फल यह होता है कि उसे अपनी भी रखता है, किन्ला की तरफ मुंह करके ही एक बात में सच्चाई ही सच्चाई दिखाई देने नमाज पढ़ता है, यह सब मूर्ति अवलम्बन है। लगती है और दूसरे की बातो में बु। ई ही बुराई । दूसरे धर्मों में भी मूर्ति अवलम्बन पाया जाना हिन्दु सोचता है नमाज भी कोई प्रार्थना है। है। 1 युगने जमाने में जहां भलोपम तीर्थो न कोई स्वर संगीत न कोई आकर्षण । मुसलमान के कारण सनि की पूना की जाती थी और उससे सोचता है गलाफाड़ फाड़ कर चिल्लाना भी क्या अनेक अनर्थ भी होते थे, उसे रोकने के लिये कोई प्रार्थना है । एक पूर्व दिशा की बगई करता मति के उपयोग का निषेध किया गया, जैसे है एक पश्चिम की । एक संस्कृन की बराई करता इस्लाम ने किया यह उस जमाने को देखते हुए है एक घरवी की। कुसंस्कारों के कारण वह यह ठीक ही था। पर आजकल मूनि का जो अब नहीं सोच सकता कि कभी किसी को स्वर संग लम्बन है, जो इस्लाम सखेि मूर्तिपूजा विरोधी की जरूरत होती है कभी शान्ति और".."
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की। जिसकी जैमी चि हो उसको उसी ईग से २-उपयुक्त पदार्थो का क्रम से प्रत्यक्ष । काम कान देना चाहिये। खेद से इस बात का है किसी भी समय के किसी भी क्षेत्र के कि पर्रानन्दा आदि के संस्कार जितने डाले जाते पदार्थ का इच्छानुसार प्रत्यक्ष। है उतने असली धर्म के (सत्य अहिंसा सेवा शील ४-समस्त शास्त्रो का ज्ञान त्याग इमान्दारी श्रादि के) नहीं डाले जाते। शास्त्र का परिपूर्ण ज्ञान । अगर असली धर्म की तरफ हमाग ध्यान आक
६-अपने जमाने की सत्र से बड़ी विद्वत्ता . पित किया जाय तो सभी धर्मों में हमे असली
७-लोगों की जिज्ञासामा को शान्त करने . धर्म दिखाई दन हगे । और धर्म र नाम पर हम योग्य ज्ञान सब से प्रेम करने लगे, एक दूसरे के घर के
-आरज्ञाना समान एक दूसरे के धर्मस्थानों में आने लगे. कल्याण मा के लिये उपयोगी वाता जिस विविधता में हमें विरोध दिखाई देना है का अनुभव क पर्याप्त ज्ञान। इसमें अनेक रसवाल भोजन की तरह विविधता -यह गन्यता असम्भव और अनर्थकर फा भानन्द प्राने संगं । इसलिये वालको के ऊपर है। इसमें वह सी बाधाएं है पहिली बाधा यह एसे ही समभावी संस्कार हागना चाहिये जिससे है कि पदार्थ की अवाएं अनन् हैं औ सबका वे एफपता के गुनगम न हो एकता के प्रेमी हों। प्रत्यक्ष कने के लिये एक अन्तिम कवर का इस कार के संस्कारो से धमों का पारस्परिक जानना जरूरी है परन्तु वस्तु की कोई निगम विरोध दूर हो जायगा।
अवस्था ही नही है । तब उस पूर्ण प्रत्यक्ष कैसे ___ सर्वजना की उचित मान्यता प्राय हर
हो सकता है। अन्तिम अवस्था जान लेने पर
वस्तु का अन्त जाया जोकि असम्भव है। या धर्मवान ने यह मान लिया है कि हमारे धर्म
दूसरी शवा यह है कि एक समय में एक है। उसका प्रणेना सर्वज्ञ था किसी ने मनुष्य को सुर्वज्ञ
मनुष्य का स्वज्ञ योग हो सकता है अगर हम इस मनुष्यों को माना, किसी ने ईश्वर को सज्ञ मागकर अपने एक साथ खें तो हमें सामान्य मनुष्पज्ञान होगा धर्म की जड वहा यताई किसी ने अपने कर्म को दस मनुष्यों का जुदा-जुदा विशेषज्ञान नहीं। अपौरपेट-प्राकृतिर-मानार प्राणिमात्र की शक्ति इसलियं अगर कोई त्रिकाल त्रिलोक का युगपत स पर बताया। जनलय ह कि ाय हरएक प्रत्यक्ष करे वो उसे सब पढायों की मय अव. धर्म का अनुयायी बसवा करता है कि कुछ स्थानों में होनेवाली समानता का ज्ञान होगा। जानने या वह सा जानाल । उससे
सप वस्तु और सत्र अवस् ाओ का ज्ञान नहीं। अधिक लाना नहा जामका। इसे अधिक
प्रश्न- बहुन से लोग एक ही समय में जानने का दावा करते हैं वे झूठे हैं । सर्वक्षना
[ अनेक तरफ उपयोग लगा सकते हैं। साचार,
की रेम मुचित रूर ने सुगर का और विकास लोग भी एक ही समय में बहुत सी चीज का पा रानाको बन्द कर ही दिया. माथ ही अपने प्रत्यक्ष कर लव है नर युगपत् पस्यज्ञ में श्या ही धर्म , समाजकल्याण करनेवाले अन्य भापत है ? नमा का तिरस्कार गया, वृणा कराई।
उत्तर--ग्नि की एक छोटी सी मशाल मर्गना की गन्यता क तरह की है। प्रगर जोर से घुमाई जाय तो वह मशाल जितनी
-गारा गन्न क्षेत्र के समस्त जग में घूमेगी अनी जगह में सब जगह पर nari निसार नगपात प्रत्या। साबाई दगी पर एक समन में बा रहती
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है एक ही जगह । इसी कार जब बहुन जल्दी- उपयोग भी काफी हुआ है। अन्तिम अर्थात् जल्दी उपयोग बदलता है तब वह ऐसा मालूम नवमी अधिक अच्छी है । तीर्थकर पैगम्बर आदि होता है मानो सब जगह एक साथ है। यह एक इसी परिमापा के अनुसार सर्वज्ञ होते हैं । इस. भ्रम है जो शीघ्रता के कारण हो जाता है। लिये उनके वचन काफी विश्वसनीय है। तीसरी बाधा यह है कि असन का एस्यक्ष
___ इन साज्ञा से सब विपयों के विरोप ज्ञान नहीं हो सकता। अत्र पदार्थ किसी माध्यम के
की आशा न करना चाहिये और न अन्य विषयो । द्वाग हमारी इन्द्रिय और मन पर प्रभाव अलता
में इनके वचन प्रमाण मानना आवश्यक है। धर्म है तब उसका प्रत्यक्ष होता है जो पदार्थ नष्ट ही
विषय मे भी यही कहा जा सकता है कि वह
अपने युग का सर्वाज्ञ था ? देशकाल पात्र के बद. हो चुके या पैदा ही नहीं हुए ये क्या प्रभाष लने से जो जो परिस्थितियाँ पैदा होसकती हैं बालगे तब उनका प्रत्यक्ष कैस होगा इसलिये भी
और भविष्य मे हो जायेंगी उन सब का पूर्ण । त्रिकाल त्रिलोक के पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं हो
ज्ञान उसे नही था। इसलिये आज अगर ऐसी । सकता।
परिस्थितियाँ पैना होगई हैं जिसके लिये पुराने । क्रम से प्रत्यक्ष भी असम्भव है ! क्या विधान काम नहीं देसकने तो हमे अपने चुग के कि अनन्त क्षेत्र और अनन्त काल का कम से अनुकूल विधान बना लेना चाहिये, दूसरे धर्मो' मस किया जाय तो अनन्त काल लग जायगा। में अगर कोई विशेष बात पाई जाती है तो उसे
और मनुष्य जीवन को बहुन थोड़ा है। इस- अपना लेना चाहिये । इस प्रकार सुधार के लिय लिय अमन्त का कम से भी प्रत्यक्ष नहीं हो सदा तैयार रहना चाहिये । अपने धर्स को सदा सकता।
के लिये परिपूर्ण न समझना चाहिये। दसरी शत यह है कि कम से प्रत्यक्ष में न पाच वातों पर विचार करने से धर्म । पहिले बानी हुई बातो की धारणा करना पड़ती विरोध दर होजाता है। है। जब मर्यादा से अधिक धारणा की जायगी . ने जीवन का सभ्यता संस्कृति का बहुत तर पुरानी बाता की धारणा निटने लगेगी। इस
बडा भाग घेर लिया है, उसमें समन्वय या समकार क्रम से पात्यक्ष में न तो सभी पदार्थ जाने भवन होने पर जीवन का विकास रुकजाता है। ला सकते हैं और अगर किसी तरह जाने भी और सहयोग मी टूट जाता है। इसलिये धर्म: जॉय तो-न उनका धारण करना सम्भव हैं। समभाव आवश्यक है। ..
३-ग्रह भी असम्भव है क्याकि असत् इसका पूरा मतलब यह है कि जीवन के • पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं सका। विना माध्यम प्रत्येक आचार-विचार में निष्पक्षता होना चाहिये के हम किसी पदार्थ को नहीं जान सकते। जो मेरा है वह सत्य है, इसके बदले जा सत्य ।
४-शास्त्र रचना की प्रारम्भिक अवस्था में वह मेरा है. यह भावना होना चाहिये। एसी सर्वज्ञता सम्भव थी! अंब शान नाम का इसके सिवाय एक शान. ग्रह भी ध्यान - वृन इतभा. महान और शाखारशीग्या-बहल हो रखना चाहिर कि यदि कई बार हमारे लि. गया है कि उन सब को छू सकना कि मनुष्य हितका नही है किन्तु दूसार उसमे लाभ . की शक्ति के बाहर है। .
रहा है तो उसके पति सहानुभूति रखना चाहिये ___ पाच से आठ तक की परिभाषाएं सावा हम जो भाषा बोलते हैं, हम जिनप्रकार के विटा रगत. ठीक है । भूनकाल मे इन परिभाषा का चारस पालन करते हैं. हम जिलाकार
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पापा
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गीत
मोजन पसन्द करते हैं उसके सिवाय दूसरे प्रकारों ३ जाति-समभाव (सानो सम्ममावो) फी हँसी उड़ाना, या द्वीप करना ठीक नहीं।। इसकी अगर आलोचना करना हो तो अपने पराये योगी का तीसरा दिख जातिसमभाव है। का भेद भूलकर, सविधा-असविधा का विचार हाथी घोड़ा सिंह 38 आदि जिस प्रकार एक फर, तथा अन्य हानि लामका विचारकर, करना एक तरह के गणी हैं उसी प्रकार मनुष्य मी एक चाहिये।
तरह का प्राणी है। मान्य शद पशु श द को धर्म समभाव सब की चापलूसी नहीं है,
तरह नाना तरह के प्राणा के समुदाय का
वाचक नहीं है, किन्तु सिंहादि शना की तरह विवेक को तिलालि नहीं है किन्तु सब के दोषों
एक ही तरह क प्राणी का वाचक है। या तो तथा युगवाहताओं को दूर कर गुणो का ग्रहण व्यक्ति व्यक्ति में भेद हा करता है और उन है, धार्मिक अहंकार और पक्षपात का त्याग है, भेगका थोड़ा बहुत वर्गीकरण भी हो सकता है और नि:पक्षतापूर्वक विनयपूर्ण आलोचना भी। परन्तु उन वर्गों को जातिभेद का कारण नहीं
योगी होने के लिये यह सवधर्म समभाव कह सकते । जातिभेद के लिये सहज दाम्पत्य का प्रावश्यक है।
अमाव और आकृति की अधिक विषमता आवश्यक है। मनुष्यो में ऐसी विषमता नहीं पाई
जाती और उनमें दाम्पत्य स्वाभाविक और मिलाये सब धर्मों का सार। सन्तानोत्पादक होना है। किसी भी जाति के हम सब का निचोड़ लेआयें।
पुरुष का सम्बन्ध किसी भी जाति की खो से होने धर्म और विज्ञान मिलायें ॥
पर सन्तानोत्पत्ति होगी: शरीरपरिमाण आदि के
अन्तर की बात दूसरी है। इससे मालूम होना है युगयुग की यह प्यास बुझायें, पियें पिलायें प्यार। कि मनुष्यमात्र एक ज्ञाति है।
मिलायें सब धर्मों का सार ॥१॥ प्राय: सभी धर्मशास्त्रों में इस बात का सब रस मिलें सजायें थाली।
उल्लेख मिलता है कि सभी मनुष्यों की एक जाति मिन्न भिन्न फूलों के साली ॥
है। आज जो इनके भेइ-रमे दिखाई देते हैं वे बरहतियों सन्न घने समधिन सुधरे लोकाचार। होनेवाले मेद मनुष्य की एक जातीयता को नष्ट
मौलिक नहीं है । वातावरण भादि के कारण पैदा मिलायें सब धर्मों का सार ॥२॥ नहीं कर सकते। भूत भविष्य न लड़ने पायें।
वैदिक शास्त्रों में मनुष्यों को मनुसन्तान पर्तमान से हिल मिलजाण ॥ कहा है इससे उनमें एकजातीयता ही नहीं एक देश देश की काल काल की बहे समन्वय धार। कादम्बकता
कौटुम्विकता भी सिद्ध होनी है। इसनराम और मिलायें सब धर्मो का सार ॥३॥
ईसाई धर्म के अनुसार सब मनुष्य आदम की
सन्तान हैं इसलिये भी उनमें भाईचारा सिद्ध मानवता का गाना गायें । होता है। जैनशास्त्रों के भोगभूमि युग के वर्णन
सर्वधर्म समभाष सुनायें ॥ से मनुष्यमात्र की एक जाति की मान्यता सर्व. भित मिन हो वार किन्तु हो मिली जुली मंकार। सम्मत मालून होती है। इस प्रकार प्राकृतिक
मिनायें सब धर्मों का सारा॥ दृष्टि से और शास्त्रों की मान्यता से सत्र मनुष्यों
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की एक अति सिद्ध होती है।
दूसरी जाति के न्याय का भी विरोध करता है । __इतना होने पर भी आज मनुष्य जाति अन्त में न्याय के पराजय और अन्याय के विजय अनेक माना में विभक्त है। इसके कारण कुछ कालो फल हो सकता है, वह मनुष्य-जाति को भी हो, परन्तु इससे जो अधर्म हो रहा है, जो ही भोगना पड़ता है। विनाश हो रहा है, दु:ख और अशान्ति का जो विवश होकर मनुष्य को कूपमंडूक बनना विस्तार हो रहा है, वह मनुष्य सरीखे बुद्धिमान पड़ता है, क्योंकि वह घर के बाहिर निकल कर प्राणी के लिये लज्जा की बात है। बुद्धि तो सजातीयों के अभाव से वहा टिक नहीं सकता। पशुओ मे भी होती है, परन्तु मनुष्य को बुद्धि जब सारी जाति की जाति इस विषय में विशेष कुछ दूर तक की बात विचार सका है। लेकिन उद्योग करती है, तब कहीं थोड़ा-बहुत क्षेत्र पढ़ता इस विषय में उसकी विचारकता व्यर्थ जाती है। परन्तु इस कार्य में शतानियों लग जाती हैं देखकर आश्चर्य और खेद होता है। तथा बाहिर निकलने पर भी कूपमंडूकता दूर
मनुष्य भी एक सामाजिक प्राणी है, बल्कि नहीं होना। अन्य प्राणियों की अपेक्षा वह बहुत अधिक
६-अपना क्षेत्र बढ़ाने के लिये दूसरी जातियां सामाजिक है । इसलिये सहयोग और प्रेम उसमें कुछ अधिक मात्रा में और विशाल रूप में होना का
का नाश करना पड़ता है। इससे दोनों तरफ के चाहिये । परन्तु जातिभेद की कामना करके मनुष्यों का नाश और धन नाश होता है तथा मनुष्य ने सहयोग के तत्व का नाश सा कर दिया चिरकाल के लिये वेर बन जाता है। है, इसमे अन्य अनेक अन्यायों और दुःखो की एक ऐसा अहंकार पैदा होता है जिसे सृष्टि कर डाली है। जाति की कल्पना से जो मनुष्य पाप नहीं समझना जब कि पात्मक कुत्र हारियाँ हुई हैं और होती है उनमें मुख्य तथा अनेक पापो का कारण होने से वह महा. मुख्य ये हैं।
पाप है। १-विवाह का क्षेत्र संकुचित हो जाना है। ईमानदार मनुष्यों में भी जातिभेद के इमसें योग्य चुनाव में कठिनाई होने लगी है। कारण अविश्वास रहता है। इससे सहयोग नहीं
और अल्पसंख्यक होने पर जाति का नाश हो होने पाता। इससे उन्नति रुकती है। लोकोप जाता है।
कारक संस्थाएं भी पारस्परिक उपेक्षा और वे २-कभी कमी जब युवक-युवती में श्रापस के कारण सारहीन तथा अकिञ्चित्कार हो जाती में प्रेम हो जाता है, और वह दाम्पस प धारण हैं। करना चाहता है, तब यह जातिमे की दीवाल इस प्रकार की अनेक हानियाँ है। यदि जनके जीवन का नाश कर देती है। या तो उनको आनिमेट की दुर्वासना को नष्ट कर दिया बार आत्महत्या करना पड़नी है अथवा बहिष्कृत तो इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य जाति के पं. जीवन व्यतीत करने से अनेक प्रकार की दुदेशा का एक बड़ा भारी भाग नष्ट हो जाय । । मोगना पडती है।
सुविधा के लिये कुटुम्त्री, सम्बधी तथा मित्र - 3-जाति के नामपर बने हुए दल लड-झगड़ की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को होती है, कर एक दूसरे का नाश करते हैं। न खुब चैन से उसकी रखना हुआ करे। ये सब रचनाएँ तो बैठते हैं, न दूसरो को चैन से बैठने देते हैं। क्तिक जीवन मे समाजाती हैं। इनमें कोई छ ।
४-जातीय पक्षपात के कारण मनुष्य अपनी गत बुराई नहीं है। सम्बन्ध तो चाहे जिस मनु सानि के अन्याय का भी पोपण करता है, और के साथ किया जा सस्ता है और उसे मित्र
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धनाया जा सकता है। इसलिय इसमें जन्मगत यह वर्णभेट मौलिक है, यह बात कोई सिद्ध या उसके समान करता नहीं है और न इसका नही कर सकता । जहा हम रहते हैं, वहां के जलक्षेत्र हनना विशान हो सत्ता है कि समाजको चायु का जो प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है, सुब्ध करन वाला बुरा असर डाल सकें। उसीसे हम काले बोरे आदि बन जाते हैं। वही
रंग सन्तान प्रति सन्तान से आगे की पीढ़ी को जातिभवी कल्पना के द्वार अगरियन है मिलता जाता है। परन्तु अगर जलवायु प्रतिकूल ग्राहकार का पुजारी यह मनुध्य-प्राणी न जाने किनने ढंग से जानिमद की पूजा किया करता
हो तो कई पीढियोंमें वह बिलकुल बदल जाता है। है। उन सबका गिताना तो कठिन है और उनको
हा, इसमें सैकड़ों वर्ष अवश्य लग जाते है क्योंकि गिनाने की इननी जारत भी नहीं है, क्योंकि
जलवायु का प्रभाव वाहिरी होता है और माता
पिताके ग्लवीर्यका प्रभाव भीतरी। परन्तु मौलिक आनिम के दुर हो जाने से उसके विवियरुप
रूप में यह रंग-मेह शीत उष्ण आदि वातावरण दूर हो जाने हैं। फिर भी स्पष्टता के लिये ना. काही फल है। गोरी जानियाँ अगर गरम rry तौरपर उनपर विचार कर लेना इचिन देशभइसजाँय तो कुन शनादियों के बाद व है. जिससे यह मालूम हो जाय कि किस तरह का जातिभंट किस तरह की हानि कर रहा है,
काली हो जायगी और काली जातियों अगर और उसे हटाने के लिये हमें क्या करना चाहिये।
ठंडे देशा में बस जाय तो वे कुछ शादियों क
बाद गोरी हो जायगी। इसलिये काले गोरे श्रादि समंद (गोधको )-जिन लोगों के बहा भेदों से मनुष्य-जाति के टुकड़े कर डालना, छोटा होटा जानिभेद नहीं है, उनके यहा भी भरी न्याय की पहन करके एक रंग का दूसरे रंग पाली, काली लाल जातियों का थेट बना हुआ पर अत्याचार करना मनुष्यता का दिवाला ६। चीन और जापान पोनी जाति के लोग माने निकाल देना है। जाने है। इसमें प्रवसिप्ट एशिया के अन्याय की जो मौलिक विशेषताएँ हैं, वे पनिणी शो का बहुभाग तथा प्रामिका के सभी रंग के मनुष्यों में पाई जाती है। गौर मन निवासी काली जाति माने जाते है। अमे. मनप्य दयाल भी होते हैं और कलर भी ईमानरिका में भी ये लोग बसे हुए है। अमेरिका के चार भी होते है और वेईमान भी। यही हात मूलनिवासी लाल जाति के रेड इंडियन ] कह• काली. पीला श्रादि का भी है। एक काला लगते है जिनकी संख्श अब बहुत थोडी है। भाभी गोरे की सेवा कर, सहायता दे और घगपोच लोग ये यूरोप में हो या अन्यत्र, भूरी दृतग गोरा आदमी उसे घोल्य दे, लूटले, तो उस गति के लोग रहलान है। यह जातिभेद कपन गोरे गोबर काला आममी अच्छा मालूम होगा का प्रया में बहुन अगर फैला हुआ है। वह गोग युग। मनुष्यता की, हदय की.
नीगने की आता या पल र न्यायको प्रावाज यही है मनुष्य पशुओ तक से
गाने ने मरे ग न्यासकर मिना रखना है। एक गोग मनुष्य काले घोडेसे मियानगोगा की पकी प्रेम कर मरता है, और एक काला पान्मी मफेट पगामायानन पाट मानकानन घाज से, नय रंग-भे कारण मनुप्र मनाय में गहमाग राईनाथा। अभी भी से भी प्रेम नमसरं, यह कैसी प्रानजनक
गयायाम परिसर भी मूडना । रोमेन ! आज भी मभी निज पर नहीं आते मी एक
पर भी गगी चालीसा गुम्ब तोता है, कमी दूसरे रंगवानी ARE TARina मौत। 1न अवामा उन्नन नाना
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धाष्टिकांड
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मनुष्यता है उसको पीस डालने की चेष्टा करना कष्ट नहीं मालूम होता तो इसमे किसी तीसरे । मनुष्यता का नाश है। इससे वंश परंपरा के या समाज को कुछ कहने की क्या जरूरत है लिये वैर ही बढ़ता है, और बारी बारी से सभी इसमे दोनो को ही अपना अपना खयाल व का नाश होता है। और वर्तमान में भी हम चैन लेना चाहिये । से नहीं रहने पाते। ईमानदारी प्रेम आदि सद्- जिनमें यह वर्णाभिमान अच्छी तरह घुरु गुण ही एक दूसरे को सुख देनेनाले हैं । ये हुआ है, किन्तु नैतिक दृष्टि से जब वे इस जा जिनमे हो उन्हें ही अपना मित्र, बन्धु और सजा- मद का सहारा नहीं ले पाते, तब इस प्रकार व तीय समझना चाहिये, भले ही वे किसी भी रंग छोटी छोटी बातों को अनुचित महत्व देने लग के हो। जिन में ये न हो उन्हें ही विज्ञातीय समः है। अगर गंधभेद की यह बात इतनी भयंक झना चाहिये फिर भले ही वह अपना सगा होती तो भारत में यूरेशियन-जो कि अपने व भाई ही क्यों न हो। इस प्रकार की नि:पक्षता एंग्लोइंडियन कहते है क्यो बनते ? अमेरिय को अगर हम रख सके और उसका उदारता से आदि देशों में इतना विरोध रहने पर भी ऐ उपयोग कर सके तो मनुष्य म जो पशुत्व हे सम्बन्ध होते ही हैं। भारतीयो के पूर्वज भी दर उसका अधिकाश दूर हो जाय, इयो, अशाति सम्बन्ध कर चुके हैं, इलिये आज भी उना
आदि का तांडव कम हो जाय । अगर एसा न काले गारे का मेद बना हुआ है, और यह भे होगा तो एक दिन ऐसा आयगा जब दुनिया क छोटी छोटी उपजातियों में भी पाया जाता हे मनय रंगा के नामपर दो दल मे बँटकर राक्षसी फिर जातियों में ही क्यो १ प्रत्येक व्यक्ति यद करंगे और जिसकी परम्रग सेकड़ा व शिरीर की गंध जुदी होती है, परन्तु इसीसे वैवा तक जायगी भोर इस अग्नि में मनुष्य जानि हिक सम्बन्ध का विस्तार नहीं रुकता। बल्लि स्वाहा हो जायगी।
वैवाहिक सन्यन्ध के लिये अमुक परिमाण जातिमेट को तोडने का उपाय तो हृदय शारीरिक विषमता आवश्यक और लाभकर मान की उदारता ही है। परन्तु इसका एक मुख्य जाती है, इसीलिये बहिन-भाई का विवाह शारीनिमित्त पारम्परिक विवाह सम्बन्ध है। जाति के रिकष्टि से भी बुरा समझा जाता है। स्त्री-पुरुप नाम पर मनध्यमान में वैवाहिक क्षेत्र की कैटन के शरीर में ही रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की विपहोना चाहिये। अगर अधिक परिमाण में से मता अमुक परिमाण में पाई जाती है। इसलिये विवाह सम्बन्ध होने लगें तो दोनों के बीचकामी विषमनाओ की दुहाई देकर मनुष्यजाति के
अन्तर अवश्य ही कम हो सकता है। हा, इस टुकड़े नहीं करना चाहिये। अगर इस विषय पर काम मे विवाह सम्बन्धी समस्त सुविधाओं का कुछ विचार भी करना हो तो यह विचार व्यक्ति स्वयाल अवश्य रखना शहिय
पर छोडना चाहिये। विवाह करनेवाला व्यक्ति कहा जाता है कि काली, गोरी आहे इस बात को विचारले कि जिसके साथ मैं जातियों के शरीर में गन्धकी एक विशेषता होती सम्बन्ध जोड रहा हूँ उसको गन्ध और रग स्पर्श है जो एक दूसरे को दुर्गन्ध भालूम होती है। श्रादि मुझे सहा है कि नहीं। यदि उसे कोई यह ठीक है । मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि यह आपत्ति न हो नो फिर क्या चिन्ता है ? एक बात रंगभेद अलवाय, भोजन आदि के भेदसं सम्बन्ध और है कि कोई भी गध हो, जिसके संसर्ग में रखता है, इसलिये वर्णके समान गन्ध भी हम आते रहते हैं उसकी उम्रता या कटना बली थोडा बहर मे हो, यह स्वाभाविक है। परन्तु जाती है । एक शासभोलो मछलियों क बाजार यह तो व्यक्तिगत बात है। अगर विभिन्न वर्णके में वमन कर देगा, परन्तु मछुओं को वहा सुगन्ध नम्पनि में प्रेम है, शारीरिक मिलन में भी उन्हे ही आती है। इसलिये गंवादि की दुहाई देना
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सत्यामृत
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व्यर्थ है। हा, कोई शारीरिक विकारसा हो जिसका सभात्र पाया जाता है। अगर कहीं किसी बात दूसरे के शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता हो तो बात की बहलता देखी जाती है तो उसका कारण परि. दूसरी है, उसका बचाव अवश्य करना चाहिये। स्थिति है. जाति नहीं। परिस्थिति के बदलने से परन्तु मे शारीरिक विकार एक जाति उपगति बुरी जाति का मनुष्य अच्छा से अच्छा होजाता के भीतर भी पाये जा सकते हैं और दा के है। आफ्रिका के जो हशी अभी जंगली अवस्था जातिमेद में भी नहीं पाये जा सकते हैं इसलिये में रहते हैं सदाचार और सभ्यता का विचार जातिभेत के नाम पर इस बात पर ध्यान देने जिनमें वहन ही कम पाया जाता है, उन्ही में से की जरूरत नहीं है।
बहुत से हब्शी अमेरिका में बसने पर अमेरिकनों ____ इस जातिभेन के नामपर एक आक्षेत्र यह सरीखे सभ्य सुशिक्षित हो गये हैं, हालांकि उनको भी किया जाना है कि इस प्रकार के वर्णान्तर. जैसे चाहिये वैसे साबन नहीं मिले इससे विवाहों से सन्तान ठीक नही होतो 1 अमुक मालूम होता है कि किसी भी गुण का ठेका किसी जगह कुछ गो ने हशी पों से शादी की जाति विशेप-वर्ण:वशेष ने नहीं लिया है। परतु उनकी सन्तान गोरा के समान वीर, साहसी इसका यह मतलब नहीं है कि एक सुसभ्य
और बुद्धिमान न निकली . यह श्राक्षेप भी शता- नागरिक को जंगली लोगो से वैवाहिक सम्बन्ध न्दियों के अंध-संस्कार का फल है। ऐसे आक्षेप अवश्य स्थापित करना चाहिये । उदारता के नाम करते समय वे उसके असली कारणा को भूल पर अनमेल विवाह करने की कोइ जल त नहीं जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि जिस बालक को हैनरूरत सिर्फ इस बात की है कि हम जातिभेद
स नहा दुखत के नामपर किसी को वैवाहिक सम्बन्ध में जुटा उसे नीच पतित और विजातीय समझकर थोडी न समझे । एकजंगली करतिके साथ हम सम्बन्ध बहुत घृणा रखते हैं, उसमें उस समाज के गुण नहीं उतरते। बच्चे को यदि समाज से बाहर कर
नहीं करते इसका कारण यह न होना चाहिये कि दिया जाय तो पशु में और उसमें कुछ अन्तर न ।
उसकी जाति जुटी है किन्तु यह होना चाहिये कि होगा। अभी मा मनुष्य में जातिभेद इतना
उसकी शिक्षा, सभ्यता, स्वभाव आदि से मेत अधिक है कि वर्णान्तर विवाह होनेपर भी साधा.
नहीं खाता जाति के नामपर जब हम किसी के रण मनुष्य इससे घृणा ही करता है। फल यह
साथ सम्बन्ध नहीं करते, तब उसका अर्थ यह होता है कि इस विवाद को सन्तान को एक होता है कि अगर यह सब बाता में हमारे समान प्रकार का असहयोग सहन करना पड़ता है। इस और अनुकूल हो जाय तो भी हम उसे जुना ही लिये समाज के गुए पालक को अच्छी तरह नहीं समझेगे इस प्रकार हमारा भेदभाव सहा के मिलने : दुसरा कारण यह है कि सन्तान पर लिये होगा । यही एक वटा भारी अनर्थ है इममाता और पिता दोनों का थोड़ा थोड़ा प्रभाव लिये जातिमद को दूर करने के लिये हम इस पढ़ता है । अब अगर उसमें से एक पक्ष अच्छी बात का रढ़ निश्चय करले कि अगर हमें किसी हो और दूसरा पक्ष हीन हो तो यह स्वाभाविक के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ना है तो इसके कारण है कि सन्तति मध्यम श्रेणी की हो। इसलिये में हजार बातें कहें परन्तु उनमें जाति का अपने अनुरूप व्यक्ति से सम्बन्ध जोडना चाहिये। नाम न आना चाहिये सच्चे दिल से इस वान ऐसी हालत मे सन्तति अवश्य ही अपने अनुरूप का पालन करना चाहिये। होगी। धीरता, बुद्धिमत्ता सदाचार, आदि गुण राष्ट्रभेद (शै अको)-जातिभेद के अन्य
से नहीं हैं कि उनका ठेका किसी जाति-विशेष रूपों से राष्ट्र के नाम पर बने हुए जातिभेड मे ने लिया छा। सभी डानिया में इन गुणों का एक बेडा भारी मेद है । अन्य जातिमा राजनीति
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हाटकाड
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से परम्परा-सम्बन्ध रखत हैं और बहुन सी जगह कराहती हुई मनुष्यता की छाती पर जिनने रत्न. नही रखते है, परन्तु राष्ट्र के नासपर बना हुआ अटिन सिंहासन जमाये, पर कुछ समय तक जातिभेद राजनीति के साथ साक्षात सम्नन्ध उन्मादी अत्याचारी जीवन व्यतीत करके अन्त रखता है। और इसके नामपर चान की बात में में धराशायी हो गये। तलवारे निकल पाती है, मनुष्य भाजी-जरकारी की तरह काटा जाने लगता है, और इसे कहते
साम्राज्यवाद की यह भयकर ग्यास और
राष्ट्रीयता का उन्मान प्राय: समस्त स्वतन्त्र राष्ट्रा है देशप्रेम, देशभकि, नशसेवा आदि।
को प्रशान्त और पागल बनाय हुए है। राज्य राप्त था देश आखिर है क्या वस्तु ? पर्वत की जो शक्तियों मनुष्य की सुग्व-गान्ति के बढाने समुद्र आदि प्राकृतिक सीमा से गद्ध मनुष्यों के
में काम पा सकनी हैं, उनका अविकाश मनुष्य निवासस्थान ही तो है। परन्तु क्या ये सीमा
के सहार मे लगा हुआ है। राज्य की आमदानी मनुष्या के हृदय को कैट कर सकती हैं ? क्या ये मिट्टी के ढेर और पानी की राशि मनुष्यता के
का बहुभाग सेना और लडाई की तैयारी में सर्च टुकड़े टुकड़े करने के लिये हैं। इन सीमाओ को
होता है, मशीने मनुष्य सहार की सामग्री तैयार तो मनुष्य ने इतिहासातीत काल से पार कर करने में लगी हुई है, वैज्ञानिको की अविकाश लिया है। न पहाड़ा के अभ्रकश शिखर उसकी
शक्तियाँ मनुष्य-सहार के आविष्कार में डटी गति को रोक सके हैं, न अगाध जलराशि । और हुई है, माना इस पागल मनु यज्ञादि ने मनुष्य श्राज तो मनुष्यजाति ने इनपर इतनी अधिक जाति को नष्ट कानी अपना ध्येय बनालिया हो विजय पाई है कि माना ये सीमाएं उसके लिये आत्महत्या या नरक की सृष्टि करना ही इसका है ही नहीं। फिर समझ में नहीं आता कि मनुष्य श बन गया हो। सीमाओ से घिरे हुए इन स्थाना के नामपर क्यो यदि यही शक्तियाँ प्रकृति पर विजय पाने अहंकार करता है ? क्यो लडना है ? क्यो मनु. में, उसका रहस्योद्घाटन करने में, उसके म्नन, प्यता का नाश करता है।
से अमृतोपम दूध पीने म, मनुष्य की मनु यता राष्ट्रीयता का जब यह नशा मनुष्य के अर्थात मनु योचित गुणों के विकास करने में सिर पर भूत की तरह सयार होता है, और जब लगाई जाती नो मबल और निच सभी राष्ट्र मनुष्य हुकार हुकार का दूसरे गष्ट्र को चबा आज की अपेक्षा बहुत अधिक सुम्नी होत । जो डालना चाहता है, तब नझारखाने में तूना की भाज असभ्य, अर्घसम्म नथा निर्बल है, वे सरत आवाज की तरह मनुष्यता का यह सन्देश उसके और सभ्य बने होत और जो मत्रल है, सम्प कानो मे नहीं पहुँचना। परन्तु नशा उतरने के कहलाते हैं, वे घृणापान होने के बदले आदरपात्र वाह जब उसके अग अग ढीले होजाते है, तब बने होते । इस प्रकार उन्हे भी शान्ति मिनाहानी, वह अपनी मूर्यता का अनुभव करता है। परन्तु तथा दूसरों को भी शान्ति मिली भेती । शरानी इतने ही अनुभव से गाय नहीं छोडता। न एक दिन मनुपय को यह बात समयही दशा राष्ट्रीयता के नशेनाजो को है। च नशे मना पडगी। इस राष्ट्रीयता के उन्माद के कारण क कटु अनुभव को शीघ्र ही सुनकर फिर वही प्रत्येक राष्ट्र की प्रजा तबाह होरही है। जिन नशा करते है । इस प्रकार राष्ट्रीना नशे म प्रकार लुटेरे वही घडी लूट कर भी चैन से चिरकाल स मनुष्यजाति का ध्वल हाना ना गेटी नहीं मानते, और प्रापमा
दुसरं से डरत है, की हालत साम्राज्यवादी बड़े बड़े सान्नाव्य खड़े हु जिनने मनुष्य- लुटेरे राष्ट्र की होती है। हमारा देश की प्रा. जाति के अस्थि-पडसे अपना सिहामन बनाग, पर लडाईकर का बोम इनाना मागे टोनाक
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मत्याभून
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इसकी कमर टूट जाती है, और भय तथा भी आत्मरक्षण अभ्याम्य अाक्रमण स अपने चिन्ता के मारे चैन से नीद नहीं आती। मनुस्य को बचाना 7 मे होनेवालो हिसा पाप नहीं है। प्रान अपनी ही छाया से डरकर काप रहा है, उसी प्रकार राष्ट्रीयता पाप होने पर भी श्रात्म मनुष्य जाति अपने ही अंगों से अपने अग रक्षण के लिये-अत्याचार के विरोध के लियतोड रही है। प्राचीन युग में जिस प्रकार छोटे राष्ट्रीयता की उपासना पाप नहीं है। बल्कि जो छोटे सरदार दल बाधकर आपस में लड़ने में राष्ट्रसं भी छोटी छोटी दलबिन्दया के चार में अपना जीवन लगा देते थे, इस प्रकार कभी दूसरो पड कर राष्ट्रीयता से भी अधिक मनु वता का को सताते थे, और कभी दूसरी से सनाये जाते नाश कर रहे है, उनके लिये रास्ट्रीयता आगे को थे, इसी प्रकार आज मनुष्य जाति राष्ट्रीयना के मजिल है। इसलिये चे अभी राष्ट्रीयता की पूजा मुद्र स्वार्थों के नाम पर लड़ रही है। पुराने सर- फरक मनष्यता की ही पूजा करेंगे। इनकी गन्दोदारो की शुद्र मनोवृत्ति पर आज का सनुपय पासना दुसरा के कहर गद्रीयतारूपी पाप को हसता है, परन्तु क्या वही मनोवृत्ति कुछ विशाल दूर करने के लिये होगी। रूप में राष्ट्रीयता के उन्माद में नहीं है। क्या राष्टीयना के अपवादो को छोड़कर वह भी हसन लायक नहीं है ? क्या मनुष्य अन्य किसी ढंग से गष्ट्रीयता को उपासना किसी दिन अपनी इस मूर्खता और मुद्रा को करना मनुष्य जाति के टुकड़े करके उस विनाश न समोगा।
के पत्रपर आगे बढ़ाना है। राष्ट्र की जाति का हा कभी कभी मनुष्य में राष्ट्रीयता पवित्र रूप देना तो एक मूर्खता ही है। मनुष्य में रूप में भी आती है, वह तब, जब कि वह मनु- कोई जाति तो है ही नहीं परन्तु जिनको मनुष्य प्यता की दासी पुत्री-अग बन जाती है। उस ने जानि नमस रक्या है. उनका मिश्रण प्रत्येक ममय वह मनुष्यता का विरोध नहीं करती, सेवा जाति में हुआ है । भारतवर्ष में प्रार्य और करतो हे सिपाही यदि सरकार का सेवक वन द्रविड मिलकर बहन कुछ एक होगये है। शक, कर हमारे पास आवे तो हम उसका श्रावर हण पाहि भी मिल गये हैं। मुसलमाता के साथ करेंगे परन्तु यदि वह स्वय सरकार बनकर हमारे भी रक-भिन्नण होगया है। अमेरिका तो अमा सिर पर सवारी गाठना चाहे तो वह हमारा शत्रु कल ही अनेक राष्ट्र के लोगों से मिलकर एक है। इसी प्रकार जब राष्ट्रीयता, मनुष्यता की राष्ट्र बना है। इसी प्रकार दुनिया के अन्य किसी दासी बनकर, मनुष्यता के रक्षण के लिये पाती
भी देश के इतिहास को देखो तो पता लगेगा कि है तब यह देवी की तरह पूज्य है। परन्तु अब उसमें अनेक तरह के लोगों का मिश्रण हुआ है वह मनुष्यता का भक्षण करने के लिये हमारे
इससे मालूम होता है कि गाटू भेद से भी जातिपास आती है तब वह शत्रु के समान है । मनः भेद का कोई सम्बन्ध नहीं है । इस ष्टि से भी झं रक्षण के लिए, जीवन की शांति के लिये, हमें मनध्य-जाति एक है। उसका परित्याग करना चाहिये।
यहकार का पुजारी यह कभी कभी पाप गति एक राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के ऊपर की पूजा को भी धर्मपूजा का रूप देता है शैतान आक्रमण करता है, उसे पराधीन कमाता है, या को खुदा के बेप मे सजाता है और स्तुति के बनाये हुए है, इसलिये पीड़ित राष्ट्र अगर राष्ट्रीलिये अच्छे शो की रचना करता है। वह यता को पासना करता है, तो वह मनुष्यता को अहंकारपूर्व कटर राष्ट्रीयता की पूक्षा के लिये हो पपासना है, क्योंकि इसमें अत्याचार या सभ्यता सस्कृति आदि की दुहाई देता है। परंतु अत्याचारी काही विरोध किया जाता है, मनुः जुदे जुदे देशों की सभ्यता संस्कृति आदि आखिर प्यना का नहीं जिस प्रकार हिंसा पाप होने पर क्या बना है। और इसकी उपासना का क्या
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अर्थ है । धेषभूपा और भाषा को अगर किसी को भी गोबर से लीपना, बिजली के उजेले में भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति कहा जाय तव तो समाई जलाना शायद संस्कृति और सभ्यता का उसकी दुहाई देना व्यर्थ है। प्रत्येक देश की रक्षण है। वास्तव में इस प्रकार के अन्धनुभाषा कुछ शतान्दियों के बाद बदलती रही है। करणां को संस्कृति और सभ्यता की रक्षा कहना जो प्राकृत भापाएँ दो हजार वर्ष पहिले भारन उन अच्छे शब्दो की मिट्टी पलीत करना है। में प्रायः सर्वत्र बोली जाती थी और जो अपभ्रंश
___मनुप्य, जन्म के समय पशु के समान भाषाएँ हजार वर्ष पहिले ही प्राकृत की तरह होता हे ! उसको युग के अनुरूप अच्छा से बोली जाती थी, आज इनेगिने पंडितों को छोड. अच्छा मनुषय बनाने के लिये जो प्रभावशाली कर उन्हें कोई समझता भी नहीं, फिर बोलनेकी तो प्रयत्न किया जाता है उसका नाम है संस्कृति, वाद ही दूर है। अगर भाषा का नाम संस्कृति और दूसरे को कष्ट न हो इस प्रकार के व्यवहार हो तव तो हम उसका त्याग ही कर चुके हैं। का नाम है सभ्यना। इस प्रकार की सभ्यता यह बात दूसरी है कि अहंकार की पूजा करने और संस्कृति का रुढ़िया के अन्ध-अनुकरण के के लिये हम उन मत भाषाओं के नाम के गीत साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। गात हा, परन्तु हमारे जीवन में उनका कोई
यदि किसी जमाने मे चोर डाकुओं के डर व्यावहारिक स्थान नहीं रह गया है। लेटिन,
क मारे हम मकानों में अविक विडकिया नहीं संस्कृत आदि सभी भाषाओं की यही दशा है।
रखते थे, और अब परिस्थिति बदल जाने से इसलिये वह सभ्यत्ता तो गई।
___ रखते हैं तो इसका अर्थ सभ्यता और संस्कृति वेषभूषा बदलने के लियं तां शताड़ियों का त्याग नहीं है। समयानुसार स्वपरसुखबद्धक नहीं, दशाब्दियाँ हो बहुत हैं । भारत के श्रार्य जो परिवर्तन करने से सस्कृति का नाश नहीं होता, पोशाक पहिना करते थे, उसका कहीं पर भी बल्कि. संस्कृति का नाश होता है रूढियों की नहीं है । उसके आगे की न जाने कितनी पीढ़ियों गुलामी से । क्योंकि सदियो की गलामी से वद्धिगजर गई। उत्तरीय वख के पीछे अंगरखा, विवेक की कमी मालूम होती है जोकि मनश्यत्य कुरता, कोट, कमीज आदि पीढियाँ चली पानी की कमी है, और जड़ता को वृद्धि मालूम होती हैं। वही बात नारियों की पोशाक के विषय में है जोकि पशुत्व की वृद्धि है। सरमति का काम है। वाहन, नगर रचना आदि समी वातो में प्राणी को पशुच से मनुपयत्व की ओर लेताना विचित्र परिवर्तन होगये है। संसार के सभी देशो है, न कि मनुष्यत्य से पशत्व की ओर लौटाना की यह दशा है। पुराने युग के चित्र तो श्रय यदि कोई देश अपनी पुरानी अनावश्यक चीजों अजायबघरो और नाटक-सिनेमा के तिहासिक से चिपट रहा है और दूसरों के अच्छे तत्वों को चित्रण में ही देखने मिलते है। सभ्यता और ग्रहण नहीं कर रहा है या ग्रहण करने में अप. संस्कृति के नाम पर उन पुरानी चीजो को छाती मान समझ रहा है तो वह मंस्कृति की रक्षा नही. से चिपटाये रहने की जरूरत नही रही है। नाश कर रहा है। सभ्यता और संस्कृतियों के नामपर एक भारत
पर एक भारत मोगोपभोग की पुरानी चीजों के रण में वासी अंग्रेज गर्मी के दिनों में भी जब अपनी सभ्यता और संस्कृति नही रहनी । यदि गर्न चुम्त पोशाक से अपने शरीर को वडल की तरह जमाने में हमारे पास अंग संहा बागी फत बालता है, तब उसका यह पागलपन प्रजा. था तो इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारी माना यवघर की चीज होती है। परन्तु यह पागलपन और संस्कृति शख में जा बेटी है। निशिती सभी देशो में पाया जाता है, इसलिये अजायव- देश में आम नहीं थे, खजूर थे, नो इसग भी घर मे कहा तक रक्खा जा सकता है ? सगमर्मर यह मतलब नहीं है कि उसी सभ्यता बनर पर
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सत्यामृत
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लटक रही है। मनप्य एक समझार प्राणी है, दुहाई दका नही, किन्तु आर्थिक सुविधा की इसलिये उसका काम है कि उनके वर्तमान युग दुहाई देकर, विनय और प्रेम की दुहाई देकर । में जो जो अच्छी, सुलभ और दूसरी को हनि । न पहुंचानेवाली वस्तुएँ हो उनका उपयोग करे।। इसी बुद्धिमत्ता में उसकी संस्कृति और सभ्यता ।
का जो रूप बनाया जाना है वह तो बिलकुल है। पुगने जमाने की अविकसित वस्तुओं को
मर्थ है। अब रह गया सभ्यता का मानसिक अपनाये रहने मे सभ्यता और संस्कृति की रक्षा
और कौटुयिक रूप । कहा जाता है कि " प्रत्येक नहीं है।
देश की एक विशेष मनोवृत्ति होती है। इंग्लेण्ड इसके विरोध में यह यात अवश्य नहीं
जा का मनुष्य मात्रा से कुछ अविक रान्भीर है, जब
नादनी मात्रा से कुछ, अक्कि सकती है कि-" कोई देश बन्त्रा के द्वारा फैली हुई बेकारी को दूर करने के लिये चरखा बुग का
__ गतूनी । भारत के वायव्य कोण का मनुष्य या सहारा ले, दूसग के आर्थिक आक्रमण से बचने
एक पठान स्वभावत अविकच और असहिष्णु के लिये पुरानी चीजा के उपयोग करने की ही
होगा जब कि भारत का मनुष्य मात्रा से अधिक कोशिश करे तो क्या इसकी अनुचित कहा
शान्त होगा। मनुष्य बनाव को ये विशेषताएँ जायगा ।
एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र को जुदा करती हैं। आधिक अाक्रमण से बचने के लिय र अगर राष्ट्रीय भेट न माना जाय तो ये विशेषताएँ मार्ग कहा तक ठीक है यह बात दूसरी है. परन्तु
नष्ट हो जाय । क्या इनका नष्ट करना उचित हे १३७ अगर कोई इसी दृष्टि से पुरानी चीजा का उपयोग
इसके उत्तर में दो बात कही जा सकती हैं। करना चाहे तो इसमें मुझे बिलकुल विरोध नहीं
पहिली तो यह कि मनु-ब की ये विशेषताएं है । उसकी दृष्टि उपयोगिता, सविधा, ATTI स्वाभाविक नहीं है वे राजनैतिक आर्थिक आदि सुव्यवस्था पर होना चाहिय, न कि प्राचीनता परिस्थितियों का फल हैं। क्रान्ति के पहिले टर्की पर, इनका प्रचार सस्कृति और सभ्यता के रनण और रूस के साधारण जन की जो मनोवृत्ति थी के निय नहीं. किन्तु समान का रोटी देने के लियं और आन प्रसकी जां मनोवृत्ति है, अब्राइम लिंकन होना चाहिये।
के पहले मारका के हशी की जो मनोवृत्ति कोई भाई कहेंगे कि "जो नवयवक मौज थी और आज जो मनोवृत्ति है, रोमनसाम्राज्य शौक में जीवन वितार सादगी छोड़कर अपने क नीचे कचड़ात हुए इंग्लेण्ड की जो मनोवृत्ति साहिबी खर्चसे मौवापको परेशान करते है.का थी और याज जो मनोवृत्ति है, उनमे समीनउनको न रोकना चाहिये । इसीप्रकार जो अपने आसमान से भी अधिक अन्तर है। आर्थिक, देश की वेपभूपा छोडकर विदेशी वेशभूपा अपना- गजनीतक आदि परिस्थितियों के बदल जाने से कर अपनी एक नई जाति बना लेत हैं, क्या मनुष्य के न्यभाव में जो परिवर्तन हो जाता है, उनका यह कार्य चित है.
