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________________ ४७ [ २०५] - - - के पीछे घूमनेवाले मध्यम श्रेणी के कहलाये और न्याय के खातिर हमें उसका उपकार मानना अधिकारियों को मानपत्र देनेवाले जघन्य श्रेणी चाहिये और यथाशक्य आदर पूजा से कृतज्ञता कं। यह अन्तर कुछ जचता नहीं। यह तो विपय प्रगट करना चाहिये, यह मनोवृत्ति अच्छी है। को उत्तेजन देना है। इसी दृष्टि से एक कारीगर अपने औजारों की उत्तर-विषयातुर होकर सुन्दरियों को पूजा करता है एक व्यापारी तगजू की पूजा महत्व देनेवाले गुणभक्त या कलामक्त नहीं हैं। करता है। कृतज्ञ मनोवृत्ति जड़ चेतन का भेद - भी गौण कर देती है ! गगा आदि की भक्ति के वे तो विषयभक्त होने से स्वार्थभक्त हैं। विषय , मूल में भी यही कृतज्ञता की भावना है। इसे को धक्का लगा कि उनकी भक्ति गई। ऐसे स्वार्थ देव आदि समझकर अद्भुन शक्तियों की कल्पना भक्त तो जघन्य श्रेणी के हैं। सौन्दयक्ति तो तो मुढ़ता है पर उपकारी सममकर भक्ति करना सामहिक हित की दृष्टि से होती है। एक विद्वान उचित है। इससे मनुष्य में कृतज्ञता जगती रहती को इसलिये भक्ति करना कि उसने हमारे लड़के है । कृतज्ञता से परोपकारियों की संख्या बढ़ती को मुफ्त में पढ़ा दिया है, गुणमक्ति नहीं है, है कृतघ्नता से अगणित उपकारी नष्ट होते हैं। स्वार्थमक्ति है। एक सुन्दरी की इसलियं भक्ति प्रश्न-उपकारमति तो स्वार्थभक्ति है स्वार्थकरना कि उसके रूप से खेिं सिकती है सौन्दय- भक्ति तो अधम श्रेणी की मकि है फिर उपकार भक्ति नहीं है स्वार्थभक्ति है। निस्वार्थ दृष्टि से के नाम से ससे उत्तम श्रेणी की क्यों कहा ? जो भक्ति होगी वही गुणभक्ति रहेगी और उत्तर-स्वार्थभक्ति और उपकारभक्ति में मध्यम श्रेणी में शामिल होगी। अन्ता है। स्वार्थमकति मोह का परिणाम है ___ शुद्धिभत ( शुधो मक्त)-पवित्र जीवन और उपकारभक्ति विवेक का । स्वार्थ नष्ट होने बितानेवाले लोगों की भक्ति करना शुद्धिक्ति पर स्वार्थभकति नष्ट होजाती है जब कि उपकारहै। इस भक्ति में कोई दुस्वार्थ नहीं होता अपने अति उपकार नष्ट होनेपर भी बनी रहती है, जीवन को पवित्रता की ओर लेजाने का सत्वार्थ इसमें कृतज्ञता है। स्वार्थभक्ति में दीनता, दासता होता है। यह उत्तम श्रेणी की भक्ति है क्योंकि मोह आदि है। इससे पवित्र जीवन बिताने की उत्तेजना मिलती ११ सत्यमक्त (सत्योभक्त)- शुद्धि और ___उपकार दोनों के सम्मिश्रण की भक्ति सत्यभक्ति २० उपकारभक्ति ( भत्तो भक्त )-- किसी है। न तो कोरी शुद्धि से जीवन की पूर्ण सफलना वस्त से कोई लाभ पहुँचता हो तो उसके विषय है न कोरे उपकार से, ये तो सत्य के एक एक में कृतज्ञता रखता उपकारभक्ति है। यह भी अंश है । जीवन को शुद्ध बनाया पर वह जीवन उत्तम श्रेणी की है क्योंकि इससे उपकारियों की दुनिया के काम न आया, सिर्फ पुजने के काम सख्या बढ़ती है। का रहा तो ऐसा जीवन अच्छा होने पर भी पूर्ण गाय को जब माता कहते हैं तब यही उप. नहीं है । और उपकार किया पर जीवन पवित्र न कारभक्ति पाती है। गाय एक जानवर है खुद बना तो भी वह आदर्श न बना, बल्कि कदाचिन उसे अपनी उपकारकता का पता नहीं है पर हम यह भी हो सकता है कि वह उपकार के बदले उससे लाभ उठाते हैं इसलिये माता कहकर भक्ति अपकार अधिक कर जाय। दोनों को मिलाने से प्रगट करते हैं। यह किसी नाम की भक्ति नहीं जीवन की पूर्णता है, यही सत्य है इसी की है किन्तु गोजाति के द्वारा होनेवाले मानव जाति भक्ति सत्यभकति है। कार की भक्ति है। यदि हमने अपनी शक्ति ये ग्यारह प्रकार के भकृत बतलाय है इन्हें में विवश करके किसी से सेवा ली है तो भी सेवक उपासक पूजक आदि भी कह सकते हैं।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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