SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्यामृत - meaner -- - पोशाक बदल लेना चाहिये और हम कहे कि नतामोह न होता तो धर्मशास्त्रों में प्राचीनता की हमारे बाप क्या मर्ख थे जिनने यह पोशाक बन. कल्पित कहानियाँ न भरी गईं होती और न वादी तो यह कथन हसाग पागलपन होगा। उनके अनुयायी प्राचीनता को सत्य की कसौटी प्राचीनता मोह से ऐसा ही पागलपन पाता है। मानकर स्वपरवञ्चना करते । पराचीनतामोही व्यक्ति अपने सम्प्रदाय को पुराने से पुराना तीसरी बात यह है कि देशकाल के अनु सारित करने के लिये पड़ी से चोटी तक पसीना सार सुधार करने वाला जनसेवक भले ही पुगने बहाता है। जब कि निमोह या विषकी व्यक्ति लोगो के टुकडे पाकर पला हो, मनुष्य अन्य हाता को पर्वाह नहीं करता । बल्कि उसकी पर जिस प्रकार छोटा सा बीज आसपास के कूडेकचरे को पाकर एक महान वृक्ष धनधाता है, धमसंस्था को कोई सब से प्राचीन कहे तो वह मुसकराकर कहेगा कि मेरी धर्मसंस्था इतनी और उसका मूल्य बीज से तथा कूड़े-कचरे से कई गुणा होजाता है, उसीप्रकार पुराने टुकडों खराब नहीं है कि मैं उसे सब से पराचीन कहूँ। को पाकर भी एक सुधारक ननसेवक महात्मा इस विवेचन से पता लगता है कि जिसे बन सकता है। सत्य का दर्शन करना है उसे प्राचीनता का मोह नष्ट कर देना चाहिये। पर राचीनता के मोह को ___प्राचीनतामोहियो की प्रबलता के कारण नष्ट करने का मतलब यह नहीं है कि हर एक ही बहतसी धर्मसंस्थाओंको अपने अपर प्राचीनता चीनबस्त की अवहेलना को जाय। स्वपरकी छाप लगाना पड़ी है। धर्मसंस्था वो सत्य का कल्याणकारी तत्व चाहे नवीन हो चाहे पाचीन, या धर्म का अमुक देशकाल के लिये बनाया गया में ग्रहण करना चाहिये। फिर भी इतना कहा कार्यक्रम है । सत्य अनादि अनत कहा जासकता। । है पर उसके लिये जो कार्यक्रम बनाया जाता है जासकता है कि प्राचीन की अपेक्षा नवीन को | वह तो अनादि अनर नहीं कहा जासकता । पर ती विशेषताएँ रहती है-- अमला होने का अवसर अधिक है। नवीन में जब जनता प्राचीनता की छाप के बिना किसी (सत्य को ग्रहण करने को तैयार नहीं होती तब । १-नवीन हमारी वर्तमान परिस्थिति के धर्मसंस्थाओं के संस्थापकों अर्थात तीर्थंकरो को । निकट होने से पारीन की अपेक्षा हमारी परिश्या पीछे से उसके शिष्य प्रतिष्यरूप सञ्चालकों को स्थिति के अधिक अनुकूल होता है। उस नवीन या सायिक सत्य पर अनादिता की २यह स्वभाव है कि पैदा होने या बनने या प्राचीनता की छाप लगाना पडनी है। इस. के बाद हर एक वस्तु परिवर्तित या विकृत होती लिय अधिकाश धर्मसंस्थाओं के सस्थापका तीर्थ- जाती है, कदाचित कोई वस्तु कुछ समय तक कर और सञ्चालक किसी न किसी रूप में अपनी विकसित होने के बाद विक्षत होती है पर विकृत धर्मसंस्था का इतिहास सृष्टि के काल्पत प्रारम्भ होने लगती है जरूर, इसलिये जो वस्तु बहुत से शुरु करते हैं, इस प्रकार धार्मिक सत्य देने के पुरानी हो उसे विकृत होने का अधिक अवसर पलये उन्हें ऐतिहासिक तथ्य का बोझ सिर पर मिला है. जब कि नवीन को विकृत होने का इतना नाहना पड़ता है। शलान्तर में यह अतथ्य इतना अवसर नहीं मिला है। नवल क्षेजाता है कि उसके आगे धार्मिक सल्य प्राचीन के कर्ता को जितना अनुभव कार मूल्य कम माना जाने लगता है। इस बुराई और साधनसामग्री मिल सकती है, नवीन के की जिम्मेदारी धर्मसंस्था के संचालको पर नहीं को को उससे कुछ अधिक मिलती है इसलिये स्ट्राली जासकती या बहुत कम हाली ला सकता नवीन कुछ अधिक सत्य या पूर्ण रहता है। * सारी या अधिकाश लिम्मेदारी प्राचीनता- इन तीन कारणों से सत्यासत्य के निर्णय चोही समाज की होती है। अगर उसमें प्राची- में नवीनता से कुछ अधिक सहारा मिले यह
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy