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________________ A -- - - - RE का उपयोग करते समय युगवाह्य या असत्य ही प्रगट होगी । चदि विषमता को माया लागा अंश निकाल देना चाहिये और युगसत्य जोड़ तो विवेकपूर्ण समभाव कैसे रहेगा ? आखिर इस ना चाहिये। इस प्रकार विवेक और बाहर धर्म समभाव का उपयोग क्या है ? शंक उसका उपयोग करना चाहिये। उत्तर-विश्लेषण से विषमता पैदा होती ___ यद्यपि धर्म के नाम पर चलने वाले ऐसे भी है पर उसीसे उसमें अपने जन्म के धर्म में पक्ष. सम्प्रदाय होसकते हैं जो किसी व्यक्ति ने सत्य पात मोह आदि नहीं रहते. दूसरे धर्मों से इस जनहित के लिये नहीं किन्तु व्यक्तित्व के सोह- लिये द्वीप ( उपेक्षा वृणा) आदि नहीं होते कि वे श, ईर्ष्या अहंकार चा लोभवश खडे कर लिये हो, पराये हैं, अपने धर्म की दो एक अच्छी बातो की, 'नमें लोकहित की उपेक्षा या विरोध हुआ हो और दसरे के धर्मो की चुरी बुरी बातों के गीत फर मी किसी कारण चल पड़े हो । एसे धर्म गाने की बात नहीं रहती, इसप्रकार मनुष्य टेक नहीं पात या बहुत फेल नहीं पाते । समभाव निपान विचारक, सत्यान्वेपी और मानवताप्रेमी नाम पर उनके आगे श्रात्सससपेरण को जलरत बनता है। धर्म समभाव के खास खास लाभ ये हैंमन-धर्म तो सत्य अहिंसा आदि हैं। । सत्यशोधकता, २ थामिक द्वन्द परिहार, उनम आदर मति आदि रखना जरूरी है। पर. ३. अनेकान्तष्टि लान्ध, ४ स्वत्वमोह विजय, उनके नामपर जो अनेक तीर्थ वन हैं उनके विष । इतिहास प्रकाश ६ कृतघ्नता परिहार, ७ धर्मधर्म समभाव रखने का क्या मतलब है ? क्या मर्मज्ञता, २. सामाजिकता वृद्धि । इससे विनय मिथ्यात्व या अविवेक पैदा नहीं १-तत्यशोधकता ( सत्य हिरको) समहोता ? क्या यह सब की चापलूसी नहीं है। भावी मनुष्य ही सत्य को ठीक ठीक स्रोल कर उत्तर-धर्मसमभाव के नामपर अविवा सकता है। जिन्हें किसी एक धर्म का पक्षपात चापलूसी या विनय मिथ्यात्व आसकते हैं पर यं नहीं है वे ही यह समझ सकते है कि कहाँ कहा धर्मसमभाव नहीं कहला सकते । इनसे धर्मसम- क्या क्या सत्य है । समसाव हीन व्यक्ति अपने भाव में जमीन आसमान का अन्तर है । विनय धर्म के गणों को अतिरक्षित कर उसके गीत मिथ्यात्व में अविवेक की सीमा है और धर्म स- गाता है और दूसरे धर्मों के गुणो पर अपेक्षा मभाव में विवेक की सीमा है। विनय मिथ्यात्वी करता है, या उन्हें विकृत रूप में चित्रण कर किसी धर्म के गुण नहीं समझता न उनका निन्दा करता है. अपने धर्म के दोषों और त्रुटियो विश्लेषण करता है, जब कि वर्मसमभावी सबके पर उपेक्षा करता है छिपाता है जब कि दुसरे गुणोप समझता है उनका विश्लेषण करता है। धर्म के दोपो को अतिरंजित कर बार बार उनका जावान अन्छी है यही ग्रहण करता है उसी की उल्लेख करता है हिंदोरा पीटना है। ऐसी हालत तारीफ करना है, उसी के कारण इस बम की या मे वह सत्य की खोज नहीं कर पाता उसमें वैज्ञासमतीर्थकर गिम्बर अत्रमार की पूजा करता है. निझता नहीं आसकती। इसमें विज्ञान के नामघुरी घात को जहण नहीं करता, उसकी तारीफ पर मुंह छिपाने की वृत्ति पैदा होजाती है। नहीं करना उसके कारण किसी भी पूजा नहीं -वार्मिक दट परिहार ( भन्तो लगे रग्ना सी हालत में वर्म समभाव, न बनना- लोपो ) धर्मसंस्थान में समभाव न होने से गर्ग धापनमी है, न मूढनापूर्ण बैनयिक मिथ्यान्व। जगत में इतने अन्याय अत्याचार हुग, देशो के प्रश्न- जब सा विश्लेषण करना है तब टुकड़े हुए, मनुष्य में शैतानियत दिखाई दी, कि मभार देगा विश्लेषण में नो विधमना यन नीमको लोग अभिशाप तक नमकने लगे.
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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