SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ গন্ধিা [ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - इसलिये उनकी प्रादर-भक्ति होना चाहिये । प्रेमा. यह ठीक है कि कभी कही सुख के लिये नन्द में प्रेम का वदला प्रेम से देना चाहिये, दुःख की भी जरूरत है इसलिये किसी किसी जीवनानन्द मे सेवा आदि से प्रत्युपकार करना दुःख को सदुःख कहा गया है पर विवेकहीन चाहिये । इसप्रकार अन्य आनन्द की बात भी दुःख सुख का मार्ग नहीं है, और न हरएक सुस्त है। महत्वानन्द का बदला भी नम्रता सेवा तथा दुःख का मार्ग है। चाहे विषयानन्द हो बाई अन्य किसी प्रतिदान से देना उचित है । सत्सुख- रेमानन्द हो अगर वह सत्सुख रूप है या फलमय रौद्रानन्द में भी वीर-पूजा श्रादि आवश्यक सुखरूप है तो उससे न तो जीवन अपवित्र है। दुष्ट निग्रह के आनन्द्र के बदले में दुष्टनिग्रही होता है न उससे दुःख बढ़ता है। इसलिये इसी का गुणगान, पूजा श्रादि जरूरी है। जीवन में हर तरह का सुख प्राप्त करना चाहिये। १७-२४-- सत्सुखमय ज्ञानानन्द प्रादि तर हा ! दुःसुख से जरूर बचना चाहिये। स्वकृत रहते हैं तब उनमे कृतज्ञता आदि का ४६-७२-दुःसुत्र भी चौबीस तरह के हैं। विचार तो नहीं करना पड़ता पर उन्हें प्राप्त करने ये बुरे हैं। इनका त्याग करना चाहिये । ये किस के लिये साधना पूरी करना पड़ती है। और प्रकार विश्वसुखवर्षन में वाधक है इसका पूरा उनका दुरूपयोग न हो इसलिये संयम का पालन विचार कर इनकी दुःसूखता को दूर हटाना करना पड़ता है, अहंकार पचन होजाय चाहिये। इसका भी ध्यान रखना पड़ता है। ज्ञानानन्द चाहे वह प्राकृतिक हो चाहे ये चीशीस रकार के सत्सख जितने अधिक परकृत या स्वकृत, जब इससे अहंकार आनाय, हो उतना ही अच्छा। संसार में अधिक से पूसरो को ठगने का विचार आजाय तो ज्ञानाअधिक साख बढानेकी कोशिश करना चाहिये। नन्द दुःसु धनजाता है। प्रेमानन्द जब विवेकहीन होकर पक्षपात. २१.४ जिस प्रकार सत्सुख चावास के स्वार्थ के रंग में रंग जाता है तब वह मोह। नरह के हैं उसी प्रकार फलसुख [अबीज सुख ] होजाता है। मोह भविष्य में सब को दुःखी भी चौबीस तरह के हैं। दोनों का अन्तर इतना करता है। है कि फलसुख भोगने के बाष्ट समाप्त होजाता है जप कि सत्सुख भोगने के बाद अन्य सुख के जीवनानन्द अगर, अन्याय श्रादि से प्राप्त लिये बीज बनजाता है। फिर भी यह असम्भव किया जाय तो वह भी विश्वसुखमें बाधक होने है कि सारा सुख सत्सुख ही रहे, सत्सुखों की सासुख हाजाता है। परस्पग के अन्त में ऐसा सुम्ब आही जायगा जो विनोदानन्द मी तु:सुख होजाता है अगर भोगने के बाद समाप्त होजाय । इमलिये सत्सख मयोदा का अतिक्रमण करके किया जाय, या ठीक अवसर पर न किया जाय, या ठीक व्यक्ति के समान फलसुख भी संसार में आवश्यक हैं। ' के साथ न किया जाय, या किसी निरपराध का इसलिये फलसुख भी अधिक से अधिक बढाना दिल दुखाने को किया जाय । विनोद हँसी चाहिये। मजाक आदि का ठीक उपयोग करना । बहुत से लोग भ्रमवश सुख की निन्दा कठिन कार्य है। यह काफी ऊंचे दर्जेका 4 करते हैं । चाहते तो वे भी सुख ही हैं पर मानते है पर इसमें प्रतिभा संयम प्रेम आदि है कि दुःखसे सुख पैदा होता है सुखसे सुख नहीं बड़ी जरूरत है, नहीं तो यह काफी दु.. . होता । विषयानन्द श्रादि को तो गाली ही दिया होजाता है। इसकी चोट काफी गहरी होती है करते हैं। पर ऐसे लोग सत्य के मार्ग से दूर हैं। विनोदोका रत्तीकार करना कठिन होने से .
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy