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________________ हाणकांड [५] - - - - - - - - - - पास इस बात के प्रमाण थे कि किसने क्या पाप नहीं कह सकते, क्योंकि वह उपयुक्त तीन प्रकार किया है जिन्हे मैं दण्डन उसके हाथ में की शैलियों में से किसी में शामिल नहीं न्याय का कोई अधिकार था जिससे दूसरे के होती। जिस तीसरी शैली में प्राणी के हाथमें अपराध का बदला लेने के लिये वह दण्डदाता देवानुग्रह की सत्ता आती है वह चुरक पर लागू वनज्ञाय । इसलिये कहना चाहिये कि चुरक ने नहीं होती, क्योंकि उसने जो चोरी की, वह न्याय अन्याय का विचार न करके अपने स्वार्थ- विकक के किसी अपराध के कारण नहीं, न्यायो. वश नीतिको मर्यादा को तोड़ा और संसार का चित आत्मरक्षा के कारण भी नहीं, समाज के दुःख बढ़ाया है। प्रकृति या न्याय देवता अपने किसी नियम कानून के श्राधार पर भी नही. ढंग से अपना काम करेंगे पर प्राणी को चाहिये इसलिये चुरक अपराधी है। कि वह यथाशक्य अधिक से अधिक सब का यहां एक बात और ध्यान में रखना चाहिये उपचार करे, अपकार किसीका न करे। कि प्राणी के ऊपर जितने दुःख पाते हैं वे सब पहिले के पुण्य पाप के अनुसार नहीं आते । सत्येश्वर की चा प्रकृत्तिको ऐसी व्यवस्था । जो सुख दुःख कर्मानुसार आते हैं वे उपर की नहीं है कि किसीको अपने पार का दंड दिया तीन शैलियों में आगये हैं बाकी बहुतसे सुखदुःख जाय तो उसके लिये किसी अन्य प्राणी को पार प्रारम्भिक या बीजरूप होते हैं, जिनका बदला करना पड़े। पुण्य पाप के फुल देने का काम पीछे मिलता है। जैसे रावण ने सीता को दुख किसी अन्य प्राणी को नहीं सौपागया। सत्यावर दिया, तो इसका यह मतलब नहीं है कि वह ने फल देने की तीन प्रणालियों ही ठीक मानी है। सीता के किसी पूर्व पाप का फल था। ऐसा २-परध पाप के अनुसार प्राणी को जन्म होता तो रावण इसका जिम्मेवार न होता । जय देना, जहा उसे मन तन तथा परिस्थिति कर्म के कि रावण इस पाप का पूरा जिम्मेदार था और अनुसार अच्छी बुरी मिले। मरने के बाद तसे उसका फल भोगना पड़ा। ... और सीता ने जितना निरपराध कष्ट उठाया २-आचार विचार का शरीर के उपर . उसका फल उसे मरने के बाद मिलसकता है। प्रभाव पड़ना । क्रोध श्राने से शरीर का खून निरपराव कपका ही फल पीछे मिल सकता है, जलता है. ईर्ष्या आदि से अशान्ति पैदा होती है सापराध कष्ट का नहीं। अपनी लापर्वाही असंवस खानपान के असंयम से बीमारी आती है, प्रेम अज्ञान वशोलिप्सा आदिसे जो कष्ट उठाये जाते हैं से मन प्रसन्न रहता है इससे शरीर भी स्वस्थ वे व्यर्थ जाते हैं। एक आदमी यशोलिसाके चक्करमें रहता है, इत्यादि दण्डानुग्रह सन्चेबर को पड़कर उपवासों का प्रदर्शन करे. कांटो पर सोने व्यवस्था है। का प्रदर्शन करे और भी तपस्या आदि के नाम ___३-प्रगट रूप में अच्छे बुरे जो काम प्राणी पर निरर्थक कष्ट सहन करें तो उन को का करता है उसके दंडानबह की योग्य व्यवस्था कोई सफल न होगा। करने का अधिकार प्राणियों को सौंपा गया है। प्राणी उपकार का प्रारम्भ भी कर सकता इसी अधिकार के अनुसार राज्य व्यवस्था, पंचा- है और अपकार का परम्भ भी कर सकता है। अव आदि की व्यवस्था का निर्माण किया जास- इस प्रकार वह जगत को स्वर्ग भी बना सकता कता है, न्यायोचित आत्मरक्षा के लिये व्यक्ति है और नरक भी बना सकता है। इसलिये चरक को भी दंड का अधिकार है । पर इसमें विश्वसुख ने जो चोरी की वह अपकार का प्रारम्भ है, वर्धन की कसौटी पर कसकर जिर्णय करना किसीके पूर्वपाए का दंड नहीं, इसलिये चुरक चाहिये। दंडनीय है । ., चरक ने सो चोरी की उसे दंड व्यवस्था विवेक देव के इस फैसले से इस प्रश्न का
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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