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________________ सन्यामृत [ty] -ज्ञानभाक्त (भनो) ज्ञान का उत्तर-नौकर आदि प्रायः स्वार्थभस्त होते अर्थ यहा विवेक है इसलिये मानवभाषा मे इस है. पर ऐसे भी समझदार नौकर सकते हैं जो विवेकमक्ति [अंक भजो ] कहा गया है। जो गुण आदि के पारसी हो ऐसे नौकर ज्ञानमत भक्ति. गुणानुराग, या विश्वकल्याण को होसम्वे हैं। वे नौकरी छूटजाने पर भी मक्तिन भावना से सच्ची समझदारी के साथ से जाती छोड़ेंगे, कृतन न बनेंगे. अगर अपना कोई पापहै वह ज्ञानभक्ति है। इसमें अविवेक नहीं होना दोपहुआ हो और इस कारण नाहिक ने दुव. दुःस्वार्थ भी नहीं होता। जो विश्वकल्याण का हार किया हो अज्ञा को हो तो भी भक्ति न मूल है या अंग है. विश्वकल्याण में सहायक है, छोड़ेंगे। भी प्रेरक है, मल्याणपथ मे अपने से आगे बढ़ा प्रश्न-विद्यार्थीक द्वारा अध्यापनकी भक्ति, है, उसकी गुणानुराग और ऋवज्ञता से जो कि , या शिष्य द्वारा गुरु की भक्ति ज्ञानभाक्त है ज की जाती है वह ज्ञानभक्ति है। वार्थभक्ति? ज्ञानमन्त्रि में भी स्वार्थ रहता है या होसकता है पर वह विश्वकल्याण का अंग बनकर । उत्तर-होना तो चाहे जान भक्ति, परन्तु रहता है। विश्वकल्याण के विरुद्ध लाकर या होसकता है स्वाभक्ति भी। जहां कृतलता हो, उसकी उपेक्षा करके नहीं होता। जैसे-एक शिष्य अन्याय का समर्थन कालेने की लाल ला हो, किसी सद्गुरु की भक्ति करता है क्योकि सद्गुरु - अपने ऊपर रचित अंकुश रखने के कारण द्वेष से उसे ज्ञान मिला, सदाचार आदिक संस्कार हो वहा सनझना चाहिये कि स्वार्थ भक्ति है। मिले, मनुष्यता का पाठ पहागया नो इल भक्ति यदि गुणानुराग, और गुराज्ञता हो. अनुशासन में स्वार्थ होनेपर मो ज्ञानमति है न्योकि गुरु से द्वेष न हो तो समन्ना चाहिये ज्ञानभाक्त का यह उपकार विश्वकल्याण के अनुकत है, है। धोखा देकर झूठ बोनका अपना काम इसमें गुरुको. सर्वोपकारी या परोपकारी माना निशललेने की वृत्ति हो वह किसी प्रकार की जाता है। परन्त एक व्यक्ति ने चोरी करने में भक्ति नहीं हैं वहां सिर्फ छल है मायाचार है मदद की. इसलिय चोर उसका भक्त शेगया तो ठरापन है। यह स्वार्थभक्ति होगी. क्योंकि इसमें विश्व- प्रश्न-भक्निमात्र स्वार्थमूलक है । कल्याण के विरुद्ध दुःस्वार्थपरता है। ज्ञानभक्ति मनुष्य को ही किसी की भक्ति नहीं करता. कुछ में ऐसी दवापरता नही होती 1 वह जगल. मतलत्र से ही करता है । ईश्वर की भी भक्ति , ल्याण के अनुकूल होती है। हम इसलिनं करते हैं कि उसकी दया से हमाग कोई न कोई स्वार्थ सिद्ध होता है। ऐसे हो स्वार्थ । स्वार्थमन्ति [ तुम भजो ]-विश्वकल्याण से दानी. परोपकारी, समाज सेवा साधुओ की को पर्वाह न करके अपनी स्वार्थपरता के कारण भी भस्ति की जाती है। संकट से सोई हमारा जो भक्ति की जाती है वह स्वाभक्ति है। इस उद्धार करे और हम उसको भक्ति करें तो ऐसे भक्ति में भक्तिपान के गुण दोषों का, पुण्य उद्धारक की मन्ति मे स्वार्थमनि क्यों कहना २ पाप का विचार नहीं होता सिर्फ अपने सार्वका चाहिये । यह तो ज्ञानभक्ति है। विचार होता है। स्वार्थ की मुखरता के कारण यह स्वाधभक्ति कहलाती है। उत्तर-स्वार्थ रहने पर भी मानक्ति होस कती है, यह इस बातपर निर्भर है कि भक्ति - सद्गुरु के यहा कोई नौकर हो करने वाले का मन कैसा है। स्वार्थ अगर विश्वकपार या मका मन हो तो उसे स्वार्थमक्त स्माण का अंग है तो ज्ञानन्ति है अन्यथा योनिमा स्वाभन्नि है। संन्ट में से स्मिी ने हमान
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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