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________________ शएकांड - - - A - ma पर भी होजाते है। दूसरा कोई ज्ञान हे या ज्ञान कृन मिलनेपर भी उसमे रस का अनुभव करना, की कोई बाहरी सामग्री मिले उससे जो ज्ञाना- जो मिला उसमे सन्तोप मानना था न मिला तो मन्न होगा वह कामज्ञानानन्द [चिंग जानोशिम्मो] भी प्रसन्न रहना मोक्षमय विपयानन्द है। महत्व कहलायगा. पर अपने आप आप में लीन होकर मिलतेपर उसका आनन्द होना काममय महत्वाजो दिव्यदर्शन किया जायगा. सरसुखमय ज्ञान सन्द है पर महत्त्व न मिलनेपर भी अपनी अन्तमाप्त किरा आयगा वह मोक्षमयज्ञानानन्द [ जिन्नजानोगिन्मो] होगा। प्रेम के आदान-प्रदान से रंग योग्यता के अनुसार भीतर ही भीतर महत्व जो आनन्द होगा वह काममय चिगं] प्रेमा का अनुभव करना, ईश्वर परलोक आदि की नन्त होगा, किन्तु अपने आप लीन रहकर विश्व आशा से अपने अन्तरंग महत्व की सफलता से रेम का जो अनुभव किया जायगा वह मोक्षमय प्रसन्न रहना, या जीवन की वास्तविक महत्ता को [जिन्न ] रेमानल होगा। जीवन की सामग्री समझकर बाहर से प्राप्त महत्ताओ की पर्वाह न पाकर जो भानन्द होगा वह काम जीवनानन्द करना आदि मोक्षमय महत्वानन्द है। गैद्रानन्द कहलायगा. किन्तु जी की अनुकूल सामग्री न जो पापानन्दमय है उसका तो त्याग ही करना मिलनेपर भी जीवनभरण मे समभाव के द्वारा है पर पापियों को दंडित होते देखकर जो सन्तोष जो एक तरह की निराकुलता या सन्तोप होगा होता है वह बुरा नहीं है वह काममय रौद्रानन्द वह मोक्षमा जीवनानन्द होगा । विनोद का है, पर जब पापयों को दडित न होते देखा जाय आदान-प्रदान से काममय विनोदानन्द होगा और इस आशा मे सन्तोष माना जाय कि आज किन्त किसी के विनोद न करनेपर भी या गाली नहीं तो कल और यहां नहीं तो वहां, प्रकृति या देनेपर भी जो भावजगत में एक तरह का विनोद परमात्मा दे देंगे तो मोक्षमय रौद्रानन्द होगा। या मुमकरहट पैदा होगी जिससे बाहर का दुःख प्रकार आठ तरह के सख काममय और मोन. असर न करेगा, वह मोक्षमय विनोदानन्द होगा। महोस । जेल आदि के बन्धन से छूटतेपर जो स्वतन्त्रता जीवन का अन्तिम ध्येय सुख बताया गया का सुब होगा यह काममय स्वतन्त्रतानन्न कहलायगा पर बन्धन में रहते हुए भी बच्चों की है। पर उस ध्येय को पाने के मार्ग में दुःख-मुख पवाह न करते हुए, मन में दीनता या दुश्य का का जमघट लगा रहता है। बहुत से दुःख ऐसे भाव न लाते हुए, आत्मा या मन को कौन बौध होते हैं जो विश्वमुखवर्धन मे बहुत उपयोगी है। सकता है इसप्रकार स्वतन्त्रदा का अनुभव करना और बहुत से सुख ऐसे होते है कि उनसे विश्वमोक्षमय स्वतन्त्रतानन्द है। विषयों के मिलने से सुखवन में बाधा पड़ती है इसलिये विवेकपूर्वक जो विययानन्द मिलेगा वह काममय विषयानन्द उनका विश्लेषण कर ध्येय मार्ग को निरापद और ऋहलायगा, विपयों के न मिलनेपर भी या प्रति- सष्ट बनाना चाहिये।
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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