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________________ । ८६ } सत्यामृत वेदना भीतर ही भीतर काफी गहरी होती जाती तब तक बदलना पड़ते है राजतन्त्र. अधिनायक है और एक अमिट शत्रुता की छाप लग जाती है। तन्त्र, प्रतिनिधितन्त्र रजातन्त्र वर्गतन्त्र आदि अनेक तरह के तन्त्र बनाना पड़ते है। फिर भी . स्वतन्त्रतानन्द मे यदि संयम विवेक ना अधिकार के दुरुपयोग का रोकना बडा कठिन हो तो यह उमसलता कहलाने लगता है। उच्छृखलता अनेक तरह से स्वपर सुखनाशक होता है। और जब तक यह नहीं रुकना तब तक मनुष्य जाति स्वर्ग की सामग्री मेनरक बनाती होती है इसलिये दु सुख बनजाती है। रहेगी। इसत्ये अधिकार के महत्वानन्द्र को विषयानन्द में विषयलालसा सब तीन दुःसुम्ब न बनने देना चाहिये। होजाती है वह दुर्भसन बनजाती है तब अन्याय २-विभव [धूनो]-जीवन के निये उपकी पर्वाह नहीं करती, अपने अस्वाध्य की ही योगी अपने अधिकार की सामग्री का नाम विमत्र पर्वाह नहीं करती, चोरी करना, या उवार चोर है। इसका आनन्द भी महत्त्वानन्द है। उस वनना [ उधार के नाम पर धन मागना और न देना सामग्री के उपमोग से जो आनन्द मिलता है. यह आदि अनीतियों से जीवन काफत अलग है पर विमव के होने से जो लोक में होजाता है ऐसी हालत में विपयानन्द दु.सुत्र हैं। , महत्वानन्द की लालसा हरएक को होती महत्वानन्द बहुत जल्दी दु साव बनजाना है। है। और वह असीम होती है । सब ताह के क्योंकि साधारण जन से अधिक और काफी आनन्दी से तृप्ति होजाने पर भी महत्वानन्द अधिक विभव होनेपर ही महत्वानन्द का अनुभव अतृप्त वना रहना है । पर इसके द सुख पनन होता है, और जनसाशरण से काफी अधिक की बहुत सम्भावना है । इसलियं हर तरह के विभव होने का मतलब है समाज के भीतर एक । महत्व से खास तौरपर सम्हलने की जरूरन तरह की आर्थिक विषमता का होना । पर यह है। महत्वो की गिनती बताना तो मुश्किल है बुरी बात है । इसलिये महत्वानन्द प्रायः दुःसुख | फिर भी खास खास महत्व यहा बतानिय ही बनता है। हाएक ही तरह से यह दु सुख जाते हैं होने से बचमकता है। वह यह कि जो हमारे १-अधिकार. २ विमव, ३-संघ, ४ कुल, पास विभव हो वह समाज के लिये उपयोग में -अश, ६-तप, ७-फला, ८-शक, -ज्ञान, लाया जाता हो। जिनना अधिक जनहित उस १०-सौन्दर्य, ११-असाधारणता, १२-दान, विमव स किया जायगा उतनी ही अधिक निष्पा१३-त्याग, ०४-सेवा। पता बढ़ेगी 1 सी हालत में हम विभव के मालिक न रहकर सिर्फ सञ्चालक बनना चाहिये। १- अधिकार [ रोजो ] समाज के द्वारा दीगई या स्वीकृत की हुई निग्रह अनुग्रह शक्ति ३-संघ [कूनो]-अपने समर्थक सहायक को अधिकार कहते है यह इसलियं दी जाती या सहयोगी समूह का नाम संघ है। मेरे इतने है या स्वीकृत की जाती है कि जिससे अधिकारी अनुयायी है, इतने मित्र या साथी है, हमारी ठीक तरह से व्यवस्था कर सके । इसलिये उसका संस्था इनला विशाल चा महान है, अमुक गजा उपयोग सुव्यवस्था के लिये करना चाहिये अपना नंता पदाधिकारी श्रीमान या विद्वान से मंग सम्बन्ध है या परिचय है, मेरे इतने नौकर है, था अपने लोगों का स्वार्थ सिद्ध करने के लिये श्रादि का आनन्द संघ का महत्वानन्द है। साधाया अधिकारी होने का घमण्ड बताने के लिये रणत इसका आनन्न मन में ही लेना चाहिये। नहीं। अधिकार की समस्या सत्र से अधिक बाहर इसका घमण्ड नहीं बताना चाहिये । निरजटिल समस्या है। यह समस्या न सुनमने के पराओं को साधुजनो को दबाने या उनका अपकारण शासक बदलना पडते है ओर शासन- मान करने में इसका उपयोग न करना चाहिये,
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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