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________________ छटा अध्याय (डून होपयो) 'जीवन दृष्टि (जिवो लंको) अपने जीवन को और जगत को सुखमय यद्यपि आत्मार्थ शब्द से भी जीवार्थ कहा बनाने के लिये हर एक नरनारी को योगी, खास- जा सकता था पर आत्मार्थी शब्द भी मोक्षार्थी, कर कर्मयोगी, बनने का प्रयत्न करना चाहिये। और उसमे भी ध्यानयोगी के लिये अधिक प्रयुक्त हम योगी हुए हैं या नहीं. योग के मार्ग में स्थित होता है इसलिये वह भी ठीक नहीं है। है कि नहीं, हमाग जीवन कितना विकसित है मानवमाषा में इसके लिये एक स्वतन्त्र यह बात समझने के लिये हर एक व्यक्ति को धानुघोट है उससे बना हुआ घोटो शब्द अपने जीवन पर दृष्टि डालना चाहिये, उसका बहुत ठीक है। निरीक्षण करना चाहिये। ये चार जीवन के मुख्य या महत्त्वपूर्ण प्रयोजीवन के अनेक रूप हैं और हर एक रूप जन या ध्येय है। से जीवन के विकास अविकास का पता लगता सच पछा जाय तो प्रयोजन तो सिर्फ सख । है। जीवन के भिन्न भिन्न रूपो पर दृष्टि डालकर से है। पर धर्म अर्थ काम मोक्ष ये चारों जीवा विचार करना चाहिये कि इंम कहां है। अगर सुख के साधन हैं इसलिये इन्हे मी ध्येय मान हमारा जीवन अविकसित अवस्था में हो तो लिया गया है। विकसित अवस्था में लेजाना चाहिये, और विक- यद्यपि इन चारों का सम्बन्ध सुख के साथ सित करते करते योगी बन जाना चाहिये। एक सरीखा नहीं है काम और मोक्ष का सख के इसी उद्देश से ग्रहां जीवन पर दृष्टि डाली साथ साक्षात् सम्बन्ध है और धर्म अर्थ का परजाती है। स्परा सम्बन्ध, इसलिये वास्तविक जीवाण को १- जीवाथै जीवन { घोटो जिबो) काम और मोक्ष दो ही कहलाये फिर भी धर्म और अर्थ जीवार्थ हैं क्योंकि धर्म और अर्था के बारह भेद (कगान प्रकोखे) मिलने पर काम और मोक्ष सुलभ हो जाते हैं जीवन के मुख्य अर्थ, प्रयोजन या कर्तव्य काम और मोक्ष के लिये किये जाने वाले प्रयत्न । चार हैं। धर्म (धर्मो) अर्थ ( काजो) काम का बहु भाग धर्म और अर्थ के लिये किये जाने (चिंगोमोक्ष (जिन्नो) वाले प्रयत्न के रूप में परिणित होता है। इस इन्हें पुरुषार्थ कहा जाता है इस शब्द का प्रकार पार जीवार्थ हैं और इन चारों के समन्वय उपयोग यहा नहीं किया गया क्योकि अब पुरुप में जीवन की सफलता है।। शब्द आत्मा या ब्रह्म की अपेक्षा पुल्लिंग के अर्थ १ धर्म-काम के साधनों को प्राप्त करने में में अधिक प्रचलित है इसलिये स्पष्टता से पुरुए दूसरों के उचित और शक्य स्वार्थों का तथा अपने और स्त्री दोनों का बोध करने के लिये जीवार्थ हित का विवेक रखना, स्वार्थ पर संयम रखना। शब्द लिया गया है। २ अर्थ-काम के साधनों को प्राप्त करना ।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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