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स्वाभाविक है । फिर भी इससे यह निष्कर्ष नहीं freear to raat aata है सब अच्छा है। तात्पर्य इतना ही है कि प्राचीन को अपेक्षा नवीन होने का अधिक अवसर है । होसकता है कि किसी नवीन अधिक असर का ठीक ठीक या पूरा उपयोग न हुआ हो और किसी प्राचीन में कम अवसर का भी उचित और अधिक उपयोग हुआ हो तो ऐसी हालत में नवीन हुप्र की अपेar aata at होगा । इसलिये प्राचीन और नवीन के विषय में निःपक्ष रहना हो सबसे अच्छा है ।
नवीनता मोह (नूयो मुहो) प्राचीनता का मोह जितना सत्यदर्शन में बाधक है उतना तो नहीं, फिर भी काफी परिमाण मे, नवीनता का मोह भी सत्यदर्शन मे बाधक है। नवीन होने से ही कोई वस्तु प्राचीन से अच्छी नही होती। कभी कभी orata विकृत होकर नवीन धारण कर लेता है। ऐसी अवस्था में विकृतिको मूलवस्तु से अच्छी नहीं मान सकते। धर्मों के इतिहास में ऐसी बहुतसी वाले मिलेगी कि जो धर्म मून मे अच्छे थे, वे पीछे विकृत होगये। यहां विकृत रूप नवीन कहलाया, पर नवीन होने से वह अच्छा नहीं कहा जासकता । ऐसी अवस्था में विकृति को हटाकर फिर मूल की ओर या प्राचीन की ओर जाना पड़े तो प्राचीन होने के कारण ही इस प्रयत्न को बुरा नहीं कहेंगे।
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जैसे - वैदिक धर्म की आश्रम व्यवस्था पुरानी चीज है आज नष्ट हो चुकी है, अब फिर आवश्यकता देखकर कोई उसकी स्थापना करना चाहे तो प्राचीन होने के कारण वह असत्य न हो जायगी।
इसलाम में व्याज लेने की मनाई है पर यह विधान पुराना पड़गया है आज कोई व्याज को बन्द करना चाहे तो यह प्राचीनता के कारण अनुचित न होजायेगा !
जैन और बौद्धों ने मूर्तिपूजा को व्यवस्थित रूप दिया, पीछे परिस्थिति बदल जाने से उसका विरोध हुआ। कोई उसको फिर व्यवस्थित
और व्यापक रूप देना चाहे तो प्राचीन होने के कारण यह असत्य न होजायगा ।
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कभी एकतन्त्र से प्रजातन्त्र, कभी प्रजातंत्र एकतन्त्र पर आना पडता है। पुरानी चीज का पुनरुद्धार होते देखकर नवीनता मोही को घबराना चाहिये। प्राचीन अगर उपयोगी है तो वह नवीन ही है । सर्वथा नवीन असम्भव है ।
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सत्यदर्शन मे हर तरह का मोह बाधक है। चाहे वह स्वत्वमोह हो चाहे कालमोह, चाहे नवीaar at मोह हो चाहे प्राचीनता का, सब तरह के मोड़ों का या are froपक्षता पैदा करना चाहिये। सत्येश्वर के दर्शन के लिये निष्पक्षता आवश्यक गुण है ।
२ परीक्षकता (देजको )
निष्पक्षता पालेनेवाला व्यक्ति ठीक ठीक परीक्षा कर सकता है। परीक्षा का मतलब, सत्यअसत्य भलाई-बुराई की जाप करना कोई सत्य परम्परा से मिला हो तो भी उसकी और व्यक्ति का विचार करते हुए कल्याणकारी है || इतनी जाच तो करना ही चाहिये कि वह देशकाल कि नहीं ? जो आदमी इतनी भी परीक्षा नही कर सकता वह सत्येश्वर का दर्शन नही कर सकना । वह किसी बात को माने या न माने उसके मत का कोई मूल्य नहीं है। तुम यह बात क्यों मानते हो ? क्योंकि हमारे पुरखे मानते. आये है, यह उत्तर सत्यदर्शक का उत्तर नहीं है । " परम्परा की मान्यता से ही किसी बात को मानने में मनुष्य होने का कोई लाभ न हुआ। याप हिन्दू था सो हिन्दू होना सत्य, बाप मुसलमान था सो मुसलमान होना सत्य, त्राप जैन वौद्ध या ईसाई था सो जैन बौद्ध या ईसाई होना सत्य, बाप मनुष्य था सो मनुष्य होना सत्य और पशु होता तो पशु होना सत्य, यह की विचारधारा नहीं है। सत्यदर्शक होने के लि इन सब बातो के भले बुरे अंशा की जाच होना चाहिये। आदमीको परीक्षक बनना चाहिये
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परीक्षक बनने के लिये तीन बातों की जरू रत जरूरत है। क-विचारकना, खनता ग-प्रमाणज्ञान |