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________________ रसानन्द की सामग्री भरी पडी है इससे भी जगत श्रानन्दमय है । यह ठीक है कि इस रसानन्द के साथ कहीं कही विरता की सामग्री भी है पर चुनाव के साधन हमें प्राप्त हैं उससे हम रस सामग्री काफी सरलता से चुन सकते हैं, चुनते भी हैं। अगर कोई नही चुनता तो यह उसकी सुर्खता है प्रकृति का अपराध नहीं । रसोई घर में सुन्दर स्वादिष्ट सुपाच्य भोजन-सामग्री तैयार हो और कोई उसे न लेकर चूल्हे में से कोयला लकडी या राख निकालकर चबाने लगे और फिर कहे कि इस रसोई घर में बेस्वाद चीजें बहुत हैं तो यह उसका पागलपन होगा, रसोईघर का अपराध नहीं । इसी प्रकार प्रकृति के रसभण्डार मे से रस चुनना चाहिये। वस । फिर जीवन में आनन्द ही है। 1 ये चार प्रचार के आनन्द ऐसे हैं जिनसे प्राणियो का जीवन ओतप्रोत है। अधिकाश प्राणियों का अधिकाश का इन्हीं आनन्दों में atter है । और यह आनन्द इतना अधिक है कि जिन्हें हम दुखी कहते हैं वे भी इन्हीं आनयों के कारण मरने को तैयार नहीं होते । ५-इसके सिवाय यश, महत्व आदि के और भी आनन्द दुनिया में हैं। यद्यपि ये विरल हैं पर है। इन सब आनन्दो से यह बात साफ मालूम होती है कि संसार आनन्दमय है । ७- दूसरा बड़ा कष्ट है वीमारी का । साधारातः यह कष्ट ऐसा ही है जैसा कि दिवाली के समय घर की सफाई आदि करने से होता है । बीमारी भी शरीर की सफाई है। जो सफाई प्रतिदिन होने से रहजाती है वह सत्र जुड़कर सालडोसाल से इकट्ठी करना पडती है। इसके बाद शरीर अच्छा होजाता है। ६-हा। इस घातको सुलाया नहीं जासकता कि ससार मे दुख भी हैं। उनमें से सब से वडा दुश्व मृत्यु का है जो कुछ क्षणों के लिये होता है। साधारणतः जीवन की अपेक्षा मृत्यु हुत कम होते हैं और के णी को न हो इसलिये प्रकृति 1 मरते समय प्राणी को बेहोश कर देती है। इतना अधिक * बेदना के समय प्रकृति प्राण को चेहोश कर देती है। इस म लिये साधारणतः मृत्यु का कष्ट चिन्तनीय नहीं अन्य जीवन के निर्माण रत्तण स्थानदान शादि की मे उपयोगी भी है। BT | कोई कोई असाधारण बीमारियाँ होती हैं जोकि अधिकतर मनुष्य के अज्ञान लापर्वाही या असंयम का परिणाम होती हैं। पर ऐसी बीमारियों सौ में एकाध को होती हैं और इसमे मनुष्य को गलती या समाज की गलती अधिक तर होती है, प्रकृति का अपराध बहुत कम। इसलिये इसकेलिये भी हम संसार को दुःखमय नही कह सकते। -कुछ प्राकृतिक कष्ट जरूर ऐसे हैं जिनकी जिम्मेदारी मनुष्यपर नहीं है जैसे बिजली गिरना, बाढ़ थाना, भूकम्प होना आदि । पर इनसे मनुष्य जाति इतना भी संहार नहीं होता जितना वीमारी आदि से होजाता है। लाखों में से एकाध आदमी पर कभी बिजली गिरती है, करो आदमियों में से दसपाच वर्ष में कुछ आदमी भूकम्प आदि से मरते । अन्य कारणों से जो दुख या मौते होती हैं उनके कुछ के समान है। न ६-मानव के सिरपर जो असली दुःख और अन्य कर्मों का भी जोर जिससे बढ़जाता वह है मनुष्यकृत गरीबी, बेकारी, अपमान, लूट, मारकाट, युद्ध, दूवेप ईर्ष्या, कृतघ्नता, असहयोग, आदि कष्ट ही जीवन के वास्तविक कष्ट हैं और इन कष्टों के जो वी कारण अन्य कष्ट बहुत बढ़जाते हैं या चढे मालूम होते हैं। पर इन सब कष्टों की जिम्मेदारी मनुष्य पर है, प्रकृतिपर नहीं। ये अनिवार्य इनपर विजय पाई जा सकती है और ये बिलकुल कम किये जासकते हैं। नहीं है पर प्राणिकृत और भी थोडे बहुत कष्ट मिलजायेंगे पर उनपर मनुष्य सरलता से विजय
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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