से राष्ट्रीयता न गेम सकनी है, न रोकना नि सन्दा ये कार अनुचित है परन्त हस- चाहिये । इसलिये राष्ट्रीयता का इसके साथ कोई लिये नहीं कि व विदेशी मान्यता को पनात है, सम्बन्ध नहीं है। किन्तु इसलिए कि उनम मायाप का परेशान दुसरी दान यह है कि राष्ट्रीय विशेषता किया जाता है, अपने को अनुचित रूप में बड़ा होने से ही कोड वन्तु अली नहीं हो जाती। या विशेष समझकर अभिमान का परिचय दिया असीम याला अगर किसी देश को विशेपता हो, जाना है. दुसरा का अपमान किया जाना है, उन्हें बात मान में उसड़ नेऊन, मार ऋठना. हत्या कर रोने, परन्तु प्राचीन संस्कृति या मरना ओ नाना गार किसी देश की विशेषना हो अथवा
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दृष्टिका
mummanan
स्त्रियो को पददलित करना अगर किसी देशकी लिये कर लगायगा कि उसका व्यापार सुरक्षित विशेषता हो तो उसे अपनाये रहना पाप हैं। रहे और उसकी आर्थिक अवस्था खराब न हो ऐसी विशेषता का जितनी जल्दी नाश हो उतना जाय, बेकारी न बढ़ जाय, तो आपके शब्दोमें वह ही अच्छा है। हमे विशेषता नहीं किन्तु उन राष्ट्रीयता की पूजा होने से पापरूप होगी। इस गुणा का पुजारी होना चाहिये जो मानवजीवन सिद्धान्तसे तो सचल राष्ट्र सयल होते जायेंगे और को सुग्यमय बनाते हैं । इसलिये हमारा यह निर्बल पिसते जायगे।" महान कनय है कि हम गष्ट्रों की सब विशेष. राओ को मिटा दे। जो विशेषताएँ खराब है
इस प्रश्न का कुछ उत्तर दिया आचुका है। दुग्यकर है उनको नो नाश करके मिटा देना
एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अगर आर्थिक आक्रमण चाहिये परन्तु जो विशेषताएँ सुग्वकर हैं अच्छी
करता है तो आयात पर प्रतिबन्ध लगाकर उस हैं उनको विना नाश किये मिटा देना चाहिये
श्रीक्रमण को रोकना अनुचित नहीं है। दूसरे
राष्ट्र में अगर राष्ट्रीय कट्टरता है और वह किसी प्रति उनका सभी गप्ट्रो में प्रचार कर देना चाहिये जिससे वे विशेपलप छोडकर सामान्य
राष्ट्र पर आर्थिक आक्रमण करता है वो उसका
उसी तरह सामना करना चाहिये, इसमे कोई ঘণ ঘা কাল।
पाप नहीं है। इतना ही नही किन्तु प्रत्यक राष्ट्र ऊपर जो घात स्वभाव के विषय में कही को-जबकि उसका शासनतन्त्र जुदा है कर्तव्य गई है, वही बात कौटुम्बिक रीतिनीति के विषय है कि यह आर्थिक योजना के रक्षण के लिये में कही आसकती है। जिन देशों की कौटुम्बिक आयात निर्यात पर नियन्त्रण रक्खे । इस व्यवस्था खराब है, वे अपनी वह कौटुम्विक आर्थिक योजना का प्रभाव समाज को सुख-शान्ति दुर्व्यवस्था छोड्दे और किसी देश की अच्छी से पर भी निर्भर है। मानलो एक राद ऐसा है जो अच्छी कौटुम्बिक व्यवस्था अपना लें। अगर मजदूरों से दस घंटे काम लेता है और ऐसे यन्त्रो कोई विशेषता रहे भी तो परिस्थिति की दुहाई का उपयोग करता है जिससे थोड़े आदमी बहुत देकर रहना चाहिये राष्ट्रीयता सभ्यता आदि की काम कर सकते हैं, इससे बहुत से आदमी बेकार दुहाई देकर नहीं।
हो जाते हैं अथवा मजदूरों को सख्त मजूरी करना ___ इस प्रकार किसी भी प्रकार की सभ्यता या पद्धती है। परन्तु दूसरा राष्ट्र ऐसा है कि वह संस्कृति की दहाई देकर मनुष्य जाति के टकडे एस यन्त्रों का उपयोग करता है जिससे वेकारी करने की कोई जरूरत नहीं है, बल्कि ऐसा करना
न घढे, तथा वह मजदूरों से सख्त मिहनत भी
नहीं लेना चाहता ऐसी हालत में उसका माल पाप है। सभ्यता और संस्कृति मनुष्य के टुकडे
महंगा पड़ेगा। इसलिये आर्थिक दृष्टि से जीवित करने के लिये नहीं किन्तु उसके प्रेम के क्षेत्र को
रहने के उसके सामने दो ही मार्ग होगे या तो विशालतम बनाने के लिये हैं, उन्नति के लिये हैं,
वह आयात पर प्रतिबन्ध लगावे, या मजदूरों से पारस्परिक सहयोग के लिये हैं । इसलिये राष्ट्र ज्यादा मिहनत ले। मनुष्य की सुख शान्ति के के नामपर चलता हुआ यह जातिभेट भी नष्ट लिये पहिला मार्ग ही ठीक है। इसलिये श्रायात होना चाहिये।
पर कर लगाना उचित है । वास्तव में यह राष्ट्रीकोई माई कहेंगे कि 'यदि राष्ट्रीयता नष्ट यता की पूजा नही, मनुप्यता की पूजा है। दूसरे करदी जायगी नत्र तो सबल राष्ट्र नियल राष्ट्र देश पर आक्रमण करने में कट्टर राष्ट्रीयता है, को पीस डालेंगे, लूट डालेंगे और आपका यह परन्तु दूसरे के आक्रमण से अपनी रक्षा करने वक्तव्य उनके कार्यों को नैतिक बल प्रदान करेगा। मे, अपनी सुखशान्ति बढ़ाने में तो मनुष्यत्ता निर्बल राष्ट्र अगर सबल राष्ट्र के मालपर इस- को ही पूजा है।
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इस विषय में एक बात यह कही जा सकती का प्रयत्न को जहा जनसख्या कम हो । परन्तु है कि " यदि मनुष्यता के नामपर भी आयात वहा जाकर अगर अपनी कोई विशपता की रक्षा नियोत का प्रतिवन्ध बना ही रहा तन राष्ट्रीय करने की कोशिश की जायगी, उसके लिये कोई कट्टरता का नाश कैसे होगा। प्रत्येक राष्ट्र की विशेष सुविधा मागी जायगी तो यह नीति सफल कठिनाइयाँ बढ़ जॉयगी। मानलो कि एक राष्ट्र न होगी। इसलिये श्यावश्यक यह है कि जिस ऐसा है जिससे लोहा और कोयला बहुत है, राष्ट्र में हम जाकर इसे वहा के निवासियों में परन्तु कृषि के योग्य स्थान नहीं है, और दूसरा हम मिल जाये । इसके लिये मनुष्योचित सद्देश ऐसा है कि जो इससे उल्टा है। अब यदि गुणों को छोड़ने की या वहा क दुर्गुणों को अप. दूसरा देश पहिले के मालपर प्रतिबन्ध लगाये नाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ आत्मीयता राट तो पहिला देश भूखो मर जायगा। मेसी अवस्था करने की, भाषा आदि को अपनाने की तथा में मनुष्यता की भावना कैसे रह सकती है। अपनी जातीय कट्टरता का त्याग करदेने की जरु. . यदि मनुष्यता की भावना हो, अहंकार रत है। इस नीति से न तो किसी राष्ट्र को भूखा और आक्रमण का दुर्विचार न हो तो यह समस्या
। मरना पडेगा न किसी को दूसरे राष्ट्र का बोझ कठिन नहीं है । जिस राष्ट्र के पास अनाज नहीं
उठाना पड़ेगा। है, वह अनार के आयात पर प्रतिबन्ध क्या विश्वशाति और मनुष्य की उन्नति के लिये लगायगा ? और जिसके पास लोहा नही है वह इस प्रकार की व्यवस्था आवश्यक है। जब तक लोहे के आयात पर प्रतिबन्ध क्यों लगायगा। मनुष्य राष्ट्र के नाम पर जातिमेट की कल्पना इस प्रकार का मान हो आपस में बदल लेना लिय रहेगा, वर तक वह एक दूसरे पर अत्याचार चाहिये । स्वेच्छा और सुविधा से एक माल से करता ही रहेगा। इसलिये एक न एकदिन राष्ट्र दूसरा माज बदलना कोई आपत्तिजनक नहीं है। के नाम पर फैले हुये जातिभेद को तोड़ना ही हा, अन्तर्यष्ट्रीय व्यवहार में सो सम्पत्ति का पड़ेगा, एक मानव राष्ट्र बनाना पडेगा, तभी वह माध्यम हो उसे बीचन की कोशिश न करना
चैन से बैठ सकेगा। चाहिये। मानलो कि सोना माध्यम है, या चाँदी
__ अन्तराष्ट्रीय विवाह का रिवाज भी इसके माध्यम है तो अपना माल अधिक लिय बहुत छ उपयोगी हो सकता है इसलिये देने की कोशिश करना और बदले में माल ने उसका भी अधिक से अधिक प्रचार करना लेकर सोना चान्दी लेना पक्षमण है। TRA चाहिये । इस विषय में कानून का अन्तर है, का विचार छोड़ दिया जाय और फिर जो बदला परन्तु रूड़िकी गुलामी दूर कर देने पर कानून वाली हो उससे दोनों राष्ट्रों को लाम होगा। का वह विषमता दूर हो जायगी और जो कुछ इसने पर मी अगर किसी से देश की लो प्रा थाहा बहुन रह जायगी उसे सहन कर लिया तिक सम्पचि ले गरीब है-समस्या हल नहीं हो जायगा। विवाह के पात्रों को यह वात पहिले की नो उसका काम है कि वह किसी देशसे समझ लेना चाहिये। जुड आय जो प्रकृतिक सम्पत्ति से अधिक पूर्ण कहा जा सकता है कि "यों ही वो नागमहा। परन्तु दोनों में भास्य-शासक भाव न होना पहरण की घटनाएँ बहुत होती है। एक राष्ट्र की चाहिये, क्योंकि सो गष्ट्र में शास्त्र-शासक भाव युवतियों को फुसला कर दूसरे राष्ट्र मे ले साना होना मनुष्यता की दिनदहाडे हत्या करना है। और वहाँ उन्हें असहाय पाकर वेश्या बना देना जिन राष्ट्र के पास जीवन निर्वाह की पूरी सामग्री और उनकी शारीरिक शक्ति का क्षय होने पर नही है, जनसंख्या का नियन्त्रण करें अथवा उन्हें भिखारिन बनाकर छोड देना, ये सब घटबदी हुई जनसम्पया को किसी प्रेमी जगह बसाने ना दिल दहलादेने वाली हैं । अन्तराष्ट्रीय
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विवाहासे ये घटनाएँ और बढ़जायगी !" पर यह मे धर्मशास्त्रों में बहुत से विधिविधान मिलते हैं, भूल है, यह पाप एकही देश के भीतर भी हो इसलिये बहुत से लोग धर्म के समान इसे भी रहा है। इसका अन्तराष्ट्रीय विवाह-पद्धति के समझने लगे हैं। सच पूछा जाय तो धर्म के प्रचार से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके हटाने के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। वृत्तिभेद से लिये सब सरकार को मिलकर सम्मिलित प्रयतन बना हुआ जातिभेट एक समय की आर्थिक करना चाहिये, तथा इस प्रकार के लोगों में दमन योजना है। के लिये विशेष कानन और विशेष प्रयत्न की बामण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद ये चार जम्मत है।
भंत सभी देशो में पाये जाते हैं, क्योंकि शिक्षण, राष्ट्रीय संस्कृति की विभिन्नता के कारण रक्षण, वाणिज्य और सेवा की आवश्ययता सभी दाम्पत्य जीवन के अशान्तिमय हो जाने की बाधा दशा को है। परन्तु इनके नामपर जैसा नाति. भी यताई जा सकती है। परन्तु इसका उत्तर वर्ण
भेट भारतवर्ष में बना वैसा अन्यत्र नहीं। यहाँ भेतकं प्रकरण में दे चुका है। यहां इतनी धात पार्थिक योजना की दृष्टि से बनाये गये इन संघो फिर कही जाती है कि राष्ट्रीय जातिभेद मिट जाने का सम्बन्ध रोटी-बेटी व्यवहार से भी हो गया पर एक तो सहमति की विभिन्नता भी कम हो है, धार्मिक क्रियाकाटो से भी होगया है, परलोक जायगी, दूसरी बात यह है कि यह सब व्यक्तिगत
की ठेकेदारी से भी हो गया है। प्रश्न है । दोनों को पारस्परिक अनुरूपता का
जिस समय यह वर्णव्यवस्था की गई थी, विचार कर लेना चाहिये, तथा एक दूसरे की मनो- उस समय इसका यही लक्ष्य था कि समाज में वृत्ति से परिचित हो जाना चाहिये । इस प्रकार श्रााधक सुव्यवस्था और शान्ति हो । जो जिस राष्ट्रीयताकी भंदक दीवालोको गिराने के लिये वह काये के योग्य है वह वही कार्य करे तथा अनुचित वैवाहिक सम्बन्ध भी अधिक उपयोगी हो सकता प्रतियोगिता से धन्धों को नुकसान न पहुंचे और है, और इससे मनुष्यजाति एक दूसरे के गुणों को न बेकारी की समस्या लोगों के सामने आये। शीघ्रता से शाम कर सकती है।
सैकडो वर्षों तक इस व्यवस्था से भारतीयों ने इस प्रकार विश्वकी शान्ति तथा उन्नति के
लाभ उठाया । परन्तु पीछे से जब अकर्मण्य और
अयोग्य व्यक्षियों की अधिकता होगई तथा इस लिये श्रावश्यक है कि राष्ट्रीयता के नामपर फैल
व्यवस्था ने अन्य धार्मिक सामाजिक अधिकारी हुए जातिभेद का नाश करके मनुष्य जाति की
तक को कैद कर लिया, तब इससे सर्वनाश होने
। एकता मिद की जाय और व्यवहार मे लाई
लगा। जाय।
वर्णभेन के नाम से प्रचलित इस वृत्तिभेद बडे बडे देशा में प्रान्तीयता का भी विप का जाति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, और न राष्ट्रीयना के विप के समान फैलता है यह तो मनुष्य जाति के विभाग करने का इसमें कोई और भी बुरा है। इसमे कट्टर राष्ट्रीयता का पाप गण है। रंग-भेद से तो फिर भी कुछ शारीरिक तो है ही, साथ ही मनुष्यता के साथ राष्ट्रीयता भेद मालूम होता है, तथा देशभेद में भाषाभेट का नाशक होने में यह दुहरा पाप है। आदि हो जाते हैं-यद्यपि इससे भी मनुष्यजाति
वृत्तिभेट ( कालो अको)-अभी तक जो के भेद नहीं हो सकते-परन्तु वृत्तिभेद से तो जातिभेट के रूप बतलाये गये हैं, उनके विषय में इतना भी भेद नहीं होता। एक ही वंश में पैदा धर्मशास्त्रों में कोई विधिविधान न होने से वे घम होनेवाले अनेक मनुष्यो की योग्यता में इतना के बाहर की चीज समझे जाते हैं। परन्तु आजी- अन्तर होता है कि उनमें कोई ब्राह्मण कोई क्षत्रिय विका के भेद से जो जातिमेट बना, उसके विपय कोई वैश्य और कोई शूद्र कहा जा सकता है।
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मत्यामृत
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इस वर्णमंत्र का मुख्य प्राण था आजीविका अमुक परिमाण मे हिसा हो जाय। शरीर तो की व्यवस्था, सो इस दृष्टि से तो उसका सर्वनाश जैसा ब्राह्मण का होता है वैसा शूद्र का होता है, भोगया है। श्राज ब्राह्मण कहलान वाले गेटी इसलिये एक दूसरे के हाथ का भोजन करने में पकाते हैं, झाइ लगाते हैं, दुकानदारी करते हैं, हिंसा अहिंसा की दृष्टि से कोई अन्तर नही पा सत्रिय कहलाने वाले खेती व्यापार करते हैं, सकता। अथवा कोई कोई प्रयापन आदि ब्राह्मण-वृत्ति आरोग्य का सो वर्णव्यवस्था से बिलकुल करते है वैश्य और शह कहलाने वाले भी चारो सम्बन्ध नहीं है। वह भोजन की जाति और य की आजीविका करते हैं। और जो लोग अपनी प्रकृति पर ही निर्भर है। तीसरी बात है इस वर्णव्यवस्था में नहीं मानते वे भी सब कुछ स्वच्छतो। सो स्वच्छता भी हर एक के हाथ से करते है। इस प्रकार वर्णव्यवस्था का जो असली बने हुए भोजन में हो सकती है। हो, यह हो
येय या, वह तो शताड़ियों से नष्ट हो गया है। सकवा है कि अगर अपने को मालूम हो जाय इस अवस्था में वर्णव्यवस्था की दुहाई देना व्यर्थ कि अमुक व्यक्ति के यहा स्वच्छना नही रहती ही है। पुराने जमाने में इस प्रकार का नियम तो हम उसके यहा भोजन न करेंगे। परन्तु अपने बनाने की कोशिश की गई थी कि रत्येक घर पाकर अगर वह स्वच्छता से भोजन तैयार मनुष्य को अपनी अपनी आजीविका करना करदे तो हमारी क्या हानि है ? अथवा अपने चाहिये, अगर न करे तो शासका से वह दराड. घर या अन्यत्र वह हमारे साथ बैठकर भोजन नीय हो, स्यामि सा न करने में वर्णसंकता करले नो इसमें कश अस्वच्छता हो जायगी। फैल जायगी अर्थात् वर्णव्यवस्था गडबड हो इसलिये स्वच्छता के नामपर भी वर्णमेद में सहजायगी।"
भोज का विरोध करना निरर्थक है। आज इस पकार की वास करता निर्वि- इस प्रकार सहभोज का विरोधी कोई भी बाद और निविरोध फैली हुई है सी अवस्था में कारण न होने पर भी लोगों के मन में एक अन्ध. यव्यवस्था की दुहाई देकर अहंकार और मूढना विश्वास जमा हुआ है कि अगर हम शूद्र के पी पासना क्या करना चाहिये । और अगर हाथ का खा लेगे तो शुद्ध हो जायेंगे। अमुक के परना भी हो तो उसे कर्मस मानना चाहिये कर्म हाथ का खालेंगे तो जाति चली जायगी। अगर में वर्सय ववस्या मानने की आवाज पुगनी है। सचमुच यह बात होती तो अभी तक हमारी
चर, विश्वस्था को जन्म से मानो या मनुष्यता कमी की चली गई होती । भैस का दूध कर्म से मानो, परन्तु उससा सम्बन्ध आर्थिक पीते पीते हम भैंस हो गये होते और गाय की योजना से ही है, सानपान और बेटीव्यवहार से दूध पीते पीते गाय हो गये होते। अगर पशुओं ना।
का दूध पीने पर भी हम पशु नहीं होते तो किसी मानपान कतिपय में हम तीन की मनुष्य के हाथ का खा लेने सहम उसकी जाति रिचार करना चाहिये- अहिंसा, प्राग्य, और के कैसे हो जायंग ? हमारी जानि कैसे चली मन्टना। भोजन मान हो जिसके तैयार करने जायगी। गं वाहमा दी। इस दृष्टि से मांसादिक आश्चर्य तो यह है कि जो लोग मासभनी पात्याग करना चाहिये। इसका वर्णव्यवस्था भी भोजन में जाति-पाति का खयाल करत ग गोट सम्पनी , गोकि प्रत्यक वर्ग का है। ये यह नहीं सोचते कि जो कुछ वे गाते हैं मागी म प्रकार हिसारहित मानन कर सकता यह इतना अपवित्र है कि उसस अधिक अपवित्र *प्रनि का परमा निया नहीं है कि अमुक दूसगै यस्तु नहीं हो सकती। इस प्रकार कहा तो
भोजन में पन्यवस्था जो कि एक श्रार्षिक योजना म्प
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हराएका
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थी ? और कहां ये खानपान के नियम ! इन लिये ही माना जाना चाहिये जितने समय वे दोनों में कोई सम्बन्ध न होने पर भी इनका अछ तता का काम करते हो। स्नानादि से शुद्ध कैसा विचित्र सम्बन्ध जोड लिया गया है। सच होनेपर उनको अछ त मानना मृढता है। फिर वात तो यह है कि इसमे अहंकार की पूजा के जो अछतता का काम करे वही अछ,न है न कि सिवाय और कुछ नहीं है। मनुष्य धर्म के नाम सारा कुटुम्ब या जाति। आज तो होता यह है पर मदोन्मत्तता की या खुना के नामपर शैनान कि जिसकी जाति पछत नहीं कहलाती, वह की पूजा कर रहे हैं।
कैसा भी घृणित क्यों न हो वह अछूत न माना ___ मनुष्य-जाति की एकना को नष्ट करने वाले आयगा, और जिसकी जाति अछूत कहलाती है ये आत्मघाती प्रयत्न यहीं समान नही हो जाते, वह कैसा भी स्वच्छ हो वह अछूत माना जायगा किन्तु वे छुआछूत के रूप में एक और भयकर वह किसी भी हालत में स्पृश्य नहीं हो सकता। रूप बतलाते हैं। अछूतता के लिये अगर वहाने इस अन्धेरशाही का स्वच्छता के साथ कोई बनाये जाय तो वे ये ही हो सकते हैं एक तो सम्बन्ध नहीं है।
आचार-शुद्धि के लिये दुसंगति का बचाव, दूसग . कुछ लोग अछूत कहलानेवालों के शरीर स्वच्छता की रक्षा का भाव । पहिला कारण यहा को ही अशुद्ध बता दिया करते है। परन्तु शरीर बिलकुल नहीं है, क्योंकि जिन मद्यमांस-भक्षण में शुद्धि-अशुद्धि का विचार करना ही व्यर्थ है।
आदि कार्यों से बचने के लिये छतता का सभी मनुष्यों के शरीर मे हाड मास रक्त होता समर्थन किया जाता है. उनका सेवन पश्य है और ये चार्ज कभी शुद्ध नहीं होती। हा. कहलाने वालों में भी है। अनेक प्रान्ता में ब्राह्मण
रोगियों का शरीर अमुक दृष्टि से अशुद्ध और क्षत्रिय वैश्य इन वस्तुओं का सेवन करते हैं।
स्वस्थ मनुष्यों का शरीर अमुक दृष्टि से शुद्ध फिर भी ये अकून नहीं समझ जाते | और
कहा जाता है परन्तु उस दृष्टि से तो अछूत कह
लाने वाले भी परम शुद्ध हो सकते हैं और उच्च कहलाने वालो को उतना ही अबून समझते हैं
कहलाने वाले भी परम अशुद्ध होसकते हैं। जितना कि अन्य शाकभोली समझते हैं इसलिये अगर मानसिक अशुद्धि की बात कही मासभक्षण आदि आचार की रात्रियों से बचने जाय तो वह भी व्यर्थ है, क्योंकि उच्च कहलाने के लिये यह अवनता नहीं है। अगर होती तो वालों की मानसिक अशुद्धि अछूत कहलानेवाला भी उचित न कहलाती, क्योकि मासभक्षी का की मानसिक अशुद्धि से कम नहीं होती। प्रेम स्पर्श करने से उसका दोप नहीं लगता, और न दया भक्ति विश्वसनीयता आदि में स्पृश्य और उससे पाच पापों में से कोई पाप होता है। हा, अस्पृश्यो की जाति जुनी जुदी नहीं होती। जो लोग हृदय से दुर्बल हैं वे खानपान में ऐसे कई लोग अछूत कहलाने वालों के साथ लोगों की संगति का बचाव कर सकते हैं । परन्तु किये गये दुर्व्यवहार को पूर्व जन्म का पाप कहबड़े बड़े भोजों में अथवा और भी ऐस स्थानों में कर स्वयं सन्तोप करते हैं तथा उनको भी सन्तुष्ट जहा मास भक्षण के उत्तजन की सम्भावना करना चाहते हैं। यदि इसे पूर्व जन्म के पाप का नहीं है, ऐसे बचाव की आवश्यकता नहीं है। फल भी मानलिया जाय तो इस तरह अज्ञात खैर, अछूतता के साथ तो इसका कोई सम्बन्ध पापफल देने का हमें कोई अधिकार नहीं है। यो नहीं है।
तो हम बीमार पड़ते है तो यह भी पाप-फल है स्वच्छता की रक्षा का भाव भी अछूतपन परन्तु इसीलिये बीमार की चिकित्सा न की जाय, का समर्थक नहीं है। इस दृष्टि से अगर किसी एव सती के अपर गुण्ड़े आक्रमण करे तो यह को अचत माना जाय तो सिर्फ उतने समय के विपत्ति भी सती के पूर्वजन्म के पाप का फल है,
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सत्यामृत
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इसीलिये गुड को न रोका जाय, हमारी चोरी दी जा सकती थी, किन्तु दूसरे वर्ण की कन्या होती है, खून होता है तो यह भी पूर्वजन्म के पहिले वर्णको दी जासकती थी। परन्तु यह रिवाज पाप का फल है इसीलिये चोरो और खूनियों को भी बहुत समय चल नहीं सकता था क्योकि न रोका जाय तो समाज की झ्या दुर्दशा हो। इससे शूद्र वर्ण को बहुत आपत्ति का सामना अछूत कहलाने वालों के साथ जो दुर्व्यवहार करना पड़ता था। शूद कन्याओं को अन्य वर्ण के किया जाता है वह अत्याचार है, इसे पाप फल लोग ले तो लेते थे, परन्तु देत नहीं थे, इमलिय कहकर नहीं टाला जासकता । अन्यथा मनुष्य शूद्रों को कन्याओं की कमी होना स्वाभाविक को न्याय, मलाई सुव्यवस्था करने का कोई अव
था । अमुक अश में वैश्या को भी इस कठिनाई सर ही न रह जायगा, मनुष्य की अनन्या पशुओं
का सामना करना पड़ता था । इसलिये एक दूसग से भी भयका हो जायगी।
रिवाज चल पड़ा कि ब्राह्मण, नत्रिय, वैश्य तो ___ धार्मिक अधिकारों की दि से मी धुनों अलोम प्रतिलाम रूपम विवाह सम्बन्ध करें, अळूनों में कोई जातिभेद नहीं है । अहिंसा, सत्य और शुद्र शूद्र के साथ ही करे। ईमान आदि धर्म हैं । धर्म के नाम पर चलने
प्रारंभ के तीन वर्षों के जीवन के माध्यम वाले अन्य आचार तो सब इन्हीं के साधन मात्र
में इतना अन्तर नही था कि एक वर्ष की कन्या है। अहिंसा, सत्य आदि के पालन का ठेका
दूसरे वर्ण के कुटुम्ब को सहन न कर सके। किसी भी जाति विशेप को नहीं दिया जासकता।
ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य कुटुम्बा में त्रियों का अछून कहलानेवालों को यह नहीं कह सकते
कार्यक्षेत्र करीब करीव एक सरीखा ही रहता है , कि तुम सत्य मत बोलो, शील से मत रहो,
जब कि शूद्र वर्ष की स्त्रियों को अन्य वर्ण की अहिंसा का पालन मत करो। जब अहिंसा, सत्य श्रादि का अधिकार सब को है तत्र धर्म का मा
खियो की सेवा करने को जाना पड़ता है। इस कोई जंग नहीं है। जिसका अधिकार सबको न में नहीं आती थी।
विषमता के कारण अन्य वर्ग को त्रियों शुद्र वर्ण हो । इस प्रकार वर्णमवस्या के नामपर मनुष्य जाति के टुकडे करना, स्पृश्यास्पृश्य की पापमय
इससे यह तो मालूम होता ही है कि पुराने
समय में असवर्ण विवाह का निषेध नहीं था। वासना का सरना करना, महान अपराव है।
मानसिक कष्ट न हो. इस खयाल वर्ण-व्यवस्था का जिस प्रकार धार्मिक से शूद्रों के साथ प्रतिलोम विवाह नहीं होता था। अधिकारी से, छूने न छूने से, असहमोज श्रादि फिर भी स्वयंवर में इस नियम का पालन नहीं से कोई सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार विवाह से किया जाता था, क्योकि स्वयवर मे वरका चुनाव भी कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो आजीविका कन्या ही करती थी। दूसरे लोग इस विषय में को सुव्यवस्था के लिये थी, इसलिये विवाह की सलाह रूपमे भो हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। कैर का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु जम असवर्ण विवाह का विधान और रिवाज श्राओनिका के भैह से पूमाग्रता का सम्बन्ध होने पर मी से विवाह अल्पसंख्या में हर, यह जुड़ गया तब एक जटिल समस्या खड़ी हो गई। स्वाभाविक है, क्योकि विवाह सम्बन्ध मैत्री का मामा कुल में पैदा होनेवाली एक कन्या का एक उत्कृष्ट रूप हैं। इसीलिये मैत्री प्राय समान अगर ऐसे कुल में विवाह हो जो लोक मे सम्मान स्वभाव समान रहन सहन बालों में होती है। इस को इष्ट्रि से न देखा जाता हो तो इससे उसके चित्त कहावत के अनुसार सवर्ण विवाह अधिक होते को चोम होना स्वाभाविक है । इसलिये अनुलोम थे, असत्र विवाहो की संख्या घटने लगी और विवाह का रिवाज बन गया। इसके अनुसार घटते घटते यहाँ तक घटी कि ये बातें इतिहास की पहिले वर्ष की कन्या दूसरे वर्ण वाले को नहीं हो गई । परन्तु असवर्ण विवाह के विरोध में
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कोई नैतिक बात नहीं कही जा सकती।
आजकल भी असवर्ण विवाह होते हैं, परन्तु उनका रूप चदल गया है । जो लोग कार्य से जुदे
वर्ष के हैं उनमे आपस में शादी हो जाती | एक अध्यापक एक व्यापारी की पुत्री से शादी कर लेगा, एक व्यापारी अध्यापक की पुत्री से शादी कर लेगा। ये सब श्रसवर्ण विवाह है, परन्तु इनका विरोध नहीं होना। परन्तु जो लोग जन्म से दूसरे वर्ण के है और कर्म से एक ही वर्ण के हैं उनमे अगर शादी हो तो विरोध होता है । इस मनोवृत्ति की मूढता इतनी स्पष्ट है कि उसे अधिक स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है। श्रमवर्ण विवाह मे अगर कोई आपत्ति खडी की जा सकती है तो उसका सम्बन्ध कर्म से ही होगा जन्म से नही। क्योकि एक स्त्री ब्राह्मण कुन मे पैदा हुई हो तो उसे शुद्र या व्यापार करनेवाले घर जाने में संकोच हो सकता है, परन्तु शूद्र कुल मे पैदा होनेवाले किन्तु विद्यापीठ में अध्यापकी करनेवाले के घर जाने में क्या आपत्ति हो सकती हैं ? असवर्ण विवाह का अगर विरोध भी किया जाय तो कर्म से सवर्ण विवाहा का विरोध करना चाहिये न कि जन्म से, और कम से असवर्ण विवाह का विरोध भी वही करना चाहिये जहाँ कन्या का विरोध हो ।
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बहुत से लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों को जाति का रूप देकर व विवाह का विरोध करते हैं, परन्तु इन वर्णों को जाति का रूप देना ठीक नहीं, क्योंकि जाति की दृष्टि से तो मनुष्य एक ही जाति हैं । व व्यवस्था तो आर्थिक व्यवस्था के लिये बनाई गई है । जाति का सम्बन्ध आकृति आदि के क्षेत्र से हैं। जैसे हाथी, घोडा, ऊंट आदि में व्याकृति भेद से जातिभेद माना जाता है वैसा मनुष्यो के भीतर कहीं नहीं माना
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जाता ।
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जहाँ जातिभेद होता है वहाँ लैंगिक सम्बन्ध कठिन होता है। अगर होता है तो सन्तान की विमाकृति दिखलाई देती है, और कहीं कहीं यागे संतति नहीं चलती । श्रसवर्ण विवाह से
यह बात बिलकुल नही देखी जाती। जिन देशों मे वर्णव्यवस्थाका ऐसा कट्टर रूप नहीं है और अबाध रूप में असव विवाह होते है, वहाँ सन्तान पर म्परा बराबर अच्छे ढंग से चलती है। ब्राह्मण का शूद्र के साथ भी सम्बन्ध किया जाय तो भी सन्तान परम्परा अबाध रूप में चलेगी। इसलिये वर्णों को जाति का रूप देना ठीक नहीं।
हॉ, जाति शब्द का साधारण अर्थ समानता है, । वर्णो में अर्थोपार्जन के ढगकी समानता पाई जाती है, इसलिये इन्हें इस दृष्टि से जाति भले ही कहा जाय, परन्तु इस ढंग से तो टोपीवालो की एक जाति, और पगडीवालों की दूसरी जाति कही जा सकती है। इसलिये विवाह सम्बन्ध अर्थात् लैगिक सम्बन्ध के लिये जो जातिभेद हानिकर है, वैसा जातिभेव ही वास्तव मे जातिभेद शब्द से कहना चाहिये, जोकि वरभिद मे नहीं हैं। इस लिये जातिभेद की दुहाई देकर असवर्ग विवाह का निषेध नहीं किया जा सकता ।
आज तो वर्णव्यवस्था है ही नहीं, अगर हो तो उसका क्षेत्र बाजार में है, रोटी-बेटी व्यवहार मे नहीं। इसलिये उसके नाम पर मनुष्य जाति के टुकडे करने की कोई जरूरत नहीं है । घृणा और अहंकार की पूजा करना मनुष्य सरीखे सममदार प्राणी को शोभा नहीं देता। इसलिये इस दृष्टि से भी हमे मनुष्यन्ना की उपासना करना चाहिये ।
उपजाति कल्पना - देश, रंग और श्राजी - विका के भेद से मनुष्यने जिन जातियो की कल्पना की उन सबसे अद्भुत और संकुचितता-पूर्ण न उपजातियो की कल्पना है। कहीं कहीं को जाति कहते हैं। परन्तु इनको जाति समझना जाति शव का मखौल उड़ाना है। हॉ, रूढ शब्द के समान इसका उपयोग किया जाय तो बात दूसरी हैं।
प्रातो मे इन उपजातियो को 'ज्ञाति' कहते हैं। इसका अर्थ है कुटुम्ब । इस दृष्टि से यह उपयुक्त है। 'न्यात' शब्द भी इसी शब्द का अपभ्रंश रूप है, जो इसी अर्थ में प्रचलित है 1
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वास्तव मे ये उपजातियाँ एक बड़े कुटुम्बके समान फिर जो लोग व्यापारिक श्रादि सुविधा के है। इनकी उत्पत्ति की जो किंवदन्तियाँ प्रचलित कारण दूर बस जाते हैं. उनको दूरस्व देशा में हैं, उनसे भी यही बात मालूम होती हैं । जैसे विवाह सम्बन्ध की सुविधा होना चाहियें अन्यथा अग्रवालो की उत्पत्ति राजा अग्रसेन से मानी जाती उनकी वैवाहिक कठिनाइयाँ और बढ जायेंगी। है, उनके अठगह पुत्रों से अठारह गोत्र बने, इस इस प्रकार उपजाति विवाह के विषय में दृष्टि से अग्रवाल एक बड़ा कुटुम्ब ही कहलाया। तथा अन्य प्रकार के विजातीय विवाहो के विषय इस प्रकार ये उपजातियाँ बडे बडे कुटुम्ब ही है। में लोग अनेक प्रकार की शका करने लगत ह. मित्रवर्ग नातेदार वर्ग भी इसमें शामिल हुया है। सकचित क्षेत्र में विवाह-सम्बन्ध करने के लाभ
य उपजातियॉ मतभेद स्थानभेद आदि के बनलाने लगते हैं। उन पर विचार करना आव. कारण बनी हैं। इनके गोत्र भी इन्ही कारणों से श्यक है । इसलिये सने मे शंका समाधान के बने है, जिनमें आजीविका वगैरह के भेट भी रूप में विचार किया जाता है। कारण हैं। जिस जमाने में आने जाने के सारन शंका-विजातीय विवाह से जानीय संग. बहुत कम थे और लोग दूसरे प्रान्तो मे बस जाते ठन नष्ट होजायगा । संगठन जितने छोटे क्षेत्र में थे, तब अपने मूलग्राम या प्रान्त के नाम से रहे उतना ही होता है । उसमे अवस्था भी प्रसिद्ध होते थे। ये ही नाम गोत्र या उपजाति घडी सरलना में बनाई जा सकती है। बन जाते थे। कभी कभी प्रधान पुरुषो के नामसे
समाधान- संगठन की ता क्षेत्र की ये गोत्र बन जाते थे।
लघुना पर नहीं, भावना को विशेषता पर है। सग्यू के उस पार बसने वाले सरयूपारि मुसलमान लोग भारत में मरोड़ा है, परन्तु श्रादि के समान भारत में सैकड़ा हुडियाँ बनी उनका आ संगठन है वह हिन्दुया को किसी है और ये जाप्ति नामसे प्रचलित हैं, यदि सबका जाति का नहीं है। संख्या से छोटी होने पर भी इतिहाँस खोजा जाय तो एक बडा पोथा अनेगा। वह संगठन में मुसलमानों की बरावरी नहीं कर सबका विधिवद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं है। सकती । इबर इन छोटे छोटे संगठनों को महत्व परन्तु उनके नाम ही इतिहास की बड़ी भारीदने से बहा सगठन रुका है। हिंदुओं की बोटी सामग्री है। साथ ही कुछ इतिहास मिलता भी छोटी उपजातियों का संगठन समग्र हिंदुओं के है, उस परसे बाकी का अनुमान किया जा सगठन में बाधा पैदा करता है। फिर राष्ट्र का सकता है धर्मग्रन्थों में भी इन जातियों की संगठन तो और भी दूर है। इस प्रकार यह छोटा उत्पत्ति के विषय में बहुत कुछ लिखा है। छोटा सगठन इता तो पैदा करता हो नहीं है
इन जातियों के भीतर शारीरिक, मानसिक परन्तु विशाल संगठन के मार्ग में रोड़े अटकाता या व्यापारिक ऐसी कोई विशेषता नही है जो है। अगर यह बना पैश भी करता तो भी इन की सीमा कही जा सके। अवसर पढन पर विशाल मगठन को रोकने के कारण यह हेय ही किसी सुविधा के लिये कुछ लोगोने अपना सघ होता। दूसरी बात यह है कि छोटी छोटी जातियों बना लिया और उसीके भीतर सारे व्यवहारो को के संगठन का याखिर मतलब क्या है ? क्या कैद कर लिया। श्राज इस प्रकार की उपजातियां इनका कोई सा स्वार्थ है जिसका संगठन के मेसी अनेक उपजातियों हैं जिनकी जनसंख्या द्वारा रक्षण करना हो ? आर्थिक स्वार्थ तो विशेष कुछ सैकड़ो या हजागे में है। से छोटे छोटे प्रकार की राजनैतिक सीमा के साथ बंधा हुआ क्षेत्रो मे विवाह- स्मन्ध के लिये बडी अडवन है, उसका इन टुकड़ियों से कोई सम्बन्ध नहीं पड़ती है और चुनाव के लिये इतना छोटा क्षेत्र है। एक राष्ट्र के आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थ मिनता है कि योग्य चुनाव करना पडा कठिन है। रक्षण के लिये एक संगठन की बात कही जाय तो
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किसी प्रकार ठीक भी है, परन्तु जाति नामक हुक- अथवा थोड़ी देर को इनकी जरूरत हो तो ड़ियो का ऐसा विशेष स्वार्थ नहीं है जो एक जाति भी विज्ञानीय विवाह से इनका नाश नहीं होता। का हो और दसरी का न हो । धार्मिक स्वार्थ की जैसा कि गोत्री का नाश नहीं होता। श्री जन्म दुहाई दी जाय तो भी ठीक नहीं है। पहिले सो से जिस गोत्र की होती है, विवाह के बाद उसका घों के स्वार्थ ही क्या है। एक धर्मवाले दसरे गात्र वढनकर पति का गोत्र हो जाता है। फिर धर्म पर आक्रमण करें तो धर्म के नाम पर संग.
मी गोत्रों की सीमा नही टूटती। इसी प्रकार उन होना चाहिये, न कि जाति के नामपर, फिर इन छोटी छोटी जातियो का भी हो सकता है। इन उपजातियों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। साधारणत: स्त्री पुरुष के घर में जाती है, इसएक उपजातिके भीतर अनेक धर्म पाये जाते हूँ
लिये खो की जाति वही हो जायगी जो उसके
म और एक ही धर्म के भीतर अनेक उपजातियाँ पाई
पति की है। इस प्रकार जाति संगठन का गीत जाती हैं। इस प्रकार धर्मरक्षण के लिये भी ये गानेवालों के लिये ये जातियाँ बनी रहेंगी, और उपजातियॉ कुछ नहीं कर सकती।
विवाह का क्षेत्र विशाल हो जाने से सुभीता भी ___ कहा जा सकता है कि थोड़ासा दान करके । या शक्ति खर्च करके छोटी जाति को लाभ पहुँ
इस विषय में एक बार एक भाई ने कहा चाया जा सकता है, बड़ी जाति में यह काम नहीं था कि यह तो लियो का वडा अपमान है कि किया जा सकता, अगर समग्र भारत की एक ही विवाह से उन्हें अपनी जाति से भी हाथ धोना जाति हो तो हमारी थोड़ीसी शक्ति किस काम पड़े। परन्तु से भाइयों को समझना चाहिये आयगी ? उतने बड़े क्षेत्र के लिये उसका उपयोग
कि अगर इसे अपमान माना जाय तो यह अपहो न होगा।
मान विजातीय विवाह से सम्बन्ध नहीं रखता,
इसकी जड़ बहुत गहरी है। आज कल आखिर इस प्रकार का प्रश्न करनवाले यह बात खियों को गोत्र से और कटस्व से तो हाथ धोना भूल जाते हैं कि छोटी छोटी जातियों की कैद न
न ही पड़ता है । जहा सूतक पातक माना जाता है, रहने से जिस प्रकार क्षेत्र विशाल होजायगा उसी प्रकार शक्तियों लगानेवालो की संख्या भी भी तो
वहा विवाह के बाद पितृकुल का सूतक तक नहीं चट जायगी। श्राज जो हम अपनी छोटीसी लगता, और पातकुल का लगता है। इसलिय जाति के लिये दान करते हैं या जो शक्ति लगाते
यह अन्याय बहुत दूर का है। जब नियों का हैं उसका लाम दूसरे नहीं उठापा, परन्तु दूसरे
कुल, गोत्र आदि बदल जाता है तय एक कल्पित
से भी तो इसी प्रकार अपनी जाति के लिये कार्य
जाति और बदल गई तो क्या हानि हुई असती
बात तो यह है कि यह मानापमान का प्रश्न हो करते हैं जिसका लाभ हम नहीं उठापावे। अगर
र नहीं है। विवाह के बाद स्त्री और पुरुष का इस प्रकार छोटी छोटी जातियों में सब लोग
एकत्र रहना तो अनिवार्य है. ऐसी हालत में अपनी शक्ति लगाने लगे तो सभी का विकास
किसी एक को दूसरे के यहा जाना पडेगा, और रुक जाय क्योंकि जीवन के लिगे जिन कार्यों की
अपने को हर तरह उसी घर का बना लेना आवश्यकता है उनका शताश मी एक एक गति पड़ेगा! अगर ऐसा न किया जायगा और कुल पूरा नहीं कर सकता । एक दूसरे का अवलम्बन गोत्र गृह का भेद बना रहेगा तो दाम्पत्य जीवन दिये बिना कोई आगे नहीं बढ़ सकता । इसलिये अत्यन्त थशान्तिमन हो जायगा 1 इसलिये दोनो विशाल दृष्टि रखकर ही काम करने की श्राव- का एक करना अनिवार्य है। ऐसी हालत में इयता है इस प्रकार के छोटे छोटे संगठन जितने सुन्यवस्था के लियं स्त्री का गोन बदल दिया साधक हो सकते हैं, उससे कई गुणे वाधक होते गया तो क्या हानि है ? 'प्रपर कहीं पुरुष को है। इसलिये इनका त्याग करना ही श्रेष्ट है। स्त्री के घर रहना पड़े पोर पुरुष का गोत्र
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बदल दिया जाय तो भी कोई हानि नहीं है। घर- प्रारम्भ में अवश्य ही निकत होगी, क्योंकि जमाई के विषय में यही गति काम में लाई जा हरएक जाति का प्रत्येक मनुष्य इस कार्य को सकती है। इसे मानापमान न समझकर समाज तैयार नहीं होता इसलिये विजातीय विवाह का को सुव्यवस्था के लिये किया गया त्याग सम. क्षेत्र सझातीय विवाह से भी छोटा मालूम होता झना चाहिये । यह त्याग चाहे स्त्री को करना है। परन्तु अन्त में विजातीय विवाह का क्षेत्र पडे चाहे पुरुष को। अगर इस प्रकार पदपद पर बदेगा। प्रारम्भ में ओ पीड़ा होती हो उसे सहन मानापमान की कल्पना की जायगी तो समाज करना चाहिये । तथा इस सुप्रथा के प्रचारार्थ का निर्माण करना असमाव हो जायगा। थोड़ी बहुन मात्रा में ऐसी विषमता को सहन
स्र, विजातीय विवाह से जातियों का करना चाहिये जो विवाह के बाद थोड़े से प्रयत्न नाश नहीं होता, जिससे सगठन न हो सके।
से सुधारी आ सकती हो। तथा इन छोटे छोटे संगठनों के अभाव से कुछ .
श्त-विजातीय विवाह से सन्तान संकर
श्व-विजातीय हानि नहीं होती बल्कि सगठन का क्षेत्र बढ जाने हो जायगी। माँ की एक जाति, बाप की दूसरी से संगठन विशाल होता है।
जाति । नो सन्तान की तीसरी खिचड़ी जाति ___प्रभ-विवाह के लिये जातियों की सीमा
होगी यह सब ठीक नहीं मालूम होना। सोड दी जायगी तो अनमेल विवाह बहुत होंगे, जो
उत्तर-माँ का एक गोत्र, बाप का दूसरा
सन्तानका खिवडा क्यांकि छोटी जातियों में पारस्परिक परिचय पत्र नहीं होता, उसी प्रकार खिचड़ी जाति र अधिक होने से एक दूसरे को अच्छी तरह समझ होगी। पित परम्परा से जिस प्रकार गोत्र चला कर विवाह किया जा सकता है । विजातीय विवाह में परिचय को गुजाइश कहाँ है ? इस. दसरी बात यह है कि जब तक इन जातिया की
आता है उसी प्रकार जाति भी चली आयगी। लिये अनमेल विवाह या धिपम विवाह बहुत कल्पना का भूत सिर पर सवार है तभातक होंगे।
खिचड़ी और खिचड़ा को चिन्ता है। जब कि उत्तर--विजातीय विवाह का अर्थ अपरि. वास्तव में इनका कोई मौलिक अस्तित्व ही नहीं चित के साथ विवाह नहीं है। इन छोटी जातियो है तब माँ बाप को दो जातियों ही कही हुई के व जुदे जुदे देश या राष्ट्र नहीं है कि परि. जिनके संकर की बात कही जाय ? इन जातिया चय क्षेत्र से जातियों सीमित रहे। हमारा पडौसी की कोई शारीरिक या मानसिक विशेषता नहीं है चाहे वह दूसरी जातिका हो, उसका जितना परि जिससे इनमे जुदापन माना जाय। चय हमें हो सकता है उतना परिचय अपनी -मन में प्रेम ही क्यो न पैदा किया जाति के दूरस्थ व्यक्ति से नहीं हो सकता है यह जाय, नातिपाति तोड़ने से क्या फायदा आवश्यक है कि विवाह के पहिले वर कन्या एक उत्तर-प्रेम की भी आवश्यकता है और दूसरे के स्वभाव शिक्षण आदि से परिचित हो जातिपाति तोड़ने की भी अावश्यकता है, बल्कि नॉय, परन्तु ऐसा परिचय तो विजातीयों में भी प्रेम को व्यवहार में लाने के लिये जातिपाति परत है और सजातीयों में भी कठिन है। सच तोड़ना आवश्यक है। बहुत से लोगो में प्रेम पूछा जाय तो सनातीय विवाह में अल्प क्षेत्र होने पैदा होजाता है पर जातिपाति के कारण सहयोग न अनमेल विवाह अधिक होते हैं। विजातीय नहीं होपाता है। दोनों की अपनी अपनी उपववाह में चुनाव का क्षेत्र अधिक हो जायगा योगिता है। नो प्रेम तो पशुओं से भी होजाता सलिये अनमेल विवाह की सम्भावना कम है पर इससे जातिपाधि टूटने से होनवाजा सह
योग नहीं होनाता।
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दृष्टिकार
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रश्न-भेदभाव तो प्रकृति ने ही पैदा जातिपाति के बन्धन वाधा ही डालते हैं। प्रेमकिया है उसे तोडना क्या सम्भव है १ सम्बन्धो के लिये भी जातिपांति तोड़ना जरूरी है।
उत्तर-जोमा कति पैदा किया इसप्रकार और भी शंकाएँ उठाई जासहै, जो अनिवार्य है. उसे न तोडना है। किन्त जो कती है जिसका समाधान सरल है। पहिले जो पुराकृतिक नहीं है अनिवार्य नहीं है हानिकारक अनेक परकार का आतिभेद बताया गया है और है, उसे ही तोड़ना है। रंग राष्ट्र जीविका थादिक कहा जो शंकाएं उठाई गई है वे यहां भी उठाई कारण बनी हुई जातियाँ तथा अन्य उपजातियाँ जासकती हैं और उनका समाधान भी वही है न प्राकृतिक हैं न अनिवार्य हैं बल्कि काफी हानि- जो वहा किया गया है। तथा यहा की शकाएँ कारक है इसलिये उन्हें तोडकर एक मानवता वहा भी उठाई जासकती थी और उनका समापैदा करना चाहिये।
धान मी यहीं के समान होता। एश्न-छोटी छोटी जातियाँ होने से कभी इस प्रकार मनुष्य-जाति की एकता के भाभी धनिक की लड़की को धनिक पर नहीं लिये हरएक तरह का विजातीय विवाह आवमिलता इसलिय गरीब वर के साथ उसका विवाह श्यका है। हा, इतनी बात अवश्य है कि स्त्री-पुरुष होजाता है। जातिपाति न रहन से धनिक की एक दूसरे को अनुकूल और सह अवश्य हो। लड़की को कही न कही धनिक पर मिल ही अगर किसी को काला साथी पसन्द नहीं है, जायगा इसरकार कभी कभी गरीब वर को जो दूसरी भाषा बोलने वाला पसन्द नहीं है तो भले सौभाग्य प्राप्त होजाता है वह छिन जायगा। हो यह ऐसा साथी ने चुने। परन्तु उसमें इन
उत्तर-ऐसे सम्बन्धो के मूल में अगर रेम कारणों की ही दुहाई देना चाहिये, न कि जाति नही है किसी विशेष कारण से परस्पर आकर्षण की। दूसरी बात यह है कि अगर दो व्यक्तियो नहीं है, योग्य पात्र न मिलने की विवशता है तो ने अपना चुनाव कर लिया उनमें एक ब्राह्मण है यह दोनों का दुर्भाग्य है। लड़की गरीव की हो दूसरा शूद्र, एक आर्य है दूसरा अनार्य, एक या श्रमोर की, धन के कारण उसके मन मे या गुजराती है दसरा मराठी, इतने पर भी दोनो शरीर में कोई सुखकर विशेषता होने का नियम रेम से बँधना चाहते हैं तो इसमें तीसरे कोनहीं है। इसलिये गरीब वर को धनिक की पुत्री समाज को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार से कोई विशेष लाभ नहीं है। बल्कि धनिक की नहीं है। विवाह के विषय में " मियाँ बीवी राजी पुत्री स्वर्चीली होगी, शरीरश्रम में कम होगी इस- तो क्या करेगा काजी की कहावत परायः चरिलिये उस वर की पूरी परेशानी है। पर अगर तार्थ होना चाहिये। अनेक तरह का जो कल्पित मानलिया जाय कि यह उस वर का सौभाग्य है जातिभेद है, किसी को उसी के भीतर सयोग्य तो इसी कारण एक धनिक लडकी को गरीब के सम्बन्ध मिल रहा है और कारणवश अन्यन्न गले बाघ देना पड़े यह उस लड़की का बड़ा नहीं मिलता तो वह कल्पित सीमा के भीतर ही दुभोग्य भी तो है।
सम्बन्ध कर सकता है, इसमें कोई बुराई नहीं है। सारा टोटल मिलाने पर ऐसे सम्बन्धो से परन्तु सीमा के भीतर रहने के लिये सुपात्र को समाज को लाभ नहीं। एक का जितना लाभ, छोड़ना और अल्प पात्र को ग्रहण करना बुरा है। दूसरे का उससे ज्यादा नुकसान। यो जिसका विवाह और सहभोज, ये मनुष्य जाति की लाम बताया जाता है उसका भी काफी नुक. एकता के लिये बहुत आवश्यक है । यद्यपि कहीं सान है।
कहीं इनके होने पर भी एकता में कमी रहजाती ____ हा । ऐसे सम्बन्धो के मूल में प्रेम हो तब है, परन्तु इसका कारण विजातीय विवाहो का कोई हानि नहीं, पर ऐसे प्रेमसम्बन्धो के लिये बहुत अल्प संख्या में होना है। इसलिये इनकी
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संख्या बढ़ना चाहिये।
व्यक्ति समभाव के लिये दो तरह की इतना होने पर भी अमकश में जाति मावना सन रखना चाहिये । १ स्वोपमता मद रह सकता है उसको भी निमल करना र चिकित्स्यता । चाहिये । उसका उपाय अपनी भावनाओं को स्वोपमत्ता (एमगे)- स्वोपमता का मतउदार बनाना है। जब हम पूरे सुणपूजक हो लब है दूसरे के दुख को अपने दुख के समान ऑयगे, तब हममें से पक्षपात निकल जायगा। समझना । जिस काम से हमे दुःस होता है उस जातिमद के निकलने पर सर्वजातिसमभाव के से दूसरो को भी होता है इसलिये वह काम नहीं पैदा होने पर मनुष्य में सहयोग कहेगा, अनाव- करना चाहिये यह वोपनता भावना है। कर्तव्या. श्यक झगड़े नष्ट होने से शान्ति मिलेगी. श कर्नव्य निर्णय के लिये वह भावना बहुत 3की वचत होगी, प्रगति होगी। आज मनुष्य योगी है। की जो शक्ति एक दूसरे के मक्षण मे तथा आत्म- चिकित्स्यता ( थिचगेरो)- चिकित्स्यता का रक्षण में खर्च होती है, वह मनुष्यजाति के दुःख मतलब है पापी का बोगर समझकर दया करना, दूर करने में जायगी। उस शक्ति के द्वारा वह उसको दंड देने की अपेक्षा सुधार करने की चेष्टा अचान क रहस्यों को जानकर उनका सदुपयोग करना, अगर क्षमा करने का उस पर अच्छा कर सकगा। इसलिये हर तरह से मनुष्यजाति प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो तो उसे क्षमा की एकता के लिये प्रयत्न करना चाहिये। यह करना । पूर्ण जातिसमभाव योगी का तीसरा चिह्न है। प्रश्न-अगर मनुष्य सब जीवो को स्वोपम
__ समझने लगे तब वो उसका जीना मुश्किल हो ४ व्यक्ति-समभाव (सम सम्मभावो) लाय क्योंकि वनस्पति आदि के असंख्य प्राणियो
संयम, ईमानगरी, और सामाजिक सुन- का नाश किये बिना वह जीवित नहीं रह सकता वस्था की जड़ है व्यक्ति-सममाय 1 जगत में जितने उनको स्त्रोपम-अपने समान-समझने से कैसे काम पाप होते हैं वे सिर्फ इसलिये कि मनुष्य अपने चलेगा ? स्वार्थ को मर्यादा से अधिक मुख्यता देता है उत्तर-ध्येयष्टि अध्याय में अधिक से
और दूसरों के स्वार्थ को मानन से अधिक गौण अधिक प्राणियों के अधिक से अधिक सुख का बनाता है । हिंसा इसलिये करता है कि दुनिया वर्णन किया गया है, वोपमता का विचार करते भले ही मरे हम जीवित रहना चाहिये, मूल इस- समय उस ध्येय को न भुलाना चाहिये उसमें निये बोलता है कि दुनिया भले ही ठगी माय चैतन्य की मात्रा का विचार करके प्रात्मरक्षा के हमारा काम बनना चाहिये, इसी प्रकार सारे लिये काफी गुआइश बदाई गई है। पापी की जड़ यही स्वार्थान्धता है। व्यक्ति-सम... प्रश्न-जहा चैतन्य की मात्रा में विषमता भाव में मनुष्य अपने स्वार्थ के समान जगत के है वहाँ ध्येय दृष्टि का उक्त सिद्धात काम आ स्वार्थ का मो खयाल रखता है इसलिये उसका जायगा पर मनुष्यो मनुष्यों में भी स्वोरमता का जीवन स्यपरसुखवक्रि और निष्पाप होता है। विचार नहीं किया जासकता। एक न्यायाधीश
धेयष्टि अध्याय में बताया गया है कि अगर यह सोचने लगे कि अगर मैं चोर के स्थान विश्वसुखवर्धन जीवन का ध्येय है। इस ध्येय की पर होता तो मैं भी चाहता कि मुझे दंड न मिले पूनि शक्ति समभाव के विना नहीं हो सकती इसलिये चोर को दंड न देना चाहिये । इस प्रकार इसलिये उस धेय के अनुकूल व्यक्ति-ससमाव की उदारता से पापियों की वन आयगी । जगत शत्यावश्यक है।
में पाप निरंकुश हो जायेंगे।
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उत्तर - पर न्यायाधीश को यह भी सोचना चाहिये कि अगर मेरे घर की चोरी हुई होती तो मैं भी चाहता कि चोर को दण्ड मिले। इसप्रकार स्वोपमता का विचार सिर्फ चोर के विषय में ही नहीं करना चाहिये किन्तु उसके विषय में भी करना चाहिये जिसकी चोरी हुई है। अपराधी या पापी लोगों का विचार करते समय सामूहिक हित के आधार पर बने हुए नैतिक नियमों की अवहेलना नहीं करना चाहिये ।
प्रश्न -यदि अपराधी को दण्ड विधान का नियम ज्यो का त्यों रहा तो चिकित्स्यता का क्या उपयोग हुआ ?
उत्तर - दंड भी चिकित्सा का रंग है। अपराध एक बीमारी है उसकी चिकित्सा कई तरह से होती है । सामाजिक सुव्यवस्था के लिये जहाँ दण्ड आवश्यक हो वहाँ दंड देना चाहिये पर व्यक्ति पर रोषवश प्रतिदरह न हो नाये इसका खयाल रखना चाहिये। और हृदय के भीतर उसके दुःख से सहानुभूति और दया होना चाहिये । यही दंड के चिकित्सापन का चिह्न है ।
प्रश्न- इह यदि चिकित्सा है तो मृत्युदंड तो किसी को दिया ही क्यों जायगा ? क्योंकि मरने पर उसकी चिकित्सा कैसे होगी ?
उत्तर – चिकित्सा का काम सिर्फ आये हुए रोग को दूर हटाना ही नहीं है किन्तु रोगा को पैदा न होने देना और उनको उसे जितन होने देना भी है। मृत्यु-दंड का भय लाखों पापियों के मन में पाप उत्तेजित नहीं होने देता इसलिये Best विधान भी चिकित्सा का अंग है। निसन्देह मृत्युदण्ड पानेवाले की चिकित्सा इसमें
नहीं हो पाती है परन्तु श्रन्य लाखो की चिकित्सा होती है। समाज शरीर के स्वास्थ्य के लिये उसके किसी विषैले अश को हटाना पड़े तो हटाना चाहिये ।
प्रश्न -- मानलो क्षमा करने का उसपर seat प्रभाव पड़ता है पर जिसका उसने अप
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राध किया उसको असन्तोष रहता है। तब चिकित्सा के लिहाज से उसे क्षमा किया जाय या पीड़ित के सन्तोष के लिये पीड़क को दंड दिया जाय ?
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उत्तर- यदि पीड़ित को सन्तोष न हो तो पीड़क को उचित दंड मिलना चाहिये । अन्यथा पीडित के मन में प्रतिक्रिया होगी और वह किसी दूसरे उपाय से बदला लेने की कोशिश करेगा ? चदले में मर्यादाका अतिक्रम और अन्धाधुन्धी होने की पूरी सम्भावना है। अगर वह बदला न भी ले तब भी उसका हृदय जलता रहेगा उसे न्यायके प्रति अविश्वास हो जायगा। क्षमा का उपयोग अधिकतर अपने विषय में करना चाहिये। अगर अपना हृदय निर्वैर होगया हो और क्षमासे पीड़क सुधरने की आशा हो तब क्षमा करना उचित है। प्रश्न- कभी कभी ऐसा अवसर आता है। कि कोई कोई काम अपने को बुरा नहीं मालूम होता और दूसरे को बुरा मालूम होता है। जैसे अपने को एकान्त में बैठना अच्छा मालूम होता हो दूसरों को बुरा मालुम हो, घास खाना अपनेको बुरा मालूम होता हो और घोड़े को अच्छा मालूम होता हो, अपने को कपड़ा पहनना अच्छा मालुम हो दूसरों को बुरा मालूम होता हो, ऐसी हालत में स्वोपमता का विचार हम उनके बारे में करलें तो हमारी और उनकी परेशानी है। व्यव - हार में भी बड़ी अड़चन आयगी ।
उत्तर- स्त्रोपमता को विचार कार्य की रूपरेखा देखकर न करना चाहिये किन्तु उसका प्रभाव देखकर करना चाहिये । अन्तिम बात यह देखना चाहिये कि वह कार्य सुखजनक है या दुखजनक । सुख जैसा हमें प्यारा है वैसा दूसरों को भी प्यास है इसलिये जैसे हम अपने सुख की पर्वाह करते हैं उसी प्रकार दूसरों के सुख की भी करना चाहिये । विचार सुखदुखका है इसलिये जो काम हमें दुखजनक हो और दूसरे को सुखजनक हो वह काम हम करेंगे। अगर बीमारी के कारण हमें भोजन की जरूरत नहीं है और भूख के कारण दूसरे को है तो अपने समान
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दूसरे को उपवास करना स्वोपमता नहीं है,
है यह कि हम अगर नीरोग होते और भूखे होते तो हम क्या चाहते वही दूसरे को देना चाहिये।
प्रभु जगत से गुणी अल्पगुणी दुर्गाशी दिधनेक तरह के प्राणी हैं उन सब को अगर पते सम्म समझा जाय तो सब को बराबर ममता पड़ेगा। पर यह तो धन्धेर ही हुया गर उनकी बराबर न समझा जाय तो स्वोपमता स रहेगी ?
।
उत्तर - स्वोपमता के लिये सच को एक न समझने की जरूरत नहीं है किन्तु योग्यताकुमार ममकने की जरूरत है। जैसे हम चाहते योग्यता की अवहेलना न हो उसी मगर यह भी समझना चाहिये कि दूसरों की याको वहुलना न हो । यही स्वोपमता है। जगरसेवक और स्वार्थी को एक समान सममना स्वोपमता नहीं है। पर अपने समान सभी कोप न्याय देना स्वोपमता है।
1
प्रतिपक्ष न्याय देना एक प्रकार से क्य है क्योंकि अगर हम अपनी उन्नति करते १. का भी दूसरों के साथ अन्याय करते हैं। बड़े
ना ना श्रीमान बनाना एक प्रकार स के साथ अन्याय है क्योंकि इससे परहता है। हा दूसरे से बढ afant है वहा स्थोपमता कैस सती है?
रह
उत्तर--समभाव या स्वोपमता से मनु का विकास नहीं रुकता और न उचित विमान के ऊपर चोक होता हो रहे हो अपनी
पेरिया सामूहिक विपति से छुटकारा पाना बुद्धिमान परोष हमारी विपत्ति दूर करने fast वोन होता उसमे अपने की महोगे। सेवा पर ता है उससे
को आनन्द ही मिलता है। इस महत्ता का मूल स्त्रोपभता है। जैसे हम चाहते हैं कि विपत्ति में हमें कोई सहारा दे, अधेरे मे रास्ता बताये, उसी तरह दुनिया भी चाहती है तब हम दुनिया के लिये अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं तो उसको चाह पूरी करते हैं। इसमें दुनिया पर बोझ क्या ? नहीं. और अधिकार यश र सम्पत्ति डा, जहा मनुष्य दुनिया को कुछ देता तो आदि पाजाता है तब यह अवश्य दुनिया को वो हो जाता है। इसमें स्वोपमता का नाश भी होता है ।
है
जैसे हम नहीं चाहते कि हमें कुछ सेवा दिये बिना कोई हमसे आदर
य विनय पूजा आदि के रूप में ले जाय उसी प्रकार दूसरे भी चाहते हैं। ऐसी हालत में हम अगर जनता से छल बल से धन यश आदर पूजा अधिकार की लूट कर लेते हैं तो यह जनता अन्याय है, स्वोपमता का अभाव है। talyaat या भाव न तो कोई अन्धेरशाही है न अविवेक है, न इसमें विकास की
पर
रोक है, इसमें तो सिर्फ अपने न्यायोचित ही दूसरों के लिये रखने की बात है। विश्व अधिकारों के लिये जैसी भावना रहती है वैसी कल्याण के विचार का भी खयाल रखना आव श्यक है।
संयम या चारित्र का वर्णन व्यक्तिसमभाव का विशेष भाष्य मना चाहिये। योगी में संगम का मूल यह व्यक्तिसमभाव होता ही है।
५ अवस्था - समभाव ( जिज्जो सम्मभावो )
great पो निशानी योगी जीवन की अन्तिम श्रेणी यह अवस्थासमभाव है। यद्यपि सुख दुःख का सम्बन्ध वाह्य परिस्थितियों से
है फिर भी अवस्था समभावी बाहर परिस्थिनियों पर प्रभाव मनपर नहीं पड़ने देता। वह बाहर के दुख मे भी शान्त रहता है और बाहर से भी शान्त रहना है,
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हाटकाड
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अवस्थासमभाव तीन तरह का होना है भावना, अद्वैत भावना आदि नाना तरह की सात्विक, राजस, तामस। योगी का ससमाव' भावनाएँ है। सात्विक होता है।
नाट्यमावना (नटभावो)- एक सुपात्र ___ सात्विक ( पुमोपेर)-जिस समभाव मे नाटक में कभी राजा बनता है कभी भिखारी दुःखकारणो पर मोह नही होता, जीवन को बनता है कभी जीतता है कभी हारता है पर नाटक
एक खेल समझकर सुखद ख को शान्तता से क खिलाडी का ध्यान इस बात पर नहीं रहता। .. सहा जाता है, जिस का मूल मन्त्र रहता है
वह जीतने हारने की चिन्ता नहीं करता वह तो
सिर्फ यही देखता है कि मैं अच्छी तरह खेलता दुःख और सुख मन को माया।
हूँ या नहीं ? इसी प्रकार जीवन भी एक नाटक मनन ही संसार बसाया ।
है इसमें किसी से वैर और मोह क्यो करना मन को जीता दुनिया बीती हुआ भवोदधिपार चाहिये। यह तो खेल है। दो मित्र भी विरोधी
नहीं है दूर मोक्ष का द्वारा बनकर खेल खेलते हैं तो क्या उनमे बैर होजाता गज्ञस (घुवोपेर)- राजस श्वस्थासमभाव है। पति पत्नी भी आपस में शतरंज चौपड़ मे एक जोश या उत्तेजना रहती है। वह मारने आदि के खेल खेलते हैं और एक दूसरे को जीतना की आशा में मरने से भी नहीं डरता, गिरी हुई चाहते हैं तो क्या गैर हो जाता है। अपने प्रतिपरिस्थिति में वह शान्तता से सब सहता है पर द्वन्दियों को खिलाड़ी की तरह प्रेम की नजर से हाय निवर नहीं होता। जरा उंची श्रेणी के देखो। सच्चे खिलाड़ी जिस प्रकार नियम का योद्धाओ में यह भाव पाया जाता है।
भंग नही करते भले ही जीत हो या हार, इसी तामस (घुमोपेर )- यह जड़ तुल्य या पशु- ही जीत हो या हार । नास्त्यभाषना ऐसी ही
प्रकार जीवन में भी नीति का भंग मत करो भले तुल्य प्राणियों में पाया जाता है। इसमें न तो मला संयम है न वीरता, एक तरह की जड़ता है।
प्रश्न-खेल में प्रतिस्पर्धा होने पर भी जो इसमें अपनी विवशता का विचार कर अन्याय या अत्याचार सहन कर लिया जाता है। अन्याय
मन मे मित्रता रहती है उसका कारण यह है कि और अत्याचारी का भी अभिनन्दन किया जाता
खेल के बाहर जीवन मित्रतामय रहता है उसका है। इसका सन्न रहता है
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ध्यान हमें बना रहता है, खेल के पहिले और पीछे कोउ नृप होय हमे का हानी।
हमे व्यवहार भी जैसा करना पड़ता है, पर जीवन
का खेल तो ऐसा है जो जीवनभर रहता है उसके चेरि छोड़ होक्न नहिं रानी ॥
आगे पीछे का सम्बन्ध तो हमें ज्ञात ही नहीं पराधीन देश के गुलामी मनोवृत्ति वाले मनुष्यो रहता जिसके स्मरण से हम जीवन का खेल
में यही तामस समभाव पाया जाता है। जानवरों मित्रता के साथ खेल सकें। पतिपत्नी दिनरात । में या जानवर के समान मनोवृत्ति रखनेवाले प्रेम से रहते हैं इसलिये घड़ी दो घड़ी को
मनुष्यों में भी यही समभाव होता है। खिलाड़ी बनकर प्रतिस्पर्धी बन गये तो दिनमर ___ सात्रिक समभाव संयम पर, राजस सम- के सम्बन्ध के कारण घडी दो धड़ी की प्रतिस्पर्धी भाव साहस पर, तामस समभाव जडतापर निर्भर विनोद का रूप ही धारण करेगी परन्तु जीवन है। योगी सात्विक समभावी होता है। का खेन तो जीवन भर खलास नहीं होता तब
इस सात्विक समभाव को स्थिर रखने के खेल के बाहर का समय हम कैसे पा सकते हैं लिये नाट्यमावना, क्षणिकत्व भावना, लघुत्व जब समभाव आदि रहे। 'जीवनभर खेलना है भावना, महत्व भावना, अनृणत्व भावना, कर्मण्य तो खिलाडी की तरह लड़ना झगडना भी है यहाँ
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समभाव कैसे आयगा ।
प्रश्न-बहुत से प्राणी से होते हैं जिन्हें उत्तर--दिन में एक समय ऐसा भी रक्सो समाज का शत्र कह सकते हैं। जो खूनी है, डाक जिस समय यह सोच सको कि हम नाटकशाला हैं, स्त्रियों के साथ थलात्कार करते हैं ऐसे लोगों से के बाहर है। यह समय प्रार्थना नमाज सन्ध्या जब प्रसंग पड़ जाता है तब उनके विपय में आदि का भी हो सकता है या सह शाम घमने निर कैसे हो सकते हैं बल्कि उन लोग को जय का भी हो सकता है या और भी कोई समय हो भो मौका मिले तभी दण्ड देना चाहिये। जब सकता है, जिस समय एकान्त मिल जाय या मन वे लोग खून या व्यभिचार करें तथ उनसे वर दुनिया की इस नाटक शाला से बाहर खींच ले करें और बाकी समय में उनसे मित्र के समान जाय। इस समय विश्वबन्धुत्व से अपना हाय व्यवहार करें तो इसका कोई प्रशनहीं। पापी भरा रहना चाहिये और दनियादारीमा जब एसी सुविधाएं पायेंगे तो उनके पाप निरंकुश नाते रिश्ते वैर विरोध भूल जाना चाहिये । यह
होजायगे। समय है जिसकी याद में जीवन का नाटक
उत्तर-को समाज का ऐसा शत्रु है उसे खेलते समय आती रह सकती है।
दण्ड देना उचित है और जब मौका मिले तभी दूसरी बात यह है कि जिस कार्य को लेकर ,
दण्ड देना चाहिये । पागल कुत्ते को मार डालना
ठीक है, फिर भी यह याद रखना चाहिये कि वह हमारी प्रतिस्पर्धा आदि हो उस कार्य में हम नाटकशाला के भीतर है बाकी अन्य समय में के लिये उसे मार डालना ठीक समझा गया
बीमार है, उससे वैर नहीं है, पर समाज के रक्षण घाहर । मानलो दो आदमी राजनैतिक या सामा- है। इसलिये हम प्रार्थना में बैठे तो पापी क लिक आन्दोलन में भाग ले रहे हैं उनमें मतभेद विषय में भी हमारे मन में निवर वृत्ति प्राजाना है या स्वार्थभेन है तो अब वक उस अान्दोलन से चाहिये । उस समय तो नाटक के खिलाड़ी नहीं सबन्ध है तब तक मतभेद या स्वार्थभेद सम्बन्धी रहना चाहिये । हमारे जीवन में कठोर या कोमल व्यवहार है बाद में समझलो हम नाटकशाला के कैसा भी कर्तव्य आने वह कर्तव्य करना उचित वाहर हैं।
है, नाट्वभावना उसका विरोध नहीं करती पर जब तक बाजार में हो तब तक व्यापारी एक तरह की निर वृत्ति पैदा करती है, जिससे का खेल खेलो। घर में आकर बाजारके कामोंको हम सफलता असफलता महत्व लघुत्व की पवाह इस प्रकार देखो जैसे एक खिलाडी अपने खेले नकरके शान्त रह सकते हैं। गये खेल को देखचा है। नाटक का खिलाडी रंग- प्र--अब योगी नाटक के पात्र के समान मंच के बाहर यह नहीं सोचते कि राजा ने क्या जीवन का खेल खेलता है नब उसका उप नकली दिया और नौकर को क्या मिला । वे यही सोचते होता है प्रेम भी नकली होता है। अगर कोई है कि राजा कैसा खेला नौकर कैसा खेला, राम पति ऐसा योगी है तो वह अपनी पत्नी से ऐसा कैसा खेला रावण कैसा खेला। खेज का विरोध ही नकली प्रेम करेगा, परती भी ऐसा ही प्रेम खेल के बाहर नहीं रहता। इसी प्रकार बाजार करेगी, यह तो एक तरह की वंचना है और की बातो पर घर में दर्शक की तरह विचार करो क्षणिक मी घर की बातों का बाजार में या घर के बाहर उत्तर--योगीमें मोह नहीं प्रेम होता है। यह दर्शक की तरह विचार करो, इस प्रकार वैर विरोध प्रेम वचना नहीं है। वंचना यहाँ है जहाँ प्रेम के स्थायी कमी न होने दो। प्रार्थना नमाज सन्ध्या अनुसार कार्य करने की भावना न हो, मन में आदि के समय सब दुर्वासनाएँ हटा दो, सारे विश्वासघात का विचार हो। योगी का प्रेम जीवन को दर्शक की तरह देखो। इस प्रकार सच्चा होता है, निश्चल होता है, स्थिर होता है। समभाव ना जायगा।
मोही का प्रेम रूप के लिये होगा या किसी और
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.का.
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स्वार्थ के लिये होगा, रूपादि के नष्ट होने पर या उपयोग है उसी में उनका उपयोग करना चाहिये। स्वार्थ नष्ट होने पर नष्ट हो जायगा पर योगी का नियम, जोकि अनेक दृष्टियों के विचार से बनाये रेम कर्तव्य समझकर होगा वह स्वार्थ नष्ट होने जाते हैं उनका भी दुरुपयोग हो जाता है फिर पर भी कर्तव्य समझकर रहेगा। इसलिये मोही भावना तो सिर्फ किसी एक दृष्टि के आधार से की अपेक्षा योगी का प्रेम अधिक स्थिर है। बनाई जाती है उनकी दृष्टि के विषय में जरा भी
२ क्षणिकत्वभावना (अलोपेरोभावो)-धन गड़बड़ी हुई कि वे निरर्थक ही नहीं, अनर्थकर हो वैभव सुख दुःख आदि क्षणिक हैं, अनित्य हैं, जाती है। इसलिये यह बात सदा ध्यान में रखना किसी न किसी दिन चले जॉयगे. इस प्रकार की चाहिये कि हर एक भावना और नियम स्वपरभावना से भी अवस्थासमभाव पैदा होता है। हित या विश्वकल्याण के लिये है । स्वपरहित में हर एक आदमी को अपने मन में और अपने थोडी मी बाधा हो तो समझो उस भावना या कमरे में यह लिख रखना चाहिये कि दिन नियम का दुरुपयोग हो रहा है। चले जॉयगे। अगर ये दिन वैभव के हैं तो भी ३ लघुत्वभावना (कीतोमायो)- अमुक चले जायगे इसलिये इनका अईकार न करना चीज नहीं मिली, अमुक ने ऐसा नहीं किया चाहिये । अगर ये दिन दु.ख के हैं तो मी चले इत्यादि आशाओं का पाश इसलिये विशाल होता जॉयगे इसलिये दुःख में घबराना न चाहिये। जाता है कि मनुष्य अपने को कुछ अधिक समइस प्रकार क्षणिकत्व भावना से अवस्थासमभाव कता है इसलिये उसका अहंकार पद-पद पर उमपैदा होता है, सुख दुःख में शान्ति होती है। इता है और उसे दुखी करता है, साथ ही जगत
प्रश्न-इस प्रकार अवस्थासमभाव से तो को भी दुखों करता है। पर मनुष्य अगर यह मनुष्य निम्द्यमी होजायगा। अन्याय हो रहा है सोचले कि इस विशाल विश्व में में कितना लघु तो वह सहन कर जायगा कि आखिर यह एक हूं बुद्र हूँ। प्रकृति का छोटासा प्रकोप, मेरी छोटीदिन चला ही जायगा, ऐसा आदमी राष्ट्रीय सी गलती, इस जीवन को नष्ट कर सकती है। सामाजिक अपमानों को भी सह जायगा। जगत में एक सं एक बढ़कर धनी, बली, स्वस्थ,
उत्तर-भावनाएँ कर्तव्य में स्थिर करने के विद्वान, अधिकारी, तपस्वी, कलाकार, वैज्ञानिक, लिये हैं, अगर भावना विश्वकल्याण में बाधक कवि, सुन्दर, यशस्वी पड़े हुए हैं, मैं किस किस होती है तो वह भावनाभास (निमावो) है। बात में उनका अतिक्रमण कर सकता हूँ। अगर
दुनिया ने मुझे महान नहीं समझा तो इसमें क्या अवस्थासमभाष का प्रयोजन यह है कि
आश्चर्य है । मरुस्थल में पड़े हुए रेती के किसी मनुष्य सुख दु:ख में सुब्ध होकर कर्तव्यहीन न
कण को पथिकों ने नहीं देखा, नहीं ध्यान दिया, होजाय। मोह और चिन्ता उसके जीवन को
तो इसमें उस कप को बुरा क्यों लगना चाहिये। कर्तव्यशून्य न बनादें । क्षणिकत्व भावना का इस प्रकार लघुत्व भावना से मनुष्य का अहंकार उपयोग भी इसी तरह होना चाहिये। शान्त होता है और अपमान या उपेक्षा का कष्ट
क्षणिकत्व भावना के समय यह विवेक न कम हो जाता है। पर यह ध्यान रहे कि लघुत्व भूलना चाहिये कि विपत्ति और सम्पत्ति क्षणिक भावना आत्मगौरव नष्ट करने के लिये नहीं है। होने पर भी प्रयत्न करने से कल जानेवाली प्रभ-लघुस्व भावना से अहंकार नष्ट हो विपत्ति आज ही जा सकती है और आज जाने- जाता है फिर आत्मगौरव कैसे बचेगा ? अहंकार वाली सम्पत्ति कल तक रुक सकती है। और श्रात्मगौरव मे क्या अन्तर है?
भावनाओं के विषय में यह खास ध्यान में उत्तर-अहंकार में दूसरे की अनुचित रखना चाहिये कि जिस कार्य के लिये उनका अवहेलना है, आत्मगौरव में अपने किसी विशेष
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गुणा है। अकार दुखद है श्रात्मगौरव है। आत्मगौरवहीन मनुष्य फजूल ही दूसरों की परेशानियों बढ़ाता है, उनका समय बर्बाद करता है उन पर चोक बनता है उन्हें संकोच में डालना है, इसलिये आत्मगौरव आवश्यक है इतना खयाल रहे कि आत्मगौरव के नाम पर न होने पाये। उचित निय रहना ही चाहिये ।
४ महत्वभावना (बोगीभावो ) -- जब हमारी कोई हानि हो जाय, हम निराश या असन्तुष्ट हो नायें, मन मे araar raatयता का राज्य जम जा, उत्साह न हो जाय, तब हम महत्व भावना का उपयोग करना चाहिये। महत्व भावना के विचार इस प्रकार होते हैं।
है
भावना ( स्त्रीभावो )- मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये सबसे आजा लगाया करता वह हमे धन देदे यह अमुक सुविधा देने आदि। जब यह श्राशा पूरी नहीं होती न उसका द्वेष करता है दुखी होता है। इसके लिये अनुत्व भावना का विचार करना चाहिये कि किसी पर मेरा कोई ऋण नहीं है इसलिये किसी ने मंग मुकाम नहीं किया तो इसमें बुराई की क्या बात है। जब पेंढा हुआ था त मेरे पास क्या था। न धन था न चल, न बुद्धि विद्या। यह सत्र समाज से पाया इसलिये अगर इसका फल समाज को या किसी दूसरे को दे दिया तो इसमें किसी पर मेग क्या ऋण हो गया। वह तो लिये हुए ऋण का अमुक श में चुकाना हुआ। इस प्रकार किसी पर अपना
न समझने में दूसरे से पाने की लालसा हो होजाती है और न पाने से विशेष खेद नहीं होता, समभाव बना रहता है ।
संसार में एक से एक चढ़कर दुखी पड़े हुए है । पिसी को भरपेट खाने को नही मिलना, का रोग के मारे तड़प रहा है कोई स्थायी बीमारियों का शिकार है किसी के पुत्र पनि आदि सर ये हैं, fair at ra re fवश्राम करने के लिय स्थान भी नहीं है उनसे मेरी अवस्था अच्छी है। मेरे ऊपर एक या दो आपत्तियों है पर चारों तरफ स दुःखी पददलित मनुष्य से यह संसार भरा पड़ा है, मेरी दशा ना उनस काफी अच्छी है, फिर मुझे इस प्रकार दुखी होने का क्या अधिकार है?
खालिक ने एक एक से बढ़कर बना दिया। सौसे बुरा तो एक से श्रद्धा वना दिया || मैं एकाध से अच्छा हूँ यही क्या कम है ?
इस भावना से मनुष्य की घवराहट दूर हो जाती है । हृश्य को एक प्रकार की सान्त्वना सिलती है।
पर इस भावना का उपयोग अवनति के गढ्ढे मे पढ़े रहने के लिये न करना चहिये । अपनी और जगतकी उति करनेके लिये. अन्याय अत्याचारों को दूर करने के लिये, सदा प्रयत्न करते रहना जरूरी है। जब निराशा होने लगे उत्साह मग होने लगे तब इस भावना का चिन्त वन करना चाहिये ।
६ भावना ( मत्तोमाचो ) - मैंने अमुक का य किया और अमुक का त्यों किया इस प्रकार के विचारों से मनुष्य दूसरी को अपन
से
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तुच्छ समझने लगता है और दूसरों के श्रम पर मौज करना अपना हक समझ लेता है इससे संघर्ष और द्वेष बढ़ता है और अपनी कर्मयता के कारण दुनिया की प्रगति भी reat है इसके लिये कर्तव्य भावना का उपयोग करना चाहिये ।
मनुष्य कर्म किये बिना रह नहीं सकता विश्राम का आनन्द तभी तक है अतक उसके आगे पीछे कर्म है, अन्यथा कर्महीन विश्राम एक जलखाना है या जड़ता है। इस प्रकार कर्म करना मनुष्य का स्वभाव है ऐसी हालत में उसे कुछ न कुछ करना तो पड़ता हो, तब यदि उसके कम से किसी को कुछ लाभ हो गया तो वह दूसरे पर अहसान क्यों लादे ? जुगनू स्वभाव से चमकता हुआ जाता है उससे अगर किसी को प्रकाश मिल गया तो जुगनू उस पर अहसान क्यों बताया १ परोपकार को स्वाभाविक कर्म सम
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हाएका
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किसी व्यक्तिविशेष पर अहसान का बोझ न योगीको लब्धियाँ जिम्मपेरिद्धोखे) लादना करीज्य भावना है। ___ अद्वैत भावना ( नोबुमोभावो )-सब संघर्ष र
अवस्था सममाव के प्राप्त होने पर मनुष्य और पापा के मूल में द्वत है। जिसकी पर ,
योगी बनाता है, वह अनेक ऋद्धि सिद्धयों को
पा जाता है। ऋषि सिद्धि का मतलय अणिमा समझा उसके स्वार्थ से संघर्षा हुआ और पाप महिमा आदि कल्पित और भौतिक शक्तियो से आया। जहों अद्वैत है वहाँ हानि लाभ का नहीं है किन्त उस आध्यात्मिक बल से है जिसके विचार भी नहीं रहता । अपनी हानि होकर दूसर प्राप्त होने पर मनुष्य विजयी बनता है, आत्म का लाभ हुआ तो वह भी अपना लाम मालूम विकास और विश्वकल्यास के मार्ग की सारी होने लगता। हमारा अन्न उब बेटा वेटी पत्नी
कठिनाइयो पर विजय प्राप्त करता है, अन्तस्तल भाई माँ बाप आदि खा जाते हैं तब यह विचार । नहीं होता कि इननं कितना कमाया और कितना
। के सारे मैल धो डालता है। योगी की ये आध्या.
मिक लब्धियाँ तीन हैं- १-विन-विजय खाया, सब के साथ अद्गैत भावना होने से यही मालूम होता है कि मनं कमाया हमने ही खाया २-निर्भयता ३-अकषायता। विश्व के साथ जिसकी यह अद्वैत भावना
विघ्न-विजय (बाधो तयो)-स्थपरकल्याण है वह दुःखी रहकर भी दूसरों को सुखो देखकर
के मार्ग में चार तरह के विध्न आते है १ विपत्
२ विरोध ३ उपेक्षा ४ प्रलोभन । योगी इन चारों सुखी होता है। जैसे शाप भूखा रहकर भी बच्चो
पर विजय करता है। को खाते देखकर प्रसन्न होता है उसी प्रकार अढ़तभावनाशील मनुष्य नगन को सुखी देखकर
१ विपत् विजय (मुसोजयो)- बीमारियाँ
धनक्षय या साधनक्षय, सहयोगीका वियोग आदि ५ प्रसन्न रहता है इससे भी हर एक अवस्था में यह
नाना तरह की विपदाएँ हैं जो मनुष्यों पर प्राती सन्तुष्ट रहता है।
हैं- योगियो पर भी आती हैं परन्तु योगी उसकी पहिले भी कहा जा चुका है कि भावनाओं पर्वाह नहीं करता, उसका हृदय कर्तव्य से विचका दुरुपयोग न करना चाहिये. न अनुचित स्थान लित नहीं होता। बीमारी से शरीर अशक्त होने या अनुचित रीति से उपयोग करना चाहिये। से उनका शरीर कुछ निष्क्रिय भले ही हो वाय साथ ही इतना भो समझना चाहिये कि अवस्था. पर हृदय निकिय नही होता । कल्याण के मार्ग सममाव अपने को अधिक से अधिक प्रसन्न पर चलने से या विश्वसेवा करने से मैं बीमार रखने, निराशा और निरुत्साह न होने के लिये हो गया, अब वह काम न करूंगा इस प्रकार है, कर्मण्यता का नाश करने के लिये नहीं। हम उस का उत्साह भग नहीं होता । हा, बीमार होना मूर्ख हैं तो मूर्ख बने रहे, हम गुलाम है तो गुलाम दुनिया पर बोझ लादना है जगत मे दु.ख बढ़ाना ही बने रहे. लगत् में अन्याय अत्याचार होते है है, इसलिये बीमारी से बचने का यत्न करता है। तो चुपचाप देखते रहें यह अवस्थासमभाव नहीं पर शरीर जितना काम कर सकता है उतना काम है, यह बढ़ता है पामरता है। अवस्थासमभाषी करने में वह अपने हृदय को निर्बल नहीं पाता। वही है जो दु:ख सुख की पर्वाह किये बिना धन का क्षय हो जाय, उचित साधन न कल्याण में लगा रहता है, जिसे सफलता अस. मिले सहयोगी न मिले तो भी वह हाथपर हाथ फलता की मी पर्वाह नहीं होनी, कोई भी विपत्ति रखकर बैठकर नहीं रह जाता। अपनी शक्ति का जिसे विचलित नहीं कर सकती, कोई प्रलोभन वह अधिक से अधिक उपयोग किसी न किसी जिसे लुभा नहीं सकता, जिसे कोई हतोत्साह तरह आगे बढ़ने के लिये करता ही है। प्रगति नहीं कर सकता।
हो न हो था कम हो पर उसके लिये वह अपनी
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शक्ति लगाता ही रहता है। विपत्तियों उसके विपत् विजय की अपेचा विरोध विजय म उत्साह को मार नहीं सकती यही उसकी विपत. मनोवल की विशेष प्रावश्यकता है। विपत विजय विजय है।
में जनता की सहानुभूति का बल मिलता है २ विरोध-विजय ( फूलुरो जयो)- जनसेवा परन्तु विरोध विजय में चल नहीं मिलता, या और आत्म-विकास के काम तो ऐसे होते है कम मिलता है। जिनमें विपत्तियों भले ही रहे पर विरोर नहीं ३ उपेक्षा विजय (बटो जयो)-लोजिस होता या नाममात्र का होता है। आप किसी विरोध से नहीं गिरापाते उसे उपेना से गिगने रोगी का इलाज करे कोई काव्य लिखें किसी को की कोशिश करते हैं। अगर मनुष्य में पर्याप्त धान दें परिचर्या करें इत्यादि कामो में शारीरिक मनोबल हो तो विरोच पर वह विजय पा जाना या आर्थिक विपत्ति की अधिक सम्भावना है
है परन्तु उपेक्षा पर विजय पाना फिर भी कठिन
परन्तु विरोध की कम । पर सामाजिक रूढियों को हटाने
१. सना है। विरोध में संघर्ष गदा होता है उससे का प्रयल करें, लोगों के विगडे विचार सुधारने
गति मिलती है पर उपेना से मनुष्य भूखों मर की कोशिश करे तो विरोध की अधिक सम्भा
जाता है। पानी में प्रवाह के विरुद्ध भी नेरा जा धना है। योगी इस विरोध की पवाह नहीं भी तैराक को गुवाइश है, पर शून्य में, जहा
सकता है, यद्यपि इसके लिये शनि चाहिय, पिर करता । न तो वह विरोधिया पर क्रोध करना है कोई विरोध नहीं करता, अच्छा से अच्छा तैराक और न उनकी शक्ति के आगे झुकता है । विरोध भी नहीं तो पाता। पेक्षाविजय भी यही सब को वह उपेक्षा और अपनी क्रियाशीलता के द्वारा से बड़ी कठिनाई है । इसस काकतो साधनहीन तिम कर देता है। उसके दिल पर कोई एसा और निरुत्साह होकर मर जाता है। पर योगी प्रभाव नही पड़ना जो उसको पथ से विमुन्म इस उपेक्षा पर भी विजय पाता है क्योंकि उस करदे।
कर्तव्या का ही ध्यान रता है, दुनिया की दृष्टि प्रश्न-वैद्य भी रोगी के विरोध की पर्वाह की या सफलता असफलता की वह पर्वाह नहीं करता है, उसका मन रखने की कोशिश करता है, करना इसी प्रकार समाजसेवक को क्यो न करना
उपेक्षा भी दो तरह की होती है-एक कृत्रिम चाहिये।
दुसरी अत्रिम । जो उपेक्षा जानबूझकर की ___ उत्तर विरोध पर विजय पाने के लये
जानी है, जिसमें विरोध रूप में भी सहयोग न जिस नीति की या धैर्य की आवश्यकता है उसका
देने की भावना रहनी है वह कृत्रिम उपेक्षा है। उपयोग योगी करता ही है। जैसे वैद्य गेगी का
अकृत्रिम उपेक्षा अनजान में होती है। योगी मन रखने की कोशिश करता है वह रोगी की
अपने काम में एक प्रकार के श्रानन्द का अनुभव चिकित्सा के लिये, न कि रोगी के विरोध के
करता है और उसी आनन्द में उसे पर्याप्त संतोष डर से । वैद्य के मनमे भय नहीं हिताकाक्षा
प्राप्त हो जाता है इसलिये कोई उस पर उपेक्षा होती है उसी प्रकार योगी विरोध से डरता नहीं
करे तो उसे इसकी पर्वाह नहीं होती इस प्रकार है हिताकाक्षा क वश से नीति से काम लेता है।
उपेक्षा पर विनय करके वह कर्तव्य करता
रहता है। जो लोग सन्मान या कीर्तिकाक्षा के वश के
प्रश्न-कोई कोई सेवाएँ ऐसी होती है कि कारण या पैसे के कारण विरोध से डरते है जनता की उपेक्षा हो तो उनका कुछ,असर नहीं परन्तु दुहाई देते हैं नीति की, वे अशक्त भीत रह जाता। जनता को जगाना ही सेवा कार्य हो था कायर तो है ही, साथ ही दम्भी भी हैं। वे और जनना ही उपेक्षा करे वो ऐसी निष्फल सेवा योगियों से उल्टे हैं।
में शक्ति लगाने से क्या लाभ योगी तो विवेकी
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है, निरर्थक सेवा उसका लक्ष्य न होना चाहिये, पर अगर वह निष्फल समझ कर उस सेवा को छोड़ देता है तो उपेक्षा विजयी नहीं रहता, ऐसी हालत मे वह क्या है ?
उत्तर - उपेक्षा से अगर निष्फलता का पता लगता हो इसलिये कोई कार्य छोड़ने की आवश्यकता हो जिससे वह शक्ति दूसरी जगह लगाई जा सके यह एक बात है और उपेक्षा को विघ्न समझकर कर्तव्य त्याग करना दूसरी बात है | पहिली बात मे विवेक है दूसरी में कायरता है। किसी भ्रम के कारण किसी अनावश्यक अनुचित या शक्ति से बाहर कार्य को कर्तव्य समझ लिया हो तो उसकी अनावश्यकता आदि समझ में या जाने पर उसका त्याग करना अनु चित नहीं है, पर इससे मुझे यश नहीं मिलता मान प्रतिष्ठा नही मिलती इत्यादि विचारों से छोड़ बैठना अनुचित है। यह एक तरह की स्वार्थान्धता है।
४ प्रलोभन - विजय ( जेलों भोजयो ) - उपेक्षा विजय से भी कठिन प्रलोभन विजय है । कल्याण मार्ग में वह सब से बड़ा विघ्न है । कल्याणपथ के पथिक बनने का जो सात्विक आनन्द है उसको नष्ट करने का प्रयत्न प्रलोभन किया करते हैं। अगर यह काम छोड़ दू' तो इतनी सम्पत्ति मिल सकती है, इतना सम्मान और वाहवाही मिल सकती है, पद मिल सकता है, भोगोपभोग मिल सकते हैं, देखो अमुक आदमी इतना धन यश मान प्रतिष्ठा पद सहयोग आदि पा गया है उसी रास्ते चलू' तो मैं भी पा सकता हूँ इत्यादि प्रलोभन के जाल में योगी नहीं श्राता। मानप्रतिष्ठा यश आदि से उसे गैर नहीं है पर जिसको उसने कल्याण समझा उसके लिये वह धन पद मान प्रतिष्ठा आदि का बलिदान कर देता है। अधिक कल्याण के कार्य में अगर यश न मिलता हो और अल्प कल्याण के कार्य में यश मिलता हो तो भी वह यश की पर्वाह न करेगा वह अधिक कल्याण का कार्य ही करेगा। कोई भी प्रलोभन उसे कल्याण पथ से विचलित नहीं कर सकता।
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प्रश्न – अगर योगी को यह मालूम हो कि अमुक पद या अधिकार पानेसे, वैभव मिलने से, या किसी रकार व्यक्तित्व बढ़ने से आगे बहुत सेवा हो सकेगी इसलिये कुछ समय कल्याण मार्ग में शिथिलता दिखलादी जाय तो कोई हानि नहीं है, तो इस नीतिज्ञता या चतुराई को क्या प्रलोभन के आगे योगी की पराजय मानना चाहिये १
उत्तर - यह तो कर्तव्य की तैयारी है इस में पराजय नहीं है। पर एक बात ध्यान में रखना चाहिये कि यह सचमुच तैयारी हो । कायरता या मोह न हो । अगर जीवन भर यह तैयारी ही चलती रही, समय आने पर भी कर्तव्य न किया, या तैयारी के अनुसार कार्य न किया तो यह प्रलोभन के श्रागे अपनी पराजय ही समझी जायगी । साधारणतः यह खतरे का मार्ग है। तैयारी के बहाने प्रलोभन के मार्ग मे जानेपर बहुत कम मी प्रलोभन का शिकार कर पाते हैं, अधिकाश व्यक्ति प्रलोभन के शिकार बन जाते हैं । कर्तव्यशील मनुष्य तो वहीं से अपना कर्तव्य शुरु कर देता है जहा से उसे कर्तव्य का भान होने लगता है। अपवाद की बात दूसरी है। पर अपवाद की सचाई की परीक्षा तभी होगी जब तैयारी का उपयोग वह कर्तव्य के लिए करेगा। तब तक उसे अपवाद कहलाने का दावा न करना चाहिये। ठीक मार्ग यही है कि कर्तव्य करते हुए शक्तिसंचय आदि किया जाय ।
इस प्रकार इन चार प्रकार के विघ्नों पर विजय प्राप्त करके योगी स्वपरकल्याण के मार्ग में आगे बढता जाता है ।
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२ निर्भयता ( डिडो)
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योगी की दूसरी लब्धि है निर्भयता । भय अनेक तरह का होता है पर वह सभी स्यान्य नहीं है। भय एक गुण भी है। जो कल्याण के लिये श्रावश्यक हैं ऐसे भयों का त्याग नहीं करना चाहिये । भय के तीन भेद हैं- १ भक्तिभय २ विरक्तिमय, ३ अपायमय ।
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१ भक्तिमय (भक्तहिडो)- कल्याणमार्ग भय, दूसरे के दिल दुखने का भय आदि नाना में जो रेरक हैं जिनके विषय में हमें भक्ति है भय विरक्तिमय हैं । जब कहा जाता है-कुछ पाप
आदर हैं कृतज्ञता है उनका भय भक्तिमय है। सहरो तब उसका अर्थ यही विरक्तिमय है। यह यह मनुष्य का महान सद्गुण है। ईश्वर से डरो. भी एक पावश्यक भय है सद्गुण है। गुरुजनों से डगे, आदि वास्यों में इसी भय से
३ अपायमय (मुग्गो डिडो)- धनहानि, मतलब है। इस भर का त्याग कमी न करना अधिकारहानि, गशोहानि. प्रियजनहानि, भोगचाहिये।
हानि, मृत्यु, जरा रोग, आघात, अपमान आदि रन-बहत से आदमी सिर्फ इसीलिय नाम तरह के अपाय हैं इनका भय अपायमय कर्तव्य से भ्रष्ट हो जाते हैं कि उनके मूह माता योगी इन अपायों से ऐसा नहीं डरता कि पिता उसमें बाधा डालते हैं। अगर उनकी आज्ञा
सत्य के मार्ग से विमुख होजाय । यद्यपि जान न मानी जाय तो वे घर से निकाल देगे जायदाह में हिस्सा न देंगे इसलिय अमुक कुरूढ़ियों का
बूझकर वह इन अपायों को निमन्त्रण नहीं देता पालन करना पडता है। यह मय गुरुजनों का
पर कर्तव्य पथ में वह इनकी पर्वाह नहीं करना । भय है। इसे भक्तिमय मानकर उपादेव मानता
___प्रभ-यदि योगों के सामने कोई विषधर
किसी सेंढक को पकड़ना चाहता हो तो क्या उचित है ?
योगी व्यावश सो को रोकेगा, ऐसी अवस्था में उत्तर-इस भय मे माता पिता की मात
वह विषधर सर्प योगी को काट स्वायगा। योगी कारण नहीं है किन्तु धन छिनने का निकाले जाने का दु ख कारण है, इसलिये इसे भक्तिमय
दयालु होने के कारण सर्प को भार तो सकेगा नहीं कह सकते. तब यह भक्तिमयके समान उपा
नही, इसलिये अपने प्राण दे देगा, क्योंकि यह देय कैसे हो सकता है ? यह अपायभय है।
" मृत्यु से निर्भय है। अगर वह सर्प को नहीं
रोकना है तो समझना चाहिये कि वह मृत्यु से यद्यपि भक्तिमय उपयोगी है सद्गुण है डरता है तब योगी नहीं है। परन्तु प्रश्न यह है परन्तु ऐसा भी अवसर आता है जब यह कर्तव्य किएमी अवस्था में योगो कितने दिन जियेगा ? में बाधक बन सकता है उस समय यह हेय है। उत्तर-योगी क जीवन का ध्येय है विश्व जैसे माता पिता की कोई हानिकर हड़ है और
में अधिक से अधिक सुखवृद्धि करना। अगर भक्तिवश उनकी हठ पूरी की जाती है। माता पिता आर्थिक नति या ऐसी कोई हानि न पहुंचा
उसे यह मालूम हो कि इस सर्प को मारने से सकते हो जिससे इसे अपायमय कहा जा सके,
सर्प के समान चैतन्य रखनेवाले अनेक प्राणियों तब यह भक्तिमय तो होगा पर उपादेय न होगा।
की हिंसा रुक सकती है तो वह दयालु होने पर
भी सर्प को मार सकता है। पर सर्प और मेंढक यह भक्तिमय का दुरुपयोग कहा जायगा ।
के मामले में वह उपेक्षा भी कर सकता है क्योकि इसी प्रकार देव गुरु या शास्त्र का भय है इस प्रकृति के राज्य में सब जगह 'जीवो जीवस्य जो कि भक्तिमय है। वह अगर सत्य और अहिंसा जीवनम' अर्थात प्राणी प्राणी का जीवन है, यह के पध में या कल्याण के पथ मे बावक होता नियम काम कर रहा है। जहाँ शिक्षण का प्रभाव हो तो वह भी हेय हो जाएगा। साधारणतः पडता है वहाँ तो इस नियम का विरोध कुछ भक्तिमय प्रन्या है पर उसका दुरुपयोग रोकना असरकारक रहता है पर जहाँ शिक्षण का कोई चाहिये।
रभाव नहीं पडना वहाँ उपेना ही अधिक सम्भव विरक्तिमय (मिचं डिडो)- पाप कार्यों है। मनुष्य को सिखाकर उस पर संस्कार डालमे विरकिहोने से जो भय होता है वह विरक्षिा कर या कानून का भय दिखाकर उसके स्वभाव भय का त्यागमय है । हिंसा का भय, चोरी का पर कुछ स्थायी सा अंकुश रक्खा जा सकता है
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जिससे वह पशु आदि की हत्या न करे। पर सर्प को इस प्रकार सिखाया नही जा सकता इस लिये वहा योगी उपेक्षा कर सकता है, या बहुत से मेढकों की रक्षा के विचार से सर्प को मार भी सकता है। मेढक के लिये प्राण देना ऋतुचित है। क्योंकि अपने राय देने से भी सर्ग जातिपर स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सकता, जिससे एक मनुष्य की हानि हजारो सर्पों के स्वभाव से परिवर्तन करके लाभ में परिणत हो सके।
मृत्यु से निर्भयता का मतलब यह नहीं है कि आवश्यकता अनावश्यकता उचितता अनुFeder for विचार किये बिना मौन के मुँह में कूदता फिरे। किन्तु उसका मतलब यह कि अगर किसी कारण मृत्यु का अवसर उप स्थित हो जाय तो विना किसी विशेष क्षोभ के वह भरने को भी तैयार रहे। जीवन के किसी विशेष ध्येय की पूर्ति में मौत का सामना करने की आवश्यकता ही हो तो वह उसके लिये भी तैयार रहे। योगी अवस्थासमभावी होने से साधारण जन के समान मृत्यु से नहीं डरता । जब वह स्वपर कल्याण के लिये जीवन को बन्धन समझता है, तब वह जीवन का त्याग कर देता है, एक तरह का समाधिकरण कर लेता है, यही उसकी मृत्यु से निर्भयता है ।
मृत्यु से निर्भय होने के विषय में जो बात कही गई है बड़ी बात अन्य निर्भयताओ के विषय में भी है। आवश्यक प्रसंग आनेपर वह सच कुछ त्याग सकता है यही उसकी निर्भयता है । यद्यपि आवश्यकता का मापतौल ठीक ठीक तरह नहीं किया जा सकता इसलिये योगी एक तरह से अज्ञेय होता है फिर भी विचारक मनुष्य योगी की परिस्थिति का विचार करके निर्णय कर सकता है।
फिर भी निर्भयता का परखना कठिन ही है । अनेक अवसरों पर इस विषय में भारी भ्रम होजाता है। एक स्त्री पति के मरने पर अपने प्राण दे देती है, यह उसकी मोहजनित कायरता है पर साधारण लोग इसे प्रेमजनित निर्भयता सम
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कते हैं। वैधव्य की असुविधाओं से डर कर वह प्राण देती है इसलिये उसकी निर्भयता से सम यता अधिक है।
कोई भी आदमी धन के लिये यश की पर्वाह न करें, नाम हो या वन्नाम किसी तरह धन कमाना चाहिये यह उसकी नीति हो और कहे मुझे अपयशका डर नहीं है, तो यह उसकी बचना है। इससे तो केवल यही मालूम होता है कि वह यश की अपेक्षा धन का अधिक लोभी है । किसी एक चीज का अधिक लोभी होने के कारण दूसरी चीज की पर्वाह न करना निर्भयता नहीं है। निर्भयता है वहाँ, जहाँ कल्याण पथ में आगे बढ़ने के लिये किसी की पर्वाह नहीं की जातीं ।
कोई कोई लोग नामवरी के लिये धन की पर्वाह नहीं करते यह भी निर्भयता नहीं है। यह तो धन की अपेक्षा यश का अधिक लोभ हुआ, ऐसा आदमी यश की आशा न रहने पर कर्तव्य का त्याग कर देगा। यह निर्भयता नहीं है। निर्भयता सर्वतोमुखी होना चाहिये। किसी चीज की हम चाह नहीं है रुचि नहीं है या उससे हमारी हानि नही हो सकती तो उसकी तरफ से लाप वही बताने से अरुचि या शक्ति का परिचय मिलेगा निर्भयता का नहीं। निर्भयता वहां है जहा रुचि हो तो भी कर्तव्य के लिये उसकी पर्वाह न की जाय, हानि हो सकती हो फिर भी कर्तव्य के लिये उसकी पर्वाह न की जाय ।
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मतलब यह 'है कि योगी को निर्भयता इस वात में नहीं है कि उसके पास शक्ति अधिक है या दुखी होने की परिस्थिति नहीं है परन्तु इस वान मे है कि वह अवस्थासमभावी है। वह नाट्य भावना आदि का चिन्तन करता रहता है । यह निर्भयता स्थायी निर्भयता है और इस निर्भयता को पाकर मनुष्य अन्याय करने पर उतारू नहीं होता ।
निमित्त के भेद से भय के भेद हैं पर बहुत यहा कुछ खास खास भयों का उल्लेख कर दिया
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जाता है और उनके विषय में योगी को विचार- अप्रिय बनता है । जो मेरे धर्म की, कर्तव्य को धारा बतादी जाती है। मुख्य भय इस हैं-- पर्वाह नहीं करता उसकी पर्वाह मैं क्या करू १ १ अभोगमय, २ वियोगभय, ३ संयोगमय, जब किसी रियजन के सर जाने की सम्भा. ५ रोगमय, ५ भरणभय, ६ अगौरवमय, ७ अय. वना होती है तब योगी सोचता है- मेरा कर्तव्य शोमय, ८ असाधनमय ६ परिश्रमभय १० अज्ञा. उसकी सेवा करना है सो मैं सेवा करूगा, बचाने नमय
की पूरी कोशिश करूंगा, उसके विपय में पूरा . १ अभोगभय (मोजुशोडियो)-इन्द्रियों के ईमानदार रहूँगा फिर भी अगर वह न पच सके विषय अच्छे अच्छे मिले, खराब न मिलें, इस तो उसकी योग्यता के अनुसार उसे यशस्वी धनाविपय का भय अभोगमय है। योगी सोचता है- ऊँगा, और क्या कर सकता हूँ | जहा एक दिन इन्द्रिया की असली उपयोगिता तो यह है कि चे संयोग है वहा एक दिन वियोग अनिवार्य है। यह बतायें कि शरीर के लिये कौनसी वस्तु लाभ- इस प्रकार वह वियोग से भी निर्भय रहकर कर है कौनसी अलामकर । पर मनुष्य ने अपनी काव्यरत रहता है।
आदत को इस प्रकार विगाह लिया है कि वह वियोग से उसकी अपरा मनोवृत्ति शुन्ध समझ हो नही पाता कि अच्छा क्या और बुरा भी हो सकती है पर वह क्षोभ स्थायी नहीं होता क्या १ रसना इन्द्रिय को दुष्पक्व रोगजनक वस्तु और पहिले से उसका भय और पीछे से उसकी में भी आनन्द आता है और स्वास्थ्यकर वस्तु शोक इतना तीन नहीं होता कि उसे पाप में भी बेस्वाद मालूम होती है तब रसना इन्द्रिय की प्रवृत्त करा सके. यही योगी को निर्भरता है। पचाह क्या करना चाहिये १ कानों को सदुपदेश ३ संयोगमय (युगोडिडो)- अप्रियजनमी अप्रिय मालूम होता है राजस और तामस संयोग के विषय में भी योगी निर्भय रहता है। शट भी अच्छे मालूम होते हैं तव कान की उसके हृदय में प्रेम रहता है इसलिये अप्रियजन पर्वाह क्यों की जाय । इस प्रकार इन्द्रियविषयों में को भिय बनाने की आशा रहती है। अगर प्रिय "अनासक बन कर वह निर्भय हो जाता है। न बनासके तो उसके सघर्ष से बचकर रहने की
इसका मतलब यह नहीं है कि वह इन्द्रियों आशा रहती है अगर संघर्ष में पाना ही पड़े तो को अनावश्यक कष्ट देता है। मनलब यह है कि न्याय से रहने और फिर भी अगर कुछ फल कर्तव्य के सामने, लोककल्याण के सामने वह भोगना पड़े तो सहिष्णुता का परिचय देने की इन्द्रियकों को पर्वाह नहीं करता। इस तरह से आशा रहती है इसलिय अप्रिय जात-संयोग से वह निर्णय रहकर आगे बढ़ता है। वह नहीं डरता।
२ वियोगमय (नेयुगो हिडो)- प्रियजन के रोगमय (रुगो डिडो)-रोगमय इसलिये वियोग की तरफ से भी वह निर्भर नहीं होता कि वह मिताहारी जिल्लावशी होने के श्रगर कोई प्रियजन आकर कहे कि जिस कारण बीमार ही कम पड़ता है। फिर भी रोगों अपना कर्तव्य समझते हो उससे अगर विम का शिकार हो जाय तो रोग से शरीर का .' हो जानोगे तो मैं चला जाउँगा। योगी उत्तर
. स्वभाव है। यह सोचकर दुखित नहीं होता। रोग देगा- नहीं चाहता कि आप चले जाँय पर डावा, वेदना के सहने का मनोबल रखता है।
" का अन्तिम परिणाम मृत्यु है उससे वह नहीं कर्तव्य से मेरे विमुख हुये बिना अगर आपने शारीरिक क्षमता के कारण या वेदना की गुरुता रह सकते हो तो मैं रोक नहीं सकता। के कारण कष्ट असह्य हो तो उसकं उद्गार शाणिक
योगी सोचता है--स्वभाव से कौन प्रिय है होते हैं। मन साधारण जन की अपेक्षा स्थिर कौन अप्रिय र व्यवहार से ही राणी रिय और रहता है।
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दृष्टिकार्ड
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इसका यह मतलब नहीं है कि रोगों की आत्महत्या प्राणार्पण से बिलकुल जुदी तरफ से लापर्वाह होकर वह असंयमी बन जाता चीज है। प्राणार्पण में त्याग है विवेक है कर्तव्य है और बीमारियों को निमन्त्रण देता रहता है। की स्पष्टना है। आत्महत्या में क्षोम है, किंकर्तव्यक्योंकि इससे मनुष्य स्वयं दुःखी होता है दूसरो विमूढ़ता है मोह है क्रोध है। योगी प्राणार्पण के के सिरपर व्यक्त या अन्यक्त रूप में योग बनता लिये तैयार रहता है पर आत्महत्या नहीं करता। है और अपना कन्य भी नहीं कर पाता था
६ अगौरवमय (नेपंजो डिडो)- मेरा कोई थोड़ा कर पाता है, इसलिये बीमारी से बचनें पद न छिन जाय, धन न छिन जाय आदि अगौका पूरा प्रयत्न करना चाहिये। परन्तु अज्ञात
रवमय है। योगी सोचता है मानव साथ में लाया कारण वश बीमारी पाजाय या किसी कर्तव्य करने में बीमारी का सामना करना पडे तो शाति
क्या था जिसके छिनने का वह डर करे । वह से उसके सहने की ताकत होना चाहिये यही
महत्त्व की पर्वाह नहीं करता। सबसे बड़ा महत्व
वह सत्य की सेवा में और सदाचार के पालन में योगी को रोग से निर्भयता है।
समझता है इसलिये दुनिया की दृष्टि मे जो गौरव मरणमय ( मरो डिडो)-जैसे कोई घर है उसके छिनने का उसे डर नहीं होता। बदलता है उसी प्रकार योगी शरीर बदलता है इसमे दुःख किस बात का ? दूसरा जन्म इससे
अयशोभय (नोफिमो डिडो)- सच्चा अच्छा हो सकता है इसलिये माणसे डरने की यश अपने दिल की चीज है दुनिया की वाहवाही और भी जरूरत नहीं है। जिसका यह जीवन
की उसे पर्वाह नहीं होती। बहुत से लोग इस पवित्र है उसका परलोक भी सुखमय है जिसका
हर से कि मेरा नाम डूब जायगा, सत्य से दूर यह जीवन अपवित्र है उसे यह सोचना चाहिये भागते हैं, दुनिया जिसमें खुश हो इसी बात में कि मृत्यु अगर इस अपवित्र जीवन का शीघ्र लगे रहते हैं । वे सच्चा यश नहीं पाते चापलूसी नाश कर देती है तो क्या बुरा है ? पाते हैं। चापलूसी से यश की प्यास बुझाना
परलोक पर अगर विचार न किया जाय ऐसा ही है जैसे गटर के प्रवाह से पानी की तो भी यह सोचकर भरण से निर्भय रहना प्यास बुझाना । योगी इस वाहवाही की पर्वाह चाहिये कि जीवन जहाँ से आया था वही चला नहीं करता । वह सत्य की पर्वाह करता है और जायगा, बीच के थोड़े समय की इतनी चिन्ता सत्य की सेवा में उसके हृदय से यश का प्रवाह क्यों?
निकलता है इसलिये उसे अयश की चिन्ता नहीं संसार में जो अत्याचार होते हैं उनका होता । दुनिया अज्ञानवश निन्दा करे, घर घर में मुख्य सहारा लोगों का यह मृत्युमय है। अगर
उसका अपयश छा जाये तो भी वह उस अपयश लोग यह सोचलें कि मरजायगे पर अत्याचार से नहीं डरता। न होने देंगे तो संसार में अत्याचारों को रहना इसका यह मतलब नहीं है कि योगी निर्लज अशक्य हो जाय। योगी तो जगत में स्वर्गीय होता है, कोई कुछ भी कहे वह उसकी पर्वाह नहीं जीवन का विस्तार करना चाहता है इसलिये वह करता । योगी में लज्जा है अगर उससे गल्ती मृत्युजयी होता है।
हो जाय तो वह लज्जित होगा, दूसरे शरमिंदा हा, वह आत्महत्या न करेगा क्यो कि करें या न करें, वह स्वयं शरमिंदा हो जायगा। आत्महत्या एक तरह की कायरता है, कषाय का पर जिस प्रकार यह लज्जा योगी के भीतर की तीन आवेग है, वह अन्य किसी विपत्ति का चीज है, कोई करे या न करे इसकी उसे. पर्वाह इतना बड़ा भय है जो मौत की पर्वाह नहीं करने नहीं है, इसी प्रकार यश अपयश भी उसके भीतर देता। आत्महत्या निर्मयता नहीं है। की चीज है कोई करे या न करे इसकी उसे पहि
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नहीं है। अच्छा कार्य करने पर उसके हृदय से हो गया तो, चैसा हो गया तो, इस प्रकार बेबुही यशरूपी असत करता है जिससे वह अमर लियाद न जाने कितने भय वे अपने मनपर लान्द हो जाता है इसलिये बाहर लोग उसकी निन्दा रहते हैं। उपयुक्त कार्य कारण का विचार करना करें तो इस बात की उसे चिन्ता नहीं होती, वह एक बात है किन्तु जीवन का अतिमोह होने के ऐसे अपयश से नहीं डरता । वह डरता है अपने कारण कर्नव्यशून्य आलसी जीवन विताना भीतर के अपयश से। बाहर के अपयश की पर्वाह दूसरी। योगी ऐस अज्ञात भयों से मुक्त रहता है। न होना ही उसकी निर्भयत्ता है। इसीलिये कहा
भय के भेद और भी किये जा सकते हैं गया कि उसे अयशोमत्र नहीं होता।
यहाँ जो भयो का विवेचन किया गया है वा असाधनभय ( नेरचो डिडो)-साधना के सिर्फ इसलिये कि योगी की निर्भयता की रूपरेख अभाव से योग्यता रहने पर भी मनुष्य उसका दिखाई दे। यह निर्भयता योगी की दूसरे फल नहीं पाता। हमारे साथी बिछुड़ जायगे लब्धि है। साधन नष्ट हो जॉयो इस प्रकार दर से वह
३ अकपायता ( नेरुटो) असत्य का पोपय नही करता। इसका यह मतलब नहीं है कि वह देश काल का विचार नहीं
योगी की तीसरी लब्धि है अपायत करता या क्रम विकास पर ध्यान नहीं देता। वह
इससे वह भगवती अहिंसा का परम पुजारी और अवसर की ताक में रहता है, R
परम सयमी होता है। उसकी परा मनोवृत्ति तक धीरे धीरे बढता है, पर सारा लक्ष्य सत्य पर रहता
किसी कपाय का प्रभाव नहीं पहुंचता । क्रोध है पहिक साधनों पर नहीं । एक तरह की प्रास. मान माया लोम के कारण उपस्थित होने पर निर्भरता उसमें पाई जाती है। असहायता या उसमें क्षोभ नहीं होता। हाँ, कभी को इन मावों असाधनता के डर से वह घबराता नहीं है, पथ- का वह प्रदर्शन करता है पर वह भीतर से नहीं भ्रष्ट मो नहीं होता है। वह यही सोचता है कि भगवा 1 इसप्रकार अकपाय रहकर वह स्वयं जो कुछ बन सकता है बह करता हूँ अधिक करने सुखी रहता है और जगत को दु:खी नहीं होने के लिये उसमें असत्य का विष क्यों घोलू। वह देता।
आत्मनिर्भर तथा फलाफल निरपेक्ष रहता है इस- आन्तरिक दुखों की जड़ यह कपाय ही है। लिये उसे असाधनमय नहीं होता।
अकषायता का कारण पहिले प्रतलाया हुआ चार __ परिनसमय (शिहोडिडो)-जगत मालस्य प्रकार का समभाव है। विवेक और चार प्रकार का पुजारी है वह परिश्रम को दुःख समझता है, का समभाव योगी जीवन के चिन्ह है । संसार में इसलिये श्रालस्य की आशा में वह असत्य और योगियों की संख्या जितनी अधिक होगी संसार असदाचार का पोपण करता है। योगी तो परि- उतना ही सुखी होगा। बाहरी वैभधी की वृद्धि श्रम को विनोद समझता है शरीरस्वास्थ्य के लिये कितनी भी की जाय, उससे कुछ शारीरिक सुख आवश्यक समझना है उससे उसको अपमान भी भले ही पढ़े पर उससे कई गुणें मानसिक कष्ट नहीं मालूम होता, आलस्य या अकर्मण्यता को बढ़ेगे। अगर ससार का प्रत्येक व्यक्ति योगों वह गौरव का चिन्ह नहीं समझता इसलिये वह हो जाय तो अल्प वैभव में भी संसार शान्तिमय, परिश्रम से नहीं डरता।
आनन्दमय बन सकता है। प्रत्येक धर्म का प्रत्येक १० अज्ञातभय (नोजानं डिडो)- जिनका शास्त्र का, प्रत्येक महात्मा का यही ध्येय है। इस स्वभाव ही कायरतामय बन गया है वे भय के लिये योगी बनने के लिये हर एक मनुष्य-पुरुष कारण के बिना ही भय से कॉपते रहते है । ईसा यात्रीको प्रगल करना चाहिये।
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छटा अध्याय (डून होपयो)
'जीवन दृष्टि (जिवो लंको)
अपने जीवन को और जगत को सुखमय यद्यपि आत्मार्थ शब्द से भी जीवार्थ कहा बनाने के लिये हर एक नरनारी को योगी, खास- जा सकता था पर आत्मार्थी शब्द भी मोक्षार्थी, कर कर्मयोगी, बनने का प्रयत्न करना चाहिये। और उसमे भी ध्यानयोगी के लिये अधिक प्रयुक्त हम योगी हुए हैं या नहीं. योग के मार्ग में स्थित होता है इसलिये वह भी ठीक नहीं है। है कि नहीं, हमाग जीवन कितना विकसित है मानवमाषा में इसके लिये एक स्वतन्त्र यह बात समझने के लिये हर एक व्यक्ति को धानुघोट है उससे बना हुआ घोटो शब्द अपने जीवन पर दृष्टि डालना चाहिये, उसका बहुत ठीक है। निरीक्षण करना चाहिये।
ये चार जीवन के मुख्य या महत्त्वपूर्ण प्रयोजीवन के अनेक रूप हैं और हर एक रूप जन या ध्येय है। से जीवन के विकास अविकास का पता लगता सच पछा जाय तो प्रयोजन तो सिर्फ सख । है। जीवन के भिन्न भिन्न रूपो पर दृष्टि डालकर से है। पर धर्म अर्थ काम मोक्ष ये चारों जीवा विचार करना चाहिये कि इंम कहां है। अगर सुख के साधन हैं इसलिये इन्हे मी ध्येय मान हमारा जीवन अविकसित अवस्था में हो तो लिया गया है। विकसित अवस्था में लेजाना चाहिये, और विक- यद्यपि इन चारों का सम्बन्ध सुख के साथ सित करते करते योगी बन जाना चाहिये। एक सरीखा नहीं है काम और मोक्ष का सख के
इसी उद्देश से ग्रहां जीवन पर दृष्टि डाली साथ साक्षात् सम्बन्ध है और धर्म अर्थ का परजाती है।
स्परा सम्बन्ध, इसलिये वास्तविक जीवाण को १- जीवाथै जीवन { घोटो जिबो)
काम और मोक्ष दो ही कहलाये फिर भी धर्म
और अर्थ जीवार्थ हैं क्योंकि धर्म और अर्था के बारह भेद (कगान प्रकोखे) मिलने पर काम और मोक्ष सुलभ हो जाते हैं
जीवन के मुख्य अर्थ, प्रयोजन या कर्तव्य काम और मोक्ष के लिये किये जाने वाले प्रयत्न । चार हैं। धर्म (धर्मो) अर्थ ( काजो) काम का बहु भाग धर्म और अर्थ के लिये किये जाने (चिंगोमोक्ष (जिन्नो)
वाले प्रयत्न के रूप में परिणित होता है। इस इन्हें पुरुषार्थ कहा जाता है इस शब्द का प्रकार पार जीवार्थ हैं और इन चारों के समन्वय उपयोग यहा नहीं किया गया क्योकि अब पुरुप में जीवन की सफलता है।। शब्द आत्मा या ब्रह्म की अपेक्षा पुल्लिंग के अर्थ १ धर्म-काम के साधनों को प्राप्त करने में में अधिक प्रचलित है इसलिये स्पष्टता से पुरुए दूसरों के उचित और शक्य स्वार्थों का तथा अपने और स्त्री दोनों का बोध करने के लिये जीवार्थ हित का विवेक रखना, स्वार्थ पर संयम रखना। शब्द लिया गया है।
२ अर्थ-काम के साधनों को प्राप्त करना ।
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६ काम-साधनों के सहयोग से इन्द्रिय अर्थात् यश का सुख भी परनिमित्तक है इसलिये और मन को सन्तुष्टि
वह भी काम है। इस प्रकार काम का क्षेत्र ४ मोक्ष-बाह्य द खा से निर्मित रहकर मन बहुत है। से सुप्पशान्ति का अनुभव करना
हा, यह बात अवश्य है कि अगर मनुष्य में ___घर्स और अर्थ के विषय में विशेष कहने कामलिप्सा बढ़ जाय, वह काम के पीछे धर्म को की जरूरत नहीं है परन्तु काम और मोक्ष के भूल जाय तो वह घृणा की वस्तु हो जायगा। विषय में जन साधारण में तो क्या विद्वानों के कामसुख अगर मर्याग का अतिक्रमण न कर भीतर भी गलतफहमी हो गई है। इससे मोक्ष साय या व्यसन न बने और दूसरा के नैतिक तो उड़ हो गया। वह जीवन के बाद की चीज इक्को का नाश न करे तो उपादेय है बल्कि जरूरी समझा गया। दर्शनशास्त्रकारों ने मोक्ष की जो है। तुम कोमतशय्या पर सोते हो, सोओ, पर कल्पना को वह इस जीवन रहते मिल नहीं उसके लिये छीनाझपटी करो यह बुग है और मकती थी इसलिय धर्म अर्थ और काम तोनी की कोमल शम्यापर सोने की ऐसी आदत बनालो सेवासे हो जीवनको सफलता मानी जाने लगी। कि कभी वैसी शम्या न मिले तो तुम्हें नीद हा इधर काम की भी काफी दुर्दशा हुई। निवृत्तिवाद सावे, यह भी बुरा है। इसके लिये अन्याय ने का अब चार पाया तव काम के प्रति घृणा व्यसनी मत बनो फिर काम सेवन कगे तो प्रकट होने लगी उवर काम का अर्ध भी संकुचित हो गया-मैथुन रह गया। इस प्रकार हमारे
कोई बुराई नहीं है। ज्यो त्योकर पेट भरने की पिन क जो मुख्य साध्य ये दोनों ही भले लरूरत नहीं है। कच्ची जली था बेस्वाद रोटी में पड गये।
क्यों खायो ? अच्छे तरीक से मोजन तैयार करो, वास्तव में न तो काम इतनी घृणित वस्तु
कराओ, स्वादिष्ट भोजन लो यह बहुत अच्छा है और न मोक्ष इतवी पारलौकिक, दोनों का किसी दिन चटपटा भोजन न मिले, मिठाइया ने
है। पर जीभ के वश में न हो जाओ कि अगर जीवन में आवश्यक स्थान है। दोना के विना
नदे। अथवा खाद के लोभ सुस को कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिये उसके अर्थ पर ही कुछ विचार कर लेना चाहिये।
में पेट की माग से अधिक खाजाओ कि पत्र
न सके, कल बीमार पड़ना पड़े, लंघन करना पड़े, काम का अर्थ मधुन नहीं है किन्तु वह भयो को संवा करनी पड़े और पैसे की बादी साग सूप काम है जो दूसरे पदार्थों के निमित्त हो अथवा स्वाद को लोलुपता से इतना कीमती से हमे मिलता है। कोमल वस्तु का सर्ग, न खाजाओ कि उसके लिये ऋण लेना पड़े, या स्वादिष्ट भोजन पुष्प आदि का सूंघना. सुन्दर
अन्याय से पैसा पैदा करना पड़े। अथवा अगर देखना, सगीन श्रादि सुनना यह सब काम किसी ने उन्हें भोजन कराया हो तो उसे खिलाना
नका सम्बन्ध इन्द्रियों से है और इन्द्रियों के शक्ति से अधिक मालूम पड़े। तुम्हें भोजन कराने लिये किसी विषय की आवश्यकता होती है इस में अगर खिलानेवाले को इतना परिश्रम करना लिय यह पर-निमित्तक मुख है-काम है। परन्तु पड़ता है कि वह बेचैन हो राता है अथवा इतना iसा भी पानिमित्तक सुख है जो इन्द्रियों से खर्च करना पड़ता है कि वह चिन्तित हो तो यह मम्बन्ध नी ग्यता किन्तु मन से सम्बन्ध रखता तुम्हारे लिये असयम अर्थात पाप होगा। मतलब PI नाप शनरंज प्रादि फेमेल नशा और यह है कि प्रत्याचार न करके ओभ के वश में न भो पनि चोगिता के पेस मानसिक काम है। र स्वास्थ्य की रक्षा करते हुए स्वादिष्ट भोजन अपनी गोमा सुनने का प्रानन्द भी काम करना चाहिये। कमी कमी अवाम के लिये
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बेस्वाद भोजन भी करो पर वेस्वाद भोजन को देखकर माई को जो प्रसन्नता होती है पुन्नी को अपना धर्म न समझो, सिर्फ अभ्यास समझो। देखकर पिता को जो प्रसन्नता होती है वह प्रस.
प्रकृति ने जो कणकण में सौन्दर्य विखेर न्नता तुम्हें होना चाहिये । मो बहिन बेटी की रक्खा है, जड़ चेतन और अर्धचेतन जगत जिस
तरह नारी को देखो फिर उसकी शोभा का दर्शन
करो। उसे वेश्या मत समझो । पर-स्त्री को हम सौन्दर्य से चमक रहा है उसका दर्शन करो, खून पली नहीं कह सकते, फिर भी यदि उसके विषय आनन्द लूटो। पर सौन्दर्य की सेवा करो. पूजा मे मन में पलीत्व का भाव आता है तो वह करो, उसका शिकार न करो उसे हजम करने की वेश्या का ही भाव है। इस पाप से बचो। फिर या नष्ट करने की वासना दिल में न आने दो। सुन्दर बनो सुन्दर का दर्शन करो पर उसके लिय
यही नीति नारी के लिये भी है। उसकी धर्म और अधे मत भूलो। दूसरो को चिढ़ाने के
भी सौन्दर्योदासना परपुरुष को पिता भाई या लिये नहीं, किन्तु दूसरों को आनन्दित करने के
पुत्र समझकर होना चाहिये । यह सौन्दर्योपासना, लिये और दूसरों के उसी आनन्द में स्वयं प्रानन्द
यह आनन्द, यह काम, अनुचित तो है ही नहीं, का अनुभव करने के लिये सौन्दर्य की पूजा करो
बल्कि पूर्ण जीवन के लिये आवश्यक है। शृंगार इसमें अधर्म नहीं है । पर अगर फेशन की मात्रा था सजावट भी बुरी चीज नहीं है। प्रकृति ने इतनी बढ़ जाय कि कर्तव्य में समय की कमी
विविध वनस्पतियों से सुशोभित जो पर्वतमालाएँ मालूम होने लगे, अहंकार जगने लगे, धन से
खड़ी कर रक्खी हैं, नाना वन बना रखे हैं। ऋण बढ़ जाय, या धन के लिये हाय हाय करना
उनके निरन्तर दर्शन करने के लिये घर के चारो पड़े, या अन्याय करना पड़े तब यह पाप होगा। अगर फैशन हो पर स्वच्छता न हो तो भी यह तरफ वाटका लगा रवन म काइ बुराई नहा है। पाप है। अगर हम इन पापो से बचे रहें तो हम मूर्ति के द्वारा जिस प्रकार देवता के दर्शन सौन्दर्य की उपासना जीवार्थ है।
करते हैं उसी प्रकार वाटिका के द्वारा प्रकृति के नर को नारी के और नारी को नर के दर्शन करें तो इसमें क्या बुराई है। सौन्दर्ग की उपासना मी निष्पाप होकर करना शृङ्गार भी प्राकृतिक सौन्दर्य की उपासना चाहिये। उसमे संयम का बाघ न टूट जाय। ही है। प्रकृति ने जो सौन्दर्य विखेर रक्खा है उसे तर और नारी में पारस्परिक आकर्षण मरकर हम पाने का प्रयत्न करते है इसी का नाम शृङ्गार प्रकृति ने अनन्त आनन्द का जो श्रोत बहाया है है। मुर्गे के सिर पर लाल लाल कलगी कैसी
समें वहकर ने जाने कितने जीवन नष्ट हो गये अच्छी मालूम होती है पर हमारे सिर पर नहीं है और उससे दूर रहने की चेष्टा करक न जाने है इसलिये टोपी या साफेपर हम कलगी खोस कितने जीवन प्यास से मर गये हैं। यथवा प्यास लेते हैं। मोर के शरीर पर कैसे चमकीले छपके न सह सकन के कारण घवरा कर फिर उसो श्रोत बने हये हैं जो हमारे अपर नहीं है इसलिये मैं में वहकर नष्ट होगये है। दोनों में जीवन की इसी तरह का चमकीला कपड़ा पहिनू', यही तो सफलता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि संग्रम रूपी घाट के किनारे बैठकर सौन्दया- मौलको
शृंगार है। मतलब यह कि प्रकृति के विशाल
संक्षिप्त करके अपनाने का नाम श्रोत में से मर्यादित रसपान किया जाय। गार है। जब तक यह परपीड़क न हो, स्वास्थ्य
नारी के सौन्दर्य को देखकर तुम्हारा चित्त नाशक न हो, तब तक इसमें कोई हानि नहीं है। प्रसन्न होता है तो कोई बुरी बात नहीं है। माँ को इसका आनन्द लेना चाहिये। यह भी काम है, देखकर बच्चे को जो प्रसन्नता होती है, बहिन को सीवार्य है।
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हा, जिस में सिर्फ अभिमान का प्रदर्शन में इसका इतना अधिक महत्व है कि कुछ विद्वानों हो अथवा जो अपने जीवन के अनुरूप न हो ने इसे अलग जीवार्थ मान लिया है। यशोलिप्सा • ऐसे शृङ्गार से बचना चाहिये। मतलब यह कि महात्मा कहलानेवालों में भी आजाती है। पर सौन्दयोपासना बुरी चीज नहीं है पर वह संयम इसमें भी संयम की आवश्यकता है। अन्यथा और विवेक के साथ होना चाहिये। यश के लिये मनुष्य इतनी आत्मवंचना और पर
सोधात सोल्टयोपासना के विषय में कही वचना कर जाता है कि उसकी मनुष्यता सक नष्ट गई है वही वात संगीत श्रादि अन्य इन्द्रियो के हो जाती है। अपने यश के लिये दूसरो की निन्दा विषय में भी कही जा सकती है। नारीकण्ठ से करना झूठ और मायाचार से अपनी सेवाश्रो गीत सुनकर भी पुरुष के मन में व्यभिचार की। को बड़ा बताना आदि असंथम के अनेक रूप वासना न जगना चाहिये । कोयल की श्रावाज में यशोलिप्सा के साथ प्राजाते हैं इसलिये अगर जो आनन्द आता है ऐसा ही आनन्दानुभव संयम न हो तो यश की गुलामी भी काम की होना चाहिये।
गुलामी है। काम के अन्य रूपों के समान इसका काम के विषय में जीवन दोनों तरफ से भी दुरुपयोग होता है। इस दुरुपयोगों को बचाअसन्तोषप्रद बन गया है Si r कर विशुद्ध यश का सेवन करना उचित है। काम के साथ व्यसन और असंयम इस तरह इससे मनुष्य लोकसेवी और आत्मोद्धारक मिल गये हैं कि उससे अपना और दूसरों का
धनता है। नाश हो रहा है और कहीं कहीं काम स इतनी ,
यद्यपि जीवन के लिये काम आवश्यक घृणा प्रगट की जाती है कि हमारा जीवन नीरस है फिर भी उसमें पूर्णता और स्थिरता नहीं और निरानन्द पन गया है यहा तक कि महात्मा है। प्रकृति की रचना ही ऐसी है कि इच्छानुसार और साध होने के लिये यह आवश्यक समझा साधन सब को मिल नहीं सकते इससे सुख की जाने लगा है कि उसके चिहरे पर हँसी न हो अपेक्षा दुःख अधिक ही सालूम होता है। इसउसमें विनोद न हो, मनहूसियत सी उसके मुंह
लिये प्राचीन समय से ही मोक्ष की कल्पना चली पर छाई रहे और बहुत से अनावश्यक कष्ट वह
पा रही है। पहिले तो स्वर्ग की कल्पना की गई
परन्तु कामसुख के लिये कैसी भी अच्छी कल्पना उठा रहा हो। इस प्रकार निर्दोष काम पाप में ।
दाप काम पाप म क्यों न की जाय उसमें पूर्णता पा ही नहीं शामिल हो गये। यह ठीक है कि दूसरों के सुख सकती। इससे दार्शनिकों ने मोक्ष की कल्पना के लिये कष्ट उठाना पड़ता है भविष्य के महान की। यद्यपि उसमें भी मनभेद रहा और वह सुख के लिये कष्ट उठाना पड़ता है पर जिस दुःख आकर्षक भी नहीं बन सकी, फिर भी इतना तो का सुख क साथ कार्यकारणसम्बन्ध न हो अथवा हुआ कि लोगों के सामने सुख का एक ऐसा रूप अनावश्यक का से ही सुखप्राप्ति की कल्पना
रक्खा गया जो नित्य हो और जिसके साथ करली जाय यह जीवन की शक्तियों की बर्बादी दु.ख न हो। यद्यपि परलोक में भोत की जो है। रचित यह है कि अावश्यकतावश मनुष्य कल्पना की गई है उससे सिर्फ दु.खाभाव ही अधिक से अधिक त्याग करने को तैयार रहे और
मालूम होता है सुख नहीं मालूम होता, इसलिये दसंग में अधिकार का लोप न करके स्वयं न्याय वैशेषिक आदि दर्शनकारों ने मोक्ष में दुग्न प्रानन्दी वन जगत को आनन्दी बनावे। यही और सुख का अमाव मानलिया है फिर भी काम है। यह काम साधारण गृहस्थ से लेकर इतना तो मालूम होता है कि वह स्थायीरूप में अगदच महात्मा में तकर सकता है, रहता है दुख के नाश के लिये है। इसलिये यह अच्छी और रहना चाहिये।
तरह समझा आ सकता है कि मोक्ष किसी स्थान मार्गमा काम या कम्प है यश । रीवन का नाम नहीं है किन्तु दुसरहित स्थायी शान्ति
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का नाम मोक्ष है।
इस प्रकार का मोक्ष मरने के बाद भी मिले तो यह अच्छी बात है । परन्तु परलोक सम्बन्धी मोक्ष को दार्शनिक सिद्धान्त से लटकाकर रखने की जरूरत नहीं है । परलोक हो या न हो, अनन्त मोक्ष हो या न हो, हमें तो इसी जीवन मे मोक्ष का सुख पाना है पाना चाहिये और पा सकते हैं, इसीलिये मोक्ष जीवार्थ है और काम के साथ उसका समन्वय भी किया जा सकता है जितना सुख काम सेवा से उठाया जा सकता है उतना काम सेवा से उठावें वांकी असीम सुख मोक्ष सेवा से उठावें इस प्रकार अपने जीवन को पूर्ण सुखी बनावें । यही सकल जीवार्थों का समन्वय है।
मोक्ष सहल सौन्दर्य धाम है। उसका ही शृङ्गार काम है ।
सममत दूर मोक्ष का द्वार || पूर्ण सुखी होने के दो मार्ग हैं- ( १ ) सुख के साधनों को प्राप्त करना और दुःख के साधनों को दूर करना (२) किसी भी तरह के दुःख का भाव अपने हृदय पर न होने देना । पहिले उपाय का नाम काम है दूसरे उपाय का नाम मोक्ष है। गृहस्य बनकर भी मनुष्य इस मोक्ष को पा सकता हैं और मोक्ष को पाकर भी इस जीवन में रह सकता है। ऐसे ही लोगों को जीवन्मुक्त या विदेह कहते हैं। विपत्तियाँ और प्रलोभन जिन्हें न तो कुछ कर पाते हैं न दुःखी कर पाते हैं न कर्तव्यच्युत कर पाते हैं वे ही मुक्त हैं। धर्म
और काम के साय मुक्तता भी जिनके जीवन में होती है उन्हीं का जीवन पूर्ण और सफल है।
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इन चारों जीवाशों की दृष्टि से जीवन के अगर भेद किये जाँय नो चारह भेद होंगे [ T
१ जीवार्थशून्य, २ कामसेवी ३ अर्धसेवी ४ अर्थ कामसेवी, ५ धर्मसेवी, ६ धर्मकाम सेवी, धर्मार्थसेवी, = धर्मार्थकामसेवी, ६ धर्ममोन
७
[१९७]
१ - जीवार्थशून्य (नेवीट)- जिसके जीवन में धर्म अर्थ काम मोक्ष कोई भी जीवार्ध नहीं है वह जीवार्थशून्य है। वह मनुष्याकार पशु है
सहज द्विगुण होता है पाकर उचित सभ्य शृङ्गार | बल्कि बैल श्रादि कर्मठ पशुओ से गया बीता भी
.
सेवी, १० धर्म काममोक्षसेवी, ११ धर्मार्थमोक्षसेवी, १२ पूर्णजीवार्थी ।
इन बारह मेत्रों में पहिले चार जघन्य श्रेणी के हैं घृणित या दयनीय हैं, बीच के चार मध्यम श्रेणी के हैं, सन्तोषप्रद हैं, अन्तिम चार उत्तम श्रेणी के हैं प्रशंसनीय है ।
धर्म के बिना मोक्ष की सेवा सम्भव नहीं है इसलिये केवल मोत्तसेवी, अर्थमोक्षसेवी, काममोक्षसेवी, श्रर्थकाममोक्षसेवी, ये चार भेद नहीं हो सकते। इन चारों भेदो में मोक्ष तो है पर धर्म नहीं है। धर्म के बिना मोक्षसेवा नहीं बन सकती । बारह भेदों का स्पष्टीकरण इस तरह है ।
है, यहा तक कि अनेक श्रानन्दी पशुपक्षियों से भी गया बीता है f
बहुत से मनुष्य, जिसमें अनेक पढ़े-लिखे लोग भी शामिल हैं, हर तरह पतित होते हैं । वे झूठ बोलने में विश्वासघात करने में शरमिन्दा नहीं होते। कृतज्ञता उनके जीवन में नहीं होती । अपनी दयनीयता प्रगट कर दूसरो से उपकार करा लेते हैं और फिर समझते हैं कि हमने चतुराई से कैसा काम वनालिया, उपकारियों की निन्दा भी करने लगते हैं, या उन्हें पूँजीपति श्रादि कहकर उन्हें ठगने का अपना अधिकार घोषित करने लगते हैं, ऐसा कोई काम नहीं कर सकते जिससे ईमानदारी के साथ जीविका कर सकें, आमद से स्व यढ़ाकर रखते हैं. ऋण लेकर दे नहीं सकते, ऐसे मनुष्य धर्मशून्य और अर्थशून्य हैं। स्वभाव की खराबी अत्यधिक क्रोध, अत्यधिक घमण्ड के कारण स्वयं भी दुखी होते हैं और दूसरों को भी दुःखी करते हैं। मूर्खता के कारण जीवन की कला नहीं जानते, जिससे थोड़े से थोडे साधनों में भी अधिक से अधिक आनन्द
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लूट सकें, इस तरह वे कामहीन होते हैं। और के लिये युद्धो की तैयारी कराते है, सरकारों को भीतर का मोक्ष सुम्ब तो बेचारा से कोसों दूर या राष्ट्रां को हाइवाते है। इस प्रकार अनेक रहता है, वह तो उन्हें मिलेगा ही क्या ये अनर्थ कर करोड़ों अबों की सम्पत्ति इकट्ठी करते जीवार्थशून्य हैं। इनके पास एक भी जीवार्थ नहीं है पर उससे किसी को सुखी नहीं कर पाते । ऐसे है ! वेचारों का जीवन उनके लिये और जगत के लोग सिर्फ अर्थ सेवी (देकार) हैं। ये भी लिये भार के समान है।
__ भयंका है भूभार हैं। २-कामसेवी (दचिंगर ) जिनके जीवन मे ४ अर्थकामसेवी (काजचिंगर) धन कमाना और सिर्फ काम है धर्म अर्थ मोक्ष नहीं है वे देधिगर मौज उड़ाना ही इनका ध्येय है । सम्पत्तिमें कहते हैं है। ये अर्थोपार्जन के लिये ऐसा कोई काम नही इमे किसी की पर्वाह नहीं। विपत्ति में कहते हैं करते जिससे किसी दूसरे की सेवा हो। संयम दुनिया बड़ी स्वार्थी है कोई काम नहीं आता। इंगान आदि की मर्यादा नहीं रखते, आवश्यकता
रुपये का भोग करके पैसा भी दान में न देंगे। होते ही हर तरह की बेईमानी करने को तयार
पीडितों और असहायो को देखकर हँसेंगे। ये होजाते हैं। इस प्रकार अर्थ इनके पास लोग स्वार्थ की मूर्ति हैं। ऐसा कोई पाप नहीं होता! मोन तो ऐसे लोगों के पास होगा हो जिसे करने को ये तैयार न हो आय। पर अस. क्या ? ये लोग बापदानों की कमाई पर विलासी फलताएँ आखिर इनके जीवन को मिट्टी में मिला धनते हैं, या ऋण लेलेकर खाते हैं, या वेषधारी देवी हैं भोग इन्हे ही मोगने लगते हैं और नीरस घनकर विना कुछ सेवा दिये भीख मागकर जैन हो जाते हैं। कोई इनसे प्रेम नहीं करता । स्वार्थी करते हैं । अपने थोड़े से स्वार्थ के पीछे जगत के दोस्त इन्हें मिलते हैं पर सब अपनी अपनी धात किसी भी हित की पर्वाह नहीं करते । ये इन्द्रियो में रहते हैं । आत्मसन्तोष इन्हें कभी नहीं मिलता। के गुलाम होते हैं। इनमें से अधिकाश अपने तीर ये लोग सदाचारी जीवन के उत्तरार्ध मे काफी दुखी और दयनीय । यनजाते हैं। ये समाज के लिये घृणित भी हैं और
HIT तो फिर भी इनका जीवन प्रशंसनीय नहीं है। भयंकर भी।
समाल की या किसी व्यक्ति की दया पर इनका .. ३-अर्थसेवी ( इंकाजर) धनोपार्जन ही
जीवन निर्भर रहता है। ये समाज से जो कुछ इनके जीवन का लक्ष्य है। धन कमाते हैं पर
लेते हैं उसके बदले में कुछ नहीं देते। इनके कमाते हैं किसलिये, यह भी नहीं समझते। संयम,
जीवन में किसी तरह का आनन्द नही होता। उधारता और प्रेम इनमें नहीं होते। ये मितव्ययी
बहुत से साधुवेषी अपने को इसी श्रेणी में बताने नहीं कजस होते हैं। न प्राध्यामिक सुख भोग
करते हैं। वे समाज को कुछ नहीं सकते हैं न भौतिक । यहा तक कि इनमें से ,
"' देत काम का श्रानन्द नहीं पाते, मोक्ष के लायक अधिकाश के कुटुम्बी नक इनसे सन्तुष्ट नहीं रह
१निर्लिप्तता उनमें नहीं होती सिर्फ दुराचार से दूर पाते। धन इकट्ठा कर दुसरो को गरीब बनावे
र रहते हैं। इस प्रकार का विकल जीवन सफल । ना ही इनकी दिनचर्या है। ये समाज की पीठ धर्म टिकाऊ रहता है।
नहीं कहा जा सकता। और न ऐसे लोगों का पर भी मुका मारते हैं और पेट पर भी।
धर्मकामसेवी (धनगर)-धर्म होने यहत मे लोगों के पास करोडों की सम्पत्ति के कारण इनका काम जीवार्थ सीमित है। पर होजाती है फिर भी दिनरात धनोपार्जन में लगे जीवन निर्वाह के लिये कुछ नहीं करचे अनावगाते है । इसलिये वे सरकारी पर प्रभाव डालते या कष्टों को निमन्त्रण नहीं देते आराम से हैं और गहेंगाई यक्षाफर अधिक धन पैदा करने रहते हैं। इस प्रकार अर्शसेवा के बिना उनका
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जीवन दयनीय है।
७ धर्मार्थसेवी ( धर्मकजर ) - सदाचारी हैं, जगत से जो कुछ लेते हैं उसके बदले में कुछ देते हैं पर जिनका जीवन आनन्द हीन है। आराम नहीं लेते, एक तरह का असन्तोष बना रहता है। धर्मार्थकामसेवी (धर्म काजचिंगर ) - तीनो जीवार्थो का यथायोग्य समन्वय करने से इनका जीवन व्यवहार में सफल होता है पर पूर्ण सफल नहीं होता। असुविधाओं का कष्ट इनके मन में बना ही रहता है। वह मोक्ष सेवा से ही दूर हो सकता है।
६ धर्ममोक्षसवी (धर्मजिन्नर ) - इस श्रेणी से वे योगी आते हैं जो दुःखों की पर्वाह नहीं करते, समाज की पर्वाह नहीं करते, समाज को कुछ नहीं देते, जिन्हें प्राकृतिक आनन्द की भी air नहीं और यश की भी पर्वाह होती । इनका जीवन बहुत ऊँचा है पर आदर्श नहीं।
१० धर्म-काम-मोक्षसेवी (धर्मचिंग जिन्नर ) - सदाचारी और निर्लिप्त जीवन बितानेवाले, प्रकृति का आनन्द लुटने वाले, अथवा यश फैलाने वाले, इस तरह इनका जीवन अच्छा है। पर एक त्रुटि है कि समाज को कुछ सेवा नहीं देते इसलिय ऐसा काम भी नहीं रखते जिसके लिये समाज से कुछ लिया जाय। इनका काम ऐसा है जिसके लिये समाज को कुछ खर्च नहीं करना पड़ता । वह प्राकृतिक होता है।
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११ धर्मार्थ-मोक्षसेवी (धर्म काज चिन्नर ) - इस श्रेणी में वे महात्मा आते हैं जो पूर्ण सदाचारी हैं पूर्ण निर्लिप्त हैं कोई भी विपति जिन्हें ५ चलित नहीं कर पाती । जो कुछ लेते हैं उससे कई गुणा समाज को देते हैं इस प्रकार अर्थ जीवार्ध का सेवन करते हैं। पर काम की तरफ जिनका लक्ष्य नहीं जाता । प्राकृतिक आनन्द उठाने में भी जिनकी रुचि नहीं होती । श्रनाarer कष्ट भी उठाने में तत्पर रहते हैं। काम से जिन्हे एक तरह की रुचि है। सामाजिक वातावरण का प्रभाव उन्हे fear fro
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काम की तरफ भी नहीं झुकने देता। ऐसे महात्मा जगत के महान सेवक हैं। वे पूज्य है बहुत अशों तक आदर्श भी हैं फिर भी पूर्ण आदर्श नहीं ।
प्रश्न- २
-यदि वे काम जीवार्थ का सेवन नहीं करते तो अर्थ जीवा का सेवन किसलिये करते हैं।
उत्तर- इन लोगों का अर्थ- जीवार्थ अर्थसंग्रह के रूप में नहीं होता। वे जगत की सेवा करते हैं बदले में जीवित रहने के लिये नाममात्र का लेते हैं। मुफ्त में कुछ नहीं लेते यही इनका जीवार्थ सेवन है ।
प्रश्न- क्या ऐसे लोग प्रकृति की शोभा न देखते होंगे क्या कभी संगीत न सुनते होगे। कम से कम यश तो इन्हें मिलता ही होगा क्या यह सब काम जीवार्थ का सेवन नहीं है ?
उत्तर- पर इस श्रेणी मे बहुत से प्राणी ऐसे होते हैं जो यश की तरफ रुचि तो रखते ही नहीं है पर यश पाते भी नहीं हैं। दुनिया उनके महत्व को नहीं जान पाती । संगीत और सुन्दर दृश्य भी इन्हे पसन्द नहीं हैं। जबर्दस्ती श्रा जाय तो
यह बात दूसरी है। यह काम जीवार्थ का सेवन नहीं है। तो जगत में ऐसा कौन व्यक्ति है जिसने जीवन में स्वादिष्ट भोजन न किया हो या सुन्दर स्वर न सुना हो अथवा किसी न किसी श्रानन्ददायी विषय से सम्पर्क न हुआ हो । पर इतने में ही काम जीवार्थ की सेवा नहीं कही जा सकती। अपनी परिस्थिति और साधनों के अनु कूल ही काम जीवार्थं की सेवा का अर्थ लगाया जायगा। एक लक्षाधिपति और एक farari का काम जीवार्थ एकसा न होगा। उन दोनों के साधनों का प्रभाव उनके काम पर पड़ेगा सर्वश कामहीन जीवन तो सम्भव है । योग्य कामहीन होने से ही किसी का जीवन कामहीन कहलाना
। इस श्रेणी के मनुष्यों का जीवन योग्यकाम हीन होता है इसीलिये इन्हें धर्मार्थगो सेवी कहा गया है।
१२ सर्वजीवार्थसेवी (मीटर)- चारा जीवार्थो का इनके जीवन में योग्य स्थान रहता
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है। म राम, म कृष्णा, म महावीर, म. बुद्ध,
प्रत्येक जीवन में चारों जीवार्थों का ससम. ईसा, म मुहम्मद आदि महापुरुषों का जीवन न्वय हो तभी वह जीवन सफल कहा ला सकता इसी कोटि का था। यह आदर्श जीवन है। है। मोत को परलोक की दार्शनिक चर्चा का
प्रश्न-स. राम, म महम्मद आदि का विषय न बनाना चाहिये। धर्मशास्त्र तो इसी जीवन नीतिमय था इसलिये श्राप इन्हें धर्मात्मा जीवन में मोक्ष बतलाता है वह हमें प्राप्त करना कह सकते है पर मोक्ष का स्थान इनके जीवन में चाहिये। त्रिवर्गसंसाधन नहीं चतुर्वर्गसंसाधन क्या था। इनमें संन्यास भी नहीं लिया। हमारा ध्येय होना चाहिये। तभी हम जीवाणे उत्तर-दुःखासे काफी निर्लिप्त रहना, और
को दृष्टि से आदर्श जीवन बिता सकते हैं। शान्ति का अनुभव करना मोक्ष है । इसका पता २-भक्त-जीवन (भक्तजिवा) उनको कर्तव्य तत्परता, आचि और प्रलोभनो क विजय से लगता है । संन्यास लेना या न लेना
ग्यारह मेट ये तो समाजसेवा के सामयिक रूप है जो अपनी मनुष्य जिस चीज का भक्त है उसी को अपनी परिस्थिति और सचि के अनुसार रखना पाने की वह इच्छा करता है उसी में वह महत्व पडते हैं । मोक्ष की सेवा तो दोनों अवस्थाओं में देखता है इसलिये दूसरे भी उसी चीज को पाने हो सकती है।
की इच्छा करते हैं इससे समाज पर उसका प्रश्न-म, महावीर और म बुद्ध के जीवन अच्छा या बुरा असर पड़ा करता है। इसलिये में अर्थ और काम क्या था ? ये तो संन्यासी थे। भक्ति की दृष्टि से भी मानव जीवन के अनेक भेद म. महावीर तो अपने पास कपडा भी नहीं रखते हैं और उनसे जीवन का महत्व लधुत्व या अच्छा थे तब ये पूर्ण जीवार्थसेवी कैसे ?
बुरापन मालूम होता है। उत्तर-अर्थसेवन के लिये यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य अर्थ का संग्रह करे। उसके
भक्त जीवन के ग्यारह भेद हैंलिये यही आवश्यक है कि शरीरस्थिति के लिये , १ भयभक्त । जो कुछ वह समाज से लेता है उसका बदला
२ आतंकमक्क समाज को दे यह बात दूसरी है कि महात्मा लोग उससे कई गुणा देते हैं।
४ वैभवभक्त म महावीर और म बुद्ध का जीवन साध.
५ अधिकारमात भावस्था में ही कामहीन रहा है। सिद्ध-जीवन्मुक्त
६ वेपभक्त अवस्था में तो उनके जीवन में काम का काफी स्थान था। म बुद्ध ने तो बाह्य तपस्याश्री को
८ गुणमक्त । अपनी संस्था में से हटा दिया था और म. महा
. आदर्शभक्त । उत्तम धीर ने भी बाह्य तपस्याओं का अपने जीवन में १० उपकारमा ) त्याग कर दिया था। केवलज्ञान होने के पहिले ११ सत्यमक्छ । धारह वर्ष तक उनने तपस्याएं की है बाद में भयभक्त (डिर्डम)- कल्पित या अका नहीं। इससे मालूम होता है कि दनक जीवन में ल्पित भयंकर चीजों का भात या पुजारी भयमक काम को स्थान था। इस प्रकार इन महात्माओं या मयपूजक है भूत पिशाच शनैश्वर आदि की के जीवन में धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों जीवाओं पूजा करने वाला, या आसमान में चमकती हुई फा समन्याया।
विजली आदि से इरकर उसकी पूजा करनेवाला,
३ स्वार्थभक्त । जपाय
७ कलामत
मध्यम
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जो मनुष्य अपने व्यवहार से हमारा दिल दहला छा गया. अब अगर इनकी भक्ति की जाय तो देता है उसकी पूजा करनेवाला भयभक्त है। क्या यह आतंकमस्ति कहलायगी ? और क्या श्राध्यात्मिक दृष्टि से यह सब से नीची श्रेणी है यह अधम श्रेणी की होने से निन्दनीय होगी। जो प्रायः पशुओं में पाई जाती है। और साधा. उत्तर-आतंक से इनकी भक्ति करना रण मनुष्य अभी पशुओं से बहुत ऊँचा नहीं अच्छा नहीं है। किन्तु लोकहित के शत्रुओं को उठ पाया है इसलिये साधारण मनुष्य में भी पाई इनने नष्ट किया और इससे लोकहित किया इस जाती है।
दृष्टि से अवश्य ही इनकी भक्ति की जा सकती भय से मतलब यहां भक्तिमय या विरक्ति- है। यह आतंकभक्ति नहीं है किन्तु कल्याण भय से नहीं है । भोगभय वियोगमय आदि भक्ति या सत्यमक्ति है। यह उत्तम श्रेणी की है। अपाय भयों से है। भय से अर्थात् डरकर किसी स्वार्थभक्त (लु भक्त )-अपने स्वार्थ की भक्ति करना मनुष्यता को नष्ट करना है। के कारण किसी की भक्ति करनेवाला स्वार्थभक्त
जब मनुष्य भय से भक्ति करने लगता है है यह भक्ति प्राय. नौकरों में मालिकों के प्रति तब शक्तिशाली लोग शक्ति का उपयोग दूसरी पाई जाती है। को डराने या अत्याचार मे करने लगते हैं वे प्रेमी इस भक्ति में खराबी यह है कि इसमें बनने की कोशिश नहीं करते। इस प्रकार भय- न्याय अन्याय उचित अनुचित का विचार नहीं भक्ति अत्याचारियों की वृद्धि करने में सहायक रहता है। और स्वार्थ को धक्का लगने पर यह होने से पाप है।
नष्ट हो जाती है। २ आतंक भक्त (डाँडभक्त)- जो लोग प्रश्नबहत से स्वामिभक्त कृते या घोडे दुनिया पर आतंक फैलाते हैं वे दुनिया की सेवा या अन्य जानवर या मनुष्य ऐसे होते हैं जो नहीं करते सिर्फ शक्ति का प्रदर्शन करते हैं उनकी प्राण देकर भी अपने अपने स्वामी की रक्षा करते पूजा भक्ति करनेवाला आतंकमक्त है। बड़े-बड़े हैं। जैसे चेटक ने राणा प्रताप की की थी, हाथी दिग्विजयी सम्राटों या सेनानायको की भक्ति ने सम्राट् पोरस की की थी, इसे क्या स्वार्थभक्ति पाकिमक्ति है। यद्यपि यह भी एक तरह की कहकर अधम श्रेणी की कहना चाहिये ? इस भयभक्ति है पर यहा भयभक्ति से इसमें अन्तर प्रकार की भक्ति से तो इतिहास में भी स्थान यह रक्खा गया कि है कि भयभक्ति अपने ऊपर मिलता है इसे अथम श्रेणी की भक्ति कैसे कह
आये हुए भय से होती है और श्रातकभक्ति वह सकते हैं ? है जहा अपने ऊपर आये हुए मय से सम्बन्ध उत्तर-यह स्वार्थमक्ति नहीं कृतमता या नहीं रहता किन्तु जिन लोगो ने कहीं भी और कर्तव्यतत्परता है । अगर स्वार्थभक्ति होती तो कमी भी समाज के अपर आतंक फैलाया होता ये प्राण देकर स्वामी की रक्षा न करते । स्वार्थहै उनकी भक्ति होती है। चंगेअखाँ नादिरशाह भक्ति वहीं है नहा स्वार्थ के नष्ट होते ही मनुष्य या और भी ऐसे लोग जितने निरपराधी, लोगी गुणानुराग कृतज्ञता न्याय आदि को भूलकर पर आतंक फैलाया हो उनकी वीरपूजा के नाम भक्ति छोड बैठे। प्रताप की रक्षा करने वाले पर मति करना आतंकभक्ति है। भयभक्ति में जो चेटक में कर्तव्यतत्परता थी इसलिये इसने प्राय दोष है वही दोष इसमें भी है।
देकर भी प्रताप की रक्षा की ! यह न समझना प्रश्न-आतंक तो सज्जनों का भी होता चाहिये कि जानवरों में करीव्यतत्परता नहीं हो है। जैसे परखीलम्पट रावण के दल पर म राग सकती। जानवरों में पाडित्य भले ही न हो का भातक छा गया, या सामयिक सुधार के परन्तु कृतज्ञता प्रेम भक्ति श्रादि भानया के विरोधी काफिरों पर हजरत मुहम्मद का आतक रूप रह सकते हैं।
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*' वैभत्रभक्त ( धूनोगक्त )-घन वैभव होने में किसी की भक्ति का वैभवभक्ति है। वैभत्र भक्ति का परिणाम यह है कि मनुष्य हर तरह बेईमानी से धनी बनने की कोशिश करता है। धन जीवन के लिये आवश्यक चीज है और इसी निये अधिक धनसंग्रह पाप हैं क्योंकि इससे दूसरे लोगों की जोवन के 'आवश्यक पदार्थ दुर्लभ हो जाते हैं | एक जगह संग्रह होने से उसका बटवारा ठीक तरह नहीं हो पाता। जो मनुष्य वनसंग्रह का पाप कर रहा है उसकी भक्ति करना तो पाप को उत्तेजना देता है | इसलिये वैभवभक्ति अधम भोगो को भक्ति हैं, देव है।
न - श्रीमानों से कुछ न कुछ जगत की मलाई होती ही है कुछ न कुछ भी होता है और der dara hat if it a विशेष गुण पर निर्भर है इसलिये वैभवशालियों की भक्ति में प्रमुश में गुणभक्ति सेवाभक्ति दयाही जाते हैं तब वैभवभक्ति या वनमक्कि क्यों कहा जाय ?
उत्तर- धनवान अगर जगत की भलाई या सवा करता है तो उसको परोपकारशीलता की भक्ति करके उपकारभक्ति की जा सकती है धनो पार्जन में अगर उसने बुद्धि आदि किसी गुण का तथा ईमानदारी का उपयोग किया है तो उन गुणा की भाभि की जा सकती है पर यह धन भक्ति नहीं है। जहा अन्य किसी गुण की उपेक्षा करके केवल धनवान होने से किसी की भक्ति या
उत्तर – यह घनभक्ति नहीं है। जैसे किसी वालक को प्रेम से पुचकारते हैं और पुचकार कर उससे कोई काम करा लेते हैं तो यह उसकी भक्ति नहीं है, इसी प्रकार कोई श्रीमान प्रशंसा और यश से ही कर्तव्य करता हो. उसे वास्तविक कर्तव्य का पता न हो तो श्रादर सत्कार करके उससे कुछ अच्छा काम करा लेना अनुचित नही हैं। पर यह धनभक्ति नहीं है, समझा बुझाकर या तुभाकर अच्छा काम करा लेने को एक कला है। विवेकी श्रीमान तो श्रादर सत्कार यश आदि की पर्वाह किये बिना उचित मार्ग में दान करेगा इस प्रकार अपनी परोपकारशीलता से जनता की सच्ची भक्ति पायेगा। वह कला का विषय न बनकर भक्ति का विषय बनेगा ।
for जाता है, यहा तक कि वह बेईमान होम से ही उसने धन कमाया हो फिर भी उसके चन की की जाती हो तो है। यह धनसंग्रह के पाप को उत्ते इसलिये अथम भक्ति है।
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से कोई श्रीमान किसी अच्छे काम में अपनी सम्पति लगादे तो उसका आदर आदि करना क्या बुरा है ? इससे दुनिया की कुछ न कुछ भलाई ही है।
प्रश्न-धन शक्ति अवश्य है क्योंकि उसमें कुराने की है। उस शक्ति कराने के लिये अगर किसी धनी की गई है। हमारे गोमेन मे नारीफ कर देन
५ अधिकार
( जोभक ) - मुक आदमी किसी पर पर पहुँचा है, वह न्यायाधीश है, राजमन्त्री है, किसी विभाग का सञ्चालक है, यदि पदों से उसकी भक्ति करना अधिकार भक्ति है, यह भी एक जघन्य या अधम भक्ति है ।
ऐसे भी बहुत से पट है जो किसी सेवा के वलपर मनुष्य को मिलते हैं उनके कारण किसी की भक्ति करता उस सेवा की ही भक्ति है। पर सेवा का विचार किये बिना पद के कारण किसी की भक्ति near sare भक्ति है। मुक आदमी को कल तक बात न पूछते थे श्राज वह राजमन्त्री या न्यायाधीश हो गया है तो उसे मानपत्र दो अध्यक्ष बनायो, यो करो त्यों को, यह सब श्रथम भक्ति है।
जय समाज में इस प्रकार के अधिकारभन बढ़ जाते है तब मनुष्य को सेवा की पर्वाह नहीं रहती अधिकार की रहती है। अविकार को पाने के लिये मनुष्य मय कुछ करने को उतारू हो जाना है वह अछे से अन् सेवकों को फा देकर देना चाहता है और
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जनता की भक्ति पूजा लूट लेना चाहता है। इसमे तो यम है ही, साथ ही जनता का भी दोष है। जनता जब अपने सेवक की अपेक्षा अधिकारी की अधिक भक्ति करेगी तब लोग सेवक बनने की अपेक्षा अधिकारी बनने की अधिक कोशिश करेंगे। इससे सेवक घटेंगे अधिकारों के लुटारू बढ़ेंगे इसलिये अधि कारभक्ति भी एक तरह की बुराई है। अधिकारी को भक्ति उतनी ही करना चाहिये जितनी कि अधिकारी होने के पहिले उसके गुणों और सेवाश्री के कारण करते थे।
प्रश्न-व्यवस्था की रक्षा करने के लिये अधिकाभक्ति करना ही पड़ती है और करना भी चाहिये। न्यायालय में जानेवाले अगर न्याया. धीश के fer का ही खयाल करें और उसके अधिकार की तरफ ध्यान न दें तो न्यायालय की इज्जत भी कायम न रहे, न्यायाधीश को न्याय करना भी कठिन हो जाय।
उत्तर - न्यायालय में न्यायाधीशका सन्मान न्यायाधीश की भक्ति नहीं है यह तो उचित मर्यादा का पालन है ।" न्यायासन पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का विचार नहीं किया जाता उस पद का विचार किया जाता है। न्यायालय के आदर में व्यक्ति को बिलकुल गौण कर देना चाहिये । न्यायालय के बाहर उस व्यक्ति का आदर उसके गुण अनुसार करना चाहिये वहा उसके पद या अधिकार को गौण कर देना चाहिये ।
प्रश्न- ऐसे भी अधिकारी हैं जो चौबीसों घंटे अपनी ड्यूटीपर माने जाते हैं उसके लिये न्यायालय के भीतर या बाहर का भेद नहीं होता।
उत्तर- ऐसे लोग जब ड्यूटी के काम के लियं यावें तब उनका वैसा आदर करना चाहिये, परन्तु जब वे किसी धार्मिक सामाजिक या वैय फ़िक कार्य से आवें तब उनका अधिकारीपन गौण समझना चाहिये ।
HOME यह है कि अधिकार और महत्ता का पूज्यता से मेल नहीं बैठता। अच्छे से अच्छे जनसेवक त्यागी व्यक्ति अधिकारहीन होते हैं
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और साधारण से साधारण क्षुद्र व्यक्ति अधिकार पा जाते हैं। अधिकार के आसन पर बैठकर वे श्रादर सन्मान तो लूट ही लेते हैं, अब अगर अन्यन्त्र भी वे आदर सम्मान लूटें और सच्चे सेवक और त्यागी भी उनके आगे गौण कर दिये जाँय तो समाज के लिये इससे बढ़कर कृतघ्नता और क्या हो सकती है। और इसी कृतघ्नता का यह परिणाम है कि समाजसेवा की अपेक्षा पढ़ाधिकारी बनने की तरफ मनुष्य की रुचि अधिक होती है। प्रजातन्त्र शासन की अमछाई भी इसी कारण धीरे धीरे नष्ट हो जाती है।
हा, यह ठीक है कि कोई पदाधिकारी योग्य भी हो और उसने अपनी योग्यता का धन का जन का समाज सेवा के कार्य मे उपयोग किया हो तो इस दृष्टि से उसको भक्ति की जा सकेगी। पर जब दूसरे समाजसेवी से उसकी तुलना होगी तो समाज सेवा ही की दृष्टि से तुलना होगी, अधिकार की दृष्टि से नहीं।
कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई धनी या अधिकारी आर्थिक आदि कारणो से सम्पर्क में आता है, उससे परिचय हो जाता है, और पत्ता लगता है कि वह सिर्फ धनी या अधिकारी ही नहीं है किन्तु गुरणों में भी श्रेष्ठ है परोपकारी भी है, इस प्रकार उसकी भक्ति पैदा हो जाती है तो यह धनमक्ति या अधिकारमति नहीं है किंतु
भक्ति या उपकार भक्ति है ।
६ वेषभक्त (रु जो भक्त ) - गुण हो या न हो किन्तु वेप देखकर किसी की भक्ति करना वेपभक्ति है । वेषभक्त भी जघन्य श्रेणी का भक्त है । जब हम विद्वत्ता त्याग समाजसेवा आदि का अपमान करके किसी वेप का सन्मान करते हैं तब यह अधम भक्ति समाज में इन गुणों की कमी कराने लगती है और वेप लेकर पुजने के लिये धूर्तों मूढ़ों गुणहीनों को उत्तेजित करती है, वेप तो किसी संस्था के सदस्य होने की निशानी है महत्ता या गुण के साथ उसका नियत सम्बन्ध नहीं है। वेप लेकर भी मनुष्य हीन हो
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सकता है। वेष के आगे वास्तविक महत्ता का चार रेखाएँ खीचकर सुन्दर चित्र बना लेता है अपमान न होना चाहिये।
और अनाडी चित्रकार स्याही से कागज भर कर प्रश्न-वेप किसी संस्था के सदस्य होने की भी कुछ नहीं कर पाता। यह कला की विशे. निशानी है, तब यदि उस संस्था का सन्मान पता है। करना हो तो वेप का सन्मान क्यो न किया जाय? कला की भक्ति मध्यम श्रेणी की भक्ति है।
उत्तर-वेप का सन्मान एक बात है, वेप अधिकारमति धनमक्ति प्रादि से जो दूसरों पर होने से किसी व्यक्ति का सन्मान करना दूसरी बोझ पड़ता है वह कलामति से नहीं पड़ता। बात है, वेप के द्वारा किसी संस्था का सन्मान कला जगत को कुछ देती ही है जब कि धन करना तीसरी बात है, और वेप के द्वारा श्राम- अधिकार आदि दूसमें से खींचते हैं। मुझे धनी शद्धि और जनसेवा का सन्मान करना चौथी बनने के लिये दसरा से छीनना पड़ेगा या लेना बात है। इनमें से पहिली दो बातें उचित नहीं पड़ेगा पर कलावान होने के लिये दूसरों से है। तीसरी बात ठीक है परन्तु उसमें मादा छीनना जरूरी नहीं है थोड़ा बहुत दूंगा ही। होना चाहिये। संस्था का सन्मान उतना ही जगत में बहुत से धनी अधिकारी श्राद ही इस उचित है जितनी उससे लोकसेवा होती है। कोई की अपेक्षा यह अच्छा है कि बहुत से कलावान संस्था यह नियम बनाले कि हमारे सदस्यों से हो। इसलिये कलाभक्ति धना श्रादि से अच्छी जो मिलने पावे उसे अमीन पर बैठना पड़ेगा है मध्यम श्रेणी की है। भले ही मिलानेवाला कितना ही बड़ा लोकसेवी उत्तम श्रेणी की यह इसलिये नहीं है कि विद्वान हो और हमारा सदस्य सिंहासन था कलाकान होने से ही जगत को लाभ नहीं होता। ॐचे तख्त पर बैठेगा भले ही उसकी योग्यता उसका दुरुपयोग भी काफी हो सकता है। इस कितनी ही कम हो, तो उस संस्था की यह लिय सिर्फ कलाभक्ति से कुछ लाभ नहीं उसके स्वादती है। संस्था का सन्मान उसके रीतिरिवाज सदपयोग की भक्ति ही उत्तम श्रेणी में जा सकता के आधार पर नहीं किन्तु उसकी लोकसेवा आदि है। पर उस समय कला गौर हो जायगी और के आधार पर किया जाना चाहिये। उससे होनेवाला उपकार ही मुख्य हो जायगा
चौथी बात सोचम है। इसमें संस्था को इसलिये वहा कलाभक्ति न रह कर उपकारभक्ति प्रश्न नहीं रहता इसमें वेप वो सिर्फ एक विज्ञापन रहेगा। है जिससे आकृष्ट होकर लोग व्यक्ति की आत्म- गुणभक्त (रमो भक्त)- दूसरे की मलाई शुद्धि और जनसेवा की परीक्षा के लिये उत्सुक कर सकनेवाली शक्ति विशेष का नाम गुण है। हो। इसके बाद जैसा उसे पायें उसके साथ वैसा जैसे विद्वचा, धुद्धिमत्ता, पहिलवानी, सुन्दरता ही व्यवहार करें।
आदि । कुछ गुण स्वाभाविक होते हैं और कुछ . ७ कलाभक्त (चन्नोभत)-मन और इन्द्रियों उपार्जिन । बुद्धिमत्ता आदि स्वाभाविक हैं विद्वत्ता को प्रसन्न करनेवाली साकार या निराकार रचना आदि उपाजित । गुणी होने से किसी की भक्ति विशेष का नाम कला है। जैसे वक्तृत्व कवित्ल करना गुणक्ति है यह भी मध्यम श्रेणी की संगीत आदि निराकार कला, मूर्ति चित्र नृत्य भक्ति है। इसकी मध्यमता का कारण वही है आदि साकार कला । जहा कता है वहां कम खर्च मा कला में भी अधिक आनन्द मिल सकता है, जहां कला प्रम-सौन्दर्य भी एक गुण है उसकी भक्ति नहीं है वहां अधिक खर्च में भी उतना आनन्द मध्यम श्रेणी की भक्ति है और धनी अधिकारी नहीं मिल पाना । चतुर चित्रकार पेन्सिल से दो आदि की भक्ति जघन्य श्रेणी की, तब सुन्दरियों
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के पीछे घूमनेवाले मध्यम श्रेणी के कहलाये और न्याय के खातिर हमें उसका उपकार मानना अधिकारियों को मानपत्र देनेवाले जघन्य श्रेणी चाहिये और यथाशक्य आदर पूजा से कृतज्ञता कं। यह अन्तर कुछ जचता नहीं। यह तो विपय प्रगट करना चाहिये, यह मनोवृत्ति अच्छी है। को उत्तेजन देना है।
इसी दृष्टि से एक कारीगर अपने औजारों की उत्तर-विषयातुर होकर सुन्दरियों को पूजा करता है एक व्यापारी तगजू की पूजा महत्व देनेवाले गुणभक्त या कलामक्त नहीं हैं।
करता है। कृतज्ञ मनोवृत्ति जड़ चेतन का भेद
- भी गौण कर देती है ! गगा आदि की भक्ति के वे तो विषयभक्त होने से स्वार्थभक्त हैं। विषय ,
मूल में भी यही कृतज्ञता की भावना है। इसे को धक्का लगा कि उनकी भक्ति गई। ऐसे स्वार्थ
देव आदि समझकर अद्भुन शक्तियों की कल्पना भक्त तो जघन्य श्रेणी के हैं। सौन्दयक्ति तो तो मुढ़ता है पर उपकारी सममकर भक्ति करना सामहिक हित की दृष्टि से होती है। एक विद्वान उचित है। इससे मनुष्य में कृतज्ञता जगती रहती को इसलिये भक्ति करना कि उसने हमारे लड़के है । कृतज्ञता से परोपकारियों की संख्या बढ़ती को मुफ्त में पढ़ा दिया है, गुणमक्ति नहीं है, है कृतघ्नता से अगणित उपकारी नष्ट होते हैं। स्वार्थमक्ति है। एक सुन्दरी की इसलियं भक्ति प्रश्न-उपकारमति तो स्वार्थभक्ति है स्वार्थकरना कि उसके रूप से खेिं सिकती है सौन्दय- भक्ति तो अधम श्रेणी की मकि है फिर उपकार भक्ति नहीं है स्वार्थभक्ति है। निस्वार्थ दृष्टि से के नाम से ससे उत्तम श्रेणी की क्यों कहा ? जो भक्ति होगी वही गुणभक्ति रहेगी और उत्तर-स्वार्थभक्ति और उपकारभक्ति में मध्यम श्रेणी में शामिल होगी।
अन्ता है। स्वार्थमकति मोह का परिणाम है ___ शुद्धिभत ( शुधो मक्त)-पवित्र जीवन और उपकारभक्ति विवेक का । स्वार्थ नष्ट होने बितानेवाले लोगों की भक्ति करना शुद्धिक्ति पर स्वार्थभकति नष्ट होजाती है जब कि उपकारहै। इस भक्ति में कोई दुस्वार्थ नहीं होता अपने अति उपकार नष्ट होनेपर भी बनी रहती है, जीवन को पवित्रता की ओर लेजाने का सत्वार्थ इसमें कृतज्ञता है। स्वार्थभक्ति में दीनता, दासता होता है। यह उत्तम श्रेणी की भक्ति है क्योंकि मोह आदि है। इससे पवित्र जीवन बिताने की उत्तेजना मिलती ११ सत्यमक्त (सत्योभक्त)- शुद्धि और
___उपकार दोनों के सम्मिश्रण की भक्ति सत्यभक्ति २० उपकारभक्ति ( भत्तो भक्त )-- किसी है। न तो कोरी शुद्धि से जीवन की पूर्ण सफलना वस्त से कोई लाभ पहुँचता हो तो उसके विषय है न कोरे उपकार से, ये तो सत्य के एक एक में कृतज्ञता रखता उपकारभक्ति है। यह भी अंश है । जीवन को शुद्ध बनाया पर वह जीवन उत्तम श्रेणी की है क्योंकि इससे उपकारियों की दुनिया के काम न आया, सिर्फ पुजने के काम सख्या बढ़ती है।
का रहा तो ऐसा जीवन अच्छा होने पर भी पूर्ण गाय को जब माता कहते हैं तब यही उप. नहीं है । और उपकार किया पर जीवन पवित्र न कारभक्ति पाती है। गाय एक जानवर है खुद बना तो भी वह आदर्श न बना, बल्कि कदाचिन उसे अपनी उपकारकता का पता नहीं है पर हम यह भी हो सकता है कि वह उपकार के बदले उससे लाभ उठाते हैं इसलिये माता कहकर भक्ति अपकार अधिक कर जाय। दोनों को मिलाने से प्रगट करते हैं। यह किसी नाम की भक्ति नहीं जीवन की पूर्णता है, यही सत्य है इसी की है किन्तु गोजाति के द्वारा होनेवाले मानव जाति भक्ति सत्यभकति है।
कार की भक्ति है। यदि हमने अपनी शक्ति ये ग्यारह प्रकार के भकृत बतलाय है इन्हें में विवश करके किसी से सेवा ली है तो भी सेवक उपासक पूजक आदि भी कह सकते हैं।
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पर सेवा आदि करने में तो दूसरों की सहायता वस्था की स्मृतियों श्रानन्द-मग्न कर देती है। की आवश्यकता है लेकिन भक्ति में नहीं है, भकि जब मनुष्य आनन्द मग्न होता है तब वह वाल्यास्वतन्त्र है। इसलिये मनुष्य भक्त बनने का ही वस्था का ही अनुकरण करता है। व्याख्यान पूरा दावा कर सकता है सेवक आदि बनना तो सुनते सुनते या कोई सुन्दर दृश्य देखते देखते परिस्थिति और शक्ति पर निर्भर है। मनुष्य हर्षित होनेपर बालकों की तरह वालियाँ
भक्ति की जगह प्रेम आदि शब्दो का भी पीटने लगता है, उछलने कूदने लगता है। बुद्धि उपयोग किया जा सकता है पर भक्तजीवन शद की अर्गज्ञा किनारे हो जाती है हृदय उन्मुक्त से जो सात्विकता और नम्रना प्रगट होती है वह होकर उछलने लगता है। बाल्यावस्था की ढ़ियों प्रेमीजीवन शज से नहीं होती। जो चीजें हमारी वे घड़ियाँ हैं जिनकी स्मृति जीवन में जब चाहे मनुष्यता का विकास करती है जगत का उद्धार तब गुदगुदी पैदा करती है। करती हैं उनके सामने तो हमें भक्त बनकर जाना यौवन कर्मठता की मूर्ति है। इस अवस्था ही उचित है। मनुष्य प्राणी प्राणियों का राजा में मनष्य उत्साह और उमंगों से भरा रहता है। होने पर भी इस विश्व में इतना तुच्छ है कि वह
मका देखता है. अस. भक्त बनने से अधिक का दावा करे तो यह उसका
म्भव शब्द का अर्थ ही नहीं समझता, जो काम अहंकार ही कहा जायगा। तर, भक्त कहो, पुजारी
सामने आ जाय उसी के ऊपर टूट पडता है, इस कहो, सेवक कहो, प्रेमी कहो, उपासक कहो, करीब प्रकार करमयता यौवन की विशेषता है। करीव एक ही बात है और इस दृष्टि से जीवन वाक्य की विशेषता है ज्ञान-अनुभव दूरके ग्यारह भेद हैं। इनमें से उत्तम श्रेणी का . भक्त हर एक मनुष्य को बनना चाहिये।
"" दर्शिता । इस अवस्था में मनुष्य अनुभवों का हा, व्यवहार में जो शिष्टाचार के नियम
महार हो जाता है इसलिये उसमें विचारकता
और गम्भीरता बढ़ जाती है। वह जल्दी ही है उनका पालन अवश्य करना चाहिये। जो शिष्टाचार नीतिरक्षण और सुव्यवस्था के लिये
किसी प्रवाह में नहीं वहजाता। इस प्रकार इन आवश्यक है वह रहे, बाकी में भक्ति जीवन के
तीनों अवस्थाओं की विशेषताएँ हैं। परन्तु
इसका यह मतलब नहीं है कि एक अवस्था में अनुसार संशोधन करना उचित है।
दूसरी अवस्या की विशेषता बिलकुल नहीं पाई ३-चयोजीवन (जिक्लोजियो) जाती। यदि ऐसा हो जाय तो जीवन जीवन न
रहे । इसलिये वालकों में भी कर्मठता और विचार आठ मेद
होता है, युवकों में भी विनोद और विचार होता मानव-जीवन की अवस्थाओं को हम तीन है, वृद्धा में भी विनोद और कर्मठता होती है। भागों में विभक्त करते हैं, वाल्य, यौवन और इसलिये उन अवस्थाओं में जीवन रहता है। पार्थक्य । तीनों में एक एक बात की प्रधानता परन्तु जिन जीवना में इन तीनो का अधिक से । होने से एक एक विशेषता है। बाल्यावस्था में अधिक सम्मिश्रण और समन्वय होता है वे ही आमोद प्रमोद-आनन्द की विशेषता है। निश्चिन्त जीवन पूर्ण है, धन्य हैं। जीवन, किसी से स्थायी वैर नहीं, उच्चनीच वहत से लोग किसी एक में ही अपने
आदि की वासना नहीं, किसी प्रकार का बोझ जीवन की सार्थकता समझ लेते है, बहुतों का नहीं, क्रीड़ा और विनोद, ये बाल्यावस्था की नम्बर दो तक पहुँचता है, परन्तु तीन तक बहुत विशेषताएँ हैं। युवा और वृद्ध भी जब अपने कम पहुँचते है। अगर इस दृष्टि से जीवनों का जीवन पर विचार करने बैठते हैं तब उन्हें वाल्या. श्रेणीविभाग किया जाय तो उसके पाठ भेद होगे
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१ गर्भजीवन, २ बालजीवन, ३ युवाजीवन, पर जा पहुंचता है। ये लोग दुनिया को भार के ४ वृद्धजीवन, ५ बालयुवाजीवन, ६बालवृद्धजीवन, समान हैं। ७ युवावृद्धजीवन, ८ घालयुवावृद्ध जीवन । दूसरे __इस तरह के लोग देखने में शान्त, किन्तु नामों में इसे यों कहेंगे:-१ जड़ २ अानदी, तीन स्वार्थी होने के कारण अत्यन्त क्रूर होते हैं। ३ कर्मठ, ४ विचारक, ५ आनदी-कर्मठ, ६ आनंदी
३ कर्मठ ( कब्जेर ) साध्य और साधन के विचारक, कर्मठ विचारक, ८ श्रानंदी-कर्मठ ।
भेद को भूलकर बहुत से लोग कर्म तो बहुत विचारक।
करते हैं परन्तु कर्म का लक्ष्य क्या है इसका उन्हें १जड़ ( उम्म)-जिसके जीवन में न आनन्द
कमी विचार भी पैदा नहीं होता। जिस किसी है न विचार, न कर्म । यह एक तरहका पशु है या
तरह सम्पत्ति एकत्रित करते हैं परन्तु सम्पत्ति का जड़ है।
उपयोग नहीं कर सकते। उनकी सम्पत्ति न तो २ आनन्दी ( नन्द )-अधिकांश मनुष्य या
दान में खर्चा होती है न भोग में खर्च होती है। प्रायः सभी मनुष्य इसी प्रकार जीवन व्यतीत इस प्रकार सम्पत्ति का संग्रह करके वे दूसरों को करना चाहते हैं परन्तु उनमें से अधिकाश इसमें कंगाल तो बनाते हैं परन्तु स्त्रयं कोई लाभ नहीं असफल रहते हैं। असफलता तो स्वाभाविक ही उठाते।। है क्योंकि प्रकृतिको रचना ही ऐसी ही है कि धन कोई स्वयं सुख या ध्येय नहीं है परन्तु अधिकाश मनुष्य इस प्रकार एकागी जीवन सुख और ध्येय का साधनमात्र है। अगर धन स व्यतीत कर ही नहीं सकते । आनन्द के लिये शान्ति न मिली, भोग-ज मिला, तो एक पशुविचार और कर्सका सहयोग अनिवार्य है। थोड़े जीवन में और मानवजीवन में अन्तर क्या रहा। बहुत समय तक कुछ लोग वह बालजीवन व्यतीत जिसने धन पाकर उससे यश और भोग न पाया, कर लेते हैं परन्तु कई तरह से उनके इस जीवन दुखियों का और समाजसेवकों का आशीर्वाद न का अन्त हो जाता है । एक कारण तो यही है कि लिया, उसकी सम्पत्ति उसके लिये भार ही है। इस प्रकार के जीवन से जो लापर्वाही सी आ मृत्यु के समय ऐसे लोगो को अनन्त पश्चाताप जाती है उससे जीवन संग्राम में वे हार जाते हैं, होता है। क्योंकि सम्पत्ति का एक अणु भी उन दूसरे कर्मठ व्यक्ति नन्हे ,लूट लेते हैं । वाजिद- के साथ नहीं जाता । ऐसी हालत में उनकी अली शाह से लेकर हजारों उदाहरण इसके अवस्था कोल्हू के बैल ने भी बुरी होती है। कोल्हू नमने मिलेंगे। आज भी इस कारण से सैकड़ों का बैल दिन भर चक्कर लगाकर कुछ प्रगति नहीं श्रीमानों को उजड़ते हुए और उनके चालाक कर पाता, फिर भी उसके चक्कर लगाने से दूसरे मनीमो को या दोस्त कहलानेवालों को बनते हुए को कुछ न कुछ लाम होता ही है। परन्तु ऐसे हम देख सकते हैं। इनके जीवन में जो एकान्त लोग न तो अपनी प्रगति कर पाते हैं न दूसरों बालकता आ जाती है, उसी का दुष्फल ये इन की, अर्थात् न तो अपने जीवन को विकसित या रूपों में भोगते हैं । इस जीवन के नाश का दूसरा समुन्नत बना पाते हैं न दुनिया को भी कुछ लाम कारण है प्रकृति-प्रकोप । ऐयाशी उनके शरीर को पहुंचा पाते हैं। .. निर्वल से निर्वल बना देती है। ये लोग दूसरों से विचारक (ईकर )-कर्महीन विचारक सेवा कराते कराते दूसरों को तो मारते ही है जघन्य श्रेणी का न सही, किन्तु अकर्मण्य होने से परन्तु स्वयं भी मारे जाते हैं, इसके अतिरिक समाज के लिये भारभूत है। इस श्रेणी में ऐसे डाक्टर वैगो की सेवा करते करते भी मरे जाते भी बहुत से लोग आ जाते हैं जो समाज की ष्टि हैं। इस प्रकार इनका जीवन असफलता की सीमा में बहुत ऊंचे गिने जाते हैं। बहुत से साधुवेषी
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इसी श्रेणी में हैं। विचार और विद्वता एक है परन्तु वह श्रद्धेय और वन्दनीय नहीं हो साधन हैं। जो लोग सिर्फ साधन को पकडकर रह जाते हैं और साध्य को भूल जाते हैं उनका जीवन बिलकुल अधूरा है। अनावश्यक काय क्लेश सहना और लोकहित से विरक्त रहना जीवन को निरुपयोगी बना लेना है।
५ आनन्दी-कर्मठ (नन्द कब्जेर )- बहुत से मनुष्य चतुर स्वार्थी होते हैं। वे कर्मशील होंगे मौज मजा मी खूप उडायेंगे लेकिन लोकहित की तरफ और सात्विक आनन्द की तरफ ध्यान न देंगे। ऐसे लोग लाखो करोड़ों की जायदाद एकत्रित करते हैं, अर्थोपार्जन के क्षेत्र में अपना सिंहासन ऊंचे से ऊंचा बना लेते हैं, परन्तु उस सिंहासन के नीचे कितने अस्थिपंजर दब रहे हैंकराह रहे हैं इसकी पर्वाह नहीं करते। लौफिक व्यक्तित्व की दृष्टि से ये कितने भी ऊंचे हो परन्तु जीवन की उच्चता की दृष्टि से ये काफी नीचे स्तर में है।
विचारहीन होने के कारण इनकी कर्मठता केवल स्वार्थ की तरफ झुकी रहती है। सात्विक स्वार्थ को वे पहिचान ही नहीं पाते ! दूसरों के स्वा की इन्हें पर्वाह नहीं रहती बल्कि उनकी सुविधाओं, दुर्गजतार्थी तथा भोलेपन से अधिक से अधिक अनुचित लाभ उठाने की घाव में ये लोग रहते इसलिये समर्थ होकर भी ये दुनिया के लिये भारभूत होते हैं। इस श्रेणी में अनेक साम्राज्य-संस्थापक, अनेक धनकुबेर आदि भी आ जाते हैं। इन लोगों की सफलता हजारों मनुष्यों की असफलता पर खड़ी होती है, इनका स्वार्थ हजारों मनुष्यों के निर्दोष स्वार्थो का भोग लगाता है, इनका अधिकार हजारों के जन्मसिद्ध अधिकारों को कुचल डालता है। इस श्रेणी का व्यक्ति जितना बडा होगा उतना ही भयंकर और अनिष्टकर होगा। दुनिया ऐसे जीवनों को सफल जीवन कहा करती है परन्तु मनुष्यता की दृष्टि से वास्तव में वे असफल जीवन हैं। इतिहास में इनका नाम एक जगह घेर सकता
६ नन्दी विचारक (नन्द कर ) - इस श्रेणी में प्राय ऐसे लोगों का समावेश होता है जो विद्वान हैं, साधारणतः जिनका जीवन साचारपूर्ण है, पास में कुछ पैसा है इसलिये श्राराम से खाते हैं, अथवा कुछ प्रतिष्ठा है, कुछ
भक्त
है उनकी सहायता से आराम करते हैं, परन्तु ऐसे कुछ काम नहीं करते जिससे समाज सके। मानव समाज में ऐसे प्राणी बहुत ऊँची are ferral नी जीविका ही चल श्रेणी के समझे जाते हैं परन्तु वास्तव में इतनी ॐची श्रेणी के होते नहीं हैं। प्रत्येक मनुष्य को जब तक उसमें कर्म करने की शक्ति है कर्म करने के लिये तैयार रहना चाहिये। कर्म कैसा हो इसका कोई विशेष रूप तो नहीं बताया जा सकता परन्तु यह कहा जा सकता हैं कि उससे समान
को कुछ लाभ पहुँचता हो । जब मनुष्य जीवित रहने के साधन लेता है तब उसे कुछ देना भी चाहिये ।
कोई यह कहे कि रुपया पैदा करके मैंने अपने पास रख लिया है उससे मैं अपना निर्वाद करता हूँ मैं समाज से कुछ नहीं लेना चाहता e fवृत्त होकर आराम से दिन क्यों न गुजारु ?
मनुष्य को संग्रह करने लायक सम्पत्ति लेने का परन्तु यहा वह भूलता है। किसी भी कोई अधिकार नहीं है। अगर परिस्थितिवश उसकी सेवा का बाजार में मूल्य अधिक है तो उसके बदले में वह अधिक सेवा दूसरों से लेले, परन्तु जीवनोपयोगी साधनों का अथवा उसके प्रतिनिधिरूप सिकों आदि का संग्रह करने का Baal अधिकार नहीं हैं। अधिक रुपया लेवा है तो उसे किसी न किसी रूप में खर्च कर देना चाहिये। हा, योग्यं स्थान में खर्च करने के लिये कुछ समय तक समहीत रहे तो बात दूसरी है अथवा उस समय के लिये संग्रह करे जब बदला लिये बिना समाज की सेवा करना हो तो भी वह
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हायक।
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संग्रह उचित है, अथवा वृद्धावस्था आदि के लिये लेती है, कष्ट की कमी को धर्म की कमी समझ संग्रह करे जब अर्थोपयोगी सेवा के लिये मनुष्य लेती है इसलिये कष्ट की वृद्धि को धर्म की वृद्धि अक्षम हो जाता है तब भी संग्रह क्षम्य है। ऐसे मानती है। जहां कष्ट में और धर्म में कार्य-कारणअपवादा को छोड़कर मनुष्य को अर्थसंग्रह नहीं भाव होता है वहां तो ठीक भी कहा जा सकता करना चाहिये। पाराम करने का तो मनुष्य को है परन्तु जहा कष्ट का कोई साध्य ही नहीं होता अधिकार है परन्तु वह कर्म के साथ होना चाहिये। है वहा भी जनता दोनो का सम्बन्ध जोड़ लेती इसलिये जो मनुष्य होकर के भी और कर्म करने है। जैसे कोई आदमी किसी की सेवा करने के की शक्ति रख करके भी कर्म नहीं करता है वह लिये जागरण करे भूग्य प्यास के कष्ट सहे तो अधूरा यादमी है और ऐसा अधूग है जिसे टोका समझा जा सकता है कि उसका यह कष्ट परोपजा सकता है जिसपर आक्षेप किया जा सकता है। कार के लिये था इसलिये उसका सम्बन्ध धर्म से
जो लोग फर्म की शक्ति रखते हा भी कर्म था, परन्तु जहा कष्ट का साध्य परोपकार आदि हीन संन्यास ले बैठते हैं, पाए तपस्याओं मे- "
न हो वहा भी ऐसा समझ बैठना भूल है। जिनसे अपने को और समाज को लाभ नहीं-- अमुक मनुष्य ठंड में बाहर पड़ा रहता है अपनी शक्ति लगाते हैं, वे इसी श्रेणी में आते और धूप में खड़ा रहता है इसलिये बड़ा धर्मात्मा है । अथवा इस प्रकार के निरुपयोगी जीवन को है, ऐसे ऐसे भ्रमो में पड़कर जनता दम्भियों की चनने अगर दृश्यमय बना लिया है तो उनकी खूब पूजा करती है और दम्मियों की सृष्टि करती श्रेणी और भी नीची होजाती है वे एकान्न विचा- है। अमुक मनुष्य ब्रह्मचारी है अर्थात विवाह रक की श्रेणी में (जिसका वर्णन नं. ४ में किया नहीं करता इसी से लोग उसे धर्मात्मा समझ गया है। गिर जाते हैं। ऐसे मनुष्य योगी सिद्ध लेंगे। वे यह नहीं सोचेंगे कि ब्रह्मचर्या से उसने महात्मा आदि कहलाने पर भी जीवन के लिये कितनी शक्ति संचित की है? कितना समय श्रादर्श नहीं हो सकते। उनकी कर्महीनता निर्ब बचाया है और उस शक्ति तथा समय का समाज. लता का परिणाम है. परिस्थिति विशेष में वह सेवा के कार्य में कितना उपयोग किया है। एक लक्ष्य भले ही हो सके परन्तु आदर्श नहीं। आदमी विवाहित है इसीलिये छोटा है, लोग यह ___७ कर्मठ विचारक ( कज्जेर इकर)- यह न सोचोगे कि विवाहित जीवन से उसने शक्ति उत्तम श्रेणी का मनुष्य है । जो ज्ञानी भी है और
M P को बढ़ाया है या घटाया है । सेवा के क्षेत्र मे वह कर्मशील भी है, वह आत्मोद्धार भी करता है
कितना बढा है १ एक श्रादमी मनहूसी से रहता और जगदुद्वार भी करता है। परन्तु इसके जीवन
है, उसके पास सात्विक विनोद भी नहीं है, बस, म एक तरह से काम का अभाव रहता है। इस वह बड़ा त्यागी और महात्मा है। परन्तु दूसरा श्रेणी का व्यक्ति कभी कभी भ्रम में भी पड जोकि हँसमुख और प्रसन्न रहता है, अपने व्यवजाना है, वह दुख को धर्म समझने लगता है। हार से दूसरे को प्रसन्न रखता है, निदोष क्रीडायो यह बात ठीक है कि समाजसेवा के लिये तथा मे वह सुखसृष्टि करता है तो वह छोटा है। आत्मविकास के लिये अगर कष्ट सहना पड़े तो जनता की. अन्ध-कसौटी के ऐसे सैकड़ों दृष्टान्त अवश्य सहना चाहिय, परन्तु कष्ट उपादेय नहीं पेश किये जा सकते हैं जहा उसने नरकको धर्म है। निरर्थक कष्ट को निमन्त्रण देना उचित और स्वर्ग को अधर्म समझ रक्खा है। नहीं है। .
____ कर्मठविचारक श्रेणी के बहुत से लोग इस - · जनता में एक भ्रम चिरकाल से चला कसौटी पर ठीक उतरने के लिये जानबूझकर श्राता है। वह कष्टको और धर्मको सहचर समझ अपने जीवन को सुखहीत बनाते हैं। जिस
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श्रानन्द से दूसरे को कुछ हानि नहीं है ऐसे परन्तु अन्धों के लिये वह कागज का टुकड़ा है।
आनन्द का भी वे वहिष्कार करते रहते हैं इस ऐसे महापुरुष सैकड़ों होगये हैं परन्तु लिये वे जनता में अपना स्थान चा बना लेते दुनिया ने उसे कागज का टुकड़ा कहकर, मामूली हैं परन्तु इससे सिर्फ व्यक्तित्व की विजय होती समझ कर भुलादिया है। परन्तु जो पहिचान है जनता को आदर्श जीवन नहीं मिलता। जा सके उनका उल्लेख आज भी किया जासकता __इस श्रेणी का मनुष्य सिपाही है सद्गृहस्थ है। उनमें म. राम, म. कृष्ण और म. मुहम्मदका नहीं । वह त्यागी है, समाज-सेवी है और वन्द नाम विना किसी टीका टिप्पणी के लिया जास. नीय भी है परन्तु पूर्ण नहीं है-आदर्श नहीं है। कता है। इनमें उपर्युक्त सब गुण दिखाई देते हैं । --आनन्दी कर्मठ विचारक (नन्द कब्जेर इकर)- ये सेवा के लिये वड़े से बडे कष्ट भी सहसके हैं ___ यह आदर्श मनुष्य है, जिसमें संयम, और एक सद्गृहस्थ के समान स्वाभाविक समाज-सेवा और त्याग आदि होकर के भी जो आनन्दमय जीवन भी व्यतीत कर सके है। ये दुनिया को सुखमय जीवन बिनाने का आदेश, लोग निःसन्देह आनन्दी-कर्मठ विचारक श्रेणी के उपदेश आदि ही नहीं देता किन्तु स्वयं आदर्श उपस्थित करता है । वह आवश्यक कठों को नहीं __म. बुद्ध, म. ईसा और म. महावीर के अपनातान आवश्यक कष्टों से मुंह छिपाता है। विषय में कुछ लोगों को सन्देह हो सकता है कि जनता को अन्धकसौटी की उसे पर्वाह नहीं होती इन्हें सातवी श्रेणी में रखना चाहिये या आठवीं वह सिर्फ सेवा और सदाचार से आत्मोद्धार श्रेणी से ? ये महापुरुष किस श्रेणी के थे यह
और जगदुद्धार करता है। उसका जीवन आइ. यात तो इतिहास का विषय है, परन्तु यह कहा म्बर और पावरण से हीन होता है वह योगी जा सकता है कि जिसप्रकार का कर्ममय संन्यासी है। वह बालक भी है, युवक भी है, वृद्ध भी है, जीवन इन लोगों ने बिताया वैसा जीवन बिता हँसता भी है, ज्वेलता भी है और डटकर काम का मनस्य आठवीं श्रेणी में शामिल किया भी करता है, गुरु भी है और दोस्त भी है, अमीर जायगा। भी है फकीर भी है, भक्ति और प्रेम से गाता
भीम ईसा और म. बुद्ध के विषय में तो है, और दूसरों के दुःख में रोता भी है छोटी बड़ी निःसन्देह रूप में कहा जा सकता है कि ये आठवीं सभी बानो को चिन्ता भी करता है परन्तु अपने श्रेणी के थे। म ईसा में जैसा चालक प्रेम था मार्ग में असंदिग्ध होकर आगे बढ़ता भी जाता उससे यह साफ कहा जा सकता है कि उनके है, इस प्रकार सब रसों से परिपूर्ण है। उसके जीवन में बालोचित हास्य-विनोद अवश्य था। जीवन का अनुकरण समस्त विश्व कर सकवा जनसाधारण में मिश्रित हो जाने की वृत्ति से भी है। छोटा आदमी भी कर सकता है बड़ा आदमी यही बात मालूम होती है। भी कर सकता है फिर भी उससे जीवन के चक्र
म बुद्ध के मध्यम मार्ग से तो यह बात यो फुल पा नहीं पहुँचता । वह असाधारण है, पूरी है, पर लोगों को पहुँच से बाहर नहीं है,
सैद्धान्तिक रूप में भी मालूम हो जाती है तथा
बुद्धत्व प्राप्त होने के बाद जो उनने अनावश्यक मुलम है । वह भारी है परन्तु किसी के सिर का तपस्याओं का त्याग कर दिया उससे विदित होता घोक नही है।
है कि म. बुद्ध निर्दोष आनन्द को पसन्द करते ऐसे लोगों को कभी कभी दुनिया पहिचान थे। घल्कि कभी कभी उनके शिष्यों को भी उनके नहीं पाती अथवा पदुन कम पहिचान पाती है। थानन्दी जीवन पर कुछ असन्तोप सा उत्पन्न जिन बोगी नो नियं या मुन्दर चित्र हो उठता था। निःसन्देश या शिष्यों का प्रधान
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ergकाड
था किन्तु इससे यह साफ मालूम होता है कि उनका जीवन आनन्दी - कर्मठ विचारक था ।
कुछ
म महावीर के विषय में यह सन्देह बढ़ जाता है। इसका एक कारण तो यह है कि उनका इतिहास बहुत अधूरा मिलता है। उनकी चर्या, मिलने-जुलने तथा वार्तालाप आदि के प्रसंग इतने कम उपलब्ध हैं कि किसी भी पाठक को जैनियो के इस प्रमाद पर रोप आयगा | जैन
लोग म. महाबीर को पूजने में जितने आगे रहे
उतने आगे उन्हे न समझने में भी रहे। फिर भी जो कुछ टूटी फूटी सामग्री उपलब्ध है उससे कहा जा सकता है कि उनका जीवन श्रानन्दी - कर्मठ - विचारक या । कूर्मापुत्र सरीखे गृहस्थ अहंतों की कथा का निर्माण करके उनने इस नीति का काफी परिचय दिया है। साधना के समय में हम उनके जीवन में कठोर तपस्याए' देखते हैं परन्तु अर्हन्त हो जाने के बाद उनके जीवन मे अनावश्यक कष्टों को निमन्त्रण नहीं दिया गया । म. महावीर लोगों के घर जाते थे, स्त्रीपुरूषों से मिलते थे, वार्तालाप आदि में उनकी भाषा में कहीं कहीं उनके मुहसे ऐसी बातें निकलती है जो अगर विनोद मे न कहीं जाँगें तो उससे सुननेवालों को भक्ति के स्थान में क्षोभ पैदा हो सकता है, जैसा कि लपुत्र के वार्तालाप के प्रसंग में है । परन्तु वहां उसे भक्ति ही पैदा हुई है इससे यह साफ मालूम होता है कि उनके जीवन में काफी विनोद भी होना चाहिये । श्रोणिक और चेलना में अगर झगड़ा होता है तो म. महावीर उसके बीच में पड़कर झगड़ा शान्त करा देते हैं। दाम्पत्य के बीच में खड़ा हो सकनेवाला व्यक्ति निर्दोष-रसिक अवश्य होना चाहिये। इसलिये म. महावीर का जीवन भी आनन्दी - कर्मठ-विचारक जीवन था ।
सद्दा
म ईसा जो अविवाहित रहे और म बुद्ध और म. महावीर ने जो दाम्पत्य का त्याग किया और अन्ततक चालू रक्खा इसका कारण यह नहीं था कि वे इस प्रकार के जीवन को नापसन्द करते थे, किन्तु यह था कि उस युग में परिब्राजक
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जीवन बिताने के सावन अत्यन्य अल्प और संकीर्ण थे इसलिये तथा वातावरण बहुत विपरीत होने के कारण वे दाम्पत्य के साथ धर्मसंस्थापन का कार्य नहीं कर सकते थे 1
इस श्रेणी में रहनेवाले मनुष्योंका व्यक्तित्व छोटा हो या बड़ा, शक्ति कम हो या अधिक, परन्तु वह जगत के लिये उपादेय है।
४
कर्तव्यजीवन ( लंभत्तोजिवो )
छः भेद
t
न्याय शास्त्रियों ने वस्तु की एक बड़ी अच्छी परिभाषा की है कि जो कर्म करे वह वस्तु ' ( श्रर्थक्रियाकारित्वं वस्तुनो लत्तणम् ) इस प्रकार मनुष्य ही नहीं प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है कि उसमें कुछ क्रिया हो। अगर वस्तु में कोई विशेपता है तो उसकी क्रिया में भी कुछ विशेषता होना चाहिये। जड़ जगत के क्रियाकारित्व की अपेक्षा चेतन जगत का क्रियाकारित्व कुछ विशेष मात्रा में होगा । चेतन जगत में भी जिस प्रणी का जितना अधिक विकास हुआ होगा उसका क्रियाकारित्व भी उतना ही उच्च श्रेणी का होगा । वस्तु का लघुत्व और महत्व उसकी क्रियाः कारित्वशीलता पर निर्भर है।
मनुष्य प्राणी सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। प्राणियों का लक्ष्य सुख है। अन्य प्राणी आत्मसुख और पर-सुख के लिये सच्चा प्रयत्न नहीं के बराबर कर पाते हैं। सुख का ओत कितनी दूर से किस प्रकार आता है इसका उन्हें पता नहीं होता जब कि मनुष्य इस विषय में काफी बढ़ा चढ़ा है। वह समझता है कि सारा संसार अगर नरकरूप हो जाय तो मैं अकेला स्वर्ग बनाकर नहीं रह सकता, इसलिये आत्म-सुख के साथ वह परसुख के लिये भी पूरा प्रयत्न करता है। इस प्रकार उसकी दृष्टि सुख के सूक्ष्म और विस्तीर्ण स्रोतों तक पहुँचती है। जो मनुष्य श्रात्म सुख और परसुख के लिये जितना अधिक सम्मिलित प्रयत्न करता है वह उतना ही अधिक महान है। जो
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कर्म है चा कुकive है उस में प्रभाव से ही कुछ न कुछ क्रिया होने से वस्तुत्व तो है परन्तु मनुष्योचित कर्तव्य न करने से मनुष्यत्व नहीं है। वह मनुष्याकार प्राणी है परन्तु मनुष्यवान् मनुष्य नहीं है ।
इस वास्तविक कर्मठता की दृष्टि से मनुष्यजीवन छः भागों में विभक्त किया जा सकता हैइन भागों को कर्तव्यपः कहना चाहिये । २ प्रसुप्त, २ सुप्त, ३ जामत, ४ बस्थिन, ५ संलग्न, ६ योगी
१ प्रसुम (शेन ) - प्राणिवा का बहुभाग इसी श्रेणी में है। इस श्रेणी के लोग विचार शून्य होते हैं। पशुपक्षियों से लेकर श्राजके अधिकांश मनुष्य तक इसी श्रेणी में हैं। इस श्रेणी के प्राणी नहीं समझते कि जीवन का ध्येय क्या
सुख की लालसा तो रहती है किन्तु उसे प्राप्त करने की, उद्योग करने की, इच्छा या शक्ति नहीं रहती । दुख आपढ़े तो रोरोकर भोग लेंगे, सुम्ब श्राया तो उसमें फूल जायेंगे, भविष्य की चिन्ता न रहेगी, परोपकार का ध्यान न श्रयगा उनके सारे कार्य स्वार्थ-मूलक होंगे।
अनेक तरह की निद्राओ में एक ऐसी निद्रा भी होती है जिसमें मनुष्य सोते सोते अनेक काम कर जाता है। दौड़ जाता है, तैर जाता है और शक्ति के बाहर मी काम कर जाता है। इसे स्थानगृद्धि ( शंसुपो ) कहते हैं। इस प्रकार की निद्रावाले मनुष्य की तरह सुप्त श्रेणी का मनुष्य भी कभी कभी कर्मठता दिखलाता है परन्तु उसमें विवेक तो होता ही नहीं है साथ ही साधा रण विद्या बुद्धि भी नहीं होती। जुवारी के दाव की तरह उसका पाँसा कभी पौधा तो कभी सीधा पड़ जाता है। ऐसे मनुष्य लाखों कमायेंगे, लाखों गमायेंगे पर यह सब क्यों करते हैं इसका उत्तर नपा सकेंगे ! ना भी करेंगे तो बिलकुल विवेकशून्य set for बिचारे रूढ़ियों की पूजा करेंगे उनका अनुसरण करेंगे । ये लोग इसी लिये जिन्दे रहते हैं कि मौत नहीं आती। बाकी जीवन का कुछ ध्येय इनके सामने नहीं होता।
जिस प्रकार प्राकृतिक जड़ शक्तियाँ कभी कभी प्राय मचा देती है और कभी कभी सुभिक्ष कर देती हैं परन्तु इसमें उनको विवेक नहीं होता उसी तरह प्रसुप्त श्रेणी के लोग भी अच्छी या बुरी दिशा में विशाल कार्य कर जाते हैं । परन्तु यह स्त्यानगृद्धि सरीखे आवेग में कर जाते हैं। उसमें विवेक नहीं होता । इस श्रेणी के लोग संगमी का वेष ही क्यों न लेलें पर महान असं यमी होते हैं। उत्तरदायित्व का मन भी नहीं होता । विश्वासघात इनके हृदय को खटकता भी नहीं है। विश्वासवात वता इनकी दृष्टि में होशियारी है। सन्ध्या, नमाज, पूजा, प्रार्थना करने मैं नहीं, उसका ढोंग करने में इनके धर्म की इति होजाती है। धर्म का सम्बन्ध नैतिकता से यह बात इनकी समझ के परे है। बड़े बड़े पापों की भी पापता इनकी समझ में स्वयं नहीं कहकर उपेक्षा कर जाते हैं। यह इनकी प्रति आती अगर कोई समाये तो 'ॐ ह्चतता ही है निद्रितता का परिणाम है।
२ सुम ( सुप ) - प्रसुप्त श्रेणी के मनुष्यों की अपेक्षा इसat far कुछ हलकी होती है। इसका चैतन्य भीतर भीतर निरर्गल रूप में नृत्य करता रहता है किन्तु स्वप्न की तरह निष्फल होता है। इस श्रेणी के मनुष्य विद्वान और बुद्धिमान भी हो सकते हैं। बड़े भारी पंडित, शास्त्री, वकील, प्रोफेसर, जल, धर्म समाज और राष्ट्र के नेता तक हो सकते हैं फिर भी कर्तव्य मार्ग में सोते ही रहते हैं। दुनिया की नजरों में ये समझदार तो कहलाते हैं, प्रतिष्ठा भी पा जाते हैं परन्तु नतो इनमें विवेक होता है न सात्विक आत्मसन्तोष। ये जो बहुत, परन्तु इनके विचार व्यापक न होंगे, दृष्टि संकुचित रहेगी। काम भी करेंगे परन्तु स्वार्थ की उस व्यापक व्याख्या को न समझ सकेंगे, जिसके भीतर विश्वहित समा जाता है। घोड़ासो का लगते ही इनका कार्य स्वप्न की तरह टूट जायगा और ये चौंक पड़ेंगे और कोई दूसरा स्वप्न लेने लगेंगे। स्वप्न की तरह
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इनके कार्य चाल और निल होते हैं। संस्कार पड़े हैं वे इतने प्रवल होते हैं कि जानते
इन्हें ज्ञान तो होता है पर सच्चा नहीं समझते हुए भी यह कर्तव्य नहीं कर पाता। इस होता । फलाफल के विचार में इसकी दृष्टि दर के लिये इसे पवाताप भी देता है। सुप्त की तक नहीं जाती। कोई सेवा करेंगे तो वन्त ही अपेक्षा इसमें यह विशेषता है कि यह अपने दोषों विशाल फल चाहेंगे। तुरन्त फल न मिला तो को और त्रुटियों को समझता है तथा स्वीकार सेवा छोड़ बनेंगे। पगर घोमा फल मिला तो भी करता है। उन्हें छुपाने की अनुचित चेष्टा नहीं उत्साह टूट जायगा और भागने की बात सोचने करता 1 सुप्त श्रेणी का मनुष्य ऐसा विवेकी नहीं लगेगे। यातों में खूप आगे रहेंगे परन्तु काम में होता। वह अपनी त्रुटियों को गुण साबित करने पोछे। दूसरे को उपदेश देने में परम पंडित और की चेष्टा करेगा । कायामा को चतुराई या दूरदेशी स्वयं पाचरण करने में पूरे कायर, और अपनी
कहेगा, इस प्रकार स्वयं धोखा खायगा या दूसरों कायरता को छिपाने के प्रयत्न में काफी तत्पर ।
"" को धोखा देगा । जब कि जामन श्रेणी का मनुष्य
ऐसा न करेगा। अपनी शक्ति का वास्तविक उपयोग कैसे । काना इसका ज्ञान इन्हें नहीं होता था वातूनी
वह मार्ग देखता है, मार्ग पर चलने की ज्ञान होता है, विश्वास-पास सच्चा ज्ञान नही
इच्छा भी करता है, पर अपनी शक्ति मे पूर्ण होता । अमुक तो करता नहीं है मैं क्या करूं?
विश्वास न होने से और संस्कारों से आई हुई व्याख्यान तो देशाता हूँ फिर संगम सेवा सहायता ।
स्वार्थ-वृत्ति की कुछ प्रबलता होने से कर्तव्य में का क्या काम ? मुझे क्या गरज पडी है ? मैं बड़ा ,
विरत सा रहता है। परन्तु इसमें कपार्यों की श्रादमी हूँ, मुझे मुफ्त में ही बड़प्पन और यश
एवलता नहीं रहती, अथवा वह खलता नहीं मिलना चाहिये। इस प्रकार की विचारधाराएँ
रहती जैसी सामान्य मनुष्य में रहती है। इनके हृदय में जमा करती है जिनकी भंघरों में जाग्रत श्रेणी के मनुष्य के हृदय में एक कर्मठता फंसी रहती है। कभी कमी इनकी कर्म. रकार का असन्तोप सदा रहना चाहिये। जिसे उता जामत भी हो जाती है तो स्वार्थ के कारण वह कर्रान्य समझता है उसे वह कर नहीं पाना, वह विपरीत दिशा में जाती है। बड़े बड़े दिग्वि- इस बात का उसे असन्तोष या खेद रहना मावलयी सबाट रायः इस श्रेणी के होते हैं।
श्यक है। अगर उसे यह सन्तोष होजाय कि में समावस्था मनुष्य की वह अवस्था है जब आखिर समझता तो हूँ, नहीं कर पाता तो नहीं मनुष्य का पांडित्य तो जाग्रत हो जाना है परं
सही, सायत नेणी का तो कहलाता हूँ यही क्या विवेक जायत नहीं होता। इसलिये उसमें सच्चा क्रम है, इस प्रकार का सन्तोष आत्मवाचकता साप त्याग नहीं था पाता और जहा स्वार्थ. और परवञ्चकता का सूचक है। ऐसी हालत में त्याग नहा है, वहा संयम नहीं हो सकता। इस वह जागत श्रेणी का न रहेगा सुप्त श्रेणी में प्रकार यह पौडत होनेपर मी विवेकहीन असंयमी चशा जायगा। पराणी है।
जामत श्रेणी का मनुष्य कर्तव्य की परेरणा . ३ जापत ( जिय)-जीवन के वास्तविक होने पर इस तरह का बहाना कभी न बनायगा विकास की यह प्रथम श्रेणी है। यह मतस्य का कि मैं तो जाग्रत श्रेणी का मनुष्य हूँ कर्तव्य विवेक जाग्रत होता है, दृष्टि विशाल होती है, करना मेरे लिये अनिवा नहीं है। वह कर्तव्य स्वा जगत को छोड़कर वह वास्तविक जगत में को लालच की दृष्टि से देखेगा और उसे पकड़ने एवेश करता है। फिर भी इसमें कर्मठता नही का प्रयत्न करेगा। अधिक कुछ न बनेगा तो होती या नाममात्र की होती है। पुराने को यथाशक्ति दान देगा । जो मनुष्य सचमुच जामत
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है वह उस्थित होने की कोशिश करता ही है। सोता हुआ मनुष्य यदि आग पड़े तो वह ____ बहुत से मनुष्य यह सोचा करते हैं कि मैं अवश्य उठने की चेष्टा करेगा ! अगर उठने के अपना अमुक कार्य करलू' फिर जनसेवा के लिये लिये उसका प्रयत्न बन्द हो गया हो तो समझना यो करूंगा और त्यों करूंगा। वे जीवन भई यह
चाहिये कि वास्तव में वह जागा ही नहीं है । सोचते ही रहते हैं पर उनका अमुक काम पूरा
इसी प्रकार यहा पर भी जामत श्रेणी का मनुष्य नही हो पाना और उनका जीवन समाप्त होजाता
उठने का अगर प्रयत्नान करे तो समझ लेना
चाहिये कि वह जाग्रत नहीं है। है । यह ठीक है कि मनुष्य को परिस्थिति का " विचार करना पड़ता है, साधन जुटाने पड़ते हैं,
४ उस्थित (सुट)- जो मनुष्य वास्तविक पहिले अपने पैरों पर खड़ा हो जाना पड़ता है
१ कर्मठ है, जनसेवा के मार्ग में आगे बढ़ा है, जनपर साथ ही यह भी ठीक है कि ज्यों ज्यों उसका
सेवा जिसके जीवन की आवश्यकता बनाई है, वह अमुक काम पूर्णता की ओर बढ़ता जाता है क्यों
यो उस्थित है। इसके पुराने संस्कार इतने प्रबल श्यों वह जन सेवा सम्बन्धी कम्य मार्ग भी नहीं होते और न स्वार्थ-वासना इतनी पबल बढ़ता जाता है। अब तक उसका स्वार्था पूरी न
होती है कि उसके लिये वह फर्तव्य पर सर्वथा हो जाय तब तक वह कर्तव्य का योग्य मात्रा में
अपेक्षा कर सके। जनसेवा के लिये वह पूर्ण त्याग श्रीगणेश ही न करे तो यं जामत श्रेणी के मध्य नही करता परन्तु मर्यादित त्याग अवश्य करता के चिह नही हैं किन्तुं सुप्त श्रेणी के चिह हैं।
है। सेवा के क्षेत्र में वह महानती नहीं है पर जाग्रत श्रेणी का मनुष्य न नव मन तेज होय
देशवती अवश्य है। जनसेवक होने से उसमें राधा नाचे को कहावत चरितार्थ नहीं करता।
सदाचार भी आगया है। क्योंकि जो मनुष्य यह ज्यों क्या साधन बढ़ते जाते हैं त्यो त्यो कर्तव्य
सदाचारी न हो वह सच्चा जनसेवक नहीं बन में भी बढ़ता जाता है। और इस प्रकार बहुत
सकता । इस प्रकार इसमें पर्याप्त मात्रा में सदाही शीघ्र उत्थित श्रेणी में पहुंच जाता है । और के क्षेत्र में यही इसका उत्थान है।
चार भी है, त्याग भी है, निर्भयता भी है । जीवन फिर सलन्त धन आया है।
___ जाग्रत श्रेणी का मनु य अपनी त्रुटियों को बाट देखने को जिनको बीमारी हो गई है समझना भी था स्वीकार भी करता था परन्तु वे जीवन के अन्त तक कुछ काम नहीं कर पाते । क्योंकि उनका अमुक काम जबतक पूरा होता है
उन्हें यथेष्ट मात्रा में दूर नहीं कर पाता था, जब तब तक जीवन के वे दिन निकल जाते है जिन।
कि यह दूर कर पाता है। यह जाग्रत श्रेणी के दिनी कुछ करने का उत्साह रहता है। विन पीस कर्तव्य की इतिश्री न हो जायगी किन्तु
मनुष्य की तरह दानादि वो करेगा पर उतने में बाधाओं का सामना करने की कुछ ताकत रहती है। अमुक काम पूरा करने तक उनमें बुढ़ापा ।
यह निर्भयता से सेवा के क्षेत्र में आगे बढ़ेगी। आजाता है फिर 'गई बहुत, रही थोड़ी, की बात संलग्न (सिलग)- यह साधु है। यह याद आने लगती है। इस समय किसी सेवा का अधिक से अधिक देकर कम से कम लेता है। कार्य शुरू करना और बीवन भर जो आदत पूर्ण सदाचारी है। जनहित के सामने इसके पड़ी रही है उसके विपरीव पलना कठिन होता ऐहिक स्वार्थ गौण हो गये हैं। यह अनावश्यक है। जो जापत श्रेणी का मनुष्य है उसमें यह कष्ट नहीं सहता पर जनहित के लिये यथेष्ट, फार घाट देखने को बीमारी न होगी। वह अपनी सहने के लिये तैयार रहता है। अपरिग्रही होत शक्ति को बल्दी से जल्दी उपयोग में लाना है। स्वार्थ के लिये धन संचय इसका लक्ष्य नह चाहेगा।
होता । जनसेवा के लिये इसका संचय होता है
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यह साधु है । परिस्थिति के अनुसार परि- पहिचाने इसकी वह पर्वाह नहीं करता। प्राजक हो सकता है, स्थिरवासी हो सकता है, उपायों साधनों और परिस्थितियों पर वह सन्यासवेषी हो सकता है गृहस्थवेषी हो सकता विचार करता है इसलिये उसे सविकल्प कह है, दाम्पत्य जीवन बिता सकता है, ब्रह्मचारी रह सकते हैं, परन्तु कर्तव्य मार्ग में दृढ़ रहने की सकता है । वेप, आश्रम, स्थान का कोई नियम दृष्टि से वह निर्विकल्प है। शंका और अविश्वास नहीं है। त्याग, निर्भयता, सदाचार, अपरिग्रहता उसके पास नहीं फटकने पाते। सत्य और अहिंसा और निस्वार्थता की यह मूर्ति होता है।
के सिवाय वह किसी की पर्वाह नहीं करता। किसी दिन मानव-समाज का अगर सुवर्ण
जनहित की पर्वाह करता है किन्तु वह सत्य
अहिंसा की पर्वाह में आजाती है। यह जीवन युग आया तो मानव समाज ऐसे साधुओं से भर
की परमोत्कृष्ट दशा है जब समाज ऐसे योगियों जायगा ! उस समय शासन-तन्त्र नाम के लिये रहेगा। इसकी आवश्यकता मिट जायगी। असं
से भर जायगा तब वह हीरक युग होगा। यम और स्वार्थिता दे न मिलेगी।
____कर्तव्य मार्ग मे कर्मठता ही मनुष्यता की __संलग्न श्रेणी का मनुष्य पाप का अवसर
कसौटी है इस दृष्टि से यहा छ: पद बनाये गये
है। जिस समय मनुष्य-समाज प्रसुप्त श्रेणी के आने पर भी पाप नहीं करता। बड़े बड़े प्रलोभनों T
असा मनुष्यों से भरा रहता है उस युग को मनुष्य का
eam को भी दूर कर देना है। उसके ऊपर शासन मृत्तिका युग (मिट्टी युग ) (मीत हलो ) कहना करने की आवश्यकता नहीं होती। अगर उसका
चाहिये । जब समाज सुप्तों से भरा रहता है तब कोई गुरु हो तो वह गुरु के शासन में रहता है परन्तु इसके लिये उसे कोई प्रयल नहीं करना
उसे उपल युग या पत्थर युग (खुड हूलो ) कहना पड़ता। उसकी साधुता स्वभाव से ही उस शासन
चाहिये। अब मनुष्य समाज जापतों से भर के बाहर नहीं जाने देनी। पथ-प्रदर्शन के लिये
जायगा तब उसे धातु युग (मिक हलो) कहेंगे वह सूचना प्रहण करता है परन्तु उसमें असंयम
और जब स्थित श्रेणी के मनुष्यों से भर जायगा नही होता। कदाचित अज्ञान सम्भव है-पर
_तब उसे रजत युग (बादाम हूलो) कहेगे। जब सयम नहीं।
संलग्न श्रेणी के मनुष्यों से भर जायगा तव ६ योगी (जिम्म)-योगी अर्थात् कर्मयोगी।
सुवर्ण युग (पीताम हूलो) कहेंगे और जब जीवन का यह आदर्श है । सदाचार, त्याग,
योगियों से मानव समाज भरा हुआ होगा तव नि.स्वार्थता इसमें कूट कूट कर भरी रहती है।
" वह हीरक युग ( सोचाम हूलो) कहलायगा। यह विपत्ति और प्रलोभनों से परे है। संलग्न
विकास की यह चरम सीमा है। यही वैकुण्ठ है, श्रेणी का मनुष्य विपत्ति से ठिठकसा जाता है।
भौतिक दृष्टि से मनुष्य किसी भी युग में अपयश से घबरा सा जाता है। पर योगी के
आगया हो परन्तु आत्मिक दृष्टि से मनुष्य अभी सामने यह परिस्थिति नहीं आती। वह यश अप
पत्थर युग में या मिट्टी युग में से गुजर रहा है। यश मानापमान की कोई पर्वाह नहीं करता।
हा करता। हा, संलग्नों की संख्या भी है और योगी भी हैं फजाफन की भी पर्वाह नहीं करता किन्तु कर्तव्य
कर तु तव्य परन्तु इतनी सी संस रासे सुवर्णयुग या हीरकयुग किये चला जाता है। असफलता भी उसे निराश नहीं जाता, इसके लिये उनकी बहुलता चाहिये। नहीं कर सकती। वह घर में हो या वन में हो.
" वह कत्र आयगा कह नहीं सकते पर उस दिशा गृहस्थ हो या संन्यासी हो, पर परमसाधु है, में हम जितने ही आगे बढ़े कर्तव्य पदों पर चढ़ने स्थितिप्रज्ञ है, अहंत है, जिन है, जीवन्मुक्त है, की हम जितनी अधिक कोशिश करें, उतना ही वीतराग है, प्राप्त है। कोई उसे पहिचाने या न अधिक हमारा कल्याण है।
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५- अर्थजीवन (टेयो जिवो) किया जाता है, जिसमें द्वे प अभिमान आदि प्रगट
४
। जिस में सिर्फ प्रेम का प्रदर्शन
छः भेद
पि समस्त प्राणी सुखार्थी हैं परन्तु दुसरो को पर्वाह न करके वेवल अपने सुख के लिये हाथ हाथ करने से कोई सुग्बी नहीं हो पाता
नहीं होते वह सुप्रीति ( सुलव ) है । इसका ये नहलान और प्रेमप्रदर्शन है। इसमें जिसकी हँसी की जाती हैं वह मी खुश होता है। और जो हँसी करता है वह भी खुश होता है।
ये अधिक से अधिक स्वपर कल्याण ही जीवन का ध्येय है । यह यात ध्येयदृष्टि अध्याय में विस्तार से बताई जा चुकी है। इस स्वार्थ परार्थ की दृष्टि से जो जीवन अधिक से अधिक स्वपरवल्याणकारी होगा वह जीवन उतना ही महान है । इस अपेक्षा से जीवन की छह श्रेणियों (थुजी पो) बनती है - १ -पर्धस्वार्थी र स्वार्थी ३ - स्वार्थ प्रचान ४- समस्वार्थी ५- परार्धप्रधान ६ - विश्वहितार्थी ।
इनमें पहले दो जघन्य (क्त ) धीच के मध्यम ( कूक) और अन्त के दो उत्तम 1) श्रेणी के हैं 1
(
१- व्यर्थस्वार्थी (मुझे लुग्भ ) जिस स्वार्थ का वास्तव मे कोई अर्थ नहीं है ऐसे स्वार्थ के लिये जो अन्धे होकर पाप करने को उतारू हो जाते हैं वे स्वार्थी है। शेर के आगे मनुष्य को छोडकर उस मनुष्य की मौत देखकर पर होना व्यस्थापन है । पहिले कुछ यूँ खल राजा लोग ऐसे व्यर्णस्वार्थी हुआ करते थे । आज भी नाना रूप में यह व्यस्वार्थीपन पाया - आता है । जिसमें किसी इन्द्रियों को कृष्टि नहीं मिलती सिर्फ मन को Farar ही तुम होती है वह स्वार्थीपन है
}
जब लोग दूसरों का मजाक उड़ाते tar इससे उनका कोई लाभ तो होता ही नहीं इसलिये यह स्वार्थीपन कहलाया और माफ करनेवाले व्यर्भग्यार्थी कहलाये | इसलिये जीवन में हास्य विनोद को कोई स्थान ही न
रा
(e) चार तरह का १२ शैशिक ३ विक,
उत्तर
जो विनोद किसी की भूल बताकर उसका सुशार करने की नियत से किया जाता है वह शैक्षणिक (बोजज ) है । जैसे किसी शिकारी से कहा जाय कि भाई तुम तो जानवरी के महाराजा हो, शेर से सत्र जानवर डरते हैं, इसलिये वह जानवरों का राजा है तुम से शेर भी डरता है इसलिये तुम जानवरों के महाराजा हो क्यों जी, तुम्हें अब पशुपति कहाजाय ! इस विनोद मे द्वेष नहीं है किन्तु शिकारी को शिकार से छुड़ाने की भावना है। यह शैक्षणिक है।
J
जिस विनोद में विशेष प्रगट किया जाता है वह विरोधक (फूल्लुर ) है। शैक्षणिक में सुधीतिफ बराबर तो नहीं, फिर भी कुछ प्रेम का श रहता है, परन्तु विरोधक में उतना अंश नहीं रहता उसमें सिर्फ विरोध प्रगट करने, या उसकी गलती के लिये शाब्दिक दंड देने की भावना रहती है। शैक्षणिक की अपेक्षा विरोधक में कुछ कठोरता अधिक है । जैसे म ईसा को कास पर लटकाते समय काँटों का मुकुट पहनाकर हैंसी की गई कि श्राप तो शाहंशाह हैं। किसी शत्रु को तोप से उड़ाते समय कहना -- चलो, तुम्हें श्राकाश की सैर करा दें । ये विरोधक विनोद के उम्र दृष्टान्त हैं। पर साधारण जीवन मे भी विरोधक विनोद के साधारण दृष्टान्त मिलते हैं ।
रौद्र विनोद (कून शो ) वहीं है जहां अपना कोई स्वार्थ नहीं है, उससे विरोध भी नही है, उसका लाभ भी नहीं है, सिर्फ मनोविनोट के नामपर दूसरे के मर्मस्थल को चोट पहुँचाई जाती है, उसका दिल दुमाया जाता है। इसका एक जिस समय के पंक्तियों मिगी जा रही
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eresis
थीं उसी समय मिला। सत्याश्रम की इमारत के काम में कुछ मजदूरिने काम का रहीं थीं उनके पास एक आदमी आया और पूछने लगा कि क्या यहाँ कुछ काम मिलेगा। काम यहाँ नहीं था पर सीधा जवाब न देकर वे उसकी हँसी उड़ाने लगी- क्यो न मिलेगा ? तुम्हे न मिलेगा तो किसे मिलेगा । ऐस मे काम करो, अच्छा पगार मिलेगा, आदि। इस हँसी में व्यर्थ ही एक गरीब के मर्मस्थल को चोट पहुंचाई गई। इस प्रकार की हंसी साधारण लोगों के जीवन में बहुत होती है पर यह अनुचित है। साइकिल आदि से गिरने पर भी दर्शक लोग हंसी उड़ाने लगते हैं, देवी विपत्ति से भी लोग हंसी उड़ाने लगते हैं, अन्य विपत्ति आनेपर भी लोग हसी बड़ाने लगते हैं, यह सब रौद्र है। विनोद ऐसा होना चाहिये जिससे दोनों का दिल खुश हो। जीवन मे विनोद की जरूरत है जिसके जीवन में विनोद नहीं है वह मनहूस जीवन किसी काम का नहीं, पर विनोद सुप्रीतिक होना चाहिये । श्रावश्यकता वश शैक्षfor or fare भी हो सकता है पर रौद्रपन कभी नहीं होना चाहिये। इससे व्यर्थस्वार्थीपन प्रगट होता है।
-
प्रश्न – विनोद सुरीति ही क्यों न हो उसमें कुछ न कुछ चोट तो पहुँचाई ही जाती है, तब हसी-मजाक जीवन का एक आवश्यक अंग क्यों समझा जाय ? एक कहावत है ' रोग की जड़ खाँसी, लडाई की जड़ हाँसी' इसजिये हसी तो हर हालत में स्याज्य ही है ।
उत्तर - सी परसन्नता का चिह्न और रसनता का कारण है, साथ ही इससे मनुष्य दुःख भी भूलता है इसलिये जीवन में इसकी कॉफी आवश्यकता है। हाँ, इसी मे चोट अवश्य पहुँ चती है, पर उससे दर्द नहीं मालूम होता बल्कि श्रानन्द आता है। जब हम किसी को शाबासी देने के लिये उसकी पीठ थपथपाते हैं तब भी उसकी पीठ पर कुछ चोट तो होती है पर उससे दर्द नहीं होता, इसी प्रकारे सुप्रीतिक विनोद की
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चोट भी होती है विनोद लड़ाई की भी जड़ है किन्तु लड़ाई तभी होती है जब वह विरोधक या रौद्र हो | शैक्षणिक विनोद भी लड़ाई की जड़ हो जाता है जब पात्रापात्र का विचार न किया जाय। हमने किसी को सुधारने की दृष्टि से विनोद किया, किन्तु उसको इससे अपना अपमान मालूम हुआ तो लड़ाई हो जायगी । इसलिये शैक्षणिक विनोद करते समय भी पात्र पान का और मर्यादा का विचार न भूलना चाहिये । सुरीतिक विनोद में भी इन बातों का विचार करना जरूरी है। इसी विनोद प्राय वरावरी वाला के साथ या छोटे के साथ किया जाता है। जिनके साथ अपना सम्बन्ध चादर पूजा का हो उनके साथ विनोद परिमित और अत्यन्त विवेकपूर्ण होना चाहिये। जिसकी प्रकृतिविनोद सहसके विनोद का आदर करे उसके साथ नोट करना चाहिये सब के साथ नहीं। विनोद भी एक कला है और बहुत सुन्दर कला है पर इसके दिखाने के लिये बहुत योग्यता मनोवैज्ञानिकता और हृदय शुद्धि की आवश्यकता है। इस प्रकार कलावान होकर जो विनोद करता है वह व्यर्थस्वार्थी से बिलकुल उल्टा अर्थात विश्वहिवार्थी है।
२ स्वार्थी (लुम्भ ) - जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के न्यायोचित स्वार्थ की भी पर्चाह नहीं करते वे स्वार्थी हैं। चोर बदमाश मिध्याभाषी विश्वासघातक हिंसक आदि सच स्वर्थी हैं जगत के अधिकाश प्राणी स्वार्थी ही होते हैं स्वार्थीपन ही सकल पापों की जड़ है।
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---यस्वार्थी और स्वार्थी में अधिक
पापी कौन है ?
उत्तर - जगत में व्यर्थ स्वार्थीपनकी अपेक्षा स्वार्थीपन ही अधिक है, पर विकास की दृष्टि से व्यर्थस्वार्थीपन निम्न श्र ेणी का है इसमें असंयम या पाप की मात्रा भी अधिक है । व्यर्थस्वार्थीपन स्वार्थीपन की अपेक्षा अधिक भयंकर है | स्वार्थी की गतिविधि से परिचित होना जितना कठिन है उससे कई गुणा कठिन व्यर्थस्वार्थी की गति - विधि से परिचित होना है ।
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তখার
प्रश्न-टोना टोटका अपशकुन आदि करने. वरह से ये हैं तो स्वार्थी ही. पर अन्तर इतना वाले स्वार्थी हैं या अन्धस्वार्थी । अपशकुन आदि ही है कि जहां स्वार्थी परोपकार की बिलकुज्ञ निष्फल होने से यहाँ व्यर्णस्वार्थीपन ही मानना पर्वाह नहीं करता वहा स्वार्थ पधान व्यक्ति कुछ चाहिये।
ख्याल रखता है। अपना कुछ नुकसान न हो उत्तर- यह स्वार्थीपन ही है क्योंकि ये और परोपकारी बनने का गौरव मिलता हो तो काम किसी ऐसे स्वार्थ के लिये किये जाते है जिसे क्या बुराई है ? यही इनकी विचारधारा रहती व्यर्थ नहीं कहा जा सकता ! भले ही उस से है। बड़े बड़े दानवीरों और जनसेवकों में से भी सफलता न मिलती हो। इससे मूढ़त्ता या अज्ञान बहुत कम इस श्रेणी के ऊपर उठ पाते हैं। ये का विशेष परिचय मिलता है असंयम तो स्वार्थी लोग स्वार्थ के लिये अन्याय भी कर सकते हैं। के बराबर ही है। व्यन्विार्थी अधिक असं.
४ समस्वार्थी ( सम्मलम्भर)-जिनका स्वार्थ यमी है।
और परार्थ का पलड़ा बराबर है वे समस्वार्थी हैं। स्वार्थी और व्यर्थस्वार्थी पूर्ण असंयमी और मूढ होते हैं वे भविष्य के विषय में भी कुछ
ये त्यागी नहीं होते दानी होते हैं पर अपने स्वार्थ सोच विचार नहीं करते, अपने स्वार्थीपन के का खयाल बराबर रखते हैं। फिर भी स्वार्थकारण मानव समाज का सर्वनाश तक किया प्रधान को अपना ये काफी ऊँचे है क्योकि भले करते हैं भले ही इसमें उनका भी सर्वनाश क्या ही इनक जीवन में परोपकार की मुख्यता न हो न हो जाय।
पर इतनी बात अवश्य है कि ये स्वार्थ के लिये . स्वार्थीपन व्यक्तिगत रूप में भी होता है
ना किसी पर अन्याय न करेंगे। भले के जिय और सामूहिक रूप में भी होता है। एक राष्ट्र
मले, और बुरे के लिये बुरे बनेगे। स्वार्थः दूसरे राष्ट्र पर जब अत्याचार या अन्याय करता
प्रधान से इनमें यह बड़ा भारी अन्तर है। बाकी
ये स्वाप्रिधान के समान है। है तब सामूहिक स्वार्थीपन होता है। दुनिया में - अमोतक अधिकाश राष्ट्र और अधिकाश जातियों की अपेक्षा परोपकार को प्रधानता देत हैं । जगत अमोतक अधिकाश राष्ट्र और अधिकागि ५पराधिान (भचोचिन्दर)-ये स्वार्थ में ऐसा स्वार्थीपन भरा हुआ है। इसीलिये यह को सेवा के लिये सर्वस्व का त्याग कर जाते हैं जगत् नरक के समान बना हुआ है। इससे बारी यश अपयश की भी पर्वाह नहीं करते पर इसके वारी से सभी व्यक्तियों समो जातियों और सभी बदले में वे इस जन्म में नहीं तो परलोक में कुछ राष्ट्रों को पाप का फल भोगना पड़ रहा है। चाहते हैं स्वर्ग आदि की आशा ईश्वर या खुदा
३ स्वार्थ-प्रधान (लु भो चिन्दर)- स्वार्थ का दर्बार इनकी नजरों में रहता है। ये परोप प्रधान वे व्यक्ति है जो स्वार्थ की रक्षा करते हुए कारी हैं जिनका परोपकार करते हैं उनसे बदला कुछ परोपकार के कार्य भी कर जाते हैं। ऐसे भी नहीं चाहते, यह बात समस्वर्थी में नहीं होती, लोग दुनिया की भलाई की दृष्टि से दान या सेवा पर परतोक श्रादि का अवलम्बन न हो तो इनका न करेंगे किन्तु उसमें यश मिलता होगा, पूजा परोपकार खड़ा नहीं रह सकता। ये सिर्फ सत्य मिलनी होगी, तो दान करेंगे। स्वार्थ और परार्थ या विश्वहित के भरोसे अपना परोपकारी जीवन में परसर विरोध उपस्थित हो तो पराध को खड़ा नहीं कर सकते। कोई न कोई तर्कहीन बात तिलाजलि देकर स्वार्थ की ही रक्षा करेंगे। परो इनको श्रद्धा का सहारा होती है। विश्वहित का पकार सिर्फ वहीं करेंगे जहा स्वार्थ को पकान मौलिक आधार इनका कमजोर होता है जिसे ये लगता हो या चित्तमा धक्का लगता हो उसकी श्रद्धा से पकड़कर रखते हैं। वाको जहां तक कसर किसी दूसरे देग से निकल पाती हो । एक संयन याग आदि का सम्बन्ध है ये परार्थप्रधान
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हाएकाड
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हैं। ये परार्थ को ही स्वार्था का असली साधन उत्तम स्वार्थ को परार्य शब्द से कहते हैं क्योंकि मानते हैं।
पग भी उस स्वार्थ की दूसरी बाजू है। और ६ विश्वहितार्थी (पुमभत्तर)-इनका ध्येय है- उसी ने इस स्वार्थ को उत्तम बनाया है इसलिये
जगहित में अपना कल्याण। उसे इसी नाम से अर्थात् पराई नाम से कहना यदि तू करता त्राण न जग का तेरा कैसा त्राण ।।।
उचित समझा जाता है । इसमें स्पष्टता अधिक है। ये विवेक और संयम की पूर्ण मात्रा, पाये
___ 'स्वार्थ के जो रूप एकपक्षी हैं या परार्थ के
विरोधी है उन में पराई का अंश न होने से हुए होते हैं । विश्व के साथ इनकी एक तरह से .
केवल स्वार्थरूप होने से उन्हें स्वार्थ शब्द से कहा प्रदतमावना होती है। स्वार्थ और ,पगर्थे,की जाता है। निस्वार्थ जीवन में ऐसे ही स्वार्थी सीमाएँ इनकी इस प्रकार मिली रहती है कि जीवन का निपेध किया जाना है। जिनने विश्वसुम्ब उन्हे अलग अलग करना कठिन होता है। ये को श्रात्मसुख्य रूप समझ लिया है वे वास्तव में श्रादर्श मनुष्य हैं।
श्रेष्तस्वार्थी या परार्थी है । स्वार्थ और परार्थ एक प्रश्नकोई भी मनुष्य हो उसकी प्रवृत्ति ही सिक्के के दो बाजू हैं । इस अद्वत को जिसने अपने सख के लिये होती है। जब हमें किसी जीवन में उतार लिया उसका जीवन ही थादर्श दुःखी पर दया आती है और उसके दुश्य दूर भावन। करने के लिये जब हम प्रयत्न करते हैं जब यह ६-प्रेरणा जीवन (आरो जिवो) प्रयत्न परोपकार की दृष्टि से नहीं होता किन्तु
(पाच भेद) दुःखी को देखकर जो अपने दिल में दुःख हो
मनुष्य मनुष्यता के मार्ग में कितना आगे जाता है उस दुख को दूर करने के लिये हमारा
बढ़ा हुआ है इसका पता इस बात से भी लगता
वा रयत्न होता है, इस पकार अपने दिल के दुग्य है कि उसे कर्तव्य करने की प्रेरणा कहाँ कहाँ से को दूर करने का प्रयत्न स्वार्थ ही है, तब स्वार्थ मिलती है । इस दृष्टि से जीवन की पाच श्रेणियाँ को निन्दनीय क्यों समझना चाहिये और परोप (थुजीपो ) वनती हैं। कार जीवन का ध्येय क्यों होना चाहिये ?
१ व्यर्थप्रेरित, २ दंडप्रेरित, ३ स्वार्थ___ उत्तर- परोपकार जीवनका ध्येय भले ही न रेरित, ४ संस्कारग्रेरित, ५ विवेकप्रेरित । कहा जाय किन्तु परोपकार अगर स्वार्थ का अंग . १ व्यर्थ रेरित ( नको गे पार )-जो प्राणी बन जाय और ऐसा स्वार्थ जीवन का ध्येय हो बिलकुल मूढ़ हैं जिनका पालन पोपए अच्छे तो परोपकार जीवन का ध्येय हो ही गया। असल संस्कारों में नहीं हुआ, जिन्हें न दंह का भय है वात यह है कि यहा जो अध/जीवन के छ: भेद न स्वार्थ की समझ, न कर्तव्य का विवेक, इस किये गये हैं वे असल में स्वार्थ के छः रूप है। एकार जिनको दृढ़ता असंह है वे व्यर्थरेरित है। कोई न्यीस्वार्थीपन या स्वार्थीपन को स्वार्थ सम- यह एक विचित्र यात है कि विकास और अविझते हैं कोई विश्वहितार्थिता को स्वार्थ समझते हैं। कासको चरमसीमा प्रायः शन्दों में एकमी होजाती स्वार्थ के छः भेदों का क्रम उत्तरोत्तर उत्तमता की है। जिस प्रकार कोइ योगी चरम विवेकी ज्ञानी दृष्टि से यहा किया गया है। जहा पर का दुख संयमी मनुष्य दंड मे भीत नहीं होता, स्वार्थ के अपना दुख बनता है अपना दुःख दूर करना चघर में नहीं पड़ता, कोई रूढ़ि उसे नहीं बाँधपाती परदुख का दूर करना हो जाता है ऐसा स्वार्थ उसी प्रकार इस व्यारेग्ति मनुष्य को न नोदंद परम स्वार्थ भी है और परम पराध भी। परन्तु का भय है, न स्वार्थ का विचार, न संभाग की स्वार्थ के अन्य खराब रूप भी हैं इसलिये इस छाप, विलकुल निर्भय निर्द्वन्द होकर वह अपना
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सत्यात
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जीवन व्यतीत करता है। यह जड़ता की सीमा से डरते हैं उनको अंकुश में रखने के लिये राष्ट्र पर है । और योगी विवेक की सीमापर है। जिस की बड़ी शक्ति खर्च होती है, फिर भी मौका प्रकार शराब आदि के नशे में चूर मनुष्यपर दण्ड मिलते ही वे कोई भी पाप करने को उतारू हो. आदि का भय असर नहीं करता पर इस निर्मः जाते है। उनमे मनुष्यता का अंश नहीं पाने यता में और सत्याग्रही की निर्भयता में अन्तर है पाया है। उसोरकार व्यारेरित मनुष्य की निर्भयता और कोई प्रादमी जानवर है या मनुष्य, इसका योगी की निर्भयता में अन्तर है। व्यर्थप्रेरित निर्णय करना हो तो यह देखना चाहिये कि वे मनुष्य ऐसा जड होता है कि, उसे मारपीटकर दंड से प्रेरित होकर उचित कार्य करते है या रास्तेपर बलाना चाहो तो भी नहीं चलता, उसके अपनी समझदारी से प्रेरित होकर । पहिली स्वार्थ के विचार से उसे समझाना चाहो वोभी अवस्था में वे मनुष्याकार जानवर है दूसरी नहीं समझता, उसको अच्छी संगति में रखकर अवस्था में मनुष्य । सुधारना चाहो तो भी नहीं सुधरता, उसे पढ़ा किसी किसी मनुष्य की यह प्रान्त रहती लिखाकर तथा उपदेश देकर मनुष्य बनाना चाहो कि जब उन्हें इस पाँच गालियाँ देकर रोको तोभी शैवान बनता है, यह व्यर्थरेरित मनुष्य है। तभी वे उस रोक को जल्प रोक समझते है नहीं इसकी पशुता परमसीमापर है।
तो उपेक्षा कर जाते हैं। जो सरल और नन सुच२ दंडप्रेरित (डेचो गेबार)को पाठमी नाओं पर ध्यान नहीं देता और वचन या तन से कानून के भय या दण्ड के भय से सीधे रास्ते पर ताडित होने पर ध्यान देता है वह जानवर है । । चलवा है वह दंडारित मनुष्य है इसमें पूर्णपूरी जिस समाल में देहरेरितों की संख्या
जितनी अधिक होगी वह समाज उतना ही हीन ___ जबतक मनुष्य में पशुता है तबतक दंड की और पतित है। इसी प्रकार जिस मनुष्य में दंड
आवश्यकता रहेगी ही। समाज से दंड या कानत परिवता जितने वश में है.वह उतने ही अंश में तभी हटाया जा सकता है जब मनुष्यसमाज पशु हे 1 । इतना सुसंस्कृत बन जाय कि अपराध करताना कभी कभी एक बलवान मनुष्य असम्भव माना जाने लगे। वह स्वर्णयुग अथ अत्याचार करने लगता है तत्र उसके अत्याचार आयगा तब श्रीयगा परन्तु जबतक वह युग नहीं के आगे एक सममवार को भी झुक जाना पड़ता पाया है तबतक इस बात की कोशिश अवश्य है अथवा कुन समय के लिये शान्त हो जाना होते रहना चाहिये कि समाज में दहरित पडता है. इसीपकार एक गट्र अव दूसरे राष्ट्र मनुष्य कम से कम हो।
पर पशुबल के आधार पर विजय पालेता है तब दंड या कानून के भय से लो काम होता है एक सज्जन को भी झुककर चलना पड़ता है क्या वह न तो स्थायी होता है न व्यापक। कानून तो पराधीन राष्ट्रों को और पीड़ित मनुष्यों को पशु - बड़े बड़े दिखावटी मामलों में ही हस्तक्षेप कर कोटि में रक्या जाय। सकता है और उसके लिये काफी प्रबल पमाण उत्तर-पशुवल से विवश होकर अगर उपस्थित करना पड़ते हैं। फीसदी अस्सी पाप तो कभी हमें अकर्तव्य करना पड़े तो इतने से ही कानून की पकड़ में ही नहीं पासकते और जो हम पशु न हो जायेंगे। पशु होने के लिये यह पकई में असकते हैं उनमें भी बहुत से पकड़ में आवश्यक है कि हम पशुवल से विवश होकर नहीं आत। कानून तो सिर्फ इसके लिये है कि अकर्तव्य को कोन्य समझने लगे। अगर हम निरंकुशता सीमातीत न हो जाय। जो सिर्फ व गुलामी को गौरव समझते है, अत्याचारियों की
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हाटकाड
दिलसे तारीफ करते हैं तो मनुष्य होकर भी पशु हैं।
परिस्थिति से विवश होकर हमें कभी कभी इच्छा के विरुद्ध काम करना पड़ता है। पर प्रेरित जीवन का यह प्रकरण इस लिये नहीं है कि तुम्हारे अकार्यो की जांच करे। यहां तो यह बताया जाता है कि तुम भले काम किसकी प्रेरणा से करते हो ? इससे तुम्हारी समझदारी और संयम की जांच होती है। किसी के दबाने से जब कोई अनुचित कार्य करना है तब उसकी निर्बलता का विशेष परिचय मिलता है । यद्यपि निर्वलता में भी अमुक अश में असंयम हैं पर उसमें मुख्यता निता की है। पशुता का सम्बन्ध निर्जलता से नहीं किन्तु ज्ञान और असंयम से है ।
३ स्वार्थप्रेरित (लुग्भो गेयार) -स्वार्थों वह मनुष्य है जिसमें समझदारी आई है और जो दीर्घदृष्टि से अपने स्वार्थ की रक्षा की बात समझता है। दंड-प्रेरित नौकर तब काम करेगा जब उसको फटकारा जायगा, गाली दी जायगी, पर स्वार्थप्रेरित नौकर यह सोचेना कि अगर मैं मालिक को तुम न करूँगा, उनको बोलने को जगह न खखूंगा, उनकी इच्छा से अधिक काम करूंगा तो मेरी नौकरी स्थायी होगी, तरक्की होगी और आवश्यकता पर मेरे साथ रियायत की जायगी । इस प्रकार वह भविष्य के स्वार्थ पर विचार करके कर्तव्य में तत्पर रहता है। दंडप्रेरित की अपेक्षा वह मालिक को अधिक आराम पहुँFear है और स्वयं भी अधिक निश्चिन्त और प्रसन्न रहता है, इसका अपमान भी कम होता है एक दूकानदार इसलिये कम नहीं तौलता कि मैं पुलिस में पकड़ा जाऊंगा तो वह दंडप्रेरित
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पर दूसरा इसलिये कम नहीं तौलता कि इस सेकी साख मारी जायगी, लोग विश्वास नहीं करेंगे, दुकान कम चलेगी आदि, तो वह स्वार्थप्रेरित है। द'- प्रेरित की अपेक्षा स्वार्थप्रेरित वेई मन कम करेगा इसलिये यह श्रेष्ठ है। बहुत से लोग भीतर से संयमी न होने पर भी व्यापार में
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ईमानदारी का परिचय देते हैं जिससे साख बनी रहे इससे वे स्वयं भी लाभ उठाते हैं और दूसरों को भी निश्चिन्त बनाते हैं इसलिये दड-रेरित की अपेक्षा स्वार्थप्रेरित श्रेष्ठ है।
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एक देश में दो जातियों हैं वे नाममात्र के कारण से आपस में लड़ती हैं, लड़ाई तभी रुकती है जब कोई तीसरी शक्ति या सरकार डौंडे के बल पर उन्हें रोक रखती है। ऐसी जातियों में दडप्रेरितता अधिक होने से कहना चाहिये कि पशुता अधिक है। पर जब वे यह विचार करती हैं कि दोनों की लडाई से दोनों का ही नुकसान है। हमारे पांच आदमी मरे और उसके बदले में दूसरों के हम दस आदमी भी मारें तो इससे हमारे पाच जी न उठेंगे और आपस में लड़ने से कोई भी तीसरी शक्ति हम दोनों को गुलाम बनी लेगी।
इस प्रकार के विचार से वे दोनों जातियाँ मिलकर रहें तो यह उनकी स्वार्थप्रेरितता होगी जो कि द उप्रेरितता की अपेक्षा श्रेष्ठ है। इसमें पशुता नहीं है और मनुष्यताका अंश श्रागया है।
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४ संस्काररेरित ( ढोगे मार ) - संस्कारप्रेरित वह मनुष्य है जिसके दिलपर अच्छे कार्यों की छाप ऐसी मजबूत पड़ गई है कि अच्छे कार्य को भंग करने का विचार ही उसके मन में नहीं श्राता। अगर कभी ऐसा मौका आता भी है तो उसका हृदय रोने लगता है, बहिन भाई के सम्बन्ध की पवित्रता संस्काररेरितता का रूप है। स्वार्थप्रेरितता की अपेक्षा संस्काररेरितता इस लिये श्रेष्ठ है कि संस्कारप्रेरित मनुष्य स्वार्थ को धक्का लगने पर भी अपने सत्कर्तव्य को नहीं भूलता - अन्याय करने को तैयार नहीं होता
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किसी देश में अगर हो जातियाँ हैं और समान स्वार्थ के कारण मिल गई हैं तो दडप्रेरित की अपेक्षा यह सम्मिलन अच्छा होनेपर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उसका वह सम्मिलन स्थायी है। किसी भी समय कोई तीसरी शक्ति उनमें से किसी एक का बलिदान करके
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सत्याभूत
दूसरी को पुष्ट करना चाहे तो उनके स्वार्थ में अन्तर पड़ने से वह सम्मिलन नष्ट हो जायगा | वह देश अशान्ति चौर निर्धतना वा घर धनकर नष्ट होजायगा, गुलाम बन जायगा पर अगर वह सम्मिलन, संस्कार- प्रेरित हो, नों में सांस्कृ विक एकता होगई हो, तो तीसरी शक्ति को उनके अलग अलग दो टुकड़े करना असम्भव होजा युगा । संस्कृति, स्वार्थी की पर्वाह नहीं करती, वह तो स्वभाव बन जाती है जो स्वार्थ नष्ट होनेपर भी विकृत नहीं होती ।
प्रश्न- मारतवर्ष में संस्कारों का बहुत रिवाज है, बच्चा जब गर्भ में आता है तभी से उसके ऊपर संस्कारों की arr लगना शुरू हो जाती है । सोलह संस्कार तो प्रसिद्ध ही हैं पर इससे भी अधिक संस्कार इस देश में होते हैं पर इन संस्कारा के होनेपर भी कुछ सफलता दिखाई नहीं देती। इसलिये संस्कारप्रेरितता का कोई विशेष प्रयोजन नहीं मालूम होता ।
उत्तर --- संस्कार के नाम से जो मन्त्रजाप किया जाता है वह संस्कार नहीं है। आज तो वह विलकुल निकम्मा है परन्तु जिस समय उसका कुछ उपयोग था उस समय भी सिर्फ यही कि बच्चे के अभिभावको को बच्चे पर अमुक संस्कार डालने की जिम्मेदारी का ज्ञान होजाय । ज्ञान संयम विनय आदि के संस्कार मिनिट दो मिनिट के मंत्र जाप से नहीं पड़ सकते उस के लिये वर्षो की तपस्या या साधना चाहिये ।
I
मार्गपर मनुष्य सरलता से जा सकता है। एक मनुष्य कठिन अवस्था में भी मांस नहीं खाता, काम पीड़ित होनेपर भी माता बहिन बेटी के विषय संयम रखता है यह संस्कारका ही फल है । स्वार्थ और कानून दंड ] जहाँ रोक नहीं कर पाता वहाँ संस्कार रोक कर जाता है। संस्कार के अभाव में कभी कभी बुद्धि से जंचे हुए अच्छे काम करने में भी मनुष्य हिचकने लगता है । एक मनुष्य सर्वधर्म समभाव को ठीक समझने पर भी उसे व्यवहार में लाने में कुछ लज्जित सा या हिचकिचाता-सा रहता है इसका कारण संस्कार का है। सैकड़ो बड़े बड़े काम ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य संस्कार के वश में होकर बिना किसी विशेष प्रयत्न के सरलता से कर जाता है और सैकड़ों छोटे छोटे काम ऐसे हैं जिन्हे मनुष्य इच्छा रहने पर भी नहीं कर पाता संस्कार का लाभ यह है कि मनुष्य बुद्धि पर विशेष जोर दिये विना कोई भी काम कर सकता है या बुरे काम से बचा रह सकता है | मनुष्य आज पशु से जुदा हुआ है उसका कारण सिर्फ बुद्धि-वैभव ही नहीं है किन्तु संस्कारों का प्रभाव भी है।
संस्कार एक तरह की छाप है जो बारबार हृदयपर लगने से दृढता के साथ अकित होजाती | अमुक विचारों का हृदय में चारवार चिन्तन कराने से, उसको कार्यपरिणत करने से, वैसे ही दृश्य वारपार सामने आने से हृदय उन विचारों में तन्मय होजाता है। अनुभव से, तर्क से, महान् रुपों के वचन अर्थात शास्त्र से, और सत्संगति से भी यह तन्मयना आती है। इकार संस्कार पड़ते हैं ये मनुष्य का स्वभाव बन जाते हैं। मका परिणाम यह होता है कि किसी निर्दि
उसको दूर करने के लिये ये तीन उपाय हैं संस्कार, मनुष्य के हृदय में जो जानवर मौजूद है स्वार्थ और दंड । पहिला व्यापक है, निरुपद्रव है और स्थायी है, इस प्रकार सात्विक है उत्तम है। दूसरा राजस है मध्यम है। तीसरा वामस है, जघन्य है । मानव हृदय का पशु जब तक मरा नहीं है तब तक तीनों की आवश्यकता है। परन्तु जब तक मनुष्यता संस्कार का रूप न पकड़ले तब तक मनुष्य चैन से नहीं सो सकता । पैरों के नीचे दबा हुआ सर्प कुछ कर सके या न कर सके पर वह कुछ कर न सके इसके लिये हमारी जितनी शक्ति खर्च होती है, प्रतिक्षण हमें जितना चौकन्ना रहना पड़ता है, उससे किसी तरह जिन्दा तो रहा जा सकता है पर चैन नहीं मिलती दंड या कानून का उपाय ऐसा ही है।
मानव हृदय के भीतर रहने वाली पशुता से अपनी रक्षा करने के लिये स्वारी का सहारा लेना
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हारिकांड
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साँप के आगे दूध का कटोरा रख कर अपनी रक्षा ऐक्य का आधार संस कृति होना चाहिये । दंड करने के समान है। दूध के रलोभन में भूला या स्वार्थ के आधार पर खड़ा हुआ ऐक्य पूर्ण हुआ सर्प फाटेगा नहीं परन्तु वह छेड़खानी नहीं या स्थायी नहीं हो सकता । सह सकता और अगर किसी दिन उसे दूध न दंड से शान्ति होना कठिन है बल्कि ऐसे मिलेगा तब वह उच्छृखल भी हो सकता है। देशव्यापी जातीय मामनों में तो असंभव ही है।
अगर सर्प के विषदंत उखाड लिये जाण क्योंकि दंड-नीति का पालन कराना जिनके हाथ और वह पालत भी बना लिया जाय तब फिर में है वे ही तो मगड़नेवाले हैं। वादी और प्रतिडर नहीं रह जाता । संस्कार के द्वारा मानव
वादी न्यायाधीश का काम न कर सकेंगे । ऐसी हृदय की पशुता की यही दशा होती है । इस
हालतमें कोई तीसरी शक्ति की जरूरत होगी । लिये यही सर्वोत्तम मार्ग है।
और वह तीसरी शकि दोनों का शिकार करने छोटीसे छोटी बातसे लेकर बड़ी से बड़ी बात
लग जायगी । इस प्रकार उस तीसरी शक्ति के
साथ दोनों का एक नया ही संघर्ष चालू हो जायगा। तक इन तीनों की उपयोगिता की कसौटी हो सकती है। आप ट्रेन में जाते हैं, डब्बे में जगह
बात यह है कि दंड नीति की ताकत इतनी जगह लिखा हुआ है कि थूको मत' थूकवुनहीं,
नहीं हैं कि वह प्रेम या एकता करा सके । अगर
उसे ठीक तरह से काम करने का अवसर मिले थुक्कू नका ( Do not Sput) इस प्पकार विविध
तो इतना तो हो सकता है कि वह अत्याचार भाषाओं में लिखा रहने पर भी यात्री डबे में
अन्याय का बदला दिलाने में सफल हो जाय। थूकते हैं। दंड का भय उन्हें नहीं है । दंड देन्य
इससे अन्याय अत्याचारों पर अंकुश भी पढ़ कुछ कठिन मी है 1 हाँ वे यह सोचें कि हम दूसगे सकता है पर उन्हें रोक नहीं सकता और प्रेम को तकलीफ देते हैं, दूसरे हमें तकलीफ देंगे, करने के लिये विवश कर सकना तो उसकी ताकत दूमरों का थूकना हमें बुरा मालूम होता है, हमारा के हर तरह बाहर है। दूसरों को होगा, इस प्रकार स्वार्थ की दृष्टि से वे साथ ही जहा संस्कृति में एकता नहीं है विचार करें तब ठीक हो सकता है। पर हरएक में बहा कानून को न्याय के अनुसार काम करने का इतना गाम्भीर्य नहीं होता, बहुत से मनुष्य अवसर ही नहीं मिलता इसलिये म पैदा करने निकटमी ही होते हैं। वे सोचते हैं कि अगलं की बात नो दूर, पर अन्याय अत्याचार को रोकने स्टेशन पर अपने को उनर ही जाना है फिर दूसरे में भी वह समरथ नहीं हो पाता । जहा जातीय थका करें तो अपना क्या जाता है । इस प्रकार द्वेष है जहां सास्कृतिक एकता नहीं है वहा कानून बार्य उनके हाय क्री पशुना को नहीं मार पाता की गति भी,कुठित हो जाती है। है। परन्तु जब यही बान सरकार के द्वारा श्य और प्रेम में स्वाय भी कारण हो स्वभाव में परिणत हो जाती है तब मनुष्यत्व जाना है। हम तुम्हारे अमुक काम में मदद करें चमक उठता है । वह जाग्रत रहता है और बिना तुम हमारे अमुक काममें मदद करो इस प्रकार किसी विशेष प्रयत्न के काम करता है । यह तो स्वार्थ का विनिमय भी कभी काम कर जाता है एक छोटासा उदाहरण मात्र है, पर इसी दृष्टि से पर वह अल्पकालिक होता है और कभी कभी
राष्ट्रकी बड़ी बड़ी समस्याएँ भी हल करना चाहिये। उसका अन्त बड़ा दयनीय होता है। किसी देश में विविध जातियों या विविध सम्प्र- आज कल अनेक राष्ट्रों के बीच में जो दायों के बीच में अगर संघर्ण होता हो तो उसे सधियों होती हैं वे इसका पर्याप्त स्पष्टीकरण हैं। शान्त करने के लिये संस्कार, स्वार्थ और देह सोधिपत्र की स्याही भी नहीं सुखपाती कि सधिका में से पहिला मार्ग ही श्रेष्ठ है। समन्वय या भंग शुरू हो जाता है। एक राष्ट्र आज किसी
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राष्ट्र का जिगरी दोस्त बना बैठा है और दूसरे दोष कुसंस्कारों पर अवलम्बित है वह सुसंस्कारों क्षण स्वार्थ की परिस्थिति बदलते ही वह उसपर से ही अच्छी तरह जा सकता है। गुरनि लगता है। आज दोस्त बनकर कंधे से जिस आदमी पर सच बोलने के संस्कार कंधा भिडाये हुए है कल शत्रु बनकर छाती पर डाले गये हैं वह आवश्यकता होनेपर भी झूठ संगीन तानने लगता है। स्वार्थ के आधार पर नहीं बोलना । सच झूठ के लाभालाम का विचार जो मैत्री या एकता होगी उसकी यही दशा होगी। किये बिना ही सच बोलता है, परन्तु जिसपर मुठ ___एकता शान्ति आदि के लिये श्रेष्ठ उपाय है बोलने के कुसंस्कार पड़े हैं वह मामूली से मामूली सस्कार। स्वार्थ और दंड इसे सहायता पहुँच! कारणों पर भी झूठ बोलेगा, अनावश्यक झूठ भी सकते हैं परन्तु स्थायिता लानेवाला और स्वार्थ घोलेगा, व्यक्तिगत असंयग के विषय मे जो बात
और दंड को सफल बनानेवाला संस्कार ही है। है सामूहिक असंयम के विषयमें भी वही बात है। मानव-हृदयमें द्ववका एक विचित्र भ्रम समाया जिनको हमने पराया समझ लिया है उन हुश्रा है। व्यक्ति और ब्रह्मा के बीचमें उसने ऐसी को जरासी मी बात पर सिर फोड़ देगे पर अनेक कल्पनाएँ कर रखी हैं जो व्यर्थ ही जिनको अपना समझ लिया है उनके भयंकर से उसका नाश कर रही है। मनुष्यने जो नाना गिरोह भयंकर पापों पर भी नजर न डालेंगे। कुसंस्कारों धना रक्खे हैं उनमें कोई मौलिक असाधारण के द्वारा आये हुए सामूहिक असंयम ने हमें गुणों समानता नहीं है। हो सकता है कि मेरे गिरोहका का या सदाचार का अपमान करना सिखा दिया एक आदमी लखपति बनकर मौज उड़ाता रहे है और दोषों तथा दुराचार का सम्मान करने में
और मैं सुखी रोटीके लिये तड़पता रहूँ और कदा- निर्लज्ज बना दिया है। इन्हीं कुसस्कार का फल चित दूसरे गिरोह का आदमी मुझे सहायता दे, है कि मनुष्य मनुष्य में हिन्दू मुसलमानों का सहानुभूति रखे।
जाति-वर बना हुआ है, छूवाछूत का सूत !सर एक गरीब हिन्दू और एक श्रीमान हिन्दू पर चढ़ा हुआ है, जातयों के नामपर हजारो की अपेक्षा एक गरीब हिन्द और गरीर मसल. जेलखाने बने हुए हैं, जिनमें सब का दम घुट रहा मान में सहानुभूति कहीं अधिक होगी फिर भी है। दंड इन्हें नहीं हटा पाता, स्वार्थ सिद्धि का हिन्दू और मुसलमान सामूहिक रूपमें परस्पर प्रलोभन मा इन से बचने के लिये मनुष्य को द्वेष करेंगे 1 कैसा भ्रम है ? भारतका एक विद्वान समर्थ नहीं बना पाता। संस्कार ही एक ऐसा
और इंग्लैंड का एक विद्वान परस्पर अधिक सजा- मार्ग है जिससे इन रोगों को हटाने की श्राशा वीय है, कर्म से दोनों ही ब्राह्मण है पर एक की जासकती है। विद्वान अप्रेज भी दूर से दूर रहनेवाले मुर्ख से वैयक्तिक असंयम को दूर करने के लिय मुख अप्रेज को तो अपना समझेगा और भारत मनुष्य को ईमानदार बनाने के लिये सत्संगति के विद्वान से घृणा करेगा। यह एक सांस्कृतिक और सुसंस्कारों की आवश्यकता है, यह बात भ्रम है जो योग्य संस्कृति के द्वारा मिट सकता निर्विवादसी है इस पर कुछ नई सी बात नहीं है। लोगो के दिल पर जन्म से ही ऐसे संस्कार कहना है पर सामाहेक असंयम को दूर करत डाल दिये जाते हैं कि अमुक गिरोह के लोग के लिये सन धर्म-समभाव और सन-जाति-समतुम्हारे भाई के समान है और श्रमुक गिरोह के भाव के संस्कारों की आवश्यकना है। यह बात शत्रु के समान । आधार विचार की अच्छी और संस्कार से अर्थात् सममा बुझाकर था अपने अनुकूल वावें भी कुसंस्कृति के द्वारा मनुष्य को व्यवहार से दूसरों के हृदय पर अंकित कर देने चुरी और प्रतिफूल मालूम होने लगती हैं। जो से ही हो सकती है। राजनैतिक स्वार्थ के नाम
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पर मनुष्य को इसके लिये उत्तजित किया जा विशेषता समझेंगे-घृणा न करेंगे। सकता है पर उत्तेजना अपने स्वभाव के अनुसार दंड भी काम करे, लोगों के सामने सभ. मणिक ही होगी।
स्वार्थता के नाम पर भी मिलने की अपील की जब लोगों के हृदय पर यह वात अकित जाय, परन्तु हम भूल न जॉय कि हमें मनध्य हो जायगी कि पूजा नमाज का एक ही उद्देश है मात्र में सास्कृतिक एकता पैदा करना है। सब एक ही ईश्वर के पास भक्ति पहुँचती है, सत्य की एक जाति और एक धर्म बनाना है। वह और अहिंसा की सभी जगह प्रतिष्ठा है, प्रेम नतिक धर्म होगा, प्रेम-धर्म होगा। वह मनाय और सेवा को सबने अच्छी और आवश्यक
जाति होगी सभ्य जाति होगी। हम दंड के भय कहा है, राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुह
से नहीं, भौतिक स्वार्थ के पलोमन से नहीं, म्मद आदि सभी महापुरुप समाज के सेवक थे, लेकिन एक सुसंस्कृत मनुष्य होने के नात प्रेम के इन सभी का आदर करना चाहिये, सभी से हम पुजारी बन, विश्ववन्धुत्व की मूर्ति बनें, जिससे
हमारा संयम प्रेम और वन्धुत्व चतुराई या चाल कुछ न कुछ अच्छी बातें सीख सकते हैं, समय समय पर सभा के खास गुणों की आवश्यकता न हो किन्तु स्वभाव हो और इसी कारण सं होती है, तब ६ का जोर बताये बिना, राज- उसमें अमरता हो। नैतिक स्वार्थ था प्रलोभन बताये , बिना स्थायी इस प्रकार समाजमें संस्कार-प्रेरितोंका बहुएकता हो जायगी। नाम से सम्प्रदाय भेद रहेगा भाग हो जाने से मानव समाज में स्थायी शान्ति पर इन सब के भीतर एक व्यापक धर्म होगा हो जाती है और मनुष्य सभ्य तथा सुखी हो जो सब को एक बनायेगा। और यह भी सम्भव जाता है।' है कि सभी सम्प्रदाय किसी एक नये नाम के विवेक-प्रेरित- को गेआर) विवेकअन्तर्गत होकर अपनी विशेषता और विशेष प्रेरित वह मनुष्य है जो अपने स्वार्थ की पर्वाह नामों के साथ भी एक बन जायें। जैसे वैदिक न करके, नये और पुरान की पर्याह न करके, . धर्म और शैव वैष्णव आदि सम्प्रदायो ने तथा ,
अभ्यास हो या न हो पर जो जनकल्याणकारी आर्य और द्राविड़ी सभ्यताओं ने हिन्दू धर्म का काम करता है । यद्यपि संस्कारास मनुष्य श्रेष्ठ नाम धारण कर लिया और इस बात की पति बन जाता है पर सरकार के नाम पर ऐसे कार्य नहीं की कि हिन्द नाम अवैदिक, अर्वाचीन और भी मनुष्य करता रहता है जो किसी जमाने में यवनों के द्वारा दिया गया है, इस प्रकार एक अच्छे थे पर आज उनसे हानि है। संस्कार धर्म की सृष्टि होगई । उसी प्रकार हिन्दू, मुसल. प्रेरित मनुष्य उनको हटाने में असमर्थ है। पर मान, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, सिक्ख आदि जो विवेक-प्रेरित है वह उचित सुधार या उचित
सभी सम्प्रदायों की और पर्थों की एक संस्कृति कति के लिये सदा तयार रहता है। इस प्रकार , डलना चाहिये । इस प्रकार सास्कृतिक एकत्ता हो संस्कारों के द्वारा आई हुई सब अच्छी बातों को
आने पर समरदाय के नाम पर चलने वाला हो तो यह अपनाये रहता है और बुरी बातों को सामहिक असंयम है वह नामशेष हो जायगा। छोड़ने में उसे देर नहीं लगती है।
कुसंस्कारों ने हमें नाममोही बना दिया है विवेक प्रेरित मनुष्य विद्वान हो या न हो ससंस्कारों के द्वारा हमारा नाममोह मर सकता पर बुद्धिमान, अनुभवी मनोवैज्ञानिक और नि:पक्ष फिर तो हम विना किसी पक्षपात के परस्पर विचारक अवश्य होता है । इन्हीं विवेक प्रेरितों
आदान प्रदान कर लेंगे और जिनके आदान में से जो उच्च श्रेणी के विवेक प्रेरित होते है रदान की आवश्यकता न होगी उनको दूसरों की जिनकी नि:स्वार्थता साहस और जनसेवकता
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सत्यामृत
चलाता
बढ़ी चढ़ी रहती है और जो कर्मयोगी होते हैं वे ७-जीविका जीवन (काजो जिवो) ही तीर्थकर जिन बुद्ध अवतार पैगम्बर मसीह
आदि बन जाते हैं। पैगम्वरों के विषय में जो यह , मनुष्य अपनी जीविका किस प्रका कहा जाता है इसपर से भी उसके जीवन की उत्तमता या होते हैं उनकी यह ईश्वस्तता और सन्देशवाह
अधमता का पता लगता है। बल्कि यह कहना कता और कुछ नहीं है विशाल रूपमें उच्च श्रेणी
चाहिये कि यह जीवन की एक बड़ी .कसौटी है। की विवेकरितता ही है। विवेक रूपी फरिश्ते से
जीविका के क्षेत्र में मनुष्य की मनुष्यता की
करीब करीव पूरी परीक्षा होती है। इस दृष्टि से उन्हें पैगाम मिलता है।
मानव जीवन उत्तरोत्तर हीन ग्यारह बोगियों निस्वार्थत्ता, बुद्धिमत्ता, विचारशीलता, मनो
(तिजीपो) में विभक्त होता है । इनमें पहिली
उत्तमोत्तम ( सोसत }, २-३ री उत्तम (सत) वैज्ञानिकता और अनुभवों के कारण मनुष्य में
४-५-६-७ वी साधारण ( पौम) पाठवीं अधम सदसद्विवेकबुद्धि जग पड़ती है। इस विवेक बुद्धि ।
(कत ) और -१०-११-१२ वीं अधमाधम से वह भगवान सत्य का सन्देश सुन सकता है (सोकव) है। अर्थात् जनकल्याणकारी कार्यों का उचित निर्णय
१- साधुता जीविका (शन्वं काजो) उत्तमोत्तम कर सकता है। यही ईश्वर प्रेरणा है । और
२- तुला जीविका (सिौ काजो) उत्तम विशाल परिमाण में होने पर यही पैगम्बरपन ३- निवृत्ति नीविका (सिन्नं काजो) , था सन्देशवाहकता है।
४-शोपण जीविका (हप कागे). साधारण
५-उत्तराधिकारित्व जीविका (लेलंरोजंकानो), विवेक प्रेरित मनुष्य ही सब मनुष्यों में । ६- मोघ जीविका (नकं काजो) साधारण उच्च श्रेणी का मनुष्य है। वह गरीब स गरीब ७- आश्रय जीविका (शुई कासो) । भी हो सकता है या अमीर से श्रमीर भो । राजा
-भिक्षा जीविका (मिक्वं काजो) धम भी होसकता है और रंक भी। यशस्वी भी होस
६- पाप जीविका (पापं काडो) अधमाधम कता है और यशहीन मी । गृहस्थ भी होसकता
१०- ठग जीविका (चोट काजो) .. है और सन्यासी भी।
११- चोर जीविका (चुरं काजो) ,
१२- घात जीविका (गेवं काओ.). " रेरितो के पाच भेदो से इस बात का पता
. जिस जीविका में जितनी अधिक सेवा लगता है कि कौन मनुष्य विकास की दृष्टि से .
" और संयम है वह उतनी ही उच्च, और जिस
जीविका में जितनी अधिक सेवा और संयम किस श्रेणी का पाणी है। पहिला व्यर्थ परित है वह उतनी नीच जीविका है। मनुष्य पशुओं से भी गया वीता है यह एक तरह
१ साधु जीविका-समाजोपयोगी अधिक से का कोट ( कोतक ) है। दूसरा दंड रेरित पशु अधिक कार्य करना और निर्वाह के लिये कम से के समान (अत ) है। तीसरा स्वार्थ रेरित अर्थ कम, या सेवा के मूल्यसे कम लेना साधु जीविका मनुष्य (शिकमान ) है। चौथा संस्कार रेरित है। साधुदीक्षा लेलेना साधुजीविका नहीं है, किन्तु वास्तविक मनुष्य (मान) है । और पाँचवा सेवा से कम लेना साधुजीविका है। यह जीविका विवेक रेरित पूर्णमनु य ( हकमान ) है, फरिश्तो कोई भी मनुष्य कर सकता है और साधुजीवी गा देव ( नन्दक है।
, कहलासकता है। साधुदीक्षा लेकर यदि कोई
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हाएका
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अधिक जनसेवा नहीं करता तो वह साधु कहला- ५ उत्तराधिकारित्व जीविका- मातापिता कर भी मिक्षाजीवी मोघजीवी आदि फहला आदि से उत्तराधिकारित्व में मिली हुई सम्पत्ति सकता है ठगजीवी आदि भी कहला सकता है। से गुजर करना उत्तराधिकारित्व जीविका है।
और साधुदीक्षा न लेने वाला मनुष्य भी अगर ६ मोघजीविका-जीविका के लिये कुछ ऐसे जगत को अपनी महान सेवाएं देरहा है और काम करना जिससे समाज का हित नहीं है, कुतूउससे काफी कम लेरहा है तो वह साधजीवी इत्त आदि के वश होकर समाज से कुछ मिल कहलासकता है। असली वात उसके द्वारा होने जाता है तो यह मोघजीविका है। वाला ज्ञाम है जो दुनिया को मिलता है। इसके उदाहरण में निश्चित नाम लगा कुछ तला जीविका-जो अपनी सेवाएं बदल
कठिन है । किसी की दृष्टि में कोई कार्य विलकुल
होने से मोघजीविका है, किसी की दृष्टि में के अनुसार क्ता ६ वह तुलाजाचा है। जाविका नहीं है। हाथ देखकर भविष्य बताना, अशुभ का यही मुख्य और व्यापक रूप है। दूकानदार, ग्रहों की शान्ति के लिये प्रजा अनसन आदि मजदुर, नौकरी पेशा करनेवाले, श्रादि यदि इमा• करना, शरीर कष्टों का प्रदर्शन करना, आदि नदारी से काम करे तो वे तुला जीविका करने किसी को दृष्टि में व्यर्थ कार्य हैं किसी की दृष्टि वाले कहलायेंगे।
में आवश्यक या उपयोगी । इसलिये इसका ३ निवृत्तिजीविका-जिनने जीवन में तीस नियि युग के अनुसार, वैज्ञानिकता की प्रगति चालीस वर्ष काफी सेवा करली और अब वृद्ध और व्यापकता के अनुसार करना चाहिये ।। होकर पेन्शन रहे हैं या उस समय बढापे ७ श्राश्रयजीविका-शारीरिक असमर्थता लिये जो धन सञ्चित कलिया था उससे गुजर
आदि के कारण किसी के आश्रित रहना और
उसकी सम्पत्ति से गुजर करना आश्रयजीविका कर रहे हैं, या पालपोसकर सन्तान को कमा
हैं। अगर उसने थोड़ा बहुत कार्य किया भी, पर बनादिया है इसलिये सन्तान की कमाई से गुजर
जितना वह लेता है उसके अनुरूप न किया, या कर रहे हैं, ये सब निवृत्ति जीवी हैं।
ऐसा काम किया जिसके बिना कोई खास हानि ४ शोषण जीविका-यूजी, या पद आदि के नहीं थी अर्थात करीव करीव व्यों का त्यो काम द्वारा अपने श्रम या सेवा आदि के मूल्य से चल सकता था तो ऐसा नाममात्र का काम करने अधिक लाभ उठा लेना शोषण जीविका है। बड़े वाला भी आनवजीवो कहलायगा। बड़े कारखानों वाले तो यह शोपण जीविका करते इस प्रकार का जीवन वालकों के लिये ही हैं पर छोटे छोटे लोग भी यह शोपण जीविका उचित है। करते हैं । दूसरे को संकट में देखकर उससे अधित दुर्दैवयोग से कोई अन्धा श्रादि होगया हो से अधिक दाम वसूल कर लेना भी शोषण तो उसे क्षन्तव्य है। जीविका है। यह काम साधारण स्थिति के धनी सामर्थ्य रखते हुए भी आलस्यवश, प्रलोभी करलेते हैं। योग्यता और सेवाभाव न होते भनवश, या गृहस्वामी संकोचवश कुछ कहता हुए भी गुट बनाकर गुट के बलपर राज्यमन्त्री नहीं इसलिये पड़े रहना, आभयो बने रहना श्रादि वनजाना, या चापलूसी आदि के बलपर अपराध है। कोई ऐसा पद प्राप्त फरलेमा तिसकी योग्यता पली बाहर कमाने भले ही न जाती हो अपने में न हो, न उसके अनुकूल सेवा देसकते पर यदि वह गृहिणी के योग्य कर्तव्य करती है हो, तो यह भी शोपण जीविका है। तो उसकी जीविका आभयजीविका नहीं है, किंतु
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तुलाजीविका है । अथवा पति की जीविका जिस ये ठग अनेक तरह के होते हैं। मुख्यता से श्रेणी की हो उस श्रेणी की जीविका है। वास्तव इनके तीन भेद हैं--प्रलोमनठग, दम्भठग, उधार में पतिपत्नी दोनों साझेदार हैं।
ठग। .. राष्ट्र ने या समाज ने नारी के लिये जो प्रलोभनठग (लौभ चीट) लुभाकर ठगने कर्तव्य आवश्यक निश्चित कर दिये हो उन कर्तव्यों वाले प्रलोभनठग हैं। जैसे दूना सोना बनादेने का को न करनेवाली नारीकी जीविका आश्नयजीविका प्रलोभन देकर ठगनेवाले आदि प्रलोभन ठग हैं। कहनायगी।
इसमें ठगनेवाले तो पापी अपराधी हैं ही, पर जो ___समाजवादी प्रार्थिक योजना के युग में एक
उगजाता है वह भी कुछ अपराधी है। उसमें भी
एक एक तरह की असंयम वृत्ति पाई जाती है। पर पूजीवादी युग में वह नहीं भी कहलासकती। इससे प्रलोभन ठग की नीचता कम नहीं होती। युग के अनुसार इसका विचार किया जासकता दम्भठग ( कुटुं चोट ) ठम्म ढोंग आदि है। पर साधारणत. पतिपत्नी आर्थिक दृष्टि से करके लोगों को ठग लेनेवाला दम्मठग है । शरीर अभिन्न है, परस्पर पूरक हैं इसलिये दोनो की मे सफेदा आदि लगाकर अपने को कोड़ी बनाकर, जीविका एक मानी जायगी।
अन्धे लॅगड़े आदि होने का ढोग करके ठगलेने भिक्षाजीविका भीख मांगकर गुजर करन्स
वाला दम्भठग है। अवा भविष्य में किसी भिक्षा जीविका है। किसी साम्प्रदायिक परस्परा उचित और सम्भव कार्य का विश्वास दिलाकर का अनुसार कोई साधु आदि की हैसियत से सुविधाएं शप्त करलेने वाला भी दम्भ ठग है। भिक्षा ले तो वह भिक्षाजीवी नहीं है, . ! इसके उधार ठग (मपंचीट) उधार के नामपर बदले मे वह उचित सेवा देता हो। किसी से सम्पत्ति लेकर फिर न चुकानेवाला
जिन्हें श्रद्धापूर्वक दान दिया जाताना उधारठग है। इसमें सब से बड़े उधार ठग वे हैं याचना किये दान दिया जाता है, भिक्षुक के अनु.
जो उधार लेते समय ही यह विचार रखते हैं कि सार दीनता का प्रदर्शन जिन्हें नहीं करना पड़ता
होगा तो चुकायेंगे नहीं तो ये मुझसे क्या लेलेंगे। है, न भन में लाना पडता है वे भी भिनाजीवी
चुकाने की परिस्थिति होजानेपर भी नहीं चुकाते। नहीं हैं। वे यदि उचित सेवा देते हैं तो साधुजीवी ५१
थे बहुत ही नीच और बेईमान हैं। हैं। कुछ सेवा नहीं देते सिर्फ अन्धश्रद्धा का
__दूसरे उधारठग वे हैं जो उधार लेते समय लाभ उठाते हैं तो मोपलीची हैं।
तो चुकाने का भाव रखते हैं पर पीछे जिनकी साधुवेप लेकर भी जो दीनता दिखाते हैं
नियत बदल जाती है । इसलिये चुकाने की परिवे मिनाजीवी हैं।
स्थिति प्राजाने पर भी नहीं चुकाते हैं। क्या
करें ? बालबच्चों को भूखा मारे १ नहीं हो तो. पापजीविका-जीविकाके नामपर जो लोग कहां से दे १ आदि वाते कहने लगते हैं ? खर्च - ऐसा कार्य करते हैं जिससे पाप फैलता है वह का हिसाव पेश करने लगते हैं । ऐसे लोग मित. पाप जीविका है । पाप जीविका के कार्य समाज- व्यय से काम लें तो चुका सकते हैं पर नहीं लेते। हित के विरोधी होते हैं। जैसे-जूबा खेलने ___ मतलब यह कि कुछ न कुछ नियत बिगड़ खिलाने का धंधा पाप जीविका है। जानवरों को जाती है इसलिये चुकाने की यथासम्भव लडाने का धंधा पापजीविका है।
कोशिश नहीं करते। ये भी नीच और घेईमान है। १० उगजीविका-विश्वासघात आदि करके जो लोग उधार देने का धन्धा नहीं करते, किसी को ठग लेना उपजीविका है। किन्तु किसी व्यक्तिको दुःख संकट में पड़ा जान
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हष्टिकांड
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कर करुणावश उधार दे देते हैं उनका ऋण न ११-चोर जीविका चोरी करके जीविका चुकाने वाला और भी बड़ा उधार ठग है। करना चोरलीविका है। दूसरा धन्धा करते हए उसकी कृतधनता नीचता हरामखोरी और भी भी कभी कभी चोरी करनेवाला चोर ही कहा ज्यादा है।
जायगा । इसकी बेईमानी और पतितता स्पष्ट है । जो आदमी उधार लेने से लेकर अन्ततक .१२-घातजीविका-डकैती आदि करके ऋण चुकाने का माव रखता है और समय समय जबर्दस्ती दूसरोंका धन छीननेवाला घातजीवी है। पर प्रगट करता है, अधिकसे अधिक मितव्ययी दूसरो को परेशान करके सताकर रिश्वत लेने बनकर थोड़ा बहुत चुकाता रहता है. समय पर न वाला भी घातजीवी है डकैत के समान है। यह चुका सकनेका पश्चाताप प्रगट करता रहता है, वह बेईमान पतित और क्रूर है। उधार ठग नहीं है। पर किसीकी मनोवृत्ति को मनुष्य को उत्तमोत्तम या उन्तम जीविका पूरी तरह कोई परख नहीं सकता, इसलिये ऐसे करना चाहिये । साधारण जीविको विवशता में ही व्यक्ति को भी दुनिया उधार ठग समझे तो उसे क्षन्तव्य है, अधम जीविफा न करना चाहिये, सहन करना चाहिये।
और अधमाधम जीविका तो मरने से भी बुरी है । ___जो लोग उधार लेकर उसे अस्वीकार कर
यह एक भरम है कि पेट भरने के लिये देते हैं वे उधार ठग तो है ही, साथ ही बड़े
अधम या आधमाधम जीविका करना ही पड़ती चोर भी हैं।
है। अगर कोई मनुष्य इमान पर कायम रहे तो जो लोग उधार लेकर सिर्फ अस्वीकार ही वह जीविका के क्षेत्रमें असफल नहीं होगा. अगर नहीं करते किन्तु, ऋणमता पर कोई दोपागेपण थोडी बहुत कमी रहेगी तो सुखशाति गौरव की मी करते है उसकी झूठी बदनामी भी करते हैं वे प्राप्ति से वह कमी न अम्बरेगी. बल्कि इस दृष्टि ठग होने के साथ डकैत भी हैं।
से टोटल मिलाने पर लाभ ही रहेगा । जीविका
की दृष्टि से मनुष्य को अपना जीवन उत्तम जिनने ऋण चुका दिया है व्याज भी चुका
बनाना चाहिये । इसमें सिर्फ परमार्थ ही नही है दिया है फिर भी दर व्याज आदि के कारण, या साहुकारी हथकंडो के कारण ऋणग्रस्त बने हुए
स्वार्थ भी है। है ऐसे लोगों को किसी तरह सरकार या समाज ८-यशोजीवन [ फिमोजियो] के द्वारा ऋणमुक कर दिया जाय तो वे उधार
जीवन की सफलता की बहुत बडी कसौटी लग नहीं है। ठग जीवी लोग जीवनभर या सदा ठगजी. यश है। धन वैभव पर अधिकार और पा भी
यश की बावरी नहीं कर सकते क्योकि ये मत्र विका ही करते हैं यह बात नहीं है, वे दूसरी जीविका भी करते है पर जिसके जीवन में प्रकाश हान है। जविन का प्रकाश यश है. और
जीवन की उम्म भी यही है। जिसका नाम जिस जीविका को स्थान है यह ठगजीवी है । ठगी विसा से किसी धन मार लिया और फिर से रुपमे जितने महत्व के साथ जब तक जीना पूंजी बनाकर कोइ अच्छा धन्या भी करने लगा तब तक वह अगर हे ऐसा समझा जाना
और यह ठीक है। सौभी उस अच्छे धन्धे का मूनाधार या मुख्याधार ठगजीविका होने से वह ठगजीवी कहा पर यश में भी अन्तर बहुन है, उसके जायगा । जब तक ठगजीविका से कमाया हुआ असंख्य था अनन्त भेट है। किसी किसी काम धन वह चापिस न करदे और मनसे वचन से सैकड़ी वर्षा तक वाफी महत्व के साथ देश
और धनसे कुछ प्रायश्चित्त भी न करने तब तक देशान्तरों तक में फैला रहता है किसी का उगजीवी है।
कुछ समय तक या जीवनभर रहना है, उसमें
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OF२३.]
सत्यामृत
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श्रद्धा या पूज्यता का भाव नही रहता सिर्फ म.राम, म कृष्णम बुद्ध, म. ईसा, म मुहम्मद, अातंक था लोगों की जानकारी रहती है। कोई स. माक्स आदि इसी श्रेणी के यशस्वी हैं। म. कोई तो बदनाम ही होते हैं अपयश पाते हैं। महावीर विस्तीर्णता में कुछ कम होने पर भी अपयश वास्तव में मृत्यु है नरक है। हो ! वे इसी श्रेणी में लिये जासकते हैं। म सुक्रगत अपयश जो आगे चलकर यश में बदल जाने आदि भी परम यशस्वी हैं । सम्राट अशोक की वाले हैं, या विवेकियों की दृष्टि में अपयश नहीं है गिनती भी परमयशस्वियों में की जासकती है । जनना की मूर्खता के कारण पैदा हुए है वास्तव म कम्प्यूसियस भी परमयशस्वी हैं। में अपयश नही है। इन सब बातों का विचार २-महायश-को विस्तार में कम है पर करते हुए यशो जीवन के मूलमें तीन और फिर बाकी बातों में परमयशस्वी के समान है। वे उन्नीस भेद होते हैं । १-सुयशजीवन ( सुम्पम महायशस्वी है परमयशस्वी और महायशस्वी जियो) २-अयश जीवन [ नोपिम जिवो] की योग्यता में कोई निश्चित अन्तर नहीं होता। ३-दुर्यशजीवन [ रूपिम जियो]
दोनो कौन करीब एक सरीख हैं। सिर्फ प्रचार अच्छे यशवाला जीवन सुयश जीवन है। के कारण यह अन्वर पैदा होता है। जिस जीवन मे न सुयश है न अपयश वह ३-भविष्ययश-जिनने जीवन में उचित अयश जीवन है।
यश नहीं पागा किन्तु जिनके उपकार और जिस जीवन मे दुर्गश है बदनामी है वह योग्यता इतनी महान है कि मरने के बाद उनका दुर्गशजीवन है।
यश फैलेगा। आज जिनको हम परमयशस्वी या प्रयश जीवन तीन श्रेणियों विजीफोमहायशस्वी कहते हैं उनमें से अधिकाश अपने और नव उपनगियो (फूर्तिजीपो) मे घटा
जीवन में भविष्ययशस्वी ही थे। इसलिये जो हुधा है।
सरुवा जगत्सेवक है वह परमयशस्वी या
महायशस्वी बनने की चिन्ता नहीं करता, वह १- उत्तम यश (सतपिमो)
. भविष्ययशस्वी होने में ही सन्तुष्ट रहता है । हा! १-परमयश (शोपिमो) स्थायी उच्च विस्तीर्ण
कुछ ऐसे विवेकी होते हैं जो भविष्ययशस्वी की २-महायश (सोपिभो) स्थायी उच्च
पामयशस्विता या महानयशस्विता जीवन में ही ३-भविष्ययश ( लसलेर पिमो)
पहिचान लेते हैं वे उस भविष्ययशस्वी को परम२-मध्यम ( साधारण ) यश (पोम पि) यशस्वी ही कहते हैं, यह उचित और आव. ४-प्रजीवनयश (शे जवं पिमो) स्थायी व्यापक
श्यक है। Y-जीवनश (जिपिमो) स्थायी ६-प्रदीपरश (शेदिम्प पिमो ) उघ व्यापक
४-मुजीवनयश-जो यश काफी स्थायी है ७-दीपयश (दिगं पिमो ) उच्च
व्यापक भी है परन्तु जिसमें उन्धता नहीं है या
बहुत कम है। तारीफ तो होती है आश्चर्य भी ३- जघन्य यश (रिक पिमो,
होता है पर विचार करने पर काफी मात्रा में ८-छायायश (खुध पिभो । व्यापक
भक्ति आदर श्रद्धा अनुराग आदि पैदा नहीं ६. पाकयश (रिंक पिमो) अस्थायी तुच्छ व्यापक होता। जैसे श्रागरे को ताजमहल अपने निर्माता
परमयश-लो यश पीडियो या शता. का नाम शादियों के लिये अमर किये हुए है, दियो तक रहा है रहनेवाला है, युग के याता- देश देशान्तरो में वह यश फैला है इसलिये यात के अनुसार हजारों कोसो में फैला हुआ है, व्यापक भी है पर तासमहल बनवाने के बारेमे यशस्वी व्यक्ति के विषय में लोगो को श्रादर का. वह भक्ति आदर आदि पैदा नहीं होते जो एक भाव है ऐसे यश को परम यश फहना चाहिये। जनसेवक के बारे में पैदा होते हैं । विचारक यही
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दृष्टिकाड
[२३१
सोचता है कि ठीक है, प्रजा की कमाई से अपने यिक घटना का जोश है या अमुक पद है, इसके पत्नी प्रेम का स्मारक एक वादशाह ने बनवाया वाद समाप्त होजाता है। है, वह भी सिर्फ इसलिये कि वह उसकी प्यारी ७ प्रदीपयश-यह डीपयश के समान है पर पत्नी थी, न कि कोई विश्व हितैपिणी महामहिला। व्यापकता मे कम है। काफी छोट क्षेत्र में इसका इसमे महत्व क्या है । इसप्रकार के यश को सुजी- फैलाव होता है. हा पूज्यता काफी ऊंची होती है। वन यश कहते हैं। यह काफी जीता है और साम्रदायिक क्षेत्र में ऐसे यशस्वी देखे जाते है। विस्तार के साथ जीता है। ___५ जीवन यश- यह यश जीवनयश के
छायायश- इस यश में विस्तार है पर समान है सिर्फ विस्तार में कम है। कोई ऐसा
उच्चता और स्थायिता नहीं। अनेक नट नटियो काम किया जाय जो चिरकाल तक लोग याद
के नाम देश देशान्तरों में फैल जाते हैं, पर उनके रक्खे, पर उसका विस्तार न हो, न पूज्यता बुद्धि
बारे में वह भक्ति आदर आदि नहीं होता जो हो । अनक ग्राम नगरों में ऐसी चीजे मिल जाती
एक परोपकारी हितैपी के बारे में होता है। उनके हैं जिन्हें शत्तानियों से लोग जानते हैं पर आस
रूप और शव से लोग अपनी आने और कान पास के लोग ही जानते हैं। इससे जो यश मिलता सैकना चाहते हैं। और मरने के बाद वे भुला है वह जीवन यश है।
दिये जाते हैं, इतना ही नहीं, बहुत से तो लवानी प्रदीपयश- सामयिक वातावरणसे लाभ के बाद ही भुलादिये जाते हैं। इस प्रकार यह उठाकर जो महत्ता और व्यापकता प्राप्त की जाती यश जमीनपर पड़ी हुई घड़ीमर की छाया के है उससे पैदा होने वाले यश को प्रदीप यच कहते समान हनि के कारण छाया यश कहलाता है। हैं। राजनैतिक आन्दोलन में भाग लेकर मनुष्य
पलक यश-जो यश थोड़ी देर को थोड़े अल्ली दर दर तक विख्यात होजाता है और से लोगों में कैलता है और उससे वास्तविक लोगो की पूज्य वुद्धि भी मिल जाती है। किसी महत्ता नहीं मिलती। वह पलक मारने सरीखा खास प्रसंगपर अनशन आदि करने से भी ऐसा क्षणिक होने के कारण पलक यश कहलाता है, उच्च व्यापक यश मिलजाता है। राजनैतिक नवा शानदार शादी का उत्सव कर दिया, शान दिखाने बनने से, या राज्यमन्त्री आदि पद पाजाने से भी,
के लिये भोज कर दिया, अच्छा जुलूस निकाल था राजनैतिक संस्था का कोई पद पालेने से भी
दिया, आदि ऐसे कार्य जिनका प्रभाव स्थानीय इस प्रकार का यश मिलजाता है। पर उसकी और क्षणिक होता है, लोगों में उसके प्रति सिर्फ उम्र बहत थोडी है। हा। जो लोग स्थायी और इष्र्या या आश्चर्य ही पैदा होता है वह पलक यश वास्तविक जनसेवा भी करते है और इसके बाद है। यह बहुत क्षुद्र है। कदाचित शासन आदि का पद भी पाजावे हैं वे १० जिनके जीवन में किसी प्रकार का यश परमयशस्वी होजाते हैं जैसे हजरत मुहम्मद नहीं होता है वह अयश जीवन है। साधारण
आदि हुए हैं। पर ऐसे बहुत कम होते हैं अधिक- मनुष्यों का जीवन प्राय ऐसा ही होता है। हाला तर इसी छटी श्रेणी के होते हैं। जैसे प्रदीप के थोड़ा बहुत पलक यश बहुतोंको मिलजाता है। काफी दूर तक तीन प्रकाश देता है पर देता है जिस प्रकार यश जीवन के नव भेद बताये तभी तक, जब तक उसे तेज आदि मिलता रहता गये हैं उसी प्रकार दुर्थश जीवन के भी नव भेद है, तेल समाप्त होते ही बुझ जाना है । इसीप्रकार होते हैं। पर भेदों का क्रम उलट जाता है क्योंकि रसीप यश तमो तक है लव तक अमुक साम. यश पहिले दर्जे का हो तो जीवन सत्र से अच्छा
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सानाद
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समझा जाता है पर दुर्यश पहिले दर्जे का हो तो १५-जीवन दुर्यश (जिवं पिमो)-सा जीवन सत्र से खराब समझा जाना है। यहा जो पाप किया जाय जिससे जीवनभर या कापी जीवन की श्रेणियों बनाई गई हैं वे सब से समय तक वदनामी रहे। पर वह न तो बहुन अच्छे जीवन से लेकर सब से पराव जीवन तक फैले न बहुत उन्च हो। गई हैं। इसलिये पलक यश के बाद अयश २-प्रजीवन दुर्यश (शेलिवरूपिमो)-जीवन जीवन और फिर पलक दुर्यश जीवन पाता है। यश जत्र स्थायी के साथ विस्तीर्ण भी होताय परम दुर्यश जीवन वो सबसे गया बीता जीवन तो वह प्रजीवन दुर्यश होजाता है। है । इसप्रकार ग्यारह से उन्नीस तक दुवंश १५-भविष्य दुर्यश (लसलर अपिमा)-यान जीवन के भेद हैं।
जो वरनामी छिपीहुई है या तुच्छ है पर कुछ ११-पलकदुर्गश रिक रूपिमो किसी समय बाद या जीवन के बाद जो स्थायी में छोटीसी गलती से थोड़े से लोगो के बीच में आयगी. यथाशक्य फैल भी जायगी वह भविष्य होने वाली बदनामी, जो कुछ समय में भलादी- दुर्गश है। जायगी पलकटुर्यश कहलाती है। अधिकाश १-महादुर्भश (सोमपिमो)-जो बदनामी व्यक्ति कभी न कभी ऐसी बदनामी पाजाले हैं। किसी कारण विस्तार न पासको हो पर जिनने
. १२-छाया दुगंश [छुवं सपियो ] पलक क्षेत्रमें फैनी हो काफी उत्कट हो और स्थायी हो। सुमेश के समान कुछ बड़ीसी बदनामी, जो कुछ विश्वासघात कृतघ्नता श्रादि से ऐसी बदनामी अधिक लोगो में फैलती है पर कुछ दिनों में मिला करता है मुलाने लायक है।
१६ पाम दुर्गश ( शो रूपिमो) जो वद. १३-धूम दुर्गश [युगं रुपमो बदनामी की नामी काफी तोत्र हो खून फैली हो और यहुन वान ऊंचे दो की हो. परवडत नपारी समय तक के लिये स्थाया हो जैसे गवणादि की हो और न स्थायी होपाई हो । धुएं की तरह वदनामा वह परम दुयश । घोड़ी जगह में फैलकर उड़जाने वाली हो, पर
यश की दृष्टिसे मनुष्य को अपना जीवन आग लगने के समान उत्स्टता का चिन्ह टटोलना चाहिय। दुवंश से बचकर यथाशक्य अवश्य हो।
यश को अंची श्रोणियों में रहना चाहिये। ___१४ प्रधूम दुश [शेधुर्ग रूपिमो धद. ९-लिंगजीवन निगो नियो] नामो का कार्य काफी बड़ा हो, फेल भी गया हो, पर टिकाऊ न हो।
तीन भेद ___ बहुत फैलने या टिकने का विचार सापेक्ष नर नारी ये मानवजीवन के दो अंग हैं। दृष्टि से करना चाहिये। जिस कार्गम बहुत प्रसिद्ध अकेली नारी आधा मनुष्य है अकेला नर आधा व्यक्ति को जितनी बदनामी होसकती है उस मनुष्य है। दोनों के मिलने से पूर्ण मनुष्य बनना कार्य से प्रसिद्ध व्यक्ति को उतनी बदनामी है। इस प्रकार दम्पति को हम पूर्ण मनुष्य कह नहीं होसकती। पर इस कारण से अप्रसिद्ध सकते हैं। व्यक्ति कवी श्रेणी का नहीं होजाता । उसको हिन्दुओ से जो वह प्रसिद्धि है कि शिवजी परिस्थिति के अनुसार ही उसकी बदनामी की का आधा शरीर पुस्परूप है और भावा नारी, व्यापकता और स्थायिता का विचार किया इस रूपक का अर्थ यही है कि पूर्ण मनुप्य में नर जायगा और उसी के अनुसार उसकी श्रेणी और नारी दोनों को विशेषताएँ हुआ करती है। निश्चित होगी।
पर यह ध्यान रखना चाहिये कि वे विशेषताएँ
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दृष्टिका ड
मन बुद्धि या गुणों से सम्बन्ध रखनेवाली हैं शरीर से नहीं। लैंगिक दृष्टि से कोई मनुष्य पूर्ण इसका यह मतलब नहीं है कि उसकी दाढ़ी मे एक तरफ बाल हैं और दूसरे तरफ नहीं, एक तरफ मूंछ है दूसरी तरफ नही, एक तरफ स्त्रियो सरीख तृन है दूसरी तरफ पुरुपी सरी । किसी पूर्ण पुरुष का ऐसा चित्र गमा चित्र ही कहा जा सकेगा। उभयलिंगी चित्रण करना हो तो वह गुणसूचक होना चाहिये।
लैंगिक दृष्टिसे मानव जीवन के तीन मेव हैं १ नपुंसक, २ एकलिंगी, ३ उभयलिंगी
I
१ नपुंसक (नोनंग ) - जिस मनुष्य में न तो स्त्रियोचित गुण हैं न पुरुषोचित, वह नपुंसक । समाज की रक्षा में, उन्नति में, सुख शान्ति नारी का भी स्थान है और नर का भी । जो न तो नारी के गुणों से जगत की सेवा करता है नर के गुणों से, वह नपुंसक है। नर नारी
1
नर और नारी की शरीररचना मे प्रकृति ने अन्तर पैदा कर दिया है उसका प्रभाव उनके गुडा तथा कार्यों पर भी हुआ है। उससे दोनों मे कुछ गुए भी पैदा हुए हुए और दोनो मे कुछ टोप भी । ज्या ज्या विकास होता गया त्यों त्यो दोनों में उन गुण छोपों का भी विकास होता गया। इस प्रकार नर और नारी में आज बहुत अन्दर दिखलाई देने लगा है जब कि मौलिक 'अन्दर इतना नहीं है। बुद्धिमत्ता विद्वत्ता आदि मैं नर और नारी समान हैं। किन्तु शताब्दियों तक विद्वत्ता आदि के क्षेत्र मे काम न करने से, आने जाने की पूरी सुविधा न मिलने से और अनुभव की कमी के कारण, नारी विद्वत्ता आदि से कम मालूम होती है, पर इस विषय में सं कोई अन्तर नहीं है ।
मूल
शरीर रचना के कारण नर और नारी में जो मौलिक गुण दोष हैं वे बहुत नहीं है । वात्सल्य है निर्जलता दोप । सवलता नर का गुरु है लापर्वाही दोष इस एक एक ही गुण
"
[२३३]
टोप से बहुत से गुण दोष पैदा हुए है।
नारी की विशेष गवना के अनुसार का सन्तान से इतना निकट सम्बन्ध होता है कि वह अलग प्राणी होने पर भी उसे अपने मे संलग्न समझती है। अपनी पर्वाह न करके भी सन्तान की पर्वाह करती है । सन्तान के साथ है संयम सेवा, कोमलता, प्र ेम आदि इस वृत्ति यह आत्मौपम्य भाव नारी की महान् विशेषता विकसित रूप हैं। अगर रेम या श्रहिंसा को साकार रूप देना हो तो उसे नारी का आकार देना ही सर्वोत्तम होगा।
1
नारी का वात्सल्य या प्रेम मूल मे सन्तान के पति ही था । एक तरफ तो वह नाना रूपो मे प्रकट हुआ दूसरी तरफ उसका क्षेत्र विस्तीर्ण हुआ । इस दुहरे विकास ने मानव समाज में सुख समृद्धि की वर्षा की हैं। जिसने अश में यह विकास है उतने ही अंश मे यहाँ स्वर्ग है
I
नारी में जब सन्तान के लिये वात्सल्य आया तब उसके साथ सेवा का श्राना अनिवार्य था। इस प्रकार सेवा के रूप में नारी जीवन की एक माकी और दिखाई देने लगी। सेवा भी नारी का स्वाभाविक गुण हो गया।
जहाँ वात्सल्य है वहाँ कोमलता स्वाभाविक है। नारी में दुग्धपानादि कराने से तन की कोमलता तो थी ही, साथ ही प्रेम और सेवा के कारण उसमें मनकी कोमलता भी आ गई। बच्चे का रोना सुनकर उसका मन भी रोने लगा उसकी बेचैनी से उसका मन भी वेचैन होने लगा। इस कोमलता ने दूसरे के दुःखों को दूर करने और सहानुभूति के द्वारा हिस्सा बढाने मे काफी मदद की।
वात्सल्य और सेवाने नारीमें सहिष्णुता पैदा की। नारी के सामने मनुष्य निर्माण का एक महान कार्य था और वह उसमे उन्मय श्री इसलिये उसमे सहिष्णुता का आना स्वाभाविक था। जिसके सामने कुछ विवायक कार्य होता है
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[ २३४ ]
सत्यामृत
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वह चोटो को कम पर्वाह करता है। बदला लेने किन थी। नारी के आकर्षण से पुरुष यह कार्य की भावना भी उसमें कम होती है। वह हुकार करता था पर सन्तान के विषय मे पुरुष को कोई तभी करता है जब चोट असह्य हो जाती है या आकर्षण न था, न घर को चिन्ता थी, इसलिये उसके विधायक कार्य मे बाधा पड़ते लगती है। पुरुष में वह स्थिरता नहीं थी जिस की आवश्यनारी शरीर से कोमल होने पर भी जो उसमे कता थी। मन ऊबने पर वह जहाँ चाहे चल देता कष्टसहिष्णुता अधिक है उसका पारण मानव. था। पर नारी का तो घर था, बाल बच्चे थे और निर्माण के कार्य में प्राप्त हई कष्टसहिष्णता का था उसके आगे मानव-निमोणका महान कार्य. अभ्यास है। नर ने इसका काफी दुरुपयोग किया वह इतनी अस्थिर नहीं हो सकती थी। वह स्थिर है फिर भी नारी विद्रोह नहीं कर सकी और सह थी और स्थिर सहयोग ही चाहती थी । इसलिये 'योग के लिये पुरुष को ही स्त्रीचने की कोशिश पुरुष को सदा लुभाये रखने के लिये नारी की करती रही इसका कारण उसकी सन्तानवत्सलता
चेष्टा होने लगी, इसी कारण नारी में कलामयता था मानव निर्माण का कार्य है।
शृङ्गारप्रियता आदि गुणों का विकास हुआ । ___ मानव निर्माण के कार्य ने मारी में एक
इससे पुरुष का आकर्षण तो बढा ही, साथ ही तरह की स्थिरता या संरक्षणशीलता पैदा की।
उसका मूल्य भी बढ़ा उसमें आत्मीयता की मानव निर्माण या और भी विधायक कार्य प्रक्षुब्ध।
भावना अधिक पाई और वह नारी के बराबर वातावरण या अस्थिर जीवन में नहीं हो सकते,
तो नहीं, फिर भी बहुत कुछ स्थिर हो गया । उसके लिये बहुत शान्त और स्थिर जीवन चाहिये। इस प्रकार नारी के सन्तानवात्सल्य नामक इसलिये नारीन वर बसाया। चिड़ियाँ जैसे अडों
एक गुणने उसमें सेवा कोमलता सहिष्णुता के लिये घोंसला बनाती हैं और इस काम मे माग
स्थिरता अङ्गारप्रियता या कलामयता आदि अनक चिड़िया नर चिडिया का सहयोग प्राप्त करती है,
गुण पैदा किये । संगति और संस्कारों ने ये उसी प्रकार नारीने घर बसाया और नर का सह
गुण नारी मात्र मे भर दिये । सन्तान न होने योग प्राप्त किया।
१. पर भी बाल्यावस्था से ही ये गुण नारी में स्थान
. जमाने लगे । नारी के सहयोग से ये गुण पुरुप लव घर चना तब जीवन में स्थिरता आई में भी आये और ज्या ज्या मनुष्य का विकास उपार्जन के साथ सरह हुआ, भविष्य को चिन्ता होता गया त्यो त्यो इनका क्षेत्र विस्तृत होता गया हुई, इससे उबलता पर अंकुश पड़ा और यहा तक कि सन्तानवात्सल्य फैलते फैलते विश्वइस तरह समाज का निर्माण हुआ।
वन्धुत्व बन गया। 'नारी के सामने मानव-निर्माण घर बसाना, जगत में आज जो अहिंसा, संयम, प्रेम, समाज-रचना आदि विशाल कार्य आगये। अगर त्याग, सेवा, सहिष्णुता, स्थिरता, कौटुम्बिकता, मनुष्य पशु होता तब तो यह कार्य इतना विशाल सौदर्य, शोभा, कलामयता अादि गुणांका विकन होता, अकेली नारी ही इस कार्य को पूरा कर सित रूप दिखाई देता है उसका श्रेय नारी या डालती, पर मनुष्य पशुओं से कुछ अधिक या नारीत्व को है क्योंकि इनका बीजारोपण उसीने इसलिये उसका निर्माण कार्य भी विशाल था। किया है इसलिये नारी भगवती ई नारीत्व वन्दअकेली नारी इस विशाल कार्य को अच्छी नीय है। नारीत्व का अर्थ है म संवा सहि तरह न कर पाती इसलिये उसने पुरुष का सह- गुता कला आदि गुणों का समुदाय और योग चाहा । नारी घर स्त्री कारखाने में बैठकर मानव-निर्माण का महान कार्य ।। निमाण कार्य करने लगी और पुरुष सामान नारी की विशेष शरीर रचना के कारण जुटाना और संरक्षण कार्य करने लगा। इस जहाँ उस में उपयुक्त गुण आय वहाँ थोडी अवस्था में पुरुष सिर्फ सहयोगी श्रा, नारी माल- मात्रा में एक दोप भी आया । वह है आंशिक
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टिकाह
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रूप में शारीरिक निर्वलता । नारीशरीर के रक्त अपेक्षा सबलता अधिक अई। यह पुरुष का मांस द्वारा ही एक प्राणी की रचना होती है इस. विशेष गुण है। इस गुण ने अन्य गुण पैदा लिये यह बात स्वाभाविक्त थी कि पुरुष शरीर फी किये। सबलता से निर्भया पैदा हुई, घर के अपेक्षा नारी का शरीर कुछ निर्वल हो । इस बाहर भ्रमण करने के विशेष अवसर मिले, नारी निर्यलता में नारी का जग भी अपराध नहीं था के कार्य में संरक्षक होने से बाहिरी संघर्ण अधिक वल्कि मानव-जाति के निर्माण और संरक्षण के हुआ इन सब कारणों से उसकी बुद्धि का विकास लिये होनेवाले उसके स्वाभाविक त्याग का यह अधिक होगया, अनुभवों के बढ़ने से विद्वत्ता
अनिवार्य परिणाम था। वह निर्बलता उसके बहुत बढ़ी, वीरता साहस आदि गुणों का भी त्याग की निशानी होने से सन्मान की चीज है। काफी विकास हुआ। बाहरी परिवर्तन अर्थात्
यह भी स्वाभाविक था कि जैसे गुणों में बड़े-बड़े परिवर्तन करने की मनोवृत्ति और शक्ति वृद्धि हुई उसी प्रकार इस दोप में भी वृद्धि होती, भी इसमें अधिक भागई, नारी के छोटे से संसार सो वह हुई। पशुपतियों में नर मादा की शक्ति का इस विशाल विश्व के साथ सम्बन्ध जोड़ने में में जो अन्तर होता है उससे कई गणा अन्तर पुरुष का ही कत्त्व अधिक रहा। इस प्रकार मानव-जातिक नर मादा में है। गणों की पद्धि तो पुरुप नारीत्व के गुणों में पीछे रहकर भी अन्य उचित कही जासकती है पर यह दोपवृत्ति उचित अनेक गुणों में बढ़ गया। नहीं कही जा सकती। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को पुरुष में बल की जो विशेषता हुई उसने नारीत्व के गुण प्राप्त करने के लिये अधिक से अन्य अनेक गुणों को पैदा किया पर उसमें जो अधिक प्रयत्ल करना चाहिये पर नारीत्व के इस लापर्वाही का दोप था उसने अन्य अनेक दोषी सहज दोष से बचने की कोशिश भी करना को पैदा किया इसके कारण सवलता दोषो को चाहिये। नारी-शरीरधारी मनुष्य को इतनी ही बढ़ाने में भी सहायक हुई। निवेलता क्षम्य है जो मानव-निर्माण के लिये नारी को मानव-निर्माण के कार्य में पुरुष अनिवार्य हो चुकी है।
की आवश्यकता थी, पुरुष ने इसका दुरुपयोग और अब तो शारीरिक शक्ति भी सिर्फ मटी किया। रक्षक होने से, सबल होने से, बाहरी के वलपर निर्भर नहीं है। अब तो अस्त्रशस्त्रों के सगत से विशेष सम्बन्ध होने से वह मालिक . ऊपर निर्भर है। अगर बुद्धिमत्ता हो, जानकारी बन गया। पहिले उसकी लापर्वाही का परिणाम हो, हस्तकौशल हो, साहस हो तो अस्वशस्त्रों के यह होता था कि जब उसका दिल चाहता था सहारे निर्वल मी सबल का सामना कर सकता।
तब घर छोड़कर चल देता था, अब यह होने लगा है। इस प्रकार नारी को सहज निर्वलता अव ।
कि घर की मालकिन को अलग कर दूसरी को उतना अनिष्ट पैदा नहीं कर सकती है। अन्य लाने लगा। साधनों से वह पशुवल में भी पुरुष के समकक्ष कहीं कहीं इस ज्यादती को रोकने के लिये खड़ी हो सकती है। इस तरफ नारीका विकास लो प्रयत्न हया और उससे जो समझौता हुआ होना चाहिये । फिर भी जो निर्दालता रह जाय उसके अनुसार पहिली मालकिन को निकालना वह परोपकार का परिणाम होने से उसका अना. तो बन्द होगया पर उसके रहते दूसरी मालकिन दर न करना चाहिये, उसका दुरुपयोग भी कदापि लाने का अधिकार हो गया। घर से बाहर रहने न करना चाहिये।
के कारण उपार्जन का अवसर पुरुष को ही पुरुष को मानव-निर्माण के कार्य में नहीं अधिक मिला, इधर मालकिनों को बदलने या के बरावर लगना पड़ा, इसलिये उसमें भारी की निकालने या दूसरी लाने का अधिकार भी उसे
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सत्यामृत
मिला इस प्रकार नारी दासी रह गई और पुरुष स्वामी बन गया । अव उल्टी गंगा बहने लगी । पुरुष जो अज्ञात स्थानो में जाने का और बाहर की हर एक परिस्थिति के सामना करने का अभ्यासी था वह तो घरवाला बनकर घर में रहा, और नारी, जिसे घर के बाहर निकलने का बहुत कम अभ्यास था, घरवाली बनने के लिये अपना घर-पैतृक कुल छोड़ने लगी। खैर, कम से कम किसी एक को घर छोड़ना ही पड़ता, परन्तु खेद तो यह है कि एक घर छोड़कर भी वह दूसरे घर में घरवाली न बन सकी। वह दासी ही बनी। यद्यपि उसे पदवी तो पत्नी अर्थात् मालकिन की मिली पर वह पदवी अर्थशून्य थी। इसी प्रकार घरवाली की पदवी भी व्यर्थ हुई । पुरुष तो घरवाला रहा पर वह घरवाली के नाम से घर बनी। बड़े बड़े पडितो ने भी कहा - दीवार वगैरह को घर नहीं कहते घरaat को घर कहते हैं [गृह] हि गृहिणी माहुः न कुडयकटिसंहतिम - सागारधर्मामृत ] इस प्रकार मूल से जो घरवाले नहीं था वह तो घरवाला बन गया और जो घर वाली थी वह घर होकर रह गई।
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इस प्रकार नारी और पुरुष के गुणों ने जहाँ मनुष्य को हर तरह विकसित या समुबनाया उसी प्रकार इनके सहज टोपी ने मनुष्य को हैवान और शैतान बनाया। नारीत्व का मूल्य उसके गुण से है वह पुरुष को भी रूप नाने की चीज है और नारीत्व का जो दोप है वह नारी की भी छोड़ना चाहिये । पुरुषत्व का मूल्य उसके | से है वह नारी को भी अपनाना गु चाहिये। और पुरुष का जो दोष है वह पुरुष की भी छोड़ना चाहिये।
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जिसमें न तो नारीत्व के गुण है न पुरुपत्व अगर किसी एक के दोष
• वह नपुंसक है। भले ही वह शरीर से नपुं. एक न हो- स्त्री या पुरुष हो 1
२. एकलिंगी (ननगिर ) - जिसमें या तो गुण विशेष में है या नारीत्व के
यं
गुण, वह मनुष्य एकलिंगी है। किसी मनुष्य में कलाप्रियता सेवा आदि की भावना हो पर शक्ति विद्वत्ता आदि पुरुषोचित गुण न हो वह नारीत्ववान मनुष्य है भले वह शरीर से नारी हो, पुरुष हो या नपुंसक हो | इसी प्रकार जिसमें पुरुषत्व' के गुण हो परन्तु नारीत्व के गुण न हो वह पुरु पत्ववान मनुष्य है, भले ही वह नारी हो, नपुंसक हो या पुरुष हो । यह एकलिंगी मनुष्य अधूरा मनुष्य है मध्यम श्रेणी का है ।
प्रश्न- एकलिंगी मनुष्य पुरूष हो या नारी, इसमें कोई बुराई नहीं है परन्तु पुरुषत्ववती नारी और नारीत्ववान पुरुष, यह अच्छा नहीं कहा जा सकता । नारी, पुरुष बने और पुरुप, नारी बने यह तो लैंगिक विडम्बना है ।
उत्तर- ऊपर जो पुरुषत्व के और नारीत्व के गुण बताये गये हैं वे इतने पवित्र और कल्याणकारी हैं कि कोई भी उन्हें पाकर धन्य हो सकता है। अगर कोई मनुष्य रोगियों की सेवा करने में चतुर और उत्साही है तो यह नारीत्ववान पुरुष जगत् की सेवा करके अपने जीवन को सफल हो बनाता है उसका जीवन धन्य है । इसी प्रकार कोई नारी झाँसी की लक्ष्मीघाई या फ्रास की देवी जोन की तरह अपने देश की रक्षा के लिये शेत्र सञ्चालन करती है तो ऐसी पुरुपत्ववत्ती नारी भी धन्य है उसका जीवन सफल है कल्याणकारी है। इन जीवनों में किसी तरह से लैंगिक विडम्बना नहीं है। लैंगिक वि पना वहाँ है जहाँ पुरुष नारीत्र के गुणों का परिचय नहीं देता, कोई जनसेवा नहीं करता, किन्तु नारी का वेप बनाता है, नारी जीवन की सुविधाएँ चाहता है और नारी के ढंग से कामुकता का परिचय देता है। गुण तो गुण हैं उनसे जीवन सफल और धन्य होता है फिर वे नारीत्व के हो या पुरुषत्व के, और उन्हें कोई भी प्राप्त करे ।,
प्रश्न---नारीत्ववान पुरुष पुरुषत्व की विड
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दृष्टिका
२७
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म्बना भले ही न हो किन्तु यह वा कहना ही का क्षेत्र व्यापक और महत्वपूर्ण है। ची से पड़ेगा कि पुरुषत्ववान् पुरुप से वह हलके दर्जे ऊंची चित्रकारी, संगीत, नृत्य, पाकशास्त्र की का है इसी प्रकार नारीत्ववती नारी से पुरुषत्व. कंची से अंची योग्यता, मानव हृदय को सुसंवती नारी हीन है।
स्कृत बनाना शिक्षण देना, स्वच्छता, अनेक ____उत्तर--होनाधिकता का इससे कोई सम्बन्ध मनुष्यों के रहन सहन की सुव्यवस्था, प्रतिकूल नहीं है, इसका सम्बन्ध है युग की आवश्यकता परिस्थिति में शान्ति और व्यवस्था के साथ टिके से। किसी देशव्यापी बीमारी के समय अगर रहना, प्रेम वात्सल्य, मिष्टमापण, आदि अनेक रोगियों की सेवा मे कोई पुरुष होश्यार है तो वह गुण और कर्म नारीपन के कार्य है। राज्य का नारीत्ववान परुप का दर्जा किसी योद्धा से कम सेनापति यदि पुरुषत्ववान पुरुप है तो गृहसचिव नहीं है । राष्ट्र के ऊपर कोई प्राक्क्रमण हुआ हो नारीश्ववान पुरुष है ! नारी के हाथ में आज तो राष्ट्र रक्षा के लिये युद्ध क्षेत्र में काम करने कहाँ क्या रह गया है यह बात दूसरी है पर वाली पुरुषत्ववती नारी किसी नारीत्ववती नारी नारीत्व का क्षेत्र उतता संकुचित नहीं है । उसका से कम नहीं है 1 आदर्श तो यही है कि प्रत्ये। क्षेत्र विशाल है और उच्च है । इसलिये नारीत्व मनुष्य मे दोनों की विशेषताएँ हों, वह उभय- को छोटा न समझना चाहिये और इसीलिये लिंगी हो, परन्तु यदि ऐसा न हो तो अपनी रुचि नारीत्ववान पुरुष भी छोटा नहीं है ! हाँ इस बात योग्यता और राष्ट्र की आवश्यकता के अनुसार का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि समाज को किसी भी लिंग का काम कोई भी चुन सकता है। इस समय किसकी अधिक आवश्यकता है?
- कोई कोई पुरुष बच्चों के लालन-पालन में आवश्यकता के अनुसार गुणों और कार्यों को इतने होश्यार होते हैं कि नारियों से भी बाजी अपनाकर हरएक नर और नारी को अपना मार ले जाते हैं, बहुत से पुरुष रंगमंच पर अनेक जीवन सफल बनाना चाहिये। रसों का ऐसा प्रदर्शन करते हैं और कलात्मक प्रभ-यदि पुरुष में भी भारीपन उचित है जीवन का ऐसा अच्छा परिचय देत है कि अनेक और नारी में भी पुरुपपन उचित है तो पुरुष अभिनेत्रियों से बाजी मार ले जाते हैं, और भी ओ भी लम्बे बाल रख कर नारियों सरीमा अनेक लियोचित कार्य हैं जिनमें बहुत से पुरुष शृङ्गार करना, साड़ी आदि पहिनना उचित निष्णात होते हैं एसे कार्य करनेवाले नारीत्ववान् समझा जायगा और इसी प्रकार स्त्रियों का पुरुषोपुरुष पुरुपत्ववान पुरुष से छोटे न होंगे। चित वेप रखना भी उचित समझा जायगा। क्या : नारीत्ववान पुरुष हमें छोटा मालूम होता इससे लैंगिक विडम्बना न होगी ! है इसका कारण है कि युगोस पूनीवाद साम्राज्य उत्तर-अवश्य ही यह विडम्बना है पर बाद आदि के कारण बाजार में नारीत्व के कार्यों यह नारीत्ववान पुरुष का रूप नहीं है। का मूल्य कम होगया है इसलिये पुरुपखवाली अमुक तरह का वेप रखना भारीपन या पुरुषपन नारी का हम सन्मान करते हैं और नारीत्ववान नहीं है 1 नर और नारी के क्षेप में आवश्यकता. पुरुप को या नारीत्ववती नारी को हम जुद्र घष्टि नुसार या सुविधानुसार अन्तर रहना उचित है। से देखते हैं। यह नारीत्व के विषय मे अज्ञान है। नारीपन या पुरुषपन के जो गुण यहा बतलाये ___घर में झाडू दे लेना, बच्चे को दूध पिला गये है उन गुणों से हरएक मनुष्य [नर यो नारी । देना या नाचना गाना ही नारीपन नहीं है और अपना और जगत का कल्याण कर सकता है साधारण,नारी इन कार्यों को जिस ढंग से करती परन्तु नर नारी की या नारी नर की पोशाक है उतनेमें ही नारीपन समाप्त नहीं होता। नारीपन पहिने इससे न तो उनको कुछ लाभ है न दूसरी
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सत्यामृत
रक्षा
को। बल्कि इससे व्यवहार में एक भ्रम पैदा क-युद्ध क्षेत्र आदि में अगर कुछ काम होता है।
करना पड़े और परिस्थिति ऐसी हो कि नारी को ___ नर नारी की पोशाक में कितना अन्तर होते
र पुरुष-वेप लेना ही कार्य के लिये उपयोगी हो तो देशकाल के अनुसार उनमे परिवर्तन होकि नहीं एसा किया जासकता है, हो, हो तो कितना होनारी पुरुष-वेप की तरफ ख-अन्याय या अत्याचार से बचने के लिये कितनी मुके, पुरुष नारी वेष की तरफ कितना वेप परिवर्तन की आवश्यकता हो तो वह शम्य है। मुक्त श्रादि बातों पर विस्तार से विचार किया ग-रंगमंच आदि पर अभिनय करने के जाय तो एक खासी पुस्तक बन सकती है। यहां लिये अगर नर को नारी का या नारी को नर का उतनी जगह नहीं है इसलिये यहां इस विषय में क्षेप लेना पड़े तो यह भी सम्य है। कुछ इशारा ही कर दिया जाता है।
ध-जनसेवा, न्यायरक्षा आदि के लिये गुप्त१-वारी और नर की पोशाक में कन घर का काम करना पड़े और वेप-परिवर्तन कुछ अन्तर होना उचित है। नारी ऐसा वेप ले करना हो तो वह भी क्षम्य है। कि देखने से पता ही न लगे कि यह नारी है इस प्रकार के अपवादों को छोड़कर नर
और नर ऐसा वेष ले कि देखने से पता हीन नारी की पोपाक में कुछ न कुछ अन्तर रहना लगे कि यह नर है, यह अनिचित है । साधारणत: चाहिय। वप अपने लिंग के अनुसार ही होना उचित है। २-वेप जलवा और कार्यक्षत्र के अनुसार इसका एक कारण यह है कि इससे नर नारी में होना उचित है। गरम देशों में जो वेप ठीक हो जो परस्पर लैंगिक सन्मान और सुविधा प्रदान सकता है वही ठंडे देशों में होना चाहिये यह नहीं आवश्यक है उसमें सुविधा होती है। अनावश्यक कहा जासकता या एक ऋतु में जो प चित और हानिकर लैंगिक सम्बन्ध से भी बचाध कहा जासकता है वही दूसरी में भी उचित है होता है। दूसरी बात यह है कि नर और नारी यह नहीं कहा जासकता । मानलो किसी देश में को मानसिक सन्तोष अधिक होता है। नारियों साधारणत. साड़ी पहिलती है पर शीत
___नारी अधूग मनुष्य है और नर भी अधम ऋतु में ठंड से बचने के लिये उनने अनी कोट मनुष्य है दोनों के मिलने से पूरा मनुष्य बनता पहिन लिया या बरसात में पानी से बचने के है इस प्रकार के एक दूसरे के परक है। शारीरिक लिये बरसाती कोट पहिन लिया वो कोट, साधा. दृष्टि से उन दोनों में जो विषमता है वह इस पर. रणत: पुरुष की पोपाक होनेपर भी, उक्त अवसरों कवा के लिये उपयोगी है। वेष की विषमता पर नारी के लिये भी वह अनुचित न कहा शारीरिक विषमताका श्रृंगार है या इसे बनानेवाली जायगा। है और शारीरिक विपमता पूरकता का कारण है ३-नर और नारी के वेष में कुछ वैषम्य
३-नर और नारा इसलिये वेष की विषमता भी पूरकता का कारण रहने पर भी यह आवश्यक नहीं है कि एक दूसरे है। एक नारी का हृदय नारी-वेषी पुरुष से इतना के क्षेप की अच्छाइयाँ ग्रहण न की जायें। सौन्दर्य सन्तुष्ट नहीं होता जितना पुरुष-वेषी पुरुष से। और स्वच्छता की दृष्टि से एक दूसरे के वेप की इसी प्रकार एक पुरुष का हृदय पुरुष वेपी नारी बाव ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है। उदाहरसे इवना, सन्तुष्ट नहीं होता जितमा नारी-वेपी णार्थ एक दिन ऐसा था जब हरएक पुरुष अपनी नारी से इसलिये अमुक अंश में वेप की विष- बादी पर के बाल सुरक्षित रखता था, अब भी मता जरूरी है। हाँ, इस नियम के कुछ अपवाद बहुत से लोग रखते हैं पर उन वालों से सफाई
में कुछ असुविधा होती है, सौन्दर्य भी कुछ कम
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अधिकार
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रहता है इसलिये दाढ़ी के बाल बनवाने का गुणाभाव हुआ काता है इसलिये नारी नर से रिवाज चल पड़ा। धीरे धीरे यही बात मूछों के हीन हैविपय मे हई, मछ मुड़ाने का रिवाज भी बन १ निर्बलता, २ मूढ़ता, ३ भायाचार, गया। बहुत से शास्त्रों के अनुसार तो यह भी ४ भारता, ५ विलासिता, ६ अनुदारता, ७ कलकहा जाने लगा कि देव तथा दिव्य पुरुषों के हकारिता, ८ परापेक्षता, दीनता, १० रूढ़िमूछे नहीं होती, दाढ़ी पर वाल नहीं होते । पुरुप प्रियता, ११ नुद्रकर्मता, १२ अधैर्य आदि दोपों
ने नारी वेष का नो यह अनुकरण किया वह के कारण नारी नर से हीन ही कही जायगी। । स्वच्छता आदि की दृष्टि से उचित ही कहा जा एक बात यह भी है कि नारी उपभोग्य है और सकता है।
पुरुप उपभोक्ता है इसलिय भी नारी होन है। . वेप के विषय में ये खास खास सूचनाएं .. उत्तर-नारी मे स्वभाव से कौन से दोप है इनका पालन होना चाहिये । वाकी लिंगजीवन है इसका विचार करने के लिये सिर्फ एक घर पर के प्रकरण में नारीत्व और पुरुषत्वका वेपसे कुछ था किसी समय के किसी एक समाज पर नजर सम्बन्ध नही है. न शरीर-रचनासे मतलब है। डालने से ही काम न चलेगा। इसके लिये उसके द्वारा तो मानव-जीवन लिये उपयोगी विशाल विश्व और असीम कालपर नजर डालना
पड़ेगी। इस दृष्टि से उपयुक्त दोषो का विचार गुणों को दो भागों में विभक्त करके बतलाया है
और हरएक मनुष्य को कम से कम किसी एक यह किया जाता है। भाग को अपनाने की प्रेरणा है। एक भी भाग १-निर्बलता ( नेटु'गिरो)- इसके विषय में को न अपनाने पर उसमें नपुसकत्व आजायगा। पहिले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। निर्मलता
प्रश्न-लैंगिक जीवन के श्रापने तीन भेद अनेक तरह की है। उनमे से मानसिक या वाचकिये हैं पर स्पष्टता के लिये यह जरूरी था कि निक निकाला
निक निर्मलता नारी में नहीं है, कायिक निर्मलता उसके चार भेद किये जाते । नप सक जीवन, स्त्री. है, परन्तु वह भी बहुत थोडी मात्रामें, उसका कारण जीवन, पुरुष-जीवन और उभय लिंगी जीवन ।
सन्तानोत्पादन है । सन्तानोत्पादन मानव-जातिके स्त्री-जीवन और पुरुष-जीवन को मिलाकर एक
जीवनके लिये अनिवार्य है और उसका श्रेय [ सौ लिंगी जीवन के नाम से दो भेदों का एक भेद
मे निन्यानवे भाग] नारीको है। इस उपकार के क्यों बनाया
कारण आनेवाली थोडी बहुत शारीरिक निर्बलता ।
हीनता का कारण नहीं कही जासकती । जैसे उत्तर-जीवनदृष्टि अध्याय में जीवन का
ब्राह्मण और क्षत्रिय है। ब्राह्मण अपनी बौद्धिक श्रेणी-विभाग बताया गया है । नपुंसक जीवन से
शक्ति द्वारा समाज की सेवा करता है और क्षत्रिय एकलिंगी जीवन अच्छा है, एकलिंगी जीवन से शारीरिक शक्ति द्वारा। इसलिये क्षत्रिय बलवान उमयलिंगी जीवन अच्छा है इस प्रकार श्रेणी होता है पर इसीलिये क्या ब्राह्मण से क्षत्रिय उच्च विभाग बनजाता है परन्तु स्त्री-जीवनसे पुरुपजीवन होगा? ब्राह्मण की शारीरिक शक्ति शुद्ध से भी अच्छा इस प्रकार का श्रेणी-विभाग नहीं बनता, कम होगी, वैश्य से भी कम होगी परन्त इसी. इसलिये ये अलग अलग भेद नही बनाये गये । लिये वह सब वर्णो से नीचा न हो सकेगा। यह
प्रश्न-नारी और नर मनुष्यत्व की दृष्टि से निर्बलता बौद्धिक सेवा के कारण है। जो निर्व समान हैं। ऐसी भी नारियाँ हो सकती है जो लता समाज की भलाई करने का फल हो वह बहुत से नरों से उच्च श्रेणी की हो पर टोटल हीनता का कारण नहीं कही जासकती। नारी मिलाया जाय तो यह कहना ही पड़ेगा कि नारी की निर्बलता मानव-जाति के रक्षणरूप महान से से नर श्रेष्ठ है। नारी में निम्नलिखित दोष या महान कार्य का फल है इसलिये वह हीनता का
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ADA
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कारण नहीं कही जा सकती।
न्चक ही वास्तविक मायाचार है बाकी ज्ञान दूसरी बात यह है कि नारी की यह अधिक भेदों मे तो सिर्फ मायाचार का शरीर है निर्बलता सामाजिक सन्यवस्था के लिये किये मायाचार का श्रास्ता नहीं है। उससे गय कार्यक्षेत्र के विभाग का फल है। अगर कार्य- दूसरों के न्यायोचिन अधिकारी को धधा क्षेत्र का विभाग बदल जाय दो अवस्था उल्टी हो नहीं लगता इसलिये वे निन्दनीय नहीं कहे जा जाय 1 बाली द्वीप में व्यापार खेती आदि सभी सकत । काम नारियों ही करती हैं इसलिये वे तीस तीस लज्जासनित माथाचार (निजोजकटो) चालास चालीस फुट के माड़ा पर एक हाथ से किसी को ठगने की दृष्टि स नहीं होता, वह एक लटक कर दूसरे हाथ से फल तोड़ सकती हैं, तरह की निबलता या संकोच का परिणाम होता बहादुरी के सब काम वे ही करती है। जबकि हैं। बहुतसी नववधु श्री में यह पाया जाता है। पुरुष घर में रहते हैं रोटी.चनात मान बहुत से लड़ा लडाकयों विवाह के लिये इछुक स्त्रियो से वे ऐसे ही डरते हैं जैसे दूसरे देशो मे
९. हो नो भी लज्जावश उससे इनकार करेंगे, उससे खिया पुरुपा से डरती हैं। इसलिये नर नारी में
दूर भागने का ढोग करेंगे। यह लज्जाजनित बन की बात को लेकर होनाधिकत्ता बताना ठीक
मायाचार कहीं कहीं नारी में कुछ विशेष मात्रा में
ना गया है । यह पर्वा श्रादि कुप्रथाओं का, बदन नहीं।
काल से डाले गय सरकार का और कार्यक्षेत्र के २-मूढता ( ऊतो)- साधारण नारी उतनी भेट का परिणाम है, नारी का मौलिक दोय नहीं ही मूढ़ होती है जिवचा कि साधारण नर । हा, है। और जबतक यह अतिमात्रा में नहीं हो, जो पुरुष विद्याजीवी या बाह्य जगत से विशेष जीवन के कार्यों में अईगान डाले तबतक तो सम्पर्कचाले होते हैं और उनके घर की त्रियों यह सन्दर भी है, आकर्षण की कला भी है, काम इसी कोटि की नहीं होती तो उनकी दृष्टि में वे काना है. हिसक नहीं है । मूढ कहलाती हैं। अन्यथा एक ग्राम्य नारी और प्राम्य पुरुष का मूढदा में कोई खास अन्तर नही
ख-शिष्टाचारी मायाचार (नुमं कुटो ) भी पन्तव्य है। जब एक मुसलमान भोजन करने
बैठता है तब पास में बैठे हुए आदमी से, ग्यास __जहा नारी को विद्योपार्जन तथा बाहिरी कर मुसलमान से कहता है- आइये, बिस्मिन्ना सम्पर्क का विशेप अवसर मिलता है वहा नारी' कीजिये । यह प्रेम-प्रदर्शन का एक शिष्टाचार है। चतुरता या समझदारी के क्षेत्र में पुरुष से कम हिन्दुली में भी कही कहीं पानी के विषय में ऐसा नहीं रहती।
शिष्टाचार पाया जाता है। एक भोज में बहुत से " ३ मायाचार ( कटो)- नारी में मायाचार हिन्दू बैठे हैं एक सज्जन पानी पीने के लिये न पुरुप से अधिक है न कम और न सभी अपन लोटे में से कटोरी में पानी भरते हैं और तरह का मायाचार धुरा कहा जा सकता है। सत्र से कहते है लीजिये लीजिये। (अब यह मायाचार जहा हूं प और हिंसा से सम्बन्ध रखता
शिष्टाचर प्रायः बन्द हो गया है) निसन्देह वे है वहीं वह मायाचार कहा जाता है, अन्यथा
समझते हैं कि पानी कोई लेगा नहीं, और यही बहुतसा मायाचार तो शिष्टाचार और दया आदि
समझ कर बताते हैं, इसलिये यह मायाचार है, का फल होता है । मायाचार कई तरह का होता परन्तु शिष्टाचारी भायाचार होने से क्षन्तव्य है। है। क--जज्जाजनित, ख-शिष्टाचारी, ग-राह- ऐसे शिष्टाचार कितने अंश में रखना चाहिये स्थिक, ध-तथ्य शोधक, र-आत्मरक्षक, च-प्रति- कितने अश में नहीं, यह विचार दूसरा है पर घोधक, छ-विनोदी, ज-ज्वञ्चक । इनमें से प्रव. जो भी शिष्टाचार के नाम पर रह जाय उसमें
होता।
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दृष्टिकाड
[२४१]
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अगर सा मायाचार हो तो वह क्षमा करने पड़ता है वह प्रतियोबक मायाचार (बोज कूटो) योग्य है । यह शिष्टाचारी मायाचर नर नारी में है। यह बड़े बड़े महापुरुषों में भी पाया जाता बराबर ही पाया जाता है इससे नारी को दोप है धल्कि उनमें अधिक पाया जाता है, यह तो नहीं दिया जा सकता।
महत्ता का द्योतक है । हो, इसका प्रयोग निस्वा. ग-हस्यिक मायाचार (हहि कटो) ता और योग्यता के साथ हो। जन्तव्य ही नहीं है बल्कि एक गुण है। मानलो छ-हँसी विनोद में सब की प्रसन्नता के पति पत्नी में कुछ झगडा हो रहा है इतने में लिये जो मायाचार किया जाता है वह विनोदी बाहर से किसी ने द्वार ग्वटरबटाया। पति पत्नी ने मायाचार (हशं कूटो) है। यह भी क्षन्तव्य है। इस विचार से कि बाहर के यादमी को दोनों के नर नारी में यह समान ही पाया जाता है। झगडे का पता कदापि न लगने देना चाहिये न ज-प्रवचक मायाचार ( चीट कूटो) वह है दोनों के बीच से तीसरे को वसंदाजी का मौका जहाँ अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को धोखा दिया देना चाहिये, अपना झगड़ा छिपा लिया और जाता है विश्वासघात किया जाता है। यही मायाइस प्रकार प्रसन्न मुख से दरवाजा खोला माना चार वास्तविक मायाचार है, पाप है, घृणित है। दोनों में कोई विनोद हो रहा था । यह राहस्थिक यह सनथा त्याज्य है। भायाचार गुण है जोकि नर और नारी दानों में ऊपर के सात तरह के मायाचारों में तो पाया जाना है, और पाया जाना चाहिये। सिर्फ इतना ही विचार करना चाहिये कि उनमे
घ-कभी कभी शिष्टाचार और वस्तुस्थिति अति न हो जाय, उनका प्रयोग वेमौके न हो का पता लगाने के लिये मायाचार करना पड़ता जाय, या इस ढंग से न हो जाय कि दूसरो की है, जैसे किसी के घर जाने पर घरवाले ने कहा परेशानी वास्तव में बढ़जाय और उनको नुकसान पाइयं भोजन कीजिये। अब यह पता लगाने के उठाना पड़े। कुछ समझदारी के साथ उनका लिये मना कर दिया कि इसने सिर्फ शिष्टाचार- प्रयोग होना चाहिये बस, इतना ठीक है। सो वश भोजन के लिये कहा है या वास्तव में इसके इनके प्रयोग में नर नारी में विशेष अन्तर यहा भोजन कराने की पूरी तैयारी है। अगर नहीं है। तैयारी होती है तो वह दूसरे धार इस ढंग से आठवा प्रवचक मायाचार किस में अधिक अनुरोध करता है कि वस्तु-स्थिति समझ में आ कहा नहीं जासकता ? परन्तु यह ध्यान में जाती है, नहीं तो चुप रह जाता है। यह माया- रखना चाहिये कि यह मायांचार निर्णलता का चार तथ्य-शोधक (लसिको हिर) है क्योंकि परिणाम है ! मनुष्य जहाँ क्रोध की निष्फलता इससे अनुरोध करनेवाले की वस्तुस्थिति का समभालेता है वहा मायाचार का प्रयोग करता पता लगता है। यह अगर नारी में अधिक हो है। पीड़कों मे क्रोध की अधिकता होती है पीड़ितों
तब नो उसकी विवेकशीलता ही अधिक सिद्ध मे मायाचार की। अगर कहीं नारी में थोड़ा - होगी।
बहुत मायाचार अधिक हो तो उसका कारण यह -अन्याय और अत्याचार से बचने के है कि नारी सहसादियों से पीड़ित है। जब वह लियो मायाचार किया जाता है वह आत्म- क्रोध प्रगट नहीं कर सकती तब नरम पड़कर रक्षक (एम रच) है। यह नर नारी में बगबर मायाचार से काम लेती है। यह परिस्थिति का है और चन्तन्य है।
प्रभाव है, स्वभाव नहीं। जहा उसे अधिकार है, च-किसी आदमी को समझाने के लिये या वल है, लापर्वाही है वहा वह मायाचार नहीं उसकी भलाई करने के लिये जो मायाचार करना करती क्रोध करती है और तब दुनिया से उग्र
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सत्यामृत
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या निर्लज्ज कहने लगती है। इन बातों का रानियों भी राजाओं की तरह वीरता दिखाती परभाव जैसा नर पर पड़ता है वैसा ही नारी पर। थीं और युद्ध सचालन करती थीं। परन्तु जब दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है। राजा श्रीया और उसे मालूम हुआ कि रानी ने
४-भीमता (डिहीरो)- यह निर्वलता का इतनी वीरता दिखाई है तब उसे बड़ा क्रोध परिणाम है । निर्बलता के विषय में पहिले कहा आया। उसने सोचा कि शीलवती स्त्रियों में जा चुका है। अधिकाश निर्वलता जैसे कृत्रिम है इतनी अक्ल नहीं हो सकती । इससे उसने रानी इसी प्रकार भीरुता भी कृत्रिम है। जहाँ स्त्रियों का महिपीपट छीन लिया। इसके बाद दिव्ययोग अथोपार्जन करती है वहा उनमें भीरता पुरुष से से रानी की शील की परीक्षा हुई और उसमे वह बहुत अधिक नहीं है।
सच्ची निकली इत्यादि कथा है। आर्थिक दृष्टि से मध्यम या उत्तम श्रेणी के इस कथा से इतना तो मालूम होता है कि कुटुम्यों में ही यह 'भीरता अधिक पाईजाती है एक दिन शन्नाणियों में वीरता होना पुरुषों की क्योकि अर्थोपार्जन के क्षेत्र में उन्हे बाहर नहीं दृष्टि में शीलभंग का चिह्न समझा जाने लगा था। जाना पड़ता इसलिये बाहर के लिये उनमें मीरता भीरुता की तारीफ होने लगी थी। उनकी वीरता बहुत भागई। इसके अतिरिक्त एक बात यह आत्महत्या | जौहर ) में समाप्त होने लगी थी।
और हुई कि इस श्रेणी के पुरुप भी खियों को इस प्रकार जहाँ भीरुता की तारीफ और वीरता अधिक पसन्द करने लगे। क्योंकि नारियों को से घृणा होने लगी हो, वीरता अकुलीनता अपनी कैद में रखने के लिये भीरुता की वेडी (रुजजो) और शीलहीनता (नेमिनो) का सर से अन्छो वेडी थी। इससे पुरुप बिना किसी चिह्न समझी जाने लगी हो, वहाँ नारी अगर विशेष कार्य के नारी की दृष्टि में अपनी उपयो. भीरु हो गई तो उसमें उसका कोई स्वभावदोप गिता सावित करता रहता था।
नहीं कहा जा सकता। इतना ही कहा जासकता नारी को भीरु बनाये रखने के लिये भीरुता
है कि शताब्दियो तक पुरुपो ने जो पड्यन्त्र किया की तारीफ होने लगी। भोक या
वह सफल हो गया। यह नारी का स्वभाव-दोप से अच्छा संबोधन माना जाने लगा। मौरे से नहीं है, कृत्रिम है, शीघ्र मिट सकता है। हरकर प्रेयसी प्रियतम को सहायता के लिये ५-विलासिता (चिंगीरो)- यह दोनों का पुकारती है यह काव्यशास्त्र का सुन्दर वर्णन घोष है। कहीं नर में यह अधिक होती है कहीं समझा जाने लगा। पतन यहा तक हआ कि नारी में । विलासप्रियता बढ़ने के यों तो अनेक
कारण है पर एक मुख्य कारण मार्थिक है। जहा रिपेणकृत जैन पद्मपुराण की एक नारी सम्पत्ति की मालकिन नहीं है वहा उसमें गुम याद आती है कि नघप नाम का राजा राज्य उत्तरदायित्व कम हो जाय यह स्वाभाविक है। का भार अपनी पानी मिहिका हाथ में जिस प्रकार दूसरे के यहा भोज में गये बादमी सापका उत्तर दिशा में दिग्विजय के लिये निकला खूब लापर्वाही से बाते हैं, नुकसान की चिन्ता पर पाक्षिण दिशा के गजानो ने राजधानी नही करत, उसी प्रकार उस नारी में एक प्रकार पर श्रामण कर दिया। रानी ने सेना लेकर की लापर्वाही आ जाती है। जो मालकिन नहीं है योग्ता में उनका सामना किया, न्या . वह सिर्फ अधिक से अधिक विलास को पात PRATEET उसने मणि को नरफ विजय सोचनी है, अकर्मण्य और श्रामसी बनती है। यात्रा भी की श्री सत्र राजाओं को जीनकर नारिया में जो श्राभूपणप्रियता पाई जाती पानी में श्रागई। इसमें मालूम होता है कि उसका कारण भंगार या बडापन दिखाने की
भौमता सतीत्व समझा जाने लगा।
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भावना ही नही है किन्तु आर्थिक स्वामित्व की आकांक्षा भी है, बल्कि यही कारण अधिक है । अन्य सम्पत्ति पर तो सारे कुटुम्ब का हक रहता है और उसकी मर्जी के विरुद्ध सहज में ही उसका उपयोग किया जा सकता है इसलिये नारी भूषणों के रूप में सम्पत्ति का संग्रह करती है। इसे भी 1. लोग विलास कहते हैं जब कि इसका मुख्य कारण आर्थिक है।
विलास-प्रियता का एक कारण और है कि श्रार्थिक पराधीनता प्राप्त नारी को पुरुष ने अपने विलास की सामग्री बनाया। अगर नारीमे विलास नहीं मिला तो पुरुष इधर उधर आखे डालने लगा इसलिये भी नारी को विलासिनी बनना पड़ा । पुरुष भी इसे पसन्द करता है । वह इससे घृणा करता है तभी, जब विलास के वह साधन नही जुटा सकता या उसके अन्य कामों में बाधा श्राती है। इसलिये विलासिता का दोप केवल नारीपर नहीं डाला जा सकता, इसका उत्तरदायित्व व्यापक है, सामाजिक है।
६ अनुदारता (नोमंचो ) - नारी का कार्य - क्षेत्र घर है इसलिये उसके विचारों में संकुचि तता आ गई है । यह नारीत्व का दोष नहीं है, कार्यक्षेत्र का दोष है। आम तौर पर पुरुषों में भी यह क्षेष पाया जाता है । एक बात यह है कि नारीका सन्तान के साथ घनिष्ट सम्पर्क होने से पहिले वह इस छोटे से संसार को बना लेना चाहती है, अमुक अश मे यह आवश्यक भी है। फिर भी अनुदारता कम करने की जो जरूरत है उसकी पूर्ति वहां जल्दी हो जाती है जहा नारी घर के बाहर काफी निकलती है और थोड़े बहुत अशो में सामाजिक आदि व्यापक कार्यों में भाग लेती है।
७ कलहकारिता (बूरी ) - यह पुरुषों और नारियो में एक समान हैं। घर के बाहर रहने से पुरुष के हाथ में बडी शक्तिया श्रा गई है इसलिये वह कलम से और तलवारो से कलह करता है, नारिया मुड से कलह करती हैं। पुरूष को घर के काम नहीं करना पडते इसलिये वह धरू कलह
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को क्षुद्र कह कर हसता है । पर जब उसे घरू काम करना पडता है तब यह हँसी बन्द हो जाती हैं। मैंने देखा है कि जब पुरुष को काफी समय तक नारियो के समान घरू काम करना पड़ते हैं। तब वह भी उन बातों में कलहकारी बन जाता है। कलह बुरी चीज है पर वह नर नारी दोनों में है । नारीनिन्दा से पुरूप निर्दोष नहीं हो सकता, दोनों को अपनी कलहकारिता घटाना चाहिये और छोटी छोटी बानों में कलह न हो इसके लिये यह जरूरी है कि नारीके हाथ में बड़ी बातें भी आयें जिसमे कलह-शक्ति का रूपान्तर किया
जाय !
जैसे एक नारी व्याख्यान देना और लेम्ब लिखना जानती हो तो इसका स्वाभाविक परिग्राम होगा कि उसकी कलह शक्ति सैद्धान्तिक विवेचन और तार्किक खंडन मंडन में बदल जायगी और कलह के छोटे छोटे कारणों पर वह उपेक्षा करने लगेगी। मतलब यह है कि कलहकारिता नर श्रादि का है। उसे रूपान्तरित करने की जरूरत नारी में समान है। जो भेद है वह कार्यक्षेत्र है जिससे वह क्षुद्र और हानिकर न रह जाय ।
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८ परापेक्षता ( चुमटिगो ) - प्राणीमात्र पग पेक्ष हैं, खास कर जहाँ समाज रचना है वहाँ परापेक्षता विशेष रूपये है। वह नर में भी हैं और नारी मे भी है । फिर भी अगर नारीमें पुरुष से कुछ अधिक परापेक्षता है तो उसका कारण वह भीरुता और प्रथोपार्जन को शक्ति है जो समाज ने व्यवस्था के लिये उसपर लाइ है यह स्वतंत्र टोप नहीं है। टी है। यह दो अन्य कृत्रिम दोषोंपर आश्रित
६. दीनता (नही) - इसका कारण भी समाज की वह आर्थिक व्यवस्था है जिसने नागरीको कंगाल बनाया है ।
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१० रूढिमोह ( रुलुट्टो मुही ) यह दोनों मे है, यह मनुष्यमात्र का दोप है। नारियों में अगर कुछ विशेष मात्रा में है तो इसका कारण शिक्षण तथा जगत के विशाल अनुभव का अभाव है
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यह कमी पूरी हो जाने पर रूढिमोह नष्ट हो सिर्फ उपमोग्य होती तो नर नारी के मिलन का सकता है।
सुख और इच्छा सिर्फ नरमे होती, नारी में नहीं, ११ जुद्रकर्मता ( की तकनो)-नारी को जो परन्तु दोनों में इच्छा होती है, सुख होता है इसकार्यक्षेत्र दिया गया उसमें वह सफलता से काम ।
लिये जैसा नर उपभोक्ता है वैसे नारी भी । इसी.
लिये व्यभिचार आदि जैसे नर के लिये पाप हैं कर रही है, अगर घडे काम दिये जाय या जहा।
वैसे नारी के लिये भी । नारी अगर उपभोग्य ही दिये जाते है वहा भी वह सफलता से काम करती
हो तो वह व्यभिचारिणी कमी न कहलावे, वह है, साथ ही उद्योग धंधो और व्यापार में तो वह
सिर्फ व्यभिचार्य ही बन सके, जैसे चोरी में पुरुष के समान हो ही जाती है। सेना पुलिस आदिक कामोंमें भी वह सफल होती है। इसलिये मनुष्य ही चोर कहलाता है धन चोर नहीं कहा
लाना । इस प्रकार किसी भी तरह पुरुष उप क्षुद्रकर्मता उसका स्वभाव नहीं कहा जा सकता ! दसरी बात यह है कि नारी का काम क्षुद्र
भोक्ता और स्त्री उपभोग्य नहीं हो सकती। जो
का है दोनो समान है। नहीं है । मनुष्य निर्माण का जो कार्य नारी को करना पड़ता है वह पुरुप को नहीं करना पड़ता
__ इस प्रकारक और भी दोप लगाये जासकेगे
और उनका परिहार भी किया जासकेगा। परन्तु मारी के इस कार्य का मूल्य तो है ही, धरू कामो
इसका यह मतलब नहीं है कि नारी सर्वथा का मूल्य भी आर्थिक दृष्टि से कम नहीं है।
निर्दोष है और पुरुष ही दोपी है। दोनों मे गुण .. पुरुप के मूल्य की महत्ता साम्राज्यवाद और है, दोनोमें दोष हैं । परिस्थितिवश और चिरकाल पूजीवाद के कारण है। इनक कारण मनुष्य बद संस्कारवश किसी में एक दोप अधिक होगया माशी, बेईमानी, विश्वासघात, ऋ रवा आदि के है और किसी में कोई दूसरा । मौलिक दृष्टिस बदले में सम्पत्ति पाता है। ये पाप हट जाय और दोनो समान है। सेवा तथा त्याग के अनुसार ही यदि मनुष्य का नर नारी का कुछ अन्तर तो आवश्यक है आर्थिक मल्य निश्चित किया जाय तो नर नारी यह रहना चाहिये और रहेगा भी कुछ अन्तर का आधिक मूल्य समान ही होगा । इसलिये अनावश्यक या हानिकर है वह मिटना चाहिये क्षुद्रकर्मता नारी का स्वभाव नहीं कहा जा अन्त में कुछ विशेषता नारी मे रह जायगी और सकता।
कुछ नर में, इस प्रकार उनमे कुछ आवश्यक १२ अधैर्ग ( नोधिरो)- इस विषय में तो ।
र विषमता रहेगी परन्तु उससे उनका दर्जा असमान
होगा। पुरुप की अपेदा नारी ही श्रेष्ठ होगी। पुरुप जब प्रवरा जाता है तब नारी ही उसे पर्स देती है। तो व्यक्तित्व गौण है इसलिये उनके समान दर्ज
नारीत्व और पुरुषत्व तो गुणरूप है उस में सहिष्णुता नारी में पुरुप की अपेक्षा भी अधिक
पर तो आपत्ति है ही नहीं। है इसलिये उसमें धर्म अधिक हो यही अधिक
इन कारणों से लिंगजीवन के चार भेद नही न सम्भव है । र, इस विषय में पुरुप अधिक हो किय गये क्योकि नारीजीवन और नग्जीवन में
या नारी, पर यह सब अधिकता जन्मजात नई तरतमता नहीं हो सकती थी ! है जिसमे नारी नर के साथ इस का सम्बन्ध
पनतरत्व और नारीत्व भले ही समान सोदा तास।
हो परन्तु इनकी समानता के प्रचार से समाज १३-३पभोग्यता (बशगेगे)- उपभोग्य नाग की बड़ी हानि है। सस्कृन की एक कहावत है मी और नर भी। दोनों गम दृसरे के उपभोग्य कि लदा कोई मालिक नहीं होता या जहा बहुत उपभोगा, मित्र और सायोगी हैं। अगर नारी मालिक होते हैं वहा विनाश होजाता है (अना
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दृष्टिकांड
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यकाः विनश्यन्ति नश्यन्ति बहुनायका.) नर नारी निकल नायगा । योग्यतानुसार कहीं नारी ऊपर की समानता से हमारे घर अनायक या बहु. की ईंट होगी कहीं नर, इस प्रकार न्याय की नायक वनकर नष्ट हो जायेंगे। ईट पर ईट रक्षा भी होगी और व्यवस्था और समभाव बना रखने से घर बनता है, ई' को बराबरी से ईट रहेगा। रखने से सैदान तो ईटो से भर जायगा पर घर सुव्यवस्था का अधिकाश श्रेय दोनो की न बनेगा।
एकत्व भावना को ही मिल सकता है वह न हो उत्तर---अनायक वहनायक की वात वहीं तो नियम सूचनाएँ सभी व्यर्थ जॉयेंगी। खैर, ठीक जमती है वहा व्यक्रियो के व्यक्तित्व बिल- दाम्पत्य की समस्या मानव जीवन की महान से कुल अलग अलग होते है। पति पत्नी दो राणी महान समस्या है। इस पर थोड़ा बहुत विचार होनेपर भी अकेले अकेले वे इतने अधूरे हैं और व्यवहार कार्ड में किया जायगा। यहा तो एकउनमें मिलन इतना आवश्यक है कि उन दोनो लिंगी जीवन मे नरत्व या नारीरव के अमुक गुणों का व्यक्तित्व प्रतिस्पर्धा का कारण कठिनता स को अपनाकर जीवन को कुछ सार्थक करने की ही बनेगा। उनकी स्वाभाविक इच्छा एक दूसरे बात है। में विलीन होने की, एक दूसरे को खुश रखने की ३ उभयलिंगी जीवन ( टुमनंगिर जिवो)और एक दूसरे के अनुयायी बनन की होती है जिस मनुष्य में नरत्व और नारीत्व के गुण काफी तभी दाम्पत्य सफल और सुखकर होता है । इस- मात्रा में हैं वह उभयलिंगी मनुष्य (नर या नारी) लिये अनायक बहुनायक का प्रश्न वहा उठना ही है। प्रत्येक मनुष्य को गुण मे और कार्यों में न चाहिये 'फिर भी हो सकता है कि कहीं पर उभयलिंगी होना चाहिय । बहुत से मनुष्य इतने दाम्पत्य इतना अच्छा न हो, तो वहा के लिये ...
भावुक होते हैं कि बुद्धि की पवाह ही नहीं करते, निम्नलिखित सूचनाओं पर ध्यान देना चाहिये
वे एकलिंगी नारीत्ववान मनुष्य अपनी भावुकता योग्यतानुसार कार्य का विभाग कर लेना से जगत को जहा कुछ देते हैं वहा बुद्धि-हीनता और अपने कार्यक्षेत्र में ही अपनी बात का
के कारण जगत का काफी नुकसान कर जाते हैं। अधिक मूल्य लगाना।
इसी प्रकार बहुत से मनुष्य जीवन भर अवसर -अपने क्षेत्र की स्वतन्त्रता का उपयोग अनवसर देखे विना बुद्धि को कसरत दिखात ऐसा न करना जिससे दूसरे के कार्यक्षेत्र की परे रहते हैं उनमें भावुकता होती ही नहीं। वे अपनी शानी बढ़ जाय।
तार्किकता से जहा जगत को कुछ विचारकता ३-सब मिलाकर जिसकी योग्यताका टोटल देते है वहा भावना न होने से विचारकता का 'अधिक हो उसे नायक या मुख्य स्वीकार कर उपयोग नहीं कर पाते। और दिग्भ्रम में ही लेना।
उनका जीवन समाप्त होता है । ये एकलिगी पुरु४-कौन नायक है और कौन अनुयायी 'पत्ववान मनुष्य भी देने की अपेक्षा हानि अधिक इसका पता यथायोग्य बाहर के लोगा को न कर जाते हैं, इसलिये जरूरत इस बात की है कि लगने देना।
मनुष्य बुद्धि और भावना का समन्वय कर उभयइस प्रकार गृह व्यवस्था अच्छी तरह चलने लिंगी बने तभी उसका जीवन सफल हो सकता है। लगेगी। ईट पर ईट जम जायगी और घर वन , नारीत्व और नरत्व के सभी गुण हरक . जायगा। अन्तर इतना ही होगा कि नग्नाग म मनुष्य पा सके यह तो कठिन है फिर भी बास से हमने अमुक को ही ऊपर की ईंट समझ रक्खा ग्यास गुण और कार्य हरएक मनुष्य में अवश्य है और अमुक को ही नीचे की ईट, यह अन्धेर होना चाहिये। बुद्धि और भावना का समन्वय
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उसमें मुख्य है । इसके अतिरिक्त शक्ति और सेवा आदि में वीरता का तथा अन्य अनेक पुरुषोचित का समन्वय, यथासाध्य कला और विज्ञान का गुणोंका परिचय देकर जहाँ पुरुषत्व का परिचय समन्वय, काम और मोक्ष का समन्वय, उपार्जन दिया है वहाँ हास्य, विनोद, संगीत, सेवा, और रक्षण का समन्वय हरएक मनुष्य में होना प्रेम, वात्सल्य श्रादि का परिचय देकर नारीत्व का चाहिये। सुविधा के अनुसार अगर नारी का परिचय भी दिया है । भावना और बुद्धि का उनके कार्यक्षेत्र घर और पुरुष का कार्यक्षेत्र बाहर बना जीवन में इतना सुन्दर समन्वय हुआ है कि उसे लिया गया है तो वह भले हो रहे परन्तु एक असाधारण महा जा सकता है और एक इसी दूसरे के काम में थोड़ी बहुत भी सहायता कर बात से वे उभयनिगी के रूपमें हमारे सामने सकने लायक योग्यता न हो तो यह अधूरा जीवन आते हैं। महापुरुषा का उभयलिगीपन उनकी दुखप्रद होगा । एक दूसरे का काम थोडे बहुत भावना और वृद्धि के समन्वय से जाना जा अंश मे कर सकें ऐसी योग्यता हरएक में होना सकता है, प्रेम और विवेक, सेवा और वीरता चाहिये और जीवनचर्या भी आवश्यकतानुसार का समन्वय भी उभयलिंगीपन के चिह्न है, ये उसके अनुरूप ही बनाना चाहिये। बातें उपर्युक्त सभी महापुरुषों में पाई जाती हैं । ____ प्रभ-जगन में जो रोम, कृष्ण, महावीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी की वीरता बुद्ध, ईसा, मुहम्मद श्रादि महापुरुप हो गये हैं उन सबके जीवन एकलिंगी पुरुप निंगी ] ही थे
तो प्रसिद्ध ही है। न्यायप्राप्त राज्य का त्याग, फिर मी ये महान हुए, जगव की महान सेना कर
पत्नी के लिये एक असाधारण महान सम्राट् से सका क्या एकलिंगी होने से आप इन्हें अपर्ण युद्ध, प्रजानुरजन के लिये सीता का भी त्याग, या मध्यम श्रेणी का जीवन कहेगे। आवश्यक रहने पर भी और समाज की अनुमति
उत्तर-एकलिंगी जीवन भी महान हो सकना मिलने पर भी एक पत्नी रहते दूसरी का अहण न है। फिर भी वह अादर्श और पर्ण मोडी करना इस प्रकार की भावुकताके सामने बड़ी बड़ी सकता । किसी के पाय अगर लाख रुपये के रोई भावुकतार पानी भरेगी । इस प्रकार म. राम में है तो उसके द्वारा वह पेट भर सकता है, दान में हम बुद्धि, मावना और शक्ति का पूरा समन्वय सकता है, लखपति ऋइला सकता है परन्त पाते हैं । जङ्गल मे जाकर वे बिना किसी सम्पत्ति स्वादिष्ट और स्वास्थ्यकर भोजन लिये उसे और नौकर चाकर के गाईस्थ्यतीवन बिता सके गहू के बदले में दाल चावल शाक नमक आदि इससे उनको गृहकार्यकुशलता मालूम होती है। लाना पड़ेगा । एक लाख के गेहूँ से महत्ता पैदा उनकी प्रामाणिक दिनचर्या का परिचय नहीं होगी स्वादिष्टता और स्वास्थ्य करता नहीं । इसी मिलता, नही तो उनके अन्य कार्य भी बताये जा. प्रकार बहुत से महापुरुष महान् होकर के भी सकते। एकलिंगी होते हैं उनकी महत्ता से लाभ उठानाम महावीर और म बुद्ध तो महान तार्किक चाहिये, आदर्श जीवन बनाने के लिये उनसे लो और क्रान्तिकारी थे, गृहत्याग करके उनने जनसामग्री मिल सके वह लेना चाहिये पर श्रादर्श सेवा का काफी पाठ पढाया था। अपनी अपनी या अनुकरणीय तो उभयलिंगी जीवन है। साधुसस्था में उनने खान पान स्वच्छता आदि
परन्तु उपर जिन महापुरुषों के नाम लिये के बारे में साधुओं को स्वावलम्बी बनाया था। गये हैं उनके जीवन एकलिंगी जीवन नहीं है। वे स्वयं स्वावलम्बी थे। इस प्रकार उनमें पुरुषत्व उनमें सभी के जीवन उभयलिंगी हैं। म कृप्य और नारील का पूग समन्वय था। तो श्रादर्श हाँ हैं। उनने कस वध, शिशुपाल-वध म ईला में पुरुषत्व तो था ही, जिसके बल
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राष्ट्रका
पर वे मन्दिरों के महन्तों के सामने सात्विक युद्ध सकता परन्तु साधारणतः अपनी आवश्यकता करते थे, कुरूढ़ियों को नष्ट करते थे। इधर उनकी को पूर्ण करने वाला, नई परिस्थितियों के दीनसेवा इतनी अधिक थी कि नारीत्व अपना अनुकूल हो सकने वाला, समन्वय अवश्य होना सार माग लेकर उसमें चमक उठा था। चाहिये। बुद्धि भावना का समन्वय तो आवश्यक
हजरत महम्मद का योद्धा-जीवन तो प्रसिद्ध है ही। इसी तरह शक्ति [ फिर वह शारीरिक, ही है पर क्षमा-शीलता, प्रेम आदि नारीत्व के वानिक या मानसिक कोई भी हो] और , गुण भी उनमें कम नहीं थे। गृहकार्य में तत्परता व्यवस्था का समन्वय भी आवश्यक है। थोड़ी
तो उनमें इतनी थी कि बादशाह बन जानेपर भी बहुत न्यूनाधिकता का विचार नहीं है पर दोनों वे अपने ऊँट का खुरेग अपने हाथों से ही अश पर्याप्त मात्रा में हो तो वह उभयलिंगी करते थे।
जीवन होरा । लैंगिक दृष्टि स यह पूर्ण मनुष्य है। ___और भी अनेक महापुरुषों के जीवन को नर और नारी के जीवन का व्यावहारिक देखा जाय तो उनका जीवन उभयलिंगी मिलेगा। रूप क्या होना चाहिये इस पर एक लम्बा पुराण जिनमें ये दो बातें हैं, एक तो वह प्रेम, जिससे बन सकता है। इस विषय में यथाशक्ति थोड़ा वे जनसेवामें जीवन लगाते हैं नारीत्व] दूसरे वह व्यवहार कार में लिखा जायगा। यहा तो सिर्फ बुद्धि और शक्ति जिससे वे विरोधियों का सामना यह बताया गया है कि नर नारी के जीवन के करते हैं (पुरुषत्व), वे उभयलिंगी महापुरुष हैं। विषय में हमारी दृष्टि कैसी होना चाहिये ? नर
पन-अगर इस प्रकार धुद्धि भावना के नारी व्यवहार के अच्छे बुरेपन की परीक्षा जिस समन्वय से ही मनुष्य उभयलिंगी माने जाने दृष्टि से करना चाहिये वही दृष्टि यहा बताई V लगेंगे तो प्राय: सभी आदमी उभयलिंगी हो गई है।
जॉयेंगे। क्योंकि थोड़ी बहुत बुद्धि और भावना १०-गलजीवन (घटो जिवो) समी में पाई जाती है। , ___ उत्तर--एक भिखारी के पास भी थोड़ा
[तीनभेद] बहुत धन होता है पर इसी से उसे धनवान नहीं कहते । धनवान होने के लिये धन काफी मात्रा में बच्चा प्रायः अन्य सब जानवरो की अपेक्षा अधिक होना चाहिये। इसी प्रकार 'बुद्धि और भावना कमजोर और असमर्थ होता है। गाय भैंस का अहा काफी मात्रा में हो और उनका समन्वय हो बच्चा एक दिन का जितना ताकतवर, चञ्चल वहीं उमयलिंगी जीवन समझना चाहिये। और स्वाश्रयी होता है उतना मनुष्य का बच्चा
प्रश्न--क्या बुद्धि-भावना-समन्वय से ही वर्षों में भी नहीं हो पाता । फिर भी मनुष्य का उभयलिंगी जीवन बन जायगा ? जो मनुष्य बच्चा अपने जीवन में जितना विकास करना है 4 खियोचित या पुरुषोचित आवश्यक काम भी- उतना कोई भी दूसरा पाणी नहीं कर पाता।
नहीं कर पाता क्या वह भी अभयलिंगी जीवन पशुओं के विकास के इस किनारे से उस किनारे वाला है।
में जितना अन्तर है उससे बीसों गुणा अन्तर उत्तर-नहीं, हम जिस परिस्थिति में हैं मनुष्य के विकास के इस किनारे से उस किनारे उससे कुछ अधिक ही स्त्रियोचित और पुरुपोचित तकाहै। इतना लम्बा फासला दूर करने के लिये कार्य करने की क्षमता हमारे भीतर होना चाहिये मनुष्य को पशुओं की अपेक्षा बीसा गणा यल्ल क्योंकि परिस्थिति बदल भी सकती है। इस भी करना पड़ता है। इसलिये मनुष्य यमरधान विषय का कोई निश्चित माप तो नहीं बनाया जा राणी है। इसके जीवन में जानवरों के समान
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देव या माग्य की मुख्यता नहीं है। फिर भी कुछ करेगा या खेती करके अनाज उत्पन्न करेगा यह मनुष्य ऐसे हैं कि जो देव के भरोसे बैठे रहते हैं यत्न प्रधान है। इस अमा से सोना का अन्तर
और कुछ यूरा यत्न नहीं करते। इस विषय को ध्यान में पा जायगा। लेकर मानव-जीवन की तीन श्रेणियों होती हैं। प्रश्न-जैसे श्रापर्ने देववाण और दैवप्रधान १ 'देववादी, २ देव-प्रधान ! ३ यल-रधान। दो भेद किये वैसे यत्नवादी और यत्न प्रधान से
दो भेद क्यों नहीं करते हैं ? । दैववादी (वूडोवादिर)-देववादी वे अका मेएय मनुष्य हैं जो स्वयं क
ह ते उत्तर-दैववादी और देवप्रधान होने से दूसरे करुणावश कुछ दे देते हैं उसे अपना भाग्य कतृत्व में अन्तर होता है परन्तु यत्नवादी और समझते हैं अपनी तुर्दशा और पतन को भी देव यत्न प्रधान होने से कत्व में अन्तर नहीं होता के मत्थे मढ़ देते हैं और अपने दोपनही देखते. इसलिये इन में भेद बतलाना उचित नहीं। ये जघन्य श्रेणी के मनुष्य हैं।
प्रभजो मनु य ईश्वर परलोक पुण्य पाप दैवप्रधानवादी (चूडोचिन्दोषादिर) वो
भाग्य आदि को मानता है वही देववादी बनता
नहीं मानता वह देयवाटी किसक प्रधान वे है जो परिस्थिति जरा प्रतिकूल हुई कि " देव का रोना रोने लगते हैं और कुछ नहीं कर ,
वज्ञपर बनेगा ? इसलिये मनुष्य नास्तिक बने यह पाते।
सब से अच्छा है। ३ यानप्रधान ( घटो चिन्दोवादिर )- यत्न ,
उत्तर-दैववादी बनने के लिये ईश्वर परलोक प्रधान वे है जो देव को पर्वाह नहीं करते। वे
आदि मानने की जरूरत नहीं है। पशुपक्षी डाय: यही सोचते हैं कि दैव अपना काम करे और मैं
समी ईश्वर परलोक श्रादि नहीं मानते, नहीं सम
मी वैदेववाडी हैं और बडे बड़े नास्तिक अपना करूगा। परिस्थिति अगर प्रतिकूल हो भी अकर्मण्य और दैववादी होते हैं। यो वे उसको भी पर्चाह नहीं करते। देव का प्रश्नदेव से आपका मतलब क्या है ? अगर जोर चल भी जाता है तो वे निराश नहीं होते, एक बार असफल होकर भी कार्य में डटे
उत्तर-हमारी वर्तमान परिस्थिति जिन रहत हैं। 'विधाता की रेख पर मेव मारना, कारणों का फल है उनको हम देव कहते हैं उस यह कहावत जिनके कार्यों के लिये प्रसिद्ध है, वे मानलीजिये कि अन्म से ही कोई कमजोर है इस ही यल-रधान हैं। बड़े बड़े क्रान्तिकारी और कमजोरी का कारण किसी के शब्दों में पूर्व जन्म तीर्थकर पैगम्बर अवतार साम्राज्य संस्थापक
पाप का उदय है, किसी के शब्दो में माता आदि इसी श्रेणी के होते है।
पिता.की अमुक भूल है, किसी के शब्दों में प्रकृति इस नीनों का अन्तर समझने के लिये एक
___ का प्रकोप है। इस प्रकार भास्तिक और नास्तिक उपमा देना ठीक होगा। एक आदमी ऐसा है जो
। सभी के सत से उस कमजोरी का कुछ न कुछ पकी एकाई रसोई तयार मिले तो भोजन कर
कारण है। यही दैव है, वह ईश्वर एकृति कर्म लेगा नहीं तो मूखा पहा रहेगा-वह देववादी है।
प्राधि कुछ भी हो सकता है इसलिये देव को जा रहेगा-वह दववादा है। श्रास्तिकभी मानते हैं और नास्तिक भी मानते हैं । दूसरा ऐसा है जो अपने हाथ से पकाकर खा सकता है लेकिन पकाने की सामग्री न मिले तो।
रम-तब तो देव एक सत्य वस्तु मालूम भूखा रहेगा वह देव प्रधान है। तीसरा ऐसा है होती है फिर देववाद मे बुराई क्या है जिससे जो हर हालत में पेट भरने की कोशिश करेगा। दैववादी को आप धन्य नणी का कहते हैं। सोमनी न होगी तो बाजार से खरीद लायेगा, उत्तर-दैव बात दूसरी है और देववाद बात पैसा न होंगे तो मिहनत मजूरी से पैदा पैदा दूसरी । देव संस्था है परन्तु ठेववाद असत्य । अब
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ergnis
दैव की मान्यता यत्न के ऊपर आक्रमण करने लगती है तब उसे दैववाद कहते हैं। जैसे जो आदमी जन्म से कमजोर या गरीब है वह अगर कहे कि मेरी यह कमजोरी और गरीबी भाग्य से है तो इसमें कोई बुराई नही है यह देव का विवे चन-मात्र है । परन्तु जब वह यह सोचता है कि 'मैं गरीब बना दिया गया, कमजोर बना दिया गया अथ मैं क्या कर सकता हूँ', जो भाग्य मे था सो हो गया, क्या ? जो कुछ भाग्य में होगा सो होकर रहेगा अपने से क्या होता है' यह देववाद है, इससे मनुष्य कर्म में अनुत्साही, कायर और अकर्मण्य बनता है। पशुओ से यहीं बात पाई जाती है, वे दैव का विवेचन नहीं कर सकते हैं परन्तु दैवने उन्हे जैसा बना दिया है, उससे उंचे उठनेकी कोशिश नहीं कर सकते, उनका बिकास उनके प्रयत्न का फल नहीं किन्तु प्रकृति या दैव का फल होता है । कोई पशु बीमार हो जाय तो बाकी पशु उसका साथ छोड़ कर भाग जायेंगे और वह मरने की बाट देखता हुआ मर जायगा । कोई कोई पशु और पत्तियो मैं इससे कुछ ॐची अवस्था भी देखी जाती है पर वह बहुत कम होती है अथवा उतने शो में उन्हें दैव-“रधान या यत्न-रधान कहा जा सकता है ।
रन-बड़े बड़े महात्मा लोग भी देव के ऊपर भरोसा रख कर निश्चिन्त जीवन बिताते हैं arfare की चिन्ता नहीं करते यह भी दैववाद
अगर दैववाद से मनुष्य महात्मा बन सकता तव दैववाद सर्वथा निंदनीय कैसे कहा जा सकता है ?
