________________
की मनुष्य को पर्वाह न रहेगी। हिसा झूठ चोरी आदि से भी मनुष्य सुखी होने की कोशिश करेगा ।
उत्तर --- पाप से सुख की वृद्धि नहीं होती, बल्कि सुख की वृद्धि मे घातक होने से ही कोई कार्य या विचार पाप कहलाता है। पाप से भी सुखी होने की जो बात कही गई है उसमे सुखपर पूरा विचार नहीं किया गया हैं। थोड़ी देर को किसी व्यक्ति को पाप भले ही सुखवर्धक मालूम हो परन्तु विश्वसुख की दृष्टि से पाप सुखघातक ही होता है। अगर कोई कार्य पापसरीखा दिखनेपर भी विश्वसुख घातक नही है तो समझना चाहिये कि उस अवसर पर वह पाप ही नहीं है। लो पाप है वह विश्वसुखघातक है, दुखवर्धक है। निम्नलिखित सूचनाद्योंपर ध्यान दूने से पता लगेगा कि पाप विश्ववर्धक नहीं है।
१- पाप थोडी देर के लिये ही सुखवर्धक मालूम होता है, बाद में उसका परिणाम बुरा होता है। इसप्रकार आगे-पीछे का टोटल मिलाने पर सुख की अपेक्षा दु.ख की मात्रा अधिक हो जाती है ।
२- पाप एकाध व्यक्ति को सुख देसकता है पर पाप का वह सुख दूसरों के कई गुणे दुःखपर अवलम्बित रहता हैं, इसलिये एक व्यक्ति का थोड़ा-सा सुख अनेक व्यक्तियों के कई गुणे दु को बढ़ाता है, इस प्रकार सब व्यक्तियों के सुखदु.ख का टोटल मिलानेपर उसमें दुःख का पलड़ा ही भारी होता है।
३ - हो सकता है कि किसी अवसर पर पापका दुष्परिणाम दिखाई न दे, या वह इतना थोडा हो कि किसी पर उसका असर ही न हो, पर उससे जो पापी की बिगड़ती है उसका दुष्फल एक दिन बहुत बड़ा होता है । इस प्रकार भविष्य की इस सम्भावना, अविश्वास दूषित मनोवृत्ति प्राटि के कारण विश्वसुख का घात ही होता है ।
४- पाप करते समय भी मनुष्य को दु.ख का काफी सवेदन करना पड़ता है। इसलिये
प७
पाप करना स्वयं एक दुःखप्रद कार्य है क्रोध के समय मनुष्य का संवेदन सुखात्मक नही दुःखात्मक होता है, चोरी करते समय जो भय होता है वह भी दुःख की ही अवस्था है। अज्ञान या असंयम के नशे के कारण इन दुःख -संवेदनों की तरफ मनुष्य ध्यान न दे यह बात दूसरी है, पर भी पाप से दुःख बढ़ता है। उसे ये सब भोगना पड़ते हैं जरूर । इस दृष्टि से
इन बातो से पता लगता है कि पाप विश्वसुखवर्धक नहीं है। विश्वसुखवर्धन का अर्थ हैसार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से अधिकतम प्राणियों का अधिकतम सुख । यही जीवन का ध्येय है । यह ध्येय पाप से पूरा नहीं हो सकता। पाप एक जगह सुख देसकता है पर जब जगह उससे अधिक दुख ही होगा, एक समय सुख ) देसकता है पर सब समय उससे अधिक दुःख उससे कई गुणे प्रखिया को उससे दुःख ही होगा, ही होगा, एक प्राणी को सुख देसकता है पर वह थोडासा सुख देसकता है पर परिणाम में अधिक से अधिक दुख ही देगा, इसलिये कहना चाहिये कि विश्वसवर्णन की नीति का पालन करने और उसे ध्येय बनाने से मनुष्य पाप के पथपर नही चल सकता | विश्वसुखवर्धन पर जितना जोर दिया जायगा, उससे पाप घटेगा | ही । उससे पाप को उत्तेजन नहीं मिल सकता ।
1
1
निजसुख और सर्वसुख (एमशिम्मो अंपुंशिम्भो )
प्रश्न - प्रत्येक प्राणी खुद्द सुखी होना चाहता है दुनिया के सुख से उसे क्या लेना देना १ इसलिये आत्मसुख या आत्मोद्धार ही उसके जीवन का ध्येय होना चाहिये, विश्वसुख की परेशानी के चक्कर मे वह क्यों पड़े ?
उत्तर- विश्वसुख की नीति को अपनाये बिना प्राणी न आत्मोद्धार कर सकता है न सुखी हो सकता है। आत्मसुख या आत्मोद्धार प ध्येय बनाने से मनुष्य गुमराह होजाता है । वह आत्मसुख के नामपर ऐसे स्वार्थ के चकर से पड़जाता है कि स्वार्थ और परार्थ दोनों ही