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________________ चौथा अध्यायः जीवक होपंगो] योग दृष्टि (जिम्मो लंको) जीवन के ध्येय के साथ मिलने का नाम रहते हैं। रोग है। ध्येय के मार्ग में जो व्यक्ति काफी आगे इन चारो मे परस्पर कोई विरोध नहीं है । ढिजाता है और पर्याप्त मात्रा मे भोक्ष सुख भी एक ही मनुष्य मे चारों बातें पाई जासकती हैं जाता है वह योगी है। योगी के मुख्य चिन्ह परन्तु जिसमें जिस बात की मुख्यता है उसका है जीवन की पवित्रता और मोक्ष । विवेक तो योग उसी नाम से कहा जाता है। भक्त ग्नुष्य प्रारम्भ में ही आजाता है क्योकि उसके बिना दुनिया के झगड़ों से निवृत्त होकर संन्यासी भी आगे की प्रगति रुक जाती है। अन्य अनेक गुण होसकता है विद्याव्यसनी मी होसकता है और भी पहिले प्राप्त होजाते हैं पर पवित्रता और अपने जीवन के आर्थिक तथा अन्य नायित्व को मोन दोनों अतिम विशेषताएँ हैं और सत्र से पूरी करनेवाला भी होसकता है, परन्तु यदि रडी विशेषता मोक्ष है। क्योंकि अन्य गुण वे उसके जीवन में प्रधानता भक्ति की हो तो वह लोग भी पाजाते हैं जो योगी नहीं होते है । पर भक्तियोगी कहलायगा। इसीप्रकार अन्य योगी मोक्ष पाने पर मनुष्य योगी होजाता है। यों भी दूसरे योग का सहारा लेते हुए भी अपने योग थोडा बहुन मोक्ष हर एक के जीवन में दिग्बाई की मुख्यता से उसी नाम के योगी कहे जायेंगे। देसकता है, पर इतने से कोई योगी नहीं कह. यहा यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि लाता है। योगी का जीवन मोक्षप्रधान होता है। भक्ति में अधिक से अधिक समय लगा देने से काम के सिवार बाकी सुम्ब की अधिकांश पूर्ति कोई भक्तियोगी नहीं होजाता या कर्म में अधिक . वह मोक्ष के द्वारा करता है। मार्ग की दृष्टि का समय लगा देने से कोई कर्मयोगी नहीं होजाता। सफलता योगी बनने में है। अधिकाश आदमियों का अधिकाश समय भक्ति योग चतुष्टय [ जिम्मो जीने ] में कर्म में पठन-पाठन में धोता ही है पर इस. लिये वे भक्तियोगी या कर्मयोगी नही होजाने । योगी के जीवन की सत्र से बडी विरोपता विरापता मुख्य बात योगी होने की है। पहिले यह देखना मोन है। उस मोज्ञ के अवलम्बन के मेड से योगी चाहिये कि वह योगी है या नहीं। योगी हो तो दो तरह के होते हैं। १-व्यानयोगी (मुन्नौजिन्म) फिर विचार किया जायगा कि वह भक्तियोगी है २-कर्मयोगी ( कमोजिम्म), 1 ध्यान योगी तीन या क्रमयोगी है या अन्य योगी है। योगी के तरह होते हैं । भरि योगी, सन्यासयोगी जीवन में पर्याप्त मात्रा में विवेक निष्पापता तथा ३-विद्यायोगः । इसप्रकार योगी के जीवन क य अवस्थासमभाव होता है। उसके होने के बाद ही चार सहारे । दलित्रं चार तरह के योगी है। यह देखा जाना चाहिये कि उसके जीवन में इसग वह मनलय नहीं है कि योगी के किसकी मुन्यना है, जिसकी मुख्यना हो उसे जीवन में कही महाग रहता है, इसका मन- इसी नाम का योगी समझना चाहिये। योगी न न कि मुरुष म क हो रहमा मनपा स्त्रल किया विधा प्रादि होने से कोई मारने या मार के पूरक भनियोगी विधायोगी आदि नहीं कहाजासकता।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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