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पर सेवा आदि करने में तो दूसरों की सहायता वस्था की स्मृतियों श्रानन्द-मग्न कर देती है। की आवश्यकता है लेकिन भक्ति में नहीं है, भकि जब मनुष्य आनन्द मग्न होता है तब वह वाल्यास्वतन्त्र है। इसलिये मनुष्य भक्त बनने का ही वस्था का ही अनुकरण करता है। व्याख्यान पूरा दावा कर सकता है सेवक आदि बनना तो सुनते सुनते या कोई सुन्दर दृश्य देखते देखते परिस्थिति और शक्ति पर निर्भर है। मनुष्य हर्षित होनेपर बालकों की तरह वालियाँ
भक्ति की जगह प्रेम आदि शब्दो का भी पीटने लगता है, उछलने कूदने लगता है। बुद्धि उपयोग किया जा सकता है पर भक्तजीवन शद की अर्गज्ञा किनारे हो जाती है हृदय उन्मुक्त से जो सात्विकता और नम्रना प्रगट होती है वह होकर उछलने लगता है। बाल्यावस्था की ढ़ियों प्रेमीजीवन शज से नहीं होती। जो चीजें हमारी वे घड़ियाँ हैं जिनकी स्मृति जीवन में जब चाहे मनुष्यता का विकास करती है जगत का उद्धार तब गुदगुदी पैदा करती है। करती हैं उनके सामने तो हमें भक्त बनकर जाना यौवन कर्मठता की मूर्ति है। इस अवस्था ही उचित है। मनुष्य प्राणी प्राणियों का राजा में मनष्य उत्साह और उमंगों से भरा रहता है। होने पर भी इस विश्व में इतना तुच्छ है कि वह
मका देखता है. अस. भक्त बनने से अधिक का दावा करे तो यह उसका
म्भव शब्द का अर्थ ही नहीं समझता, जो काम अहंकार ही कहा जायगा। तर, भक्त कहो, पुजारी
सामने आ जाय उसी के ऊपर टूट पडता है, इस कहो, सेवक कहो, प्रेमी कहो, उपासक कहो, करीब प्रकार करमयता यौवन की विशेषता है। करीव एक ही बात है और इस दृष्टि से जीवन वाक्य की विशेषता है ज्ञान-अनुभव दूरके ग्यारह भेद हैं। इनमें से उत्तम श्रेणी का . भक्त हर एक मनुष्य को बनना चाहिये।
"" दर्शिता । इस अवस्था में मनुष्य अनुभवों का हा, व्यवहार में जो शिष्टाचार के नियम
महार हो जाता है इसलिये उसमें विचारकता
और गम्भीरता बढ़ जाती है। वह जल्दी ही है उनका पालन अवश्य करना चाहिये। जो शिष्टाचार नीतिरक्षण और सुव्यवस्था के लिये
किसी प्रवाह में नहीं वहजाता। इस प्रकार इन आवश्यक है वह रहे, बाकी में भक्ति जीवन के
तीनों अवस्थाओं की विशेषताएँ हैं। परन्तु
इसका यह मतलब नहीं है कि एक अवस्था में अनुसार संशोधन करना उचित है।
दूसरी अवस्या की विशेषता बिलकुल नहीं पाई ३-चयोजीवन (जिक्लोजियो) जाती। यदि ऐसा हो जाय तो जीवन जीवन न
रहे । इसलिये वालकों में भी कर्मठता और विचार आठ मेद
होता है, युवकों में भी विनोद और विचार होता मानव-जीवन की अवस्थाओं को हम तीन है, वृद्धा में भी विनोद और कर्मठता होती है। भागों में विभक्त करते हैं, वाल्य, यौवन और इसलिये उन अवस्थाओं में जीवन रहता है। पार्थक्य । तीनों में एक एक बात की प्रधानता परन्तु जिन जीवना में इन तीनो का अधिक से । होने से एक एक विशेषता है। बाल्यावस्था में अधिक सम्मिश्रण और समन्वय होता है वे ही आमोद प्रमोद-आनन्द की विशेषता है। निश्चिन्त जीवन पूर्ण है, धन्य हैं। जीवन, किसी से स्थायी वैर नहीं, उच्चनीच वहत से लोग किसी एक में ही अपने
आदि की वासना नहीं, किसी प्रकार का बोझ जीवन की सार्थकता समझ लेते है, बहुतों का नहीं, क्रीड़ा और विनोद, ये बाल्यावस्था की नम्बर दो तक पहुँचता है, परन्तु तीन तक बहुत विशेषताएँ हैं। युवा और वृद्ध भी जब अपने कम पहुँचते है। अगर इस दृष्टि से जीवनों का जीवन पर विचार करने बैठते हैं तब उन्हें वाल्या. श्रेणीविभाग किया जाय तो उसके पाठ भेद होगे