SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ {५८] सत्यामृत - - - - - - - - - - - -- के स्वाद में फर्क पैदा हो ही जाता है। इतना है ] को भी इसका पता लगजाता है, इसलिये अन्तर होनेपर भी शुषेलरिम्प बहुत कुछ सुख- उसको उतना सुख-सन्तोष भी नहीं मिलता वर्णन करता है। जितना भूहिम्प { दीनाल्मा] आदि से मिलजाता ३-तीसरी श्रेणी का मनुष्य चतुरात्मा है। इस प्रकार इसका सुखवन और भी कम (चन्तिम्प) है, वह चतुरता से काम लेता है, है बल्कि अवसर निकलनेपर जल्दी ही दुख. और सहिष्णुता ( फीशो) का परिचय देता है। वर्धन की सम्भावना है। घाहर से सद्वयवहार इसका भी ठीक है। परन्तु ६-ट्रा वश्चकात्मा [ चीटिम्म ] है। वह परिस्थिति से पैदा होनेवाली विवशता का इसका सुखवर्धन तो नाममात्र है और दुःखअनुभव कर रहा है। इससिये शुधेलरिम्म की अधन असीम है । स्वयं तो यह अशान्त चिन्ताअपेक्षा भी भीतर ही मौतर बहुत दुःखी है। तुर भीत है ही, पर इसके चकर में पड़नेपर उसकी इस मनोवृत्ति का असर उसके व्यवहार सुहाजगेर मी काफी दुखी होजाता है। पर पड़ने ही वाला है, जो शुधेलरिम्प के व्यव- इन व्यक्तियों के विवेचन से मालूम हार से भी अधिक स्पष्ट होगा। परिस्थिति बदल होता है कि जिसमें जितनी अात्मशुद्धि होती लते ही वह सद्वयवहार छोड देगा अशान्ति का है सखवर्षकता भी इतनी अधिक होती है और डर न हो तो सद्वयवहार न करेगा, इसलिये जितनी आन्मशुद्धि कम होती है उतनी सुखउसको अपूर्णता के साथ उसकी अनिश्चितता भी वर्षकता भी कम होती है । इसलिये सुखवध • बढ़जाती है । इसलिये सुखनन घटजाता है। कता के लिये आत्मशुद्धि आवश्यक है । अगर -चौथा दीनता के कारण सद्वयवहार सखवर्धन ध्येय को पूरा करना हो तो उसके करता है इसलिये यह दीनामा (नहिम्प ) है। पहिले प्रात्मशुद्धि उपध्येय को पूरा करना ही इसके मनमें भय और दीनता की वेदना है पड़ेगा। इस प्रकार सुखवनध्येय में आत्मशुद्धि अथवा आशा की व्याकुलता है इसलिये चन्तिम्प उपध्येय आ जाता है। (चतुरात्मा) की अपेक्षा यह अधिक दुखी है। प्रश्न- देखा जाता है कि अगर किसी उसकी इस मनोवृत्ति का असर व्यवहार पर भी पसता है इसलिये दूसरे को भी इसका रस पूरा आदमी से कोई काम विगडवाना है-उससे दुःख बदजाता है परन्तु यदि उसका मन शुद्ध हो तो । नहीं मिलपाता । जीनता की परिस्थिति इटजाने हम उसे दोपी नहीं ठहराते, परन्तु यदि किसी पर वह सद्वयबहार भी हट जायगा इसलिये उसमें का मन शुद्ध हो, उसमें द्वपादि भरा हो किंतु । अस्थिरता और अनिश्चितता भी है। इन सब बातों उसने हमें कोई दुख न पहुंचाया हो तोभी हम 1 से इसका सुखवर्धन और भी कम है। उसे दोषी मानते हैं उसके प्रति मनमें विरोध ५-पाचवों अवसरवादी (चत्तिम्प-अब- लाते हैं, इससे मालूम होता है कि हमें सुखव{सरात्मा) अथवा चालाक ( चुन्त ) है । इसे धकता की अपेक्षा आत्मशुद्धि की अधिक सदपबहार में कोई आनन्द नहीं आरहा है, चिंता है इसलिये आत्मशुद्धि को ही मुख्य ध्येय काफी बोझ अनुभव कर रहा है, इसकी दृष्टि क्या न माना नाय ? परिस्थिति बदलते ही सारी कसर निकालनेपर उत्तर-उपयुक्त अवसरपर भी आत्महै, इसलिये चिन्ता से भी काफी परेशान है, शुद्धि की जो बाद मनुष्य को होती है वह भी उसको अस्थिरता तथा अनिश्चितता नहिम्म टोटल मिलानेपर सुखवध कता अधिक होने (दीनात्मा ) से भी अधिक है, इन सब बातों के कारण । जिस मनुष्य से किसी अवसर पर का सर सद्व्यवहार पर भी इतना पडता है कि काम बिगड़गया है किन्तु हृदय शुद्ध है उसपर सारजगेर जिसके साथ सहयवहार किया जाय हमें द्वेप नहीं होता इसका कारण यह है कि हम
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy