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________________ - - - - - - % A -. जव कि धर्मसमभाव के जरिये भिन्न-भिन्न तरह उसे सौभाग्य सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। की जनता का भी सम्मिलन हुआ है, उनका और यह कहना तो घोर एकान्त है कि “पदार्थ एक समाज, एक राष्ट्र श्रादि घन सका है। हिन्द विज्ञान का सापेक्षवाद तो विवेकाश्रित है और के इतिहास में ये दोनो बातें साफ दिखाई देती धर्मविज्ञान का सापेक्षवाद विवेकहीन अविज्ञान है। हिन्दू मुसलमानों मे धर्म समभाव के अभाव है कोरी भावना है मन की लहर है।" पदार्थ के कारण देश के टुकड़े हुए, लाखो मरे, करोड़ो के क्षेत्रमे अनेकान्त चष्टि जितनी वैज्ञानिक है भारो और अरबो की सम्पत्ति नष्ट हुई। क्लरता जीवन के क्षेत्रमे धर्मसमभावष्टि मी उतनी ही केयो से शैतान भी शरमागया। और आये- बैज्ञानिक है। मतियों के नाम पर अरब देश के अनार्य के समन्वय के बाद शैव वैष्णव आदि में टुकड़े टुकड़े करनेवाले और एक दूसरे का खून जो समभाव पैदा हुआ उससे धार्मिक द्वन्द दूर बहाने वाले अरबों के लिये मूर्ति पूजा का विरोध होगये । अन्य देशो का इतिहास भी धर्मसमभाव जितमा उचित था, उतना ही उचित मूर्ति के ममें के लाभो की गवाही देसकंगा। को और उसकी धर्म साधनता को जानने वाले ३ अनेकान्त दृष्टि लब्धि (लंलुको लंको- जैन बौद्धा के लिये मूर्ति का उपयोग था । इसीसीनो धर्म समभाव से मनुष्य की घोष्ट सर्वतो. प्रकार प्राचार शास्त्र के भिन्न भिन्न विधान कहा मुखी होजाती है । कौनसा आचार कौनसा विचार उचित हैं कहां अनुचित है यह सापेक्ष दृष्टि किसको कर कहा कितना उपयोगी या अनुप- जीवन की वास्तविकता से संबन्ध रखती है। योगी है इसका इससे पता लगता है। दर्शन के यह केवल मन की लहर नहीं है कोरी भावना क्षेत्र में म. महावीर ने यह अनेकान्त दृष्टि दी नहीं है किन्तु जीवन की वैज्ञानिक चिकित्सा थी, पर धर्म के क्षेत्र में उसका उपयोग यथेष्ट न है। द्रव्यो के या पदार्थों के विज्ञान से इसकी हो सका। अगर होता तो जैन धर्म एक धर्गसम. उपयोगिता आवश्यकता हजारो गुणी अधिक है । भावी तीर्थ बनजाता। फिर भी जितनी अनेकात पदाथ विज्ञान के विषयमे गलत जानकारी करके अति आसकी सत्य की उतनी ही अधिक उपलन्धि भी मनुष्य सम्यक्त्वी अहत केवली योगी आदि हुई, बहुत कुछ विरोध परिहार भी हुआ। होसकता है पर धर्म विज्ञान के विषयमें गलती प्रश्न अनेकान्त दष्टि का धर्मसमभाव से होने से उसका सारा पदार्थ विज्ञनि जीवन को न्या सम्बन्ध ? अनेकान्त दृष्टि विज्ञान या विवेक नरक बनाने वाला बन सकता है। इसलिये तत्व पर आश्रित है वह वस्तुस्थितिविहीन समन्वय धर्म विज्ञान है पदार्थविज्ञान नहीं। और धर्मका भूतम प्रयास नहीं है, जब कि धर्मसमभाव समभाव उसी धर्म विज्ञान के सहारे खड़ा होता एक भावना है-मन की लहर है-यह कदाचित है कोरी भावना या मन की लहर के सहारे नहीं। कल्याणकारी होने से सत्य कही जासके पर कोरी भावना के सहारे जो खडा होता है वह वास्तविकता तो उसमें नहीं मानी जासकती। वैनयिक मिथ्यात्व है, चापलूसी है या कुछ विज्ञान तत्वज्ञान या ऐतिहासिक तथ्य के सामने अच्छे शब्द में शिष्टाचार है । धर्मसमभाव वह टिक नहीं सकती। जीवन शुद्धि, समाजशुद्धि विकास आदि के उत्तर-भूतकाल मे अनेकान्त दृष्टि का अनन्तरूपो-अाधार विचार व्यवहारो के वियव्यवहार पदार्थ विज्ञान तक ही सीमित रहा, यमे नि पक्ष सापेक्ष दृष्टि से संबन्ध रखनेवाली वह धर्मविज्ञान के क्षेत्रमे ठीक ठीक या पर्याप्त विवेकपूर्ण व्यापक विचारधारा है। इस धामक काम न कर सका, यह दुर्भाग्य ही कहा जास- अनेकान्त दृष्टिकी लन्धि धर्म-समभाव से कता है, पर कम दुर्भाग्य को छिपाने के लिये होती है।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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