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उत्तर - पशु की निश्चिन्तता मे और महात्मा की निश्चितता में अन्तर है। पशु की निश्चिन्नता अज्ञान का फल है और महात्मा की निश्चिन्तता ज्ञान का फल 2 दैववाद की निश्चिन्तता एक तरह की जड़ता या अज्ञानता का फल है। महात्मा लोग तो यत्न-प्रधान होते हैं इसीलिये वे महात्मा बन जाते हैं। देव के भरोसे मनुष्य महात्मा नहीं
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कता | दैववादी तो जैसा पशुतुल्य पैदा होना है वैसा ही बना रहता है उनका श्रात्मिक
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विकास नहीं होता । आत्मिक विकास के लिये भीतरी और बाहरी काफी प्रयत्न करना पड़ता है। एक बात यह भी है कि महात्माओ की निश्चि न्तता भी कर्मफल की निश्चिन्तता होती है, कर्म नहीं । अवस्था समभावी होने के कारण वे कर्मफल की पर्वाह नहीं करते, पर कर्म की पर्चाह तो करते हैं। कर्मफल की तरफ से जो लापर्वाही है वह दैववाद का फल नहीं श्रवस्था-समभाव का फल है।
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प्रश्न- देव और यत्न इनमें प्रधान कौन है और किसकी शक्ति अधिक है ? यत्न की शक्ति अगर अधिक हो तब तो यत्न-प्रधान होने से लाभ है, नहीं तो दैव-प्रधान ही मनुष्य को बनना चाहिये ।
उत्तर--- अगर दैव की शक्ति अधिक हो तो भी हमें दैव-प्रधान न बनना चाहिये । हमारे हाथ में स्न है इसलिये यत्न- प्रधान ही हमें बनना चाहिये। हम जानते हैं कि एक ही भूकम्प में हमारे गगनचुम्बी महल राख हो सकते हैं और हो जाते हैं फिर भी हम उन्हे बनाते हैं और भूकम्प के बाद भी बनाते हैं और उससे लाभ भी उठाते हैं। समुद्र के भयंकर तूफान मे बड़े बड़े जहाज उलट जाते हैं फिर भी हम समुद्र में जहाज चलाते हैं। प्रकृति की शक्ति के सामने मनुष्य की शक्ति ऐसी ही है जैसे पहाड़ के सामने एक करण, फिर भी मनुष्य परयत्न करता है और इसी से मनुष्य अपना विकास कर सका है। इसलिये दैव की शक्ति भले ही अधिक हो परन्तु बसे प्रधानता नही दी जा सकती। दैव की शक्ति कितनी भी रहे परन्तु देखना यह पड़ता है कि अमुक जगह और अमुक समय उसकी शक्ति कितनी है ? उस जगह हमारा यस्त काम कर सकता है या नहीं ? शीत ऋतु में जब चारों तरफ कड़ाके की ठंड पड़ती है तब हम उसको हटाने की ताकत नहीं रखते, परन्तु ठंड के उस विशाल समुद्र में से जितनी ठंढ हमारे कमरे में या शरीर के आसपास है उसे दूर करने का यत्न हम करते हैं, अग्नि या कपड़ों के द्वारा हम उस
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ठंड से बचे रहते हैं । यह परकृति पर मनुष्य की विजय है - इसे ही हम दैव पर ग्रस्त की विजय कह सकते हैं। जहाँ देव की प्रतिकूलता अधिक और यत्न कम होता है वहाँ यत्न हार जाता है और जहाँ देव की प्रतिकूलता कम और यान अधिक है वहा देव हार जाता है। इसलिये यत्न सदैव करते रहना चाहिये |
एक बात और है कि देव की शक्ति कहा, कितनी और कैसी है यह हम नहीं जान सकते, देव की शक्ति का पता तो हमे तभी लगता है जब कि अनेक वार ठीक ठीक और पूरा प्रयत्न करने पर भी हमें सफलता न मिले। इसलिये देव की शक्ति अजमाने के लिये भी तो ग्रत्न की आवश्यकता है । और इसका परिणाम यह होगा कि हमें यत्नशील होना पडेगा ।
प्रश्न - देव और यत्न ये एक गाड़ी के दो पहिये हैं तब एक ही पहिये से गाड़ी कैसे चलेगी ।
उत्तर- इस उपमा को श्रम और ठीक करना हो तो यों कहना चाहिये कि देव गाड़ी हैं रत्न बैल | जाड़ी न हो तो बैल किसे खीचेंगे? और बैल न हो तो गाड़ी को खींचेगा कौन ? इसलिये दोनों की जरूरत है। पर साधी का काम चलो का डाँकना है गाड़ी बनाना नहीं | गाड़ी उसे जैसी मिल जाय उसे लेकर अपने बैला से खिंचवाना उसका काम है यहां उसकी यत्नप्रधानता है, देव ने जो सामग्री उपस्थित कर दी उसका अधिक से अधिक और अच्छा से अच्छा उपयोग करना मनुष्य का काम है इसलिये मनुष्य गन-प्रधान है।
अ - मनुष्य कितना भी प्रयत्न करे परन्तु होगा वही जो होनहार या भवितव्य है । इसलिये यत्न तो भवितव्य के अधीन रहा, यत्न- प्रधानता क्या रही ?
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कभी कभी ऐसा होता है कि देव की शक्ति यत्न से क्षीरा की जाती है, शुरू में तो ऐसा मालूम होता है कि यत्न व्यर्थ जा रहा है पर अन्त में यत्न सफल होता है। जैसे एक आदमी के पेट मे खूब विकार जमा हुआ है, उस विकार से उसे बुखार आया इसलिये लघन की, पर फिर भी बुखार न उतरा, घाता ही रहा, तो यहा बुखार का कारण लघन नहीं है, लंघन तो बुखार को दूर करने का कारण है परन्तु जब तक लघने जितनी चाहिये उतनी नहीं हुईं तब तक बुखार प्रश्न- कहा तो यो जाता है कि " इसकी का जोर रहेगा और लंब चालू रहने पर चला होनहार खराब है इसीलिये तो इसकी अक्ल जायगा । पेट में जमा हुआ विकार यदि देव है भारी गई है, वह किसी की नहीं सुनता अपनी तो लंघन यत्न 1 प्रारम्भ मे दैव बलवान है इस ही अपनी करता चला आता है" इस प्रकार लिये लघन रूप यत्न करने पर भी सफलता नहीं के वाक्यप्रयोग होनहार को निश्चित बताते हैं और मिलती परन्तु यत्न जब चालू रहता है तब देव अक्ल मारी जाने आदि को उसके अनुसार की शक्ति क्षीण हो जाती है और यत्न सफल हो बनाते हैं। जाता है । मतलब यह है कि रसिकूल दैव यदि वलवान हो तो भी यत्न से निर्बल हो जाता है और अनुकूल देव यदि बलवान हो किन्तु यत्न न मिले तो उससे लाभ नहीं हो पाता। इस प्रकार यत्न हर हालत में आवश्यक है इसलिये यत्न परधान बनना ही श्रयस्कर है।
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उत्तर - यत्न वर्तमान की चीज है और होनहार भविष्य की चीज है। भविष्य वर्तमान का फल होता है वर्तमान भविष्यका फल नहीं, इसलिये होनहार यत्न का फल है । यत्न होनहार का फल नहीं। जैसा हमारा यत्न होगा वैसी ही होन हार होगी। इसलिये जीवन यत्न-प्रधान ही हुआ ।
उत्तर - यह वाक्य रचना की शैली है या अलकार है। जब मनुष्य ऐसे काम करता है कि जिसके अच्छे बुरे फलका निश्चय जनता को हो जाता है तब वह इसी तरह की भाषा का प्रयोग करती है। एक आदमी को दस्त ठीक नहीं होता, भूख भी अच्छी नहीं लगती फिर भी स्वाद के
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दाएका
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लोभ से ढ़सठूस कर खूब या जाता है तब हम उत्तर-एक बार विधाता ने एक आदमी के कहते हैं कि इस बीमार पड़ना है इसलिये यह भाग्य में लिख दिया कि इसके भाग्य में एक खूप खाता है अथवा इसकी होनहार खराब है काला घोडा ही रहेगा इससे अधिक वैभव इसे इसलिये यह खूब खाता है।
कभी न मिलेगा, न इससे कम होगा। उस आदमी वास्तव मे वह आदमी बीमार होना नहीं को विधाता को इस बात से बहुत दुःख हुआ. चाहता फिर भी बीमार होने का कारण इतना
और ज्यो ही उसे काला घोड़ा मिला उसने उसे । साफ है कि उसे देखते हुए अगर कोई उससे नहीं मार डाला । विधाताने फिर उसे दूसरा काला हरता तो उसकी तुलना उसी से की जा सकती घोडा दिलाया, उसे भी उसनं मार डाला। विधाता है जो जानबूझ कर बीमार होना चाहता है, यह अलंकार है। इसी प्रकार वह मनुष्य बीमार होने
__उन्हें तुरन्त मारता जाता । अब विधाता बड़े परे. वाला है इसलिये यधिक खा रहा है यह बात सा
शान हुए, उनने उसे समझाया कि तु काले घोड़े नहीं है किन्तु अधिक स्वा रहा है इसलिये बीमार
. मत मार. पर वह राजी न हुआ । वह राजी हुआ
तब जब उसने विधाता से राज्य वैभव भाग लिया। होगा। परन्तु बीमारी का कारण इतना स्पष्ट रहने पर भी वह नहीं समझता और उसका फल इतना
यह भी एक कहानी है जो किसीने देव के निश्चित है, जैसा कि कारण निश्चित है. इसलिये ऊपर यत्ल की विजय वतलाने के लिये कल्पित कार्य कारण-व्यत्यय किया गया है। बीमारी रूप की है। किसीने देव की महत्ता बताने के लिये. कार्य को कारण के रूप में, और अधिक भोजन- रावण और कंस की कथाओं में ज्योतिषियो का रूप कारण को कार्य के रूपमें, कहा गया है। कल्पित वार्तालाप जोड़ा तो किसीने 'यत्न की भापा की इस विशेप शैली से तर्कसिद्ध अनुभव- मुख्यता बताने के लिये कहानी गढ़ डाली । इस सिद्ध कार्य-कारण भाव उलट-पलट नही हो प्रकार की कहानियाँ या वार्तालाप इतिहास नही सकता । इस प्रकार भवितव्य यत्न का फल है है किन्तु वालहदयां के ऊपर दैव या यत्न की छाप इसलिये जीवन यत्न-प्रधान है। मारने के लिये की गई कल्पनाए हैं। विचार के
प्रश्न-कथा-साहित्य के पढने से पता लगता लिये इन कल्पनाओं को आधार नहीं बनाया है कि भवितव्य पहिले से निश्चित हो जाता है जा सकता इसके लिये अपना जीवन या वर्तमान
और उसके अनुसार मतिति होती है। एक जीवन देखना चाहिये । ज्योतिपियो के द्वारा जो शास्त्र में (गुणभद्र का उत्तरपुराण ) कथन है कि भविष्य कथन किये जाते हैं उनसे अनर्थ ही होता सीता रावण की पुत्री थी और उसके जन्म के है । ऊपर के रावण और कस के उदाहरणो को समय ज्योतिपियों ने कह दिया था कि इस पुत्री हो देखो। यदि सीता के विषय में ज्योतिषियों ने के निमित्त से रावण की मृत्यु होगी। इसलिये 'भविष्य कथन ने किया होता तो सीता रावण के रावणने सुदूर उत्तर में जनक राज्य के एक खेत 'घर में पुत्री के रूपमें पली होती, फिर सीता हरण में वह लड़की छुड़वादी, जिसे जनक ने पाला। क्यों होता और रावण की मौत क्या होती ? इस प्रकार रावण ने उस लड़की के निमित्त से देवकी के पुत्र के विषय में अगर ज्योतिषी ने भविष्य 'बचने की कोशिश की परन्तु आखिर वह उसी वाणी न की होती तो कंस अपने भानजों की हत्या के कारण भारा गया। इसी प्रकार कसने भी क्यों करता और जन्म-जात वैर मोल क्यो लेता। देवकी के पुत्र से बचने के लिये बहुत कोशिश की वह अपने भानजों से प्यार करता और ऐसी किन्तु कृष्ण के हाथसे उसकी मौत्त न टली, इससे हालत में इसकी सम्भावना नहीं थी कि श्रीकृष्ण भवितव्यता की निश्चितता और प्रबलता मालूम अपने प्यारे मामा.की हत्या करते। जैन पुराणों
के अनुसार श्री नेमिनाथ ने कह दिया था कि
होती है।
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सत्यामृत
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श्रीकृष्ण की मौत जरत कुमार के हाथ से होगी। मे किसी ऐसी वस्तु का मिल जाना जिससे भून अस्तु कुमार श्रीकृष्ण को प्यार करते थे इसलिये वस्तु की उपयोगिता कम हो जाय या नष्ट हो उन्हें बड़ा खेद हुआ और उनके हाथसे श्रीकृष्ण जाय वह अशुद्धि है और मूल की तरह उपयोगी की मौत न हो इसलिये बगल में चले गये । पर बना रहना शुद्धि है। जैसे पानी में मिट्टी धून जगल से चला जाना ही जरत्कुमार के हायसे आदि पड़ जाने से उसकी उपयोगिता कम हो श्रीकृष्ण की मृत्यु का कारण हुआ। अगर भविष्य जाती है इसलिये वेह अशुद्ध पानी कहलाता है। वाणी के फेर मेन पडते तो ये दुर्घटनाए न होती। शुद्धि-अशुद्धि का व्यवहार सापेक्ष है। किसी एक तो ये भविष्यवाणिया कल्पित हैं और अगर दूसरी चीज के मिलने पर कभी कभी हम उसे तध्यरूप होती तो मी अनर्थकर थीं। शुद्ध कह देते हैं, कभी कभी अशुद्ध । जैसे शकर
हर एक मनुष्य को चाहिये कि वह महान मिला हुआ पानी या गुलाब केवडा आदि से बनने की कोशिश करे। वह मानले कि मैं तो सुगन्धित पानी शुद्ध कहा जाता है परन्तु जहा कर, सम्राट राजा, अध्यक्ष, महाकवि, महान दार्श. पानी का उपयोग मुंह साफ करने के लिये करना निक, महान वैज्ञानिक, कलाकार, पौरादि बन हो वहा शकर का पानी भी अशुद्ध कहा जायगा। सकता हूँ। वह इनमे से एक बात सचि के अन- ऐसी बीमारी में पानी का उपयोग करना हो सार चुनले और यत्न करने लगे। अगर देव जिसमें गुलाब और केवडा नुकसान करें तो प्रतिकूल है तो वह अपना फल देगा और हमारा गुलाव-जल आदि भी अशुद्ध कहे जायेगे। पल निष्फल करेगा पर जितने अश में देव यत्न साधारणनः शुध्दि के तीन भेद हैं। -- को निष्फल बनायगा उससे बचा हुआ अल निर्लेप शुद्धि ल्पलेप शुध्दि ३ उपयुक्त सफल होगा। सजा यल सर्वथा निष्फल नहीं शुद्धि । जाता । भविष्यवाणी, भवितव्यता आदि के फेर निर्लेप शुधि (नोमेश शुधों) उसे कहते हैं में पडकर वह उनासीन या हतोत्साहन वने, जिसमें किसी दूसरी चीज का अणुमात्र भी यत्न बराबर करता रहे। असफलता होनेपर पय- अंश नहीं होता । जैसे जैन साख्य आदि दर्शनों राये नहीं, सिर्फ यह देखले कि फही मुझसे भूल के अनुसार मुक्तात्मा। इस प्रकार के शुद्ध पदार्थ तो नहीं हुई है। अगर मूल न हो तो दैव के कल्पना से ही समझे जा सकते है । भौतिक विरुद्ध रहने पर भी कर्तव्य परता रहे। यत पदार्थों को निर्लेप शुद्धि का भी हम कल्पना से शक्ति के अनुसार ही करे पर हतोत्साह होकर विश्लेषण कर सकते हैं। शक्ति को निकम्मी न बनाये। वह यत्न-प्रधान र अल्पलेप शुद्धि (वेमेश शुधो) में इतना कम व्यक्ति देव के विषय में अज्ञानी नहीं होता, सिर्फ मैल होता है जिस पर दूसरे पदार्थों की तुलना में उसकी अवहेलना करता है, अथवा देव को अपना पेक्षा की अरती है। जैसे गंगाजल शुद्ध कहा है। काम करने देता है और वह अपना यत्न करता इस का यह मतलब नहीं है कि गंगाजल में मैल है। आउ मानव समाज पशुओं से जो इतनी नही होता, होता है, पर दूसरे जलाशयों की उन्नति पर पहुँचा है इसका कारण उसको यत्न अपेक्षा बहुत कम होता है । साधारणत अल में प्रधानना है।
जितना मैल रहा करता है उससे भी कम मैल हो ११-शुद्धि-जीवन [ शुधो जियो]
तो उसे शुद्धजल कहते हैं यह अल्पलेप शुद्धि है।
३-उपयुक्तशुद्धि (पुग्मशुधो)का मतलब यह चारभेट
है कि जिस शुष्ट्रि से उस वस्तु का उचित उप. रियो दृष्टि में भी जीवन को योग होता रहे । यह शुदिय देसरी चीजों के ___ अयनानि का पा लगता है। किसी वस्तु मिश्रण होनेपर भी मानी जाती है जैसे गुलाब
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हारिकाड
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जल आदि या साधारणत: स्वच्छ और बना है परन्तु साफ बिलकुल नहीं रहतीं, सनके घर हुआ पानी । शुद्धि जीवन के प्रकरण में इस सजावट के सामान से लदे रहेंगे पर, सफाई न तीसरी प्रकार की शुद्धिसे हो विशेप मतलव है। दिखेगी। अंगार का शद्धि से सम्बन्ध नहीं है ।
जीवन की शुध्दि पर विचार करते समय शुद्धि का सम्बन्ध सफाई से है। सफाई अमीर हमें में तरफ को नजर रखना पड़ती है एक गरीब सब रख सकते हैं। 3. भीतर की ओर दूसरे बाहर की ओर । शरीर को
___कही कही तो सामूहिक रूप में अशुद्ध या शरीर से सम्बन्ध रखने वाले पदार्थो की,
जीवन पाया जाता है। जैसे अनेक स्थानों पर इन्द्रियों के विषयो की शुद्धि ब्राह्न शुद्धि है और ग्रामीण लोग गाव के पास ही शौच को वैठते हैं, मनोवृत्तियों की शुद्ध अन्तःशुद्धि है । इन दोनों
रास्तों पर शौच को बैठते हैं, घर के चारों तरफ प्रकार की शुद्धियों से जीवन आदर्श बनता है।
दट्टी आदि मल की दुगंध आती रहती है यह शुद्धि अशद्धि की दृष्टि से जीवन के चार मेद होते
सब अशुद्ध जीवन के चिन्ह है इसे पशुता के हैं। १ अशुद्ध २ वाहाशुद्ध ३ अन्त शुद्ध १ उभय चिह्न समझना चाहिये । शुद्ध । , १ अशुद्ध-(नोशुध) जिनका न तो हृदय शुद्ध प्रामीणों में यह पशुता रहती है सो बात है न रहन सहन शुद्ध है वे अशुद्ध प्राणी है। नहीं है नागरिका में भी यह कम वही होती, एक तरफ तो वे तीन स्वार्थी, विश्वासघाती और कदाचित उसका रूप दूसरा होता है। बाग में कर हैं दूसरी तरफ शरीर से गदे, कपडो से गंदे,
घूमने जायेंगे तो गंदा कर देंगे, जूठन डाल देंगे, खानपान मे गदे हैं। घर की सफाई न करें, जहां
यह न सोचेंगे कि कल यही हमें आना पडेगा, रहें उसके चारों तरफ गंदगी फैला दें, ये पशु ट्रेन में बैठेगे तो भीतर ही थूकेंगे ये सब अशद्ध तुल्य प्राणी 'अशुद्ध प्राणी है । बल्कि अनेक पशु,
जीवन के चिह्न है। इसका गरीबी से या प्रामीसफाई पसन्द भी होते हैं पर ये उनसे भी गय
पता से काई सम्बन्ध नहीं है, ये अमीरो में बीते हैं।
और नागरिकों से भी पाये जाते हैं और गरीबो । कहा जाता है कि इसका मुख्य कारण गरीबी
राणी से और ग्रामीणों में भी नहीं पाये जाते। . है। गरीबी के कारण लोग बेईमान भी हो जाते इसी प्रकार अन्तःशुद्धि का भी अमीरी हैं, जब पैसा ही नहीं है तब कैसे तो सफाई करें गरीची से कोई ताल्लुक नहीं है। यद्यपि ऐसी और कैसे सजावट करें ? .. . मी घटनाएँ होती हैं. जब मनुष्य के पास खाने
इसमें सन्देह नहीं कि गरीबी दुखद है पर को नहीं होता और 'चोरी करता है पर ऐसी अश द्धता का उससे कोई सम्बन्ध नहीं । पाहा. घटना हजार में एकाध ही होती है। वेईमानी शुद्धि के लिये पैसे की नहीं परिश्रम की जरूरत का अधिकाश कारण मुफ्तखोरी और अत्यधिक है। घर को साफ रखना, कचरा चारों तरफ न लोभ होता है। एक गरीव श्रादमी किसी के फैला कर एक जगह एकत्रित रखना, शरीर यहाँ नौकर है या किसी ने मजदूरी के लिये स्वच्छ रखना, कपड़े स्वच्छ रखना, अर्थात उनसे बुलाया है, इससे उसको अधिक नहीं तो रूखी दुर्गध न निकले इसका प्रयाल रखना, इसके रोटी खाने को मिल ही जायगी इसलिये उसे लिये अमीरी जरूरी नहीं है, गरीची में भी इन चोरी न करना चाहिये, पर देखा यह जाता है बातो का ध्यान रखा जा सकता है। अमीरी में , कि जैसे बिच्छू बिना इस बात का विचार किये अंगार के लिये कुछ सुविधा होती है पर श्रृंगार कि यह हमारा शत्रु है या मित्र, अपना बैंक
और सफाई में बहुत अन्तर है। यहुतसी धन- मारता है उसी प्रकार में लोग भी हितैपी के यहाँ वान लिया गहने कपडो से खूब सजी हुई रहती भी चोरी करते है।
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कहा जाता है कि जिन्हें रोटी नहीं मिलती उन्हें ईमानदारी खाना उनका मजाक उड़ाना है । | परन्तु रोटी मिलने के लिये भी ईमानदारी सिखाना जरूरी है। कल्पना करो मेरे पास इतना पैसा है कि मैं साफ सफाई के लिये या और भी काम के लिये दो एक नौकर रख सकता हूँ | मैंने दो एक करीब आदमियों को raar भी, पर देखा कि वे चोर हैं, उनके ऊपर मुझे नजर रखना चाहिये, पर नजर रखने का काम काफी समय लेता है इसलिये मैंने नौकरों को छुड़ा दिया। सोचा इन लोगों की देख रेख करने को अपेक्षा अपने हाथ से काम कर लेना अच्छा। आदमी वेतन या मजूरी में तो रुपये भी दे सकता है पर चोरी में पैसा नहीं दे सकता इस कारण मुझे पैसे के लिये रुपये बचाने पड़े। वह गरीब नौकर दो एक बार कुछ पैसों की चोरी करके सदा के लिये रुपये खो गया। इस प्रकार बेईमानी गरीबी और बेकारी बढ़ाने को कारण हो । मनुष्य को ईमान हर हालत में जरूरी है और गरीबों में तो और भी जरूरी है क्योंकि बेईमानी का दुष्परिणाम सहना गरीबी में और कठिन हो जाता है। गरीब हो या अमीर, बेईमानी विश्वासघात, चुगलखोरी आदि वा अमीर गरीव as को नुकसान पहुँचाती है।
एक बार की विश्वासघातकता हजारों सज्जनों के मार्ग में रोड़े अटकाती है। अगर कोई आदमी हम से एक पुस्तक माँगकर ले जाता है या एक avar aurt ले जाता है और फिर नहीं देता तो इसका परिणाम यह होता है कि भले से भले areit को भी मैं रुपया उधार नहीं देता या पढ़ने को पुस्तक नहीं देता। विश्वासघातकता या लेनदेन के मामले में अपने वायदे को पूरा न करना ऐसी बात है कि वह किसी भी हालत में की जाय उसका दुष्परिणाम काफी मात्रा में होता है । हमारी छोटी सी बेईमानी के कारण भी जान सुविधाओं से वंचित रहते हैं। इस
लिये अमीरी हो या गरीबी, अपनी भलाई के लिये इस प्रकार की अन्तः शुद्धि आवश्यक है । जिनमें यह श्रन्त शुद्धि भी नहीं है और बाह्यशुद्धि भी नहीं है चाहे वे अमीर हो, गरीब हों, ग्रामीण हों नागरिक हो, शिक्षित हों अशिक्षित हों, प्रतिष्ठित हो प्रतिष्ठित हों, उन्हें मनुष्य नही मनुष्याकार जन्तु ही कहना चाहिये ।
२ बाह्यशुद्धाशुद्ध वे हैं जिन में ईसा aara ara शान्ति आदि तो उल्लेखनीय नहीं हैं परन्तु साफसफाई का पूरा खयाल रखते हैं। शरीर स्वच्छ मकान बखादि स्वच्छ, भोजन स्वच्छ इस तरह जहाँ तक हृदय के बाहर स्वच्छता का विचार है वे स्वच्छ हैं पर हृदय स्वच्छ नहीं है। साधारणतः ऐसे लोग सभ्य श्रेणी में गिने जाते है परन्तु वास्तव में वे सभ्य नहीं होते । सभ्यता के लिये बाहयशुद्धि के साथ श्रन्तःशुद्धि भी चाहिये 1
बहुत से लोग शुद्धि के नामपर अशुद्धिबहुत बताते हैं और रही सही अन्तःशुद्धि का भी नाश करते हैं। वे शुद्धि के नामपर मनुष्यों से घृणा करना सीख जाते हैं। धाछूत की बीमारी को व शुद्धि का सार समझते हैं। अपनी जाति के आदमी के हाथ का गढ़ा से गंदा भोजन करेंगे परन्तु दूसरी जाति के आदमी के हाथ का स्वच्छ और शुद्ध भोवन भी करेगे। वे सिर्फ जाति-पांति में ही शुद्धि - अशुद्धि देखते हैं। हाथ मास के कल्पित भेद में ही शुद्धि अशुद्धि के भेद की कल्पना करते हैं। वे वास्तव में बाह्य शुद्ध भी कठिनता से हो पाते हैं, एक तरह से अशुद्रध रहते हैं ।
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प्रश्न- बाह्य शुद्धि मे खानपान की शुद्धि का मुख्य स्थान है क्योकि शरीर का भोजन शुद्धि sarees a free बन्ध है। खानपान में भोजन सम्बन्धी संस्कृति देखना जरूरी है। एक जैन का एक मुसलमान के यहां भोजन का मेल कैसे बैठेगा ? रक शुद्धि आदि की बात भी निर पंक नहीं है, मा-बाप के संस्कार सन्तान में भी
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श्रत है इसलिये रक्त-शुद्धि देखना भी जरूरी है। उत्तर---भोजन में मुख्यता से चार दातो का विचार करना चाहिये । १- अहिंसकता २- स्वास्थ्यकरता ३ इन्द्रिय प्रियता ४- अग्लानता । श्रहिसकता के लिये मास आदि का त्याग करना चाहिये । स्वास्थ्य के लिये अपने शरीर की प्रकृति का विचार करना चाहिये और ऐसा भोजन करना चाहिये जो सरलता से पच सके और शरीर-पोषक हो । इन्द्रियप्रियता के लिये स्वादिष्ट, सुगंधित, देखने में अच्छा भोजन करना चाहिये। श्रग्लानता के लिये शरीरमल आदि का उपयोग न करना चाहिये । भोजन से सम्बन्ध रखनेवाली ये चारों बातें छाछूत या जातिपांति के विचार से सम्बन्ध नहीं रखती। ब्राह्मण कह लाने वाले भी मासभक्षी होते हैं और मुसलमान तथा ईसाई भी मासत्यागी होते हैं। पर देखा यह जाता है कि एक मासभक्षी ब्राह्मण दूसरी जाति जैन या वैष्णव की भी छूत मानेगा। उसके हाथ का वह शुद्ध से शुद्ध भोजन न करेगा और उसे वह भोजन शुद्धि या धर्मं समझेगा। यहा बाह्य शुद्धि तो है ही नहीं, परन्तु अन्त. शुद्धि की भी हत्या है।
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यह कहना कि दूसरी जातिवालों का रक्त इतना खराब होता है कि उसके हाथ का हुआ हुआ भोजन हर हालत मे अशुद्ध ही होगा, कारी faster और चना है। मनुष्यमात्र की एक ही जाति है, इसलिये मनुष्यों के रक्त में इतना अन्तर नहीं है कि एक के हाथ लगाने से दूसरे की शुद्धि नष्ट हो जाय । कम से कम मनुष्यों के रक्त में गाय भैंस आदि पशुओं के रक से श्रमिक अन्तर नहीं हो सकता, फिर भी जब हम गाय भैंस का दूध पीते हैं तब भोजन के विषय में रक्त शुद्धि की दुहाई व्यर्थ है और जो लोग मास स्वाते हैं वे भी रक्तशुद्ध की दुहाई दें यह तो और भी अधिक हास्यास्पद है।
माँ बाप के रक्त का असर सन्तान पर होता है पर उसका सम्बन्ध जाति से नहीं हैं । रक्त के असर के लिये जाति-पांतिका खयाल नहीं किन्तु
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बीमारी आदि का खयाल रखना चाहिये। बीमारी का ठेका किसी एक जातिके सब आदमियो ने लिया हो ऐसी बात नहीं है ।
हाँ, जिन लोगों के यहाँ का खानपान बहुत गंदा है उनके यहाँ खाने में, या हम मासत्यागी हो तो मासभक्षियों के यहा खाने में परहेज करने का कुछ अर्थ है। इन लोगों के यह तभी भोजन करना चाहिये जब जाति-समभाव के प्रदर्शन के लिये भोजन करना उपयोगी हो । पर किसी भी जातिवाले को जातीय कारण से अपने साथ खिलाने मे आपत्ति न होना चाहिये ।
जिनने अपने भोजन की शुद्धि शुद्धि के तत्व को अच्छी तरह समझ लिया है और जिन में अहिंसकता आदि के रक्षण का काफी मनोबल है उन्हें तो किसी भी जाति में भोजन करने में आपत्ति न होना चाहिये, ऐसे लोग जहां भोजन करेंगे वहां कुछ न कुछ अहिंसकता स्वच्छता आदि की छाप ही मारेंगे। हा, जो बालक हैं या अज्ञानी होने से बालक समान हैं खानपा विषय में हिंसक या गये लोगों से धर्चे तो ठीक है पर उन्हें अपने घर बुलाकर स्वच्छता के साथ अपने साथ भोजन कराने में आपत्ति किसी को न होना चाहिये। बाह्य शुद्धि भी आवश्यक है पर उस की ओट में मनुष्य से घृणा करना या हीनता का व्यवहार करना पाप है।
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मूल
भोजन शुद्धि के नाम पर एक तरह का भ्रम या अतिवाद और फैला हुआ है जिसे मध्यप्रात में 'सोला' ( रंढशो ) कहते हैं। इसके जाति-पाति की कल्पना ही नहीं है किन्तु शुद्धि के से लिये यह जरूरी नहीं है कि कपड़ा स्वच्छ हो पर नाम से बड़ा अतिवाद फैला हुआ है । सोला के. उसे किसीने छुआ न हो। सोला के अनुसार वह यह जरूरी है कि पानी मे से निकलने के बाद कपड़ा भी अशुद्ध मान लिया जाता है जिसे पहिन कर हम घर के बाहर निकल गये हों । थोड़ासा भी स्पर्श शुद्धि को बहाले जाता है । गंदगी के अतिवाद को दूर करने के लिये शुद्धि के इस अतिवाद की औषध रूप में कभी जरूरत
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हुई होगी पर आज तो उसके नाम पर बड़ी वि. के साथ दिन-गत पेट की भट्टी में जाते रहते म्वना और असुविधा होती है । सोला शह शुध्दि है और मुह की दुर्गध संदूसरों को जो कष्ट होता का ठीक प नहीं है। इससे अनावश्यक शुद्धि है वह अलग, स्नान न करने के नियम से तो का बोझ लढता है और आवश्यक शुदिध पर राहगी फैलती है, खाम कर गरम या समशीतोष्ण उपेक्षा होती है।
देशों में उससे भी शरीर भीड़ों का घर बन जाता केवल रिवाज के पालन से वाह्य शुद्धि नहीं।
है. प्रत्येक रोमकूप सूक्ष्म कीटों का शिविर हो हो जाती उसके लिये भी अक्ल या विवेक की
जाता है । मुह पर पट्टी लगाने से हवा के जीव जरूरत है। बाह्य शुद्ध व्यक्ति जहा चाहे कचरा न का
तो मरते ही हैं क्योंकि मुंह को हवा सामने ने बालेगा, जिस चाहे जगह को अपने पैरो से गला का पट्टी से रुककर नीचे जाने लगती हे न करेगा, खकार आदि जहां चाहे न डालेगा. वह जहा कि हवा है ही, इस प्रकार वहा भी हिंसा इस बात का स्वयाल रखेगा कि मेरे किसी काम होनी है । अगर थोड़ी बहुत बचती भी हो ना से हवा खराब न हो. गदगी न फैले. कालान्तर उसकी कमर पट्टी की गंदगी में निकल पाती है। में हमें और दूसरे को कष्ट न हो। थूक वगैरह पड़ते रहने से पट्टी ऋसिकुल का घर ... बाह्य शुद्धि की बड़ी जरूरत है । सभ्यता अन जाती है। के बाह्य रूप का यह भी एक मापदण्ड है किन्तु हिंसा अहिंसा के विचार में हमें दोनों पना सगमतारी के साथ इसका प्रयोग होना चाहिये। का हिसाब रखना चाहिये। ऐसा न हो कि थोड़ो
अन्त शुदध-अन्तःशाद वे व्यकितने सी हिंसा बचाने के पीछे हम बहुत सी हिंसा के अपने मनको शुदर कर लिया है, जिनके मनमें कारण जुटालें । जहा सूक्ष्म हिंसा से भी दूर रहना किसी के साथ अन्याय करने की या अन्याय से हो वहां सब से अच्छी बात यह होगी कि सूक्ष्म अपना स्वार्थ सिद्ध करने की इच्छा नहीं होती, जावा
जीवों को पैदा न होने दिया जाय । सूक्ष्म प्राणियों ऐसे लोग महान व्यक्ति तो हैं पर वाहादि के की हिंसा से बचने का सर्वोत्तम उपाय स्वच्छता बिना उनका जीवन अच्छी तरह अनुकरणीय नहीं होता है।
प्रस्ताव न करना दतौन न करना आदि बहुत से लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि नियम बहुत धर्मा ने अपनी साधु-संस्था में दाखिल वाहशुद्धि अन्त शुद्धि को बाधक है । वे दतौन
किये है। और ऐसा मालूम होता है कि वे अहिंसा इसलिये नहीं करने का दातों के कीड़े मरेगे, स्नान अनुसार तो उनसे अहिंसा की वृद्धि नहीं होती
के खमाल से दाखिल किये हैं पर आपके कहने के इसलिये नहीं करते कि शरीर के स्पर्श से जल के जीव मरेंगे, मुंह के आगे इसलिये कपड़े की पट्टी
तब फिर वे किसलिये किये गये। पाधते हैं कि उससे स्वास की गरम हवा से बाहर
उत्तर-जब किसी नये मजहब का प्रचार को हवा के जीव मरते हैं, इस प्रकार 'अहिंसा के करना होता है तब उसके प्रचारक साधनों की लिये वे अशुदिध की उपासना करते हैं। पर वे वही अवस्था होती है जो कि दिग्विजय के नि बरा गौर करेंगे तो उन्हें मालूम हो जायगा कि
निकली हुई किसी सेना के सैनिको की। उन अशुदिध की उपासना करके भी वे अहिंसा की
सैनिकों को जीवन चर्चा राजवानी में रहनेवाले रक्षा नहीं कर पाये हैं।
सैनिको सरीखो या साधारण गृहस्थी सरीखी
नहीं होती यही बात नई धर्म संस्था के साधुनी सौन करने से कचित् एक बार थोडे से की है। इन साधुओं को चड़ी कड़ाई के साथ जीव मरते हागे पर दौन न करने से दाता में अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्म का पालन करना पड़ता बहुत से कौड़े पड़ते हैं जो कि थूक के प्रत्येक है इसलिये समस्त श्रृंगाग का बड़ी कड़ाई से
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त्याग भी करना पड़ता है। और जब स्वच्छता शुद्धि की पर्वाह क्यों करेगा ? परन्तु यह भ्रम का भी शृंगार के रूप में उपयोग होने लगता है है। जिसका हृदय पवित्र है उसे बाहिरी शद्धि या स्वचछत्ता को श्रोट में इतना समय बर्बाद का भी खयाल रखना चाहिये । बाहिरी शुद्धि होने लगता है कि परिव्राजक जीवन और प्रचार अपनी भलाई के लिये ही नहीं दूसरो की मलाई में बाधा पाने लगती है तब उस स्वच्छता का भी के लिये भी जरूरी है। गंदगी बहुत बड़ा पाप न त्याग आवश्यक कर दिया जाता है । कोई कोई सही, परन्तु पाप तो है। और कभी कभी तो नियम कसहिणुता को टिकाये रखने के लिये उसका फल बहुत बड़े पाप से भी अधिक हो अथवा उसकी परीक्षा करने के लिये बनाये जाते हैं। जाता है । गदगी के कारण बीमारियाँ फैलती है
और हमारी परेशानी बढ़ती है-कदाचित मौत । साधुता बात है एक. और साधुसंस्था वात भी हो जाती है जो हमारी सेवा करते हैं उनकी है दूसरी। कभी कभी साधु संस्थाओं को एसा भी परेशानी बढती है, पास पड़ोस में भी रहनेपरिस्थिति में से गुजरना पड़ता है कि उनके जीवन में अतिवाद आ जाता है। जब तक वह
वाले भी बीमारी के शिकार होकर दुःख उठाते
हैं, मिलने-जुलनेवाले भी दुर्गंध आदि से दुःखी औपध के रूप में कुछ चिकित्सा करे तब तक तो
होते हैं। इन सब कारणो से अन्त शुद्ध व्यक्ति ठोक, वाद मे जब उसकी उपयोगिता नहीं रहती को
को यथाशक्य और यथायोग्य बहिःशुद्ध होने तब उसे हटा देना चाहिये।
की भी कोशिश करना चाहिये। मतलब यह है कि बाह्यशुद्धि उपेक्षणीय नहीं है। यद्यपि अन्तःशुद्धि के बराबर उसका
हॉ, स्वच्छता एक बात है और शृङ्गार महत्व नहीं है फिर भी वह आवश्यक है। उसके दूसरा । यद्यपि अन्त शुद्धि के साथ प्रचित विना अन्त शुद्धि रहने पर भी जीवन अधरा है शृङ्गार का विरोध नहीं है फिर भी श्रृंगार पर
उपेना की जासकती है परन्तु स्वच्छता पर उपेक्षा और आदर्श से तो बहुत दूर है।
करना ठीक नहीं है। प्रश्न -जो परमहंस आदि साधु मन की
____ हाँ, स्वच्छता को भी सीमा होती है। कोई उत्कृष्ट निर्मलता प्राप्त कर लेते है किन्तु बाह्यशुद्धि
कोई स्वच्छता के नामपर दिनभर सावुन ही
र पर लिनका ध्यान नहीं जावा, क्या उन्हें आदर्श,
घिसा करे या अन्य आवश्यक कामों को गौण' से बहुत दूर कहना चाहिये । क्या वे महान से
करदे तो यह ठीक नहीं, उससे अन्तःशुद्धि का महान् नहीं हैं ?
नाश हो जायगा ! अपनी आर्थिक परिस्थिति और उत्तर-वे महान से महान हैं इसलिये पुज्य समय के अनुकूल अधिक से अधिक स्वच्छता या धन्दनीय हैं फिर भी आदर्श से बहुत दूर हैं, रखना उचित है। खासकर शुद्धिः जीवन के विषय में । किसी १२-जीवन-जीवन (जिवोजियो) दूसरे विषय में वे आदर्श हो सकते हैं । शुद्धि ,
[दो और पाँचभेद । जीवन की दृष्टि से उभयशुद्ध ही पूर्णशुद्ध हैं।
जीवन की दृष्टि से भी जीवन का श्रेणीउभयशुद्ध (टुमशुध)-जो हृदय से पवित्र विभाग होता है । साधारणत. जीवित उसे कहते है. अथांत संयमी निश्छल विनीत और नि.स्वार्थ हैं जिसकी श्वास चलती है, खाता पीता है। परन्तु है और शरीर श्रादि की स्वच्छता मी रग्बना है ऐसा जीवन, तो वृक्षों और पशुओं में मी पाया वह अयशद्ध है। बहुत से लोगो ने अन्त शुद्धि जाता है। वास्तविक जीवन की परीक्षा उसके और बहिशुद्धि में विरोध समझ लिया है, वे उपयोग की तथा कर्मठना की दृष्टि से है । इसलिये समते है कि जिसका हृदय शुद्ध है वह बाहिरी जिनमें उत्साह है, आलस्य नहीं है, जो कर्मशील
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[२५]
सत्यामृत
है वे जीवित हैं। जिनमे सिर्फ किसी तरह पेट धन का त्याग ही करना पड़ा ईसामसीहने ठोक भरने की भावना है, जिनके ओवन में शानद ही कहा है कि सईक छिद्रम से टनिकल सकना नहीं, जनसेवा नहीं, उत्साह नहीं वे म है। परन्तु स्वर्ग के द्वार में से धनवान नहीं निकल जीवित मनुष्य प्रतिकूल परिस्थिति में भी वहत कुछ सकता 1 गरीबी ही मेरा माग्य है । मृत निबन करेगा और मृत मनुष्य अतुल परिस्थिति में गरीबी का रोना रोता रहेगा। इतना धन यो मिल भी अभाव का रोना रोता रहेगा। कुछ उदाहरणों जाता तो या करता और उतना मिल जाताना त्या से यह बात स्पष्ट होगी।
करना, अब क्या कर सकता हूँ? एक जीवित दुध सोचेगा कि इन्द्रयो जीवित पुरुप सोचेगा-मुझे शक्ति मिली है, शिथिल होगई तो क्या हुआ ? अव लडके बच्चे घर से बाहर का विशेष अनुभव मिला है उस का काम सम्हालने लायक होगये हैं, अब मैं घर को उपयोग पत्नी की, माता पिता की, समाज की तरफसे निश्चिन्त हूँ, यही हे समय है जब मैं जन देशकी सेवा में कारगा 1 भूत पुरुष कमान का सेषा का कुछ काम कर सकता हूँ। जबकि सेना गतगत या लीका रोना रोतेरोते कि हाय मुझे मृत वृद्ध शरीर का घर का, वेटो की नालायकी सीता सावित्री न मिली, हिन झाटेगा। जनसेवाको का राना रोता रहेगा।
वात निकलते ही घरका रोना लेफर बैठ जायगा। जीवित युवक सोचेगा ये ही तो दिन है जीवित नारी सोचेगी कि नारियाँ शक्ति का जब कुछ किया जा सकता है, कल जब बुढापा अवतार हैं हम अगर निर्बल मूख ई तो वीर और भाजायस तत्र क्या कर सकेंगा निश्चिन्तता विद्वान कहा से आयेंगे? शाक्त के बिना शिव क्या से श्राराम बुढ़ापे में किया जासकता है, जवानी करेगा घर हमाग आर्थिक कार्य क्षेत्र है, केदतो कर्म करने क ालये हैं। अगर यहां कर्म किया खाना नही जनसेवा के लिये सारी दुनिया है। तो उसका असर बुढ़ापे में भी रहेगा। मृतयुवक बाहर निकलने में शर्म क्या ? पति को छोड़कर सचिगा कि ये चार दिन ही तो मौज उडाने के हैं जब सब पुरुप पिता पुत्र या भाई के समान हे तप अगर इनदिन मे बैलकी तरह जुते रहे तो भोग पर्दा कसका ? विलास कव कर पायेंगे ? बुढा ( बाप ) कमाता ही है, जब मरेगा तब देखा जायगा, अभी तो
मृत नारी रूढ़ियों की दुहाई देगी, अवला.
पन का रोना रोयेगी, जीत नारियों की निन्दा जीवित धनवान सोचेगा कि धन का उप
करेगी, सुपिन के गीत गायेगी। योग यही है कि वह दूसरों के काम आवे । पेट में
इन उदाहरणों से शोषित मनुष्य और मृत तो चार ही रोटियाँ जानेवाली है, बाकी न तो मनुष्य की मनोवृत्ति का और धन के कार्यों का किसी न किसी तरह दूसरे हो वानेवाले हैं तव पत्ता लग जायगा । साधारणत: मनुष्यों को जीवन जनसेवा मे दान ही क्यों न करू मृत धनवान की दृष्टिसे इन दो भागों में बोट सकते हैं। कुछ फैलूसी में ही अपना कल्याण समझेगा। जिन्दे कुछ मुर्दे या अधिकाश मुर्दै । परन्तु विशेष
जीति निर्धन सोचेगा-अपने पास धन रूप में इसक पाच भेद होते हैंपैसा दो है ही नहीं, जिसके छिनने का डर
होमृ त, २ पापनाविन, ३ जीवित, ४ तिच्या तव धर्म से क्यों चुकू । मुमै निर्भय रहना चाहिये, जीवित्त, ५ परमजीवित । नगा खुदासे बड़ा 11 में पैसा नहीं दे सकता भृत - (मरलू) जो शरीर में रहते तो तन मन तो दे सकता हूँ, बद्दी दूंगा, धन को हुये भी स्वपर कल्याणकारी कर्म नहीं करते, जो कीमत सच्चे तन मन से अधिक नहीं होती ! महा पशुके समान लक्ष्यहीन या पालसी जीवन बिना धीर बुद्ध प्रादि महापुरुषों को जनसेवा के लिये है वे मृत हैं । उदाहरण कर दिये गये हैं।
मौज करो।
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वाकाट
२ पापजीवित (पापंजीव) वे हैं जो कर्म होना चाहिये, अन्यथा मनुष्य पापजीवित बन
जायगा ।
तो करते हैं आलसी नहीं होते पर जिनसे मानव समाज के हित की अपेक्षा ही होता है इस श्रेणी में अन्याय सेो नरसंहार करनेवाले बड़े बड़े सम्राट् सेनापति योद्धा और राजनैतिक पुरुष भी आते हैं, गरीबों का खून बुसकर कुबेर बननेवाले श्रीमान भी श्राते हैं, जनसेवा का ढोंग करके बड़े बड़े पद पाने वाले ढोंगी नेता भी आते हैं, त्याग वैराग्य आदि का ढोंग करके दंभ के जाल में दुनिया को फंसानेवाले योगी सन्यासी सिद्ध महन्त मुनि कहलाने वाले भी आते हैं। ये लोग कितने भी यशस्वी हो जाय, जनता इनकी पूजा भी करने लगे पर ये पापजीवित ही कहलायेंगे। अपने दुस्वार्थों की पूजा करनेवाले सब पापजीवित हैं । चोर, बदमाश, व्यभिचारी, विश्वासबाती, ठग आदि तो पापजीवित हैं हो |
३ जीवित- ( जिवीर ) वे हैं जो हर एक परि स्थिति में यथाशक्ति कर्मठ और उत्साही बने रहते हैं इनके उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।
४ दिव्यजीवित ( नन्दकं जिव )- वे हैं जो बच्चे त्यागी और महान् जनसेवक हैं। जो यश, अपयश की पर्वाह नहीं करते, स्वपर-कल्याण की ही पर्वाह करते हैं। अधिक से अधिक देकर कम से कम लेते हैं---यागी और सदाचारी हैं।
५ परमजीवित ( शोजियजिव ) - वे हैं जिन का जीवन दिव्य जीवितके समान है परन्तु इनका सौभाग्य इतना ही है कि ये यशस्वी भी होते हैं ।
fare की दृष्टि से दिव्य जोवित और परम ओबितों में कोई भेद नहीं है । परन्तु यश भी एक तरह का जीवन है और उसके कारण भी बहुत सा जनहित अनायास हो जाता है इसलिये विशेष यशस्वी दिव्यञ्जीवित को परमजीवित नाम से अलग बतलाया जाता है।
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हर एक मनुष्य को दिव्यजीवित बनना चाहिये। पर दिव्यजीवित बनने से असन्तोष और परमजीवित कहलाने के लिये व्याकुलता न
जीवनदृष्टि का उपसंहार
बारह वातों को लेकर जीवन का श्रेणीविभाग यहाँ किया गया है और भी अनेक दृष्टियों से जीवन का श्रीविभाग किया जा सकता है। पर ऋद विशेष विस्तार को जरूरत नहीं है, समझने के लिये यहा काफी लिख दिया गया है।
जीवन दृष्टि अध्याय में जीवन के सिर्फ मेद ही नहीं करने थे उनका श्रेणी-विभाग मी बताना था। इसलिये ऐसे भेदों का जिक्र नहीं किया गया जिससे विकसित जीवन का पता न लगे । साधारणत: अगर जीवन का विभाग ही करना हो तो वह अनेक गुणो की या शक्ति, कला विज्ञान आदि की दृष्टि से किया जासकता है। पर ऐसे विभागों का यहा कोई विशेष मतलब नहीं है इसलिये उपयुक्त बारह प्रकार का श्रेणीविभाग बताया गया है । हरएक मनुष्य को ईमा. नदारी से अपनी श्रेणी देखना चाहिये और अपीपर पहुँचने की कोशिश करना चाहिये ।
1
इन भेदों का उपयोग मुख्यतः श्रात्म-निरीक्षण के लिये है। मैं इस श्रेणी में हूँ, तू इस श्रेणी में है, मैं तुमसे ऊँचा हूँ, इस प्रकार - कार के प्रदर्शन के लिये यह नहीं है।
दूसरी बात यह है कि इन भेटों से हमें आदर्श जीवन का पता लगा करता है । साधा. रगत लोग दुनियादारी के बड़प्पन को ही आदर्श are लेते हैं और उसी को ध्येय मनाकर जीवन यात्रा करते हैं, या उसके सामने सिर झुका लेते हैं उसके गीत गाते हैं, परन्तु इन भेदों से पता लगेगा कि आदर्श जीवन क्या है ? किसके श्रागे हमें सिर झुकाना चाहिये। मनुष्य को चाहिये कि हरएक श्रेणी विभाग के विषय में विचार करे और ईमानदारी से अपना स्थान है और फिर उससे आगे बढ़ने की कोशिश करे }
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[२६०
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___उसकी गति ही नष्ट हा जागा । इसलिये हम कह दृष्टिकांड का उपसंहार
सकते है कि विश्व समय पर टिका हुया है। और दृष्टि-काड में जितनी दृष्टियाँ बतलाई गई है जो इतना महान् है कि जिसके बल पर विश्व दिका वे सब भगवान सत्य के दर्शन का फल हैं या या हुमा है वह भगवान नहीं तो क्या है ? कहना चाहिये कि इन सब दृष्टियों के मार्ग क.
. दूसरी बात यह है कि सृष्टि का माहान भाग समझ जाना भगवान सन्यं का वर्णन है और उनके
चैतन्यरूप या चैतन्य से बना हुआ है, अगर साट को जीवन में उतारना भगरान सत्य को पा जाना
में से गणवान पदार्थ-मनुष्य पशु-पक्षी. जलचर है। सच बोलना भगवान सत्य नही है, वह तो
वनपनि आदि निकाल दिय बाग ना मृष्टि क्या भगवती अहिंसा का एक अंग है, अगवान सत्य
रहे १ सृष्टि का समस्त सौनय विकास आदि तो परब्रह्म की तरह वह व्यापक चैतन्य है जो
चैतन्य से है इमी को हम चिनान, मनबहा समात आत्माओं में भा हुया है। वह अनन्त चैनन्य हो जाए-सृष्टि का विकास और कल्याण
या सत्य भगवान कहते है। कर्ता है। इसलिये वह भगवान है।
यह मन्य भगनान घट बट व्यापी है. हरमैवह चुका हूँ कि भगवान पक'प्रगम धंगी।
.. प्राणी में सुब-दुम्म अनुभव करने का. दुम्न घर या अनिश्चित तत्व है। उपदश संस्कार
दूर करने का सुप प्रा करने की और उसका
मनाने की चित और विवेक शक्ति पाई जाती किसी विशेप घटनासे प्रभावित होकर जिसे विश्वास है। वह भगवान सत्व का अंश । यही हो जाता है वह उसे जगकर्ता के रूप में एक श जब विशेष नानाम प्रगट हा जाना है तब महान व्यक्ति मान लेता है, जिस का विस्वास पाणी कर्मयोगी स्थितिप्रज्ञ, कंवली, जिन पहेत. नही जमता वह निरीश्वरवादी बन जाता है । पर नत्री पंगम्यर नीर और अवतार यानि फरईश्वरवादी हो या निरीश्वरवादी आत्मवादी हो ताने लायक बन जाता है। यही है भगवान सत्य या अनात्मवादी, उसको यह तो समझ में माही का दर्शन । द्रष्टि-काई में भगवान् सत्यम दर्शन जायगा कि सृष्टि में कार्ग काग्ण की एक परम्परा के लिये समझने योग्य कुछ बाते, भगवान के है वह कभी नष्ट नहीं हो सकी। कार्य कारण दर्शन का उपाय और उस दर्शन का फल बताया की सभी पाररा नष्ट हो जाय नो सष्टि ही न रहे गया है ।
[ दृष्टिकाण्ड समाप्त ]
FFES RAJAN
INDIAS
Panvar
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________________ ॐ सत्यभक्त साहित्य यात ( मागधर्मशाल) 26 क्या मसार हु.खमय है ) टिको 5) 30 सुलझी गुत्थियों भागार मार ) 3. म. राम * TIGIर काट 5) 32 ईसाई धर्म " मगर गया // ) 33 अनमोलपत्र * मामसार 1) हिन्दू भाइयों से : जाना ) 35 मुसलिम भाइयों से / // ) 36 सूरजप्रक्ष I ENI ) 3. क्या सलाम करू : भागाने मार (चुटकिर) // ) स हिन्दू मुमलिम मेल 1. मरिका NATI(प.) // l) 39 हिन्दू मुसलिम इत्तहाद ) परीक्षा ( महानियाँ ) I) 10 लिपिसमस्या ) 12 सपकी गे ) 11 शीलवती ) 13 नागयत (नाटक) 1) 42 सत्यममाज और विश्वशान्ति =) 15 नामकथा 1) 43 सत्यभक सन्देश ) निरनिराद al) 44 भावनागीत 1 न्यायमदीप 1) 45 नई दुनियाका नया समाज |) 17 चनुर महायीन 1) 46 विवाह पद्धति 47 धर्मसमभाव सनधर्मभीमाला IM 48 दिन्दूत सिन्धू (मराठी] HI) 1 , इनिहाम झार सम्यकत्व // ) 49 कुरान की माकी 1deg , मानसीमासा 50 घार वाद२०, भाचारमामामा धुन्द दय // 51 सुराज्य की राह 22 कृष्णगीना 1) प्रकाशित होनेवाले हैमयारीत 1) महावीर का अन्तस्तल 25 वन्दना 2) संस्कृति समस्या 25 पाधीत राजनीति विचार 26 भावगीत // ) साधु समस्या क्षादि। 2) मामिक पत्र संगम वार्षिक मूल्य 3) 20 सन्तान समस्या 1) व्यवस्थापक- सत्याश्रम वर्धा EM 74 मावनागात 27 मानभाषा YournamentereswwwsadewrewiseRNNARowokarmasexeERS