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________________ [३६] सत्यामृत त्तर अच्छी तरह होजाता है। इसलिये यह का हरण किया जाता तो उनके सुख की वृद्धि नोचना ठीक नहीं कि मनुष्य मला बुरा नहीं कर नहीं होसकती थी । मतलब यह कि एक सीता पकता । वह मना भी कर सकता है बुरा भी के हरण मे रावण के सैनिक किसी स्वार्थवश या कर सकता है। अपनी इस जिम्मेदारी का ध्यान मोहवश अपना सुख दख रहे हो पर एक सीता रखते हुए मनुष्य को सर्वदेशिक और सार्वकालिक को छोडकर अपने अपने घर की सीताओं के दृष्टि से यथासम्भव अधिक से अधिक सख की हरण मे वे सुख नहीं देख रहे थे । इसका मतलब यह कि सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टिसे परकोशिश करना चाहिये। , प्रश्न माना कि सब के सुखमें निजसुख म्बीहरण में बहुजन सुख नहीं है। बाहरण म बालन सुख है इसलिये कर्वव्याकर्तव्य के निर्णय में सब के जब हम कहते हैं कि बहुजन अन्याय के सख का ही विचार करना पड़ेगा, पर सब का पक्ष में है तब उनका यही मतलब है कि अमुक सुख कैसे होसकता है । संसार में तो एक का जगह का या अमुक समय का बहुजन अपन म सुख दूसरे का दुख दतेगा। राम का सख बड़े सार्बनिक और सार्वकालिक बहुजनहित के रावण का दुःख है और रावण का सम्व राम का विरोध में हैं। निम्नलिखित दोहों मे यही बात दुःख है । ऐसी हालतमें कोई न कोई दुखी और साफ शठो मे कही गई है। रहेगा ही, इसलिये यही कहाजासकता है कि एक जगह ही देख मत चागे ओर निहार। जिसमें ज्यादा से ज्यादा या अधिक आदमियो अपरिमेय संसार है अपनी दृष्टि पसार ।। १ का सुख हो उसीमें अपना सुख है । पर इसमे वर्तमान ही देख मत लो क्षण है दो चार। एक बडी अडचन यह है कि कभीकभी अधिक कर तू निर्णय के लिये भूत भविष्य विचार ॥२ श्रादमी अन्याय के तरफ होते हैं इसलिये अधिक सार्वत्रिक पर डाल तू सार्वकालिकी दृष्टि । थानमी के हित को महत्व देना हो तो अन्याय सत्य तुझे मिल जायगा होगी निर्णय सृष्टि ॥३ का समर्थन करना पड़ेगा । उदाहरणार्थ-राम रावण की अदि जीत हो रामचन्द्र की हार । रावण के युद्ध में अधिक आदमो रावण की तो घर-घर रावण बने डूय लाय ससार ॥४ तरफ थे, इसलिये अधिक आदमी का हित होती रावण की विजय तो घर घर व्यभिचारकरना हो तो राषण की रक्षा काना चाहिये करता तांडव रातदिन मिट जाते घरवार ॥५ अर्थात अन्याय का समर्थन करना चाहिये । पर परिमित रावण दल मरा हुआ पार का अन्त । जिस कसौटी से अन्याय का समर्थन होता हो अगणिन सीनाएँ वची फूला पुण्य वसन्त ॥ ६ उसे काव्य की कसौटी कैसे कह सकते हैं। सखख निर्णय की तुला आत्मौपम्यविचार। "और उसके आधार से ध्येय का निर्णय कैसे कर परको समझा आत्मसम मिला आत्म का सार ॥७ सकते हैं। अपने में ही भूल मत रख सब जग पर दृष्टि । उत्तर--किसी एक समय के और किसी फिर पति सुववन हुआ हुई धर्म को सृष्टि। पक उगह के ही बहुजनहित का विचार करने से वर्तमान ही देख मत भूत-भविष्य विचार। गह गड़बडी होती है पर अगर सार्वत्रिक और किस यपना कर्तव्य कर कर सुखमय ससार ॥६ साकालिक दृष्टि से बहुजन के बहुसख का परम निकप कर्तव्य की सुखवधन है एक । विचार किया जाय तो यह गडगडी नहीं रहती। सुख वर्धन कर विश्व का रखकर पूर्ण विवेक ॥१० गवण ने परस्त्री हरण किया पर इसलिये यह शुद्वात्मता (शुधिम्की) नही हा जासकता कि परस्त्री हरण से अधिक प्रम-जब सुखवर्धन जीवन का अन्तिम प्राणियों का हित होता है । रावण की सना श्रेय होजायगा तब आत्मशुद्धिपर उपेक्षा होगी। विकधी पर बार उन मैनिको की नियों धर्म का सम्बन्ध सिर्फ वचन और तन से रह
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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