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दृष्टिकांड
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पासकता है. यहत कुछ पा भी चुका है। जो लोग संसार को दुःखमय मानते हैं वे
१०-पर इन सब क का जोड लगाकर संसार के साथ अन्याय तो करते ही है, अगर भी इतना नहीं होता कि पहिले जो चार प्रकार कोई ईश्वर है तो उसे भी नासमझ या क्रूर क सुम्य बनाये गये है उनकी बराबरी कर सके कहते हैं (क्योंकि उसने ऐसा दुःखमय संसार या पासंग में भी उतर सके। ये सत्र दुःख होने बनाकर प्राणियोंके साथ अन्याय क्यों किया ) पर भी संसार में सुम्य इतना अधिक है कि और सत्य की भी अवहेलना करते हैं, पर सब संसार को दुःयमय नहीं कह सकते। से बुरी बात यह है कि वे एक ऐसे निराशावाद
बुध गृहस्पति आदि ग्रहो पर या का प्रचार करते है जिससे मनुष्य दुःख घटाने श्रादि उपग्रही पर निर्जीवता है । बुध और चन्द्र
और सुख बढ़ाने के काम में हताश शिथिल और पर तो हवा भी नहीं है इसलिये प्राणिसृष्टि भो
किंकर्तव्यविमूह होजाता है । जब दुःख को नहीं है । इसी कारण वहा कोई दुम्ब भी नहीं
संसार का स्वभाव ही मान लिया जाता है तब है। दुःयवादियों से कहाजाय कि क्या तुम पृथ्वी
आदमी यह सोचकर रहजाता है कि स्वभाव की को भी बुध या चन्द्र के समान या अग्निपिंड के
दवा क्या, संसार तो सुधारा नही जासकता,
इसलिये संसार से भागो। पर भागना तो इन समान जीव शून्य बनाना पसंद करते हो ? तो भगोडों के वश की बात नहीं है, भागकर जायंगे दुखवानी भी इसकेलिये तैयार नहीं होंगे साधा
कहा १ क्योकि बिना मरे भाग नहीं सकते और रण लोग भी इसी कारण मरने को तैयार नहीं
मरने से भी वह दुनिया उन्हें मिल नही सक्ती होते। इन सब बातों का कारण यही है कि
जो उनने कल्पना से गढ रक्खी है या किसी संसार में दुख की अपेक्षा सुग्व अधिक है। की कल्पना से मान रक्खी है, इसलिये भागने कभी किसी को थोड़ी देर को दुख की वेदना का डोलकर वे अपनी जिम्मेदारियो को छोडकर मलं ही अधिक हो परन्तु उसके बाद ही सुख सरों के बोझ बनते हैं, और जो शक्ति संसार की मात्रा काफी रहती है इसलिये उस दुःख को को सुख बढ़ाने और दुख घटाने मे लगाई जास. • वदोश्त करके भी लोग सुख की आशा में जीना कती थी उसे बेकार बर्बाद करते हैं। चाहते हैं। इसलिये संसार को हम दुखमय नहीं कह सकते।
प्रश्न-संसार को दुखमय मानने से दुःख
में एक प्रकार का सन्तोष होता है कि ससार तो ११-पर इसका मतलब यह नहीं है कि है इसलिये क्या किया जाय, दुखमय संसार मे जितना दुःख है उसे घटाने की और संसार में सख की आशा ही क्यों की जाय ! जितना सुग्घ है उसे वढाने की कोशिश न की यह सन्तोप भी एक नाम है जो संसार को दुःखजाय । प्रकृति ने जितने साधन तिथे है और मथ मानने से मिलता है। तव संसार को दुःखमनुष्य के पास जितनी विदा चद्धि है उनका भय मानना बुरा क्यो । पूग सदुपयोग किया जाय तो दु.ख नाममात्र उत्तर-सन्तोष तीन तरह का होता है। का रहजायगा और सुख कई गुणा होजायगा। -सुम्बसन्मोप, २-दु खसन्तोप, ३-भ्रमसन्तोष इसकालये इस दुनिया से भागने की जरूरत नही था वृथासन्तोप । पहिला उत्तम है, दूसरा मध्यम, है किन्तु आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक, तीसरा जघन्य ।। राजनैतिक, काति करके इस संसार को नया सुखसन्तोप-सुख या सुखसाधन प्राप्त होने संसार स्वर्गापम संसार बनाने की जरूरत है। से, सफलता प्राप्त होने से, या सफलता का मान ५सा धोनेपर अधिक से अधिक दु साभाव और होने से, सूख या सफलता की आशा से जो सुखवृद्धि होगी।
सन्धोष होता है वह सुखसन्तोष है। यही सन्तोष