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________________ टाका - - - - - - - त्याग भी करना पड़ता है। और जब स्वच्छता शुद्धि की पर्वाह क्यों करेगा ? परन्तु यह भ्रम का भी शृंगार के रूप में उपयोग होने लगता है है। जिसका हृदय पवित्र है उसे बाहिरी शद्धि या स्वचछत्ता को श्रोट में इतना समय बर्बाद का भी खयाल रखना चाहिये । बाहिरी शुद्धि होने लगता है कि परिव्राजक जीवन और प्रचार अपनी भलाई के लिये ही नहीं दूसरो की मलाई में बाधा पाने लगती है तब उस स्वच्छता का भी के लिये भी जरूरी है। गंदगी बहुत बड़ा पाप न त्याग आवश्यक कर दिया जाता है । कोई कोई सही, परन्तु पाप तो है। और कभी कभी तो नियम कसहिणुता को टिकाये रखने के लिये उसका फल बहुत बड़े पाप से भी अधिक हो अथवा उसकी परीक्षा करने के लिये बनाये जाते हैं। जाता है । गदगी के कारण बीमारियाँ फैलती है और हमारी परेशानी बढ़ती है-कदाचित मौत । साधुता बात है एक. और साधुसंस्था वात भी हो जाती है जो हमारी सेवा करते हैं उनकी है दूसरी। कभी कभी साधु संस्थाओं को एसा भी परेशानी बढती है, पास पड़ोस में भी रहनेपरिस्थिति में से गुजरना पड़ता है कि उनके जीवन में अतिवाद आ जाता है। जब तक वह वाले भी बीमारी के शिकार होकर दुःख उठाते हैं, मिलने-जुलनेवाले भी दुर्गंध आदि से दुःखी औपध के रूप में कुछ चिकित्सा करे तब तक तो होते हैं। इन सब कारणो से अन्त शुद्ध व्यक्ति ठोक, वाद मे जब उसकी उपयोगिता नहीं रहती को को यथाशक्य और यथायोग्य बहिःशुद्ध होने तब उसे हटा देना चाहिये। की भी कोशिश करना चाहिये। मतलब यह है कि बाह्यशुद्धि उपेक्षणीय नहीं है। यद्यपि अन्तःशुद्धि के बराबर उसका हॉ, स्वच्छता एक बात है और शृङ्गार महत्व नहीं है फिर भी वह आवश्यक है। उसके दूसरा । यद्यपि अन्त शुद्धि के साथ प्रचित विना अन्त शुद्धि रहने पर भी जीवन अधरा है शृङ्गार का विरोध नहीं है फिर भी श्रृंगार पर उपेना की जासकती है परन्तु स्वच्छता पर उपेक्षा और आदर्श से तो बहुत दूर है। करना ठीक नहीं है। प्रश्न -जो परमहंस आदि साधु मन की ____ हाँ, स्वच्छता को भी सीमा होती है। कोई उत्कृष्ट निर्मलता प्राप्त कर लेते है किन्तु बाह्यशुद्धि कोई स्वच्छता के नामपर दिनभर सावुन ही र पर लिनका ध्यान नहीं जावा, क्या उन्हें आदर्श, घिसा करे या अन्य आवश्यक कामों को गौण' से बहुत दूर कहना चाहिये । क्या वे महान से करदे तो यह ठीक नहीं, उससे अन्तःशुद्धि का महान् नहीं हैं ? नाश हो जायगा ! अपनी आर्थिक परिस्थिति और उत्तर-वे महान से महान हैं इसलिये पुज्य समय के अनुकूल अधिक से अधिक स्वच्छता या धन्दनीय हैं फिर भी आदर्श से बहुत दूर हैं, रखना उचित है। खासकर शुद्धिः जीवन के विषय में । किसी १२-जीवन-जीवन (जिवोजियो) दूसरे विषय में वे आदर्श हो सकते हैं । शुद्धि , [दो और पाँचभेद । जीवन की दृष्टि से उभयशुद्ध ही पूर्णशुद्ध हैं। जीवन की दृष्टि से भी जीवन का श्रेणीउभयशुद्ध (टुमशुध)-जो हृदय से पवित्र विभाग होता है । साधारणत. जीवित उसे कहते है. अथांत संयमी निश्छल विनीत और नि.स्वार्थ हैं जिसकी श्वास चलती है, खाता पीता है। परन्तु है और शरीर श्रादि की स्वच्छता मी रग्बना है ऐसा जीवन, तो वृक्षों और पशुओं में मी पाया वह अयशद्ध है। बहुत से लोगो ने अन्त शुद्धि जाता है। वास्तविक जीवन की परीक्षा उसके और बहिशुद्धि में विरोध समझ लिया है, वे उपयोग की तथा कर्मठना की दृष्टि से है । इसलिये समते है कि जिसका हृदय शुद्ध है वह बाहिरी जिनमें उत्साह है, आलस्य नहीं है, जो कर्मशील
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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