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________________ इटिकांड [५७ ] - - - - -- - - -- - - - - - - - - -- - - - - - जायगा । मन मे दुष्ट भावना रहनेपर भी वचन हार कर रहा है कि यह मौका ही ऐसा है कि और तन से सुम्यवर्धन का कार्य कर देने से धर्म सद्व्यवहार करना चाहिये । दूसरा अवसर की समामि होजायगी। ईमानदार और मायाचारी आनेपर सारी कसर निकाल ली जायगी । में कोई फर्क न रहायगा। ६-बटा इसलिये सद्व्यवहार कर रहा है कि ____ उत्तर--सुखवर्धन के कार्य को स्थिर और सद्व्यवहार से ही विश्वास में लेकर धोखा दिया निश्चित बनाने के लिये, सुखवर्धन के कार्य मे पर. जासकता है ठगा जासकता है, उधार श्रादि के स्पर विश्वास और सहयोग की जो आवश्यकता बहाने रुपये लेकर हजम किये जासकते हैं या है उसे पूरा करने के लिये, सुखवर्धन के कार्य में किसी जाल मे फसाया जासकता है। अपने को जो सुख-सन्नोप और शान्ति मिलती इसप्रकार एक सरीखे व्यवहार के कारण, है इसे प्राप्त करने के लिये आत्मशुद्धि या शुद्धा. ऊपरी सुखवर्भकता समान होनेपर भी छह आदत्मता आवश्यक है। अधिक से अधिक सुखवणेन मियों की छह तरह की मनोवृत्ति है। पर बागेजब हमारा ध्येय है तब उसके साथ अधिक से प पीछे का हिसाब लगाकर देखा जाय तो पता अधिक आत्मशुद्धि उपध्येय के रूप में होती ही लगेगा कि जिसकी आत्मशुद्धि कम है उसकी है। आत्मशुद्धि के विना जो सुखयन का कार्य सखवर्धकता भी कम है, जिसकी आत्मशुद्धि किया जायगा वह क्षणिक, अनिश्चित, और अपूर्ण अधिक है उसकी सुखवक्रिता भी अधिक है। होगा, इसलिये उनने सुखवान से धर्म की निम्नलिखित विवेचन से यह वात स्पष्ट होगी। समाप्ति नहीं होसकती। १-शुद्धात्मा (शुधिम्प) जिसके मन में इस बात को समझने के लिये एक सरीखा प्रेमभक्ति है उसका सद्वयवहार स्थायी है, भविष्य व्यवहार करनेवाले किन्तु भिन्न-भिन्न मनोवृत्ति में भी उसकी आशा की जासकती है इस विश्वास रखनेवाले मनुष्यों को लें। फिर देखे कि सुख- से एक तरह की श्रात्मीयता पैदा होती है और वर्धन की दृष्टि से किसका क्या स्थान है ! और इससे सहयोग बढ़ता है। साथ ही सद्वपबहार ईमानदार और मायाचारी के सुखवर्जन में कितना करनेवाले को भी प्रसन्नता होती है, इस कार्य में 'अन्तर है ? कोई श्रम आदि खर्च करना पड़े तो उसका दर्द --क मनुष्य मन में प्रेम भात आदि होने नहीं मालूम होता, इसरकार यह शुद्धात्मता से सद्व्यवहार कर रहा है । २-दूसग व्यक्ति स्वपर सुखवन को दृष्टि से सर्वोत्तम है। मन में प्रेम न होनेपर भी सवहार कर रहा २-जो अपनी आत्मा को शुद्ध करने की है पर सोचना यह है कि किसी से द्वेष क्यों तैयारी है। शुधेलरिम्प-) वह शुधिम्प के वरावर रखना चाहिये १ कैप किसी स्वार्थपरता का परि- तो नही. फिर भी काफी सुखवर्धन करता है। णाम है. मुझे वह स्वार्थपरता दबाना चाहिये। शुधिम्य की बुद्धि और मन दोनों ही सद्व्यवहार -जीसा व्यक्ति इसलिये सद्व्यवहार कर रहा में लगे हैं पर शुधेलरिम्प की बुद्धि तो सद्यवहार है कि सद्व्यवहार प्रगट न किया जायगा तो मे लगी है पर मन हिचकिचारहा है। इसलिये प्रशान्ति बढेगी इससे आगे और दुख उठाना शुधिम्प की अपेक्षा वह, कुछ दुःखी है। मन की पड़ेगा इसलिये पूरी तरह शिष्टाचार निभाना ही कुछ हिचकिचाहट ( हिच्चो ) उसके दुश्य के योग अच्छा। ४-चौथा इसलिये सद्व्यवहार कररहा को बढ़ा रही है, सद्व्यवहार पर भी इसका असर है कि मैं निर्बल हूँ गरीब हूँ, सद्व्यवहार र पड़ता ही है, हालांकि वह इसना सूक्ष्म है " करूंगा तो इसका परतिफल अच्छा न होगा, जिसके साथ सद्वयवहार किया जारहा है ( सुहा बहुत से लाभी से वञ्चित रहताऊँगा था परे- जगेर) उसे मुश्किल से ही पता लगसकता है शानी उठाऊंगा। ५-पाचवा इसलिये सद्व्यच. फिर मो शुधिम्प और शुधेलरिम्प के ' .
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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