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________________ [१] मस्यामृत किया जासके तो यह सत्सुखमय प्राकृतिक प्रेमा- जन्म से ही मिल । जन्म से ही शरीर मुन्नर नन्द कहलायगा। स्वस्य शक्तिशाली रतिभा तो सा महत्व . ३-दुनिया में जीवित रहने के लिये वर का मानन्द मिलता है। पर इस महत्वका दूसराये और पानी को अपने आप मिलते है पर अन्य सुरी करने में या विभवन में उपयोग होना खाय-सामग्री भी अपने आप पैदा होती है चाहिये । तो मत्सम्य कहलाया। कई लोग मे सत्र को प्राप्तकर स्वयं श्रानन्द माना और जगत को प्रसन्नोपी स्वभाव के होत है कि उन्हें गिनना सुखी करना सत्सनमय प्राकतिकता भी महत्व मिला, मन्तुष्ट नहीं होते। ४-मनोविनोद की, दिल बहलाने की अटूट के कारण दुखो बने रहते है। यह भूत है। अधिक से अधिक महन्व शान वारने के लिये सामग्री दुनिया में भरी पड़ी है। दुनिया की एक उचिन प्रयत्न भले ही माने रहो पर से कुछ एक रचना कुनालवर्धक है और इसी अद्भुत महल पा है उसका अानन्द नए मत करो। है कि ध्यान देनेपर मनुष्य हँसते-हँसते लोटपोट अगर जगन मे सेकड़ों हमसे महान हैं तो कुत्र होजायें। हाथी घोड़ा ऊंट प्राठि भिन्न-भिन्न ऐसे भी हैं जिनसे हम महान है। इस महत्त्वा. प्रकार के पशु-पक्षियों की, पर्वत शिखरी वनस्प- नन्द का अनुभव करो। उसमे अभिमानी नहीं तिया की रचनापर हम गौर करें तो अदनुत रस आत्मगौरवशाली बनो, जिससे मनाये में में सराबोर होजायेंगे और इच्छानुसार मन घह- प्रेरणा मिल । लाव भी कर सकेंगे। इस मन-बहलाव से स्वयं यद्यपि पतिक कार्य सरह न्यायसुखी होना दूसरा को सुखी करना भी एक अन्याय का विचार नहीं करते पिर भी अनंक सत्सुख है। स्थानांपर न्यायव्यवस्था दिवाई देती है। पाप -प्रकृति ने हरएक प्राणी को काफी अंशा का पय अनेक तरह से दुःखद और आत्मपानक में स्वतन्त्र पैदा किया है। यह दुबन्धना में इसने होता है। अनेक असंयमी लोग बीमार होकर लायक काम न करे तो काफी स्वतन्त्रतानन माम मरत दख गय ६. दुनिया क पर कहर. , मरते देख गये हैं. दुनिया के उपर कहर बरसाने कर सकता है। वाले प्राकृतिक घटनामा से नष्ट होते देखे गये है। ऐसी हालत में उन्हें उसे यह अपने आप ६-दुनिया में जो जीवनसामग्री उपलब्ध हैं पाप का एड मिला है उससे सन्तोप हो तो यह उसमे एक तरह का अन्धा स्वाद सुगन्ध आदि भी होती है इसके सिवाय भी जगह जगह रौदानन्द सत्सुख ही कहलायगा। हां! अगर इन्द्रियों को तृप्त करनेवाली सामग्री भरी पड़ी है। यह गैद्रानन्द सिर्फ इमलिये हुआ कि कष्ट में पड़नेवाला हमाग विरोधी है, फिर भले ही वह यह बिना दिया हुआ विषयानन्द है भणी को निरपराश हो, बल्कि शायद हम ही अपराधी इसका उपयोग करना चाहिये । हा। वह दुच- होपर विरोध के कारण हमे आनन्द पाया है सन न बन लाये, मर्यादा का उल्लघन कर अपने तो यह रौद्रानन्द घोर दुःसख या महापाप होज्ञाको या दूसरों को दुःखदायक न वनजाय, विश्व गा| सत्सव यह भी कहा जासकता है अय सग्यवर्धन की मर्यादा के भीतर रहे, इसमा ध्यान इममें पापरतीकार की भावना हो। रखना श्रावश्यक है। इतना ही नहीं यह सत्सुन्न E-१६-जिसरकार ये पाठ रचार के वभी कहलायगा जब यह विश्वसुग्यवर्धन के काम गतिक सत्सव बताये गये हैं उसीप्रकार आठ में पायगा। परकृत भी सत्सुख होते हैं। इसमें अन्तर इतना -महत्व कई तरह के होते हैं। पर कुछ ही है कि ये सुन दूसरों के सहयोग से मिलते हैं है जो किसी ने हमे प्रयत्न करके दिये इसलिये इनमें कृतज्ञता आदि आवश्यक है। नहीन हमने उन्हें प्रयत्न से पैदा किया है वे मे नानानन्द गुरुओं से या शास्त्रों से मिलेगा
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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