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________________ हाटकात - - - - -- - - विचार नहीं संस्कार है और इन संस्कारा का और समस्त काल में उपयोगी होसके ऐसी कारण लोकाचार है। संस्कार समझने से नहीं योजना बनाई नहीं जासकती। ऐसी असीम या पड़ते किन्तु प्रासपास के लोगो के आचार से अनंत योजना मनुष्य की ज्ञानशक्ति और श पड़ते हैं। और गही लोकाचार है। इसलिये शक्ति के बाहर है। साधारणत: ऐसी योजनाएँ लावर को कम महत्व देना ठीक नहीं। अपने देशकाल के अनुरूप ही बनती हैं, हा । उत्तर-लोकाचार की उपयोगिता अस्वी- दूरदर्शिता की विशेषता के कारण अधिक से कार नहीं की जा सकती परन्तु उसका जितना अधिक देशकाल को ध्यान में रखा जासकता महत्व है उतना ही उसका संशोधन आवश्यक है। इस दृष्टि से इन योजनाओ मे दरतमता हो है जिस लोकाचार पर मनुष्यना-निर्माप मन्मार सकती है । जो योजना जिस देशकाल के अनुरूप तक वलम्बित हो उसमें विवेक को स्थान न है, कल्याणकर है, वह योजना उस देशकाल के होश मनप्यता को पशुता की तरफ ले जाना है। सत्य है। था जितना हिस्सा कल्याणकर है उतना अन्वे अर्थात कल्याणकारी लोकाचार को नष्ट हिस्सा सत्य है । इस सत्य को ग्रहण करना, करने की जमरत नहीं है, जरूरत है देशकाल कालमोह स्वत्वमोह छोड़कर इन पर नि:पक्ष विन्द्ध अकल्याण कर लोसाचार को बदलने की, विचार करना, इनके विषय मे योग्य शिष्टाचार जिससे संस्कार अच्छे पड़े। का पालन करना धर्मसमभाव है। लोकमठता का त्यागी कढया का गुलाम यो अगर विशेप नामकरण न किया जाय नहोकर उचित रूड़ियो का पालन करेगा, देश- तो धर्म जगतमें एक है। भले ही उसे सत्य कहें, काल के अनुसार सुधार करने को तैयार रहेगा। अहिंसा कहें, प्रेम कहें, सदाचार कहें । पर उसके इस प्रकार चार तरह की मूढ़ताओ का त्यागी व्यावहारिक रूप देशकाल को देखते हुए असंख्य और शिपज विचारक बनकर मनुष्य विवंकी - हैं। धर्म को पालन करने के लिये दंशकाल के वनता है जो कि योगी जीधन की पहिली शन है। असार जो आचार विचार धर्म-समभाव (ोसम्मभावो) हैं उन्हे भी धर्म कहते है। उनकी जब परम्परा योगी का दूसरा चिन्ह धर्म समभाव है चलती है तब उन्हे सम्प्रदाय कहते हैं । इस प्रकार जिसका अर्थ है-- धर्म, संरदाय, मत, मजहब रिलीजन, तीर्थ, वर्मपथ या सभ्यता फैल विविध विचार। आदि शब्द उस नित्यधर्म, सत्य और अहिंसा के । समभावी निपक्ष बन लो उन सब का सार॥ ___ सामयिक दैशिक रूप के लिये प्रयुक्त होते हैं। पैम्बर तीर्थ कर प्रवतार मसीह ऋषि हिन्दूधर्म, इसलाम मजहब, क्रिश्चियानिटी, जैन-' आदि कहलाने वाले महात्माओं ने, महान विचा. धम, योद्ध धर्म, अरथोस्ती धम, कास्यशियस रको ने, जगत को सुधारने और सुखी बनाने के धर्म, आदि जो अनेक धर्म जगत में फैले है। लिये अनेक तरह की योजना बनाई और उनसे में अधिकाश अपने अपने समय और चलाई हैं। उनमें से कुछ योजनाए धर्मपथ या अपने अपने देश के लिये हितकारी थे और आज सम्प्रदाय कहलाने लगी है, कुछ इस प्रकार की भी उनका बहुतसा भाग जगत के लिये हितकारी छाप लगाये बिना लोगा के प्राचार विचार में है, उनकी विविक्ता परस्पर विरोधी नहीं है. घल मिल गई हैं। इनमें से अधिकाश योजनाएं दंशकाल साक्षेप होने से विरोध का कारण अपने देशाकाल को देखते हुए लगत्कल्याण के रह जाता इन धर्मो को पूर्ण सन्य समझना, या होपयोगी होती हैं । पूर्ण सत्य तो कोई पूर्ण असत्य समझाना भूल है। हर एक योजना बन नहीं सकती, क्याकि समस्त विश्व सामयिक सत्य है, सत्यका अंश है। किसो
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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