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________________ डाकांड - - - - - भक्ति योग [ भजो जिम्मो] २-आदर्श दर्शन-जिसकी हम भक्ति करते किसी आदर्श की, ईश्वर की, या व्यक्ति की हैं वह हमारा आदर्श होता है इसलिये उसका मक्ति आराधना उपासना आदि के सहारे से जो अनुकरण करने की, उसकी तरफ चलने की, योगी जीवन बिताया जाता है, निष्पाप जीवन कुर्नव्याकर्तव्य का निर्णय करने की हमें सुविधा बिताते हुए दुश्खों पर विजय पाई जाती है वह और प्रेरणा मिलती है। भक्तियोग है। इस तरह की शरणागति से प्राणी यह प्रेरणा व्यक्तिदेवों से अर्थात देवोपस को अनेक लाभ होते हैं । उनमे तीन लाभ उल्लेख- महामानवो से विशेष रूप में मिलती है । ईश्वर, नीय हैं। या ईश्वर के समान माने गये गुणदेवों से विशे. सनाथतानुभव ( सरवो इदो) षतः सनाथतानुभव मिलता है और महामानवो २-श्रादर्श दर्शन ( चाम दीये) से विशेष रूप में आदर्शदर्शन मिलता है। यो ३-मर्यादा पालन [ रामो रंबो] ईश्वर सब आदर्शों का आदर्श होने से उससे १-सनाथतानुभव-जिसको हम भक्ति करते श्रादर्शदर्शन भी मिल सकता है, पर वह बहुत हैं वह हमारा रक्षक है, सहारा देने वाला है, कद्र उच्च होने से उसका अनुकरण करने में मनुष्य करनेवाला है इसप्रकार अनुभव से प्राणों को द्वीला पडजाता है। फिर भी महामानवता में परमसन्तोष होना है। निराशा पर वह विजय उसीका अंश माना जाता है इसलिये एक तरह पाता है । अगर इस दुनिया में उसकी कोई कद्र से उसके द्वारा आदर्शदर्शन भी होता है। नहीं करता, अपमान करता है तब भी वह अपने इस आदर्शदर्शन से मनध्य का जीवन इष्ट के सहारे उसे सहन कर जाता है और पवित्र और सत्पथगामी बनता है। सत्पथ का त्याग नहीं करता । इसप्रकार का ३-मर्यादा पालन-भक्ति से मनुष्य मर्यादा अनुभव ईश्वर की भक्ति से अथवा ईश्वर के का पालन भी करने लगता है। ईश्वर या देवपर स्यानपर माने गये गुणदेवों की भक्ति से श्रद्धा होने से वह पाप से डरता है। कर्मफल का मिलता है। विश्वास होता है इसलिये अंधेरे में भी पाप नहीं । मानय ने पकड़ा नही यदि मानव का हाथ । करता। पाप की भावना पैदा होनेपर उससे फिर भी कौन अनाथ अब इंश त्रिलोकीनाथ ।। अन्तर्दश होता है इसलिये पाप से घबराता है। सत्यभक की जगत ने अगर न की पनाह । इसप्रकार वह कर्तव्य की मर्यादा के बाहर जाने | ईश्वर के दरबार में रही उसी की चाह ।। से रुकता है। सत्यभक असहाय बन दर दर पीके धूल। प्रलोभनो का जाल ले जब आया शैतान । पर ईश्वर के द्वार पर उस पर वासे फूल । तब ईश्वर ने भक्त के खीचे दोनो कान ।। जद कि निराशा घेरले ब? जगत का ताप।। सारा लालच उडगया हुआ भक्त का मान । देता आश्वासन मी ईश्वर माईबाप ॥ - वह चौकन्ना होग्या हार गया शैतान ! सत्यभक को जगत ने दी गालियाँ हजार। पापा का अवसर मिला खून मिला प्रकात पर ईश्वर ने प्रेप से लिया उसे पुचकार । पर ईश्वर था दखता पाप रहे सब शान्त ॥ भक अरेला पडापपा रहा न कोह साथ। इसत्रकार किस ये तीन लाम होते हैं। तब ईश्वर ने प्यार से पकड़ा उसका हाथ ॥ परन्तु ये लाभ होते हैं तभी, जब मा हातमाते विपदाएँ करने लगी सभी ओर से चोट। हो। स्वार्थमकि या अन्धमक्ति न हो। सत्यभक्त ने ली तभी सत्येन्धर को श्रोट या तो भक्ति निमित्तभेद से अनेक तरह सत्येश्वर की साधना कभी न मारी जाय। की होती है परन्तु उसके मुख्य मेह तीन है। यह हुडी सी नहीं जो न सिकारी डाय ... र ज्ञानभक्ति २-स्वार्थमक्ति. ३-अन्धमक्ति ।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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