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वास्तविक सन्तोष है और उत्तम है। कोयले चबाना और फिर यह सन्तोप करना कि
'कोयला तो संसार के सभी रसोईघरों में रहेगा दुःख सन्तोप-दुःख को स्वाभाविक, या ,
हो, वह हमारे ही क्या सभी के भाग्य में बढ़ा अनुपाय मानने से, या अपने समान दूसरों को
है इसलिये कोयला चत्राने की हमे चिन्ता क्यो भी दुखी देखने से जो सन्तोप होता है वह दुख
करना चाहिये तो यह मूर्खता होगी। जो संसार सन्तोप है । इसमें सन्तोष का कारण यह होता
सुखमय है और उससे भी अधिक सुखमय बनाया है कि मनुष्य सोचंता है कि दु.ख के कारण मैं
जासकता है, उसके थोड़े से दुख को और भी दूसरो से कमजोर अभागा था गयाबीता नहीं हूँ,
कम किया जासकता है, उसे दुखमय मानकर यह स्वाभाविक या अनिवार्य है इसलिये कोई कुछ नहीं कर सकता इसलिये मैं भी कुछ नहीं
निराश होजाना, भागने का बेकार डौल करना, करसकता, ऐसा दुःख सभी के पीछे पड़ा है सुखसन्तोप की जगह टु खसन्तोष करना, मुहर अाखिर में अकेला ही तो दुखी नहीं है। इस जुटाकर काड़ी का सन्तोप करना है। ।
कार दुख स्वाभाविक और सर्वसाधारण में . घाटे का यह व्यापार बन्द करना चाहिये व्यापक मानने से अपने गौरव की रक्षा होती है और संसार का जो वास्तविक रूप है उसका
और इस बात से एक प्रकार का सन्तोष होता विचारकर सुख बढ़ाने की और दुःख घटाने की है। जहां सुख-सन्तोष का अवसर न हो वहां कोशिश करना चाहिये। यह दुख-सन्तोप उचित है। सुख-सन्तोप की इन ग्यारह बातो से पता लगता है कि वगधरी तो यह नहीं कर सकता, फिर भी न कुछ संसार में दुःख सेरभर और सुख तोलाभर नहीं से कुछ अच्छा' इस दृष्टि से सुखसन्तोष के है कि दु.खाभाव के लिये सुख को भी छोड़ा अभाव में यह अच्छा है।
जासके। यह अगर सम्भव होता तो प्राणी घाटे भ्रमसन्तोप-जहां सन्तोप का कोई कारण म रहता। नहीं होता किन्तु मोह या अहकार से सन्तोष- . इसके सिवाय इस ध्येय में यह आपत्ति तो सामग्री के विषय में भ्रम होजाता है वह मूठा है ही कि मरने के बाद सुखदुम्बरहित ऐसी मुकाऔर व्यर्थ सन्तोष भम-सन्तोष या वृथा-सन्तोष वस्था सम्भव नहीं है जैसी कि कुछ दार्शनिकाने है। जैसे वो तो अपने प्राकृतिक कारणो से मानी है। । होती है कदाचित् उचित कारण न मिलने से कभी। . रुकजाती है तो टसपाच दिन बाद अनुकूल कारण
इसप्रकार दुखाभाव रूप ध्येय असम्भव मिलनेपर फिर होजाती है। ऐसे अवसरपर कोई
है और सम्भव हो तो इससे प्राणिजगत् घाटे में
र दिसपाच दिन भजन-पूजन मत्र या, अनुष्ठान करे
रहेगा। इसलिये ग्रह धेय स्वीकार नहीं किया
जासकता। और जब प्राकृतिक कारण से वर्षा होजाय तो कहने लगे कि मेरे भजन-पूजन मंत्र अनुष्ठान से
हा। जितना दुम्ब है उसे हमे घटाना है + वर्षा हुई है तो यह भ्रम-सन्तोप या पृथा-सन्तोप
और जितना सुम्व है उसे हमें बढ़ाना है, इस
प्रकार ध्येय के एक अंश रूप मे दुखामाव को भी कहलायगा । यह सन्तोप झूठा है। . इ
स्वीकार किया जासकता है, पर वह पूर्ण ध्येय ससार को दुःखमय मानने से दुख-सन्तोप नहीं कहा जासकता । पूर्ण ध्येय विश्वसुखवृद्धि अर्थात मध्यम श्रेणी का सन्तोप होसकता है। है. दुखाभाव उसका एक अंश है। पर सहापर उत्तम श्रेणी का सन्तोप अर्थात् सुख'सन्तोप होना चाहिये था वहां मध्यम श्रेणी का
सुख और पाप ( शिम्मो अंपापो) . । सन्तोष होना जीवन का घाटा है। जिस रसोई प्रश्न-जीवन के ध्येय में सुखपर अगर घर में म्यादिष्ट भोजन मिलसकता हो वहां इतना जोर दिया जायगा तो पाप और अत्याचार