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________________ Eाकाड [ ५] - - - - - - - उद्धार किया, इससे हमारे मन मे यह विचार वाने के लिये भक्ति की जाय तो स्वार्थभक्ति है अाया, कि यह आदमी बहुत परोपकारी है, इसने बिना समझे दिवश भक्ति की जाय तो अन्धः बिना किसी स्वार्थ था जान हिचान के मेरा भक्ति है। उद्वार किया यह पूजा है। इसरखार परोपकारी प्रश्न-जैसे स्वार्थ से भक्ति होती है उसी मानकर अगर हम भक्ति करेंगे तो वह भक्ति स्थिर रहेगी और वह कोई अनर्थ पैदा न करेगी। प्रकार भर से भी होनी है । साधारण जनता बड़े बड़े अफसगे से जो भक्ति करती है यह इसलिये अव कल्पना करो वह उद्धारक आर मी हमारा न.II अफसरा से वह किसी भलाई की आशा निरीक्षक या न्यायाधीश वना और उसने अपराध का उचित : दिया, तो उससे दंह पाकर भी। ___ करती है, किन्तु इसलिये कि नाराज होकर कुछ चुराई न करले। इसरकार धर्म के नामपर भी हम उसको भक्ति रखेंगे, और उसकी उद्धार-. शनैशर शादि की पूजा की जाती है यह सब कसा या उपकार की गात्रा को न से भूनेंगे न कम करेंगे। तब हम ज्ञानभक्त कहलायेंगे, भयभक्ति है। भयभक्ति को ग्वार्थभक्ति के समान अन्यथा जितने अशा में भक्ति कम होगा उतने अलग मद क्या नहीं बताया? अंशों में वह स्वामका साबित होगी। स्वार्थ. उत्तर-भ केयों का सूक्षा विश्लेषण क्त्यिा भक्ति थोड़े से ही अप्रिय प्रसंग से था आगे लाय तो मपक्ति के अनेक भेद बताये जायेंगे। स्वार्थ की आशा न रहनेपा नष्ट होजाती है या जैसे कि आगे मानीवन प्रकरण मे बताये गये कम होजाती है, वह न्याय-अन्याय की पर्वाह है। पर यहा तो मलाई धुराई के सपतौल की नहीं करती, सिर्फ स्वार्थ की पर्वाह करती है। दृष्टि से सब भक्तियों को तीन भागों में या तीन किसी ने आज स्वार्थसिद्ध कर दिया, भले ही वह जातियों में बाट दिया गया है। यहा मयमक्ति अन्याय से कर दिया हो, तो भक्ति होगई, कल स्वार्थमान में शामिल है। सार्थवासना दो तरह स्व भी होती । एक आशा पूक (आशोवेर ) दूसरी स्वार्थ सिद्ध न हुआ, मले ही न्याय था औचित्य । हानिरोधक (मुग्गो) श्राशापूरक में कुछ के कारण उसने स्वार्थ सद्ध करने से इनकार किया हो तो भक्ति नष्ट होगई। मी भक्ति स्वार्थ पाने की इच्छा रहती है और हानिरोधक में हानि भक्ति है । ज्ञानमति ऐसी चंचल नहीं होती न स वच । की। दोना ही स्वार्थ है । भयभक्ति में उससे अन्याय को उतेजन मिलना है। ज्ञानर्मात . - यही हानिरोधक स्वार्थवासना रहती है इसलिये उस व्यक्ति की भी होगी जिसने हमाग भले ही इस स्वार्थभक्ति के प्रकरण मे डालना चाहिये। उपकार न किया हो पर जगत का उपकार किया एन- भयभक्ति या स्वार्थभक्ति को कि हो । स्वार्थभक्ति से व्यक्ति की उपेक्षा करेगी। यो कदना चाहिये यह तो एक तरह का छल ईश्वर की भक्ति भी ज्ञानमकि स्वार्थक्ति ___ कपट या मायाचार है। अन् शनी में इस शिष्टाचार भी कह सकते हैं पर यह कि तो या अन्धभक्ति होसकती है। ईश्वर को आदर्श नहीं है। मानकर उस आदर्श की ओर बढ़ने के लिये भक्ति की जाय, उसे नियन्ता मानकर पाप से बचने के उत्तर-स्वार्थमक्ति [ लुम्म भा)] शिष्टालिये भक्ति की जाय, उसे हितोपदेष्टा मानकर चार [नुमो] ओर चापलूसी [ रंजूषो के बहुत उसकी आज्ञा का पालन करके पवित्र जीवन पास है, फिर भी उनमें अन्नर है। जहा भक्ति धनाने के लिये भक्ति की जाय, अपने को पाप है वह: विनय अनुराग का वेश मन में है, शिधा. और प्रलोभनो से हटाने के लिये आत्मसमर्पण के चार और चालूती में मन के विनयका विचार नहीं उद्देश से भक्ति की जाय तो यह ज्ञानभक्ति है। किया जाता। बल्कि इस में वश्चना भी होसकनी है दिनरात पाप करके उसपर मामी की मुहर लग- स्वार्थभक्ति था भयम,क्त से यह बात नहीं है। --- ---
SR No.010834
Book TitleSatyamrut Drhsuti Kand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatya Samaj Sansthapak
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1951
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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